परख : कोरियाई कविता के हिंदी अनुवाद की समस्या : पंकज मोहन










दो भाषाओँ के बीच अनुवाद सांस्कृतिक प्रक्रिया है, मुझे लगता है कि जैसे साहित्य से उस समाज का पता चलता है उसी प्रकार जिस भाषा में अनुवाद हो रहे हैं, उसकी गुणवत्ता से उस समाज की समृद्धि और सुरुचि का भी अंदाज़ा लग जाता है.

अच्छे अनुवाद भाषाओँ के ज्ञान, पर्याप्त समय और धन तथा उच्च सास्कृतिक बौद्धिक स्तर के बिना संभव नहीं हैं. यूरोपीय देश ज्यों-ज्यों समृद्ध होते गये उनकी भाषाओँ में अनुवाद की गुणवत्ता निखरती गयी. 

भारत और हिंदी जैसी भाषाओँ में अनुवाद झमेले का काम है ख़ासकर जब ये अंग्रेजी के अलावा किसी विदेशी भाषा से हिंदी में हो रहे हों. एक तो मूल से अनुवाद नहीं हो पाते, अगर होते हैं तो उन दोनों भाषाओँ के जानकार पुनरवलोककनहीं मिल पाते.  

हिंदी के कवि दिविक रमेश की पुस्तक "कोरियाई कविता यात्रा" १९९९ में साहित्य अकादेमी से प्रकाशित हुई पर जब कोरियाई भाषा में रूचि और गति रखने वाले पंकज मोहन ने इसे परखा तो तमाम झोल सामने आ गए.

यह लेख आपके लिए.




कोरियाई कविता के हिंदी अनुवाद  की समस्या              
पंकज मोहन,

(यशस्वी साहित्यसेवी श्री विष्णु खरे जिन्होंने अनूदित कृतियों पर संतुलित तथा तथ्यपरक समीक्षात्मक लेख लिखने के लिए मुझे प्रेरित किया, की स्मृति में इस विषाद-कुसुमांजलि को सश्रद्ध अर्पित करता हूँ.)

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निराला रचनावली (खंड 6) में अनुवाद से सम्बंधित निराला-द्विवेदी वार्ता के कुछ अंश संकलित हैं:


"एक बार मै हिंदी के धुरंधर आचार्य पूज्यपाद पंडित महावीरप्रसादजी द्विवेदी के दर्शन करने गया था. एकाएक अनुवाद का प्रसंग चल पड़ा. मैंने उनसे उसके नियम पूछे. द्विवेदीजी ने कहा, उभय भाषाओं पर अनुवादक का पूर्ण अधिकार होना चाहिए. उभय भाषाओं के मुहाबरे बिना जाने अनुवाद में सफलता नहीं होती. दूसरे, अनुवाद के लिए यह कोई नियम नहीं कि मूल की अर्थध्वनि कुछ और हो और अनुवाद की कुछ और. अनुवादक को सर्वदा मूल के अर्थ पर ध्यान रखना चाहिए. उसी अर्थ को दूसरी भाषा में परिस्फुट कर देने की चेष्टा करनी चाहिए. सारांश यह कि मूल की भाषा और भावों से अनुवाद की भाषा और भाव क शिथिल न होने देना चाहिए."

हिंदी में साहित्य के अनुवाद का श्रीगणेश उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हुआ, किन्तु द्विवेदीयुग में इस विधा का विशेष विकास हुआ. द्विवेदीजी ने "ग्रंथकारों से विनय" (सरस्वती 1905) शीर्षक कविता की रचना कर अनुवाद की आवश्यकता पर जोर दिया था::

इंग्लिश का ग्रन्थ बहुत भारी है
अति विस्तृत जलधि समान देहधारी है
संस्कृत भी इसके लिए सौख्यकारी है
उसका भी ज्ञानागार हृदयहारी है
इन दोनों में से ग्रन्थ-रत्न ले लीजै
हिंदी अर्पण उन्हें प्रेमयुत कीजै


