राकेश बिहारी |
साहित्य का मूल कार्य यह है कि वह तमाम अच्छे–बुरे बदलावों के बीच और उनके तीक्ष्ण–तिक्त प्रभावों के मध्य आम आदमी के पास आता-जाता रहता है. उन्हें देखता, परखता, महसूस करता और लिखता रहता है. उनके साथ खड़ा रहता है. जिसे इतिहास बिसरा देता है उसे साहित्य अमर कर देता है.
इस कथित आर्थिक उदारीकरण के अनुदार दौर में सबसे अधिक प्रभावित अगर कोई हुआ है तो वे कारीगर हैं जो अपने हुनर से अपनी जीविका सम्मानजनक ढंग से चलाते रहे थे. उनमें से एक वर्ग टेलर मास्टर का है. रेडीमेट कपड़ों की सजावट ने उनकी खुद की सिलाई उधेड़ दी है. आप अंतिम बार कब किसी टेलर के पास गए थे ? याद कीजिए .
भूमंडलोत्तर कहानी क्रम में इस बार युवा कथाकार प्रज्ञा की कहानी ‘मन्नत टेलर्स’पर कथा आलोचक राकेश बिहारी का यह आलेख आप सबके लिए. राकेश बिहारी ने कथा की गहरी पड़ताल की है,हो रहे बदलावों के बीच ऐसी और भी कहनियाँ लिखी गयीं हैं. उनसे भी तुलना का एक उपक्रम यहाँ है.
भूमंडलोत्तर कहानी –
1४
बाज़ार की जरूरत और उसके साइड इफ़ेक्ट्स
(संदर्भ: प्रज्ञा की कहानी ‘मन्नत टेलर्स’)
‘गति’ और ‘सूचना’ भूमंडलोत्तर समय की विशेषताओं को व्याख्यायित
करने के लिए दो सबसे ज्यादा अपरिहार्य शब्द हैं. इन दोनों शब्दों की सबसे बड़ी
खासियत यह है कि हमारे समय की सबसे बड़ी खूबी और त्रासदी दोनों का रास्ता इनसे ही हो
कर गुजरता है. भूमंडलोत्तर समय में गति अमूमन प्रगति का पर्याय होकर हमारे बीच
उपस्थित होती है तो सूचना ज्ञान का. गति अपने नए अर्थ के वैभव को बरकरार रख सके
इसके लिए उसे सूचना-तकनीकी के साथ की जरूरत होती है. गति और सूचना-तकनीकी के सहमेल
से तैयार नए यथार्थ को पल्लवित-पुष्पित करने के लिए बाज़ार जरूरी उपकरण मुहैया
कराने का काम करता है. भूमंडलीकरण की शुरुआत के बाद की स्थितियों पर जारी विमर्शों
की शब्दावली में बाज़ार सामान्यतया किसी अवरोधक दैत्य की विकट उपस्थिति का अहसास-सा
कराता है. सभ्यता के विकास में बाज़ार की जरूरत की अहमियत को रेखांकित किए बिना
बाजारवाद की आड़ में बाज़ार को ही नकारने की प्रवृत्ति भी हिन्दी में खूब दिखाई देती
है. बाज़ार और बाजारवाद के नाम पर जारी इन विमर्शों को रचनात्मक साहित्य के एजेंडे
में भी खूब जगह मिली है. इसलिए फैशन की शक्ल ले चुके विमर्श के इस भूमंडलोत्तर
परिवेश में बाज़ार की जरूरतों को रेखांकित करना कई बार बहुत जोखिम का काम होता है. यही
कारण है कि बाज़ारवाद के ‘साइड इफ़ेक्ट्स’ पर बात करने के क्रम में बाज़ार की
विशेषताओं को रेखांकित करते हुये एक रचनात्मक संतुलन कायम करने की जरूरत मुझे
हमेशा महसूस होती है.
