(कात्सुशिका होकुसाई ,जापान की १८३२ पेंटिंग "कानागावा-ओकी नामी ऊरा") |
आशीष बिहानी ‘कोशिकीय एवं आणविक जीव विज्ञान
केंद्र’ (CCMB), हैदराबाद में जीव विज्ञान में शोध कार्य कर रहें हैं और
हिंदी के कवि हैं. उनकी कविताएँ आपने समालोचन पर पढ़ीं हैं.
इधर वे क्रमिक विकास के विविध चेहरों को उपमानों
के माध्यम से कविता में चित्रित करने का प्रयास कर रहे हैं.
इस नयी कविता में उन्होंने एंट्रोपी के माध्यम
से क्रमिक विकास का चित्रण किया है साथ ही शिक्षण पद्धति के मानव केन्द्रित होने के प्रभावों को एक
फंतासी डिस्टोपियन कथा के माध्यम से भी प्रस्तुत करने का प्रयास किया है.
कविता में इस तरह के शुद्ध वैज्ञानिक चित्रण के अपने
ज़ोखिम तो हैं हीं. कविता भी बची रहे और मन्तव्य भी क्षतिग्रस्त न हो.
कविता आपके समक्ष प्रस्तुत है, कुछ फुट नोट
भी दिए गयें हैं.
आशीष बिहानी की कविता
मि ट ना
सभ्यता
जिसके विशाल गोवर्धन के नीचे
अर्थहीन नामों वाले
पूरे के पूरे कुनबे
विखंडन से सुरक्षित
प्रकृति की अबिगत१ विडरूपता से कोसों दूर
कानूनों के घोसले बनाए
दुबके रहे
सभ्य होकर
जिए वो सहस्रशताब्दियों तक
ढोते बेसुध किसी गंतव्यहीन
संविधान को
२.
पदार्थों के विखंडन का सघन
समुद्र
पेचीदगी के बनते-बिखरते धोरे२
ढोते वो अपनी मृत्यु को
ढाल की तरह३
अंगुलियों की भीड़
के बल
किसी ब्लैकहोल का अथाह
द्रव्यमान
अंतरिक्ष के ईथर में पनडुब्बी
कोई४
चरमराती
बेतरतीब मस्तूल डुलाती
बचाती अपने यात्रियों का
व्यक्तित्व
पीढ़ी दर पीढ़ी
३.
विखंडन की खरोचों से
उखड़ उनकी कुछेक औलादें
हो जातीं कुछ और
किसी और दिशा में
अनवरत भिडंत के किरचें फिंक जाते,
अलौट
कठोर कदम
थे आवश्यक
इस अपव्यय के ख़िलाफ़
उँगलियों से उकेरे उन्होंने
आविष्कार
अपने नवजातों की टाट पर
ईथर-भस्म की अमिट स्याही से
एक कुंडली में लिपिबद्ध५
जिससे ढके मस्तिष्क
असभ्यता की तोड़ मरोड़ से लौटकर
वापस आ जाते पैदाइश के ढर्रे पर
४.
बेतरतीब ही वो बढ़ते रहे
अपने जीवाश्म छील-छील कर गढ़ते रहे
सभ्यता का खाका, असभ्यता से अलग
उनके होने के धुएँ खो जाते अतीत
में कहीं
समझे-बूझे से वो घुमाते रहे
अपनी पनडुब्बी को
कुंडलियों में
सदियों के बहाव में आजमाए
बार-बार उन्होंने यही नुस्खे
चीरते चले थे अड़चनों की छातियाँ
उनकी टुकड़ियों की कदमताल तले
पचर-पचर करता उनकी दुनिया का
आटा६
अनायास ही
दुनिया की हवाएं चलने लगीं
कुंडलियों में
धरती पर पेड़ और शैवाल उगे
कुंडलियों में
समुद्रों की धाराओं में
प्लास्टिक के पहाड़ बहे कुंडलियों में
बड़े-बूढ़े-बुद्धिमान बुक्का बाए, अपना सर्पिल टैटू खुजाते
उलझे, तिकड़में भिड़ाते विचारते हैं:
क्यों हो रहा है यह सब ऐसे?
ब्रह्माण्ड उन्हें किस दिशा में
ढकेल रहा है?
५.
