सुपरिचित आलोचक ओम निश्चल की लेखन शैली की यह विशेषता है कि वह जो भी करते
हैं पूरी तैयारी के साथ करते हैं और लगभग सभी पक्षों को समेटने का प्रयास करते हैं.
उनके यहाँ मुकम्मल दर्ज़ होता है. वे आलोच्य का गहन अवलोकन प्रस्तुत करते हैं.
मरहूम लेखिका कृष्णा सोबती का क़द इतना बड़ा और पैरहन इतना बहुवर्णी है कि वे
खुद आलोचकों के लिए चुनौती बन जाती हैं. ओम इस चुनौती को इए आलेख में
स्वीकार करते हैं.
आलेख प्रस्तुत है.
कृष्णा
सोबती
विरुद्धों के
सामंजस्य से टकराती हुई एक कथाकार
ओम निश्चल
किसी
भी लेखक के बारे में जानना हो तो किसी ऐसे लेखक का मंतव्य पढ़ो जो उसका समकालीन
हो और जिसकी टिप्पणी भरोसेमंद हो. हिंदी के जाने माने कवि कुँवर नारायण ने अपनी
पुस्तक रुख़ में सोबती पर जो लिखा है वह ध्यातव्य है. अचरज यह कि अपने
समकालीनों पर एक से एक नायाब संस्मरण दर्ज करने वाली सोबती ने शायद बहुत कम कुंवर
नारायण पर कहा होगा. हम हशमत के तीन खंड तो इसके गवाह हैं. पर कुंवर नारायण
उन पर लिखते हुए कहते हैं,
'हर लेखक की अपनी शैली होती है, भाषा को उस ख़ास अंदाज में बरतती हुई, जो बाद में उसकी खास पहचान बन जाती है. कृष्णा सोबती का भी जिन्दगी को देखने बूझने और बयां करने का एक फक्कड़ तरीक़ा है, जो अक्सर हमें सरशार के फ़साना ए आज़ाद की याद दिलाता है. उनकी उर्दू में लखनवी नफ़ासत है , तो पंजाब का ठेठ अक्खड़पन भी.'
इसी सिलसिले में वे ऐ लड़की को उनकी कलम का सबसे कोमल छोर मानते हैं तो जिन्दगीनामा को दूसरा छोर, जो कि लगभग ठेठ पंजाब है.
'हर लेखक की अपनी शैली होती है, भाषा को उस ख़ास अंदाज में बरतती हुई, जो बाद में उसकी खास पहचान बन जाती है. कृष्णा सोबती का भी जिन्दगी को देखने बूझने और बयां करने का एक फक्कड़ तरीक़ा है, जो अक्सर हमें सरशार के फ़साना ए आज़ाद की याद दिलाता है. उनकी उर्दू में लखनवी नफ़ासत है , तो पंजाब का ठेठ अक्खड़पन भी.'
इसी सिलसिले में वे ऐ लड़की को उनकी कलम का सबसे कोमल छोर मानते हैं तो जिन्दगीनामा को दूसरा छोर, जो कि लगभग ठेठ पंजाब है.
कृष्णा
सोबती जिस एक और बात के लिए जानी जाती है वह है उनका मिजाज. उनके अनुकूल न होने पर
उनसे सामंजस्य बिठा पाना मुश्किल होता है. उनके इस मिजाज के बारे में कुँवर जी
कहते हैं, 'सोबती का लेख न तो
रियायती है, न सिफारिशी. जब तारीफ़
करती हैं तो भरपूर ,
खुले दिल से और प्रहार करती हैं ,
तो कोई कोर-कसर उठा नहीं रखतीं.'
उनके संस्मरण इस बात के गवाह हैं. हम हशमत के तीनों खंडों में उन्होंने अपने मित्र लेखकों के बारे में खुल कर लिखा है. बिल्कुल रसीले गद्य की मानिंद जैसे वह कोई शहद का छत्ता हो. पर वहीं ऐसे भी संस्मरण हैं जो उनके धुर अक्खड़ मिजाज की भी गवाही देते हैं. जैसे हम हशमत में रवीन्द्र कालिया पर लिखा संस्मरण जो उनके उस संस्मरण के प्रत्युत्तर में कथादेश में लिखा गया था जो उन्होंने किसी मामूली घटना को केंद्र में रख कर तद्भव के लिए लिखा था.
उनके संस्मरण इस बात के गवाह हैं. हम हशमत के तीनों खंडों में उन्होंने अपने मित्र लेखकों के बारे में खुल कर लिखा है. बिल्कुल रसीले गद्य की मानिंद जैसे वह कोई शहद का छत्ता हो. पर वहीं ऐसे भी संस्मरण हैं जो उनके धुर अक्खड़ मिजाज की भी गवाही देते हैं. जैसे हम हशमत में रवीन्द्र कालिया पर लिखा संस्मरण जो उनके उस संस्मरण के प्रत्युत्तर में कथादेश में लिखा गया था जो उन्होंने किसी मामूली घटना को केंद्र में रख कर तद्भव के लिए लिखा था.
सोबती की कहानियां
सोबती
अपने कथा साहित्य में जिस साहसिकता का प्रतीक मानी जाती हैं वह उनके व्यक्तित्व
को एक शाश्वत ऊँचाई देता है. कथा साहित्य या लेखन में स्त्री विमर्श के लांच
होने के पहले वे अपने आख्यानों में तेज तर्रार नायिकाओं की जननी बन चुकी थीं.
नैतिकता के कागज़ी प्रतिमानों को ध्वस्त करते हुए मित्रो मरजानी लिखा तो ऐ
लड़की उनके विद्रोही तेवर की एक और मिसाल बन कर सामने आई. सोबती ने शुरुआती
दौर में कहानियां लिखीं जो उनके संग्रह बादलों के घेरे में संकलित हैं.
हालांकि यह संग्रह सन 1980 में सामने आया.
वे पात्रों को अपने बीच से उठाने में सिद्धहस्त
हैं. इन कहानियों में उन्होंने दादी अम्मा का चरित्र सँजोया है.
बहनें में बहनों का किरदार जैसे वे अपनी लेखनी से जीवंत बना देती हैं.
(Krishna Sobti with the late Argentine poet Roberto Juarroz during a poetry festival in Bhopal in 1989. (Source: Vijay Rohatgi) |
सोबती
विभाजन व आजादी के संघर्ष के दौर से गुजरी कथाकार हैं सो विभाजन की कचोट को उनहोंने अपनी कहानियों और खास तौर पर
अपने आखिरी उपन्यास गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान में भरपूर
जिया है. उनकी कहानियों में आए चरित्र दादी अम्मा,
कामदार भीखमलाल,
मां, लामा,
व बादलों के घेरे कहानी की बुआ देर तक अपनी विशिष्टताओं से गूँजते रहते हैं. डरो
मत,
मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा --- छोटी किन्तु हारर
पैदा करनेवाली कहानी है. जैसे विभाजन की मारकाट के शब्द हमारे कानों में डिकोड हो
रहे हों. वे विभाजन के दौरान लारियों से भर भर कर ले जाई जाने वाली सवारियों का
जैसे जीवंत चित्रण करती हैं वह काबिलेगौर है. जरा सी कहानी और इतने बारीक डिटेल्स
कि आंखें भर आएं. कहानी के अंश देखें,
इस कहानी के बीच बीच में उभरती आवाज 'डरो मत मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा' जिस तरह का दबाव मस्तिष्क पर डालता है वह विभाजन के दौरान मची मार काट के दृश्य को उपस्थित कर देता है.
''एक निर्जीव युवक, पथरायी आंखें, सूखे बाल और नीले अधर, ड्राइवर ने हमदर्दी के गीले स्वर में उस बेजान शरीर को झकझोर कर कहा, 'उठो भाई, अपना वतन आ गया...'.वतन! ओठ फड़फड़ाए----दो सोयी सोयी भरी हुई बाहें उठीं, ओठ फड़फड़ाए, ''डरो मत, मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा...''
आवाज मौत की खामोशी में खो गयी. पथरायी हुई आंखों की पलकें जड़ हो गयीं---वतन की यात्रा खत्म हो गयी.''
इस कहानी के बीच बीच में उभरती आवाज 'डरो मत मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा' जिस तरह का दबाव मस्तिष्क पर डालता है वह विभाजन के दौरान मची मार काट के दृश्य को उपस्थित कर देता है.
इसी
संग्रह में उनकी एक कहानी सिक्का बदल गया है. विभाजन की त्रासदी का ऐसा
हिला देने वाला वृत्तांत की रुह हिल उठे. शाह जी के जाने के बाद शाहनी अकेली हो
गयी हैं-- बूढी असहाय. पर गांव वालों से न
चाहते हुए भी उसे जुदा होना पड़ रहा है. उसके जाने की बात से सारा गांव रो उठा है.
पर वह अब और यहां रुक नहीं सकती. पर जाएगी कहां. शाह जी के जाने के बाद वैसे ही वह
अकेली हो गयी थी अब न जाने कहां दाना पानी लिखा हो. उसे जाना होगा क्योंकि राज
पलट गया है, सिक्का बदल गया है. उसके
जाने की खबर से शेरे का दिल टूट गया है,
इसमाइल उससे कुछ आशीषें मांगता है. स्मृति का एक बड़ा कालखंड छोड़ कर शाहनी चल
पडी है, चल पड़ा है ट्रक. किसी अजानी राह पर. आंखें बरस
रही हैं, दाऊद खां विचलित हो कर
देख रहा है उसे जाते हुए. कुछ पता नहीं ट्रक चल रहा है कि वह स्वयं चल रही है.
छोटी छोटी कहानियों में एक औपन्यासिक असर पैदा कर देने वाली कृष्णा सोबती ने जो
रचा है वह कहानी या उपन्यास भर नही है,
वह महज आख्यान नही है ; वह
बदलते हुए युग की दास्तान है. वह बदलते हुए चरित्रों की दास्तान है.
