रंग-राग : स्त्री का रहस्य : सिद्धेश्वर सिंह
























कवि सिद्धेश्वर सिंह निर्देशक अमर कौशिक की फ़िल्म ‘स्त्री’ देखने गए, वहाँ उन्हें स्त्रियों पर लिखी कविताएँ भी याद आईं. डरना-वरना तो क्या ? यह टिप्पणी उन्होंने जरुर भेज दी मुझे. आप भी पढिये इसे.  



प्रेम, भय और एक स्त्री का रहस्यलोक !                          
___________
सिद्धेश्वर सिंह





जिस जगह अपना हाल मुकाम है वहाँ रहते हुए अगर के किसी दिन सिनेमाघर में बैठकर  सिनेमा देखने का मन करे  तो एक तरफ से कम से कम नब्बे किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ सकती  है.यह यात्रा बस से , ट्रेन से  या फिर किराए के या निजी वाहन से की जा सकेगी.यह अलग बात है कि आज से दो दशक पहले तक कस्बे में कुल तीन  'जीवित' सिनेमाघर  हुआ करते थे. वे अपनी देह को लगभग ढोते हुए अब भी  विद्यमान हैं लेकिन वे तीनो अब 'बंद टाकीज' हैं.'बंद टाकीज' बस्तर निवासी अपने कविमित्र  और 'सूत्र सम्मान' के सूत्रधार विजय सिंह का कविता संग्रह है.जब  भी किसी उजाड़ ,परित्यक्त, अबैनडंड, बंद हो चुके सिनेमाघर को देखता हूँ तो एक बार को सहज ही  'बंद टाकीज' कविता की याद आ जाती है :


मेरे लिए हमेशा यह कौतूहल का विषय रहा है कि टाकीज़ की अंदर की खाली कुर्सियों में कौन बैठता होगा ?
वहाँ चूहे तो जरूर उछल कूद करतें होंगे
मकड़ियाँ जाले बुन ठाठ करती होंगी
दीवारों से चिपकी छिपकलियाँ
क्या जानती हैं बाहर की दुनियाँ के बारे में
क्या सोचती हैं बाहर की दुनिया के बारे में
इतने सालों से रूके पंखे क्या एक जगह खड़े -खड़े ऊब नहीं गए होगें ?
क्या उनका मन
पृथ्वी की तरह घूमने का नहीं करता होगा ?


अभी कुछ दिन पहले ऐसा संयोग बना कि  अपने कस्बे से सैकड़ो किलोमीटर दूर एक 'सचमुच' के सिनेमाघर में फ़िल्म देखने का अवसर  उपलब्ध हो गया. फिल्म का शीर्षक था - स्त्री. आजकल की भाषा 'नई वाली हिंदीका चलन है कि अब  फिल्म के ट्रेलर को टीज़र कहा जाता है- मतलब कि बानगी जैसा कुछ. बेटे अंचल ने नेट के जरिए इस इसका टीजर  दिखाया लेकिन कुछ खास उत्सुकता नहीं हुई लेकिन उस मल्टीप्लेक्स में उस दिन जितनी भी मूवीज चल रही थीं उनमें 'स्त्रीही सबसे ठीक-सी लगी. यह 'स्त्री' शीर्षक  बहुत आकर्षक लगा. अक्सर ऐसा (भी) होता है कि कोई शीर्षक, कोई संज्ञा, कोई नाम भी अपनी ओर खींच ले जाता है.

बहुत साल पहले  मैंने  'स्त्री' शीर्षक से एक फ़िल्म अपने गांव के सबसे पास वाले कस्बे दिलदार नगर (जिला - गाजीपुर, उत्तर प्रदेश) के कमसार टॉकीज में देखी थी. उस 'स्त्री' की  एक धुंधली-सी  स्मृति-छवि है कि वह कालिदास के 'अभिज्ञान शाकुंतलमपर आधारित वी. शांताराम की फिल्म थी. एक बार को ऐसा अनुमान करने का मन हुआ कि हो सकता है कि यह वाली 'स्त्री' उसी पुरानी वाली 'स्त्री' का रीमेक हो लेकिन वह 'टीज़र' इस संभावना के  विपरीत संकेत कर रहा था. नई 'स्त्री' के दृश्य, भाव, भंगिमा और भाषा में एक अनगढ़ भदेसपन प्रकट हो रहा था जो कि कालिदास और वी. शांताराम के से नैकट्य के निषेध का स्पष्ट द्योतक था.

