विनोद पदरज की कविताएँ





















कोई तो रंग है’ और ‘अगन जल’ संग्रहों के कवि विनोद पदरज (13 फरवरी 1960-सवाई माधोपुर) का तीसरा संग्रह ‘देस’ बोधि प्रकाशन से इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है. स्थानीयता को सलीके से बरतने और शिल्प की कसावट के लिए वे जाने जाते हैं. इस संग्रह के लिए उन्हें बधाई.

विनोद पदरज कुछ कविताएँ आपके लिए  



विनोद पदरज की कविताएँ                         









गुलाम मोहम्मद

गुलाम मोहम्मद मेरा दोस्त है
आप कहेंगे यह भी कोई कहने की बात है
ऐसा ही समय है कि यह कहने की बात है
इसी वजह से हत्या होगी मेरी
इसी वजह से मारा जाएगा गुलाम मोहम्मद.





गुलाम मोहम्मद

हमसे हमारे दरख़्त छीन लिए गये थे
और बैठे थे हम
बिजली के नंगे तारों पर
और उड़ा था वो
दाना कहां है, कहां है दाना कहते हुए
और सऊदी चला गया था
और मैं फूट फूट कर रोया था
वही मेरा दोस्त मेरा जिगरी मेरा यार गुलाम मोहम्मद
जिसके साथ मैंने मछली पकड़ना सीखा पतंग उड़ाना
कुओं बावड़ियों में तैरना गमठा लगाना
जिसके साथ मैं जंगलों में घूमा खण्डहरों में
ईद पर दीवाली पर सिंवइंय्या मिठाइयां खाने की
रवायत तो सदियों पुरानी थी
पर मैंने उसके साथ हाईदौस में कटार चमकाई
ताजिये की खपच्चियों पर पन्नियां चिपकाईं
उसने मेरे साथ महीनों रामलीला देखी
जिसके साथ मैं महफूज था स्कूल में कॉलेजमें
वह दबंग लड़कों से मेरे लिए शेर की तरह भिड़ जाता था
वही मेरा दोस्त गुलाम मोहम्मद
कल रात मेरे स्वप्न में आया

मैं कहीं से लौट रहा था
कि झलका पीछे वह विनोद विनोद पुकारता
मेरी सांस फूल गई
कलेजा हलक को
सन्नाटा रीढ़ में
पसीने से नहा गया
शायद उसके पास कोई पिस्तौल हो
या फिर छुरा धारदार
दूर से भी करे वार
तो तड़प कर गिरूंगा
और सारे घर में कोहराम मच जाएगा
दम साध कर भागा
कि पीछे पीछे वह भी विनोद विनोद पुकारता
मैं घर में घुस गया
किवाड़ बन्द कर लिये सिटकनी चढ़ा दी
खिड़की से झांका तो वह द्वार पीट रहा था
बार बारऔर लगातार वह द्वार पीट रहा था विनोद विनोद पुकारता
पर मैंने अंत तक द्वार नहीं खोला
एक बार भी ललक कर गुलाम मोहम्मद नहीं बोला
आखिर थक हारकर लौट गया वह

कौन सा मोड़ है यह गुलाम मोहम्मद
हम जो दुनिया को प्यार करते थे और सोचते थे कि बदल देंगे यह दुनिया,
दुनिया को प्यार करते हुए
कहां चले आये हम गुलाम मोहम्मद
कौन ले आया हमें यहां तक
हमारे पुरखों ने तो सन सैंतालीस का आग का दरिया
साथ साथ पार किया था.

  



भादवे की रात

अंधड़ पानी सांप सळीटों भरी भादवे की रात है यह
चारों तरफ फसलें हैं-मक्का बाजरा
मेंढक टर्रा रहे हैं
मैं राह भूल गया हूँ
दूर कुछ रोशनी दिखाई पड़ती है
गिरता पड़ता भागता ठिठुरता मैं वहां पहुँचता हूँ
जहां एक छान में
एक बूढ़ा और एक बुढ़िया बैठे हैं ब्याळू करके
लालटेन जल रही है
मुझे सामने देखकर बूढ़ा पूछता है-कौन हो
मैं उसे अपनी कथा सुनाता हूँ
सुनकर बूढ़ा कहता है-चौमासे की रात है, फिर डुल जाओगे,यहीं डट जाओ
बुढ़िया कहती है-मैं रोटी सेक देती हूँ खालो और आराम करो
जगह जगह टपकती छान के कोने में चूल्हा है
जिसे वह सुलगाती है
गीली सीली टिंगटियाँ जलाती है
खानाबनाती है
और मुझे पास बिठाकर खिलाती है
बूढ़ा मेरे लिए नई गूदड़ी बिछाता है
फिर हम नींद आने तक बतियाते हैं