परवर्ती काल में अंग्रेजी, संस्कृत और भारत की दूसरी भाषाओं के अनूदित ग्रंथों से हिंदी निस्संदेह अत्यंत समृद्ध हुयी. उभय भाषाओं में निष्णात और अनुवाद-कला को नयी ऊंचाई प्रदान करने वाले अविस्मरणीय साहित्य-साधकों की श्रेणी में भारतेन्दु हरिश्चंद्र, निराला, बौद्ध शास्त्र-सूत्र अनुवाद के वृहतत्रयी राहुल सांकृत्यायन, भिक्षु जगदीश कश्यप और आनंद कौसल्यायन , बंगला साहित्य के तलस्पर्शी विद्वान हंस कुमार तिवारी,, हज़ारीप्रसाद द्विवेदी, दिनकर, बच्चन आदि पांक्तेय हैं. फिर भी यह हिंदी साहित्यिक परिदृश्य का एक कटु यथार्थहै कि एशिया की साहित्यिक कृति को बिना अंग्रेजी अनुवाद की बैसाखी का सहारा लिए मूल भाषा से अनुवाद करने की क्षमता रखने वाले वाले साहित्य-साधक आज भी उँगलियों पर गिने जा सकते हैं.


आचार्य द्विवेदी ने जिन नियमों का प्रतिपादन किया है, वे सार्वभौम, सर्वयुगीन और स्वत-सिद्ध सत्य हैं. चूँकि मैं कई दशकों से कोरियाई भाषा से जुड़ा रहा हूँ, इसलिए मैंने यह जानने की कोशिश की कि अंग्रेजी अनुवाद पर निर्भर होकर कोरियाई कविता के मूल भाव और संवेदना को हिंदी में उतारना संभव है या नहीं. पिछले दो दशकों में आधुनिक कोरियाई कविताओं के तीन संकलन प्रकाशित हुए हैं. इस आलेख में दिविक रमेश की पुस्तक "कोरियाई कविता यात्रा" (साहित्य अकादेमी, 1999) से कुछ उदाहरण प्रस्तुत कर अंग्रेजी अनुवाद पर आधृत काव्यानुवाद की कठिनाइओं और खतरों पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करूंगा.


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बंटवारा

मेरे प्यार, मेरे हाथों में अपने हाथ दो
दिखते हैं अँधेरे में तुम्हारे मोम-रंगे हाथ
मेरे प्यार, मुझसे बोलो, मेरी आँखों से
उपयुक्त होता है मौन, सन्नाटे के लिए.
क्या होना चाहिए हमें अलग, होना चाहिए हमें तुम्हे और मुझे?
क्या हम डूब जायेगें समुद्र में और हो जायेगें नागराज
और नागरानी ? पागलपन में
हो जाने की बजाय अलग 
(दि.. पृष्ठ 56-57 )


मूल कविता से मिलाकर देखने पर मेरे सामने यह स्पष्ट हो गया की दिविक रमेश का अनुवाद मूल कोरियाई में व्यक्त भाव और विचार से बहुत दूर चला गया है. इस कविता को मैंने इस तरह समझा है.


विछोह

प्रिय, दो अपने हाथ, थाम लो मेरे हाथ
अँधेरे में भी दिखते अपने मोमवर्णी, धवल हाथों में
प्रिय, बोलो, डाल दो मेरी आँखों में
अपने अवरुद्ध कंठ से फूटे मौन के स्वर.

कैसे हो सकते हम एक दूसरे से पृथक
आखिर कैसे रह पायेगें हमएक दूसरे से दूर ?
विरह-अग्नि में दग्ध हो हम हो जायेगें विक्षिप्त..
अच्छा है इससे कि हम साथ डूब मरें इस समुद्र में
और साथ जीएं, बनकर यक्ष और यक्षिणी.


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गिरती पंखुरियाँ

ऐसा न हो कि रहे एकांत में
सुन्दर आत्मा
जानना होगा लौकिक दिमागों को
हैं मेरे पास कुछ आशंकाएं
जब गिरती हैं सुबह-सुबह पंखुरियाँ
चाहता हूँ मैं चीखना कलेजा निकालकर

अब दिविक रमेश के उपरोक्त अनुवाद को मेरे अनुवाद से मिलाकर देखिये.