भूमंडलोत्तर कथा परिसर की सुपरिचित सदस्य प्रज्ञा की कहानियों
ने गतिमान सूचना समय में बाज़ार के विभिन्न रूपों और प्रभावों को रेखांकित करते
हुये ही अपनी जगह बनाई है. ‘पहल’(106,
जनवरी 2017) में प्रकाशित ‘मन्नत टेलर्स’ उनकी एक ऐसी ही कहानी है. विकसित
हो रहे ‘गारमेंट उद्योग’ और संकुचित हो रहे पारंपरिक टेलरिंग व्यवसाय के
आर्थिक-सामाजिक यथार्थों की बुनावट को दिखाने के बहाने भूमंडलोत्तर समय की
जटिलताओं के बीच विकास के सूचकांकों में उलझे मनुष्य के भीतर पल रहे वर्गीय
अंतर्विरोधों को यह कहानी जिस खूबसूरती से जाहिर करती है वह इसे इनकी अन्य
कहानियों से तो अलग करता ही है, समकालीन
हिन्दी कहानी में व्याप्त बाज़ार संबंधी विमर्श को समझने के लिए एक अलग
परिप्रेक्ष्य की रचना भी करता है.
भारत के आर्थिक विकास में वस्त्र उद्योग की हमेशा से
महत्वपूर्ण भूमिका रही है. सकल घरेलू उत्पाद में वस्त्र उद्योग की हिस्सेदारी लगभग
चार से पाँच प्रतिशत है. पिछले कुछ वर्षों में खासकर उदारीकरण की शुरुआत के बाद
वस्त्र उद्योग में रेडीमेड कपड़ों की हिस्सेदारी उल्लेखनीय रूप से बढ़ी है.चीन के
बाद भारत विश्व का सबसे बड़ा गारमेंट निर्माता है. उल्लेखनीय है कि भारत में
रेडीमेड कपड़ों का बाज़ार लगभग 3 लाख करोड़ रुपये से भी ज्यादा का है. जिसमें पुरुषों के कपड़ों की हिस्सेदारी लगभग 36 और
स्त्रियॉं के कपड़ों की हिस्सेदारी लगभग 32 प्रतिशत है. इस बात को भी रेखांकित किया
जाना चाहिए कि पिछले कुछ वर्षों में भारतीय समाज के फैशन-बोध में गुणात्मक बदलाव
आया है. लिहाजा रेडीमेड कपड़ों का बाज़ार तेज गति से बढ़ रहा है. हालांकि रेडीमेड कपड़ों
के निर्माण का एक महत्वपूर्ण हिस्सा विदेशी बाज़ार में निर्यात हो जाता है,
लेकिन इनका घरेलू बाज़ार भी लगातार बढ़ रहा है. गौर किया जाना चाहिए कि कुछ वर्ष
पूर्व तक यह क्षेत्र सिर्फ लघु उद्योग के लिए सुरक्षित था लेकिन बदलते आर्थिक
परिवेश में इसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए भी खोल दिया गया है. परिणामतः सस्ते श्रम
और अपेक्षाकृत कम लागत मूल्य के कारण भारतीय रेडीमेड कपड़े घरेलू ही नहीं विश्व
बाजार तक में अपनी उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं.
सस्ते लागत के नाम पर बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों
के साथ इस क्षेत्र में व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा भी खूब है. इस उद्योगमें संगठित
क्षेत्रों की उपस्थितिऔर तमाम उत्साहवर्धक सरकारी आंकड़ों के बावजूद कम लागत का
टार्गेट पूरा करने के लिए बड़े पैमाने पर संविदा और उपसंविदा श्रमिकों की भागीदारी
के कारण यह क्षेत्र मानव संसाधन के लिहाज से चिंता का विषय है.गोकि रेडीमेड वस्त्र
निर्माण उद्योग ने रोजगार के बहुत से अवसर उपलब्ध कराये हैं तथापि इसका प्रतिकूल
असर टेलरिंग के व्यवसाय में लगे लोगों के जीवन पर प्रत्यक्षतः हुआ है. ‘मन्नत
टेलर्स’ में रशीद की स्मृति के बहाने प्रज्ञा टेलरिंग व्यवसाय में लगे उन पारंपरिक
कारीगरों की बदहाली पर बात करना चाहती हैं जो रेडीमेड वस्त्रों के बढ़ते चलन के
कारण बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं.
