अस्सी वर्षीय भारतरत्न भार्गव (१९३८) का चालीस वर्ष
के लम्बे अंतराल के बाद दूसरा कविता संग्रह ‘घिसी चप्पल की कील’ संभावना प्रकाशन
से इसी वर्ष (२०१८) प्रकाशित हुआ है.
भारतरत्न भार्गव इस बीच रंगमंच, भरत मुनि के
नाट्यशात्र और आधुनिक रंग–अवधारणाओं के चिन्तन मनन आदि में संलिप्त रहे. रॉयल एकडेमी
ऑफ ड्रेमिटिक आर्ट्स (लन्दन), एनएसडी आदि से प्रशिक्षित भार्गव केन्द्रीय संगीत
नाटक अकादेमी के उपसचिव पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात सम्प्रति नेत्रहीन बच्चों की
आवासीय संस्थान नाट्यकुलम के संस्थापक एवं
कुलगुरु हैं.
अपने आत्मकल्प में कवि कहता है –“धीरे-धीरे यह
समझ में आने लगा कि कविता में भाषा का इतना अधिक महत्व नहीं जितना शब्द का है.
कविता के शब्द का जितना अधिक अर्थविस्तार होगा उतनी ही वह प्रभावकारी होगी.
अभिधात्मकता शब्द की विराट सत्ता को सीमित कर देती है.”
इस संग्रह से कुछ कविताएँ आपके समक्ष प्रस्तुत
हैं. विस्तृत अनुभव और मनन से परिपक्व इन कविताओं के लिए कवि को बधाई.
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भारतरत्न भार्गव की कविताएँ
छतरी
वह बैठी दुबकी कोने में पैबन्द लगी
काली सी बूढ़ी याद पिता की
टूटी छतरी.
डर लगता छूते झरझरा कर गिर पड़ने का
पुराने पलस्तर का
मन की दीवारों को करके नंगा.
यादें खुलकर नुकीले तारों सी
सीने में उतर जा सकतीं
हो सकता मर्माहत
किसी उखड़ी याद के पैनेपन से
अकारण ही अनायास.
इतिहास है छोटा इस याद का
छतरी भर.
चिपट गई थी कैशोर्य में
हौल खाए बच्चे की तरह
शव को मुखाग्नि देने के बाद.
कभी यह याद चलती थी साथ-साथ
धूप में छांव में
भाव में अभाव में
देती थी सब
देती ही होगी सब कुछ
जो नहीं मिलता कहीं कभी भी
छतरी के अलावा.
अब नहीं देती कुछ भी
सुख-दुःख
करुणा-शोक
अंधेरा-आलोक
धिक्कार-स्वीकार
प्यार-वितृष्णा
यह पैबन्द लगी याद.
फिर भी बैठक के कोने में
दुबकी सी रहती है
पिता की याद
ज़रूरी से सामान के साथ
टूटी छतरी.
कचरा बीनते रामधुन
सूरज ने अलसाई चदरिया उतार दी
खिड़की दरवाज़ों के पर्दे सरकाए. फिर
झांका शीशे से. बाहर आकाश थिर.
ओस स्नात दूर्वादल. मैंने भी आँख मली.
पास कहीं शंखों और घंटों की ध्वनि गुंजित.
शब्दों में अनबोली कामना थी मुखरित.
भावों का सौदा यह. घृत-दीपक आरती.
चंदन की झाड़न पथ मन के बुहारती.
चिमटे सी अंगुलियाँ. कचरे के ढ़ेर पर
बीन रही ज़िन्दगी. दुर्गन्धित चिन्दियाँ
कूकर या शूकर या गाय या मुर्गियाँ.
प्राण और पेट का रिश्ता है विग्रहकर.
मंदिर में शंख और कचरे में ज़िंदगी.
आत्मा और देह की तुष्टि हेतु बन्दगी.
पहले में स्वर्ग काम्य, दूजे में नंगा दर्द.
रिश्ता क्या खोजना ! प्रश्न हैं सभी व्यर्थ.
मैंने फिर घबराकर खिड़की के पर्दों को
डाल दिया सोच पर. क्यों बूझूँ अर्थों को.
