स्मरण
गजानन माधव मुक्तिबोध
(१३ नवम्बर १९१७ – ११ सितम्बर १९६४)
मुक्तिबोध को दिवंगत
हुए पांच दशक से अधिक हो गए हैं पर आज भी हिंदी कविता की चर्चा उनके ज़िक्र के बिना
पूरी नहीं होती है. ११ सितम्बर को हम उनकी पुण्यतिथि मनाते हैं.
मुक्तिबोध २० वीं
सदी के हिंदी के बड़े कवि हैं. कविता ही नहीं आलोचना के क्षेत्र में भी उनका कार्य स्थायी
महत्व का है.
आपने मुक्तिबोध की
कविताओं में क्या कभी प्रेम की कोई कविता पढ़ी हैं ? उनकी कविताओं में आश्चर्यजनक
रूप से प्रेम कविताएँ लगभग अनुपस्थित हैं.
अंग्रेजी के पत्रकार
और हिंदी के लेखक आशुतोष भारद्वाज ने मुक्तिबोध की कविताओं में प्रेम की अनुपस्थिति
पर ख़ास समालोचन के पाठकों के लिए यह लेख तैयार
किया है. आशुतोष कुछ गिनती के अध्येताओं
में है जो संजीदगी से लिखते हैं और हरबार कुछ नवोन्मेष लिए रहते हैं.
बोसा उस बुत का लेकर मुंह मोड़ा, भारी पत्थर था चूम कर छोड़ा ---
वापस मुक्तिबोध पर लौटते हैं जिनकी कविता में अपने वर्तमान के प्रति गहन छटपटाहट, असंतोष है, नकार भाव है. यह नकार भाव किस तरह प्रेम के स्पर्श से बदल जाता है इसका एक अद्भुत उदाहरण यह कविता है ---
क्या यह ‘अंधेरे में’ रहती वह ‘जन-मन-करुणा सी माँ” है जो मुक्तिबोध की कविता से ‘हंकाल’ दी गयी है? लेकिन मुक्तिबोध के सभी प्रयासों के बावजूद वह स्त्री माँ के रूप में इस कविता में चली आई है, नायक से कह रही है कि अपने विचार की खोह से बाहर निकल, अपनी आत्म ग्लानि को परे हटा लोगों से और पड़ोसियों से मिल, अपने विरोधी के मत का सम्मान कर. अगर ऐसा है तो क्या यह क्षण जब यह मुस्कुराती हुई स्त्री नायक से कह रही है कि केवल जीवन कर्तव्यों का पालन न हो सके इसलिये वह निज को बहकाया करता है, क्या यह क्षण मुक्तिबोध का तुलसीदास क्षण है?
अनुपस्थिति के साये
आशुतोष भारद्वाज
मुक्तिबोध की सृजनात्मक सृष्टि
तीन प्रमुख भावों से निर्मित और नियंत्रित होती है. पहला, उनके काव्य में प्रेम और स्त्री लगभग अनुपस्थित हैं.
(नेमिजी द्वारा सम्पादित उनकी रचनावली में उनकी कवितायें और कहानियां तीन खंड यानि
करीब तेरह सौ पन्नों में फैली हुई हैं लेकिन स्त्री, प्रेमिका
ही नहीं, बतौर अन्य रूपों में भी लगभग गायब
है.)
दूसरा, इस काव्य की कामना यानि इसकी ईड पर लेखक के आदर्श यानि सुपर
ईगो का अंकुश है.
तीसरा, इसका क्रांतिगामी नायक किसी भी ऐसे कर्म को हेय मानता है जो
क्रांति के पथ पर न जाता हो लेकिन खुद ऐसे कर्म (साहित्य लेखन) में लिप्त है जो
उसके अनुसार क्रांति को सीधा संबोधित नहीं है. लेखन अपने में एक क्रांतिकारी कर्म
हो सकता है इससे वह अनजान है, या अनजान बने रहना चाहता
है.
ये भाव मुक्तिबोध की कविता को क्या स्वरुप देते हैं, यह निबंध उसकी पड़ताल है. इसके बहाने यह निबंध उनकी
रचनात्मक कल्पना के किसी सुदूर झरोखे से चुपचाप झाँकती हुई स्त्री को केंद्र में
लाने का प्रयास करता है, और किसी रचना में स्त्री
की उपस्थिति के मायने को भी परखना चाहता है.
उनकी रचनावली में अठारह उन्नीस की उम्र तक लिखी कुल तीन या
चार प्रेम कवितायें हैं, इसके बाद एक प्रेम कविता छब्बीस सत्ताईस में लिखी गयी है. तैंतीस की उम्र की
एक कविता ‘तम छायाओं को’ में एक उचटती सी पंक्ति आती है जिसमें ‘प्रिये’ संबोधन इस्तेमाल होता है, उनके काव्य में इस शब्द की यह एक दुर्लभ
उपस्थिति है, लेकिन कवि तुरंत
बतला देता है कि यह संबोधन उसे विचलित करता है, और वह इस पर प्रश्न भी खड़ा कर देता है.
किन्तु सत्य है प्रिये (प्रिय कहते ही तत्क्षण
छाती में होती है धक् धक्)
क्योंकि न न्यायोचित, संबोधन पूर्ण रिक्त है.
अपनी आगामी कविता में कवि इस विडंबना को स्पष्ट कर देता है
जब वह कहता है ---
पुरुष हूँ, आँसू मैं गिरा नहीं सकता हूँ
इसलिए सूने में, सूने में तकता हूँ....मेरी इन आँखों को देख अगर
पाओ तुम, समझोगी कि जिंदगी में कहाँ हूँ अटकता हूँ. –
पुरुष हूँ इसलिए आँसू नहीं गिरा सकता. इसका क्या अर्थ है? क्या साम्यवादी क्रांति का आदर्श, जैसा कि मुक्तिबोध और कई अन्य कामरेड इसे समझते
थे या समझते हैं, एक अति पौरुषेय
प्रत्यय है, जिसमें आंसू और
स्त्री की जगह नहीं है? भारत के मध्य भाग में एक विशाल गुरिल्ला सेना कई दशकों से राज्य के विरुद्ध
सशस्त्र क्रांति की जंग लड़ रही है. इस सेना के नियम बड़े कठोर हैं. प्रेम पर सख्त
पहरा है, संतान का जन्म तो
अपराध है.
(दो)
किसी रचना में स्त्री की उपस्थिति के क्या मायने हैं? क्या यह अनुपस्थिति किसी रचना को अधिक पौरूषेय
बनाती है? किसी रचना का स्त्री
तत्व क्या उसके पुरुष तत्व से भिन्न होता है? यह इस प्रश्न से एकदम अलग है कि स्त्री लेखन और पुरुष लेखन में कोई फर्क है या
नहीं .
स्त्री पुरुष का विलोम नहीं है, प्रतिरूप भी नहीं लेकिन वह उससे एक इतर संसार
जरूर है. मानव व्यवहार व चेतना के कई गुणों को स्त्री और पुरुष के आदि गुण माना
जाता रहा है. कोमलता, माधुर्य,करूणा इत्यादि को स्त्री पर आरोपित कर दिया जाता
है, हिंसा, क्रूरता, शक्ति को पुरूष पर. लेकिन यह गुण दोनों में ही कमोबेश उपलब्ध हैं.
