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Painting by Javier Alvarez |
साहित्य को अपने
समय के अलग-अलग चश्मों से देखा जाता है, देखा भी जाना चाहिए.
‘टेक्सट’ के इन
तमाम ‘रीडिंग्स’ में साहित्य में अंतर्निहित विचारों की विवेचनाएँ होती हैं, पर उनका
जो मुकम्मल प्रभाव है अगर वह असरदार हैं तो वे बची रहती हैं.
फिर-फिर पढ़ी जाती
हैं.
कुछ समय पूर्व पवन
करण की ‘स्तन’ और अनामिका की ‘ब्रेस्ट कैंसर’ कविताओं पर घनघोर चर्चा हुई थी. इन कविताओं को लोलुप पुरुष मानसिकता से ग्रस्त, स्त्री
विरोधी आदि-आदि कहा गया.
युवा अध्येता और
कवि संतोष अर्श ने फिर से इन कविताओं को टटोलने की कोशिश की है.
एक अच्छी बात यह है
कि वह भारतीय सौन्दर्यबोध को भी लगातार ध्यान में रखे हुए हैं.
जरुर पढ़ा जाना
चाहिए.
'स्तन’ और ‘ब्रेस्ट कैंसर’: व्याधि, कविता, स्त्री और स्त्रीवादी
संतोष अर्श
“I don’t want to discuss my breasts with the whole world.”
Brooke Burke
पवन करण की ‘स्तन’ और अनामिका की ‘ब्रेस्ट कैंसर’ कविताओं को लेकर
रंजित, अतिरंजित, संतुलित, असंतुलित, आवश्यक, अनावश्यक चर्चा हुई
थी. इस बहस के दौरान कुछ सार्थक, निरर्थक, व्यर्थ, अर्थवान और विचारोत्तेजक
लेख भी सामने आए थे. इनमें शालिनी माथुर का लेख ‘व्याधि पर कविता या कविता
की व्याधि’ अपने भीतर के आवेगमय दुर्वाद और दोनों कविताओं
की यादृच्छिक व्याख्याओं के कारण अधिक चर्चित हुआ था जिसमें उन्होंने सूज़न
सॉन्टैग, सूज़न ग्रिफिन, नाओमी वुल्फ़, एड्रियन रिच आदि स्त्रीवादियों का हवाला देते हुए अतिवादी और अतिरंजित लहज़े में इन दोनों
कविताओं और कवियों पर टिप्पणी की है. यही नहीं उस लेख में, स्तन कैंसर जैसी
बीमारी की छाया में लिखी गयी इन कविताओं में उन्होंने कवियों द्वारा स्त्री-देह का
पोर्नोग्राफिक निरूपण करने की बात भी लिखी है. अपने उक्त लेख का अंत शालिनी माथुर
ने इस प्रकार किया है कि-
“पवन करण और अनामिका ने व्याधि से ग्रस्त दर्द से दुखते हुए, मृत्यु के भय से आक्रांत, शल्य चिकित्सा के कारण विरूपीकृत स्त्री के शरीर पर नश्तर से कविताएँ उकेर दीं और स्त्री के रक्तस्नात अनावृत्त शरीर को हम सब के बीच ला खड़ा किया मगर इस बार इन दोनों कवियों के इस क्रूर, हिंसक, बर्बर और निहायत ग़लीज़ मज़ाक पर हँस पाना भी हमारे लिए मुमकिन नहीं.”
कविता, व्याधि, स्त्री-देह और
स्त्रीवाद की इस चतुर्भुजी बहस में कविताओं के ठीक-ठीक पाठ, भाव, अनुभूति और संवेदना
को दरकिनार कर दिया गया.
स्तन, स्त्रीत्व का प्रतीक हैं. स्त्री के सौंदर्य की चरमावस्था! अर्द्धनारीश्वर के मिथक को मानने वाली संस्कृति में कहा जाता रहा है कि पुरुष के पुष्पित स्तन स्त्री के सुंदर, अभिभूत करने वाले स्तनों में फलित होते हैं. शैशवावस्था से लेकर आजीवन, स्त्री के स्तन पुरुष के लिए प्रगाढ़ आकर्षण, आश्चर्य और रहस्य से भरे अंग हैं. स्तनविहीन स्त्रीत्व की कल्पना न पुरुष कर सकता है न स्वयं स्त्री, यह उन दोनों के लिए त्रासद स्थिति होगी. स्त्री के स्तनों के तिलिस्म और आकर्षण से मुक्त हो पाना पुरुष के लिए मुमकिन नहीं है. पवन करण ने भी अपनी कविता ‘स्तन’ ‘पुरुष होकर’ ही लिखी है. उन्होंने अपनी कविता संगीता रंजन को समर्पित की है जिन्हें छाती के कैंसर की वज़ह से अपना एक स्तन गँवाना पड़ा था. यही बात उनके संग्रह (स्त्री मेरे भीतर, जिसमें यह कविता संकलित है) में कविता के नीचे भी लिखी है. यहाँ ‘छाती’ शब्द को यों ही गुज़र जाने देना नहीं चाहिए. उर्दू के बेहतरीन अफ़सानानिगार मंटो को छाती शब्द के प्रयोग पर (उनके अपने दौर में) बड़ी-बड़ी सफ़ाइयाँ और मुख़्तलिफ़ जवाब देने पड़ते थे. यह गौरतलब है कि शालिनी माथुर ने भी अपने लेख में मंटो को उनकी कहानी ‘ठंडा गोश्त’ के साथ याद किया है. यक़ीनन मंटो की कहानी ठंडा गोश्त अश्लील नहीं है. पवन करण की कविता स्तन भी अश्लील नहीं है. पोर्नोग्राफिक नहीं है. हाँ अपने समय की एक सामान्य कविता है जिसे ब्रेस्ट कैंसर ने विशेष कर दिया है. यह हिन्दी साहित्य की दुनिया की भीषण त्रासदी है कि मंटो के ज़माने के जवाबलेवा किसी न किसी सूरत में आज भी मौज़ूद हैं.