मंथर इन्द्रियों के हांके
चले वो अंधियारे के गलियारों
में
बिना मशाल
किसी प्राचीन गणित के कुतुबनूमे
उठाए
उन्हें पता था
अंतिम समाधान हर समस्या का
निर्धारित उनकी दिशाएँ, राहें और मोड़
शंखों-घंटों-गुर्राहटों से
नवजातों के जमघटों
के नख शिख सँवार
भटके फिरतों को मार-पीट कर
उनके कुतुबनूमे ज़रूरत अनुसार
सीधा कर
एक सच्ची सभ्यता की तरह
झुण्ड में, एक राह पर वो चले
जिसका सूत्र कोई लिख गया, सहस्त्राब्दियों पहले
६.
सामने खुला महाखड्ड
जिसके किनारों पर दाँते की लगाई
आग है
दिखाई देता है आसन्न विनाश
बीहड़ पदचापों से कुचला
दुनिया का आटा
मुड़ता-घुमड़ता भौतिकी की
परिधियों पर
बदल रहा है ऐसे
जिसकी भविष्यवाणी नहीं की किसी
ने
जिसके बारे में नियत चरों ने
कुछ नहीं बताया कभी
जो उनकी सामूहिक समझ और कल्पना
के बिल्कुल परे है
जिसको सामने देखकर भी वो मानने
को तैयार नहीं
प्रपात के कगार पर सकपकाए
अपनी आख़िरी साँसे गिनते हुए
रुकने से इनकार करते हुए
क्योंकि चलना ही उन्होंने जाना
था
हिसाब से बने-बनाए रास्तों पर
अँधेरे में बे-अंदाज़ हाथ मारना
बेतुका था उनके लिए
७.
हवन
समिधा है
विशाल गुम्बद, स्टोनहेंज के खंभे, पिरामिड
स्काईस्क्रेपर, पहाड़, रेडवुड
और सागवान के पूरे के पूरे जंगल
पैगोडा, सस्पेंशन ब्रिजेज़, विश्वविद्यालय और भट्टियाँ
न्यायलय, हाथी, डायनासोर
के अंडे और सभी तरह की व्हेल्स
कुनबे के हरेक एकलव्य का अँगूठा
सब कुछ
सब कुछ होम दिया गया
भून दिए गए गैलेक्सी भर के
सामान
जो लोग अपनी छातियों से चिपटाए
खड़े थे
समाचारपत्रों के पुलिंदे, कपडे, जूते
काम न आने वाली खोपड़ियाँ और
अन्य हड्डियाँ
नाना प्रकार के ब्रज़िएर्स, चड्डियाँ और अंगूठियाँ
खटारा बसों के टिकट, नकली रुद्राक्ष के मिणिए७, फ़ोन की सिम
घड़ी के दांत, टूथब्रश, पुरानी
हीरो साइकिलें
और, सारी मानवता के सारे बाल
और हविष्य! और!
बुड्ढे-बुड्ढियाँ, अपाहिज़,
शास्त्रार्थ में असक्षम लोग,
बदसूरत औरतें
अनपढ़ आदिवासी,
अवसाद से घिरे किशोर
सब आहूत
एक सांचे में घुटी नग्न मानवोइड८ मशीनों की लम्बी पंक्ति
उतरी आधे यू-अकार की घाटी में
वो भाग्य और व्यक्तित्व के धनी
नर-पुंगव
वो सर उठाकर देखते हैं उस
भविष्य की तरफ
जिसे स्वाभाविक रूप से उज्ज्वल होना चाहिए
जिसे होना चाहिए अभी तक की गणित
के हिसाब से संभव
जहाँ वो रचेंगे एक नया यूटोपिया
उनकी आँखों में चमक है बलिदान की
अधिकार की
एक नयी दुनिया बनेगी
चमकदार और सममित आकृतियों से
गढ़ी
वृहत्, सुघड़ और मनोहर
८.