सुबह
मुझे चाय पिलाकर बूढ़ा
सही गैल तक छोड़कर जाता है

यह मेरे किशोरावस्था की बात है
जिसे याद कर मैं आजकल ढरक ढरक रोता हूँ





उनकी बातचीत

मेरे पिता बहुत अच्छा रेजा बुनते थे
ओड़ पास गांवों में धूम थी उनकी
हटवाड़े जाते थे तो माल कम पड़ जाता था
किसान तो उसकी खोळ से ही सर्दियां काट देते थे

मेरे पिता बहुत अच्छी जूतियां बनाते थे
चमड़े की बहुत परख थी उनको
और सूत की सिलाई ऐसी
कि जूतियां टूटती ही नहीं थीं
छोड़नी पड़ती थी
पर जिसने एक बार पहन ली बार बार आता था
काटती बिल्कुल नहीं थीं
पांव ऐसे मुलायम रहते थे उनमें कि जैसे मक्खन हों

मेरे पिता बहुत अच्छी छपाई करते थे
एकदम पक्का रंग
कपड़ा फट जाता था पर रंग नहीं जाता था
सावों में तो फुर्सत ही नहीं मिलती थी उनको

मेरे पिता बहुत अच्छी मूर्तियाँ बनाते थे
मुहं बोलती हुईं
कई मंदिरों में हैं उनकी बनाई मूर्तियाँ
सामने जाओ तो हाथ अपने आप जुड़ जाते हैं

मेरे पिता नामी कारीगर थे
खाट और मचल्या और पालना और गुड़ले
पीढ़ी दर पीढ़ी चलते थे
और सग्गड़ और गाड़ियां तो ऐसी
कि दूर दूर से लोग देखने आते थे

मेरे पिता के घड़े मशहूर थे इलाके में
वे छांट कर मिट्टी लाते थे और गूंदते थे आटे की तरह
फिर चाक पर घूमाकर अचक उठाते थे
पकाते थे आवे में
ऐसे घड़े जैसे सारे ही जुड़वां हों
मां उन्हें गेरू और खड़ी से रंगती थी
दो दो गर्मियों तक वापरते थे लोग
मजाल जो पानी ठंडा न रहे

मेरे पिता पत्थरों पर नक्काशी करते थे
कसीदा कारी
कैसे कैसे जालियां झरोखे बनाते थे
कि भीतर वाला तो सब कुछ देख लेता था
पर बाहर वाले को भीतर का कुछ भी नजर नहीं आता था

गर्व से बतियाते हैं दुपहरी करते हुए वे मजूर बेलदार
जिनके पिता सेठ साहूकार नहीं
जिनके पिता पंडित ब्राह्मण नहीं
जिनके पिता ठाकुर जमींदार नहीं





नंदिनी गाय

हमारे घर में एक गाय है
नंदिनी नाम है उसका
हमारे प्राण बसते हैं उसमें

बड़री बड़री आंखें
लटकती गादी
त्वचा इतनी चिकनी कि नजरें नहीं ठहरतीं
थोड़ी शैतान भी है
पत्नी के अलावा किसी को दूध नहीं देती
धार काढ़ते वक्त न्याणा बाँधना पड़ता है

पिछले तीन दिन से वह ताव में है
बस में नहीं आती
खूँटा तुड़ाती है
मैं उसे पास के गांव ले जाना चाहता हूँ
जहां किसी के पास नागौरी वृषभ है
पर कैसे ले जाऊं
जुगाड़ में ले जाऊं तो ख़तरा बहुत है
अखबार भरे पड़े हैं
इससे अच्छा तो यह है
कि दाढ़ी कटा लूं
धोती कुर्ता पहन लूं
रामनामी ओढ़ लूं तिलक लगा लूं
आधार कार्ड रख लूं जेब में
गौशाला के चन्दे की रसीदें
चारों धाम ढोकते खुद की तस्वीरें
तब निकलूं-सड़क के रास्ते
सबसे बतियाता, राम राम करता
रुकता,बीड़ी पीता, कहता
कि ताव में है

