कला अनुशासनों पर आधारित कविताओं का संग्रह ‘जन्म से ही जीवित है पृथ्वी’
प्रेमशंकर शुक्ल का पांचवाँ कविता संग्रह है.
प्रेमशंकर शुक्ल मुख्यत: प्रेम के शुक्ल पक्ष के कवि हैं. उनकी कविता की जमीन प्रेम
की संवेदना से गीली है, इस मिट्टी को वह मनचाहा आकार देते चलते हैं कुछ इस तरह कि
उसमें प्रेम की तरलता बची रहती है. वह करुणा से होते हुए प्रेम तक पहुंचते हैं. वह
अपनी भाषा को प्रेम के रसायन और करुणा के जल से
माँजते रहते हैं. भाषा से भाव तक की उनकी यह जीवन- दृष्टि कला को
वृहत्तर आयाम देती है. नृत्य, चित्र, मूर्ति,
संगीत, नाटक आदि सब उनकी कविता के सह-यात्री हैं.
वह उस लाईटमैन की कारीगरी भी देख लेते हैं जो मंच और दर्शकों पर नज़र रखे हुए
है कि कब किसके आँसू पर फोकस करना है, जिस पर अक्सर किसी की नज़र नहीं पड़ती. कवि
बांसुरी से होते हुए बॉस तक पहुंचता है और फिर उस पुकार तक जिसे कभी किसी प्रेमी
ने अपना ह्रदय खोल कर अपनी प्रिया के लिए रची होगी. ‘जूड़े में फूल’ देखकर
उसे विरह का यह रंग दिखता है-
‘तितली फूल को उसकी टहनी
में न पाकर
बिरह में है
जूड़े में वह फूल भी है
अनमना बहुत
रह-रह कर आ रही है उसे
अपनी प्रिया की गहरी याद’
कविता को हमेशा से संगीत का सहारा मिला है, इससे वह दीर्घजीवी हुई है. चित्रों
और मूर्तियों के मंतव्य को भी कविता ने शब्द दिए हैं, उनकी गरिमा और अर्थान्तर के
साथ.उसके घर में कलाओं की आवाजाही और बसावट है.
प्रेमशंकर शुक्ल की कविताओं में कला के अंग-उपांग इस तरह सृजित हुए हैं कि उनका
अपना अस्तित्व भी बचा रहता है और वे एक नवीन रूपाकार भी ग्रहण कर लेते हैं. अनुशासनों
से यह मुक्ति उन्हें और कला बनाती है. कलाओं के सहमेल से ये कविताएं अद्भुत
माधुर्य प्राप्त करती हैं. इन कविताओं में कहीं मौन मन ध्यानस्थ पखावज है, कहीं फक्कड़
वाद्य इकतारा अपने एक तार पर गाता है तो कहीं ‘पृथ्वी की गोद में बैठा तानपुरा है.
कवि कविता के वृक्ष से
पशीने के लिए छांह लिखता है. यह छांह मनुष्यता के लिए आज जरूरी है जहाँ वह अपने
एकांत में खुद को सुन–गुन सके.