स्तन कविता किताब के दो पृष्ठों पर फैली हुई है लेकिन उसमें पाँच पंक्तियाँ ही प्रमुख हैं. प्रारम्भ की तीन पंक्तियाँ-
स्तन, स्त्रीत्व का प्रतीक हैं. स्त्री के सौंदर्य की चरमावस्था! अर्द्धनारीश्वर के मिथक को मानने वाली संस्कृति में कहा जाता रहा है कि पुरुष के पुष्पित स्तन स्त्री के सुंदर, अभिभूत करने वाले स्तनों में फलित होते हैं. शैशवावस्था से लेकर आजीवन, स्त्री के स्तन पुरुष के लिए प्रगाढ़ आकर्षण, आश्चर्य और रहस्य से भरे अंग हैं. स्तनविहीन स्त्रीत्व की कल्पना न पुरुष कर सकता है न स्वयं स्त्री, यह उन दोनों के लिए त्रासद स्थिति होगी. स्त्री के स्तनों के तिलिस्म और आकर्षण से मुक्त हो पाना पुरुष के लिए मुमकिन नहीं है. पवन करण ने भी अपनी कविता ‘स्तन’ ‘पुरुष होकर’ ही लिखी है. उन्होंने अपनी कविता संगीता रंजन को समर्पित की है जिन्हें छाती के कैंसर की वज़ह से अपना एक स्तन गँवाना पड़ा था. यही बात उनके संग्रह (स्त्री मेरे भीतर, जिसमें यह कविता संकलित है) में कविता के नीचे भी लिखी है. यहाँ ‘छाती’ शब्द को यों ही गुज़र जाने देना नहीं चाहिए. उर्दू के बेहतरीन अफ़सानानिगार मंटो को छाती शब्द के प्रयोग पर (उनके अपने दौर में) बड़ी-बड़ी सफ़ाइयाँ और मुख़्तलिफ़ जवाब देने पड़ते थे. यह गौरतलब है कि शालिनी माथुर ने भी अपने लेख में मंटो को उनकी कहानी ‘ठंडा गोश्त’ के साथ याद किया है. यक़ीनन मंटो की कहानी ठंडा गोश्त अश्लील नहीं है. पवन करण की कविता स्तन भी अश्लील नहीं है. पोर्नोग्राफिक नहीं है. हाँ अपने समय की एक सामान्य कविता है जिसे ब्रेस्ट कैंसर ने विशेष कर दिया है. यह हिन्दी साहित्य की दुनिया की भीषण त्रासदी है कि मंटो के ज़माने के जवाबलेवा किसी न किसी सूरत में आज भी मौज़ूद हैं.
स्तन कविता किताब के दो पृष्ठों पर फैली हुई है लेकिन उसमें पाँच पंक्तियाँ ही प्रमुख हैं. प्रारम्भ की तीन पंक्तियाँ-
इच्छा जब होती वह धँसा लेता उनके बीच अपना सिर
और जब भरा हुआ होता तो उनमें छुपा लेता अपना मुँह
कर देता उन्हें अपने आँसुओं से तर
और जब भरा हुआ होता तो उनमें छुपा लेता अपना मुँह
कर देता उन्हें अपने आँसुओं से तर
और आख़िर की दो पंक्तियाँ-
उसकी देह से उस एक के हट जाने से
कितना कुछ हट गया उनके बीच से
कितना कुछ हट गया उनके बीच से
मुझे लगता है कि इन पाँच पंक्तियों में ही कविता समाप्त हो जाती
है. और यदि इनके बीच में कुछ न लिखा जाता तब भी कविता उतनी ही रहती. मैंने पहले भी
कहीं पवन करण पर लिखते हुए कहा है कि वे अपनी कविता में बहुत कुछ कहना चाहते हैं
जबकि कविता यह चाहती है कि उसमें कम से कम कहकर बहुत कुछ अनकहा छोड़ दिया जाय. अगर
पवन करण कुछ कम कहते तो शालिनी माथुर उनकी कविताओं को ‘पोर्नोग्राफ़ी की
शास्त्रीय रचनाएँ’ न कहतीं क्या ?
यद्यपि इस कविता की इन पंक्तियों-
अंतरंग क्षणों में उन दोनों को
हाथों में थामकर वह उससे कहता
ये दोनों तुम्हारे पास अमानत हैं मेरी
मेरी ख़ुशियाँ, इन्हें संभालकर रखना
पर, यह कहकर एतराज़ किया जा सकता है कि स्तन जो कि स्त्री देह के संवेदनशील अंग ही नहीं यौनांग भी हैं, उन पर किसी का अधिकार नहीं है. वे किसी की अमानत नहीं हो सकते ! स्त्री की देह उसका अधिकार है. माय बॉडी माय राइट ! लेकिन अधिकार प्रेम से मिलता है. और प्रेम के रंग इस कविता में बिखरे हुए हैं. प्रेमी-पुरुष की देह पर भी स्त्री का अधिकार है. रागात्मक क्षणों में, वह चाहे तो कह कह सकती है कि तुम्हारे ये पुष्पित स्तन और सख़्त पुट्ठे मेरी अमानत हैं. यहाँ किसी प्रकार की अतिरंजना नहीं बल्कि बराबरी की बात है. स्त्रीवाद की बुनियाद तो स्त्री-पुरुष की समानता को लेकर ही पड़ी आख़िर ? और कविता में स्त्री की उन्मुक्त रज़ा है. उसे अपने स्तन प्यारे हैं ! और होने ही चाहिए. अपनी देह को प्यार करना ही चाहिए. उसे निरामय, स्वस्थ और सुंदर बनाए रखने के हरसंभव प्रयत्न करने चाहिए. इसीलिए तो-
उनके बारे में उसकी बातें सुन-सुनकर बौराई
वह जब कभी खड़ी होकर आगे आईने के
इन्हें देखती अपलक तो झूम उठती
वह कई दफ़े सोचती इन दोनों को एक साथ
उसके मुँह में भर दे और मूँद ले अपनी आँखें
वह जब कभी खड़ी होकर आगे आईने के
इन्हें देखती अपलक तो झूम उठती
वह कई दफ़े सोचती इन दोनों को एक साथ
उसके मुँह में भर दे और मूँद ले अपनी आँखें
ज़ाहिर है कि कविता की स्त्री जिस मुँह में अपने स्तनों को
भरकर, आँखें मूँद कर आनंदित होना चाहती है उस मुँह पर उसका
अधिकार है. और यह अधिकार उसे प्रेम से मिला है. मनुष्यों का प्राकृतिक संसर्ग
पशुओं की तरह प्रजनन की जैविक प्रक्रिया भर तो है नहीं ! यौनरत होने का अधिकार
प्रेम ही से तो मिलता है ! अन्यथा अन्य विकल्पों में पुरुष या तो स्त्री देह को
क्रय करता है या फिर उसके साथ रेप करता है. इस प्रसंग पर ब्रिटिश लेखक ई.एल. जेम्स
के उपन्यास फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे पर इसी नाम से बनी फ़िल्म को याद
करना मौजूँ होगा. फ़िल्म में एक स्थान पर नायिका के साथ यौनरत नायक अपनी देह को उसे
स्पर्श नहीं करने देता है जबकि नायिका यौनतुष्टि हेतु उसकी देह को छूना चाहती है, लेकिन उसने नायक की
हर बात मानने का एग्रीमेंट साइन किया है. वहाँ स्त्री देह एक उपनिवेश है, उसे एक बिज़नेस
टाइकून ने ख़रीद लिया है. कई मामलों में भारतीय समाज में विवाह भी उसी अनुबंध की
तरह होता है. स्तन कविता में फ्रायडियन प्रभाव ज़रूर है लेकिन पोर्नोग्राफ़ी ?
