परख : फोटो अंकल (कहानी संग्रह) : प्रेम भारद्वाज

















२०१८ में राजकमल प्रकाशन संस्थान से  प्रकाशित  प्रेम भारद्वाज
के कहानी संग्रह की समीक्षा मीना बुद्धिराजा की  कलम से.   







मानवीय संवेदनाओं की त्रासदी का दस्तावेज़                       
मीना बुद्धिराजा




हानी अगर साहित्य की केंद्रीय विधा के रूप में आज अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा चुकी है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है. कहानी आख्यान में जीवन के एक खण्ड का चित्रण करते हुए भी जीवन की समग्रता को आत्मसात कर लेती है. इस अर्थ में कहानी का उद्देश्य जीवन को खंडित करना नहीं बल्कि एक अंश में उसकी संपूर्णता का और लघु में विराट का अह्सास कराना है तभी कहानी सार्थक बनती है. जीवन के व्यापक अंतर्विरोधों को गहरे समझते हुए कहानी सभ्यता और समय के संकट को उसकी उत्कटता में पकड़ती है. अत: कहानी अपने समय की वैचारिकी से एक जीवंत और नाज़ुक रिश्ता कायम करती है और यह संबंध किसी विचारधारा से आक्रांत नहीं, संवेदना बनकर कथाकार की मानवीय प्रतिक्रिया के रूप में सामने आता है. प्रत्येक रचनाकार अपने सृजन में समय की प्रवृत्तियों, दबावों और तनावों से मुठभेड़ करता है परंतु समकालीनता का कालबोध कभी भी रचनाकार की सीमा नहीं बनना चाहिये. वह रचनात्मक उर्जा लेते हुए वह भावबोध और शिल्प के स्तर पर अपने समय से जुड़ा रहकर भी भविष्य की संभावनाएं जरूर तलाश करता है.



समकालीन कथा-लेखन के परिदृश्य में मानवीय संवेदनाओं को गहराई से स्पर्श करते हुए अपनी जीवंत सृजनात्मक अभिव्यक्ति के लिये प्रसिद्ध आज के सशक्त कथाकार प्रेम भारद्वाज समसामयिक कहानी के चर्चित और सक्रिय हस्ताक्षर हैं. हिंदी की प्रमुख साहित्यिक पत्रिका ‘पाखी’ के कुशल एवं सजग संपादक के रूप में भी साहित्य और सत्ता के स्वभाव और संरचना को समझने का निरतंर आत्मसंघर्ष उनकी रचनात्मक विशिष्टता है. उनकी प्रमुख रचनाओं में इंतज़ार पांचवें सपने का (कथा-संग्रह), हाशिये पर हर्फ (वैचारिक लेख), नामवर सिंह: एक मूल्याकंन, शोर के बीच संवाद (सम्पादन) उल्लेखनीय रही हैं. इसी रचनात्मक कड़ी में हिंदी कथा-संसार में समकालीन मनुष्य के एकांत और त्रासद यथार्थ की सर्वव्यापी पीड़ा को केंद्र में रखकर कथा लेखक प्रेम भारद्वाज का नया कहानी-संग्रह इसी वर्ष ‘फोटो अंकल’ शीर्षक से प्रतिष्ठित राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है.

इन कहानियों में कथ्य के स्तर पर अदृश्य सी लगने वाली जीवन की वास्तविक कटु सच्चाईयों को उजागर करने का प्रयास है तो साथ ही गहन मानवीय संवेदनाओं के आंतरिक गह्ररों में उतरकर नयी अर्थ-छवियों के संकेत भी इनमें मिलते हैं. इन कहानियों में एक प्रतिबद्ध रचनाकार का रूप स्पष्ट दिखायी देता है जो विषय वैविध्य में नयी कथा-दृष्टि के दायित्व के साथ समकालीन पीढ़ी के कथाकारों में उन्हें एकअलग पहचान भी देता है. विचार और संवेदना के समवेत संतुलन से बुनी गई ये सभी कहानियाँ हमारे समय की क्रूरता और अमानवीयता की चुनौतियों से मुठभेड़ करती हैं. कथा-संरचना के पारंपरिक फार्म और शिल्प से जिरह करती ये मार्मिक कहानियाँ पाठक की संवेदना को झकझोर देती हैं.