झड़ते फूल

मैं नहीं जानता
कि कहीं कोई है
जो समझ सके एकाकी जीवन जीते एक व्यक्ति के
निश्छल, निष्कलुष ह्रदय को
प्रातःकाल जब टहनियों से झरते हैं फूल
घिर जाता हूँ उदासी से.

कुछ ऐसे ही भाव केदारजी की एक कविता में व्यक्त हुयी है: "झरने लगे नीम के पत्ते/बढ़ने लगी उदासी मन की."

अब तीसरे उदाहरण पर दृष्टिपात करें.

3.
हृदय में पताका
है कोई दोस्त, सुनहरे ह्रदय वाला
फैला
रेशमी रेत सा
जहां डूब चुकी हो संतप्त समाधि राजसी आदेश-सी


इस कविता के भाव को मैंने इस तरह अभिव्यक्त किया है:

है कोई मित्र
जिसका हृदय हो रुपहली बालुका राशि-सा
निःशेष जो सोख ले
उस गहरे विषाद की धारा को
जो प्रवाहित होता है एक पराजित राजसम्राट के ह्रदय में
आत्समर्पण की घोषणा करते समय . (संकल्प ध्वज)


यहां यह ध्यातव्य है कि मूल कविता के भाव को आत्मसात करने की अक्षमता तथा अंग्रेजी अनुवाद में प्रयुक्त शब्दों के निहितार्थ को गहराई से समझने की विफलता के कारण दिविक रमेश के अनुवाद में मूल कविता की चेतना और भावना विकृत हो गयी है. "झड़ते फूल" कविता की अंतिम पंक्ति "चाहता हूँ मैं चीखना कलेजा निकालकर "अंग्रेजी वाक्य " I wish to cry my heart out" का यांत्रिक, कृत्रिम अनुवाद है और "ह्रदय में पताका" कविता में प्रयुक्त शब्द "Grief grave as royal edict" को समझने में अनुवादक ने ऐसी चूक कर दी है कि हिंदी अनुवाद ("संतप्त समाधि /राजसी आदेश-सी ") अर्थ का अनर्थ कर देता है.


दिविक रमेश की पुस्तक में ऐसे अनेक अनुवाद हैं जिसमे मूल रचना तो दूर की बात है, अंग्रेजी अनुवाद से भी बहुत फासला बन गया है. "छिंदालय" की पहली पंक्ति का "भ्रामक अनुवाद "जाओगी जब दूर मेरी बढ़ती हुयी उदासियों से" अंग्रेजी वाक्य  "If you go away, through with me" पर आधृत है, यद्यपि कवि का अभिप्रेत है, "ऊबकर मुझसे अगर मुंह मोड़ लोगे."


दिविक रमेश ने एक लोकप्रिय कविता की पहली पंक्ति "Come July in my village town" . का अनुवाद किया है, "आना जुलाई मेरे गाँव" (p. 39), जबकि कवि कहना चाहता है, "आता है जब जुलाई का महीना मेरे गाँव". इसी कविता में कवि कहता है, "दूर-दराज से एक मित्र आता है, मेरे साथ बैठ, साथ साथ अंगूर का साथ मजा लेने". दिविक रमेश की समझ में "share grapes" का अर्थ है, "वह आता है अंगूर बांटने को".


कवियत्री मो यून -सुक की एक कविता में निःस्वार्थ प्रेम की बेदी पर प्रेमिका के प्राणोत्सर्ग के प्राण का उल्लेख है और इस भावना को एक कोरियाई अनवादक KIm Jaihiun ने "I will not spare my life" "के रूप में अभिव्यक्त किया है. दिविक रमेश का अनुवाद है, मैं नहीं माफ़ करूंगी अपने जीवन को. उसी कविता में एक वाक्य है, Debts throw me out of wits .. जिसे हिंदी में "बोझ फेंक रहा है मुझे समझ के बाहर" के रूप में व्यक्त किया गया है.


इस कविता का मेरा अनुवाद है:

"अगर तुम कहोगे, जीओ, जीऊँगी मैं बस तुम्हारे लिए, हे परम प्रिय, प्राणाधार
अगर मुट्ठी भर दाने के लिए तरसना पड़े, तो भी जीऊँगी, रहकर निराहार
ऋण के दुर्वह भार से दबना पड़े , तो भी जीऊँगी, सहकर साहूकार का प्रहार
और फिर सहर्ष वरण करूंगी मृत्यु का, अगर उससे होता हो तुम्हारा उपकार".