पोर्नोग्राफी स्त्री को हीन बनाती है लेकिन वह असली नहीं है. उसमें पशुवत यौनरत होने का अभिनय करते स्त्री-पुरुषों की चीखें और चरमसुख का कामुक सीत्कार नकली होता है. पोर्नोग्राफी में सेक्स और हिंसा दोनों हैं. हिंसा और सेक्स के अपने महीन मनोवैज्ञानिक संबंध हैं जिन पर यहाँ चर्चा मुमकिन नहीं है. लेकिन काम-वासना के हिंसक उत्प्रेरण के लिए पोर्नोग्राफी का उत्पादन बाज़ार का एक हिस्सा है, पूँजी का एक उपक्रम है. इस पर आशुतोष कुमार ने ठीक लिखा है कि, “पोर्नोग्राफी के विषय में खुद स्त्रीवाद के दायरे में शोध, बहस और विमर्श का ज़ख़ीरा इतना बड़ा है कि उसे संक्षेप में समेटने के लिए भी एक विशेषांक की ज़रूरत पड़ेगी. पोर्नोग्राफी के हज़ारों रूप हैं. पोर्नोग्राफी किसी तरह की हो, वह हर हाल में स्त्री के लिए अपमानजनक ही होती है, यह कोई सर्वस्वीकार्य धारणा नहीं है. ऐसी धारणा स्वयं स्त्री के खिलाफ़ जा सकती है.”
पोर्नोग्राफी स्त्री को हीन बनाती है लेकिन वह असली नहीं है. उसमें पशुवत यौनरत होने का अभिनय करते स्त्री-पुरुषों की चीखें और चरमसुख का कामुक सीत्कार नकली होता है. पोर्नोग्राफी में सेक्स और हिंसा दोनों हैं. हिंसा और सेक्स के अपने महीन मनोवैज्ञानिक संबंध हैं जिन पर यहाँ चर्चा मुमकिन नहीं है. लेकिन काम-वासना के हिंसक उत्प्रेरण के लिए पोर्नोग्राफी का उत्पादन बाज़ार का एक हिस्सा है, पूँजी का एक उपक्रम है. इस पर आशुतोष कुमार ने ठीक लिखा है कि, “पोर्नोग्राफी के विषय में खुद स्त्रीवाद के दायरे में शोध, बहस और विमर्श का ज़ख़ीरा इतना बड़ा है कि उसे संक्षेप में समेटने के लिए भी एक विशेषांक की ज़रूरत पड़ेगी. पोर्नोग्राफी के हज़ारों रूप हैं. पोर्नोग्राफी किसी तरह की हो, वह हर हाल में स्त्री के लिए अपमानजनक ही होती है, यह कोई सर्वस्वीकार्य धारणा नहीं है. ऐसी धारणा स्वयं स्त्री के खिलाफ़ जा सकती है.”
पॉर्न इंडस्ट्री से वैश्विक स्तर पर स्त्री के आर्थिक संबंध
भी हैं. इस भूमंडलीकृत इंडस्ट्री में कितने ट्रिलियन डॉलर्स का विनिवेश और प्रवाह
है यह कोई दबी-छुपी बात नहीं है. आशुतोष कुमार ने इस पर लिखते हुए सनी
लियोन का उल्लेख किया है. अभी कुछ दिनों पहले मीडिया में ख़बर थी कि सनी लियोन भारत
के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री से अधिक लोकप्रिय हो गई थीं. पोर्नोग्राफी में भी बड़े
बदलाव हुए हैं. अब पॉर्न ट्यूब्स में भी कृत्रिम लिंग पहनकर हार्डकोर यौनसुख देती
हुई ‘शीमेल्स’ को दिखाया जाने लगा है. यह लंबी चर्चा और
बहस-विचार का विषय है. जिस पर स्त्रीवादियों को ध्यान देना चाहिए. कविता स्तन में
आगे बढ़ते हैं-
वह उन दोनों को कभी शहद के छत्ते
तो कभी दशहरी आमों की जोड़ी कहता
तो कभी दशहरी आमों की जोड़ी कहता
‘शहद के छत्ते’ और ‘दशहरी आम’ बहुत अच्छे, श्लील उपमान नहीं कहे जा सकते हैं. स्तन-कैंसर जैसी गंभीर बीमारी पर लिखी गयी
कविता के लिए तो बिलकुल नहीं! शहद के छत्ते और दशहरी आम चालू टाइप के लोकगीतों के
से उपमान लगते हैं. जैसे देहातों में गाये-बजाये जाने वाले फूहड़ गीतों के रूपक
होते थे. पवन करण को यहाँ सावधानी बरतनी चाहिए थी, लेकिन कविता
सावधानी बरतकर नहीं लिखी जाती. उस पर उन्होंने सामंती-दरबारी कवि बिहारी का ज़िक्र
भी इस कविता में कर दिया है. पीछे की कविता में स्तनों को बहुत कुछ कहा गया है.
विद्यापति के एक पद में निर्वसना उरोजिनी सरोवर में नहा रही है और उसने अपने दोनों
हाथों से अपने स्तन छुपा रखे हैं. विद्यापति कहते हैं कि वे दोनों स्तन सुंदर
चक्रवाक (पक्षी) हैं और नायिका ने इसलिए उन्हें दबा-छुपा रखा है कि वे कहीं उड़ न
जाएँ. उसे डर है कि यदि वे उड़ गए तो कौन उन्हें वापस ला कर देगा ? दरबारी कवि
पोर्नोग्राफर हो सकते थे क्योंकि उन्हें ज़र मिलता था.
अवध में नवाबी के दौरान तरगारे-हरकारे होते थे जो रतिक्रियारत होने जा रहे नवाबों के पलंग के नीचे पहले से घुसकर अपने कामुक सीत्कार, वाक्-कौशल आदि से उनकी कामेच्छा को उद्दीप्त करते थे. दरबारी कवि ऐसे ही होते थे. ग़रज़ यह कि शहद के छत्ते और दशहरी आम जैसे उपमान कविता को कमज़ोर करते हैं. पवन करण का ‘शहद के छत्ते’ उपमान स्तन की जैविक संरचना से कुछ-कुछ भले ही मेल खाता हो लेकिन ऐसे उपमानों का प्रयोग करने के कारण कवि को स्त्रीवादियों से किसी तरह नहीं बचाया जा सकता. और स्तन दशहरी आम होते हैं ? इससे ठीक तो अनामिका की कविता ब्रेस्ट कैंसर में ‘दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाने वाले उन्नत पहाड़ों जैसे स्तन’ हैं. अनामिका की कविता के स्तनों का निरूपण भी देखा जाना चाहिए-
अवध में नवाबी के दौरान तरगारे-हरकारे होते थे जो रतिक्रियारत होने जा रहे नवाबों के पलंग के नीचे पहले से घुसकर अपने कामुक सीत्कार, वाक्-कौशल आदि से उनकी कामेच्छा को उद्दीप्त करते थे. दरबारी कवि ऐसे ही होते थे. ग़रज़ यह कि शहद के छत्ते और दशहरी आम जैसे उपमान कविता को कमज़ोर करते हैं. पवन करण का ‘शहद के छत्ते’ उपमान स्तन की जैविक संरचना से कुछ-कुछ भले ही मेल खाता हो लेकिन ऐसे उपमानों का प्रयोग करने के कारण कवि को स्त्रीवादियों से किसी तरह नहीं बचाया जा सकता. और स्तन दशहरी आम होते हैं ? इससे ठीक तो अनामिका की कविता ब्रेस्ट कैंसर में ‘दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाने वाले उन्नत पहाड़ों जैसे स्तन’ हैं. अनामिका की कविता के स्तनों का निरूपण भी देखा जाना चाहिए-
दुनिया की सारी स्मृतियों को
दूध पिलाया मैंने,
हाँ बहा दीं दूध की नदियाँ
तब जाकर मेरे इन उन्नत पहाड़ों की
गहरी गुफाओं में जाले लगे.