लेकिन दोनों भिन्न सत्तायें हैं, शायद इसलिये कि सामाजिक-सांस्कृतिक भेद की वजह
से दोनों के अनुभव संसार में गहरा फर्क रहा है. चूँकि मनुष्य अपने अनुभवों की
निर्मिति है, स्त्री पुरुष का भेद
उनके अनुभवों के आइने से देखा जा सकता है.
अनुभव के इसी भेद को वर्जिनिया वुल्फ अपने निबंध ‘अ
रूम ऑफ वंस ओन’ में रेखांकित करती हैं जब वे जॉर्ज एलियट और जेन
ऑस्टिन जैसी लेखिकाओं का जिक्र करते हुये कहती हैं कि अगर टॉलस्टाय ने
अपना जीवन किसी परिवार में, बाकी दुनिया से कट कर बिताया होता तो वे युद्ध और शांति कभी न लिख पाते. वे
लिखती हैं:
“जिस समय (जॉर्ज एलियट एक घर की दीवारों के भीतर ही सीमित थीं) यूरोप के दूसरे छोर पर एक युवक उनमुक्त जीवन जी रहा था, कभी इस जिप्सी के साथ, कभी उस अद्भुत स्त्री के साथ; वह रणभूमि में जाता था; मानव जीवन के तमाम अनुभवों को निर्द्वंद्व होकर, समूचे आवेग के साथ जीता था, और जब वह अर्से बाद अपनी किताबें लिखने बैठा तो इन अनुभवों ने उसकी लेखनी को विलक्षण ढंग से समृद्ध किया.”
जब मार्गरेट ड्यूरा सत्तर पार कर चुकी थीं, एक साक्षात्कार में पूरी शक्ति से कहती हैं:
“पुरुष की सृष्टि में स्त्री कहीं अन्यत्र होती है, एक ऐसी जगह जहाँ पुरुष अपनी इच्छा से ही आता-जाता है.”
इसके बाद वह समलैंगिक पुरुष लेखकों पर टिप्पणी करती हैं:
“किसी समलैंगी के साथ हुए प्रेम में वह मिथकीय, शाश्वत अनुभूति नहीं होती जो सिर्फ विपरीत लिंग के साथ ही घटित होती है… इसलिए साहित्य को --- आप सिर्फ प्रूस्त का ही उदाहरण ले लें --- समलैंगिक उन्माद को विपरीत लिंग में परिवर्तित करना ही पड़ा --- अल्फ्रेड को अलबर्टाइन, स्पष्ट कहें तो. जैसा कि मैंने पहले भी कहा है, इसलिए मैं रोलां बार्थ को महान लेखक नहीं मानती: कोई चीज थी जो उन्हें सीमित करती थी, मानो जीवन का प्राचीनतम अनुभव उन्हें छुए बगैर ही चला गया, स्त्री का यौनिक अनुभव.”
गौरतलब है कि ऐसा कहते वक्त वे तमाम पुरुष और स्त्रियों के
साथ जीवन बिता आयीं थीं. लेकिन उन्होंने यह भी जोड़ा कि
“लिखते वक्त मैं खुद से यह प्रश्न नहीं पूछती कि स्त्री संवेदनशीलता के क्या मायने हैं. एक महान चेतना उभयलिंगी होती है. कला को किन्हीं अर्थों में स्त्रेण बनाने का प्रयास स्त्री की बहुत बड़ी भूल है.”
अनेक लेखिकाएं यह मत साझा करती हैं. मसलन कृष्णा सोबती “अर्द्धनारीश्वर के प्रत्यय” में आस्था रखती हैं जो रचना के लम्हों में
रचनाकार के भीतर उतर आता है. इस लेखक के साथ एक साक्षात्कार में उन्होंने खुद को “स्त्री लेखक” मानने से इंकार करते हुए कहा:
“मैं स्त्री लेखन को नहीं मानती. सिद्धांतकार भले ही किसी कृति को इस संकीर्ण ढंग से परखें, लेकिन मेरे लिए कोई महान कृति स्त्री और पुरुष दोनों तत्व लिए रहती है..”
ये तीनों कद्दावर लेखिकाएं --- वूल्फ, ड्यूरा और सोबती --- पुरुष और स्त्री के अनुभव जगत की भिन्नता को स्वीकारती
हैं लेकिन ज़ोर देती हैं कि महान कलाकार संस्कृति द्वारा आरोपित लिंग भेद से परे
निकल जाते हैं.
इसलिये जब कोई पुरुष किसी स्त्री को बरतता है, जीवन या कविता में, तो वह अपने से इतर अनुभव जगत से संवादरत होता है.
एक लगभग अनदेखे-अनजाने प्रदेश में प्रवेश करता है, उसके तंतुओं को खोलता-टटोलता है. यह स्त्री उस
पुरुष की प्रतिद्वंदी हो सकती है, शत्रु या प्रेमिका भी. उसकी हिंसा, करूणा, प्रेम या वासना और
हवस का पात्र भी. किसी स्त्री लेखक के लिये भी यह बात उतनी ही सही है. उसके लिये
भी पुरुष प्रतिद्वंदी, प्रेमी, विलोम या प्रतिरूप
भी हो सकता है.
इससे यह निगमित किया जा सकता है कि किसी भी कलाकृति की
कुंडली उस जगह की बुनियाद पर बनाई जा सकती है जो उसका रचनाकार अपने विपरीत लिंग को
देता या देती है. यहीं से यह भी प्रस्तावित किया जा सकता है कि किसी कृति की
महानता उस अवकाश के आधार पर निर्धारित हो सकती है जो वह कृति अपने या अपने रचनाकार
के ‘अन्य’ को देती है.
जब कोई कलाकार अपने से इतर किसी ‘अन्य’ संसार में प्रवेश करता है, उसके निवासियों से संवादरत होता है तो उस कृति में दुविधा, असमंजस, अर्थ बाहुल्य का समावेश होने की संभावना जन्म लेती है. उस कृति की भाषा पर
कोहरे की परछाईं गिरती है,
वह कृति दिन या रात के भेद
को पार कर गोधूलि बेला में पहुँचती है. यह इतर संसार रचनाकार की चेतना के सामने एक
रचनात्मक चुनौती खड़ा करता है कि वह अपने पूर्वाग्रहों को नकार उससे संवाद जोड़
पाता है या अपने आग्रहों और भ्रमों के आइने से देखता हुआ उसे स्वतंत्र स्पेस देने
से इंकार कर देता है.
किसी रचना में स्त्री पुरुष संबंधों का डायनैमिक्स इसलिये
यौनिक आकांक्षाओं का उतना फलन नहीं जितना वह एक लगभग अबूझी और अनजान सृष्टि से
हुये संवाद का संविधान है. उसे खोलने-टटोलने की छटपटाहट है, उसकी असंभाव्यता और दूसरेपन को डीकोड करने का
प्रयास है.
इसी संवाद की भूमि पर प्रेम, उन्माद, चाहना, ईर्ष्या, हिंसा इत्यादि भावों के जन्म की संभावनायें घटित
होती हैं. किसी कृति में इस संवाद के स्थल हमें शायद इसलिये ही लुभाते हैं कि वह
हमें अपने जीवन के इस इतर पक्ष से परिचित कराते हैं.
कम ही बड़े पुरूष कलाकार हैं जिनकी कला उनके
स्त्री-किरदारों के बगैर पूरी होती हो. अगर स्त्री उसकी कल्पना की मरकज न भी हो तो
भी वह उसके कला-कर्म पर एक बीहड़ आसमान, एक विराट स्वप्न की तरह मंडराती रहती है. व्यास, शेक्सपियर से लेकर बर्गमैन की शक्तिशाली स्त्रियाँ इसका प्रमाण
हैं.