दिविक रमेश की पुस्तक में एक छोटी-सी कविता "सागर और तितली" (पेज 77) का अनुवाद है: "(तितली) उतरती है समुद्र पर/ समझ/ बस एक टुकड़ा भर नीली मूली का", जबकि कवि कहना चाहता है, "तितली उतरती है समुद्र पर/ समझकर उसे एक हरा-भरा विशाल खेत, मूली का.


दिविक रमेश की पुस्तक में दिए गए प्रायः सभी  कवि  परिचय कुछ कांट-छांट  के साथ  Jaijiun Kim   द्वारा अनूदित  और सम्पादित काव्य-संकलन "The Immortal Voice: Anthology of Modern Korean Poetry" से उठाये हुए हैं. उदाहरणार्थ भिक्षु-कवि  हान  योंग-उन का परिचय किम ने इस तरह दिया है:

“Born in Hongsong-gun, Chungchóng namdo, in the south. A devoted Buddhist monk since his early years. Han was one of the 33 members who in 1919 signed the historical document to declare Korean independence of the Japanese colonial rule. His poems concern his philosophical meditation on nature and the mystery of human existence.
Silence of Love (1926); Complete Works of Han Yong-un (1973)

अब दिविक की पुस्तक के पृष्ठ 42 पर दिए गए अनुवाद पर नजर डालें.

"होंगसांग में जन्म. शुरू से ही समर्पित बौद्ध भिक्षु. देशभक्त. कविताओं में विशेष रूप से दार्शनिक चिन्तनयुक्त प्रकृति और मानव सत्ता. उन ३३ सदस्यों में से एक, जिन्होंने 1919 में जापानी उपनिवेशवाद से कोरिया की मुक्ति सम्बन्धी ऐतिहासिक दस्ताबेज पर हस्ताक्षर किये थे.प्रसिद्ध कृतियों में "प्यार का मौन (1926) और हानयोंग-उन का संपूर्ण साहित्य (1973) है.”


हिंदी पाठकों को दक्षिण कोरिया के होंगसंग जिले को  होंगसांग के रूप में परिचित कराना अनुत्तरदायित्व की पराकाष्ठा है. अगर हिंदी साहित्य का कोई विदेशी अनुवादक पंतजी के बारे में कहे कि उनका जन्म अलमीरा में हुआ था, तो जिज्ञासु विदेशी पाठक, अलमीरा नमक स्थान को भारत के मानचित्र में कैसे ढूंढ पायेगा? और परिचय की दूसरी पंक्ति "शुरू से ही समर्पित बौद्ध भिक्षु" का क्या अर्थ होता है? क्या उन्होंने अपने जीवन के आरम्भ में ही चीवर धारण कर लिया था? क्या वे जन्मजात बौद्ध धर्म के प्रति समर्पित व्यक्ति थे? वस्तुतः १३ वर्ष की अवस्था में पारम्परिक रीति से उनका विवाह हुआ, और सन 1904 में 25 वर्ष की आयु में उन्होंने बौद्ध धर्म की चोग्ये परंपरा में प्रव्रज्या दीक्षा धारण की. 1933 में यु सुक-वन नामक महिला से उनका पुनर्विवाह हुआ. 1 मार्च 1919 को हान योंग-उन ने बौद्ध -प्रतिनिधि  रूप में दूसरे धर्मों के ३१ अन्य प्रतिनिधियों के साथ  कोरिया की स्वतन्त्रता के ऐतिहासिक घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर किया जो कोरिया के असहयोग आंदोलन का शंखनाद था. जापानी साम्राज्यवाद को चुनौती देने के जुर्म में उन्हें कारावास की सजा भुगतनी पडी.कविताओं में विशेष रूप से दार्शनिक चिन्तनयुक्त प्रकृति और मानव सत्ता” “philosophical meditation on nature and the mystery of human existence” का गलत अनुवाद ही नहीं है, यह ऐसी  अभिव्यक्ति है  जिसे समझने के लिए मूल पाठ  को देखना आवश्यक हो जाता है.