लाजवन्ती
कैसे पहुँच गया
लाजवन्ती के युवा पौधों के बीच
पता नहीं.
फूल ये गुलाब से सलोने
पर चौकन्ने
रोम-रोम सजी प्रतीक्षित मुखश्री
देखती रहीं कौतुकी दृष्टि
छू भर दिया अनछुए कपोलों को
सहमी फिर लजा गई
सखियों के आँचल में
लुक-छिप जाने को आकुल-व्याकुल
चित्ताकर्षक भंगिमा
अनुभव था नया-नया
विस्मृतियों को ताज़ा करते
मुड़ने लगे पांव अनायास फिर
कांटों कंकरों भरी पगडंडियों की ओर!
लौटते देख मुझे
आहिस्ता से खोली पलकें
उठी गरदन, कंपकंपाए ओठ
पढ़कर मेरी आँखें निस्पृह, निर्विकार
बोली धीमे चुपके से-
रूको, फिर नहीं छुओगे मुझे!
बोनसाई
स्वच्छंद गर्वोन्नत क़द्दावर पेड़ों की सन्तानें
किस प्रलोभन से
सुसज्जित कक्षों की शोभा बढ़ातीं
किसका अहम् करते हैं तुष्ट
ये बोनसाई
अपनी शाखों पत्तियों जड़ों को
काट दिए जाने पर
क़ैद हो जाती छोटे से प्याले में
क़द्दावर पेड़ों की आधुनिक सन्तानें
मरती नहीं कभी भी
सीख रही हैं
हाथ पांव मुंड काट दिए जाने पर भी
जीवित रहने की कला
ये बोनसाई सन्तानें!
राख और आग
बिसरी बिखरी पगडंडियों को
संवारने बुहारने वाले
लहुलुहान ज़िद्दी हाथों को पढ़कर
कोई भी समझ सकता था
कंटीली झाड़ियों और पथरीली ज़मीन की वह दुनिया
ओझल क्यों रही राख की चादर में लिपटी.
यहीं से उड़ान भरते हैं वे दृष्टिकल्प
जिनकी सुकुमार आँखों के लिए
तितलियों के पंखों से निर्मित है रंगपरी
दृष्ट हैं निर्जन बस्तियाँ
अलंकृत हतोपलब्धियाँ.
आँखों के अन्दर की आँखों से
फूटते उजाले ने परोस दिया
अर्थ गर्भित शून्य.
यहीं कहीं, हाँ यहीं कहीं होगा
पूर्वजों के नामालूम ख़जाने का
अघोषित रहस्य
पुराणों और इतिहास के ताबूतों से
फूटती चिंगारियाँ रात के अंधेरे में.
सिरे खो गए हैं और गांठे अबूझ
फिर से शुरू करनी होगी
राख और आग की परिक्रमा
परिभाषित करना नये सिरे से आग को.
कहाँ है वह ओझा
जो राख को
आग बनाने का मंत्र जानता है!
आत्मरोदन
लाल चींटियों का गिरोह
घसीट कर ले जा रहा है अपने बिल में
एक बूढ़ी आत्मा.
गोपन विषैले डंकों को निरापद ज्ञापित करते
अन्दर की आँखों में छिपाए दहशतनाक इरादे
बढ़ता मौन जुलूस आहिस्ता-आहिस्ता
रहस्यमय गन्तव्य की ओर
जा पहुँचता है अनजाने ब्रह्माण्ड के
अन्तिम छोर तक.
अशरीरी आत्मा का क्रन्दन या ग़रीब का रोदन
चीख़ने बिलखने की भाषा से बेख़बर
आक्रोश के भाव से अभावग्रस्त
चला जाता है न जाने की चाह के बावजूद
किसी अदृश्य लोक में.