पीढियां गुज़र गयीं
बाल पुनः उग गए
पुरानी पीढ़ियों से बचा-खुचा यू
बनाया गया
स्याह कीचड़ में, बरसात तले
वो चले कष्ट भरे दलदल में
उम्मीद को दुःख की रजाई में
दुबकाए
सपनों के पर्दों से भविष्य के
अक्षर धुलकर बह गए
तेल में बदलते जैव कीचड़ के ऊपर
वो
कवचहीन घोंघों की तरह
घिसटे
उनके पैर कुंद हो गए मृत-अपघटित
जीवों में धंसकर
अनभ्यस्त दलदलों के
उन्होंने इमारतें घोट कर पीं
थीं
उनके जठर में शब्द भड़भड़ा रहे थे
गुमराह मधुमक्खियों की तरह
जैसे वो मंत्रणा कर रहे हों
किन्हीं भूतों से
९.
किसी कर्म किसी विधाता की किताब
में
शायद उनका यूटोपिया बन चुका
होता
किसी और किताब में शायद उनको
नष्ट होना होता
पर किसी परिचित कविता के अंत सी
तसल्लीदेह
तो प्रकृति नहीं है
जहाँ शोर और ग्रीन हाउस गैसें
उगलते कट्टों के मुँह
गाँठ मार कर बंद कर दिए जाते
हैं
फ़र्श बुहार दिए जाते हैं
और कहा जाता है कि ये विश्व है
ब्रह्माण्ड के इस कोने में
चींटियों का एक झुण्ड
दूसरे झुण्ड के नगर को तहस नहस
कर देता है
और युद्ध के अंत में अपने उन्ही
घायल साथियों को वापस
ले जाता है जिनकी कम टांगें
टूटीं हैं
१०.
वो विनाश के दरवाजे से खींचकर
बना दिए जाते थे वापिस
मानव होने की सर्व-स्वीकार्य
परिभाषाओं में
उनका हर कतरा प्रतिस्थापित था
उनके होने के अर्थ फिर भी विकृत
होते रहे
जिससे बस वो ढांपते थे किसी
आदिम नंग-धडंग-पने को
अंतड़ियाँ उमेठ कर वो कराहते
बिंधी हुई आवाज़ में
उनके डायबिटिक उबाल उन्हें
घुटनों के बल ले आये
बेदम
उनके पुरखों ने कभी
निश्चित किया होगा इस सब का
होना
इस विशाल धोरे के नीचे धातु की
परत रही होगी उनकी बिछाई
जिसको जानने की कोई ज़रूरत
उन्हें महसूस नहीं होती
प्रायश्चित
पीढ़ियों के हिंसक इतिहास का
किसी परिचित कविता के अंत सा
निश्चित अंत
डिज़र्व करते हैं वो
११.
उनका अंत नहीं होगा तात्कालिक
और सपाट
किसी वैधानिक न्याय सा स्पष्ट
नहीं
होगा
प्रकृति के परिवर्तनों के साथ घिसटते
ख़त्म हो जाएँगे
बिना किसी चित्रगुप्त को लेखा
जोखा दिए
बिना अपनी डिजिटाइज्ड मेधा को
सुरक्षित किये
बिना किसी नूह या मनु की
स्पेसशिप
में अपने बीज छोड़े
जब तक वो मरेंगे तब तक
उनके साथ विकसे जीव जीवाश्मों
और पेट्रोलियम में तब्दील
हो जाएँगे और मिला करेंगे पानी
की तलाश के वक़्त
पानी की जगह
किसी अजाने जंगल के अजाने दैत्य
उनके पीछे पीछे
निगलेंगे विशाल भूखंडों को
उन्हें लगेगा कि यह एक सोची
समझी साज़िश है
उनके निशाँ मिटाने की
पर वो बस प्रकृति है
सहजता से अपना काम करती हुई
१२.
धरती का पसीना जलेगा
ईंधन बनकर
रिसते तेल
प्लास्टिक और राख के पहाड़ों
हवा में उड़ते धुंए के ढेलों
पर गुज़र करता
जीवन फिर कुलबुलाएगा
दुनिया के आटे होंगे किसी एलियन
कोरल९ के घर
तूफानों की अंधी धुन में शांति
अन्धकार में ज्ञान
दर्रों से बहकर मैदानों में
फैलते प्रश्न
ज्वालामुखी में उफनता पराग
सहस्त्राब्दियों की तस्वीरें
सूर्योदय और सूर्यास्त के
नवनिर्मित अर्थ
चद्दरें हटाते पृथ्वी के चेहरे
से
रचते अकल्पनीय कथाएँ
जीवाश्मों के मलबे से उभरते
अंकुर
ढक लेंगे सब कुछ जो सदियों ने
गढ़ा है
छैनी हथोड़े की आपाधापी में
शायद उभर आये
____________
१. अबिगत: “अबिगत” (अव्यक्त) का
प्रयोग सूरदास ने ईश्वर के लिए किया है.