दूध पिलाया मैंने,
हाँ बहा दीं दूध की नदियाँ
तब जाकर मेरे इन उन्नत पहाड़ों की
गहरी गुफाओं में जाले लगे.
इस कविता की दुर्व्याख्या करने वालों ने इसे नख-शिख वर्णन
कहा है. स्तनों की उन्नत पहाड़ों से उपमा देना नख-शिख वर्णन नहीं है. साथ ही यह
किसी प्रकार का औदात्य भी नहीं उत्पन्न करता. नख-शिख वर्णन देखने के लिए हिन्दी के
पास रीतिकाल जैसा एक पूरा-पूरा काव्य-युग है. इसलिए ऐसा लिखने वाले लेखक को कोई काव्यबोधहीनता
से ग्रस्त कहे तो उसे गलत क्यों माना जाय ?
स्तनों को क्या कुछ नहीं कहा गया ! उनका किस तरह का प्रयोग नहीं किया गया ? बाज़ार के नब्बे फ़ीसद विज्ञापन स्त्री के स्तनों पर टिके रहे हैं. उस क्रम में ‘उन्नत पहाड़’, ‘शहद के छत्ते’ और ‘दशहरी आम’ को भी रख लिया जाय. यहाँ तक आकर अब स्तनों के विषय में जर्मेन ग्रीयर के विचारों को देखना भी काम्य होगा कि- ‘भरी-पूरी छातियाँ असल में स्त्री के गले में लटका फाँसी का फंदा हैं : ये उसे उन पुरुषों की निगाह में चढ़ा देती हैं जो उसे अपनी रबड़ की गुड़िया बनाना चाहते हैं, लेकिन उसे यह सोचने की छूट हरगिज़ नहीं दी जाती कि उनकी फटी पड़ती आँखें सचमुच उसे ही देखती हैं. छातियों की तारीफ़ तभी तक है जब तक कि उनके असली काम की निशानियाँ नहीं दिखाई देतीं : रंग गहरा हो जाने, खिंचने या सूख जाने पर वे वितृष्णा उपजाती हैं. वे एक व्यक्ति के अंग नहीं आंटे की तरह गूँधे और मरोड़े जाने या चुसनी की तरह मुँह में भरे जाने के लिए उसके गले में लटके प्रलोभन हैं.’ (जोशी मधु. बी. (अनु.), बधिया स्त्री, पृष्ठ- 36) जर्मेन ग्रीयर के विचार स्तनों से पीड़ित स्त्री के लिए हैं. यौन और जैविक कारणों से संतप्त स्तनों से व्याधिग्रस्त स्तन बहुत अलग हैं. यह सुकून देने वाली बात है कि स्तन कैंसर पर लिखी जा रही कविता में अनामिका ने स्तनों पर होने वाले यौन हमलों का भी ध्यान रखा है-
स्तनों को क्या कुछ नहीं कहा गया ! उनका किस तरह का प्रयोग नहीं किया गया ? बाज़ार के नब्बे फ़ीसद विज्ञापन स्त्री के स्तनों पर टिके रहे हैं. उस क्रम में ‘उन्नत पहाड़’, ‘शहद के छत्ते’ और ‘दशहरी आम’ को भी रख लिया जाय. यहाँ तक आकर अब स्तनों के विषय में जर्मेन ग्रीयर के विचारों को देखना भी काम्य होगा कि- ‘भरी-पूरी छातियाँ असल में स्त्री के गले में लटका फाँसी का फंदा हैं : ये उसे उन पुरुषों की निगाह में चढ़ा देती हैं जो उसे अपनी रबड़ की गुड़िया बनाना चाहते हैं, लेकिन उसे यह सोचने की छूट हरगिज़ नहीं दी जाती कि उनकी फटी पड़ती आँखें सचमुच उसे ही देखती हैं. छातियों की तारीफ़ तभी तक है जब तक कि उनके असली काम की निशानियाँ नहीं दिखाई देतीं : रंग गहरा हो जाने, खिंचने या सूख जाने पर वे वितृष्णा उपजाती हैं. वे एक व्यक्ति के अंग नहीं आंटे की तरह गूँधे और मरोड़े जाने या चुसनी की तरह मुँह में भरे जाने के लिए उसके गले में लटके प्रलोभन हैं.’ (जोशी मधु. बी. (अनु.), बधिया स्त्री, पृष्ठ- 36) जर्मेन ग्रीयर के विचार स्तनों से पीड़ित स्त्री के लिए हैं. यौन और जैविक कारणों से संतप्त स्तनों से व्याधिग्रस्त स्तन बहुत अलग हैं. यह सुकून देने वाली बात है कि स्तन कैंसर पर लिखी जा रही कविता में अनामिका ने स्तनों पर होने वाले यौन हमलों का भी ध्यान रखा है-
दस बरस की उम्र से
तुम मेरे पीछे पड़े थे
अंग-संग मेरे लगे ऐसे
दूभर हुआ सड़क पर चलना.
तुम मेरे पीछे पड़े थे
अंग-संग मेरे लगे ऐसे
दूभर हुआ सड़क पर चलना.
अपनी कामुक, बेध देने वाली दृष्टि से
पुरुष बच्चियों के अविकसित, विकसनशील स्तनों को भी नहीं छोड़ता. वह उन्हें
आँखों से ही मसल डालना चाहता है. काम-कुंठाओं से ग्रस्त पुरुषों वाले भारत देश में
स्त्रियाँ बहुत घूरी जाती हैं. घूरना एक प्रकार की यौन हिंसा है. पुरुष स्त्री के
स्तनों को घूरता है. किसी बी-ग्रेड बॉलीवुड फ़िल्म में लड़की लड़के से पूछती है कि, ‘तुम लड़कियों में सबसे पहले क्या देखते हो ?’ लड़का उत्तर देता है, ‘यह लड़की पर निर्भर
है कि वह आ रही है या जा रही है.’ इस संवाद पर भारतीय पुरुष
हँसता है. एतराज़ नहीं करता ! आती हुई लड़की के स्तन और जाती हुई स्त्री के नितंब !
पूरी दुनिया में कमोबेश पुरुषों द्वारा स्त्रियों में यही देखा या घूरा जाता है.