(तीन)
इस रोशनी में अब हम उस प्रश्न को टटोल सकते हैं कि स्त्री
की अनुपस्थिति मुक्तिबोध के काव्य को क्या स्वरूप देती है. उनके काव्य की एक बड़ी
विशेषता है उनके नायक की गहरी आंतरिक छटपटाहट और आत्मसंघर्ष, आत्म-भर्त्सना भी. लेकिन उसे अपनी अपने विचार की
शक्ति पर कोई संशय नहीं. क्रांति में योगदान न दे पाने की वजह से वह खुद को कोसता
जरूर है लेकिन क्रांति के विचार और उसकी अनिवार्यता परउसे कोई संशय नहीं. उसे कवि, नर्तक, शिल्पकार इत्यादि समाज के सभी वर्ग “रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध” नजर आते हैं. वह अपने को, एक क्रांतिगामी नायक को एक किनारे रखता है, बाकी दुनिया दूसरे किनारे पर धकेल देता है.
क्या मुक्तिबोध की कविता में ‘अदर’ यानि दूसरे का बोध बहुत गहरा और नुकीला है? क्या कवि लगभग समूची सृष्टि को अपना विलोम माने
बैठा है? वह “अकेला” है “बौद्धिक जुगाली में अपने से दुकेला” है.
क्या इसकी वजह यह है कि मुक्तिबोध अपने विचार को ही अंतिम
सत्य मानते रहे? क्या यह कह सकते हैं
कि इस रचनात्मक अवस्था यानि बहुध्वन्यात्मकता की इस अनुपस्थिति की एक वजह रचना में
स्त्री की अनुपस्थिति है? स्त्री की उपस्थिति रचना और उसके किरदारों के स्वर को किस क़दर परवर्तित करती
है इसके कई उदाहरण हैं.
गोरा की सुचरिता नायक की
अतिवादिता पर प्रश्न करती है, अंततः उसे अपनी अवधारणाओं पर पुनर्विचार को
प्रेरित करती है. टैगोर के इस उपन्यास का निर्णायक मोड़ उस लम्हे आता है जब नायक
गोरा स्त्री के महत्व को समझता है. गोरा कट्टर हिन्दू है, जातिप्रथा का समर्थक है, मानता है कि भारत का भविष्य हिन्दू पुनर्जागरण में
है. लेकिन इतना मजबूत व्यक्तित्व जो सभी को बहस में हराता आया है, ब्रह्म समाज की सदस्य सुचरिता के संपर्क में आ
अपने तर्क की सीमा को पहचानने लगता है. जिस इंसान ने स्त्री की भूमिका को कभी भी
परिवार से परे नहीं देखा वह “सुचरिता के जरिये एक नए सत्य से साक्षात्कार करता है”.
संस्कार की नायिका तपस्वी जीवन जीते आ रहे प्राणेशाचार्य
को सृष्टि के अनछुए पहलू से परिचित कराती है, उसके जीवन को पलट कर रख देती है. झूठा सच की
स्त्रियाँ विभाजन के दौरान पुरुष द्वारा की जा रही हिंसा को नकारती हैं. दोस्तोयवेस्की
के अपराध और दंड के एक विलक्षण दृश्य
में सोन्या अपराध बोध में डूबे नायक को तहख़ाने में बाइबल का ‘राइज़िंग अव लाज़रस’ पढ़ कर सुनाती है, जिसके बाद नायक के भीतर की जड़ता पिघलने लगती है.
यही बात स्त्री के संदर्भ में भी सही है. पुरुष की उपस्थिति
उसके लेखन का विस्तार करती है. इसका सबसे विलक्षण उदाहरण हैं कृष्णा सोबती.
उन्होंने जब ‘हम हशमत’ लिखने के लिये पुरुष उपनाम चुना तो पाया कि उनकी लेखनी और भाव ही नहीं, लिखावट यानि हस्तलिपि का स्वरूप भी बदल गया. वे
पुरुष का अपनी कथाओं में चित्रण करती आयीं थीं लेकिन जब उन्होंने खुद को पुरुष नाम
दिया, पुरुष को अपनी
रचनात्मक चेतना में धारण किया तो उनके शब्द और अक्षर वह नहीं रहे जो उनकी अन्य
रचनाओं में थे.
मुक्तिबोध की एक दुर्लभ प्रेम कविता के उदाहरण से देखा जा
सकता है कि स्त्री और प्रेम का भाव उनके विचार, भाषा की सतह और कविता के ढांचे को किस क़दर
बुनियादी तौर पर परिवर्तित कर देता है.
मैं बहुत दिनों से बहुत दिनों से
बहुत-बहुत सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना
और कि साथ साथ यों साथ साथ
फिर बहना बहना बहना
मेघों की आवाज़ों से
कुहरे की भाषाओं से
रंगों के उद्भासों से ज्यों नभ का कोना-कोना
है बोल रहा धरती से
जी खोल रहा धरती से
त्यों चाह रहा कहना
उपमा संकेतों से
रूपक से, मौन प्रतीकों से
मैं बहुत दिनों से बहुत दिनों से
बहुत-बहुत सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना
(चार)
किसी पुरुष रचनाकार के शब्द को स्त्री किस तरह कायांतरित
करती है, उस रचना की काया में
वह अनकहे और अनबूझे रहे आये एहसास और हसरतें किस तरह चुपचाप पिरो देती है इसका एक
विलक्षण उदाहरण दो अलग काल खंडों में रची गयी राम कथा के यह अंश देते हैं.
वाल्मीकि रामायण के
अरण्य कांड के पैंतालिसवे सर्ग में राम मृग के पीछे जा चुके हैं.
सीता और लक्ष्मण कुटिया में अकेले हैं कि राम की पुकार आती है. घबराती हुयी सीता
लक्ष्मण से राम की सहायता के लिये जाने को कहती हैं लेकिन वे उन्हें आश्वासन देते
हैं, यह भी कहते हैं कि
राम ने उन्हें सीता के पास रहने के लिये कहा है. और तब सीता लक्ष्मण पर वह आरोप
लगाती हैं जो रामकथा की बुनियाद पर गहरा
प्रश्न लगाता है. जब लक्ष्मण जाने से मना कर देते हैं तो आक्रोश में सीता कहती हैं
कि वह राम की सहायता के लिये सिर्फ इसलिये नहीं जा रहे क्योंकि उनकी सीता पर
कुदृष्टि है, कि वह राम के खत्म
होने के बाद उनको पाना चाहते हैं, कि लक्ष्मण दरअसल जंगल सिर्फ उन्हीं के पीछे आये हैं. वे उन्हें “दुष्ट”, “अनार्य” और “कुलपावक” कह गाली देती हैं, और यह भी जोड़ती हैं कि शायद भरत ने ही लक्ष्मण
को उन्हें यहाँ भेजा है.
यह अचंभित कर देने वाला वाक्या है. हम मानते आये हैं कि
लक्ष्मण ने सीता के सिर्फ चरणों को ही देखा है, चेहरे पर भी उनकी कभी निगाह ही नहीं गयी.
