सहजि सहजि गुन रमैं : ज्योति शोभा



ज्योति शोभा अब हिंदी कविता में एक जाना पहचाना नाम है, लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में वे इधर प्रकाशित हुईं हैं.
वर्षों के बाद हिंदी कविता में कोलकाता का अपना खुद का रंग जेनुइन ढंग से सामने आया है. जिस तरह से उनकी कविताओं में यह शहर समाया हुआ है वह इस शहर की जातीय कवयित्री लगती हैं, मार्मिकता और प्रेम उनकी कविताओं के आधार हैं.
उनकी कुछ नई कविताएँ



ज्योति शोभा की कविताएँ                      




क्या तुम नहीं जानते

बहा लेता है कवरी में लगाए जवा
बहा लेता है ढुलके आये आधे अंजन
देह भी आधी डुबोता है
ब्रह्मपुत्र पूरा नहीं लेता मेरा जन्म
क्या तुम ढूंढ रहे हो मुझे
कोलकाता में मेघ छाए हैं
किन्तु बरसते नहीं
मछलियां उद्विग्न हैं कि धर ली जाए
और चट चट जले
सामने ही द्वार हैं देवी के
किन्तु सब जन उधर देखते हैं जहाँ खिड़की के
पट टकराते हैं रह रह के
क्या तुम नहीं जानते
मेरी देह कोलकाता को दे रही है अमृत
और वह मृत्यु दे रहा है मुझे.




उजाड़ में बहुत सी वस्तुएँ अस्पष्ट होती हैं

उजाड़ में बहुत सी वस्तुएँ अस्पष्ट होती हैं
जैसे कोलकाता सिमेट्री में जाओ तो
सुंदर शांत कब्रों के निकट पानी का नल है
किंचित मेघ हैं उनके ऊपर
काई पसर रही है धातु पर
सुसंस्कृत ढंग से
बताओ तो माटी में यों ही गलते हैं शव
उन्हें जल की क्या जरूरत !
सांय सांय करते पुस्तकालयों में तुम जाओ
मुझे ठीक सामने एक पेड़ दीखता है गूलर का
जिस समय सब पेसोआ को पढ़ते हैं
दो छाया वहां एक अनगढ़ कविता की तरह दिखती है अस्पष्ट
और अस्फुट स्वर में आती है उनकी विदा
बताओ तो क्या जरुरत है विदा की जब
दो आँखें पढ़ रही हैं उन्हें और
पत्ते गूलर के झरते ही जाते हैं बिन रुके !
जरा आगे आओ तो अद्या पीठ में उजाड़ का वैभव है
बैठने को जगह है भोग को जगह है
सुगधित मालाएं हैं हाथों में
जवा का सुगन्धित तेल है दर्शनार्थियों के सर पर
एक को हाथ छोड़ना पड़ा प्रिय का क्योंकि यह पवित्र स्थल है
एक को हाथ पकड़ना पड़ा क्योंकि
पैरों में विसंगति थी प्रिय के
नियत समय उमड़ता है भाव
नियत समय है खाली होने का
इतने समय कीट, पाखी, पादप, मनुष्य सब के कलेश में
और गाढ़ काली होती है
बताओ तो क्या करती है देवी फिर उजाड़ मंदिर में !
उजाड़ में ठीक गंगा के मझधार होती है देह
बताओ तो क्या दिख रही है वह पताका
क्या दिख रहा है वह शहर
क्या दिख रही है एक पीली धोती जो
ऊपर ऊपर लिपटी है, ऊपर ऊपर तैरती है उजाड़ के !