प्रेमशंकर
शुक्ल की कविताएँ
बाँसुरी
बाँसुरी चरवाहों
का सिरजा वाद्य है
मुग्ध रहते हैं
जिस पर झरने-जंगल-नदियाँ
बाँसुरी बजाना हवा
के फेफड़े में
संगीत भरना है
बाँसुरी की लय
पर नाव पार हो जाती है नदी
गीतों-पुराणों, कथाओं में बजती है कृष्ण की वंशी
इतिहास में नीरो
की
चैन की वंशी अब
केवल काहिलों के मुहावरे में बजती है
बाँसुरी बजा-बजा
कर मेरा एक दोस्त
दुनिया घूम रहा
है
लिए हुए कला की
गहरी तलब
बाँसुरी बजाना
मतलब पण्डित पन्नालाल घोष और
पण्डित
हरिप्रसाद चौरसिया को सुनना है निर्मल मन
बाँस बाँसुरी के
पुरखे हैं
अपने पर गर्व
करते हैं बाँस
बजती है जब
बाँसुरी
पहाड़ बाँसुरी से
प्रेम करते हैं अथाह
इसीलिए बाँसुरी
के लिए बाँस देने में
होती है उन्हें
अप्रतिम खुशी
बाँस-बाजा है
बाँसुरी
उँगलियों का ऐसा
रियाज कि बाँसुरी पर
बजा देती हैं
राग का मन
जादू भी ऐसा कि
बाँसुरी-रन्ध्र में
मिलन-बिरह गाती
है हवा
सुषिर का
चमत्कार है बाँसुरी
आत्मा का
राधा-प्रेम एक चरवाहे ने
बाँसुरी पर ही
बजाया था
जिसे सुनकर गाएँ
भी अनकती खड़ी हो गयी थीं
भरकर आँखों में
सुख-जल
बाँसुरी पर बज
सकते हैं सारे रस
लेकिन
करुणा-प्रेम में रमता है बाँसुरी का मन
चरवाहा जब अपनी
प्रिया की टेर में
पहाड़ी तान
खींचता है
बाँसुरी भर देती
है सभी दिशाएँ
प्रेम भर नहीं
प्रेम की परछाईं भी बजती है बाँसुरी पर
बाँसुरी पुकार
का वाद्य है
लोकधुनें
बाँसुरी के साथ
अपना हृदय खोल
(घोल) देती हैं !!
पखावज
(श्रीअखिलेश गुन्देचा के लिए )
सुख की थाप
दे-दे कर पखावज
आत्मा का ताप
हरता है
और पखावज में
बजता है
उल्लास-आवेग
हमारी सुप्त
चेतना को जगाता
पखावज संगीत में
बाहैसियत
ताल-मुखिया है
ध्वनि-ताल से
भरता है
अनहद नाद का
ओसार
धा-धमक में है
शिवत्व का अँजोर
वीणा के साथ
बजता है
तो छलकता है
आनन्दातिरेक
ध्रुपद और पखावज
की संगत
दो सुन्दरताओं
का मनमिलन है
गायक के साथ
गाता है पखावज
आलापचारी में
मंच पर रहता है
मौनमन ध्यानस्थ
करतल-शक्ति को
पखावज ही देता
है उत्कर्ष
काल में ताल बना
रहे
अर्थात समय में
रचा-बसा रहे संगीत
इसी में पखावज
है लगातार मेहनत-मन
गणेशवाद्य, भक्तिवाद्य, ब्रह्मवाद्य, मृदंग
आदि-आदि हैं
पखावज के नाम
पखावज की
आध्यात्मिक गहराई ही है
कि पखावज से
अथाह प्रेम करता है
भक्ति-संगीत
धूम किट, स्तुति परन
सुख की
उपज-आनन्द की बढ़त
रचता है पखावज
जिसकी वजह से
ठहर नहीं पाती वीरानगी
रागदारी में
पारंगत है पखावज
गायक अपना सुर
लगाता है
और पखावज
ताल दे-दे कर
लय, छन्द और प्रार्थना का विन्यास
पूरा करता रहता
है !