'स्त्री' शीर्षक से इधर हाल के वर्षों में लिखी गई ढेर सारी कविताएं भी मन में घुमड़ रही थीं. बहुत सी किताबों के शीर्षक भी याद आ रहे थे  जैसे कि पवन करण की 'स्त्री मेरे भीतर' और 'स्त्री शतक', रेखा चमोली की 'पेड़ बनी स्त्री' आदि लेकिन जब सुना कि 'स्त्री' एक हॉरर कॉमेडी फिल्म है जिसमे राजकुमार राव और श्रद्धा कपूर की जोड़ी  ने अभिनय किया है तो मन को समझाया कि एक आम मुम्बइया  हिंदी फिल्म को फिल्म समझ कर ही देखा जाना चाहिए. इसके निमित्त  कविता और साहित्य के अवान्तर प्रसंगों की वीथिका में डोलना-भटकना ठीक बात नहीं लेकिन कविता से दैनंदिन का ऐसा नाता  जैसा कुछ बन गया है कि वह अपनी उपस्थिति के लिए राह खोज ही लेती है. 'हॉरर' शब्द से डर शब्द प्रकट हुआ और 'डर' तथा 'स्त्री' शब्द के विलयन से कात्यायनी की कविता 'इस स्त्री से डरो' की  याद  हो आई :

यह स्त्री
सब कुछ जानती है
पिंजरे के बारे में
जाल के बारे में
यंत्रणागृहों के बारे में.

उससे पूछो
पिंजरे के बारे में पूछो
वह बताती है
नीले अनन्त विस्तार में
उड़ने के
रोमांच के बारे में.

जाल के बारे में पूछने पर
गहरे समुद्र में
खो जाने के
सपने के बारे में
बातें करने लगती है.

यंत्रणागृहों की बात छिड़ते ही
गाने लगती है
प्यार के बारे में एक गीत.

रहस्यमय हैं इस स्त्री की उलटबासियाँ
इन्हें समझो,
इस स्त्री से डरो.

हमें फिल्म देखनी थी ; हम फिल्म देखने गए. हमारे लिए यह एक ऐसी फिल्म थी जिसके कथानक के बारे में कोई खास जानकारी नहीं थी. अखबारों में इसके बारे में कुछ खास पढ़ा भी न था. यह न तो बॉयोपिक थी और न ही ऐतिहासिक छौंक वाली कोई कॉस्ट्यूम ड्रामा. वैसे यह पता चला था कि यह उस तरह की 'भूतिया' फिल्म भी नहीं है जैसी कि किसी जमाने में रामसे ब्रदर्स वगैरह बनाया करते थे और न ही 'महल' जैसी क्लासिक ही है.

खैर, 'स्त्री' शुरू हुई. रात के नीम अंधेरे में डूबे किसी पुरावशेषी कस्बे की सर्पिल टाइलों वाली गलियों में घूमता कैमरा हर मकान पर लाल रंग से लिखे एक वाक्य को फोकस कर रहा है - ओ स्त्री कल आना. कहानी बस इतनी सी लग रही है कि प्रेम में डूबी हुई एक स्त्री अपने बिछुड़े हुए प्रेमी को पाने के लिए भटक रही है  और इस भटकन में  वह कस्बे के हर पुरुष में अपने प्रेमी के होने को खोज रही है- देह और विदेह दोनों रूपों में. वह स्त्री एक साथ शरीर भी है  और आत्मा भी. इस जरा-सी कहानी को कहने के लिए  इसमें कुछ घटनाएँ हैं, कुछ पात्र हैं और इतिहास की टेक लगाकर ऊंघता हुआ एक कस्बा है.



इस फिल्म को देखते हुए मुझे  यह अनुभव हो रहा  था कि में एक ऐसे कस्बे में पाँव पैदल विचरण कर रहा हूँ जो कि इतिहास के बोसीदा पन्नों से निकल कर चमकदार और ग्लॉसी बनने को विकल नहीं है. इस तेज रफ्तार दुनिया में वह अपनी मंथर चाल और अपने साधारण होने पर कुंठित नहीं है.वह अपने होने में संतुष्ट है और उसके पास जो भी, जैसा भी हुनर है उसकी कद्र करने वाले विरल भले ही हो गए हों विलुप्त नहीं हुए हैं. इस कस्बे में  दर्जी की दुकान पर अब भी भीड़ होती है. संकट में पड़े हुए दोस्त को न छोड़ कर जाने में  अब भी सचमुच की हिचक और शर्म बाकी है. पूरा कस्बा एक नवयुवक के मातृपक्ष के रहस्य को गोपन बनाए रखने पर आश्चर्यजनक रूप से एकमत है और कुल मिलाकर इस कस्बे में एक ऐसी स्त्री का भय है जिसको प्रेम के सिवाय और किसी चीज की दरकार नहीं. इस कस्बे का नाम है चन्देरी.