प्रज्ञा की इस कहानी को पढ़ते हुये ख्यात ई पत्रिका समालोचन
पर हाल ही में प्रकाशित वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंत की कहानी ‘अ स्टिच इन
टाइम’ की याद आना स्वाभाविक है. ‘मन्नत टेलर्स’ पर बात करते हुये ‘अ स्टिच
इन टाइम’ को याद करने का कारण सिर्फ इन कहानियों के विषय का साम्य ही है,
वरना कुछेक विषयगत समानताओं के बावजूद कहन,कथानक
और ट्रीटमेंट के स्तर पर ये दोनों कहानियाँ एक दूसरे से भिन्न हैं. हाँ,
दोनों कहानियों की शुरुआत संयोगवश जरूर एक जैसे दृश्यों से होती है. ‘मन्नत टेलर्स’
का समीर जहां पत्नी शिखा द्वारा लाये रेडीमेड शर्ट की फिटिंग ठीक न होने के कारण
परेशान होकर अपने बचपन के दिनों को याद करता हुआ मन्नत टेलर्स वाले रशीद भाई तक
पहुँच जाता है,तो वहीं ‘अ स्टिच इन टाइम’ का कथानायक
‘मैं’अपने जन्मदिन पर बेटी के द्वारा उपहार में दी गई रेडीमेड शर्ट को पहनने में
खुद को असहज पाते हुये अमन टेलर्स के नजर अहमद के जीवन की समस्याओं के बारे में
सोचता हुआ खुद को ही वर्तमान समय में अनफ़िट महसूस करने की विडम्बना को प्राप्त
होता है.
इन कहानियों के प्रस्थान एक जैसे दिखने के बावजूद एक जैसे हैं
नहीं. उल्लेखनीय है की ‘अ स्टिच इन टाइम’ का कथानायक ‘मैं’,जिसकी
चिंता के केंद्र में संकुचित होता टेलरिंग व्यवसाय और उससे जुड़े कारीगरों के जीवन
की समस्याएँ हैं, पहले से ही रेडीमेड शर्ट पहनने के खिलाफ
है. जबकि ‘मन्नत टेलर्स’ के समीर को रशीद भाई की स्मृतियों के
बहाने बाज़ार के षड्यंत्र और दिनानुदिन समाप्त हो रहे टेलरिंग व्यवसाय में लगे
कारीगरों की चिंता तब होती है जब उसे पत्नी द्वारा लाये गए शर्ट की फिटिंग पसंद
नहीं आती. सवाल यह है कि यदि उसे उस शर्ट की फिटिंग पसंद आ जाती तो?
जाहिर है तब उसकी चिंताओं के केंद्र में न तो रशीद भाई होते न समाप्त हो रहा
टेलरिंग व्यवसाय. यानी सबकुछ हस्बेमामूल चलता रहता. यह भी गौर किया जाना चाहिए कि
जिन कारणों से लोग रेडीमेड कपड़े पहनना पसंद करते हैं,
अच्छी फिटिंग भी उन में से एक है. ऐसे में रेडीमेड शर्ट की फिटिंग ठीक न होने के
बाद टेलर द्वारा सिले हुये कपड़े की याद आना भी बहुत युक्तिसंगत नहीं लगता.