फिर भी डर लग रहा है
धुकधुकी हो रही है
रीढ़ सिहर रही है
बार बार बच्चों का खयाल आ रहा है
जबकि जाना आना मात्र एक कोस है
और अपना ही देस है





नतशीश पेड़

जिन पेड़ों पर अंग्रेजों ने किसानों को फांसी पर लटकाया था
अट्ठारह सौ सत्तावन में
वे तने हुए थे
सुतवां मेरुदण्ड, उन्नत भाल
आज वे नतशीश हैं
शर्म में डूबे हुए
लुंज पुंज
उनकी शाखों से कर्ज में डूबे किसान लटके हैं
खुदही फांसी का फंदा बनाकर

अरे ये तो वही लूगड़ियाँ हैं
जिन्हें वे चाव से खरीदकर लाये थे कस्बे के बाजार से
जिन्हें ओढ़कर धराणियां चलती थी तो आंगन के रूप चढ़ता था
पेड़ों को उनके चूड़े फोड़ने की आवाज सुनाई देती है
जो कितनी भिन्न है अठारह सौ सत्तावन से.





गीत

अपनी मैली कुचैली जर्जर लूगड़ियों से लाज किये
सत्तर पार की कुछ वृद्धाएं
गीत गाती थीं
जिनमें स्त्रियों के दुःख ही दुःख थे
जिन्हे सुनते हुए
आंखें भर आती थीं

मैंने उनसे कहा-
सुख के भी कुछ गीत गाओ

अचकचा गईं वे
चुप हो गईं
विचार में पड़ गईं
फिर उन्होंने रुंधे स्वरों में
विवाह के कुछ गीत गाये
भतैयों के कुछ
कुछ जच्चा बच्चा के
और अंत में
देवी देवताओं के.





कृषक

मैं उसकी जर्जर झोंपडी का चित्र बनाना चाहता था
और उसके जीर्ण शीर्ण लत्तों चीरड़ों का
और उसकी जूतियों का
जिनमें यात्राएं नहीं
यातनाएँ भरी थीं
और उसके चेहरे का
जो उसकी झोंपड़ी लत्तों जूतियों का कोलाज था
पर मैंने देखा
मेरा पूरा कैनवास
थिगलियों से भर गया है
जिसमें दो आंखें जल बुझ रही हैं.

_____________________________ 

विनोद पदरज 
3/137, हाउसिंग बोर्ड, सवाई माधोपुर, राजस्थान, 322001
फोन : मोबाइल-9799369958

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  1. लोक मन को अभिव्यक्त करती हुईं लोक रंग में रंगी कविताएँ.

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  2. स्वप्निल श्रीवास्तव2 जुल॰ 2019, 10:41:00 am

    गुलाम मोहम्मद , उनकी बातचीत और नंदिनी गाय । बहुत अच्छी कविता है । स्थानीयता का उपयोग कविता को नया रंग देता है ।विनोद जी को बधाई और समलोचन को साधुवाद ।

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  3. कृष्ण कल्पित2 जुल॰ 2019, 10:43:00 am

    'लांग-नाइनटीज़' वाले जेबकतरों को मालूम होना चाहिए कि विनोद पदरज समकालीन-हिंदी-कविता के नौवें-दशक का महत्वपूर्ण कवि है । विनोद पदरज का नया कविता-संग्रह 'देस' शीर्षक से आया है जो नितांत पठनीय है और आज की कविता के बीच अपनी देशज चेतना के साथ अलग से पहचाना जाएगा ।

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  4. विनय कुमार2 जुल॰ 2019, 11:15:00 am

    विनोद पदरज उन चंद कवियों में जिन्हें पढ़कर कई बार लगता .. यार इस कवि को फ़ोन करके बधाई दो। .. बेहतरीन कविताएँ।

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  5. कैलाश मनहर2 जुल॰ 2019, 11:16:00 am