लक्ष्मण का आदर्श भाई और देवर का स्वरूप यहाँ भरभरा कर गिर जाता है. जंगल के इतने
बरसों के दौरान लक्ष्मण ने ऐसा क्या कहा या किया, सीता ने उनमें ऐसा क्या देखा कि वह उन पर
कुदृष्टि का आरोप लगा रही हैं. क्या लक्ष्मण निष्कंलक नहीं, आदर्श भाई नहीं? यह प्रश्न खुद सीता पर भी लौटता है कि वे अब तक
चुप क्यों रहीं? अगर उन्हें लक्ष्मण
के भीतर इस भाव का एहसास था तो उन्होंने अब तक प्रतिकार क्यों नहीं किया? राम को क्यों नहीं बतलाया? या यह सीता की महज कुंठा है, झुंझलाहट है कि वह जैसे भी संभव हो लक्ष्मण को
उकसा रहीं हैं कि वे राम की रक्षा के लिये चले जायें? और अगर ऐसा है तो इस क्षण सीता और कैकेयी या
मंथरा में कोई बहुत गहरा चरित्रगत अंतर नहीं रह जाता.
एक उत्कृष्ट रचनाकार की तरह वाल्मीकि इन प्रश्नों को
अनुत्तरित छोड़ देते हैं. गौर करें कि यह वाक्या वाल्मीकि रामायण में है, एक आरंभिक रामकथा, उस इंसान द्वारा रची गयी जिसने राम को बचपन से
देखा, अपने आश्रम में सीता
को शरण दी, लव कुश उनके घर ही
पले बढ़े. यह झारखंड या छत्तीसगढ़ के किसी कबीले में कही गयी रामकथा नहीं जिसे कोई
वैकल्पिक या “थ्री हंड्रेड रामायण” में से एक कह कर खारिज कर सके. हाँलाँकि कोई भी
रामकथा वैकल्पिक नहीं, भारतीय समाज ने मिलकर सबको रचा है, उन्होंने भारतीय समाज को रचा है. लेकिन वाल्मीकि रामायण की सीता अगर लक्ष्मण
पर यह आरोप लगा रही हैं तो इसे अनसुना नहीं किया जा सकता.
कई सदियों बाद तुलसीदास भी रामकथा लिखने बैठते हैं. इस
प्रसंग पर आते हैं. उनके सामने सकंट गहरा है. अगर वे भी सीता-लक्ष्मण के संबंध पर
यही प्रश्न लगाते हैं तो उनकी रामकथा का उद्देश्य कमजोर पड़ता है, आखिर उन्हें एक आदर्श की स्थापना करनी है. तुलसी
शुरुआत से ही अपने किरदारों की आकांक्षा के बजाय अपने आदर्श यानि सुपर ईगो से
संचालित हो रहे हैं. लेकिन इस स्थल पर इस रचना अपने रचनाकार के आरोपित आवरण को
उतार फैंकती है और तुलसीदास लिखते हैं ---
मरम बचन जब सीता बोला. हरि प्रेरित लछिमन मन डोला.
सीता ने जो कुछ भी भला-बुरा लक्ष्मण से कहा, तुलसी उसे ‘मरम बचन’ में सीमित तो कर देते हैं, लेकिन पर्याप्त संकेत देते हुये कि सीता ने अत्यंत मर्मभेदी बात कही है. यह
कविता की काया में ईड यानी अव्यक्त रही आयी कामना का समावेश है. यह रचना का दुर्लभ
क्षण है. किरदार की आकांक्षा रचनाकार के नैतिक आदर्श से परे निकल जाती है.
एक अन्य दृष्टि से कहें तो एक रचनाकार अपने पूर्ववर्ती
कलाकार को शायद इसी तरह नमन करता है, उसका ऋण अदा करता है. तुलसी का भक्त चाह कर भी वे शब्द नहीं प्रयोग कर सकता था
जो सीता और लक्ष्मण के संबंध पर सवाल लगाते हों, लेकिन उन्हें अपने कथा-गुरू वाल्मीकि की मूर्ति
के समक्ष ली गयी शपथ भी याद रही होगी. ‘मरम बचन’ इसी शपथ का निर्वाह
है, इसका प्रमाण है कि
रचना अपने रचयिता और किरदार, दोनों से मुक्त हो जाने का ख्वाब देखती है, दुर्लभ लम्हों में मुक्त हो भी जाती है. एक
मध्यकालीन भक्त कवि अपने समूचे आग्रहों के बावजूद अपनी रचना में वे संकेत छोड़
जाता है, जो उस कथा का पाठ
बदल देते हैं.
स्त्री के महत्व को इस्लाम धर्म के आईने से भी देख सकते
हैं. इस्लाम की चेतना और कल्पना में स्त्री अमूमन अनुपस्थित रही है. यह निरा
पौरूषेय धर्म है. इसके पैगंबर, संत—सभी पुरुष हैं. इस्लाम
शायद उतना कट्टर नहीं होता अगर इस्लाम का पुरुष किसी स्त्री से संवाद-संघर्षरत रहा
होता. दिलचस्प यह है कि जब सूफी कवियों के जरिये इस्लाम में स्त्री और प्रेम
प्रवेश करते हैं तो इस्लाम का स्वरूप झटके से बदल जाता है. सूफी कवि प्रकृति और
खुदा से बुनियादी तौर पर एकदम अलग किस्म का सम्बन्ध बनाते हैं, जिसमें उन्माद और खुमार है, समर्पण भी है. उर्दू शायर जिस तरह अपने खुदा और
मजहब से ठिठोली करता है वह स्त्री के बगैर संभव नहीं था.
मसलन मीर बुत शब्द से एक बेजोड़ शरारत रचते हैं. उर्दू में
बुत का अर्थ मूर्ति तो है ही, यह माशूक के लिए भी प्रयोग होता है. जब मीर कहते हैं ---
बोसा उस बुत का लेकर मुंह मोड़ा, भारी पत्थर था चूम कर छोड़ा ---
तो वे माशूक और इश्क के तीर से अपने मजहब और उसके विचार को
बींध देते हैं.
(पांच)
वापस मुक्तिबोध पर लौटते हैं जिनकी कविता में अपने वर्तमान के प्रति गहन छटपटाहट, असंतोष है, नकार भाव है. यह नकार भाव किस तरह प्रेम के स्पर्श से बदल जाता है इसका एक अद्भुत उदाहरण यह कविता है ---
जिंदगी में जो कुछ है, जो भी है
सहर्ष स्वीकारा है; इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा है
गरबीली गरीबी यह, ये गभीर अनुभव सब
यह विचार वैभव सब
दृढ़ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनव सब....जो कुछ भी जाग्रत है अपलक है
संवेदन तुम्हारा है!
क्या किसी और स्थल पर मुक्तिबोध जीवन को, गरीबी को, अपने विचार वैभव को इस तरह स्वीकारते दिखाई देते हैं? ऐसी ही एक और दुर्लभ कविता है. यहाँ प्रेमिका के
बजाय माँ केंद्र में है. मुक्तिबोध का नायक कभी किसी से रास्ता पूछता नजर नहीं आता, अपने रास्ते पर उसे कभी कोई संशय नहीं होता. वह
दूसरों की राह पर बेखटक टिप्पणी करता आया है. लेकिन इस कविता में स्त्री पुरुष को, कविता के नायक को राह दिखला रही है.
एक अन्तः कथा
अग्नि के काष्ठ
खोजती माँ
बीनती नित्य सूखे डण्ठल
सूखी टहनी, रूखी डालें
अग्नि के काष्ठ
खोजती माँ
बीनती नित्य सूखे डण्ठल
सूखी टहनी, रूखी डालें
...