इस संग्रह की सभी दस कहानियाँ जीवन के उसी व्यापक कैनवास से उठाई गयी हैं जो मुख्यत: कहानी लेखन में कथ्य का आधार होता है. लेकिन उसके संबध में लेखक के अनुभव की मौलिकता, निजताजीवन-यथार्थ की उसकी व्यापक पकड़ और भाषा-शिल्प की नवीन प्रयोग भंगिमा इन कहानियों को समकालीन कथा परिदृश्य में एक नया और भिन्न आयाम देती है जो इनकी सार्थकता मानी जा सकती है.

‘प्रेम भारद्वाज’ एक कहानीकार  के रूप में काव्यात्मक संवेदना से समृद्ध रचनाकार हैं. वे जैसे कहानी को न दूर बैठकर देखते हैं न ही पाठकों से फासला रखते हुए सुनाते हैं. कथ्य और पात्रों को आत्मीय गहराई से अनुभव करते समूचे वज़ूद के साथ उसमें जज़्ब हो जाते हैं. पहली कहानी ‘फिज़ा में फैज़ पुरानी पीढ़ी के साथ ही समाप्त हो चुके प्रेम  की बहुमूल्य संवेदना की खोज, तड़प तथा निराशा, हताशा और अवसाद की सघन छाया में छोटे-छोटे सुखों की तलाश करते चरित्र की कहानी है. बहुत तेज़ी से बदलती दुनिया में समय की रफ्तार में पीछे छूट गये लोग जिन्होनें जीवन और प्रेम को सच्चाई से समझने की कोशिश की लेकिन आज ये चरित्र समाज में अप्रासंगिक बना दिये गयें हैं. अपने जीवन की त्रासदी को रेडियो के पुराने गीतों और संगीत से जोड़ने की दीवानगी बिना किसी नाटकीयता के सहजता से इस पीढ़ी की नियति का करुण चित्रण करती है. भावनात्मक रूप से शुष्क हो चुकी दुनिया में एकाकीपन का यह जटिल और नया यथार्थ है. कहानी में इस पुरानी पीढ़ी केलिए मूल्यवान उदात्त और अशरीरी प्रेम के बरक्स नयी पीढी के लिये यह सिर्फ क्षणिक और अस्थायी आनंद और जरुरत की वस्तु है. अंत में फैज़ की आवाज़ फिज़ा में गूंजती है और कहानी का गहन अर्थ संकेत पाठक को भी अपनी संवेदनशील गुज़ारिश से निरूत्तर कर देता है- ‘और भी गम है ज़माने  में मोह्ब्बत के सिवा..मुझसे पहली सी मोह्ब्बत मेरे महबूब न माँग..!’

एक ऐसे समय में जीवन जहां हमेशा उन जरूरतों से संचालित है जिनमें कोई ठहराव और राहत नहीं. भयावह हो रहे मानवीय संकट के समय में संवेदना और नैतिकता की खोज करना अब निरर्थक भ्रम है और रचनाकार की गहरी चिंता उस आत्मा के बचाव का जोखिम है जिसकी सत्ता को आज बाज़ार में झोंक दिया गया है. दूसरी कहानी ‘था मैं नही’ आज के समय और परिवेश में जेल से लेकर दफ्तर और टीवीके रियलिटी शोके विभिन्न दृश्यों का कोलाज़ बनाकर अलग-अलग परिस्थितियों में अपने वज़ूद के लिये आत्मसंघर्ष करते अतृप्त चरित्रों को उसके सही रूप में पहचानने की कोशिश करती है.जीवन की अनिश्तितायें,बेरोजगारी और भौतिक सुखों की भीषण लालसा सभी पारिवारिकसंरचना को भीतर से कितना खोखला कर रही है. पिता-पुत्र के रिश्ते और पति-पत्नि के संबधों मे भी करोड़ों रुपये कमाने का लालच खड़ा हो गया है और भरोसे आसानी से कत्ल हो रहे हैं. आज की इस त्रासद विडंबना को कहानी में बहुत बारीकी से उभारा गया है जिसके आरंभ में ही लेखक ने स्पष्ट किया है- ‘इस कहानी के तमाम पात्र वास्तविक हैं. इनका कल्पना से कोई लेना-देना-नहीं है.’