अंग्रेजी अनुवादक किम का अभिप्रेत है, हान योंग-उन के काव्य की भाव-भूमि  मानव-अस्तित्व की  प्रकृति और रहस्यमयता  है और उसमे आध्यात्मिक और दार्शनिक तत्वअनुस्यूत है. कवि परिचय के अंतिम भाग में उन्होंने अपनी तरफ से तीन शब्द (प्रसिद्ध कृतियों मेंजोड़ दिए हैं. मूल टेक्स्ट में लिखा हुआ है, Silence of Love (1926); Complete Works of Han Yong-un (1973). अब प्रश्न यह उठता है कि हानयोंग-उनकी मृत्यु के 29 साल बाद प्रकशित ग्रंथावली को क्या हम उनकी प्रसिद्द कृति में परिगणित क रसकते है? प्रेमचंद की प्रसिद्ध कृतियाँ सेवासदन, गोदान, कफ़न आदि हैं, बीस जिल्दों में प्रकाशित प्रेमचंद रचनावली नहीं.


कवि-परिचय भी कितना भ्रामक है,इस तथ्य के सम्यक निरूपण के लिए कुछ और त्रुटियों पर विचार करना आवश्यक है.ओसांग-सुन (जिसे दिविक रमेश ओसंगसन के रूप में लिप्यन्तरित करते हैं) के बारे में अंग्रेजी अनुवादक कहते हैं, “”Despairing of the national situation after the defeat of the Independence Movement, he gave himself up for a while to nihilistic abandon”(p. 32).


दिविक रमेश इस वाक्य को इस तरह संक्षिप्त करते हैं कि वाक्य पंगु बन जाता है.दिविक रमेश के वाक्य  "एक बार स्वतन्त्रता आंदोलन के विफल हो जाने के कारण बहुत निराश हो गए थे" को पढ़कर पाठक यही सोचेगा कि क्या यह भी कोई सूचना है.स्वतन्त्रता आंदोलन के निराश होने पर उस आंदोलन में भाग लेने वाले लेखक का दुखी होना कोई ऐसी सूचना नहीं है जो उसके जीवन को पारिभाषित करता है.


इस पुस्तक की दो और खामियां हैं, एक है अंग्रेजी शब्दों का अर्थ न जानने के कारण उनका उट पटांगअर्थ लगाना या अंग्रेजी शब्दों को ही अपने अनुवाद में घुसा देना और दूसरा कोरियाई नामों या शब्दों का सदोष लिप्यंतरण. पृष्ठ१२५ पर दी गयी कविता में एक शव यात्रा का वर्णन है.शव यात्रा में कुछ लोगों के हाथ में streamer अर्थात रंगीन झंडियां हैं, कुछ के हाथ में घंटियाँ, लेकिन दिविक रमेश streamer का अनुवाद कतार करते हैं, और हाथ की घंटियाँ, हाथी की घंटियाँ बन जाती हैं. Listless शब्द का अर्थ है मायूसकिन्तु दिविक रमेश उस शब्द की व्याख्या  "लावारिश" के रूप में करते हैं. (.१२५). बिजली, टेलीफोन या तार के खम्भे को कहा जाता है, लेकिन दिविक रमेश की लेखनी इसे "उपयोगी खम्भे "बना देती है.


हिंदी अनुवाद में अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग भी पाठक के गले में अटकते हैं.नन से भी ज्यादा अकेली" (P. 59) में नन के बदले भिक्षुणी, तपस्विनी या साध्वी का प्रयोग किया जा सकता था."एक हो जाएँ हमारे ह्रदय वेल्ड होकर" (. ५६) में वेल्ड होकर के बदले अगर "जुड़कर" "मिलकर" आदि किसी हिंदी शब्द का प्रयोग अपेक्षित था.