कहानी के प्रस्थान से जुड़ी इन दो बातों कों देखते हुये लगता है
कि कहानी की नाल सही जगह पर नहीं गड़ी है. बावजूद इसके यदि यह कहानी उल्लेखनीय बन
पड़ी है तो उसके दो कारण हैं- एक, समीर के
वर्गीय चरित्र के विरोधाभासों का प्रभावशाली अंकन और दूसरा ‘मन्नत
टेलर्स’ की स्मृतियों के बहाने पाठक की स्मृतियों तक
कथाकार की सीधी पहुँच. रेडीमेड शर्ट की फिटिंग ठीक न आने के बाद परेशान समीर अपने
बचपन की वीथियों से गुजरता हुआ जिस तन्मयता से मन्नत टेलर्स और रशीद भाई से जुड़ी
एक-एक बात को याद करता है वह इतना आत्मीय है कि उसकी उंगली पकड़े आप कब कैसे उन
टेलर्स की दुकानों तक हो आते हैं जिनके सिले कपड़ों के साथ जाने आपकी कितनी
स्मृतियाँ जुड़ी होती हैं, पता ही नहींचलता. ये दृश्य कितने
जीवंत और प्रभावी हैं इसका अंदाजा आप इस बात से भी लगा सकते हैं कि न सिर्फ इस कहानी को पढ़ते हुये बल्कि इस वक्त
इस कहानी पर यह टिप्पणी लिखते हुये भी अपने बचपन से लेकर कॉलेज दिनों तक के कई
टेलर्स, यथा– शिवहर का टॉप टेलर्स,
सीतामढ़ी का डायमंड टेलर्स और मोतीझील मुजफ्फरपुर का वेरायटी टेलर्स कितनी मीठी स्मृतियों के साथ
मेरी पुतलियों में जीवंत हो उठे हैं.
पिछले महीने की सीतामढ़ी यात्रा के दौरान लखनदेई पुल से गुजरते
हुये मुझे ‘मन्नत टेलर्स’
की याद आई थी और वहाँ डायमंड टेलर्स का बोर्ड नहीं देख कर एक अजीब सा शोक मेरे
भीतर फैल गया था. नहीं जानता कि डायमंड टेलर्स बंद हो चुका है या लखनदेई पुल जैसे
शहर के मुख्य स्थान से विस्थापित होकर किसी गली-कूचे के मकान में चला गया है,
पर उसकी स्मृतियाँ मेरे गले में किसी फांस की तरह अटकी पड़ीं हैं. किसी कहानी का
ऐसा प्रभाव बहुत कम होता है. मैं इसे ‘मन्नत
टेलर्स’ की सबसे बड़ी सफलता मानता हूँ. इसके अतिरिक्त
जिस दूसरी बात के कारण यह कहानी मुझेमहत्वपूर्ण लगी वह है – समीर के वर्गीय चरित्र
के विरोधाभास का अंकन. गौरतलब है कि इस कहानी में मन्नत टेलर्स के रशीद भाई का
जिक्र तीन स्तरों पर हुआ है. एक- बचपन की सुखद स्मृतियों के बहाने जहां रशीद भाई
महज एक टेलर मास्टर नहीं बल्कि समीर के पिता के मित्र की तरह हैं. हाँ,
दूसरे स्तर पर रशीद का जिक्र तब होता है जब समीर उन्हें खोजने जा रहा है. बेशक
रशीद भाई की यह छवि समीर के बचपन की स्मृतियों के सहारे ही गढ़ी गई है लेकिन उनकी
बदहाली की आशंकाओं और उनके प्रति समर के मन में उपजने वाली सहानुभूति उसकी वर्गीय
पृष्ठभूमि से भी संचालित है.