सिनेमाई (अप)-संस्कृति में इसे देखा जा सकता है. ब्रेस्ट कैंसर कविता की स्त्री यह
जानती है कि दस बरस की उम्र से ही उसके स्तनों के कारण उसका सड़क पर चलना दूभर हो
गया था. लेकिन स्तनों के लिए एक ही कविता में ‘उन्नत पहाड़’, ‘बुलबुले’, ‘खुदे-फुदे नन्हे
पहाड़’ उपमानों का प्रयोग असंगत मालूम होता है. एक
स्त्रीवादी कवयित्री द्वारा स्तनों के लिए इतने सारे उपमानों के प्रयोग का क्या
औचित्य है ? यह काव्यौचित्य भी तो नहीं है ! पहले ही स्तनों
को बहुत कुछ कहा जा चुका है. कविता में व्याधि का भी रूपक है-
कहते हैं महावैद्य
खा रहे मुझको ये जाले
और मौत की चुहिया
मेरे पहाड़ों में
इस तरह छिपकर बैठी है
कि यह निकलेगी तभी
जब पहाड़ खोदेगा कोई
खा रहे मुझको ये जाले
और मौत की चुहिया
मेरे पहाड़ों में
इस तरह छिपकर बैठी है
कि यह निकलेगी तभी
जब पहाड़ खोदेगा कोई

ब्रेस्ट कैंसर विशेषज्ञ चिकित्सों के अनुसार 85 प्रतिशत स्तन कैंसर दूध वाहिकाओं या परलिकाओं की कोशिकाओं में होता है. अनामिका जिस ‘मौत की चुहिया’ की बात अपनी कविता में कर रही हैं वह यहीं जन्म लेकर छिपी बैठी रहती है और स्तनों को तकलीफ के हीरे बना देती है. स्तन कैंसर व्याधि के लिए जाले और चुहिया से रचा गया रूपक कृत्रिमता उपन्न करता है. ‘गुफाओं में जाले लगे’ बिम्ब कैस प्रभाव पैदा करता है ? स्तन अंदर से गुफाओं जैसे नहीं हैं. वे ख़ाली और अंधकारमय नहीं हैं. उनके भीतर मातृत्व का प्रकाश है. दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाने के पश्चात भी वे खाली नहीं होते, उनमें पूर्णता और तृप्ति भर जाती है. और मौत की चुहिया, जो स्तन की गाँठ के लिए अनामिका ने रची है वह मुहावरे को तोड़-मरोड़ कर रची गयी है. इस रूपक को सही पकड़ा गया है. बीमारी को रूपक से अभिव्यक्त करने के कुछ रचनात्मक कारण होते हैं क्या ? कविता रचनी है तो क्या हुआ ? पहाड़ जैसे उन्नत स्तनों के लिए ऐसी बरहमी या विरक्ति ठीक नहीं जो अनामिका की कविता में व्यंजित हुई है. बीमारी मनुष्य-जीवन का हिस्सा है. उसके ज़िंदा होने की निशानी है. जिजीविषा की कसौटी है. अनामिका ने इस कविता में स्त्री की पीड़ा से परिहास करने की कोशिश की है, यही आइरनी है. यह व्यंग्योक्ति कविता प्रकट भी करती है-
कहो कैसे हो ? कैसी रही ?
अंततः मैंने तुमसे पा ही ली छुट्टी !
अंततः मैंने तुमसे पा ही ली छुट्टी !
बावजूद सबकुछ के संवेदना सही-सलामत है. कविता की कमज़ोरिया
स्तन कैंसर की बीमारी के प्रभाव के कारण हैं. शब्दों के साथ-साथ बिंबों, उपमानों, रूपकों की भी सीमित
सृजनात्मक संभावनाएँ होती हैं.
पवन करण की कविता में देहराग अधिक हो गया है. इसीलिए उनकी कविता का पोस्टमार्टम किया गया था. लेकिन पुरुष की ओर से यह सचाई भी है. पुरुष में देह-लिप्सा अधिक है. अगर पुरुष की लिप्सा को अपनी कविता में पवन करण ने ज्यों का त्यों अभिव्यक्त कर दिया है तो वे प्रशंसा के पात्र हैं भर्त्सना के नहीं. ‘ब्रेस्ट कैंसर’ कविता का दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाने वाला एक स्तन पवन करण की कविता के विपरीतलिंगी देहराग के मध्य से बाहर निकल गया है-
पवन करण की कविता में देहराग अधिक हो गया है. इसीलिए उनकी कविता का पोस्टमार्टम किया गया था. लेकिन पुरुष की ओर से यह सचाई भी है. पुरुष में देह-लिप्सा अधिक है. अगर पुरुष की लिप्सा को अपनी कविता में पवन करण ने ज्यों का त्यों अभिव्यक्त कर दिया है तो वे प्रशंसा के पात्र हैं भर्त्सना के नहीं. ‘ब्रेस्ट कैंसर’ कविता का दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाने वाला एक स्तन पवन करण की कविता के विपरीतलिंगी देहराग के मध्य से बाहर निकल गया है-
अब वह इस बचे हुए एक के बारे में
कुछ नहीं कहता उससे, वह उसकी तरफ देखता है
और रह जाता है, कसमसाकर
कुछ नहीं कहता उससे, वह उसकी तरफ देखता है
और रह जाता है, कसमसाकर
ब्रेस्ट कैंसर कविता वबिता टोपो को निवेदित या
समर्पित है. पवन करण का ‘स्त्री मेरे भीतर’ संग्रह का पहला
संस्करण राजकमल से 2006 में छपा है और शालिनी माथुर के लेख के अनुसार अनामिका की
कविता ब्रेस्ट कैंसर पाखी के फरवरी 2012 के स्त्री लेखन विशेषांक में प्रकाशित है.
मुमकिन है कि अनामिका ने यह कविता बाद में लिखी हो. यह भी मुमकिन है कि पवन करण की
कविता के बारे में जानकर उन्होंने यह कविता लिखी हो साथ ही यह भी कि स्तन कैंसर पर
उन्होंने और भी कोई कविता लिखी हो या फिर ये सोचा हो कि स्तन कैंसर जैसा विषय उनकी
काव्य-रचना से छूट रहा है. बहरहाल व्याधिग्रस्त स्तन एक गंभीर विषय हैं. ब्रेस्ट
कैंसर बहुत गंभीर मुद्दा है और यदि किसी गंभीर विषय पर कविता लिखते समय उस कविता
के साथ कवि (कवयित्री भी) न्याय नहीं कर पाता तो वह लोकप्रियता के लिए चुना गया
विषय बनकर रह जाता है.