एक अन्य कहानी मेरी मॉं कहॉं.... भी विभाजन को शिद्दत से महसूस करने वाली कहानी है. युनुस गाड़ी चला रहा है. सड़कों पर मारकाट मची है. मुसलमानों को काफिर कहा जा रहा है. उसे भी. अचानक उसे सड़क पर एक घायल बच्ची दिखती है. अभी जान है. उसे अपनी बहन नूरन याद आती है जिसे छोड कर बेवा मॉं चल बसी थी. वह उसे उठा लेता है और अस्पताल ले जाता है. तमाम कश्मकश से गुजरते हुए वह उसका इलाज कराता है . बच्ची ठीक हो रही है पर उसका चेहरा देखते हुए उसे भय लगता है कहीं वह मार न डाले. काफिर जो है. होश आते ही वह कहती है मुझे कैंप में छोड दो. वह कहता है मेरे घर चलो. वह पूछती है मेरी मां कहॉं है, मेरे भाई कहां, मेरी बहन कहॉं? मार्मिक कहानी है यह. यों तो उनकी और भी कहानियां बहुत अच्छी हैं. मनोविश्लेषण में लाजवाब. कुछ पारिवारिक मिजाज की कहानियां भी हैं जैसे बहनें और दादी अम्मा कहानी अपने में पारिवारिकता की एक अजीब सी सुगंध से रची बसी हैं.
एक अन्य कहानी मेरी मॉं कहॉं.... भी विभाजन को शिद्दत से महसूस करने वाली कहानी है. युनुस गाड़ी चला रहा है. सड़कों पर मारकाट मची है. मुसलमानों को काफिर कहा जा रहा है. उसे भी. अचानक उसे सड़क पर एक घायल बच्ची दिखती है. अभी जान है. उसे अपनी बहन नूरन याद आती है जिसे छोड कर बेवा मॉं चल बसी थी. वह उसे उठा लेता है और अस्पताल ले जाता है. तमाम कश्मकश से गुजरते हुए वह उसका इलाज कराता है . बच्ची ठीक हो रही है पर उसका चेहरा देखते हुए उसे भय लगता है कहीं वह मार न डाले. काफिर जो है. होश आते ही वह कहती है मुझे कैंप में छोड दो. वह कहता है मेरे घर चलो. वह पूछती है मेरी मां कहॉं है, मेरे भाई कहां, मेरी बहन कहॉं? मार्मिक कहानी है यह. यों तो उनकी और भी कहानियां बहुत अच्छी हैं. मनोविश्लेषण में लाजवाब. कुछ पारिवारिक मिजाज की कहानियां भी हैं जैसे बहनें और दादी अम्मा कहानी अपने में पारिवारिकता की एक अजीब सी सुगंध से रची बसी हैं.
जीवन और चिंतन
कृष्णा
सोबती के लेखन में यह जो धार है,
यह जो लीक से हट कर पात्रों स्थितियों मानवीय परिस्थतियों को रचने की शक्ति है
वह कहां से आती है. अपने उपन्यासों के जरिए जिस तरह के स्त्री पात्र उन्होंने
प्रस्तुत किए हैं वे साठ के दौर में एक संस्कारी किस्म के समाज में मिलने मुश्किल
होते हैं. पर रचनाकार वही है जो ढँके मुँदे समाज के ढँके मुँदे यथार्थ को रच कर
दिखाए. वे जिस दौर की कथाकार हैं तब ऐसे कथाकार कम थे जिनके यहां यौनिकता पर चर्चा
या अपनी इच्छाओं का सहज इज़हार स्वीकार्य था. एक आरोपित उच्चादर्श भरे जीवन की
कामना कथाकारों से भी की जाती थी. समाज की बुराइयों को ढॉंक कर चलने की मध्यवर्गीय
आदतों का शिकार कथाकार भी हुआ करता था. कृष्णा सोबती ने इस रूढ़ि को आगे बढ़ कर
तोड़ा.
वे संयुक्त परिवार में पली बढ़ीं. विभाजन का दर्द देखा. मारकाट देखी. पाकिस्तानी मुसलमानों और हिंदुस्तानी मुसलमानों के मिजाज के बारीक से बारीक अंतर को महसूसा. अपनी कहानियों में मुस्लिम पात्र को रचते हुए कहीं से भी यह बताने की चेष्टा नहीं की कि मुसलमान अनिवार्य तौर पर बुरे होते हैं. दंगे के बीच हो रही मार काट से बचाने वाले पात्र उनके यहां मुसलमान भी हैं. शाहनी को अपने बीच न बचा पाने की टीस दाउद के मन में है. एक बच्ची को सड़क पर घायल व कराहता हुआ देख कर जिस शख्स का दिल पिघल जाता है वह और कोई नहीं ड्राइवर यूनुस है. एक मुस्लिम पात्र. कितने अपनापे से वह उस बच्ची का उपचार कराता है और अपने घर ले जाता है. वह भले उसे देख कर डर जाती है क्योंकि उसे वैसे ही दृश्य और निर्मम चेहरे ही देखे हैं पर यूनुस ऐसा नहीं है. यह भरोसा भी सोबती ही दिलाती हैं.
वे संयुक्त परिवार में पली बढ़ीं. विभाजन का दर्द देखा. मारकाट देखी. पाकिस्तानी मुसलमानों और हिंदुस्तानी मुसलमानों के मिजाज के बारीक से बारीक अंतर को महसूसा. अपनी कहानियों में मुस्लिम पात्र को रचते हुए कहीं से भी यह बताने की चेष्टा नहीं की कि मुसलमान अनिवार्य तौर पर बुरे होते हैं. दंगे के बीच हो रही मार काट से बचाने वाले पात्र उनके यहां मुसलमान भी हैं. शाहनी को अपने बीच न बचा पाने की टीस दाउद के मन में है. एक बच्ची को सड़क पर घायल व कराहता हुआ देख कर जिस शख्स का दिल पिघल जाता है वह और कोई नहीं ड्राइवर यूनुस है. एक मुस्लिम पात्र. कितने अपनापे से वह उस बच्ची का उपचार कराता है और अपने घर ले जाता है. वह भले उसे देख कर डर जाती है क्योंकि उसे वैसे ही दृश्य और निर्मम चेहरे ही देखे हैं पर यूनुस ऐसा नहीं है. यह भरोसा भी सोबती ही दिलाती हैं.
मित्रो
की सेक्सुअल डिजायर और सोच में बोल्डनेस को लेकर काफी चर्चा हुई
है. वे कहती हैं,
ये दुनिया बहुत बड़ी है,
इसमे कई तरह के आवरण हैं. आज जो लडकियां शिक्षित हैं,
पढ रही हैं, उन्हें इस बात का अहसास
है. हमारे समाज में इन बातों को लेकर नैतिकता का जो कोड है वो बहुत सख्त रहा है और संभवत: जहां सख्ती
ज्यादा होती है वहां वर्जनाओं की सांकल तोड़ने की कोशिशें ज्यादा होती हैं. वे
एक सवाल के उत्तर में कहती हैं,
''मित्रो सिर्फ एक किताब नहीं रही, समय के साथ साथ वह एक व्यक्तित्व में बदल गयी है.''
वे कहती हैं, ''मित्रो मरजानी की मित्रो जब अपनी छातियां खोल कर अपने आपको देखती है तो उसकी निगाह में स्त्री और पुरुष दोनो की निगाह शामिल होती है.'' उनके शब्दों में,
''मित्रो व्यक्ति की जिस छटपटाहट का प्रतीक है वह यौन उफान ही नहीं, व्यक्ति की अस्मिता का भी अक्स है जिसे नारी की पारिवारिक महिमा में भुला दिया जाता है.''
''मित्रो सिर्फ एक किताब नहीं रही, समय के साथ साथ वह एक व्यक्तित्व में बदल गयी है.''
वे कहती हैं, ''मित्रो मरजानी की मित्रो जब अपनी छातियां खोल कर अपने आपको देखती है तो उसकी निगाह में स्त्री और पुरुष दोनो की निगाह शामिल होती है.'' उनके शब्दों में,
''मित्रो व्यक्ति की जिस छटपटाहट का प्रतीक है वह यौन उफान ही नहीं, व्यक्ति की अस्मिता का भी अक्स है जिसे नारी की पारिवारिक महिमा में भुला दिया जाता है.''
कृष्णा
सोबती के लेखन से गुजरते हुए यह नहीं लगता कि कोई चीज वे भाषा के आवरण में छुपा
रही हैं. उनके पास हर घटना हर परिस्थिति को कहने के लिए समर्थ भाषा है. वे जीवन
की उत्सवता की रचनाकार हैं जहां एक उन्मुक्त वातावरण में चीजें घटित होती हैं.
मित्रो भले औरों की निगाह में बोल्ड या आउटस्पोकेन हो,
पर वह है इसी जीवन-जगत की प्राणी. और हर प्राणी
अपना जीवन अपनी तरह जीता है. उनके जीवन और रहन सहन में भव्यता तो थी पर मध्यवर्गीयता
की रुढियों से मुक्त न था. लिहाजा ऐसे समाज में जो जीवन उनहोंने देखा,
महसूस किया, जिन लोगों,
चरित्रों के साथ वे रहीं,
उन्हें भीतर से महसूस किया और फिर जो रचा,
वह निरुद्विग्न रह कर. तभी मित्रो जैसी स्त्री ने आकार लिया. वे अपनी रचनाओं को
अपने चिंतन से जोड़ कर देखती हैं. कहती हैं वे,
मेरे रचनात्मक पक्ष से मेरा रिश्ता मेरी चिंतन दृष्टि से बनता है. एक संपन्न
परिवार में पली ननिहाल और ददिहाल दोनों घरानों की संस्कृतियों को जीने वाली कृष्णा सोबती किताबों के बीच
बड़ी हुई. पर नफासत इतनी कि खाने की मेज पर बैठकर किताब पढने की मनाही थी क्योंकि
उससे किताबों के गंदे होने की आशंका रहती है.
सोबती
अपनी भाषा से पहचानी जाती हैं,
जैसे निर्मल वर्मा,
अज्ञेय, जैनेन्द्र. ज़िन्दगीनामा
में पूरी तरह पंजाबियत है जैसे मैला ऑंचल में भाषाई आंचलिकता की खुशबू.