रशीद भाई की तीसरी छवि
वर्तमान की है जहां एम बीए की पढ़ाई करने के बाद उनके बेटे असलम की व्यावसायिक
सूझबूझ से उनका जीवन खुशहाल और समृद्ध हो गया है. उल्लेखनीय है कि इन अलग-अलग स्थितियों में समीर का व्यवहार एक
जैसा नहीं है. लेखक पर बाज़ार के विनाशकारी रूप संबंधी आम धारणा का दबाव हो या कि
अपकेक्षाकृत कम पढे लिखे सिलाई कारीगर परिवार के बारे में सोचते हुये अध्यापक पिता की संतान समीर के भीतर
आकार ग्रहण करता श्रेष्ठता बोध,
समीर पल भर को भी रशीद भाई के खुशहाल जीवन की कल्पना तक नहीं कर पाता. लेकिन अपनी तमाम आशंकाओं के विपरीत रशीद भाई और
उसके बेटे की समृद्धि को देखते हुये उसके भीतर हीन भावना घर कर जाती है. अपने से बेहतर और कमतर व्यक्ति के आगे एक ही व्यक्ति
के अलग-अलग व्यवहारों के बीच पसरा फासला किस तरह के विडंबनाओं को जन्म देता है उसे
इस कहानी में बहुत शिद्दत से महसूस किया
जा सकता है. संवेदनात्मक कलात्मकता की दृष्टि से मन्नत टेलर्स का यह हिस्सा सबसे
ज्यादा प्रभावशाली है. मेरी राय में कहानी के वर्तमान तानेबाने में इसे ही कहानी
का नाभि केंद्र होना चाहिये था. मेरी दृष्टि में तब यह कहानी ज्यादा मारक और
असरदार होती. लेकिन प्रज्ञा भिन्न
परिस्थितियों में समर के भिन्न वर्गीय व्यवहार के अंतर्विरोधों से उत्पन्न
विडम्बना को कहानी के मर्म की तरह नहीं स्थापित होने देती हैं और कहानी की अंतिम
दो पंक्तियों में सिलाई कारीगरों की बदहाली को ही कहानी की केंद्रीय चिंता के रूप
में रेखांकित करने का सायास जतन करती हैं –
“रशीद भाई का प्यार लिए मेरे कदम दुकान से
निकल रहे थे. चेहरे पर असलम की हंसी के जवाब में एक मुस्कुराहट थी. मैं खुश था कि
रशीद भाई खुश हैं, उनका परिवार
खुशहाल है पर दिमाग के दूसरे कोने में जारी हलचलें मुझे अशांत कररही थीं- क्या सब
रशीद इतने खुशकिस्मत हैं? अचानक मेरे
हाथ में दबा हुआथैला मुझे बहुत भारी लगने लगा.”
अपने पूर्वनिर्धारित और कहानी की शुरुआत में सायास प्रस्तावित
निष्कर्षों तक पहुँचने के दबाव में प्रज्ञा यहाँ कहानी में मौजूद उसकी स्वाभाविक क्षमताओं
और संभावनाओं की अनदेखी कर जाती हैं. जाहिर है कहानीकार ने कहानी की नाल जहां गाड़ी
थी उसके निर्वाह के लिएही उसे ऐसा करना पड़ा है,जिस
कारण अलग-अलग दृश्यों में मौजूद मजबूत
प्राभावोत्पादकता के बावजूद मेरी दृष्टि में कहानी का समग्र प्रभाव बाधित हुआ है. मेरे
कहने का यह अर्थ कदापि नहीं कि एक रचनाकार
और संवेदनशील मनुष्य के रूप में व्यवस्था का शिकार हो रहे रशीदों की चिंता नहीं की
जानी चाहिए, बल्कि मेरा अभिप्राय यह है कि यदि कहानी को
सच्चे अर्थों में उन रशीदों की चिंता थी तो यहाँ उसके लिए कुछ और ठोस उपकरण जुटाये
जाने चाहिए थे.
भूमंडलोत्तर कहानी
क्रम में आपने अब तक निम्न कहानियों पर युवा आलोचक राकेश बिहारी की विवेचना पढ़ी
है. 1-लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने (रवि बुले), 2-शिफ्ट+
कंट्रोल+आल्ट = डिलीट (आकांक्षा पारे), 3-नाकोहस
(पुरुषोत्तम अग्रवाल), 4-अँगुरी में डसले
बिया नगिनिया (अनुज), 5-पानी (मनोज
कुमार पांडेय), 6-कायांतर (जयश्री राय), 7-उत्तर
प्रदेश की खिड़की (विमल चन्द्र पाण्डेय), 8-नीला
घर (अपर्णा मनोज), 9-दादी, मुल्तान और
टच एण्ड गो(तरुण भटनागर), 10-कउने खोतवा में लुकइलू (राकेश
दुबे),11-चौपड़े की चुड़ैलें (पंकज सुबीर) 12-अधजली
(सिनीवाली शर्मा, १३-जस्ट डांस (कैलाश वानखेड़े).