पुरुषवाद ने स्तनों के उभार को लेकर जो कामुक प्रपंच रचा है, अगर अनामिका इस पुरुषवादी प्रपंच को आधार बनाकर ही व्यंग्य में स्तनों को दूध की नदियाँ और पहाड़ बता रही हैं तब तो ठीक है लेकिन यदि वे भी स्तनों की पुरुषवादी लिप्सा के भँवर में फँस गई हैं तो स्तनों पर पुरुषों जैसी ही कविता लिख रही हैं. काव्यशास्त्र के किसी ग्रंथ में यह नहीं लिखा है कि वे स्तनों पर पुरुष जैसी कविता नहीं लिख सकतीं. नारीवादियों के ग्रन्थों में लिखा हो तो और बात है. पवन करण के कवि का निस्तारण हो जाएगा क्योंकि स्त्री के जैविक अंगों (जो पुरुष के पास नहीं हैं) को लेकर उसकी अनुभूति से पुरुष हमेशा-हमेशा के लिए महरूम है. स्तनों पर बात करते समय भीतर की स्त्री से नहीं भीतर के पुरुष से बचना पड़ता है. पवन करण नहीं बच पाए हैं. लेकिन अनामिका क्यों नहीं बच पाईं ? स्तन और व्याधि को आधार बनाकर यह कहना संगत होगा कि स्तन-कैंसर जैसे रोग की गंभीरता को समझना ज़रूरी है. क्योंकि यहाँ स्त्री और पुरुष की अनुभूति का प्रश्न नहीं है बल्कि इस बीमारी से पीड़ित स्त्री की अनुभूति का प्रश्न है. यह अनुभूति स्तन-कैंसर से ग्रस्त हुए बिना पायी जा सकती है क्या? यहाँ स्त्री-पुरुष की बहस से दूर स्त्री और स्तन-कैंसर जैसी व्याधि से ग्रस्त स्त्री ही उपस्थित हैं. और इन दोनों कविताओं ने इस बात का साइन बोर्ड भी लगा रखा है.
कविता व्याधि की तरह दारुण नहीं है लेकिन स्तनों की तरह सुंदर और संवेदनशील निश्चित रूप से है. कवियों पर निजी आक्रमण करने के लिए कविताओं की दुर्व्याख्याओं के बहुत से कारण हो सकते हैं. इन कविताओं पर जो बहस हुई उनमें से एक की रचनाकार अनामिका उस बहस में सम्मिलित हुईं. रचनाकार रचना करके उसे छोड़ देता है. उसकी व्याख्याओं के प्रपंच में नहीं पड़ता है. फिर ज़हर मिले जाम उसे पीना भी चाहिए. अनामिका ने स्त्रीवाद की आड़ लेकर उनकी कविता पर किए गए आक्षेपों को लेकर (या प्रतिवाद में) एक लेख (कविता को समझने के लिए कविता के योग्य बनना पड़ता है) लिखा है. यह इतना आवश्यक नहीं था. लेख में वे लिखती हैं, “स्त्रीवादी कविता की प्रिय तकनीक अंतर्पाठीय मिमिक्री है जो ध्रुवान्तों (कॉस्मिक-कॉमनप्लेस, देहाती-शहराती, पौरात्य-पाश्चात्य, निजी-समवेत आदि) के बीच एक नाटकीय चुप्पी घटित करने से संभव होती है ! स्त्री कविता, मेटाफिजिकल-कन्फ़ेशनल, कबीराना-फ़कीराना और सूफ़ियाना कविता की तरह, भावों की शुद्धता में यक़ीन नहीं करती. और गंभीर से गंभीर बात बड़े विनोदी स्वर में कह सकने की हिम्मत रखती है.” यदि कविता को समझने के लिए कविता के योग्य बनना आवश्यक है तो कवि का यह बताना कि उसकी कविता किस तरह पढ़ी जाय ग़ालिबन गैरज़रूरी है. पवन करण ने ऐसा कुछ लिखा हो तो मेरी नज़र से नहीं गुज़रा. नहीं लिखा तो बहुत अच्छा है.
हिन्दी दुनिया के दक्षिण-वामी-मध्यमी, कार्टेल, सिंडीकेट, मठ-गढ़, माफ़िया-गुर्गों से निरापद होकर यह कहना होगा कि ये दोनों हिंदी की ज़रूरी कविताएँ हैं. स्तन कविता की स्त्री उस अतीतराग को स्मरण करती है जो दोनों स्तनों के साथ उसके जीवन में था. शल्य-चिकित्सा के बाद उसका जीवन बच गया है. अतीतराग की स्मृतियों में व्याधि से बच जाने का उल्लास छुपा हुआ है- ‘मगर, वह, विवश, जानती है.’ व्याधि एक जैविक विवशता है. और-
पुरुषवाद ने स्तनों के उभार को लेकर जो कामुक प्रपंच रचा है, अगर अनामिका इस पुरुषवादी प्रपंच को आधार बनाकर ही व्यंग्य में स्तनों को दूध की नदियाँ और पहाड़ बता रही हैं तब तो ठीक है लेकिन यदि वे भी स्तनों की पुरुषवादी लिप्सा के भँवर में फँस गई हैं तो स्तनों पर पुरुषों जैसी ही कविता लिख रही हैं. काव्यशास्त्र के किसी ग्रंथ में यह नहीं लिखा है कि वे स्तनों पर पुरुष जैसी कविता नहीं लिख सकतीं. नारीवादियों के ग्रन्थों में लिखा हो तो और बात है. पवन करण के कवि का निस्तारण हो जाएगा क्योंकि स्त्री के जैविक अंगों (जो पुरुष के पास नहीं हैं) को लेकर उसकी अनुभूति से पुरुष हमेशा-हमेशा के लिए महरूम है. स्तनों पर बात करते समय भीतर की स्त्री से नहीं भीतर के पुरुष से बचना पड़ता है. पवन करण नहीं बच पाए हैं. लेकिन अनामिका क्यों नहीं बच पाईं ? स्तन और व्याधि को आधार बनाकर यह कहना संगत होगा कि स्तन-कैंसर जैसे रोग की गंभीरता को समझना ज़रूरी है. क्योंकि यहाँ स्त्री और पुरुष की अनुभूति का प्रश्न नहीं है बल्कि इस बीमारी से पीड़ित स्त्री की अनुभूति का प्रश्न है. यह अनुभूति स्तन-कैंसर से ग्रस्त हुए बिना पायी जा सकती है क्या? यहाँ स्त्री-पुरुष की बहस से दूर स्त्री और स्तन-कैंसर जैसी व्याधि से ग्रस्त स्त्री ही उपस्थित हैं. और इन दोनों कविताओं ने इस बात का साइन बोर्ड भी लगा रखा है.