मुझमें दुविधा
पर माँ की आज्ञा से समिधा
एकत्र कर रहा हूँ
पर माँ की आज्ञा से समिधा
एकत्र कर रहा हूँ
...
टोकरी उठा, मैं चला जा रहा हूँ
…
…
आगे-आगे माँ
पीछे मैं
पीछे मैं
-
टोकरी विवर में से स्वर आते दबे-दबे
मानो कलरव गा उठता हो धीमे-धीमे
मानो कलरव गा उठता हो धीमे-धीमे
…
मैं पूछ रहा —
टोकरी विवर में पक्षी स्वर
कलरव क्यों है
माँ कहती-
सूखी टहनी की अग्नि क्षमता
ही गाती है पक्षी स्वर में
वह बन्द आग है खुलने को
टोकरी विवर में पक्षी स्वर
कलरव क्यों है
माँ कहती-
सूखी टहनी की अग्नि क्षमता
ही गाती है पक्षी स्वर में
वह बन्द आग है खुलने को
इसके बाद जब नायक “विचरण करता-सा है एक फैण्टेसी में’ इस विश्वास के साथ कि “यह निश्चय है कि फैण्टेसी कल वास्तव होगी” (फैण्टेसी में विचरण और भविष्य में इसके पूर्ण
होने पर विश्वास मुक्तिबोध की कविता का स्थायी भाव है), तब माँ उसे टोकती है, सुधारती है, “व्यंगस्मित मुसकरा रही/डाँटती हुयी कहती है” कि —
केवल जीवन कर्तव्यों का
पालन न हो सके इसलिय
निज को बहकाया करता है.
चल इधर, बीन रूखी टहनी
सूखी डालें
भूरे डण्ठल,
पहचान अग्नि के अधिष्ठान
जा पहुँच स्वयं के मित्रों में
कर अग्नि-भिक्षा
लोगों से पड़ोसियों से मिल
पालन न हो सके इसलिय
निज को बहकाया करता है.
चल इधर, बीन रूखी टहनी
सूखी डालें
भूरे डण्ठल,
पहचान अग्नि के अधिष्ठान
जा पहुँच स्वयं के मित्रों में
कर अग्नि-भिक्षा
लोगों से पड़ोसियों से मिल
क्या यह ‘अंधेरे में’ रहती वह ‘जन-मन-करुणा सी माँ” है जो मुक्तिबोध की कविता से ‘हंकाल’ दी गयी है? लेकिन मुक्तिबोध के सभी प्रयासों के बावजूद वह स्त्री माँ के रूप में इस कविता में चली आई है, नायक से कह रही है कि अपने विचार की खोह से बाहर निकल, अपनी आत्म ग्लानि को परे हटा लोगों से और पड़ोसियों से मिल, अपने विरोधी के मत का सम्मान कर. अगर ऐसा है तो क्या यह क्षण जब यह मुस्कुराती हुई स्त्री नायक से कह रही है कि केवल जीवन कर्तव्यों का पालन न हो सके इसलिये वह निज को बहकाया करता है, क्या यह क्षण मुक्तिबोध का तुलसीदास क्षण है?
चूँकि मैं मुक्तिबोध की कविता के मनोविज्ञान को टटोल रहा
हूँ, मैं अंत एक और
प्रश्न से करना चाहूँगा, जो उनके मृत्यूपरांत जीवन को एक मनोवैज्ञानिक के नजरिये से टटोलना चाहता है.
अगर हमारी आलोचना पिछले पचास वर्षों में मुक्तिबोध की कविता
के इस अभाव और उसके प्रभाव को नहीं देख पायी तो क्या इसकी वजह यह है कि मुक्तिबोध
हमारी, हम हिंदी रचनाकारों
की सामूहिक ग्लानि के प्रतीक हैं?
जिस तरह हिंदुस्तान इस अपराध बोध को लिए जी रहा है कि आजाद भारत अपने राष्ट्र पिता को छह महीने भी जीवित न रख सका, जिस तरह गांधी की हत्या उनके हत्यारों पर गहरा कलंक छोड़ गयी क्या नियति ने जो मृत्यु मुक्तिबोध के लिए चुनी वह हम हिंदी लेखकों को इस अपराध बोध में डुबो गयी कि हम अपनी भाषा के एक अत्यंत समर्पित रचनाकार को बचा न सके?
जिस तरह हिंदुस्तान इस अपराध बोध को लिए जी रहा है कि आजाद भारत अपने राष्ट्र पिता को छह महीने भी जीवित न रख सका, जिस तरह गांधी की हत्या उनके हत्यारों पर गहरा कलंक छोड़ गयी क्या नियति ने जो मृत्यु मुक्तिबोध के लिए चुनी वह हम हिंदी लेखकों को इस अपराध बोध में डुबो गयी कि हम अपनी भाषा के एक अत्यंत समर्पित रचनाकार को बचा न सके?
आशीष नंदी ने लिखा है कि आजादी के बाद घनघोर निराशा के
लम्हों में गाँधी को शायद एहसास हो गया था कि एक हिंसक मृत्यु शायद उन्हें कहीं
अधिक प्रासंगिक बना देगी, जो वे जीवित रह कर न कर पाते शायद उनकी मृत्यु उसे हासिल कर लेगी. नंदी लिखते
हैं कि सुकरात और ईसा मसीह की तरह गांधी को मालूम था कि मनुष्य के अपराध बोध का
सर्जनात्मक इस्तेमाल कैसे किया जाये.
मुक्तिबोध का निश्चित ही अपनी मृत्यु चुनने में कोई योगदान
न था, लेकिन क्या सुकरात, ईसा मसीह और गाँधी की इस कड़ी में हम मुक्तिबोध
का नाम जोड़ सकते हैं? हालाँकि यह प्रश्न
शायद आलोचक का उतना नहीं जितना उनके जीवनीकार का है, लेकिन यह सवाल स्त्री की अनुपस्थिति की तरह उनके
पाठ पर हमेशा मंडराता रहता है.
मुक्तिबोध के साहित्य के एक महत्वपूर्ण और अनछुए पहलू पर एक बहुत महत्वपूर्ण लेख ।
जवाब देंहटाएंबहुत जरूरी और गंभीर आलेख..आभार .
जवाब देंहटाएंयह बात तो सत्य है कि किसी भी अन्य या दूसरे के संसार में प्रविष्ट होने से, उससे संवादरत होने से अर्थबहुलता और असमंजस पैदा होता है जिससे लेखक के सामने रचनात्मक चुनौती खड़ी होती है और आशा होती है कि इस संघर्ष के दौरान उसकी जीवन और दूसरों की जो समझ बनेगी, वह उसकी पहले की सोच और समझ से अधिक परतों वाली होगी और उसके आगामी निर्णय अधिक पहलुओं को समाहित करने वाले होंगे, इसे हम अनुभव में समृद्ध होना भी कहते हैं. निश्चित ही किसी भी दूसरे के जीवन और दृष्टि में ऐसा कुछ है जो हमारे लिए बिलकुल अनदेखा और नया होगा लेकिन वह अनदेखा जब प्रकट होता है तो तुरंत हमारी मानसिकता और स्मृति में जगह बना लेता है, कई बार इसे बस उद्घाटित भर होने की देर होती है, आशुतोष जी ने गोरा के बारे में बताया कि एक स्त्री की संगति से उसके मानस में महत्वपूर्ण बदलाव आता है, एक स्त्री झटके में तुलसीदास को राम राह पर अग्रसर कर देती है आदि आदि सैंकड़ों उद्धरण हमें मिल जाएँगे.