दोनों अपने देशज मुहावरे,
भाषिक विपुलता और बेबाक चरित्रों के कारण दूर से ही पहचाने जाते हैं. आप सोबती के
संस्मरणों की भाषा पढें. लेखकों कवियों के मिजाज और उनकी शख्सियत पर उनके वृत्तांत
पढ़ें तो लगेगा अपने मित्र लेखक लेखिकाओं का पूरा चित्र खींच देने में वे माहिर
हैं. जैसा लेखक वैसा ही उनके गद्य का मिजाज. एक-एक पल के बोल बरताव का दृश्य उकेर
देनेमें कुशल कृष्णाजी के हम हशमत के संस्मरण ऐसे किसी भी लेखक के लिए मिसाल हैं जो
उसकी परिधि में शामिल हैं.
सौभाग्य है कि अशोक वाजपेयी व निर्मल वर्मा यहां दो बार आए हैं. दोनों बार कृष्णा जी ने उन पर डूब कर लिखा है. वे शब्द चयन को लेकर भी काफी सतर्कता बरतने वाली लेखिका रही हैं. न होतीं तो जि़न्दगीनामा के शीर्षक के प्रति उनमें इतना मोह न होता कि वे इसके लिए अमृता प्रीतम से एक लंबी कानूनी लड़ाई लड़तीं.
सौभाग्य है कि अशोक वाजपेयी व निर्मल वर्मा यहां दो बार आए हैं. दोनों बार कृष्णा जी ने उन पर डूब कर लिखा है. वे शब्द चयन को लेकर भी काफी सतर्कता बरतने वाली लेखिका रही हैं. न होतीं तो जि़न्दगीनामा के शीर्षक के प्रति उनमें इतना मोह न होता कि वे इसके लिए अमृता प्रीतम से एक लंबी कानूनी लड़ाई लड़तीं.
अपना रचनात्मक एकांत
कृष्णा
सोबती की हर अदा में नफासत नज़र आती है. वे सभा में हों,
बोल रही हों, बात कर रही हों,
उनका अंदाज बिल्कुल जुदा होता. बल्कि कई बार उनके व्यक्तित्व के सख्त रेशों
से यह पहचानना मुश्किल होता कि इस बात पर पता नहीं उनका क्या रिएक्शन हो. उनकी
शख्सियत में एक खास तरह की रहस्यात्मकता रही है. किसी से खुलना तो तह तक अंदर,
न खुलना तो नारियल के छिल्के की तरह सख्त. तोड़ना मुश्किल उनकी खामोशियों को.
गो कि खामोशियां उन्हें बहुत अच्छी लगतीं. वे एक जगह कृष्ण बलदेव वैद से
बतियाते हुए कहती हैं, ''
पेड़ों की ऊँचाइयों में से छनता मौन अपने एकान्तिक कोलाहल में हवाओं को छूता हुआ
आपको घेर लेता है. सम्पूर्ण हारमनी. आप यहां कुछ और हो उठते हैं. (सोबती-वैद
संवाद, पृ22)
लेखक
का अपना एकांत वह होता है जहां उसकी लिखने पढने की गृहस्थी होती है. वह और उसकी
तनहाई. जहां एक का भी अंत हो जाए. ऐसा एकांत. नितांत एकल इकाई. लिखने की मेज. इस
बारे में बहुधा लोगों ने उनसे सवाल किए हैं. पर जैसा कि कुंवर नारायण अपनी डायरी
में लिखते हैं,
लिखना मेरा शौक है,
बीमारी नहीं. केवल 10-15 कृतियॉं देकर वे गए पर सारी की सारी क्लासिक. अभिव्यक्ति
के चरम शिखरों को छुआ उन्होंने.
कृष्णा सोबती का भी यही हाल रहा. लगभग डेढ़ दर्जन कृतियां. दो-एक इधर उधर. इसी में पूरा जीवन समेट दिया उन्होंने. वे कहती हैं, ''मात्र लिखने के लिए लिखना--यह मेरे निकट कभी घटित नहीं हुआ. लिखित में दोहराने से बहुत कतराती हूँ.'' लेखक अपने ठीहे पर बैठता नहीं समाधिस्थ-सा होता है. अपनी रचना प्रक्रिया समझाते हुए वे कहती हैं,''
अक्सर रात को ही काम करती हूँ. यह सोचकर सुख होता है कि इस पर्यावरण को मैंने हर पल अपने में महसूस किया है. पन्नों पर पाठ में घुलने दिया है. रात अपनी मेज के आसपास बहती निपट खामोशियां कुछ ऐसी जैसे टीन की छत पर हल्की हल्की बूँदाबांदी हो रही हो.'' लेखन को वे अपने आपसे संवाद मानती हैं.
कृष्णा सोबती का भी यही हाल रहा. लगभग डेढ़ दर्जन कृतियां. दो-एक इधर उधर. इसी में पूरा जीवन समेट दिया उन्होंने. वे कहती हैं, ''मात्र लिखने के लिए लिखना--यह मेरे निकट कभी घटित नहीं हुआ. लिखित में दोहराने से बहुत कतराती हूँ.'' लेखक अपने ठीहे पर बैठता नहीं समाधिस्थ-सा होता है. अपनी रचना प्रक्रिया समझाते हुए वे कहती हैं,''
अक्सर रात को ही काम करती हूँ. यह सोचकर सुख होता है कि इस पर्यावरण को मैंने हर पल अपने में महसूस किया है. पन्नों पर पाठ में घुलने दिया है. रात अपनी मेज के आसपास बहती निपट खामोशियां कुछ ऐसी जैसे टीन की छत पर हल्की हल्की बूँदाबांदी हो रही हो.'' लेखन को वे अपने आपसे संवाद मानती हैं.
अपने लिखने के समय के बारे में अन्यत्र वे बताती हैं कि 'मैं रात में लिखती हूँ---रात का अंधकार जब मेरे अकेले टेबल लैंप के रहस्य में आ सिमटता है तो शब्द मुझे नए राग, नई लय और नई धुन में आ मिलते हैं.' (लेखक का जनतंत्र,आशुतोष भारद्वाज से बातचीत, पृ199) वे स्वीकार करती हैं कि लेखक सिर्फ निज की लड़ाई नहीं लड़ता. न अपने दुख दर्द और हर्ष विषाद का ही लेखा जोखा पेश करता है. अपने अंदर बाहर को रचनात्मक सेतु से जोड़ता है. उसे लगातार उगना होता है--हर मौसम, हर दौर में.''(सोबती वैद संवाद, पृ30)
लिखना
क्या हमेशा एक-सा होता है,
शायद नहीं. इसलिए कि जीवन में भी सारे काम एक से नहीं होते. बड़े लेखक की कोई रचना
उम्दा हो सकती है कोई हल्की भी. यह मन मिजाज मौसम और अनुभूति की गहराई पर निर्भर
करता है. अनुभव के बीज बहुत अच्छे हों पर
संवेदना की जमीन में वैसी नमी न हो तो शायद रचना की पैदावार बहुत अच्छी नही होगी.
इस बात को वे स्वीकारती हैं. कहती हैं,
सोबती लिखने के लिए सनलिट् ब्रांड का कागज और सिग्नेचर पेन पसंद किया करती थीं. चन्ना और डार से बिछुड़ी सनलिट ब्रांड कागज पर ही लिखे गये.
''लेखन में सूखे के अंतराल तो आते ही रहते हैं. सभी रचनाएं एक जैसी ऊर्जा में से नहीं फूटतीं. कई बार ऐसा भी होता है कि बड़े बड़े लेखक अचानक चुक जाते हैं, दो तीन अच्छी रचनाएं देने के बाद. यह अंदेशा हर लेखक के सर या कलम पर मँडराता रहता है.''(वही, पृ164)
सोबती लिखने के लिए सनलिट् ब्रांड का कागज और सिग्नेचर पेन पसंद किया करती थीं. चन्ना और डार से बिछुड़ी सनलिट ब्रांड कागज पर ही लिखे गये.
भाषा का अनुभव बनते जीवनानुभव
वे
बातचीत में अक्सर कुछ ऐसी बातें कह जाती हैं जो सार्वभौम और एक्सकलूसिव होती हैं.
वैद व अन्य लेखकों के साथ संवाद में बीच बीच में आए हुए ऐसे अनेक वाक्य/विचार
हमें सम्मोहित करते हैं,
यथा : लेखक सिर्फ निज की लड़ाई नहीं लड़ता,
अपने अंदर बाहर को रचनात्मक सेतु से जोड़ता है,अच्छी
रचना जिन्दगी की टकराहटों और संघर्ष में से होकर उभरती है,
शिल्प और कथ्य कॄति की बुनतर में ताने-बाने की तरह
गुँथे रहते है,सादी
सरल भाषा सिर्फ पठनीयता का ही नुस्खा नहीं,
वह भाषा का परिष्कार भी है,
सेक़्स हमारे जीवन का, साहित्य
का महाभाव है, व्यक्ति
का आात्मिक एकांत परिवार के कोलाहल में गायब हो जाता है,
संयुक़्त परिवार की संस्कारी मर्यादा व्यक्ति की
निजता से बहुत कुछ छीन लेती है, लेखक
का अपना नाम और अपने लेखन की मर्यादा स्वयं बनानी होती है,
बाजार प्रकाशक की अतॄप्त आत्मा को अपनी ओर खींचता
है,कापीराइट के रक्षक और
भक्षक दोनों एक ही वजूद में पलते हैं,परंपरा के नाम पर सिर्फ भव्य प्राचीन को टेरना
निरर्थक है.
भाषा
सोबती की वह विशिष्ट इकाई है जहां वे अपने होने को अलग ढंग से रेखांकित करती हैं.
हिंदी की रचना परंपरा में यह चीज सबसे जयादा मायने रखती है कि उसके पास अपने
अनुभवों को रचना में बदलने के लिए भाषा कैसी है. कविता में जैसे विनोद कुमार शुक्ल
का अपना अंदाजेबयां है,
किसी और का वैसा नहीं,
जगूड़ी का अपना स्थापत्य है वैसा किसी और का नहीं. अज्ञेय अपनी भाषा शैली में
बहुत निथरे नजर आते हैं.