एक अनाम ग्रह से करता उत्कीर्ण
समूची धरती के दुःस्वप्नों के कथादंश
एक अनलमुख पिशाच
विदेह में होता नहीं द्रोहकर्ष
भले ही स्मृतिकोष में धंसी हों
रौंदी और कुचली आकांक्षाओं की बस्तियाँ
अनिमेष अग्निकांड में झूलती प्रार्थनाएं/याचनाएं
रौशनी और धुआँ
सिरजन और ध्वंस
में निर्द्वन्द्व
लाल चींटियों की गिरफ़्त से
मुक्ति की करती प्रतीक्षा
एक बूढ़ी निरानंद आत्मा.
लुप्त होता आदमी
वह चाहता नहीं था लुप्त होना
इस सचेतन संसार से
यह भी नहीं कि ख़ामोश बैठा रहे
अपने को खारे समुद्र में घुलता जान कर भी
वह जानता था समझता
उसके लुप्त होते जाने की वजह
वह नहीं है क़तई नहीं
उसका मन हुआ कि एक बार
सिर्फ़ एक बार
वह होते रहने भर के लिए ज़ोर से चीख़े
कि शामिल हों वे जो गूंगे हैं बहरे भी
जिन्हें पता नहीं अभी तक
कितना ख़तरनाक हो सकता है लुप्त होता आदमी
उसके लगभग न होने के बोझ से दबी
शातिर निगाहों ने समवेत अफ़सोस
ज़ाहिर किया और उसके दफ़्न के लिए
आकर्षक ताजिए बनाने में मशगूल हो गए
ढोल ताशों के साथ छातियाँ पीटते
बुद्धिजीवी जश्न मनाने की फ़िराक में थे
कि तभी धरती के स्तन से फूटी दूध जैसी
एक बूँद उसके हलक़ में उतर गई
यह कैसे हुआ और क्यों उसे पता नहीं
लेकिन लगातार ऐसी अप्रत्याशित घटनाओं के बावजूद
उसका लुप्त न होना सुखद आश्चर्य ही तो है.
दुख उवाच
दुख ने कहा सुख से
ओ अभिलषित,
जग वन्दित,
मेरा भी जीवन है
पर तुम सा नहीं.
क्यों है नीरांजन प्रेम का
रक्त सिंचित ?
फूलों की पांखुरियों में
छिपे हैं शूल-दंश भला क्यों ?
यही प्रश्न गढ़ती हैं मेरी सांसें
अत्यन्त लघु है तुम्हारा संसार
उच्छवास और विराम तक सीमित
चिथड़ा चिथड़ा अपेक्षा आकांक्षा
निजता के गुह्य अन्तर में लुका छिपा बैठा
चोर अवसर ताकता
चुपके से बोध का घर उजाड़ देने का.
लगता है इसी राह में पड़ाव है तुम्हारा
किन्तु वह सराय है
मैं रहता अनन्त में
वीरान अंधी संकरी गलियों से गुजरते
चुग्गा तलाशती चिड़ियों की आकुलता
निश्चल होती लहरों पर डूबते सूरज का अवसाद
वेदना की धड़कन पर घात-प्रत्याघात
नितान्त अपरिचित तुम्हारे संसार से.
अश्रु विन्दु में डूबकर समन्दर पार करने का संकल्प
तरूशाखों से झरते हुए पत्तों की
तड़कती नसें सहलाते हुए
बार-बार स्पंदित अनुभव करने का तोष
धधकते भाड़ की आग में चने सा खिलना
मेरा जीवन है
तुम्हारे समूचे ब्रह्माण्ड से अलग.
अनवरत : बंसवन में
रूखे सूखे बंसवन को
झिंझोड़ती आँधी
आँखों में भर गई रेत
उखाड़ पछाड़ गई
डूबते दिन का मस्तूल
कुल्ले करके कोलाहल के गिरेबान में
लौटने लगी उतनी ही जल्दी.
बूढ़े बांस ने
पकड़ा गला
दी पटकनी
धोबी पछाड़ खाकर
गिरी चारों खाने चित्त आँधी
कहा कान में फटे बाँस ने-
इतना सब दे गई हो
लेकर नहीं जाओगी कुछ भी
फिर उसने
चुपके से रख दिया ओठों पर
कभी न मिटने वाला निशान
बांसों की दुनिया में
तभी से अनगिनत स्वर हवाओं के साथ
गलबहियाँ डाले
बंसवन में नाचते हैं अनवरत.