इकतारा
इकतारा फक्कड़
वाद्य है
अपने एक तार पर
गाता है
आख्यान-कविता, पद और लोकगीत
सन्यासियों, फकीरों को बेहद प्रिय है इकतारा
इकतारा से अधिक
आँसूओं से भीगा
नहीं है अभी तक
कोई वाद्य
इकतारा सुनना
करुणा सुनना है
और बुनना है
पूरे मन में उजाले का थान
इकतारा अकेले की
विशालता है
मीरा-मन गाता
रहता है अप्रतिम अध्यात्म
लोकगायक इकतारे
के साथ
उलीच देते हैं
भाव-अनुभाव
और करुणा-प्रेम
से भीगता रहता है हमारा लोक
एक तार की ऐसी
सामर्थ्य और उजास निहार
खुशमन इकतारे का
साथ दे रही हैं उँगलियाँ
उमड़ी हुई है एक
तार पर भक्ति
करुणा से भीज
रही हैं दसों दिशाएँ
एक तार ने गा-गा
कर चमका दिया है
करुणा-संवेदना
की सारी धातु
और आलोड़न में बढ़
गया है अनुभूति का जल
सन्त कवियों के
पद गाते-गाते
लोकगायक गा रहा
है अब
श्रवणकुमार की
कथा
कथा में जहाँ
श्रवणकुमार को लगता है
राजा दशरथ का
तीर
मुर्छित हो गया
है वहीं इकतारा
और फूट नहीं रहे
हैं तार-बोल
कुछ देर की
चुप्पी के बाद
कथा के अनुरोध
पर
इकतारा आगे
बढ़ाता है कथा
जहाँ श्रवण के
माता-पिता के शोक-संतप्त आँसू
गा नहीं पा रहा
है गायक
और इकतारे के
तार में भी
उठ रही है
लगातार रोने की हिचकी
यह रोना चुपचाप
रोना नहीं है
हत्या का पुरजोर
विरोध है
शोक में डूबे
हुए
इकतारे के सारे
स्वर
सिसक रहे हैं
इकतारे के
तुम्बे से ही
लगातार.
तानपुरा
तानपुरा
गुनगुनाहट का साज है
जैसे प्रेम में
हमारी देह और आत्मा में
गुनगुनाती रहती
है आँच
अपने तार पर
संगीत के स्वर कातता रहता है तानपुरा
इसीलिए बेसुरे
होते जा रहे हमारे समय के लिए
तानपुरे की
जरूरत है लगातार
महफिल का मन
बनाने में
तानपुरा से
वाजिब और नहीं है कुछ
सुर लगाने में
गायक के कण्ठ को
तानपुरा सहारा
का साथ है
स्वरारोह को ऊपर
जाने में मदद करता हुआ
अवरोह को उतरने
में
कण्ठ का नाप या
थाह लेने में
तानपुरा है
तारसिद्ध
संगीत के कपास
से तानपुरा की जबारी बनती है
इसीलिए तानपुरा
की सेहत के लिए
जबारी का रखना
चाहिए विशेष खयाल
कण्ठ की
प्रकृति-अनुसार चलता है
तानपुरे का
तार-व्यवहार
अपने चार तार से
तानपुरा
सहेजता-सम्हालता
है भारतीय संगीत का स्वर-सम्भार
ध्रुपद हो, खयाल, ठुमरी, दादरा या भजन
सब रखना चाहते
हैं तानपुरे को अपने साथ
तानपुरा
उँगलियों का स्पर्श-संगीत
आत्मा को साथ
लेकर फैलाता है
अँजोरपूरित
साथ कैसे निभाया
जाता है
तानपुरे में है
इसकी बेहद तमीज
इसीलिए तानपुरा
साथ का निकष भी है
पृथ्वी की गोद
में बैठा तानपुरा
संग-साथ का
गुरुकुल है
साथ की तान पूरी
रहे और बेसुरी न हो जीवन-लय
तभी तो सुर की
साधना के लिए
तानपुरा के तार
पर
संगीत का दिन
शुरू होता है !!
लाईटमैन
लाईटमैन रोशनी
डालता है
पात्र पर
और मंच पर
अँधेरा भी रखता है
उसी वजन का
रोने के दृश्य
में पात्र रो रहा है
और आँसूओं से
भीग
काँप रही है
रोशनी
दर्शक चुपचाप
हैं
लाईटमैन ने नहीं
की है
दर्शकों के
चेहरे पर रोशनी
अभिनय में पात्र
रो रहा है पूरा शोक
लेकिन दर्शकों
के भीतर
सचमुच में रो
रही है कथा
दर्शकों के भीतर
कथा रो रही है
लेकिन आँसू
दर्शकों की
आँखों से छलछला रहा है
दृश्य बदलता है
दर्शक - दीर्घा
में लाईटमैन फैलाता है प्रकाश
अपने-अपने आँसू
छिपाने का
दर्शक अब
अभिनय कर रहे
हैं !!