निर्मल वर्मा अपने गद्य की स्निग्धता के लिए ही याद किए जाते हैं. वैसे ही कृष्णा सोबती न केवल अपनी कहानियों, उपन्यासों की अनूठी किस्सागोई के लिए याद की जाती हैं, अपने साहसिक तथा त्यक्तलज्जासुखी भवेत् वालेभाव से जीने सोचने वाले पात्रों के लिए याद की जाती हैं बल्कि अपनी खास तरह की भाषिक अदायगी के लिए भी. हालांकि वे तत्कालीन पाकिस्तान के गुजरात में जन्मी, विभाजन के हालात का साक्षात्कार किया, फिर भी जितना उनका पंजाबी व पंजाबियत पर दबदबा रहा है उतना ही हिंदी पर भी. एक साफ सुथरेपन की कलफ उनकी भाषा पर हमेशा दीखती रही. जैसे अज्ञेय पंजाबी होते हुए भी कुशीनगर में जनमे पिता के साथ देश के अनेक स्थलों पर आते जाते रहे, सेना में भी रहे पर उनकी भाषा देखिए तो वहां तत्सम का भी दबदबा है तद्भव का भी. देशज व बोलियों के साथ भी उनका गहरा अपनापा रहा है . न होता तो उनकी भाषा भी आकाशवाणी के समाचारों सी रुखी और निर्विकार होती. कृष्णा सोबती के साथ भी ऐसा ही है.
जिन्दगीनामा में छायी पंजाबी व पंजाबियत के लिए उन्हें एकाधिक आलोचनाएं भी सुननी पड़ीं जैसा कि रेणु को मैला आंचल की खास इलाकाई भाषा के लिए. किन्तु यही इन उपन्यासों की विशेषता भी रही है कि वे आसानी से अन्य उपन्यासों के ढेर में से अलगाई जा सकती हैं. हमारे समय के अन्य कद्दावर कथाकार नागर, यशपाल, राही मासूम रज़ा, सुरेन्द्र वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद, विनोद कुमार शुक्ल, स्वदेश दीपक अपनी भाषाई अदायगी के लिए ही जाने जाते हैं.
आखिरकार मुझे चांद चाहिए --अनेक प्रेम कथाओं के होते हुए भी जब सामने आया तो अचानक भाषा किस्सागोई की नाक की कील की तरह दमकने लगी. वह भाषा हाथोहाथ ली गयी. नौकर की कमीज या दीवार में एक खिड़की रहती थी---आया तो वह विनोदकुमार शुक्ल की अपनी भाषाई लीक पर चल कर आया . वे भाषा की नई तहजीब के रचनाकार हैं, भाषा का यही अनूठापन उनके काव्य में भी पहचाना जाता है. सोबती इसी तरह अपनी बनाई भाषा की सरणि पर चलती दीखती हैं जो उन्होंने अपने पैदाइश की जगह, अपने प्रवासों, अपनी आवाहाजियों व अपनी अलग तरह की सोहबतों से हासिल किया है.
उनकी किस्सागोई के बारे में श्लीलता अश्लीलता की बहसें होती रही हैं किन्तु भाषा के शील का उन्होंने हमेशा ध्यान रखा. भाषा को उन्होंने किसी नैतिक किस्म के व्याकरण से संचालित नही होने दिया. वे भाषा की बहुवस्तुस्पर्शिता की रचनाकार हैं. जहां जैसी भाषा की दरकार है वैसा प्रयोग किया है उन्होंने. जिन्दगीनामा की जो भाषा है वह दिलोदानिश की नही है. वहां एक परिष्कृत भाषाई प्रभामंडल मिलेगा. संस्मरणों में क्योंकि अधिकांशत: नैरेटर वे खुद होती हैं तो उनका भाषाई संस्कार जिसमें उर्दू हिंदी संस्कृत की घुलत मिलत है, उसका प्रभाव बोलता है. 'मित्रो मरजानी' की भाषा अलग है. वह मित्रों के अंदरूनी संस्कारों के पिघलने के साथ पिघलती और बहती है. वे सरलता व सादगी को भाषा का एक गुण तो मानती हैं पर एकमात्र गुण नहीं. जिन्दगीनामा में जो भाषाई वितान है, फैलाव है व पंजाबी परिवेश और उसके सामाजिक लोकाचार की उपज है. यह किसी एक गांव की कहानी नही है, जैसे रागदरबारी का देहात कोई एक निश्चित जगह की भौगोलिक इकाई नही है, वह भारतीय देहात और कस्बाई यथार्थ का एक नमूना है जो भाषाई विभिन्नताओं के बावजूद एक सा है.
वे कहीं कहती भी हैं कि जिन्दगीनामा जैसा पाठ दूसरे हाथ के माल से नहीं बुना जा सकता था. जैसे हम कहें कि रागदरबारी केवल श्रीलाल शुक्ल जी लिख सकते थे या आधा गॉंव केवल राही मासूम रजा और मुझे चॉंद चाहिए केवल सुरेन्द्र वर्मा. केवल यह अद्वितीयता ही लेखक का उसका अपना शैलीकार बनाती है. वह आसानी से किसी की लेखन शैली में तिरोहित और समामेलित नहीं हो सकता. यह भाषाई अद्वितीयता तो सोबती के यहां है ही.
निर्मल वर्मा अपने गद्य की स्निग्धता के लिए ही याद किए जाते हैं. वैसे ही कृष्णा सोबती न केवल अपनी कहानियों, उपन्यासों की अनूठी किस्सागोई के लिए याद की जाती हैं, अपने साहसिक तथा त्यक्तलज्जासुखी भवेत् वालेभाव से जीने सोचने वाले पात्रों के लिए याद की जाती हैं बल्कि अपनी खास तरह की भाषिक अदायगी के लिए भी. हालांकि वे तत्कालीन पाकिस्तान के गुजरात में जन्मी, विभाजन के हालात का साक्षात्कार किया, फिर भी जितना उनका पंजाबी व पंजाबियत पर दबदबा रहा है उतना ही हिंदी पर भी. एक साफ सुथरेपन की कलफ उनकी भाषा पर हमेशा दीखती रही. जैसे अज्ञेय पंजाबी होते हुए भी कुशीनगर में जनमे पिता के साथ देश के अनेक स्थलों पर आते जाते रहे, सेना में भी रहे पर उनकी भाषा देखिए तो वहां तत्सम का भी दबदबा है तद्भव का भी. देशज व बोलियों के साथ भी उनका गहरा अपनापा रहा है . न होता तो उनकी भाषा भी आकाशवाणी के समाचारों सी रुखी और निर्विकार होती. कृष्णा सोबती के साथ भी ऐसा ही है.
जिन्दगीनामा में छायी पंजाबी व पंजाबियत के लिए उन्हें एकाधिक आलोचनाएं भी सुननी पड़ीं जैसा कि रेणु को मैला आंचल की खास इलाकाई भाषा के लिए. किन्तु यही इन उपन्यासों की विशेषता भी रही है कि वे आसानी से अन्य उपन्यासों के ढेर में से अलगाई जा सकती हैं. हमारे समय के अन्य कद्दावर कथाकार नागर, यशपाल, राही मासूम रज़ा, सुरेन्द्र वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद, विनोद कुमार शुक्ल, स्वदेश दीपक अपनी भाषाई अदायगी के लिए ही जाने जाते हैं.
आखिरकार मुझे चांद चाहिए --अनेक प्रेम कथाओं के होते हुए भी जब सामने आया तो अचानक भाषा किस्सागोई की नाक की कील की तरह दमकने लगी. वह भाषा हाथोहाथ ली गयी. नौकर की कमीज या दीवार में एक खिड़की रहती थी---आया तो वह विनोदकुमार शुक्ल की अपनी भाषाई लीक पर चल कर आया . वे भाषा की नई तहजीब के रचनाकार हैं, भाषा का यही अनूठापन उनके काव्य में भी पहचाना जाता है. सोबती इसी तरह अपनी बनाई भाषा की सरणि पर चलती दीखती हैं जो उन्होंने अपने पैदाइश की जगह, अपने प्रवासों, अपनी आवाहाजियों व अपनी अलग तरह की सोहबतों से हासिल किया है.
उनकी किस्सागोई के बारे में श्लीलता अश्लीलता की बहसें होती रही हैं किन्तु भाषा के शील का उन्होंने हमेशा ध्यान रखा. भाषा को उन्होंने किसी नैतिक किस्म के व्याकरण से संचालित नही होने दिया. वे भाषा की बहुवस्तुस्पर्शिता की रचनाकार हैं. जहां जैसी भाषा की दरकार है वैसा प्रयोग किया है उन्होंने. जिन्दगीनामा की जो भाषा है वह दिलोदानिश की नही है. वहां एक परिष्कृत भाषाई प्रभामंडल मिलेगा. संस्मरणों में क्योंकि अधिकांशत: नैरेटर वे खुद होती हैं तो उनका भाषाई संस्कार जिसमें उर्दू हिंदी संस्कृत की घुलत मिलत है, उसका प्रभाव बोलता है. 'मित्रो मरजानी' की भाषा अलग है. वह मित्रों के अंदरूनी संस्कारों के पिघलने के साथ पिघलती और बहती है. वे सरलता व सादगी को भाषा का एक गुण तो मानती हैं पर एकमात्र गुण नहीं. जिन्दगीनामा में जो भाषाई वितान है, फैलाव है व पंजाबी परिवेश और उसके सामाजिक लोकाचार की उपज है. यह किसी एक गांव की कहानी नही है, जैसे रागदरबारी का देहात कोई एक निश्चित जगह की भौगोलिक इकाई नही है, वह भारतीय देहात और कस्बाई यथार्थ का एक नमूना है जो भाषाई विभिन्नताओं के बावजूद एक सा है.
वे कहीं कहती भी हैं कि जिन्दगीनामा जैसा पाठ दूसरे हाथ के माल से नहीं बुना जा सकता था. जैसे हम कहें कि रागदरबारी केवल श्रीलाल शुक्ल जी लिख सकते थे या आधा गॉंव केवल राही मासूम रजा और मुझे चॉंद चाहिए केवल सुरेन्द्र वर्मा. केवल यह अद्वितीयता ही लेखक का उसका अपना शैलीकार बनाती है. वह आसानी से किसी की लेखन शैली में तिरोहित और समामेलित नहीं हो सकता. यह भाषाई अद्वितीयता तो सोबती के यहां है ही.