जवाब देंहटाएंहम सभी का जीवन हमारे अपने विचार और कर्म का फलन भी है और इसी तरह से दूसरों द्वारा समय समय पर किये हस्तक्षेपों का प्रभाव भी है लेकिन लेख के विभिन्न उद्धरण ऐसा आग्रह करते हुए प्रतीत होते हैं जैसे मनुष्य और लेखक होने के नाते मुक्तिबोध स्त्री संगति की अनुपस्थिति में कुछ महत्वपूर्ण मिस कर गए, ( इस पढ़ते हुए पेसोआ की याद भी आई, उनके बुक ऑफ़ डिस्क्वाईट की भूमिका में पढ़ा था कि प्रमाणित तो नहीं कर सकते लेकिन वे शायद आजीवन सेलिबेट रहे हालाँकि उनके कारण बिलकुल अलग हो सकते हैं) उनका सुपर इगो उनके ईगो पर भारी रहा सो इससे उनकी संवेदना की वह परतें या वह कोमलता जो स्त्री के साथ से पल्लवित होती है, उस में कुछ कमी रह गई. लेख में स्त्री लेखिकायों के उद्धरण भी या तो स्त्री पुरुष सह अस्तित्व को या फिर लेखन को उभयलिंगी होने में प्रामाणित मानते हैं यानि पुरुष और स्त्री-दोनों के जीवन में एक दूसरे के होने से जीवन और दृष्टि में विस्तार आता है. इस में तो संदेह नहीं लेकिन जिस बात को लेकर मुझे असमंजस हो रहा है वह यह है कि लेखक की आफ्टर लाईफ पर क्या हम उसके जीवन में अनुपस्थित सायों पर इस तरह बात कर सकते हैं कि अगर यह अनुपस्थिति न होती तो अच्छा होता. किसी के भी जीवन में कुछ न कुछ तो अनुपस्थित होगा ही लेकिन हम पुरुष के जीवन में स्त्री की अनुपस्थिति और स्त्री के जीवन में पुरुष की अनुपस्थिति को बहुत बड़ी अनुपस्थिति मानते हैं, इतनी बड़ी कि किसी और कारण से भले वह विमर्श में पचास साल न आ सके लेकिन वह आएगी और जब आएगी तो लगभग ऐसे ही आती है जैसे आशुतोष जी इस लेख में लाए हैं.
यह बात भी ठीक है कि हर लेख बहुध्व्न्यतामक होने की नेक मंशा रखते हुए भी essentialism की दृष्टि से लिखा जाता है. उसे मुद्दा और थिसीज़ बनाकर ही उस पर चर्चा की जा सकती है इसलिए यहाँ वही उद्धरण मिलते हैं जहाँ लेखकों/नायकों के जीवन में स्त्री के हस्तक्षेप से निर्णायक क्षण आए, उद्धरण हमें वे भी अन्यत्र मिल जाते हैं जब लेखकों/नायकों ने सर्वथा individual दृष्टिकोण से जीवन में अपने कल्याण और ख़ुशी के लिए निर्णय लिए और एक अलग तरह की संभावना को खोला. जीवन में बिलकुल हमें सभी तरह के अनुभव की ज़रूरत है, विभिन्न भूमिकायों जैसे प्रेमिका प्रतिद्वंदी या दुश्मन ( जैसा लेख में कहा गया ) में हमें स्त्री/पुरुषों की ज़रूरत है लेकिन जीवन में ऐसा हो नहीं पाता और अगर ऐसा न हो सके तो उस स्थित में मेरे मन में ( इस लेख को पढने के बाद ) यह विचार आ रहा है कि क्या जीवन की अनुपस्थितियाँ हमें हमेशा के लिए ट्रेजिक फिगर बना देती है. उस मनुष्य या लेखक के जीवन में ट्रेजिक तत्व को देखना अन्य या दूसरे की गेज़ या दृष्टि है या सच है ?
मोनिका कुमार
आशुतोष जी ने एक नयी सोच के साथ मुक्तिबोध के काव्य
जवाब देंहटाएंआकाश के इस पाठ में अनछुए की खोज की है। प्रेम के किंचित अभाव में भी मुक्तिबोध कहीं से अधूरे नहीं हैं। आशुतोष की विवेचना स्त्री के मनोवेगों और संशयों की ओर भी नये संकेत करती है। सुकरात, गांधी की तरह मृत्यु न चुन पाने का सवाल (अभाव) भी बेचैन करता है। मुक्तिबोध की मृत्यु का काल (दंश) कहीं हिन्दी संसार याने बौद्धिक जगत को भी जिम्मेवार ठहराता है। खैर...
इस पाठ ने मुक्तिबोध की किसी खामोश दहलीज के भीतर
आलोचना को भी अपने ही तौर-तरीके से प्रवेश कराया है। अब उनकी रात की कविताओं को केंद्र में रखकर भी
ऐसा ही सार्थक विश्लेषण कोई करेगा। आशा करता हूँ ।।
समकाल की क ई विस्मयी जटिल- समानताएं खोजते हुए
हम मुक्तिबोध की कविता के अरण्य में ही शरण लेते हैं।
लेकिन आशुतोष जी ने इस दिशा को बदला है और परख से उन तक पहुंचने की दृष्टि भी बदली है। उन्हें और समालोचन को साधुवाद ।।
प्रताप सिंह, वसुन्धरा-गाजियाबाद ।
बिखराव के बावजूद आलेख में मुक्तिबोध के 'अंत:करण का आयतन' का नयी दृष्टि से विश्लेषण किया गया है और इससे गुजरते हुए 'उर्वशी' पर लिखी उनकी समीक्षा के कारणों का पता चलता है
जवाब देंहटाएंयह विचार मेरे मन में अनेक बार आया है कि मुक्तिबोध के काव्य में स्त्री अनुपस्थित सी क्यों है? लकिन कोई स्पष्ट उत्तर नहीं मिला। इस लेख ने विचार को एक दिशा दी है।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (11-09-2018) को "काश आज तुम होते कृष्ण" (चर्चा अंक-3084) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
विस्तार में जाने का अवकाश और मंशा नहीं है लेकिन आश्चर्य है कि लेखक मुक्तिबोध की हिंदी-विदुषी पोलिश अध्येता और मित्र आग्न्येश्का कोवाल्स्का ( बाद में चित्रकार विजय 'विको' की पत्नी ) सोनी को शायद नहीं जानता.मुक्तिबोध की कविता में इस मैत्री के हवाले हैं.रामविलास शर्मा ने चरित्र-हनन की कुत्सित कोशिश भी की थी.
जवाब देंहटाएंजो बहुत दिलचस्प है वह है मुक्तिबोध का कुछ अन्तरंग पुरुष-मित्रों के साथ लगभग erotic प्रेम-भाव.
अपने-अपने ideas हैं,पार्टनर.