अग्नि-चिरन्तन
समिधा और शव
दोनों हैं आग्नेय !
कहाँ से धारण करती है
अग्नि अपना रूप
आकाशचारी मेघों के हिरण्याक्षों से
चन्दनवन की अंगुलियों की पोरों से
भभूत रमाए पर्वतों के विपर्यस्त ज्वालामुख से
जड़ से
चेतन से
तृप्ति से अतृप्ति से
दाह से आह से
प्रतिभासित है उसमें वह सब जो चिरन्तन नहीं
अग्नि नहीं है देह
अग्नि है आत्मन्!
जीवन है अग्नि
राख बनाती है समस्त ब्रह्मांड को.
घिसी चप्पल की कील
ईश्वर के संभावित जन्म और आशंकित मृत्यु तक का
लेखा-जोखा जिस छोटे से बटुए में बंद है
डर लगता उसे खोलते.
समस्त जीवाणुआें के अनन्त अनुभव
परीक्षित नियम सिद्धान्त दर्शन
मंत्र यंत्र षड़यंत्र
जटिल कुटिल युद्ध-चक्र
तीनों लोकों पर विजय की पुराण कथाएं
पृथ्वी का धीरे-धीरे अग्निपिंड में बदलना
सब कुछ जानने के लिए
बंद बटुए को खोलना ज़रूरी
किन्तु लगता है डर!
फिर भी खोलना तो होगा ही
चाहे इसमें षड़-यंत्र हों या बाइबिल
आर डी एक्स हो या कुरान
विनाश हो या गीता
इसे खोले बिना
समझना असंभव उस भाग-दौड़ का महत्त्व
पड़ावों का रहस्य
लगातार आत्म-रोदन, शोधन, प्रतिरोधन
या बहु-व्यापी शोकाकुल संगीत!
कौन था वह आदि पुरुष
जिसने चलने की ठानी
इच्छा जागी भागने-दौड़ने की.
तभी समझा पाँवों का महत्त्व
अपनी जगह खोजने और बनाने में
बीत गए हज़ारों हज़ार वर्ष!
छोटी सी दुनिया को
बड़ा करते जाने के लिए
आदमी चलने लगा
अक्षांश से देशान्तर तक
विचार से संकल्प तक
अनुभव से सिद्धान्त तक
सृजन से विसर्जन तक.
इस ‘चलने’ को यदि चाहें
तो
कह सकते हैं यात्रा भी,
यात्रा एक कुलीन घराने का शब्द है
शालीनता के कोष का.
दीगर है बात यह
पाँवों का पाँव होना सार्थक होता है
चलने से, यात्रा से नहीं.
यात्रा शोभित होती
घोड़े की पीठ, हाथी का हौदा,
विकास/विलास का विमान
या फिर धर्म-ध्वजा पर आसीन!
उधर, चलते हुए बनता जो
रिश्ता पाँव का
ज़मीन के खुरदुरेपन से
वह यात्रा से नहीं.
इसलिए पाँव चलने लगे
भूगोल और इतिहास को छोटा करते हुए
पाँव बड़े होने लगे.
गरिमामंडित सज्जा के लिए
पाँवों ने मांगा कवच कलेवर
सुविधा और सुरक्षा भी
कारण रहे होंगे,
रहे ही होंगे निर्विवाद यह.
वह चप्पल थी या खड़ाऊँ
जिसे राम ने भरत को दिया था उधार
या वामन के तलुओं का लेप
तीन पग में समूची सृष्टि जिसने
नाप डाली.
शक्ति वर्धक थी चप्पल पाँवां के लिए
वर्धन के बाद सत्ता और वर्चस्व
सबकुछ पाँवों की बदौलत था
एतदर्थ चप्पल निहायत ज़रूरी हो गई
पाँवों के लिए.
चप्पल के बिना चलना असंभव
पाँव और ज़मीन के रिश्ते में चप्पल है साधन
वही देती है निर्देश चलना है कहाँ तक, कब तक.
पाँव और चप्पल व्यायोग
कितना विलक्षण है, विचक्षण भी.