तीसरी कहानी ‘प्लीज मम्मी, किल मी’ स्थूल यथार्थ की सतह को तोड़कर मानवीय चेतना की गहराई में छिपे सत्य का साक्षात्कार कराने वाली मार्मिक कहानी है. एक माँ जो दस साल से एक जीवित लाश के रूप में अस्पताल में चेतनाशून्य बेटे की तकलीफ, दर्द और लाचारी को सहन न कर सकते हुए अंत में उसकी इच्छा मृत्यु की गुज़ारिश करती है लेकिन अपील अस्वीकार हो जाने पर वह जो निर्णय लेती है वो दिल दहलाने वाला और पाठक की संवेदना को झकझोर देता है. एक माँ की बेटे के लिये असीम ममता और आत्मिक विलाप जिस तरह दोनों के जीवन का अंत करते हैं वह इस समय और मानवीय नियति का कड़वा और निर्मम सच है जिसका सामना हम नहीं करना चाहते. 


व्यवस्था की विसंगतियों में जहाँ लाखों किसान आत्महत्या कर रहे हैं, बेरोजगारीअन्याय के शिकार युवा हैंजो विक्षिप्त होने के लिये मज़बूर हैं वहाँ एक माँ के लिये हत्या और आत्महत्या का फर्क करना नामुमकिन सा हो जाता है.अगली कहानी कवरेज एरिया के बाहर के केंद्र में एक संवेदनहीन समाज के बीच अलगाव, अकेलेपन, उपेक्षा, निरर्थकता और बेगानेपन की यंत्रणा को झेलते युवक कबीर की बेचैनी, विवशता और नाउम्मीद होकर आत्महत्या के निर्णय तक पहुंचने की त्रासदी है. पारिवारिक संरचना के विघटन औरसोशल मीडिया के आभासी मित्रों के संसार में स्थायी, सच्चे और आत्मीय संबध की खोज में भटकते और टूटते मनुष्य की समस्या हमारे नये समय की जीती-जागती वास्तविकता है.

अपने समय और समाज से पूरी तरह जुड़ी कहानी में सच्चाई तटस्थ नहीं बल्कि हमेशा मानवता की पक्षधर के रूप में उपस्थित होती है. वह एक बेहतर मनुष्य के समाज का स्वप्न देखती और बहस करती है. रचनाकार, कलाकार, बुद्धिजीवी और चिंतक के लिये  निहित स्वार्थों से परे सार्थक, संघर्षशील और व्यापक दृष्टि को केंद्र में रखती है. ‘फोटो अंकल’ इसी व्यापक कैनवास पर लिखी गई इस संग्रह की केंद्रीय और बहुत सशक्त शीर्षक कहानी है जो एक संवेदनशील रचनाकार के महसूस किये गये दर्द की छ्टपटाहट भरी अभिव्यक्ति है. जो उन्होनें अपने आस-पास, सरोकारों के नाम पर तथाकथित बौद्धिक कहलाने वाली दुनिया में देखा. कहानी 1984 की भोपाल गैस त्रासदी के दौरान जब इसांन क्षणों मे लाशों में तबदील हो रहे थे. उस समय प्रसिद्ध भारतीय फोटोग्राफर रघु राय’ द्वारा लिये गये एक एक छोटे बच्चे के शव को दफनाते समय खींची गई दर्दनाक फोटो और उससे जुड़ी घटना पर आधारित है. इस फोटो ने फोटोग्राफर को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति और सम्मान दिलाया लेकिन उसके अदंर का अपराधबोध  और पश्चाताप उसे चैन से नहीं जीने देता और अपनी सारी कला और प्रसिद्धि उसे निरर्थक लगने लगती है. 