कविता व्याधि की तरह दारुण नहीं है लेकिन स्तनों की तरह सुंदर और संवेदनशील निश्चित रूप से है. कवियों पर निजी आक्रमण करने के लिए कविताओं की दुर्व्याख्याओं के बहुत से कारण हो सकते हैं. इन कविताओं पर जो बहस हुई उनमें से एक की रचनाकार अनामिका उस बहस में सम्मिलित हुईं. रचनाकार रचना करके उसे छोड़ देता है. उसकी व्याख्याओं के प्रपंच में नहीं पड़ता है. फिर ज़हर मिले जाम उसे पीना भी चाहिए. अनामिका ने स्त्रीवाद की आड़ लेकर उनकी कविता पर किए गए आक्षेपों को लेकर (या प्रतिवाद में) एक लेख (कविता को समझने के लिए कविता के योग्य बनना पड़ता है) लिखा है. यह इतना आवश्यक नहीं था. लेख में वे लिखती हैं, “स्त्रीवादी कविता की प्रिय तकनीक अंतर्पाठीय मिमिक्री है जो ध्रुवान्तों (कॉस्मिक-कॉमनप्लेस, देहाती-शहराती, पौरात्य-पाश्चात्य, निजी-समवेत आदि) के बीच एक नाटकीय चुप्पी घटित करने से संभव होती है ! स्त्री कविता, मेटाफिजिकल-कन्फ़ेशनल, कबीराना-फ़कीराना और सूफ़ियाना कविता की तरह, भावों की शुद्धता में यक़ीन नहीं करती. और गंभीर से गंभीर बात बड़े विनोदी स्वर में कह सकने की हिम्मत रखती है.” यदि कविता को समझने के लिए कविता के योग्य बनना आवश्यक है तो कवि का यह बताना कि उसकी कविता किस तरह पढ़ी जाय ग़ालिबन गैरज़रूरी है. पवन करण ने ऐसा कुछ लिखा हो तो मेरी नज़र से नहीं गुज़रा. नहीं लिखा तो बहुत अच्छा है.
हिन्दी दुनिया के दक्षिण-वामी-मध्यमी, कार्टेल, सिंडीकेट, मठ-गढ़, माफ़िया-गुर्गों से निरापद होकर यह कहना होगा कि ये दोनों हिंदी की ज़रूरी कविताएँ हैं. स्तन कविता की स्त्री उस अतीतराग को स्मरण करती है जो दोनों स्तनों के साथ उसके जीवन में था. शल्य-चिकित्सा के बाद उसका जीवन बच गया है. अतीतराग की स्मृतियों में व्याधि से बच जाने का उल्लास छुपा हुआ है- ‘मगर, वह, विवश, जानती है.’ व्याधि एक जैविक विवशता है. और-
उसकी देह पर घूमते उसके हाथ
क्या ढूँढ रहे हैं, कि उस वक़्त वे
उसके मन से भी अधिक मायूस हैं.
मन से अधिक मायूस पुरुष
के हाथों में स्त्री की व्याधि से उपजी मायूसी है. हिंदी कविता में इस प्रकार की
मायूसी देखी गई तो यह अच्छी घटना है. अनामिका की कविता में-
तोड़ लिया उनसे अपना रिश्ता
जैसे कि निर्मूल आशंका के सताये
![]() |
(एंजेलिना जॉली)) |
तोड़ लेते हैं संबंध
और दूध का रिश्ता पानी हो जाता है.
बहुत ही सुंदर पंक्तियाँ
हैं. इन पंक्तियों में भी मायूसी है. उदासी है जो व्याधि से उपजी है. व्याधि नहीं
रही ! वह अंग लेकर चली गई, लेकिन उदासी है. ख़ालिस स्त्री की उदासी....!!
मई, 2013 में
हॉलीवुड की ख्यात अभिनेत्री एंजेलिना जॉली ने Mastectomy अपनाकर अपने दोनों
स्तन निकलवा दिए थे. एंजेलिना की नानी, माँ और मौसी की मृत्यु
स्तन कैंसर से हुई थी. उन्होंने उसी
डॉक्टर से परामर्श लिया था जिसने उनकी माँ का ऑपरेशन किया था. उन्होंने स्तन कैंसर
पर दुनिया भर में ख़ूब चर्चा की और जागरूकता फैलायी. एंजेलिना का क़िस्सा क्या किसी
कविता से कम है ? ब्रेस्ट कैंसर और स्तन इन दोनों कविताओं में दुनिया भर की
स्त्रियों के लिए गहरी संवेदना है. इन कविताओं की कितनी भी दुर्व्याख्याएँ की जाएँ
लेकिन ये स्तन कैंसर जैसी व्याधि पर लिखी गयी हैं. एक कविता आख़िरी वक़्त तक एक
कविता होती है. हिन्दी में इस तरह की कितनी कविताएँ हैं ? मैं या कोई स्त्री/पुरुषवादी
आलोचक किसी कवि/कवयित्री को यह कैसे बताएगा कि उसे स्तन कैंसर पर किस भाव-भाषा-शैली
में कविता लिखनी चाहिए.

संतोष अर्श
(1987, बाराबंकी, उत्तर- प्रदेश)
ग़ज़लों के तीन संग्रह ‘फ़ासले से आगे’, ‘क्या पता’ और ‘अभी है आग सीने में’ प्रकाशित.
अवध के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक लेखन में भी रुचि
‘लोकसंघर्ष’ त्रैमासिक में लगातार राजनीतिक, सामाजिक न्याय के मसलों पर लेखन.
2013 के लखनऊ लिट्रेचर कार्निवाल में बतौर युवा लेखक आमंत्रित.
फ़िलवक़्त गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी भाषा एवं साहित्य केंद्र में शोधार्थी
poetarshbbk@gmail.com
स्तन / पवन करण
________________
और जब भरा हुआ होता तो
तो उन में छुपा लेता अपना मुंह
कर देता उसे अपने
आंसुओं से तर
वह उस से कहता तुम यूं
ही बैठी रहो सामने
मैं इन्हें जी भर के
देखना चाहता हूँ
और तब तक उन पर आँखें गडाए
रहता
जब
तक वह उठ कर भाग नहीं जाती सामने से
या लजा कर अपनी हाथों
में छुपा नहीं लेती उन्हें
अन्तरंग क्षणों में उन
दोनों को
हाथों में थाम कर वह उस
से कहता
ये दोनों तुम्हारे पास
अमानत हैं मेरी
मेरी खुशियाँ , इन्हें सम्हाल कर रखना
वह उन दोनों को कभी शहद
के छत्ते
तो कभी दशहरी आमों की
जोड़ी कहता
उन के बारे में उसकी
बातें सुन सुन कर बौराई
वह भी जब कभी खड़ी हो
कर आगे आईने के
इन्हें देखती अपलक तो
झूम उठती
वह कई दफे सोचती इन दोनों को
एक साथ
उसके मुंह में भर दे और
मूँद ले अपनी आँखें
वह जब भी घर से निकलती
इन दोनों पर
डाल ही लेती अपनी निगाह
ऐसा करते हुए हमेशा
उसे कॉलेज में पढ़े
बिहारी आते याद
उस वक्त उस पर इनके बारे में
सुने गए का नशा हो जाता
दो गुना
वह उसे कई दफे सब के
बीच भी उन की तरफ
कनखियों से देखता पकड़
लेती
वह शरारती पूछ भी लेता
सब ठीक तो है
वह कहती हाँ जी हाँ
घर पहुँच कर जांच लेना
मगर रोग , ऐसा घुसा उस के भीतर
कि उन में से एक को ले
कर ही हटा देह से
कोई उपाय भी न था सिवा
इस के
उपचार ने उदास होते हुए
समझाया
अब वह इस बचे हुए एक के
बारे में
कुछ नहीं कहता उस से , वह उस की तरफ देखता है
और रह जाता है , कसमसा कर
मगर उसे हर समय महसूस होता है
उस की देह पर घूमते उस
के हाथ
क्या ढूंढ रहे हैं , कि इस वक्त वे
उस के मन से भी अधिक
मायूस हैं
उस खो चुके के बारे में
भले ही
एक-दूसरे से न कहते
हों वे कुछ
मगर वह, विवश , जानती है
उसकी देह से उस एक के
हट जाने से
कितना कुछ हट गया उन के
बीच से.