कोरियाई भाषा से अनभिज्ञ होने के कारण दिविक रमेश एक ही नाम को अलग-अलग जगहों पर भिन्न-भिन्न रूपों में लिप्यन्तरित करते हैं.कोरियाई उपनाम CHOE   चो, छवै, छोचोए, छए आदि रूपों में अवतरित होता है. पुस्तक के विभिन्न स्थलों पर कोरिया के प्रांत चन नाम को चोनाम, चोन्नाम, चन्नाम और क्यंगसांग को ग्योंगसांग, क्योंगसोंग, ग्योंगसांग आदि रूपों में लिप्यंतरी कृत किया गया है. अनुवादक अगर कोरियाई भाषा और साहित्य की थोड़ी-बहुत जानकारी रखनेवाले किसी व्यक्ति की सहायता लेते तो इन गलतियों से बचा जा सकता था और कोरियाई कवियों के नाम के लिप्यंतरण में भी विकृति नहीं आती. कोरियाई साहित्य की अमर विभूति किमसोवल को किमसॅावॉल के रूप में याचुयोहान को छूयोहन अथवा चूयोहन के रूप में देखने काफी खटकता है.


काव्यानुवाद शव-साधना है, पुनर्सृजन की प्रक्रिया है.विदेशी जमीन के पौधे को अपने जीवंत भाषिक सन्दर्भ में ढालना और उसे नया संस्कार देना तभी संभव है जब अनुवादक श्रोत भाषा के काव्य में अन्तर्निहित भाव-गाम्भीर्य को ही नहीं, शब्द-सौष्ठव, नाद योजना और छंद विधान को भी बारी की से समझता हो. मई 1924 के मतवाला में शरत बाबू के उपन्यास "चरित्रहीन" के हिंदी अनुवाद की समीक्षा करते हुए निराला ने लिखा था कि मूल में कोई चमत्कार हो तो अनुवाद में भी चमत्कार दिखाना चाहिए, किन्तु अनुवादक महोदय की कृपा से चमत्कार तो दूर रहा, मूल का अर्थ भी गायब हो गया है.यह दुःख के साथ कहना पड़ता है कि दिविक रमेश की अनूदित पुस्तक पर निराला का कथन अक्षरशःलागू होता है.

__________


Appendix
이별을하느니 (이상화)
애인(愛人)아손을다오어둠속에도보이는납색(蠟色)의손을내손에쥐어다오.
애인(愛人)아말해다오벙어리입이말하는침묵(沈黙)의말을내눈에일러다오.
어쩌면너와나떠나야겠으며아무래도우리는나누어져야겠느냐?
우리둘이나누어져미치고마느니차라리바다에빠져두머리인어(人魚)로나되어서살자!

Parting by Yi sang-hwa

Love, give me your hand; place in mine your
Hand, wax-coloured, that can be seen in the darkness.
Love, speak to me, to my eyes, the silent words
Fit for the dumb.

Must we part?  Must we, you and I?
Shall we drown into the sea and be a merman and mermaid
Rather than live apart and mad.


2.
낙화(조지훈)
묻혀서 사는 이의
고운 마음을

아는 있을까
저허하노니

지는 아침은
울고 싶어라.

Shedding of Petals by Cho Chi-hun

Lest the lovely soul
Living in Seclusion

Be known to the seular world
I have some misgivings.

When the petals fall in the morning
I wish to cry my heart out.

3.
정념의기 (김남조)

황제의 항서(降書)와도 같은 무거운 비애가
맑게 가라앉은
하얀 모래펄 같은 마음씨의
벗은 없을까

A heart’s Flag by Kim Nam-cho

Is there a friend  with a heart golden
As the stretch of white sands
Where grief grave as an imperial edict has sunk?
________

पंकज मोहन
प्रोफेसर और डीन, इतिहास  संकाय
नालंदा विश्वविद्यालय, राजगीर
pankaj@nalandauniv.edu.in



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  1. शिव किशोर तिवारी13 नव॰ 2018, 10:57:00 am

    सबसे बड़ी बात है उत्कृष्टता का आग्रह। हिंदी में बहुत सा अनुवाद चलताऊ ढंग से करने का रिवाज़ सा बन गया है। बांग्ला से किये गये अनुवादों में ख़ूब दिखता है। चूंकि भूलें करने वाले प्रायः हिंदी प्रदेशों के बंगाली होते हैं, अतः "नन-बेंगली" की आपत्ति को आराम से ख़ारिज़ कर सकते हैं। अंग्रेज़ी के सूक्ष्म भाव-संकेतों को समझने की असावधानता-जन्य अक्षमता मंगलेश डबराल और उदय प्रकाश दिखा चुके हैं और यह बात ज़ाहिर करने के जुर्म में मैं उनकी गालियाँ खा चुका हूँ। भोपाल के एक कवि ने मुझसे कहा कि अमुक कविता का अनुवाद स्पैनिश से सीधे किया है। दावा झूठा निकला।
    मेरे ख़्याल से उत्कृष्टता की चाह और ईमानदारी अच्छे अनुवादों के लिए आवश्यक हैं।