लेखक के सरोकार
लेखक
आखिरकार अपनी विषय वस्तु से ज्यादा अपने सरोकारों से जाना जाता है. वह किसी
विचारधारा का पक्षधर न भी हो तो उसके लेखन की गहराई कम नही होती. विभाजन व
फिरकापरस्ती के चरम यथार्थ से गुजरने के बावजूद आपको एक सच्चे लेखक में कहीं भी
संकीर्णता की बू नहीं दिखाई देगी. भीष्म साहनी के तमस से गुजरिए. विभाजन
की खौफनाक दास्तान किन्तु यह नहीं कह सकते कि वे कहीं भी संकीर्णतावादी मनोवृत्ति
का शिकार होकर किसी हिंदू समुदाय का पक्ष ले रहे हैं या कुछ ऐसा रच रहे हैं कि
उनका किसी एक रुख की पक्षधरता तय की जाए.
लेखक की मेज न्याय की वह तुला है जिस पर हर कोई अपने वजन के अनुसार तुलता है. वह हर किसी का पैरोकार है . वह सच का पहरुआ है. विभाजन के दोनो ओर से उखड़े परिवारों की तबाह दुनिया के मंजर से गुजरी सोबती कमाल अहमद से बातचीत में यह स्वीकार करती हैं कि मैं उन खौफनाक वक्तों की पौध हूँ, विभाजन को झेले हुए हूँ फिर भी बॉंटना चाहती हूँ आपसे कि मेरी धर्मनिरपेक्षता को पिछले पचास वर्षों में शक-सुबह से किसी सांप्रदायिकता ने जख्मी नहीं किया. (लेखक का जनतंत्र, पृ 138)
लेखक की मेज न्याय की वह तुला है जिस पर हर कोई अपने वजन के अनुसार तुलता है. वह हर किसी का पैरोकार है . वह सच का पहरुआ है. विभाजन के दोनो ओर से उखड़े परिवारों की तबाह दुनिया के मंजर से गुजरी सोबती कमाल अहमद से बातचीत में यह स्वीकार करती हैं कि मैं उन खौफनाक वक्तों की पौध हूँ, विभाजन को झेले हुए हूँ फिर भी बॉंटना चाहती हूँ आपसे कि मेरी धर्मनिरपेक्षता को पिछले पचास वर्षों में शक-सुबह से किसी सांप्रदायिकता ने जख्मी नहीं किया. (लेखक का जनतंत्र, पृ 138)
सोबती
ने अपने स्त्री होने को कभी किसी कमी या अभिशाप के रूप में नही लिया. स्त्री को
लेकर स्त्री की स्वायत्तता को लेकर समाज चाहे कितना ही संकीर्ण हो,
उन्होंने अपने स्त्री होने का हमेशा सेलीब्रेट किया. कभी शायद ही मन में ख्याल
आया हो कि काश मैं पुरुष होती . बड़ी से बड़ी सत्ता के सामने न झुकने की जिद
उनमें थी तो किसी भी सहृदय व्यक्ति से सरलता और तरलता से मिलने की कशिश भी उनमें
थी. इसलिए उनसे हुई बातचीत की सूची पर निगाह फेरते हुए पाया कि उनसे रचना के
क्षेत्र में किसी बहुत बड़े व्यक्ति ने बातचीत नहीं की. उस वक्त के तमाम
समकालीन लेखक थे जो अपने अपने लेखन के शिखर पर थे.
अज्ञेय से बहुत से आला दर्जे के लेखकों ने बातचीत की है. कुँवर नारायण से भी. पर सोबती से पता नहीं क्यों बातचीत करने वालों में युवा लोग ज्यादा रहे हैं. जानी पहचानी शख्सियतों में कृष्ण बलदेव वैद, अनामिका, आलोक भल्ला, गिरधर राठी और पुराने लोगों में बस रणवीर रांग्रा. बाकी सब युवा हैं--- निरंजनदेव शर्मा, कृपाशंकर चौबे, कमाल अहमद , आशुतोष भारद्वाज आदि. हां कृष्ण बलदेव वैद ने लंबी और ठहरावदार बातचीत की है---एक अलग पुस्तक में . उनसे बातचीत में भी वे लेखक के मान स्वाभिमान को नीचे नहीं गिरने देतीं. आखिरकार मित्रो की कामभावना की आकांक्षा की इज़हार केवल उनके दिमागी खेल की उपज नहीं थी. यह मानव स्वभाव है. हर किसी में सेक्सुअलिटी के गुणसूत्र और परिमाण अलग अलग होते हैं और वे तो मानती ही हैं कि '
'सेक्स हमारे जीवन का, साहित्य का महाभाव है. जो उपन्यास(समय सरगम) इस समय मेरी मेज़ पर है, उसकी खामोशियों में बूढे-सयाने लोगों का यह मौसम भी सेक्स और अनुराग भाव से रिक्त नहीं है. उसका रंग जरूर यौवन से अलग है.'' (सोबती-वैद संवाद, पृ153)
अज्ञेय से बहुत से आला दर्जे के लेखकों ने बातचीत की है. कुँवर नारायण से भी. पर सोबती से पता नहीं क्यों बातचीत करने वालों में युवा लोग ज्यादा रहे हैं. जानी पहचानी शख्सियतों में कृष्ण बलदेव वैद, अनामिका, आलोक भल्ला, गिरधर राठी और पुराने लोगों में बस रणवीर रांग्रा. बाकी सब युवा हैं--- निरंजनदेव शर्मा, कृपाशंकर चौबे, कमाल अहमद , आशुतोष भारद्वाज आदि. हां कृष्ण बलदेव वैद ने लंबी और ठहरावदार बातचीत की है---एक अलग पुस्तक में . उनसे बातचीत में भी वे लेखक के मान स्वाभिमान को नीचे नहीं गिरने देतीं. आखिरकार मित्रो की कामभावना की आकांक्षा की इज़हार केवल उनके दिमागी खेल की उपज नहीं थी. यह मानव स्वभाव है. हर किसी में सेक्सुअलिटी के गुणसूत्र और परिमाण अलग अलग होते हैं और वे तो मानती ही हैं कि '
'सेक्स हमारे जीवन का, साहित्य का महाभाव है. जो उपन्यास(समय सरगम) इस समय मेरी मेज़ पर है, उसकी खामोशियों में बूढे-सयाने लोगों का यह मौसम भी सेक्स और अनुराग भाव से रिक्त नहीं है. उसका रंग जरूर यौवन से अलग है.'' (सोबती-वैद संवाद, पृ153)
वे
बेशक एक अभिजात परिवार में जनमी. गुजरात में सोबती स्ट्रीट की सोबती हवेली सदैव
उनकी स्मृतियों में रही . बाद में दिल्ली व शिमला में पली बढीं. पर उनके सरोकार
सदैव अपने समय व समाज के साथ रहे. वे कहती हैं,
मैं, मेरा लेखक,
मेरा व्यक्तित्व मेरा नागरिक स्त्री होते हुए भी उत्पीड़न के रोग से ग्रस्त
नहीं. फिर भी वे समाज में सहिष्णुता के लिए अंत तक कार्यरत रहीं. देश के कुछ
बुद्धिजीवियों लेखकों की हत्या पर वे सरकार के विरुद्ध लामबंद हुईं. ऐसी ही किसी
बात से क्षुब्ध होकर पद्मश्री स्वीकार करने से मना कर दिया. पर उनके अभिजात व्यक्तित्व
के भीतर एक लेखक की समवेदना थी. वे कहती हैं,
हमें पिछड़े, निर्धन,
आदिवासी, अशिक्षित और स्त्री की
भीड़ को नागरिक के स्वरुप में सहज ही स्वीकार करने की तालीम जुटानी होगी. यह
जिम्मा शिक्षितों और लेखकोंपर है. जनसाधारण से इलीटिस्ट की दूरी को हमें पाटना
होगा.
शायद उनका ध्यान साहित्य में तेजी से स्थान हासिल कर रहे स्त्री व दलित विमर्शों की ओर था. उनके लेखन व स्वभाव में परिष्कृति की हद तक सुगढ़ता उनके सौंदर्यबोध का परिचायक है. मानवीय जीवन की पेचीदगियों तथा उनके सरोकारों को खोलने में उनके उपन्यास, कहानियां व विचार एक बड़ी भूमिका निभाते हैं.
शायद उनका ध्यान साहित्य में तेजी से स्थान हासिल कर रहे स्त्री व दलित विमर्शों की ओर था. उनके लेखन व स्वभाव में परिष्कृति की हद तक सुगढ़ता उनके सौंदर्यबोध का परिचायक है. मानवीय जीवन की पेचीदगियों तथा उनके सरोकारों को खोलने में उनके उपन्यास, कहानियां व विचार एक बड़ी भूमिका निभाते हैं.
यह
सरोकार ही है कि उन्होंने हम हशमत सीरीज में बहुत से लेखकों पर संस्मरण
टॉंके पर मुक्तिबोध पर अलग से एक पूरी पुस्तक(मुक्तिबोध: एक व्यक्तित्व सही
की तलाश में) की ही परियोजना तैयार की. हालांकि यह उनकी कोई आलोचनात्मक पुस्तक
नहीं है तथापि यह एक कवि के लिए उनकी हार्दिक प्रणति है. अकारण नहीं कि वे कविता
को साहित्य में अव्वल विधा मानती भी रही हैं. वे कहती भी हैं,
मुक्तिबोध पर लिखते हुए वे जैसे हिंदी के आधुनिक पुरोधा कवि का ऋण चुका रही हों. यह आलोचना की रूढ शब्दावली से अलग कृतज्ञता, सहचिंतन और सहृदयता का एक समावेशी पाठ है जो मुक्तिबोध के रचे-सिरजे शब्दों के आलोक में सोबती के कवि-मन का उदबोधन है. जैसी अनूठी कृष्णा जी की कथा-भाषा है, वैसा ही अनौपचारिक पाठ मुक्तिबोध पर लिखी इस किताब का है. जिस शिष्ट सँवरन-भरे गद्य के लिए वे जानी जाती हैं, उसकी भी एक कौंध यहॉं अंधेरे में मोमबत्ती की तरह जलती दिखाई देती है. एक बड़े लेखक का आत्मसंघर्ष एक बड़ा लेखक ही समझ सकता है. मुक्तिबोध पर कृष्णा सोबती की किताब मुक्तिबोध के इसी आत्मसंघर्ष और उनके कवि-व्यक्तित्व की खूबियों को समझने की एक कोशिश है.