दोनों ही नायक हैं, सूत्रधार भी दोनों
एक दूसरे को विदूषक सिद्ध करते.
घिसना तो चप्पल को होगा
पाँव ठेलते एक दिशा में.
डोली हैं पाँव,
चप्पल कहार.
पाँव सुरक्षित थे चप्पल से
चप्पल घिसने लगी, टूटने भी
पाँवों की ख़ातिर.
चाल उसे चलनी थी
उसने यह चाल चली.
घिसना स्वीकार किया.
शान्ति और क्रान्ति में
पाँवों का साथ दिया.
टूटने की बजाय
चिपट गई पाँव से खाल की तरह.
घिसी चप्पल ने पाँवों की मनुहार की
मिल जाए कील अगर
जीवन खंडित होने से बच जाए चप्पल का.
शिरस्त्राण मिला कीलों की दुनिया में
कील ने दिया चप्पल को
वह सब कुछ जो नहीं दिया पाँवों ने
केवल लिया.
कील ठुकी चप्पल के तन पर
सलीब पर चढ़ गई.
चाल हुई दुगन तिगन
द्रुत लय में खोजे सम
तर्क में वाद में
जीवन आस्वाद में
नीति और रीति में
द्वेष और प्रीति में
चप्पल की चाल का जयघोष!
(भूखे की उम्मीद की तरह
लम्बी होती जाती बात)
समन्दर के बीच उठती उत्ताल तरंगें
किनारे आते-आते बन जाती पालतू
एक सन्तनुमा विचार के अंगूठे से
टकरा कर कील ने मुँह खोला
पूछने लगी जलसाघर से आती
मदमस्त गंध से - किस तरफ है उसका पेट
(खंखार कर एक समूची
यातना उगलती है गंध)
चप्पल का मुँह बंद हुआ
खुल गया कील का
सुरक्षा के घेरे को तोड़कर
फोड़ कर क़िले के कपाट और परकोटे
भौंचक्की कील ने देखा
पाँवों का निसर्ग
सातों समन्दर, तीनों लोक
ऋषि मुनियों का ज्ञान
अन्वेषित विज्ञान
पाँवों की स्तुति में लीन!
दीन-हीन कील के वंशजों ने पुकारा
चीख़-चीख़ कर दी दुहाई अधिकारों की, अस्मिता की
पाँवों के कानों तक पहुँची नहीं चीख़.
नई जन्मी कील ने
चिकोटी भरी तलुवे में
शातिर नीतिज्ञ ने छोटी सी बूंद
हलक़ में उतार दी ख़ून की. उसे चुप रखने के लिए.
नई उपजी टीस तलुवों के कलेजे तक जा पहुँची
रिस रिस कर पहुँचने लगा ख़ून कील के मुँह में.
ग़द्दार नई कील के मुँह पर मूसल दे मारी पाँवों ने
मरणासन्न कील के इशारे पर
पैदा हुई एक और कील
और कीलें और और कीलें.
बात बिगड़ती जा रही या सुधरती ?
संघर्ष का कौन सा रूप छिपा है
इस बात के मूल में ?
उद्घाटित करने में कितना जोखिम
इसे यहीं छोड़ दिया जाए
ईश्वर की आशंकित मृत्यु तक
यदि संभावित जन्म के बाद
ईश्वर अनश्वर सिद्ध हो गया
तो कैसे होगा कील के मुँह तक पहुँचे
रक्त विन्दुओं का विश्लेषण
दलित या शोषित के संदर्भ में ?
बात को समाप्त किया जाए या नहीं ?
नासूर गहराता जा रहा
पाँवों की चप्पलें तटस्थ
संकल्पित
कीलें
खुले मुँह की प्यास बुझाने के लिए.
पाँवों केहरे हरे घाव पुकारते हरे-हरे.