होंठ-बाजा
अपनी प्रिया को
बुलाने के लिए
वनवासी युवक ने
होंठ बजाया
और देखते-देखते
दौड़ी चली आयी
उसकी प्रिया
होंठ-बाजा
प्यार का साज है
जिसकी धुन-लय पर
थिरकता है प्रेम
प्यार में देह
का गोदना गाढ़ा हो गया और
भीजा रहा तन-मन
प्यार के बाद
जाते हुए
होंठ-बाजा सुनकर
प्रिया का फिर
पीछे मुड़कर मुस्कराते हुए निहारना
उपलब्ध उपमा से
बहुत ऊँचे दर्जे की क्रिया है
पहाड़ों में
कविता ऐसे प्रेम
से ही
सुख के झरने
निकाला करती है !
किरदार
एक नाटक का
किरदार
नाटक से भागकर
चित्र बन गया
कुछ दिन चित्र
में रहकर
फिर खण्डकाव्य
में पढ़ा जाता रहा
विधाओं की
दौड़-भाग और छुपा-छुपी में
वह तो पकड़ा ही न
जाता अनगिनत युग
लेकिन मंच पर
गाते हुए
गायक के कण्ठ
में फँस गया उसका दुख
जिससे काँप-काँप
गया किरदार
और शोकगीत भी
थरथरा गया हर पंक्ति
शोकगीत में ही
सबके सामने
बरामद कर लिया
गया किरदार
तभी से
हर किरदार
शोकगीत में जाने से
थरथराता है !!
धुन
धुन बजा रहा था
संगीतकार
करुणा में
बाँसुरी के आँसू झर रहे थे
श्रोता भीज रहे
थे
सभागार में
उठना भूलकर
लोकधुनों में
लोक का आँसू
हर हमेश काँपता
मिलता है !
कोरस
पारी-पारी से
उठते हैं स्त्री-पुरुष कण्ठ
और सभागार में
छा जाता है गीत-सुख
स्त्री-स्वर जब
विराम लेने लगता है
पुरुष-कण्ठ थाम
लेता है गीत-पंक्ति
पुरुष-स्वर
अवरोह की तरफ आ ही रहा होता है
कि स्त्री-कण्ठ
आरोह में
गीत को देने
लगता है अप्रतिम ऊँचाई
पारी-पारी से
कभी
कभी समूह स्वर
में
गाया जा रहा है
कोरस गीत
श्रोता आँखों से
सुन रहे हैं
कानों से सहेज
रहे हैं गीत की करुणा
हृदय मुग्ध-मौन
है
कण्ठ-कण्ठ बह
रहा है कोरस गीत
भीज रही है
आत्मा
स्त्री-पुरुष के
समूह स्वर में
मीठा हो चला है
दरद
ऐसे कोरस गीतों
से ही
रचे गए हैं
हमारे हृदय के
स्पंदन
और हमारी धड़कनों
को
संगीत-सुख भी
मिला है !!
जूड़े में फूल
नायिका ने अपने
जूड़े में
केवल फूल ही
नहीं
सारा बसन्त बाँध
रखा है
जूड़े के फूल
अपनी सुन्दरता
में बसन्त महका रहे हैं
तितली का चूमा
वह फूल भी है जूड़े में
जिसने तितली से
फिर मिलने का वादा किया था
और तितली के पंख
पर याद के लिए रख दिया था
अपना थोड़ा सा
रंग
तितली फूल को
उसकी टहनी में न पाकर
बिरह में है
जूड़े में वह फूल
भी है अनमना बहुत
रह-रह कर आ रही
है उसे अपनी प्रिया की गहरी याद
जूड़े में सुगन्ध
का झरना बह रहा है
बसन्त-मन फैला
हुआ है चहुँओर
लेकिन एक ही
कविता में
बिरह और मिलन
साथ रखने से
काव्याचार्य
मुझसे बेहद खफा चल रहे हैं !