आलोचना प्राय: पाठ के जिस वस्तुनिष्ठ संसार का पारायण और परीक्षण करती है, एक सर्जक लेखक जीवन सत्य के उजालों को अपनी रूह में भरता है जो पाठ के धुंधलके को चीरती हुई आती है. कृष्णा सोबती ने मुक्तिबोध के काव्य की गहन वीथियों से गुजरती हुई कुछ कविताओं के आलोक में उस कवि-मन को पढने की चेष्टा करती हैं जिसकी कविताएं सीमातीत यथार्थ को भेदती हुई किसी भी प्रकार की कंडीशनिंग के विरुद्ध एक प्रतियथार्थ रचती हैं.
''कवि लौकिक नहीं, अलौकिक शक्ति से ऊर्जा पाता है. उदात्त प्रकृति से सिमटा हुआ नहीं, वह दूर तक जीता है. इसलिए कविता का स्थान गद्य से ऊपर है. गद्य वालों को मान लेना चाहिए कि वे नंबर दो पर हैं. नंबर एक पर कवि है.''(लेखक का जनतंत्र, 155)
मुक्तिबोध पर लिखते हुए वे जैसे हिंदी के आधुनिक पुरोधा कवि का ऋण चुका रही हों. यह आलोचना की रूढ शब्दावली से अलग कृतज्ञता, सहचिंतन और सहृदयता का एक समावेशी पाठ है जो मुक्तिबोध के रचे-सिरजे शब्दों के आलोक में सोबती के कवि-मन का उदबोधन है. जैसी अनूठी कृष्णा जी की कथा-भाषा है, वैसा ही अनौपचारिक पाठ मुक्तिबोध पर लिखी इस किताब का है. जिस शिष्ट सँवरन-भरे गद्य के लिए वे जानी जाती हैं, उसकी भी एक कौंध यहॉं अंधेरे में मोमबत्ती की तरह जलती दिखाई देती है. एक बड़े लेखक का आत्मसंघर्ष एक बड़ा लेखक ही समझ सकता है. मुक्तिबोध पर कृष्णा सोबती की किताब मुक्तिबोध के इसी आत्मसंघर्ष और उनके कवि-व्यक्तित्व की खूबियों को समझने की एक कोशिश है.
आलोचना प्राय: पाठ के जिस वस्तुनिष्ठ संसार का पारायण और परीक्षण करती है, एक सर्जक लेखक जीवन सत्य के उजालों को अपनी रूह में भरता है जो पाठ के धुंधलके को चीरती हुई आती है. कृष्णा सोबती ने मुक्तिबोध के काव्य की गहन वीथियों से गुजरती हुई कुछ कविताओं के आलोक में उस कवि-मन को पढने की चेष्टा करती हैं जिसकी कविताएं सीमातीत यथार्थ को भेदती हुई किसी भी प्रकार की कंडीशनिंग के विरुद्ध एक प्रतियथार्थ रचती हैं.
उपन्यासों में व्यक्त जीवन-यथार्थ
किसी
भी कथाकार के विचारों को उसके संबोधनों से नहीं,
उसकी कहानियों,
उपन्यासों की अंतर्धारा में अनुस्यूत वैचारिकी से ग्रहण किया जाना चाहिए. कृष्णा
सोबती के उपन्यास शुरु से ही इस समाज के ढँके मुँदे यथार्थ के उदभेदन का काम करते
हैं. उनकी कहानियां कोई सतयुगी आदर्शवादी कहानियां नही हैं वे मानवीय प्रवृत्तियों,
लोभ, लाभ,
ईर्ष्या, वेदना,
करुणा, शील,
संकोच, काम,
क्रोध सबका समाहार हैं.
जिन्दगीनामा एक बड़े फलक का उपन्यास है. यह एक बड़े कालखंड का आख्यान है. पंजाबी संस्कृति की भाषाई कौंध इसमें है तो विभाजन और विस्थापन की पीड़ा भी . सिक्का बदल गया कहानी में जिस तरह का यथार्थ चित्रित है उसका महाविस्तार जिन्दगीनामा के कथ्य में है. बीसवीं सदी की ग्रामीण सभ्यता व संस्कृति की एक विराट झॉंकी यहां मिलती है तो शाह जी व उनके परिवार के रुप में यहां भी सिक्का बदल गया जैसी कहानी की भावभूमि नजर आती है.
जिन्दगीनामा एक बड़े फलक का उपन्यास है. यह एक बड़े कालखंड का आख्यान है. पंजाबी संस्कृति की भाषाई कौंध इसमें है तो विभाजन और विस्थापन की पीड़ा भी . सिक्का बदल गया कहानी में जिस तरह का यथार्थ चित्रित है उसका महाविस्तार जिन्दगीनामा के कथ्य में है. बीसवीं सदी की ग्रामीण सभ्यता व संस्कृति की एक विराट झॉंकी यहां मिलती है तो शाह जी व उनके परिवार के रुप में यहां भी सिक्का बदल गया जैसी कहानी की भावभूमि नजर आती है.
विभाजन
पर अनेक उपन्यास लिखे गए हैं, तमस,
झूठा सच,
आग का दरिया,
काले कोस और उदास नस्लें आदि. जिन्दगीनामा के मूल में जिस कहानी का
ऊपर जिक्र है वह सोबती के संग्रह बादलों
के घेरे में शामिल है. गांव वालों को इस बात का मलाल है कि वे शाहणी की आखिरकार
हिफाजत न कर सके. उनके गांव से रुखसत होते ही गांव के बुजर्ग मुसलमानों की आंखें
जिस तरह गीली हो उठती हैं वह अपने आपमें इस बात की मिसाल है कि ध्वंस और हिंसा के
बीच भी अपनत्व की कोई हरी टहनी रिश्तों की नमी को गीली रखती है.
यह उपन्यास यह जानने की कोशिश भी है कि उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में भारत पाकिस्तान के सीमांत क्षेत्र में गंवई खेतिहर सभ्यता के बीच ऐसा क्या घटित हो रहा था कि उसे एक देश के दो टुकड़े करने के निर्णय को अमली जामा पहनाने में मदद की. क्या यहां हिंदू मुसलमान जिस तरह की अमन की जिन्दगी बसर कर रहे थे , चौपालों में दोनों समुदायों के लोग बैठकी किया करते थे, वहॉं यह खौफ कैसे तारी हुआ कि एक समुदाय दूसरे के हितों का दुश्मन है. इस डर को किस तरह सोबती ने यहां डिकोड किया है यह एक दूसरा पहलू है जिन्दगीनामा के कथ्य को जॉंचने परखने का. भाषा के मामले तो इसे भी रेणु के मैला आंचल की तरह आंचलिक उपन्यास का दर्जा दिया जा सकता है. पंजाबी संस्कृति, लोक संस्कृति, सामुदायिकता की भावना के साथ उर्दू फारसी मिश्रित भाषा भी यहां पनाह लेती है.
लोक भाषा के प्रतितो उनका लगाव जबर्दस्त रहा ही है क्योंकि पहला उपन्यास चन्ना को इसी कारण छपने के बाद वापस ले लिया कि उसमें भाषा को आसान बनाने के लिए पंजाबी शब्दों का रुपांतर दे दिया गया था जिससे उसका सौंदर्य आहत हो रहा था. हिंदू मुस्लिम समुदायोंमें आपसी रिश्तों में प्रगाढता के रसायन भी इसमें मिलते हैं जो सदियों के रहन सहन से ही चले आ रहे हैं. पंजाब जिस तरह अपनी कुदरत के लिए जाना जाता है उसी तरह अपने पीर फकीरों से दुआओं के लिए भी. कुल मिलाकर जिन्दगीनामा केवल विभाजन का ही नहीं
, जिन्दादिली का उपन्यास है. कम
से कम इस उपन्यास के जरिए पंजाब के सौंदर्य, संस्कृति मेल मिलाप को जाना
बूझा जा सकता है.
यह उपन्यास यह जानने की कोशिश भी है कि उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में भारत पाकिस्तान के सीमांत क्षेत्र में गंवई खेतिहर सभ्यता के बीच ऐसा क्या घटित हो रहा था कि उसे एक देश के दो टुकड़े करने के निर्णय को अमली जामा पहनाने में मदद की. क्या यहां हिंदू मुसलमान जिस तरह की अमन की जिन्दगी बसर कर रहे थे , चौपालों में दोनों समुदायों के लोग बैठकी किया करते थे, वहॉं यह खौफ कैसे तारी हुआ कि एक समुदाय दूसरे के हितों का दुश्मन है. इस डर को किस तरह सोबती ने यहां डिकोड किया है यह एक दूसरा पहलू है जिन्दगीनामा के कथ्य को जॉंचने परखने का. भाषा के मामले तो इसे भी रेणु के मैला आंचल की तरह आंचलिक उपन्यास का दर्जा दिया जा सकता है. पंजाबी संस्कृति, लोक संस्कृति, सामुदायिकता की भावना के साथ उर्दू फारसी मिश्रित भाषा भी यहां पनाह लेती है.
लोक भाषा के प्रतितो उनका लगाव जबर्दस्त रहा ही है क्योंकि पहला उपन्यास चन्ना को इसी कारण छपने के बाद वापस ले लिया कि उसमें भाषा को आसान बनाने के लिए पंजाबी शब्दों का रुपांतर दे दिया गया था जिससे उसका सौंदर्य आहत हो रहा था. हिंदू मुस्लिम समुदायोंमें आपसी रिश्तों में प्रगाढता के रसायन भी इसमें मिलते हैं जो सदियों के रहन सहन से ही चले आ रहे हैं. पंजाब जिस तरह अपनी कुदरत के लिए जाना जाता है उसी तरह अपने पीर फकीरों से दुआओं के लिए भी. कुल मिलाकर जिन्दगीनामा केवल विभाजन का ही नहीं
बूढ़ों पर अनेक कहानियां लिखी गयी
हैं. एक कहानी श्रीलाल शुक्ल की भी है. इस उम्र में. लाजवाब. उपन्यास भी
लिखे गए हैं. गिलिगडू, समय सरगम और अंतिम अरण्य. समय
सरगम सोबती की हिंदी उपन्यास की दुनिया को एक अनुपम देन है. ईशान और आरण्या
के परस्पर विपरीत सोच के बावजूद इन दो बूढे पात्रों में बौद्धिकता के ऐसे तमाम
अन्तस्सूत्र हैं जो उन्हें आपस में जोडे रखते हैं. आरण्या अविवाहित होते हुए
स्वतंत्रता से जीवन जीने के लिए प्रतिबद्ध है. इस उपन्यास के बहाने वे संयुक्त परिवारों के टूटने बिखरने पर भी चर्चा भी
करते हैं. कुछ अन्य पात्र जैसे दम्यंती और कामिनी भी इस आख्यान का हिस्सा बनते
हैं जिनके अपने अपने दुख हैं.