तुमसे कुछ नहीं मांगते कोलकाता

मेरी तरह हैं वे
तुमसे नाराज़ नहीं होते कोलकाता
निकल आते हैं टिड्डियों के दल समान
जगह जगह बाउल के चितेरे
रंगते हैं तुम्हारी गलियां मोहल्ले
थोड़ी लार मिलाते हैं अपने गीतों में
थोड़ा स्वेद
नहीं, तुमसे कुछ नहीं मांगते कोलकाता
देते हैं अपने चुम्बन
तुम्हारी नदियों और मेघों को
तने हुए तारों से कस के
मेरी तरह हैं वे
तुमसे बेहिचक लिपट जाते हैं
तुम्हारी सांस फंसती हैं उनके ढीले ज़ाफ़रानी लिबास में
तुम्हारी देह उलझती है उनकी उफनती आँखों में
तुम पागल होते हो कोलकाता
कि झिड़क देने पर भी दूर नहीं हटता
कि गिर कर कोई बिछ जाता है
शरद के रक्त सिमूल की तरह
कि लम्बी रेलों में खड़े कोई पूरे रास्ते पूछता रहता है तुमसे-
एक प्रेम कथा और सुन लो बाबू !
मेरी तरह हैं वे
तुम यकीन तो करते होंगे
जब धुनुची उद्विग्न कर देते हैं तुम्हारे लोम
कि बरस जाता है तुम्हारी ध्वल रात्रियों में चुप चाप
कोई कितना प्रेम कर सकता है तुम्हें.





एक दिन कैसी हिंसा करता है मुझ से

एक दिन पहली बार चूमने से हरी हो गयी थी देह
जन्म कौंध गया था ध्रुव तारे में
निदाघ सांझ में आ गयी थी वृष्टि
एक दिन पहली बार पीठ पर उठा लेने से
ग्रीवा जकड़ ली थी
केश धर लिए थे तुम्हारे कि
समंदर था नीचे
बहुत दिन हथेली पर पर्वत निकाले
शिराओं में नक्षत्र गिरे और खोह बन गए
गंध घुमड़ने लगी जैसे उलूक जागते ही रहते हैं अनवरत
बहुत काठ जमा होते रहे
देहों के अरण्य में
एक दिन मुख सूख गया जैसे दोल फिर आयी हो कूप से खाली !
ओह! एक दिन में कैसे कुम्हला गए कवरी के पुष्प
एक दिन ने अग्नि फूंक दी
मृत हो गए कवि महाकाव्यों में
एक दिन कैसी हिंसा करता है मुझ से.




क्या दोगे इस दोष के लिए

जितनी रिक्त कर रही हूँ देह
उसके लिए क्या दोगे
प्रार्थना में यह रोज़ पूछती हूँ
रोज़ कहती हूँ
उस मछली को छोड़ दो फिर नदी में
जो छटपटाती है बेतरह
जितनी बार अलाव जलाती हूँ
उतनी बार किन्तु गर्म नहीं कर पाती हथेली
जिह्वा फेरती हूँ ओठों पर
कि पुकार उष्ण न हो सके
जितनी बार कालिख पड़ती है रजत मेखला पर
उतनी बार टटोलती हूँ तुम्हारी ऊँगली
कि खुलवा सकूँ बंध
उफान आते अदहन में ही चख कर देखती हूँ
लवण ठीक है कि नहीं
ग्रास देते देते जो चूम लेती हूँ तुम्हें
क्या दोगे इस दोष के लिए ?




शरद बीतने लगा

निमाई नहीं आये
शरद बीतने लगा, कास कठोर होने लगे
जरने लगे पुतलियों में बिम्ब
ज्यों जल में जरने लगते हैं मेखला के लौह मनके
उधर खेला करने आ गए मंच पर कलाकार
वादक साधने लगे सुर
कितनी चेष्टा करती थी
कुछ न आये ओठों पर जब वन से गृह लौटते हों राम
कि एक शब्द भी न छूटे
ज्यों निमाई के धरे से छूट गए आलते के वर्ण
किन्तु भाग्य भी कठोर होता है
जो देव प्रेयसियों के तलवे चूमते हैं वह उन्हीं देवों के काम करता है
शीत पड़ने लगी
विगलित हो गए छप्पर पर गिरे शिरीष
निमाई नहीं आये
खीर में पीताभ चंद्र की छाया थी पहले
फिर पौष का पाला गिर पड़ा
निमाई ने रेल छोड़ दी थी शायद
शायद बहू बाजार में जमाते थे गिरस्ती
शायद सुख शय्या ने जकड ली थी उनकी देह
मात्र एक चीर के कारन
ज्यों अकड़ गयी थी मेरी भी अस्थियां
रात्रि पर्यन्त फिर कितनी डाक आयी बैकुण्ठपुरी से
किन्तु अडोल ही रही देह, कहीं ना जा सकी.