___________________
![]() |
अनामिका |
ब्रेस्ट कैंसर/ अनामिका
(वबिता
टोपो की उद्दाम जिजीविषा को निवेदित)
दुनिया की सारी
स्मृतियों को
दूध पिलाया मैंने,
हाँ, बहा दीं दूध की नदियाँ!
तब जाकर
मेरे इन उन्नत पहाड़ों
की
गहरी गुफाओं में
जाले लगे!
'कहते
हैं महावैद्य
खा रहे हैं मुझको ये
जाले
और मौत की चुहिया
मेरे पहाड़ों में
इस तरह छिपकर बैठी है
कि यह निकलेगी तभी
जब पहाड़ खोदेगा कोई!
निकलेगी चुहिया तो
देखूँगी मैं भी
सर्जरी की प्लेट में रखे
खुदे-फुदे नन्हे
पहाड़ों से
हँसकर कहूँगी-हलो,
कहो, कैसे हो? कैसी रही?
अंततः मैंने तुमसे पा
ही ली छुट्टी!
दस बरस की उम्र से
तुम मेरे पीछे पड़े थे,
अंग-संग मेरे लगे ऐसे,
दूभर हुआ सड़क पर चलना!
बुल बुले, अच्छा हुआ,फूटे!
कर दिया मैंने तुम्हें
अपने सिस्टम के बाहर।
मेरे ब्लाउज में छिपे, मेरी तकलीफों के हीरे, हलो।
कहो, कैसे हो?
जैसे कि स्मगलर के जाल
में ही बुढ़ा गई लड़की
करती है कार्यभार पूरा
अंतिम वाला-
झट अपने ब्लाउज से बाहर
किए
और मेज पर रख दिए अपनी
तकलीफ के हीरे!
अब मेरी कोई नहीं लगतीं
ये तकलीफें,
तोड़ लिया है उनसे अपना
रिश्ता
जैसे कि निर्मूल आशंका
के सताए
एक कोख के जाए
तोड़ लेते हैं संबंध
और दूध का रिश्ता पानी
हो जाता है!
जाने दो, जो होता है सो होता है,
मेरे किए जो हो सकता
था-मैंने किया,
दुनिया की सारी
स्मृतियों को दूध पिलाया मैंने!
हाँ, बहा दीं दूध की नदियाँ!
तब जाकर जाले लगे मेरे
उन्नत पहाड़ों की
गहरी गुफाओं में!
लगे तो लगे, उससे क्या!
दूधो नहाएँ
और पूतों फलें
मेरी स्मृतियाँ!
मेरी स्मृतियाँ!
_______________________
सोचती हूँ प्रोफेशन और सोच में कितना फर्क है। बेशक दिन रात इन समस्यों से दो हाथ होते हैं डॉक्टर और मरीज पर वो इस तरह से इनके बारे में सोच नहीं पाते। बिंदास और खूबसूरत कवितायें ही नहीं हैं ये बल्कि इनमें केंसर के मर्म की भी पड़ताल है व समीक्षक ने सिर्फ कविता की ही समीक्षा नहीं की वरन ब्रेस्ट की एनोटॉमी पर भी बात की है। बहुत खूब
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
भाई अर्श, आपने लिखा अच्छा है। पर कैंसर से जूझते लोगों और उनके परिजनों के लिए ये महज शब्दजाल, रूपकों का क्रूरतापूर्ण अम्बार है।
जवाब देंहटाएं'व्याधि जैविक विवशता है !' अच्छा लेख।
जवाब देंहटाएंImmunology और onco डॉक्टर्स का अपने पेशेंट के साथ गहरा रिश्ता बन जाता है। रोगी डॉक्टर के साथ अपनेआप को सुरक्षित महसूस करता है। परिवार का सहयोग उसके संघर्ष को आधा कर देता है। इन कविताओं का पाठ आप रोगी के बीच बैठकर कीजिये। उसके हाथ शून्य के सिवा कुछ न लगेगा। माफ़ी समालोचन। कड़े शब्दों के लिए।
जवाब देंहटाएंshaandaar. इसके आगे मेरे पास शब्द नहीं है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही मार्मिक और हृदयस्पर्शी लेख है...स्त्री का ऐसा अंग जिसके होने से उसे उसे पता है कि उसका कितना आकर्षण है, वो इतराती भी है मन की गहरी परतों के भीतर पीड़ा....कि इनसे ही क्यों ? और असुरक्षा के साथ।
जवाब देंहटाएंबहुत गहरी पड़ताल की गयी है इस लेख में । इन कविताओं को एक अलग दृष्टिकोण से देखा आज ।
जवाब देंहटाएंइन दोनों कविताओं पर सधी हुई भाषा में गहरी पडताल की है लेखक ने।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 15.12.16 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2557 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
Arsh Santosh हमारे समय के युवा, संभावनाशील आलोचक के रूप में सामने आये हैं। कवि/गज़लकार तो वे हैं ही। इस आलेख में संतोष ने समग्रता में उस व्याधि की पीड़ा के बरक्स स्त्री देह के उस महत्वपूर्ण अंग की मानवीय चाहतों को समझा है और बिना आक्रामक, अश्लील हुए ( इन दोनों कविताओं पिछले लेखों को याद करते हुए ) अपनी बात रखी है। कविता अपनी लय में उस मार्मिक अभिव्यक्ति को कह पा रही है या नहीं, यह अत्यंत जरुरी है। मुझे भी यही लगता है उपरोक्त दोनों कवितायें कहीं न कहीं उस चरम को छू पाने में विफल हैं। इस जरुरी आलेख के लिए छोटे भाई संतोष व 'समालोचन' को भी हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंस्त्री देह पर लिखी कविता का क्या औचित्य है? संतोष अर्श अपने लेख में किस निष्कर्ष पर पहुंचना चाहते हैं ? ब्रेस्ट कैंसर से अधिक प्रोस्टेट कैंसर होता है। उस पर कविताएँ क्यों नहीं लिखी जाती ? केवल स्त्री यौनांग ही बीमारी की शिकार नहीं होती । कैंसर कहीं भी हो सकता है, होता है। दोनों कविताएँ यौनाकर्षण की उत्तरआधुनिक सोच से उपजी कविताएँ हैं । इनमें भारतीय चित्त नहीं है।
जवाब देंहटाएंtuxera ntfs 2018 product key
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जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर आलेख संतोष जी।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बधाई।
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