‘जो कहूंगी सच कहूंगी’
हरीश नवल
‘जो कहूंगी सच कहूंगी’ एक ऐसी लेखिका के संघर्ष और गहन आत्मविश्वास की गाथा है जो ‘कुछ’ बनना चाहती थी और उसने तमाम पारिवारिक, सामाजिक दवाबों और विरोधों के बावजूद अपनी राहें खुद चुनी.
अपना लक्ष्य स्वयं निर्धारित किया. संयुक्त परिवार की बेड़ियां भी उसे बांध न पाईं,
सामाजिक सांकलें उसके गंतव्य के किवाड़ों को बंद
ना रख पाईं और उसने एक प्रकार की अश्वमेघ यात्रा की .... अपने अश्व को भी बचाया और
अपने अस्तित्व को भी .... और वह विजयी हुई.
यह पुस्तक जिसे लेखिका ने उपन्यास कहा है और उसे स्त्रियों
द्वारा लिखी जा रही आत्मकथाओं की श्रृंखला में भी नहीं रखा, वे इसे आत्मसंस्मरण भी मानती हैं, दरअसल यह किसी विद्या-विशेष के दायरे में नहीं आती. यह
प्रयोगधर्मा है. एक नई विद्या का निर्माण करती प्रतीत होती हैं, जिसमें आत्मकथा, संस्मरण, रेखाचित्र,
किस्सा, कहानी, जीवनी निबंध,
कविता, रिपोर्ताज, व्यंग्य आदि बहुत
कुछ है. इसमें अनेक विमर्श हैं, दर्शन हैं,
समाजशास्त्रीय व्याख्याएं हैं, मनौवेज्ञानिक गुत्थियों का सुलझाव है, चिंतन की पराकाष्ठा है, व्यष्टि के समष्टि होने की प्रक्रिया है, सबसे बड़ी बात अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्तियों को
सफलतापूर्वक संप्रेषित करने का उल्लास है.
यह पुस्तक जो भी है, मथती है, द्वन्द्वों में
ले जाती है, द्वन्द्वों में से
उबारती है, विचारों को उत्तेजना
प्रदान करती है, सोचने को मजबूर
कर देती है.
विरोधों और उपेक्षाओं के बीच इक्नोमिक्स आनर्स करने वाली
लड़की एम.ए. हिंदी में करना
चाहती है, करती है और प्रथम श्रेणी
में प्रथम स्थान भी लाती है. यह एक बिंदास लड़की है जो अपने जीवन के नियम स्वयं
बनाती है. बेवाक है, बेलौस है,
क्रांतिकारी है, स्पष्टवादी है, दो टूक बात करती है, आधी शती पूर्व के
उस भारत की नागरिक है जहां स्त्री को तरजीह आज की तुलना में बहुत कम दी जाती थी
लेकिन वह मां को अनावश्यक डांटने पर अपने पिता पर बरस सकती है और महीनों उनसे
संवाद नहीं करती है. मां उसे प्रताड़ित करती है और कहती है ‘पिता से माफी मांग’ पर उस दृढ़ लड़की का कथन होता है, "पहले वे आपसे माफी मांगे.’’
विशेष तथ्य है कि यह वही लड़की है जो अपने पिता से सर्वाधिक
प्रभावित रही. लेखिका के शब्दों में अपने पिता से जिसने ज्यादा कनेक्ट किया और मां
के प्रति विरोध का सा भाव रखा परंतु जहां स्त्री का मान-मर्दन पुरुष ने करना चाहा,
वहां उसने सख्त एतराज दर्ज़ किया, उससे जिससे वह ज्यादा कनेक्ट रही. आयरन लेडी ही
ऐसा कर पायेगी.
घर बाहर और लेखन - तीन दायित्वों का पालन किया.
तीन औरतों ने लेखिका की रचनात्मकता को प्रभावित किया :-
1) दादी - चमत्कारिक भाषा, खास तरह की
प्रभावी भाषा जिसमें मुहावरे, लोकोक्तियां,
लोकगीत, लोककथाएं और किस्से होते थे. बोलने का दिलकश अंदाज था.
लेखिका उनके पास बैठ कर डायरी लिखती रहती.
विषेशता :- दादी
अंतिम दिनों में अपना खाना खिड़की के बाहर रख देती, बहुत से पक्षी आते और खा जाते. दादी की मृत्यु के बाद
लेखिका ने खिड़की में खाना डाला, पर कोई पक्षी न
आया. यह रहस्य है.