२. पेचीदगी के बनते बिखरते धोरे: १९५२ में अपने मशहूर शोधपत्र में एलन
ट्यूरिंग ने यह दिखाया था कि डिफ्यूज़न और नेगेटिव फीडबैक (यहाँ पर विखंडन) से एक
एकरस सिस्टम में स्पोंटेनियस असममितता पैदा हो सकती है.
३. मृत्यु को ढाल बनाए: हेमिल्टन, मेडावर, हाल्डेन इत्यादि ने पहली बार इस बात पर प्रकाश डाला था कि जरा और मृत्यु
किसी प्रजाति के जीते रहने के लिए आवश्यक है.
४. ईथर: प्रकाश के तरंग रूप को समझाने के लिए अंतरिक्ष को ईथर नामक पदार्थ से भरा माना गया था.
५. कुंडली: कविता के विश्व में कुनबे ने मान लिया
है कि कुंडली ब्रह्माण्ड के चलने का यूनिफाइड कोडित नियम है और इससे आगे के सारे
भविष्य को जाना जा सकता है.
६. दुनिया का आटा: अस्तित्व का फाइबर है. वो हमारे अब तक के ज्ञान से बहुत
ज़्यादा गहन और जटिल है, कुनबा नहीं समझता कि उसकी हरक़तों का
क्या असर पड़ता है.
७. मिणिए: माला के दानों के लिए मारवाड़ी शब्द
८. मानवोइड: मनुष्य जैसा दिखने वाला
९. एलियन कोरल: क्रमिक विकास की प्रक्रिया से एकदम नए नियमों वाले विश्व का
उद्भव
आशीष बिहानी
जन्म: ११ सितम्बर १९९२, बीकानेर (राजस्थान)
जन्म: ११ सितम्बर १९९२, बीकानेर (राजस्थान)
कविता संग्रह: "अन्धकार के धागे" 2015 में हिन्दयुग्म प्रकाशन द्वारा प्रकाशित
ईमेल: ashishbihani1992@gmail.com
ईमेल: ashishbihani1992@gmail.com
अन्तर्मंथन बनाम ब्रह्माण्ड मंथन । प्रतिभा का अद्भुत प्रस्फुटन है यह कविता ।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कविताएँ | बधाई
जवाब देंहटाएंकितनी अलग दृष्टि, कितना नया स्वर !
जवाब देंहटाएंपहले तो यह कह दूँ कि ऐसी विलक्षण कविता बहुत दिनों से नज़र में नहीं आई। कवि को बहुत बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंदो मामूली सुझाव भी हैं। एक, जहाँ वैज्ञानिक शब्दावली का प्रयोग करें वहाँ परिचित शब्द (अधिकतर अंग्रेज़ी में होंगे) का प्रयोग करें और पाठक को उसके बारे में अपनी रिसर्च करने दें। ट्यूरिंग की जिस रिसर्च का आपने ज़िक्र किया है वह किसी ह्यूमैनिटीज़ वाले को समझ में तो आयेगी नहीं, उसे कविता को पढ़ने से विरत अवश्य करेगी। दूसरी सलाह, सही भाषा ज़रूरी है। आहुत को आहूत लिखने से अर्थ बदल गया। सहस्त्र कोई शब्द नहीं होता सहस्र होता है। विडरूपता
, मष्तिष्क, किरचे भी अशुद्ध हैं।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (14-12-2018) को "सुख का सूरज नहीं गगन में" (चर्चा अंक-3185) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
अँग्रेज़ी के शब्द और विज्ञान की शब्दावली को अनदेखा कर दें तो कविताएँ अच्छी हैं। अँग्रेज़ी के शब्द हिन्दी कविता में न ही हों तो अच्छा हो। विज्ञान की अवधारणाओं को साधारण शब्दों में भी रखा जा सकता है, ऐसा मुझे लगता है। अन्ततः हमारी मंशा एक अच्छी कविता बनाना है, कुछ और नहीं।
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