प्रेमालाप भी अंत में स्मृति मात्र रह जाते हैं

और भी घर दुकानें हैं उसके आस पास
अंतिम क्षोर पर कहां है घाट कोलकाता में
जहाँ रात भर चिता जलती है, धुआँ आकाश से अधिक सजीव देहों को टेरता है, शोक से गरम रहती है भूमि
वहीं भट्ठी भी अनवरत सुलगती है
बार बार काठ डालते हैं वे पंडित और ऊंची लपट को
चाय खदकती है केतली में
लोग श्वेत वस्त्र बचा कर पी लेते हैं संताप
पावस से अधिक घाम होता है जलती देह के निकट
बार बार लगता है संवाद निर्रथक ही किये जाते हैं
प्रेमालाप भी अंत में स्मृति मात्र रह जाते हैं
जो एकांत में मिलने बुलाता है अक्सर
वह एकांत में ही छोड़ जाता है
और देखती ही हूँ उस समय कितनी वर्षा होती है
भूतनाथ का भस्म तक नहीं छुटता
ना दुकानों की दीवारें तनिक धूमिल पड़ती है
ऊपर तक आ जाता है जल
अरथी पर अंगुठों को छूता है मानों चूम कर कहता हो
यों ही रहता है इन्द्रियों में प्रेम
यों ही अग्नि टिमटिमाती है जल में.

(फोटो द्वारा ज्योति शोभा)




सुंदरबन के भीगे छंद


१)
बहुत दिनों तक रही हुगली किनारे
इसलिए टूट कर बह गयी है
आत्मा उसमें
मुझे भय लगता है
जिस तरह सुंदरबन के वृक्षों को डुबो देते हैं
अदृश्य द्वीप
उसी तरह
धारा के ऊपर सिर्फ केश रह जाएंगे
मेरी देह के


२)
मेले में थी जब देखा
गुड़ और बताशे सजे हुए थे दुकानों में
उस दिवस निद्रा में थी
जब देखा
मुख चूमा था तुमने और पल्लू की किनोर से
बाँध दिए चंपा और गेंदे
कि देह हल्की रहे


३)
कवि प्रेम नहीं करते
चित्रकार प्रेम नहीं करते
सच, मूर्तिकार भी प्रेम करते
वो थामे रहते हैं डूबती नौका
और जब तक तुम छोड़ नहीं जाते
तब तक रचते रहते हैं
अनदेखे बिम्ब

४)
अन्न के भीतर ढूंढ रही थी तुम्हें
तभी ढल गयी काया
युद्ध में ढूंढ रही थी तुम्हें
तभी पतझड़ ने दस्तक दे दी
शिविरों में नहीं गयी डर के मारे
मर जाती अगर तुम वहां मिलते मुझे

५)
मैं वहीँ आती थी
जहाँ तुम्हारी देह के बाहर एक निपट उजाड़ जगह है
जहाँ सीढ़ियों तक जल आ जाता है पावस के दिनों में
स्पर्श के चिन्हों का खो जाना कितना बड़ा सुख है
यह तुम नहीं जानते

६)
आवृति इसकी हो रही है
कि फिर आ रहा है शरद चांदनी रातों से भरा
फिर उमस कर सूखी झाड़ियाँ भिगो दी मेघ ने
फिर ब्रिज के नीचे झूलते हैं तैराक
यह नहीं होता फिर
कि तुम इस घने शहर से विलगा दो मुझे.