2) मां - एक साधारण स्त्री थी. पिता अफसर
थे. मां के साथ उनका अंदाज अफसरी ही था. एक बार पिता ने नौकरों के सामने मां को
डांट लगाई, पिता से भी अधिक जोर से
लेखिका चीखी थी, ‘‘स्टॉप दिस’’. मां ने लेखिका को डांटा था, बाप के सामने जुबान चलाती है. चार-पांच महीने
पिता-पुत्री में बातचीत नहीं हुई जबकि वह पिता के अधिक समीप थी. उनके साथ घूमने
जाना, क्लब जाना, खेलना, घर का कोई काम न करना. मां कहती, ‘‘जा जाकर पिता से माफी मांग ले’’, मैं कहती, ‘पहले उनसे कहो कि
आपसे माफी मांगे.’’ मां का जवाब होता,
‘‘पागल हो गई है तू. मां के रूप में एक साधारण
औरत हमेशा लेखिका के भीतर जीती रही. भरे पूरे परिवार में औरत की अतृप्ति और जैसे
भी उसके खुश रहने के रहस्य को समझा. कमल के लेखन में ऐसी ही स्त्री का संशर्घ और
उसकी मुक्ति का प्रयास है.
3) कमल की सबसे बड़ी बहन - सुशीलल, सुंदर, शिक्षित और आज्ञाकारी. लेखिका से एकदम विपरीत,
वह स्वालम्बी थी और नौकरी करती थी. यही गुण
उसके दुश्मन बने. उसका पति आत्मसीमित, अहंकारी और हिंसक. बहिन को बात-बात पर अपमानित करने वाला, बहन को परिवार से मिलना छुड़वा दिया. आत्मसम्मान
के बिना वह लेखिका को ‘गधे की लीद’
लगी थी. उसे देखकर जाना कि हर औरत को अपनी लड़ाई
खुद लड़नी होती है. वह चेहराहीन अस्तित्वहीन स्त्री है, हमारे यहां ऐसी स्त्रियों को सराहा जाता है, लेखिका को ऐसी औरतें सिर्फ मादा लगती हैं.
4) पिता की समीपता ने ‘स्वावलंबन’
और ‘आत्म सम्मान’ के भाव को पुख्ता
किया.
5) तीन साल बड़े भाई का प्रभाव जो मित्रवत था, उसके साथ पतंग, गुल्ली डंडा, कंचे खेले,
मारपीट की, ने लेखिका की औरत को दब्बूपन से बचाया. व्यक्तित्व में साहस
और खुलापन आया. इस संस्कार ने लेखिका के लेखन में अस्तित्ववान स्त्री-पात्रों की सृष्टि की.
अपने परिवार की कहानी इस पुस्तक में लेखिका ने विस्तार से
नहीं दी, स्वयं को ही केंद्र में
रखा है, घटनाओं की भीड़ इसमें नहीं
है, कतिपय घटनाओं के माध्यम
से विचार पोशित किए गए हैं.
हां एक तथ्य विशेष है कि इस कृति में लेखिका ने बतलाने के
साथ-साथ जतलाया बहुत कुछ है. यह कृति जतलाती है कि लेखिका का स्वाध्याय कितना है,
कितना-कितना पढ़ती रही है कमल कुमार और स्मरण शक्ति
भी अद्भूत, पढ़ कर, गुण़ कर, नवनीत निकाल कर बखूबी परोसती है. हिंदी तो हिंदी, संस्कृत तो संस्कृत, अंग्रेजी का भी कितना पढ़ा है, इस हिंदी प्राध्यापिका ने, मुझे तो आश्चर्य होता है. कई बार पढ़ते हुए मुझे गुरूवर प्रो. निर्मला जैन की
वे कक्षाएं ध्यान में आई जिनमें वे पाश्चात्य काव्य्शात्र पढ़ाती थीं. बड़े-बड़े
समर्थ नाम, बड़ी-बड़ी कृतियां जिनके
दबावों से निकल कर लेखिका ने जो-जो कोट किया उसका दबाव मेरे अतीत पर बहुत पड़ा.
जब का फ्यूजन है लेखिका में, पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, जहां से जो उत्कृष्ट
लगा, लेखिका ने बे रोक-टोक
लिया. परम्परा और प्रयोग, पुरातन और
अत्याधुनिक, सब कुछ का बेलैंस
बनाकर लेखिका ने लिया. यह केवल कृति में ही नहीं है, मूलतः व्यक्तित्व में है, वहीं से कृतित्व में आया है. हिंदी पढ़ाने वाली लेखिका का
पहरावा अंग्रेजी है. भाव देसी मूल है पर शैली विदेशी है.
जहां तक कृति के शिल्प पर विचार करें मुझे शोध-प्रबंध
प्रविधि ध्यान में आती है. कमल कुमार ने
मानों एक विशय सूची बनाई, अध्यायों में
वर्गीकृत किया, प्राक्कथन,
भूमिका से अध्याय, अध्यायों से निष्कर्ष, उपसंहार और फिर परिशिष्ट.