कहानी रोचक और रहस्यमय तरीके से न्याय के लिये भटकते बच्चे की फैंटेसी का प्रयोग करके उस त्रासदी के शिकार और पीड़ित लोगों की यंत्रणा और समाजराजनीतिसत्ता , मीडिया और न्यायव्यवस्था की नाकामी जिसने उस बहुराष्ट्रीय कंपनी को खुले-आम बख्श दिया. इन सभी संदर्भों में आज की भ्रष्ट और विसंगत व्यवस्था पर भी कहानी बहुत से असुविधाजनक सवाल उठाती है जिनका जवाब किसी के पास नहीं है.

कला और समाज के अंतर्विरोधों और कला-साहित्य  की सामाजिक उपयोगिता की बहस को उठाते हुए यह कहानी दोनों के संबध को कई कोणो से दिखने का गंभीर प्रयास भी करती है. विकल्पहीन नाउम्मीद समय में अँधेरों में रहकर नहीं बल्कि उजालों में रहकर शोषित- पीड़ित के लियेप्रतिरोध संघर्ष और स्याह ज़िंदंगी की तस्वीरें खींचना ही कला का नैतिक दायित्व और कला की ईमानदारी है.कोई विचार खतरनाक नहीं है सोचना खुद में ही खतरनाक है-हाना आरेन्ट लेकिन तस्वीर भी तभी बदलती है. कहानी में बीच-बीच में लोर्का, कबीर, मुक्तिबोध की डायरी, गालिब और निदा फाज़ली का आना इस नाकाबिल-ए-बर्दाश्त माहौल और भयावह समय में कुछ राहत की साँसे पाठक को देकर जाते हैं.

स्त्री विमर्श के वर्तमान दौर में स्त्री जीवन की दैहिक-मानसिक पीड़ा और और उसकी परतंत्रता को पुरूष लेखक भी उसी शिद्दत से महसूस कर सकते हैं. इसका प्रमाण बहुत भावनात्मक कहानी पिजंडे वाली मुनिया’ स्त्री के इसी अनकहे दु:ख और घुटन का जीवंत बयान है. पुरुषसत्ता में घर-परिवार के सभी कर्तव्य और मर्यादा को निभाते और सुख-सुविधा से भरे जीवन में भी उसकी स्वतंत्र अस्मिता और स्वप्नों का आकाश सामने है जिसमें वह अपने लिये निर्धारित सभी बंधन तोड़कर उड़ना चाहती है. शारिरिक और दैहिक सुख से आगे मानसिक आज़ादी, सच्चे उदात्त प्रेम का अनुभव और अपनी वैचारिक आकाक्षाओं को पूरा करना चाहती है.  

इसी प्रकार सूने महल में कहानी कथा नायिका के रूप में स्त्री के गहन अंतर्मन में छिपे बरसों पुराने प्रेम के प्रति एकनिष्ठ समपर्ण की टीस और गरिमा की मार्मिक कहानी है. जिसे वह अंत तक संजोए रखती है और उन स्मृतियों के खंडहर होते महल में भी प्रेम की अलौकिक लौ को जीवित रखती है. यह रूमानीपन यथार्थ से पलायन का नहीं बल्कि स्त्री के लिए क्रूर यथार्थ से मुक्ति का व्यंजक है जो कहानी को मौलिक बनाता है.

आज के निर्मम उपभोक्तावादी समय में ये कहानियाँ अमानवीयता, क्रूरता और क्षुद्र स्वार्थों के बरक्स संवेदनशीलता और त्रासदियों के बीच भीमूल्यों की खोज  बहुत गहराई से करती हैं. आत्मनिर्वासन का त्रासद स्वर इन कहानियों की विशिष्ट पहचान है जो एक स्वप्नदर्शी समाज और  बेहतर विकल्प को तलाश करने का जोखिम उठाता है. इस दृष्टि से अत्यंत मार्मिक कहानी शब्द भर जीवन उर्फ दास्तान-ए-नगमानिगार आज के स्थूल और चकाचौंध से भरे यथार्थ की परतों के नीचे दबी भावना और संवेदना का वह आदिम राग है जो एक धुन की तरह उठते हुए द्रुत से विलंबित की यात्रा करती है. कहानी के केंद्र मे दिल्ली जैसे निर्मम महानगर में एक बहुत संज़ीदा कवि और साहित्यकार का चरित्र हैं जो अपने में रिक्त और तिक्त होते ऐसे अभिशप्त उदास लेखक की कहानी है जो आज के भौतिक, आत्मकेंद्रित और अवसरवादी समय में प्रासंगिक नहीं रह गया है.