उद्भावनापूर्ण और मौलिक आलेख। मेरे विचार से लेखक को इस कोण का और गहराई से अन्वेष करना था।अनावश्यक और पुनः पुनः आये विषयांतर के कारण लेख साधारण ही रह गया।
जवाब देंहटाएंमुक्तिबोध की कविता के मनोविज्ञान को उनकी कविताओं में स्त्री की अनुपस्थिति को केन्द्र करके लिखा गया आलेख आद्योपांत पढ़ा। मुक्तिबोध को जिस दृष्टि से देखा गया है उससे इतर है यह आलेख। मुक्तिबोध को नये ढ़ंग से समझने की एक दृष्टि देता है यह आलेख। इस महत्वपूर्ण आलेख के लिए आभार एवं धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंमोनिका एकदम ठीक कहतीं हैं कि कितना ही बहुध्वन्यात्मक होने का प्रयास करो, आखिर में आप कहीं तो पहुंचते दिखाई ही देंगे. कई अन्य लेखक भी होंगे जिनके रचना संसार में स्त्री एकदम गायब हो, या लेखिकाएं जिनकी सृष्टि में पुरुष ही न हो. और सिर्फ यह अनुपस्थिति उनके लेखन को कमतर तो बनाएगी नहीं.
जवाब देंहटाएंमसला सिर्फ इतना कि ऐसी अनुपस्थिति किसी रचना को क्या स्वरुप देती है, क्या यह उसकी संभावनाओं को सीमित करती है? जाहिर है ऐसे प्रश्न, साहित्य के तमाम प्रश्नों की तरह, सांकेतिक ही होते हैं, अनुमान भर लगा सकते हैं, कोई गणितीय समीकरण तो देते नहीं, न देना चाहते.
मुक्तिबोध के काव्य-संसार में अदर, अन्य का बोध बहुत गहरा है, तीखा भी है. उनका काव्य-नायक तमाम वर्गों को अपना विलोम मानता है, उन पर निर्णय सुना देता है (ऐसा करते वक्त वह अक्सर खुद को भी कटघरे में खड़ा करता है). अगर मुक्तिबोध ने अपने 'अन्य' से अपनी रचना में संवाद किया होता तो उनके काव्य में लगातार आती binary क्या कहीं संशयग्रस्त-समस्याग्रस्त होतीं? एक राजनेता को अपनी विचारधारा पर कोई संशय शायद नहीं होगा, लेकिन क्या ऐसा कवि के लिए भी होना चाहिए? मुक्तिबोध का नायक क्रांति में योगदान न दे पाने की वजह से वह खुद को कोसता जरूर है लेकिन क्रांति के विचार और उसकी अनिवार्यता पर उसे कोई संशय नहीं.
अगर इस कविता में 'अन्य' को पर्याप्त जगह मिली होती, जिसका एक जरिया स्त्री के साथ संवाद हो सकता था, तो क्या यह कविता कहीं अधिक संशयग्रस्त होती?
यह 'ट्रेजिक तत्व', जैसा कि मोनिका ने कहा, लेखक यानि मुक्तिबोध का अपना सच है या दूसरे की दृष्टि/गेज है? बहुत संभव है यह लेखक या उसकी रचना का अपना सच न हो, शायद हो, लेकिन किसी भी रचना का पाठ आखिर उसे अन्य की दृष्टि से देखना ही है.
उस दूसरे/अन्य की यह दृष्टि कहाँ तक पहुँचती या नहीं पहुँचती है, इसे उसके अन्य, जो उसके इस पाठ को पढ़ते हैं, अपने अनुसार तय करते हैं.
शायद सभी अपने अपने अजनबी हैं, एक-दूसरे के अन्य हैं.
हम यह भी कह सकते हैं कि जब मुक्तिबोध यह कहते हैं कि पुरुष होने के कारण आँसू नहीं बहा सकता तो (1) एक तरफ वे उस समाज की (super ego की) आलोचना कर रहे हैं जो पुरुष द्वारा आँसू बहाने को हेय दृष्टि से देखता है, और (2) दूसरी तरफ ऐसा कह कर वे वास्तव में आँसू ही बहा रहे हैं हालाँकि उनके आँसू नज़र नहीं आते। कविता की उद्धरित की गई शेष लाइनें इस बाद वाली बात को सहारा देती लगती हैं। "इसलिए सूने में सूने में तकता हूँ।" चुपचाप सूने में यूँ तकना आँसू बहाना ही तो है? फ़र्क सिर्फ यह है कि इस तकने में आँसुओं को दबा लिया गया है। लेकिन भीतर वे हैं। मेरा ख़्याल है कि पहले और इस बाद वाले वाक्य में भी मुक्तिबोध पुरुष के ऊपर समाज (super ego) द्वारा लगाये गये इस अंकुश पर न केवल प्रश्न उठाते हैं बल्कि उसे चेतावनी भी देते हैं। यानी उन्होंने super ego के आदर्श को आत्मसात नहीं किया है। मुझे लगता है कि आशुतोष यहाँ मुक्तिबोध को misread कर रहे हैं, उन्हें गलत पढ़ रहे हैं।
जवाब देंहटाएंयदि हम लेख को इस बात की रोशनी में देखें तो लेख के मूल आधार पर प्रश्न उठ जाता है।
Rustam Singh: आप एकदम ठीक कह रहे हैं, लेकिन मैंने भी तो यही लिखा है.
जवाब देंहटाएंगौर करें कि जब मैं इस कविता और इससे पिछली कविता की व्याख्या करता हूँ तो साफ़ कहता हूँ --- “अपनी आगामी कविता में कवि इस विडंबना को स्पष्ट कर देता है.”
यानि उम्र के जिस दौर में मुक्तिबोध ये प्रेम कवितायेँ लिख रहे हैं, उस समय उनकी काव्य चेतना में यह स्पष्ट दर्ज है कि समाज का सुपर ईगो पुरुष को आंसू बहाने का स्पेस नहीं दे रहा.
प्रश्न यह कि उनकी बाद की कवितायेँ समाज की इस विडंबना को अधिक निर्ममता से परखती नहीं, बल्कि सुपर ईगो को अपनाती हुई दिखाई देती हैं.
“पुरुष हूँ आंसू नहीं गिरा सकता...इसलिए सूने में तकता हूँ... मेरी इन आँखों को देख अगर पाओ तुम, समझोगी कि जिंदगी में कहाँ हूँ अटकता हूँ,” इस क्षण वे स्त्री से संबोधित हैं. लेकिन यह स्त्री और यह संबोधन उनकी आगामी कविताओं से गायब होता जाता है.
अगर इस रोशनी में आप मेरे लेख को पढ़ें कि उनकी शुरूआती कविताओं में आती स्त्री किस तरह बाद में गायब हो जाती है, अपने साथ विडंबनायें और कई सारे संशय भी ले जाती हैं, तो शायद लेख पर लगते प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है.
मेरा ख़याल है कि किसी पुरुष के लेखन में स्त्री या स्त्री से प्रेम की उपस्थिति है या नहीं यह बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है. पहले तो पुरुष क़ा अन्य केवल स्त्री ही नहीं होती, अन्य पुरुष भी होते हैं, जैसे स्त्री क़ा अन्य केवल पुरुष नहीं होता, अन्य स्त्रीयां भी होती हैं. (इस बात को थोडा और आगे बढ़ाएँ तो मनुष्येतर जानवर व् जीव भी हमारे अन्य होते हैं. इसलिए साहित्य में उनकी अनुपस्थिति की बात भी उठायी जा सकती है, केवल स्त्री या पुरुष की अनुपस्थिति की ही नहीं.) दूसरी बात यह है कि प्रेम केवल पुरुष और स्त्री के बीच ही नहीं होता; वह पुरुषों के बीच भी होता है, स्त्रीयों के बीच भी होता है, और इसके इलावा अन्य जेंडर भी हैं. तो फिर पुरुष द्वारा सिर्फ स्त्री के प्रति प्रेम को ही महत्व क्यों?