अगर मानचित्र में इसकी निशानदेही आप खोजना चाहें तो मध्य प्रदेश में कहीं एक बिंदु जैसा कुछ शायद दिखाई दे जाय. हिंदी के सुपरिचित-चर्चित कवि कुमार अम्बुज की एक कविता का शीर्षक है - 'चन्देरी'. इस कविता में वह ब्रांड बन चुकी चंदेरी  की साड़ियों की बात करते - करते करघे, कारीगर और महाजन तक जब पहुंचते हैं तब उन्हें कुछ और दिखने लगता है या कि यों कहें कि कविदृष्टि  उस डर पर ठहर जाती है जो कि तमाम कलावत्ता के बावजूद चन्देरी में व्याप्त है :

मेरे शहर और चंदेरी के बीच
बिछी हुई है साड़ियों की कारीगरी
इस तरफ से साड़ियों का छोर खींचो तो
दूसरी तरफ हिलती हैं चन्देरी की गलियाँ

मैं कई रातों से परेशान हूँ
चन्देरी के सपने में दिखाई देते हैं मुझे
धागों पर लटके हुए कारीगरों के सिर

चंदेरी की साड़ियों की दूर दूर तक माँग है
मुझे दूर जाकर पता चलता है


'स्त्री' देखकर अपन हाल से बाहर निकल आए और सोचते रहे कि कि अपने साथ क्या कोई कथा, कोई पात्र, कोई दृश्य साथ जा रहा है? क्या कुछ है जो 'अरे यायावर रहेगा याद !' की तरह याद रहेगा? यह ठीक है कि अपने अभिनय के लिए राजकुमार राव, पंकज त्रिपाठी, अपारशक्ति खुराना और अभिषेक बनर्जी कुछ समय तक याद रहेंगे लेकिन श्रद्धा कपूर प्रभाव नहीं छोड़ सकीं.

निर्देशक अमर कौशिक का काम ठीक ठाक है. पटकथा और संवाद भी ठीक बन पड़े है. कुल मिलाकर इस फ़िल्म को एक बार इसलिए देखा जा सकता है कि यह भय  और हास्य का एक ऐसा विलयन प्रस्तुत करती है जो कि हिंदी की मुख्यधारा के सिनेमा के लिए नया तो है ही. जो नया  है उस पर बात जरूर की जानी चाहिए और बात जब स्त्री, खासतौर पर प्रेम में डूबी हुई स्त्री को केंद्र में रखकर की जा रही हो तब तो अवश्य ही जैसा कि मनीषा पांडेय की कविता 'प्यार में डूबी लड़कियाँ' आगाह करती  है कि

प्‍यार में डूबी हुई लड़कियों से
सब डरते हैं

डरता है समाज
माँ डरती है,
पिता को नींद नहीं आती रात-भर,
भाई क्रोध से फुँफकारते हैं,
पड़ोसी दाँतों तले उँगली दबाते
रहस्‍य से पर्दा उठाते हैं...!


काश यह फिल्म जिसका शीर्षक 'स्त्री' है अपने रहस्य को ठीक से बरत पाती !
______





sidhshail@gmail.com 

9/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. "प्रेम, भय और एक स्त्री का रहस्यलोक " के बारे में मित्र डॉ. सिद्धेश्वर सिंह का चिन्तन सुखद लगा।
    --

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (25-11-2018) को "सेंक रहे हैं धूप" (चर्चा अंक-3166) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुन्दर पोस्ट

    जवाब देंहटाएं
  4. दिलचस्प दृष्टि कवि की - बहरहाल राजकुमार राव और अपारशक्ति खुराना की दोस्ती बेमिसाल है। फ़िल्म बांधे रखने वाली है....ऐसी अपारंपरिक टिप्पणियाँ पढ़वाने के लिए अरुण देव का शुक्रिया।
    यादवेन्द्र / पटना

    जवाब देंहटाएं
  5. Stri ke behane bahut kuch ...... Diya jelaye Rekhiye . Hamare Andhkar me Dar ke siye kuch becha nahin hai stri to aub striyon me bhi bachi nahin purusho ki politics ke beech rasta bhatak gayi hai ,

    जवाब देंहटाएं
  6. सिनेमा देखने और उस पर टिप्पणी करने का यह कविताई अंदाज भाया। सिद्धेश्वर जी से हाल में ही परिचय हुआ है। बधाई!

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.