क्या तुम्हें जरा भी अंदाज़ा है

क्या तुम्हें जरा भी अंदाज़ा है एक सांस में ही खाली हो गया है मेरा ह्रदय?
सामने बारिश हो रही है और ज्वार थर्रा रही है
सूर्यास्त का ग्रहण इतना गहरा नहीं जितना काली पुतलियों का है
मुझ पर अब तक उसी गिलास का प्रतिबिम्ब है जिसमे अंतिम घूँट बाकी है
आते जाते जलचर मुझसे बच कर निकल रहे हैं
मेरे सामने ही जंग खा रहा है मेरा शीशा,
मेरी कविता
और यह बेशकीमती शाम की तस्वीर जिस पर हमारे निर्लज्ज अधरों के हस्ताक्षर है.

तुम गंध नहीं पहचानते इसलिए सुनाई नहीं देती तुम्हें हरी बारिश के चलने की आवाज़.
कितनी आहिस्ते चल रही है मेरे रोमों पर, लवों पर, फिर खो रही है
होंठों के बीच बने आधे शून्य में.

तुम्हें जरा भी अंदाज़ा नहीं, इसी हरे शून्य में इन्हीं दिनों होते हैं अंतहीन भेद
यही भेद बाधा डालता है रक्त के रंग में, पूरे गाढ़े लाल रंग में घोलता है असीम नीले प्रश्न
जैसे अंदर रखा किसी गुलदस्ते में पारिजात का फूल
काँपता अनवरत बारिश में.

तुम आँख नहीं हटा पाते इसलिए बारिश लपक लेती है
मेरे कंधे, जंगल और सभी पतंगों को
नरभक्षी बनने का उद्देश्य होता है क्या सिर्फ प्यास निगल लेना ?
एक रात में खाली हुई है यह पृथ्वी
सबके कंकालों के चिन्ह ढो रही है एक नौका
सफ़ेद बादलों की तरह हलकी, जलविहीन इस काठ की काया में कितनी शान्ति है

अंदाज़ा नहीं तुम्हें.



___



ज्योति शोभा अंग्रेजी साहित्य में स्नातक हैं.
"बिखरे किस्से" पहला कविता संग्रह है. कुछ कविताएं राष्ट्रीय और अंतर-राष्ट्रीय संकलनों में भी प्रकाशित हो चुकी हैं.

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  1. तेजी ग्रोवर17 दिस॰ 2018, 10:58:00 am

    ज्योति की कविताएं आज सुबह पढ़ीं। पूरी तैयारी भी नहीं थी। किसी और वजह से फोन उठाया था। अचानक देखा अरुण जी ने मुझे भी टैग किया है। वे कृपापूर्वक हर बार मुझे टैग नही करते। उन्हें मालूम है मैं बहुत कम जाती हूँ स्क्रीन पर। मुझसे बनता नहीँ है। लेकिन आज का दिन एक अपवाद सिद्ध हुआ। एक अद्भुत और सुंदर संसार पसरा हुआ है इन कविताओं में। भाषा भी कुछ विलुप्तप्राय शब्दों से सम्मोहित करती, अवचेतन से मुख़ातिब। कुल मिलाकर एकदम भिन्न स्वर, भिन्न सौंदर्य बोध की रचनाएं। लेकिन मुझे मालूम है ज्योति अपने शिल्प को और भी तराशती रहेंगी, अभी वह खूब तराश रही हैं, लेकिन जहाँ जहाँ कुछ भी तराशकर अलग कर देने की गुंजाइश है, वे निश्चित ही सजग होंगी। मैं हृदय से आभारी हूँ, और प्रिंट लेकर फिर फिर पढूंगी। प्रकाशित संग्रह की जानकारी ज़रूर अलग से मुझे भेजें, ईमेल या मैसेज में।

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  2. लीजिए अभी रुस्तम उठ कर नीचे आये और उन्होंने मुझे बताया ज्योति की बीसियों कविताएँ वे पढ़ चुके हैं और उन्हें बेहद पसंद हैं उनकी कविताएं। वे इतनी कविताएँ कैसे लिख पाती होंगी? दो अन्य कवि ही याद आते हैं जो ऐसा कर पाते हैं।उनमें से एक हैं स्वीडी कवि Ann JADERLUND. For me a prolific poet is a miracle and a freak...And I'm filled with envy and admiration.