जवाब देंहटाएंआप एकदम ठीक कह रहे हैं. मैंने भी यही कहा है कि किसी पुरुष के लिए ‘अन्य’ सिर्फ स्त्री ही नहीं बहुत कुछ हो सकता है, होता है. स्त्री के ‘अन्य’ होने का तर्क देते हुए मैंने साफ़ लिखा है कि ---- “यहीं से यह भी प्रस्तावित किया जा सकता है कि किसी कृति की महानता उस अवकाश के आधार पर निर्धारित हो सकती है जो वह कृति अपने या अपने रचनाकार के ‘अन्य’ को देती है....
जवाब देंहटाएंजब कोई कलाकार अपने से इतर किसी ‘अन्य’ संसार में प्रवेश करता है, उसके निवासियों से संवादरत होता है तो उस कृति में दुविधा, असमंजस, अर्थ बाहुल्य का समावेश होने की संभावना जन्म लेती है.”
अब प्रश्न यह है कि अगर ‘अन्य’ को दिए गए स्पेस से किसी रचना की कुंडली बनाई जा सकती है तो स्त्री पर ही महत्व क्यों? इसका जवाब सीधा यह कि कहीं से तो शुरुआत करनी ही होगी, तो फिर स्त्री से क्यों नहीं, जो मुक्तिबोध की रचनाओं में शुरू में तो है लेकिन बाद में गायब होती जाती है.
महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या मुक्तिबोध पुरुषवादी या पुरुष सत्ता में विश्वास करने वाले लेखक थे? लेख इस बात पर ज़्यादा प्रकाश नहीं डालता.
जवाब देंहटाएंसर, सभी कुछ ३५०० शब्दों के एक छोटे से लेख में सिमट जायेगा क्या? कुछ तो पार्ट--टू के लिए रहने दिया जाये!
जवाब देंहटाएंलेकिन, यह मेरे लिए अच्छा है कि आप इतनी अपेक्षा रखे हुए हैं
अंतिम बात, इस लेख में "पुरुष हूँ, आंसू गिरा नहीं सकता" से नक्सल क्रांतिकारियों के प्रेम सम्बन्धी नियमों तक एक बहुत बड़ी छलांग लगाई गयी है. नक्सलों के प्रेम सम्बन्धी नियमों से मुक्तिबोध क़ा क्या लेना-देना?
जवाब देंहटाएंनक्सलियों के प्रेम-संबंधी नियमों का लेना-देना यह है, कि मैं क्रांति के विचार को प्रश्नांकित कर रहा हूँ --- “साम्यवादी क्रांति का आदर्श, जैसा कि मुक्तिबोध और कई अन्य कामरेड इसे समझते थे या समझते हैं, एक अति पौरुषेय प्रत्यय है?”
जवाब देंहटाएंमुक्तिबोध साम्यवादी क्रांति में भरोसा रखते थे, नक्सली भी रखते हैं. भले ही दोनों के तौर-तरीकों में अंतर है.
जिस तरह भारतीय माओवादी प्रेम इत्यादि पर प्रतिबन्ध लगाते हैं क्योंकि यह क्रांति के लिए बाधा है, क्या मुक्तिबोध का भी अपने आंसू को थाम लेना क्रांति के उसी विचार से निर्धारित होता है?
यह एक प्रश्न है. प्रस्तावना नहीं.
क्या मुक्तिबोध ने कहीं लिखा या कहा है कि क्रांति एक पौरूषेय प्रत्यय है? मुझे याद नहीं आता कि मार्क्स, एंगेल्स इत्यादि ने भी कहीं ऐसा लिखा हो। यह बात अलग है ज़्यादातर अन्य क्षेत्रों की तरह मार्क्सवादी आंदोलनों में भी पुरुषों का प्रभुत्व रहा है। पर वह ज़रा भिन्न मुद्दा है।
जवाब देंहटाएंमैंने यह कहीं नहीं लिखा कि मुक्तिबोध ने इसे पौरुषेय प्रत्यय कहा या लिखा है. मैंने सिर्फ एक प्रश्न उठाया है ---- “क्या साम्यवादी क्रांति का आदर्श, जैसा कि मुक्तिबोध और कई अन्य कामरेड इसे समझते थे या समझते हैं, एक अति पौरुषेय प्रत्यय है, जिसमें आंसू और स्त्री की जगह नहीं है?”
जवाब देंहटाएंअगर माओवादी क्रांतिकारी प्रेम, संतान के जन्म पर प्रतिबन्ध लगाते हैं, स्त्री के भीतर बच्चा आ जाये तो बगैर उस स्त्री की जान की परवाह किये बगैर उस बच्चे को मार देते हैं, क्योंकि वे इसे क्रांति के विरुद्ध मानते हैं, तो इसे आप क्या कहेंगे?
मुक्तिबोध की कविता में स्त्री के प्रति प्रेम कविता की कमी तथा माओवादी गर्भधारी स्त्रियों के साथ क्या करते हैं, ये दो भिन्न विषय हैं और एक-दूसरे से काफी दूर हैं। जिनको जोड़ना मुझे तो मुक्तिबोध के साथ ज़्यादती लगता है। माओवादियों के इस रवैये पर आपको अलग से एक लेख लिखना चाहिए। और मुक्तिबोध की कविता पर अलग। दोनों को जोड़ने से मुक्तिबोध के साथ एक कवि के तौर पर ज़रा अन्याय हो रहा है, ऐसा मुझे लगता है। सम्भव है कोई क्रांतिकारी कवि एक भी प्रेम कविता न लिखे। इससे यह कतई सिद्ध नहीं होता कि वह पौरुष में विश्वास करता है या कि क्रांतिकारियों को प्रेम नहीं करना चाहिए, इत्यादि।
जवाब देंहटाएंदोनों, जाहिर है, एकदम भिन्न विषय हैं. इसलिए मैंने माओवादी क्रांतिकारियों का उल्लेख एकदम passing रिफरेन्स की तरह ही दिया है, क्रांति के धागे को सात-आठ दशक तक फैलाते हुए.
जवाब देंहटाएंफिर से कहूँगा --- यह passing रिफरेन्स भी एक बारीक़ प्रश्न है, प्रस्तावना नहीं. लेख इसके आगे जाता है --- ‘अन्य’ की अनुपस्थिति किसी रचना में कब, कैसे और किस प्रभाव के साथ घटित होती है?
मनोविश्लेषण में अचानक स्फुर्लिंग की तरह झलक दिखाने वाले इन्हीं संकेतकों से गुत्थियां सुलझा करती है ।
हटाएंसंवाद का सुख लिया मैंने. मेरे मन में जो भी आ जा रहा है उसे यहाँ न लिखूंगी. मुक्तिबोध को लेकर मेरे मन में पहले ही से बहुत उठा-पटक चलती रहती है, और कभी किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की इच्छा भी नहीं हुई. आप लोगों की बातचीत बेहद रोचक स्तर पर चल रही है.
जवाब देंहटाएं..
जवाब देंहटाएंसंभवतः मेरे पास आलोचना की बुनियादी समझ ही नहीं है।
मुझे बार बार, या लगभग हर बार, ऐसा लगता है जैसे कविता को ऐसे नहीं घूरा जाना चाहिए जैसे आलोचना घूरती है।
लेकिन मैं होता कौन हूं - और मेरे सोचने से होता क्या है?
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