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  2. समीक्षा के लिए अपने आत्मीय मित्रपंकज मोहन और उसे सामने लाने के लिए प्रिय अरुण देव जी आपका हृदय से आभारी हूं।

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  3. पंकज मोहन कोरियाई भाषा के ज्ञाता हैं। उनका कविरूप मेरे सामने नहीं है। मैं शब्दश: अनुवाद करने से बचता हूं। हिन्दी के पाठकों को ध्यान में रखकर एक कवि-अनुवादक के रूप में पुनर्रचना की पद्धति से करने की कोशिश की है। आत्ममुग्धता मुझे किसी भी रूप में भाती नहीं। अत: समीक्षा का हार्दिक स्वागत और सिर-माथे पर। कम बात नहीं है कि पंकज जी ने बहुत से स्वनामधन्य रचनाकारों-आलोचकों की तरह उपेक्षा करने के स्थान पर मेहनत से लिखने का काम किया है। अनेक स्थानों पर मुझे अपने अनुवाद और उनके सझाए गये अनुवाद में कोई बुनियादी अनतर नहीं दिखा है। उन्होंने शब्दशः करने का प्रयास किया है जबकि मेरे सामने कविता को हिंदी कविता के रूप में अनूदित करने की चुनौती थी। आशा करता हूं कि भविष्य में बेहतर अनुवाद आएंगे। शुभकामनाएं। सस्नेह, दिविक रमेश

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  4. अनतर को अंतर क्षय पढ़िए।

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  5. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (14-11-2018) को "बालगीत और बालकविता में भेद" (चर्चा अंक-3155) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  6. अनुवाद करते समय अनुवादक को बेहद सावधानी बरतनी पड़ती है। कविता के अनुवाद में तो इस सावधानी की और भी ज़्यादा ज़रूरत होती है। अनुवाद शाब्दिक नहीं हो, लेकिन सार्थक हो, इस बात का ख़याल रखना भी बेहद ज़रूरी है। निश्चय पंकज मोहन के अनुवाद बेहद अच्छे हैं। दिविक जी ने, लगता है, जल्दबाज़ी में वे अनुवाद किए हैं। वैसे दिविक जी तीन साल कोरिया में रहे थे, थोड़ी बहुत भाषा तो सीख ही गए होंगे। कोरियाई नामों और शब्दों के सटीक उच्चारण किसी भी कोरियाई विद्वान के साथ बैठकर ठीक किए जा सकते थे। जैसे चीन के राष्ट्रपति के नाम का सही उच्चारण है -- शी चिन फिंंग। इसे हिन्दी में सहज ही लिखा जा सकता है। लेकिन हमारे अख़बार, मीडिया और विशेषज्ञ शी जिनपिंग या शी चिन पिंग लिखते हैं। मैं हिन्दी वालों से यह कह-कहकर थक गया कि रूसी लेखकों के नामों का उच्चारण अन्तोन चेख़फ़, लेफ़ तलस्तोय और फ़्योदर दस्ताएवस्की होता है। रूसी कवि का नाम मन्देलश्ताम है, न कि मन्देलस्ताम। लेकिन हिन्दी के विद्वान किसकी बात सुनते हैं। आख़िर वे विद्वान और विशेषज्ञ हैं।

    अनुवाद पर इस तरह की चर्चा व्यापक रूप से होनी चाहिए। यह बेहद ज़रूरी है। अब दिविक जी ने लिख दिया -- ’मोम रंगे हाथ’ -- लेकिन इसका कोई मतलब भी है या नहीं, इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। ख़ैर अरुण देव और पंकज मोहन जी को बधाई और शुभकामनाएँ कि उन्होंने एक सार्थक शुरूआत की है। यह काम आगे भी जारी रहना चाहिए।

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