लेखिका ने परिवार अध्याय में दादी यानि अम्मा, माताजी, डैडी, भाई, बहन, पति, बेटी, दामाद, समधिन के विशय में थोड़ा-थोड़ा लिखा. दामाद की खलनायकी के संकेत दिए. राजनीतिक
प्रभाव, दुष्प्रभाव पर
कलम चलाई, अपने लेखन के विषय में
विस्तार से लिखा, अपनी कहानियां,
कविताएं, उपन्यास आदि के कथ्यों और उनके चरित्रों का वर्णन करते हुए
अपनी रचना-प्रक्रिया और साहित्यिक सच के विषय में लिखा. अपनी रचनाओं की समीक्षाएं
मन से की हैं. यह इस कृति का मुख्य प्रतिपाद्य है. एक अध्याय अपनी समकालीन
लेखिकाओं के विषय में लिखा जिसमें बड़ी बेबाकी से उनके लेखन और चारित्रिक विशिष्टताओं का बखान किया, जहां दुर्बलताएं
उन्हें लगी, उन्हें चिहिन्त
करने में वे चूकी नहीं. लेखिकाएं - राजी सेठ, दिनेश नंदिनी डालमिया, कृश्णा सोबती, मन्नू भंडारी, डॉ.निर्मला जैन, कुसुम अंसल, मंजुल भगत,
नासिरा
शर्मा, मैत्रेयी पुष्पा,
सुनीता जैन, सिम्मी हर्पिता, अरूणा सीतेश, मुक्ता जोशी',
चंद्रकांता, अर्चना वर्मा, रीता पालीवाल आदि.
इस कृति में अनेक नामचीन पूर्व पीढ़ी के रचनाकारों के विषय’
में भी उल्लेख किया गया है. प्रोफेसर द्विवेदी, जैनेंद्र कुमार, अज्ञेय, नामवर सिंह,
रामदरश मिश्र, विष्णु प्रभाकर, गिरिजा कुमार माथुर, भवानी प्रसाद
मिश्र, देवेंद्र इस्सर, रमेशचंद शाह, कमलेश्वरर, निर्मल वर्मा,
प्रभाकर श्रोत्रिय, सोमित्र मोहन, भीष्म साहनी, मनोहर श्याम जोशी,
कैलाश वाजपेयी, कैलाशचंद पंत, कैलाशवाजपेयी, कुंवर नारायणा,
महीप सिंह, बलदेव वंशी, हरदयाल, नरेंद्र मोहन, गंगा प्रसाद, विमल, क.कि. गोयनका आदि. लेखिका के
अपनी पीढ़ी के पुरूष रचनाकारों में कवेल प्रताप सहगल, अश्विनीऔर गुरूचरण के विषय में उनकी कलम नहीं चली है.
कह सकते हैं कि इस कृति में दिल्ली के विगत पचास वर्ष का
साहित्यिक परिवेश इन साहित्यकारों के माध्यम से और लेखिका के व्यक्तिगत अनुभवों के
द्वारा काफी हद तक समाया हुआ है.
कुछ अत्यंत रंजित प्रसंग हैं तो कुछ बेहद संजीदे. जो भी
लिखा लेखिका ने वही शिद्दत से लिखा है, समर्झा आत्मीय भाशा से लिखा, भाषा पर लेखिका
का अधिकार स्पष्ट है - तत्सम, खड़ी, हरियाणवी, पंजाबी, अंग्रेजी,
भाशाओं के शब्दों का साधिकार प्रयोग किया गया
है. शायद आज के संदर्भ में मॉड्रन सधुक्कड़ी प्रभाव.
अनेक ‘कोटेबल कोटस’
इस पुस्तक में हैं. ‘साहित्य और जिंदगी’, प्रेम और देह, प्रयोग और कला सुजन और कलात्मकता, रचना लेखन और प्रक्रिया, स्त्री और पुरुष,
व्यक्ति और परिवार संदर्भित सूक्तियां प्रभावित
करती हैं. अध्यात्म, साहित्य, समाज, शिक्षा, राजनीति, मनोविज्ञान, ...... जैसा कोई विषय लेखिका ने विचार मंथन के लिए छोड़ा ही नहीं.
इस तरह यह रचना अपने व्यक्ति के अतिरिक्त अपने समय और
साहित्य की प्रतिकृति है.
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जो कहूँगी सच कहूँगीकमल कुमार
नमन प्रकाशन
४२३/१, अंसारी रोड , दरियागंज , नई दिल्ली - ०२
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार 07-07-2018) को "उन्हें हम प्यार करते हैं" (चर्चा अंक-3025) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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