महज आशंकाओं और सहानुभूति के आधार पर इन ररशीदों की चिंता कैसे
की जा सकती है? यहाँ यह भी गौर किया जाना चाहिए कि मन्नत टेलर्स और ‘अ स्टिच इन टाइम’ दोनों कहानियों के मुख्य
पात्र पुरुष हैं और इनमें शर्ट के बहाने
परंपरागत टेलरिंग व्यवसाय के संकुचन की समस्या पर बात की गई है. गौरतलब है कि रेडीमेड कपड़ों के व्यवसाय में
पुरुषों और स्त्रियॉं के के कपड़ों की
हिस्सेदारी के प्रतिशत में ज्यादा अंतर नहीं है.
जिस तरह स्त्रियॉं के रेडीमेड
वस्त्रों का व्यवसाय भी लगातार बढ़ रहा है,
घरेलू स्त्रियॉं द्वारा संचालित सिलाई का व्यवसाय उससे खासा प्रभावित हुआ है.
हालांकि किसी कथाकार से यह मांग करना कि वह किसी खास कोण से ही कहानी लिखे कुछ हद तक उनके साथ
ज्यादती हो सकती है, लेकिन जब किसी कहानी के केंद्र में
कोई खास समस्या हो तो उस के विविध आयामों को परखा जाना बहुत जरूरी है. क्या ही
अच्छा होता कि प्रज्ञा स्त्री होने के अपने विशेष अनुभवों के साथ यहाँ इस समस्या
के स्त्री आयाम को भी संबोधित करतीं.
पाठक और कहानी के पात्रों के बीच एक मजबूत तादात्म्य कायम हो
सके इसके लिए लेखक का अपने पात्रों में रच बस जाना जितना जरूरी है,
कहानी के बहुकोणीय और बहुपरतीय विस्तार के लिए उसकी तटस्थता भी उतनी ही जरूरी है.
तटस्थ तन्मयता और तन्मय तटस्थता का यह संतुलन आसान नहीं,बल्कि
एक कथाकार की रचनात्मक निरंतरता कुछ अर्थों में
इसी संतुलन को प्राप्त करने का एक चैतन्य अभ्यास है. उल्लेखनीय है कि इनफिनिटी नाम की तिमंजिली दुकान के रूप में रशीद
भाई और उनके बेटे असलम की समृद्धि को देख समीर इस कदर अपनी हीन भावना में हो आता
है कि उसे कुछ और दिखता ही नहीं. मेरे भीतर सांस लेते पाठक की आँखें उस तिमंजिली दुकान में कार्यरत उन लोगों के
चेहरों को भी देखना देखना चाहती हैं जिसे असलम की इनफिनिटी ने नई ज़िंदगी और रोजगार
दी होगी.
मेरा पाठक रेडीमेड कपड़ों के वितरण के लिए जरूरी दूसरे लघु
उद्योगों के उद्भव और विकास की भी अनदेखी नहीं करना चाहता. लेकिन ऐसा नहीं है कि
यह कहते हुये मैं उन बाजारवादी शक्तियों
की अनदेखी करना चाहता हूँ जो मनुष्य को उपभोक्ता और मजदूर में परिसीमित कर
देने की लगातार साजिशें कर रही हैं, जिसकी
चिंता सुभाष पंत अपनी कहानी ‘अ स्टिच इन टाइम’ में लगातार करते हैं. पर यह भी सच है कि भूमंडलीकृत बाज़ार के विस्तार को रोक
पाना आज व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है. कुछ अर्थों में यह प्रगति और विकास
विरोधी भी हो सकता है. इसलिए परंपरागत टेलरिंग व्यवसाय या इस तरह के अन्य उद्यमों में
लगे छोटे छोटे उद्यमियों का श्रमिक हो जाना आज के समय का बड़ा यथार्थ है. लेकिन एक खास तरह की रूमानियत में बह कर इसका सामना
नहीं किया जा सकता.