केवल वृद्ध जीवन के निहितार्थ ही नहीं, यहां इस बहाने मानव जीवन के आसन्न संकटों पर भी आरण्या और ईशान चर्चा करते हैं तथा कोई अदृष्ट शक्ति है जो उन्हें विपरीतध्रुवीय होनेके बावजूद एकमेक करती है. मित्रो मरजानी में मित्रो तमाम कष्ट उठाती है, पर अंतत: परिवार में वापस लौटती है . वह यौन इच्छा को सहज मानवीय इच्छा और अधिकार के रूप में लेती है, इसीलिए अपनी इच्छाएं छुपा नहीं पाती. वह अपने अधिकारों के लिए सजग दिखती है तथा उस मोर्चे पर वह किसी से दबती नहीं. यह नारी सशक्तीकरण का तमाम दशक पहले किया गया पूर्वानुमान है जो आज कितना सच हो चुका है. आज के माहौल में देखें तो मित्रो जैसे आज की स्त्री का प्रतीक लगती है.
दिलो दानिश में महकबानो पुरुषवर्चस्व को चुनौती देने वाली पात्र है जो एक संघर्षशील महिला की दास्तान है. इस उपन्यास को पढते हुए लगता है स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है.
ऐ लड़की में भी पारिवारिक सत्ता के बीच स्त्री पुरुष अधिकारों में लेवलप्लेइंग के लिए जददोजहद चलती है. इस लंबी कहानी के केंद्र में एक वृद्धा है जो जीवन से संघर्ष में हार नहीं मानती. वह मृत्यु से अंत तक मुठभेड़ करती है.
जीवन की एक त्रासदी उसका आजीवन पीछा करती है. जिन लोगों को काशी का अस्सी की गालियां खटकती हैं उन्हें यारों के यार की गालियां भी खटकेंगी किन्तु आफसियल जिन्दगी और बाबूगिरी के गोरखधंधों की तह तक जाने के लिए भाषाई शील कभी कभी तोड़ना भी पड़ता है तभी सत्य का साक्षात्कार होता है. यारों के यार इसका उदाहरण है. तिन पहाड़ की जया में भी प्रेम की बेलें फूटती हैं जिसके प्रति वह आसक्ति का भाव रखती है.
केवल वृद्ध जीवन के निहितार्थ ही नहीं, यहां इस बहाने मानव जीवन के आसन्न संकटों पर भी आरण्या और ईशान चर्चा करते हैं तथा कोई अदृष्ट शक्ति है जो उन्हें विपरीतध्रुवीय होनेके बावजूद एकमेक करती है. मित्रो मरजानी में मित्रो तमाम कष्ट उठाती है, पर अंतत: परिवार में वापस लौटती है . वह यौन इच्छा को सहज मानवीय इच्छा और अधिकार के रूप में लेती है, इसीलिए अपनी इच्छाएं छुपा नहीं पाती. वह अपने अधिकारों के लिए सजग दिखती है तथा उस मोर्चे पर वह किसी से दबती नहीं. यह नारी सशक्तीकरण का तमाम दशक पहले किया गया पूर्वानुमान है जो आज कितना सच हो चुका है. आज के माहौल में देखें तो मित्रो जैसे आज की स्त्री का प्रतीक लगती है.
दिलो दानिश में महकबानो पुरुषवर्चस्व को चुनौती देने वाली पात्र है जो एक संघर्षशील महिला की दास्तान है. इस उपन्यास को पढते हुए लगता है स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है.
ऐ लड़की में भी पारिवारिक सत्ता के बीच स्त्री पुरुष अधिकारों में लेवलप्लेइंग के लिए जददोजहद चलती है. इस लंबी कहानी के केंद्र में एक वृद्धा है जो जीवन से संघर्ष में हार नहीं मानती. वह मृत्यु से अंत तक मुठभेड़ करती है.
जीवन की एक त्रासदी उसका आजीवन पीछा करती है. जिन लोगों को काशी का अस्सी की गालियां खटकती हैं उन्हें यारों के यार की गालियां भी खटकेंगी किन्तु आफसियल जिन्दगी और बाबूगिरी के गोरखधंधों की तह तक जाने के लिए भाषाई शील कभी कभी तोड़ना भी पड़ता है तभी सत्य का साक्षात्कार होता है. यारों के यार इसका उदाहरण है. तिन पहाड़ की जया में भी प्रेम की बेलें फूटती हैं जिसके प्रति वह आसक्ति का भाव रखती है.
डार से बिछड़ी की पाशो भी पुरुष परतंत्रता का
शिकार है. वह पौरुषेय नियमों के अधीन है. ऐसे माहौल में वह रहने को विवश है जहां स्त्री
को स्त्री नहीं एक पदार्थ समझा जाता है. ननिहाल में रहते हुए वह कम लांछना का
शिकार नहीं होती. मां के किए की सजा उसे मिलती है और लगभग जीवन भर अपनों की दुत्कार
तथाप, अपने जीवन की रक्षा के लिए यहां वहां
भागती इस स्त्री को दो पल जीवन मे सुकून के नही मिलते. पर आजादी की चाह उसे है.
स्त्री जीवन की विडंबनाओं को उकेरने में आज का स्त्री विमर्श चाहे जितना चौकस हो, आज भी वह सोबती के उपन्यासों में
वर्णित स्त्री के आख्यानों को लॉंघ नही दे सका है. स्त्री वेदना की वे चितेरी हैं.
पौरुषेय समाज में स्त्री की नगण्य हैसियत के विरुद्ध उनके स्त्री पात्र लगातार
संघर्ष करते हैं तथा बार बार नियति के हाथो पराजित होते हुए भी हार नहीं मानते.
सूरजमुखी अँधेरे के उपन्यास में रतिका यानी रत्ती
का चरित्र काफी जटिल है . ऐसे हालात में जहां बाल्यकाल में ही लड़की यौन शोषण का
शिकार हुई हो, वह आजीवन स्नेहवंचित रहती है.
बचपन ने उसके जीवन का जैसे स्वत्व नष्ट कर दिया हो. उसकी आत्मा लहुलुहान नजर
आती है. एक गंदी लड़की का टैग लग जाता है उस पर जो उसे भीतर से तोड़ता है. पर वह
अपनी अस्मिता को बुझने नहीं देती. एक बलात्कृत स्त्री का भी अपना स्वाभिमान
होता है जिसे वह अंत तक बचाए रखने की जद्दोजेहद करती है. सोबती का जीवन खुद में एक
कहानी है.
गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदोसतान तक --जैसे देखी गयी विभाजन की त्रासदी की कहानी हैं जिसमें खुद के बचपन को भी गहरे विजुअलाइज किया गया है. तत्कालीन रियासतों के वृत्तांत और गांधी युग की पेचीदगियों को भी बखूबी इसमें याद किया गया है. सोबती के स्त्री पात्र जिस तरह अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करते हैं वे नियति के विरुद्ध जिस तरह अप्रतिहत चेतना बन कर उभरते हैं यह सोबती का कथावैशिष्ट्य है कि स्त्रियों का किसी एक तरह का प्रोटोटाइप यहां पर नहीं रचा है. उनके पात्रों में वैविध्य है. हालात को देखने का नजरिया भिन्न है. जिस तरह की जिद कृष्णा सोबती में एक लेखक के नाते रही है, उसकी कहीं न कहीं एक छाया उनके स्त्री पात्रों में भी देखने को मिलती है.
गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदोसतान तक --जैसे देखी गयी विभाजन की त्रासदी की कहानी हैं जिसमें खुद के बचपन को भी गहरे विजुअलाइज किया गया है. तत्कालीन रियासतों के वृत्तांत और गांधी युग की पेचीदगियों को भी बखूबी इसमें याद किया गया है. सोबती के स्त्री पात्र जिस तरह अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करते हैं वे नियति के विरुद्ध जिस तरह अप्रतिहत चेतना बन कर उभरते हैं यह सोबती का कथावैशिष्ट्य है कि स्त्रियों का किसी एक तरह का प्रोटोटाइप यहां पर नहीं रचा है. उनके पात्रों में वैविध्य है. हालात को देखने का नजरिया भिन्न है. जिस तरह की जिद कृष्णा सोबती में एक लेखक के नाते रही है, उसकी कहीं न कहीं एक छाया उनके स्त्री पात्रों में भी देखने को मिलती है.
स्निग्ध गद्य : शब्दचित्रों से आती हुई रोशनी
सोबती
गद्य की कोमलता का दूसरा नाम है. लेखकों के ऐसे प्रोफाइल शायद ही किसी दूसरे लेखक
ने लिखे हों. बल्कि उल्टे हिंदी में ऐसा सौतियाडाह है कि कोई एक दूसरे की तारीफ
न कर सकता है न सुन सकता है. युवाओं में आज इतनी महत्वाकांक्षा भर गयी है कि
रातोरात प्रसिद्धि चाहते हैं. एक साधारण सी चालू प्रेमकथा लिख कर वे बड़े लेखक का
खिताब पा लेना चाहते हैं. सोबती के जीवन और लेखन की बारीकियों से गुजरने पर यह
मालूम होता है कि लेखकीय ख्याति उन्हें किसी जाती रसूख के कारण नहीं मिली बल्कि
यह उनके अपने रचनात्मक उद्यम का नतीजा है. उनका ही दूसरा प्रतिरूप हशमत उनके अपने
ही व्यक्तित्व की बिंदास छायाछवि है. हम हशमत का आईना घूमता हुआ दोस्त लेखकों
के एक एक किए धरे की खबर रखता है और उसे अपने शब्दचित्र में ऑंक देता है. एक
मूर्ति लेखक की अपनी होती है जो सार्वजनिक होती है दूसरी छवि वह जिसे सोबती अपनी
तूलिका से चित्रित करती हैं. ऐसे शब्दचित्र हिंदी में विरल हैं.