    विनोद पदरज वास्तविक लोक के कवि हैं...लोक तत्त्वों को वे गहरी दृष्टि से देखते-परखते हैं...संवेदना उनकी कविताओं में छनती हुई प्रतीत होती है...विनोद जी को बधाई और समालोचन को साधुवाद कि ये कवितायें सांझा की

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  6. ये कविताएं गहन आशयों को उद्घाटित करती हैं, वह भी आमफहम भाषा में। सौष्टव और गठन के लिहाज से भी विशिष्ट, महत्वपूर्ण । विनोद जी को साधुवाद, आपको भी।

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  7. Sawai Singh Shekhawat2 जुल॰ 2019, 7:10:00 pm

    विनोद पदरज लोक और जन से सीधे जुड़े हैं।उनके यहाँ कविताएँ लिखी नहीं जाती,होती हैं-नए संकलन के लिए बधाई

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  8. पदरज की कविताओं में मन की थाह हैं जन के मन की थाह ।
    अखिलेश श्रीवास्तव

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  9. पदरज की कविताओं में मन की थाह हैं जन के मन की थाह ।
    अखिलेश श्रीवास्तव

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  10. अद्भुत कविताएँ. समकालीन राजनीतिक व्यंग्य और समाज मे मनुष्य का एक चेहरा गुलाम मोहम्मद की पीड़ा है.नंदिनी गाय है. बहुसंख्यक उसको देख भी नही पा रही रही.
    अंत मे कहते है "अपना ही देश है"

    मेरी स्थानीय पृष्ठभूमि पदरज जी की भूमि है. इसलिए लोक से लिए शब्द कलेजा भेद देते है. वाह!सर को बहुत शुभकामनाएँ. समालोचन ब्लॉग का शुक्रिया

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  11. विजय राही3 जुल॰ 2019, 5:28:00 pm

    विनोद पदरज जी आज के समय के बहुत महत्वपूर्ण कवि है।इनका 'अगन जल ' के बाद नया कविता संग्रह 'देस' पढ़ा। 'देस' कविता संग्रह की सारी कविताएँ बार-बार पढ़ने योग्य। संवेदना का उच्च स्तर और फिर लोक-सौन्दर्य तो अद्भुत है। स्त्रियों पर बेजोड़ कविताएँ....कि पढ़ते पढ़ते आह निकलती है ।अनायास ही मन कविताओं के साथ विचरने लगता है।साझा करने के लिए समालोचन का शुक्रिया।

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  12. विनोद पदरज की कविताओं में कुछ भी दिखावे का नहीं है। और शायद इसीलिए उनके यहाँ शिल्प और संवेदना का चालू मुहावरा भी नहीं है।
    मुझे लगता है कि इन कविताओं में जीवन के जो चित्र, स्थितियाँ और आसंग आए हैं, उन्हें बैठे-ठाले, अभ्यास या टेकनीक के दम पर हासिल नहीं किया जा सकता।
    यह शायद गहरी करुणा, पक्षधरता और न्याय की समझ से बनी कोई शै है जिसे विनोद जी कविता की तरह रचते हैं।
    किशोरावस्था में बारिश में भटक जाने के बाद बूढ़े-बुढ़िया की छान में आसरा मिलने की बात को आज याद करके रो पड़ना; भरी दोपहरी में मज़दूरों का अपने पिताओं के हुनर को याद करने की विडंबना और गुलाम मोहम्मद के साथ जंगल-जंगल घूमना, बावड़ियों में तैरना, मछली पकड़ना और अंत में उसी से पूछना कि " कहाँ चले आये हम, कौन ले आया हमें यहाँ"― इतना दुख साधारण कवि नहीं संभाल सकता!
    एक बात और, जैसा कि कई टिप्पणियों में कहा गया है, विनोद जी को लोकमन या देशज चेतना का कवि कहना ग़लत होगा।
    मेरे ख़याल से आंचलिकता या देशजता एक भौगोलिक स्थिति ज़्यादा होती है, उसका संवेदना की गहराई से कोई अनिवार्य संबंध नहीं होता।

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  13. अपने आस पास के परिवेश को पूरी ईमानदारी से उकेरती कविताएं हैं , विनोद पदरज की । इन कविताओं में करुणा भी है और लोक का ठेठ रंग भी और कसावट भरा शिल्प भी

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