प्रेम शंकर जी को शब्द-शब्द महकाती इन रसभीनी
जवाब देंहटाएंकाव्य अनुभूतियों के प्रगटीकरण के लिए बधाई ।।
ये कविताएं प्रेम की तरलता के सांचे हैं। उसके उत्खनन/उद् घाटन की विधि भी वाद्य यंत्रों के पास है।
बांँसुरी की पुकार/टेर और हिलोरें कितना कुछ कह गई हैं। अपने पुरखे बांस और पहाड़ के लिए भी।
मुझे श्रीनरेश मेहता याद हो आये...**फूल मेंं एक
बाँसुरी बज रही है।**
सिसकते तुम्बे का चित्रण भी गज़ब का ।।
और कण्ठ की था ह लेता तानपुरा तो और भी
बड़ी पारदर्शिता लिए हुए।।
शोकगीत में जाने से थरथराता//कतराता किरदार
पूरे रंगमंचीय रूपक का ग्रास है।।
जुड़े के फूल में बंधे//कसे बसन्त की टोह भी अंत में
बिरह -मिलन की अजीब सी जुगलबंदी में बहा ले गई।
मुझे समयांतर में कभी छपी अपनी डायरी..
**कुछ रूठी हुई कविताएँ** की प्रसन्न-कंठ पालिनों का राग हमीर में उठा स्वर याद हो आया। निथरी जोहड़ी की वह दोपहर तब तांबई हो गई थी, जब उन्होंने जल के बीच मीरा के कंठ से चुराया यह पद साथ-साथ गाकर जोहड़ी के मन को भी उकसाया था...**आओ सहेल्यां रहली करां, हे पर गवण निवारि**।।
स्मृति के आलोक में ये जल क्रीड़ाएं और उनका हास-विलास फिर सम्मुख हुआ जैसे। वरना वे सब तो दूसरों के घर गवण करने के बाद अपनी ही बहूबेटियों से किंचित उन क्षणों की चर्चा करती होंगी।
बहरहाल इतनी तरल अनुभूतियों के पास जाने का अवसर देने के लिए समालोचन का और स्वयं सुकवि का हृदय से आभार।।
प्रताप सिंह ।। वसुन्धरा ।।
जूड़े के फूल में ...// संशोधन ।।
जवाब देंहटाएंवाह। सुन्दर कविताएँ। नए संग्रह के लिए तेजी जी और मेरी ओर से बहुत बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर, अरुण आपको सुंदर टिप्पणी और शुक्ल जी को बढ़िया कविता एवं संग्रह के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंPremshankar Shukla जी की कविताओं में प्रेम इतने तरीक़े अख़्तियार कर बहता है कि पढ़ते समय उस बहाव में पाठक भी शामिल होता है
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (07-10-2018) को "शरीफों की नजाकत है" (चर्चा अंक-3117) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर। प्रेमशंकर अपनी काव्यवस्तु के लिये नये नये इलाकों में जाते हैं और अनायास बहुत सी ताज़गी लेआते हैं।
जवाब देंहटाएंहालांकि यह सबके बस की बात नहीं है।
सबके पास ऐसी कल्पना शक्ति नहीं होती।
अरुणदेव का आभार कि वे लगातार कुछ नई चीज़ें देते रहते हैं।
प्रेमशंकर और समालोचन दोनों को बधाई।
तितली और फूल के बिछुड़ने वाली बहुत सुंदर पंक्तियां अरुणदेव ने अपने वक्तव्य में कोट की हैं।
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