उनकी
श्रृंखला हम हशमत से शुरु होकर हम हशमत तक समाप्त हो जाती है. पहले खंड
में निर्मल वर्मा,
भीष्म साहनी,
कृष्ण बलदेव वैद,
शीला संधू, गोविंद मिश्र,
नागार्जुन, मनोहरश्याम जोशी जैसे
जिन्दादिल लेखक हैं तो दूसरे खंड में नामवर सिंह,
अशोक वाजपेयी,
अश्क, अज्ञेय,
श्रीकांत वर्मा,
नेमिचंद्र जैन,
मंटो, प्रयाग शुक्ल,
नासिरा शर्मा,
कन्हैयालाल नंदन व कमलेश्वर जैसे लेखक हैं. तीसरे खंड में पुन: अशोक वाजपेयी,
निर्मल वर्मा आए हैं तो साथ ही सत्येन,
देवेन्द्र इस्सर,
निर्मला जैन, शंभुनाथ व विष्णु खरे भी.
दो शख्सियतें ऐसी हैं कि उन पर उनका गुस्सा भी रचनात्मक होकर बरसा है--विभूति नारायण राय व रवीन्द्र कालिया. छिनाल प्रकरण में राय की खबर ली है उन्होंने तो एक बहुत ही सतही किस्म के तद्भव में छपे संस्मरण पर रवीन्द्र कालिया की बखिया उधेड़ी है उन्होंने. कहते हैं उनकी तारीफ का कोई चरम बिन्दु नहीं होता न उनके धिक्कार का. उनके गुस्से पर सहज ही ठंडा पानी नही डाला जा सकता.
बहरहाल,
ये शब्दचित्र संस्मरण हैं,
रेखाचित्र भी हैं और लेखकों की शानदार प्रोफाइल भी. प्रशंसा की तो शिखर पर चढा
दिया और उतारा तो पूरी तरह नजर से उतार दिया. पर उनके शब्दचित्रों की अपनी महक है
जो सबसे जुदा है. उनके शब्दचित्रों से भीनी भीनी महक आती है. ये शब्दचित्र
लेखकों को सेलिब्रिटी बना देते हैं. किस लेखक का कैसा मिजाज है,
किससे डेटिंग चल रही है,
किससे अनबन है,
क्या लिख रहा है वह,
किससे गलबहियां हैं इन दिनों,
कौन सत्ता के नजदीक है,
कौन फक्कड़ है,
किसमें कौन सा ऐब है सारा कुछ उनके वृत्तांत में खिल उठता है. इन्हें पढ़ते हुए
जिन लेखकों से आप कभी न मिले हों,
उनसे मिलने का सा आभास होता है.
निर्मल को वे उनके गद्य के टुकड़ों से याद करती हैं तो भीष्म साहनी को उनकी एकनिष्ठता के लिए जिनकी गृहस्थी में दूर दूर तक किसी असली या काल्पनिक महबूबा का नाम हवा में नहीं लहराता. वे लिखती हैं,
अशोक वाजपेयी और निर्मल वर्मा ही ऐसे दो लेखक हैं जो इस सीरीज में दुहराए गए हैं. एक लेखक पर दो दो शब्दचित्र. अज्ञेय पर भी अलग से लेख भी है जो ओम थानवी संपादित अपने अपने अज्ञेय में शामिल है. वे इन शब्दचित्रों में कही व्यक्तित्वकी गुत्थियां खोलती हैं तो कहीं लेखन के गुणसूत्र बांचती हैं. किसी लेखक का कोई टुकड़ा या कविता पसंद आ गयी तो उसके हवाले भी यहां दिए हैं. गो कि एक लेखक को समझने के जो भी अनौपचारिक टूल्स हो सकते हैं उनके विनियोग से उन्हें उकेरने समझने की चेष्टा की गयी है. इन्हें पढते हुए तब की दिल्ली और बाहर की महफिलों सोहबतों का अंदाजा लगाया जा सकता है और कृष्णा जी की नफासतपसंद लेखनी का मिजाज भी पढा जा सकता है. हाल ही आया दिल्ली की सोहबतों का संस्मरणनामा 'मार्फत दिल्ली' उस दिल्ली के अफसाने बयाँ करता है जिस दौर में वे यहां आईं और दिल्ली की होकर रह गयीं.
निर्मल को वे उनके गद्य के टुकड़ों से याद करती हैं तो भीष्म साहनी को उनकी एकनिष्ठता के लिए जिनकी गृहस्थी में दूर दूर तक किसी असली या काल्पनिक महबूबा का नाम हवा में नहीं लहराता. वे लिखती हैं,
''दरअसल भीष्म की बीवी ही इस सांझे आसन पर विराजमान हैं. दोस्तों का कहना है भीष्म को 'एक में तीन' जैसी बेनयाज बीवी मिली हुई है. बीवी, प्रेमिका और पाठिका.''
अशोक वाजपेयी और निर्मल वर्मा ही ऐसे दो लेखक हैं जो इस सीरीज में दुहराए गए हैं. एक लेखक पर दो दो शब्दचित्र. अज्ञेय पर भी अलग से लेख भी है जो ओम थानवी संपादित अपने अपने अज्ञेय में शामिल है. वे इन शब्दचित्रों में कही व्यक्तित्वकी गुत्थियां खोलती हैं तो कहीं लेखन के गुणसूत्र बांचती हैं. किसी लेखक का कोई टुकड़ा या कविता पसंद आ गयी तो उसके हवाले भी यहां दिए हैं. गो कि एक लेखक को समझने के जो भी अनौपचारिक टूल्स हो सकते हैं उनके विनियोग से उन्हें उकेरने समझने की चेष्टा की गयी है. इन्हें पढते हुए तब की दिल्ली और बाहर की महफिलों सोहबतों का अंदाजा लगाया जा सकता है और कृष्णा जी की नफासतपसंद लेखनी का मिजाज भी पढा जा सकता है. हाल ही आया दिल्ली की सोहबतों का संस्मरणनामा 'मार्फत दिल्ली' उस दिल्ली के अफसाने बयाँ करता है जिस दौर में वे यहां आईं और दिल्ली की होकर रह गयीं.
अपनी
भाषा, अपने अंदाजेबयां,
अपने कथासंसार,
अपने साहस, अपनी अस्मिता,
अपनी वाग्मिता और अपने लेखकीय स्वाभिमान के बल पर हिंदी कथा साहित्य की एक
लीजेंड्री शख्सियत बन चुकी कृष्णा सोबती उस अप्रतिहत चेतना का नाम है जिसने अपनी
भाषा को निरंतर मॉंजा और परिष्कृत किया है. अहिंदीभाषी क्षेत्र में पैदाइश के
बावजूद हिंदी पर उनकी पकड़ बेहद संजीदा थी. उनके गद्य में इत्र जैसी महक थी. उन्होंने
तमाम लेखकों कवियों पर जैसे व्यक्तिचित्र लिखे,
वैसा उन पर एक भी व्यक्तिचित्र या शब्दचित्र
नहीं लिखा जा सका.
वे सच्चे मायने में गुणग्राहक थीं जिसका आज लेखकों व
पाठकों दोनों में अभाव दिखता है. उनमें एक अलग भाषाई ताप था,
एक अलग टेक्सचर जो उनके उपन्यासों की भाषा को विशिष्ट बनाता है. उन्होंने अपने
लेखन में जिस तरह स्त्री पात्रों की बुनियाद रखी और मजबूत की वह आज के स्त्री
विमर्श का आधारभित्ति है इसमें संशय नहीं. वे सदैव लेखकों के उस नजरिए की आलोचना
करती रही हैं जो स्त्री को सिर्फ पकवान बनाने और परोसने की विशेषज्ञ के रूप में
ही समझती आई है.
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ओम
निश्चल
हिंदी
के सुपरिचित कवि,
गीतकार एवं आलोचक. 'शब्द
सक्रिय हैं'(कविता संग्रह) एवं 'शब्दों
से गपशप'(आलोचना),
'भाषा
की खादी'(निबंध)
सहित भाषा व आलोचना-समीक्षा की अनेक कृतियां प्रकाशित. अज्ञेय सहित कई कवियों के
कविता-चयन, अधुनांतिक बांग्ला कविता एवं
कुंवर नारायण पर केंद्रित आलोचनात्मक पुस्तक 'अन्वय'
एवं 'अन्विति'
का संपादन. उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा आचार्य रामचंद्र शुक्ल आलोचना
पुरस्कार से सम्मानित.
संपर्क
: जी-1/506 ए,
उत्तम नगर,
नई
दिल्ली110059
फोन
8447289976 मेल dromnishchal@gmail.com
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कमाल की विवेचना ! अरुण जी और ओमजी दोनों का शुक्रिया !
जवाब देंहटाएंविविध विन्दुओं को समेटते हुए विशद विवेचन हेतु साधुवाद !
जवाब देंहटाएंOm Nishchal सर जब लिखते हैं तो बहुत सुकून और तैयारी के साथ लिखते हैं। इस लेख में कोई कोना अछूता नहीं दिखता।गहन और मुकम्मल लेख।
जवाब देंहटाएंओम निश्चल जी का लिखा हमेशा मुक्कमल होता है।पढ़ते समय लेख से जुड़ाव अनायास हो जाता है।ओम निश्चल जी और आपको धन्यवाद और बधाई
जवाब देंहटाएंकृष्णा सोबती जी के व्यक्तित्व व कृतित्व की विशद व्याख्या व समीक्षा करता बेहतरीन आलेख, बहुत बधाई व आभार आदरणीय ओम् निश्चल जी व समालोचन
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (03-06-2019) को
" नौतपा का प्रहार " (चर्चा अंक- 3355) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
…
अनीता सैनी
आदरणीय कृष्णा सोबती जी पर हर पहलू से विस्तार और समालोचक दृष्टि से लिखा यह लेख ओम निश्चल जी का अनुपम लेख है जो उनकी गहन दृष्टि और उत्कृष्ट समालोचना का बेहतरीन उदाहरण है ।
जवाब देंहटाएंअनुपम।
ओम निश्चल का लिखा बहुत शोध परक होता हओ। एक मुकम्मल लेख के लिए आपको तथा इम जी को बधाई व साधुवाद!
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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