गन्तव्य
अपरिचित दुखों का हाथ थामे
कितनी दूर तक चलता चला आया
नहीं जानता था
इनका और मेरा
गन्तव्य कितना अलग
लिया था सहारा सुविधा के लिए
अपने बियाबान को देने नया अर्थ
कृतज्ञ हूँ इन्होंने दिया मुझे धुआँ
उजागर किया
दृश्य के अदृश्य का सत्य
चकित हूँ इन्होंने रखी अंगुली मेरी
छिन्न-खिन्न आइने के टुकड़ों पर
थमा दी लगभग फट गई कोथली
पुरखों की कोथली में
छिपी थी आँखें
आँखों में तहाए थे सूखे आँसू
आँसुओं के गर्भ में था समन्दर
समन्दर की हथेलियों में ज्वार
मेरी परिचिता
अब इस प्यास के सहारे
जाना ही होगा
ले जाए जिधर
भूल कर अपना गन्तव्य !
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भारतरत्न भार्गव की यह कविताएँ चौंकाने वाली नवीनता और वैविध्य लेकर आई हैं.यह वरिष्ठता में प्रौढ़ उपलब्धि है.
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (25-08-2018) को "जीवन अनमोल" (चर्चा अंक-3074) (चर्चा अंक-2968) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
लम्बी कविता 'घिसी चप्पल की कील' के साथ छतरी,बोनसाई, लाजवंती बेहद खूबसूरत और सारगर्भित।आभार । प्रस्तुत करने के लिए।
जवाब देंहटाएंसौमित्र मोहन के बाद भारतरत्न भार्गव ये सब पुराने चावल हैं समालोचन को इस कृत्य के लिये बधाई ।
जवाब देंहटाएंBahut nek prayas hai yah samalochan ka. Nayi peedhi ke liye ye kavitayen uttaradhikar ki tarah hain
जवाब देंहटाएंभारतरत्न भार्गव सातवें-आठवें दशक के हिन्दी कवियों में अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं। उनकी रचनाशीलता में जीवन के छोटे-छोटे अनुभवों, रागात्मक अनुभूतियों और बिम्बों-प्रतीकों से संवरी ऐसी लयात्मक कविताएं हैं, जो उनके मन की कोमलता, प्रेम, पीड़ा और मानवीय संबंधों के प्रति उनके आत्मिक लगाव को सहजता से व्यक्त करती हैं। बरसों पहले उनके पहले संग्रह 'दृश्यों की धार' के बाद आया उनका यह दूसरा संग्रह 'घिसी चप्पल की कील' की कविताएं प्रकारान्तर से उसी काव्य-संवेदना का विस्तार लगती हैं। भारत जी को इस उपलब्धि के लिए बधाई एवं शुभकानाएं।
जवाब देंहटाएंपोस्ट के जरिये ,अलभ्य व अनदेखे साहित्य से परिचय होता है ,सर!जो इस आभासी मंच को सार्थक कर देता है।
जवाब देंहटाएंआत्मरोदन ...मुक्ति के अंतिम छोर पर एक बूढ़ी आत्मा ! कितना कुछ कह रही है।कलमकार को नमन��
अच्छी, सुगठित, परिपक्व कविताएँ। भाषा और शैली ज़रा पुराने लगते हैं, कवि की अपनी ही पीढ़ी के। इन्हें छापने के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएं'कचरा बीनते रामधुन' में छंद के प्रयोग से एक बात आ गई है जो मुक्त छंद मे या गद्य कविता में नहीं आ पाती। कविता का कलेवर सानेट जैसा है पर पंक्तियों की संख्या 18 है - चार क्वार्टेट और एक कपलेट। राइम स्कीम पहले और तीसरे क्वार्टेट में ABBA तथा दूसरे और चौथे में ABAB है।अत में निष्कर्ष के रूप में कपलेट। बदलते छंदों में मानसिक द्वंद्व व्यक्त हुआ है और कपलेट में वाचक का बाहर की सच्चाई से विदड्रा करने का प्रयास।
जवाब देंहटाएंअभी इतना ही। मुझे खेद है कवि ने 40 साल का मौन रखा।
सुन्दर कविताएँ
जवाब देंहटाएंशब्दों के बहुआयामी संसार से रूबरू कराने के लिए कवि, प्रकाशक व समालोचन का आभार। इस संकलन के आने से एक बड़ा मौन टूटा।
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