लेखकीय जीवन के अतंस्थलों की पड़ताल करते हुए साहित्य जगत की भीतरी सच्चाई और कथित सफलता के रहस्य को बेबाकी से कहानी में दिखाया गया है. यहां मुख्य चरित्र के रूप में संवेदनशील कवि यथार्थ के बहुत निकट लगता है जिन्हें छद्म और पाखंड नहीं आता, जो व्यावहारिक नहीं और सफलता के तंत्र को कभी नहीं साध पाता. अतिशय भावुकता,समाज को बदलने के आदर्शवाद के कारण जिस विवाह का नैतिक जोखिम वे उठाते हैं वह भी उनके जीवन को नारकीय बना देता है और अतंत: वे टूट कर बिखर जाते हैं. उनकी बेचैनीविक्षिप्तता, बौद्धिक और आत्मिक द्वंद्व को कहानी में अंकित करने की लेखन ने विलक्षण कोशिश की है और एक ट्रैजिक अंत के साथ पाठक के आत्मको भी कहानी झकझोर देती है.

कहानी में बीच-बीच में गुरुदत्त, मुक्तिबोध,  निराला, भुवनेश्वर और स्वदेश दीपक, गोरख पाण्डे के प्रसंग कहानी के दर्द का विस्तार करने हुए अपनी अमिट विरासत के साथ एक अदृश्य वेदना को भी पाठक के साथ छोड़ जाते हैं. अपनी संवेदनात्मक तरलता, भाषा की अर्थमयता और यत्रंणा के साथ यह एक अविस्मरणीय कहानी है और फ्रांज़ काफ्का के असफल नियति के नायकों की याद दिला देती है जो बस संघर्ष करते हैं और सफलता में अपनी मृत्यु देखते हैं.

रचनाकार के सरोकार अपने समय के संकट और सामाजिक-राजनीतिक दबावों और उसके प्रभाव से कभी अनजान नहीं रह सकते जिसमे नैतिक संवेदनाओं का लगातार पतन हुआ है. समकालीन सत्ता-सरंचना और उसके तंत्र के तमाम प्रप्रंचों और कुटिल अवसरवादिता को कहानी कसम उस्ताद की बहुत बेबाकी और व्यंग्य के धारदार तरीके से खोलती है. साधारण जनता लक्ष्यहीन राजनीति और लोकतंत्र के इस तमाशे में सिर्फ एक मोहरा है और इस व्यवस्था के  निरतंर दु:स्वप्न का टूटना मुश्किल है.

समाज को सुंदर बनाने और  दुनिया को बदलने का स्वप्न और अपने वज़ूद के लिये संघर्ष प्रत्येक युग और व्यवस्था में देखा जाता है जो प्रतिरोध के रूप में चेतनाशील युवा मन को बार-बार लड़ने के लिये प्रेरित करता है. लेकिन आर्थिक विषमताएं, समाज और सत्ता की मारक क्षमता का शिकार बनते सपनेभयानक आत्मसंघर्ष और विफल आकांक्षाये हमेशा अस्तित्व को कुचलकर उसके भविष्य को गहन अंधकार तक पहुंचा देती हैं. अंतिम कहानी “मकतल में रहम करना’ व्यवस्था के जानलेवा तंत्र के मर्मांतक और भयावह माहौल में कथानायक के आत्मस्वीकार की कहानी है जो फाँसी पर चढ़ने से पहले अपने जीवन का विशलेषण ही पाठक के सामने रख देता है. वह विचारों के साथ जीने की कल्पना करता और चाँद को ज़मीन पर ला देने की ज़िदऔर बेचैनी. नॉस्टेल्जिया यहाँ तल्ख सच्चाईयों के रूप में सामने आता है.