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  3. Rustam Singh युवा होते हुए भी ज्योति शोभा इधर की हिन्दी कविता में अत्यन्त महत्वपूर्ण और विशिष्ट कवि हैं, यह मैं पिछले कुछ समय से महसूस करता आ रहा हूँ। उनका अपना विशिष्ट स्वर है और अपनी विशिष्ट भाषा है। इन दोनों गुणों को अर्जित करने में अक्सर कवियों को बहुत समय लगता है। हिन्दी कविता का सौभाग्य है कि ज्योति शोभा उसमें उतरी हैं और अब उभर रही हैं, अपना स्थान बना रही हैं। उनकी कविताएं पढ़ते हुए मुझे दो कवियों की याद आती है, मरीना स्वेतायेवा और तेजी ग्रोवर। कभी-कभी लगता है कि कविता को थोड़ा और कसने की ज़रूरत थी। वर्तनी की ओर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। शुभकामनाएं।

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  4. डॉ. सुमीता17 दिस॰ 2018, 2:16:00 pm

    इन कविताओं से परिचित करवाने के लिए आपको बहुत धन्यवाद Arun Dev जी. भिन्न भावबोध और ताजे विम्बविधान की कविताएँ हैं. सुन्दर और विशिष्ट. Jyoti Shobha जी को बहुत बधाई.

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  5. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (18-12-2018) को "कुम्भ की महिमा अपरम्पार" (चर्चा अंक-3189) (चर्चा अंक-3182) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  6. Arun जी ,कमाल की कविताएं है, अब लगता है कई दिनों कविता की तलाश नही रहेगी, इन कविताओं के स्वर और गहराई अब कही और ना जाने देगी,ऐसी अंतरंगता में कवि का शिल्प और spontaneuos आपस मे घुले मिले हैं कि कुछ कहे न बन पा रहा हूँ

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  7. बेहतरीन रचनाएँ 👌
    सब्दों से क्या तारीफ करू ,हर शब्द अपनी महिमा का भखान स्वयं में गुँथा है बहुत ही सुन्दर

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  8. विनोद पदरज18 दिस॰ 2018, 10:26:00 am

    अरुण जी आभार, ज्योति शोभा जी की कविताएं फेसबुक पर निरन्तर पढ़ता रहा हूँ,
    बंगाल से हिंदी कविता का एक नवीन स्वर सुनाई पड़ रहा है वे कोलकाता के साथ ही प्रेम की भी अद्भुत कवयित्री हैं जिसके समक्ष हिंदी कविता के प्रेम के उपमान मैले पड़ गए हैं और उनकी जड़ें वटवृक्ष की तरह गहरे धँसी हुईं और अवस्तम्भ जड़ों की तरह हवा में झूलती हुईं
    बस थोड़ा धीरज वह भी इतना ही कि सहजता बाधित न हो
    हिंदी की इस ज्योति की शोभा अद्वितीय है, वरिष्ठ कवि शायद उन्हें वॉच कर रहे हैं

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  9. कुछ देर पहले ही 17 जून को समालोचन पर प्रकाशित ज्योतिजी की कविताएँ पढ़ रहा था और अब यहाँ पढ़ते हुए लगा कि महज कुछ महीने में कवि के ज़ेहनी यात्रा और मुकम्मल हुई है... ठहराव के बिंदु पर ही जो व्यग्रता उपजती है, वह पढ़ने वाले को झकझोर देती है... सभी सुधि जन सचमुच में एक कवि की ही तारीफ कर रहे हैं... बधाई कवि... समस्त शुभकामनाएं ...

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