दिन प्रति दिन संकुचित
हो रहे उन परंपरागत दुकानों को फिर से
आबाद किया जाना संभव नहीं. असंगठित क्षेत्र में पल रहे उन परंपरागत उद्यमियों के
भविष्य की अनिश्चितताओं को देखते हुये
इसकी जरूरतों पर भी एक अलग तरह की बहस हो सकती है. लेकिन लगातार विस्तृत हो
रहे बाज़ार में इन नए श्रमिकों के अधिकार
कैसे सुरक्षित होंगे इस बात की चिंता जरूर की जानी चाहिए. इसलिए मेरी आँखें इनफिनिटी
में कार्यरत लोगों को देख भर के आश्वस्त नहीं हो जाना चाहतीं बल्कि इनफिनिटी जैसे नए संस्थानों में व्याप्त व्यावसायिक
संस्कृति का ऑडिट भी करना चाहती हैं ताकि
बाज़ार के फ़लक पर खड़े हो रहे नए श्रमिकों के कल्याण,
अधिकार और भविष्य की सुरक्षा तय की जा सके. अपने बचपन और युवा दिनों की स्मृति में
गहरे धँसने को विवश करने वाली कहानी ‘मन्नत
टेलर्स’ को इस दृष्टि से भी पढ़ा जाना चाहिए.
_____________________________
राकेश बिहारी
संपर्क: एन एच 3 /
सी 76,
एनटीपीसी
विंध्यनगर, जिला- सिंगरौली 486 885 (म. प्र.)
मोबाईल- 09425823033 ईमेल –brakesh1110@gmail.com
मोबाईल- 09425823033 ईमेल –brakesh1110@gmail.com
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (04-010-2017) को
जवाब देंहटाएं"शुभकामनाओं के लिये आभार" (चर्चा अंक 2747)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत अच्छी लगी समीक्षा ,काफी विस्तृत और तथ्यपरक खोजपरक लगी। समीक्षक द्वारा किसी तरफ झुकाव के बगैर अपनी बात कहना पाठक को विश्वसनीय लगता है जैसा कि इस समीक्षा में किया गया।
जवाब देंहटाएंलेखक समीक्षक दोनों को शुभकामनाएं
और टेलर्स को मेरी राय है कि महानगरों से अब कस्बों और छोटे शहरों की ओर कूच करें वहां अभी भी उनकी उतनी ही मांग है। कमोबेश उतना ही रश है आज भी वहां।
वाह भाई, अच्छे लेख तथा प्रभावशाली दाढ़ी के लिये बधाई
जवाब देंहटाएंहार्दिक बधाई कथाकार और समालोचक दोनों को ।
जवाब देंहटाएंआभार राकेश जी। आलोचना की आपकी इस सीरीज़ को लगातार पढ़ती आई हूँ।।इस बारमन्नत टेलर्स इसमें शामिल हुई। अरुण जी और समालोचन का भी आभार।
जवाब देंहटाएंप्रज्ञा जी की यह कहानी मुझे बहुत अच्छी लगी थी। इस समीक्षा की प्रतीक्षा बहुत दिनों से थी। उत्सुकता थी कि इस पर आलोचक क्या कहते हैं। अब राकेश जी की तस्वीर देख समझ आ रहा, इस शानदार कहानी पर लिखते हुए उनको भी खूब मेहनत करनी पड़ी���� बधाई Pragya Rohiniजी, समालोचन, राकेश बिहारीजी!����
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा लेख। सारगर्भित और अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिए जाने वाले विषयों को समेटे हुए। राकेश सर को बहुत बधाई। साथ ही प्रज्ञा मैम को भी कहानी के लिए बहुत मुबारकबाद।
जवाब देंहटाएंvery correct analysis and logical conclusion
जवाब देंहटाएंप्रभावशाली प्रस्तुति
जवाब देंहटाएं'मन्नत टेलर्स’ पढ़ने चले
राकेश की प्रभावशाली आलोचना पहले पढ़ी और फिर मन्नत टेलर्स पढ़ने का मौका मिला। बहुत relevant कहानी है और राकेश ने अपने कमैंट्स से इस कहानी को जैसे चार चांद लगा दिया है। लेखिका और आलोचक दोनों को बधाइयां....
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी समीक्षा लिखी है ।कहानी पहले पढ़ी थी आज समीक्षा पढ़ते हुए और खुल कर सामने आई ।एक अलग ही नज़रिया होता है राकेश जी का कहानी के मर्म को समझने और समझाने का ।
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएं
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