अन्याय से लड़कर इस फूहड़ताकत और शोषण पर बनी असहनीय दुनिया को जीने लायक बनाने का जूनून और दिल में आग भी। एक जख्म की तरह पूरा सफर जिसमें टूटते सपनेऔर सिर्फ माँ के आँसू और दर्द ही आखिर तक साथ रहे और माँ की गुज़ारिश कि बेटे कोफाँसी देते समय उसे ज्यादा दर्द न हो. लेकिन अंत में वधस्थल में-  “ठीक जिस क्षण वह रोशनी के बारे में सोच रहा था. उसके चेहरे को काले कपड़े से ढक दिया गया.” यहाँ कहानी पाठक को नाउम्मीद,  और झकझोर कर निस्तब्ध सोचने के लिये विवश खामोश छोड़ देती है. यथार्थ और स्वप्न के कन्ट्रास्ट’ से उपज़ा द्वंद्व और तनाव इस कहानी की संवेदना और भाषा में सभी जगह व्याप्त है.


यह कहानी-संग्रह लेखक की समकालीन यथार्थ को समझने की गहन,अचूक अन्तर्दृष्टि, पारदर्शी संवेदना और आत्मीय जीवन-विवेक के साथ समकालीन कथा-लेखन के एक बड़े अंतराल को भरता है जिसमें समकालीन निर्मम यथार्थ की भावात्मक प्रतिध्वनियां सुनी जा सकती हैं. कई अर्थो में हमारे समाज और समय की चिंताओं को बहुआयामिता से जानने के लिये यह अनिवार्य पुस्तक है. प्रखर वैचारिकता के साथ ही जीवन के लिये प्रेम, उम्मीद और राग को बचा लेने की कोशिश इन कहानियों की विशिष्ट उपलब्धि है. मानवीय संवेदनाओं को अनूठे भाषिक शिल्प में ढ़ाल लेने का कौशल भी कथा-लेखक के पास है जिसमें हिनी-उर्दू शब्दों की सहज रवानगी है. आवरण पृष्ठ पर हिंदी- आलोचना के शिखर नामवर सिंह जी का कथन है-
“प्रेम भारद्वाज की भाषा यहाँ काबिले तारीफ है, इनकी अधिकतर कहानियाँ विषय में विविधता के साथ उपन्यास की संवेदना लिये रहती हैं.” प्रसिद्ध आलोचक ‘विश्वनाथ त्रिपाठी’ ने भी सीधी भाषा में जीवन की वास्तविकताओं को मार्मिकता और गहराई से चित्रित करने की दृष्टि से इन्हें लेखक की सफल कहानियाँ माना है.  कथाकार ‘अल्पना मिश्र’ और कथा-लेखक ‘अवधेश प्रीत’ ने भी फोटो अंकल कहानी संग्रह को गंभीरता से विश्लेषित करते हुए गहन मानवीय संवेदना और विचार के सही संतुलन के साथ एक नयी कथा-भाषा और नयी प्रतिबद्ध कथा-दृष्टि से समकालीन नयी पीढ़ी के कथाकारों में प्रेम भारद्वाज की सशक्त रचनात्मक उपस्थिति को स्वीकार किया है.

नि:संदेह वर्तमान क्रूर यथार्थ और खौफनाक होते समय में तमाम हताशा, भय, अवसाद और विकल्पहीनता  के बीच भी भविष्य और बदलाव के लिये संभावनाएं हो सकती हैं क्योंकि प्रतिबद्ध नैतिक रचनाकार अपने शब्दों पर भरोसा करना कभी नहीं छोड़ सकता जो अंतत: मानव की बुनियादी अस्मिता को बचा लेते हैं. 

इस दृष्टि से मनुष्य की आत्मिक और सामाजिक चेतना के दोनों धरातलों पर यह कहानी- संग्रह जीवन और रचना के अंतर्संबंधों की गहरी शिनाख्त करता है तथा समकालीन कथा-लेखन के आधुनिक परिदृश्य की महत्वपूर्ण उपलब्धि माना जा सकता है.
_________
मीना बुद्धिराजा
सह- प्रोफेसर , अदिति कॉलेज, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्विद्यालय
संपर्क-9873806557

1/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (26-10-2018) को "प्यार से पुकार लो" (चर्चा अंक-3136) (चर्चा अंक-3122) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.