इरोस्ट्रेटस (Erostratus) ज़्याँ
पाल सार्त्र (Jean-Paul Sartre) के कहानी संग्रह The Wall
(French: Le Mur) में संकलित है. इसका प्रकाशन 1939
में हुआ था.
विश्व युद्धों की गहरी निराशा और असहाय- बोध के बीच यूरोपीय दर्शन, कला और साहित्य में एक विचारधारा ने जन्म लिया जिसे हिंदी
में अस्तित्ववाद (Existentialism) कहते हैं.
असंगतता,
अतार्किकता और अवसाद से भरे विश्व में किसी सुसंगत विचार या
जीवन तक पहुंचना संभव नहीं है. सब कुछ एब्सर्ड है. सार्त्र को एक प्रमुख
अस्तित्वादी दार्शनिक के रूप में देखा जाता है.
इरोस्ट्रेटस में सार्त्र मनोवेग पर ज़ोर देते दिखते है, उनके कथा-वृतांत की सबलता और मनोगत अंतर्दृष्टि का यह असरदार
उदाहरण है. उनके पात्र और परिवेश 20 वीं शताब्दी के संघर्ष, जटिलताओं, विक्षिप्तता और रुग्ण वासना के
ही प्रतिबिम्ब हैं.
कहानी लम्बी है, अंग्रेजी से इसका अनुवाद हिंदी में सुशांत सुप्रिय ने किया है
जो खुद कथाकार – कवि हैं.
इरोस्ट्रेटस ( Erostratus )
ज़्याँ पाल सार्त्र
(अनुवाद : सुशांत सुप्रिय)
" तुम्हारा नाम क्या है? "
उसने अपने अधोवस्त्र उतार दिए और उन्हें कपड़ों के ढेर पर सावधानी से डाल दिया.
" शुरू हो जाओ , " मैंने उससे कहा , " कमरे में टहलती रहो ."
वह नग्न हालत में ही और पाँच मिनट तक कमरे में घूमती रही. फिर मैंने उसे अपनी छड़ी दी. वह चुपचाप वह सब करती रही जो मैंने उससे कहा. उसके बाद मैं उठा और मैंने उसे पचास फ़्रैंक का नोट थमा दिया. उसने वह नोट ले लिया.
पर उस रात मैं अचानक ही उठ बैठा. उसका चेहरा, उसे रिवॉल्वर दिखाते समय उसकी आँखों का भाव और हर सीढ़ी पर हिलता हुआ उसका थुलथुल पेट मुझे बीच रात में याद आने लगे .
(दो)
" नीग्रो ? " मसी ने पूछा .
इन्हीं शब्दों के साथ बातचीत ख़त्म हो गई , पर मैं एकदम शांत था.
मैंने वे एक सौ दो पत्र एक सौ दो लिफ़ाफ़ों में डाले और उन पर फ़्रांस के एक सौ दो लेखकों के पते लिख दिए. उसके बाद मैंने डाक-टिकटों की छह गड्डियों के साथ सब कुछ अपनी मेज की दराज में डाल दिया.
" हरामी कहीं का ," मैंने कहा , " सड़ा हुआ आदमी ! "
फिर मैं भागा. मैंने उसे खाँसते हुए सुना. मैंने शोर की आवाज़ और अपने पीछे भागते हुए क़दमों की चरमराहट भी सुनी. किसी ने पूछा , " झगड़ा हुआ था क्या ? " उसके ठीक बाद कोई चिल्लाया , " ख़ून ! ख़ून ! " मैंने सोचा , इस शोर का मुझसे कोई लेना-देना नहीं है.
लोगों को ऊँचाई से देखना चाहिए. बत्तियाँ बुझाकर कमरे की
खिड़की के पास खड़े हो जाइए. किसी को एक पल के लिए भी शक नहीं होगा कि आप उन्हें
वहाँ ऊपर से देख सकते हैं. लोग अपने सामने की चीज़ों के बारे में सचेत होते हैं.
कभी-कभार पीठ पीछे की चीज़ों के बारे में भी, किंतु उनका सारा ध्यान पाँच फ़ुट आठ इंच की ऊँचाई तक के
दर्शकों तक ही सीमित होता है. आठवीं मंज़िल से डर्बी टोपी कैसी दिखाई देती है, इस पर कब किसने ध्यान दिया है? चटकीले रंगों और भड़कीली पोशाकों का इस्तेमाल
करके अपने सिरों और कंधों को सुरक्षित रखने के बारे में वे सावधान नहीं होते.
उन्हें नहीं पता कि मानवता के इस बड़े शत्रु -- 'नीचे के दृश्य' का सामना कैसे किया जाए. मैं अकसर खिड़की की
चौखट पर झुककर हँसने लगता. वह सीधी मुद्रा कहाँ है जिस पर उन्हें इतना गर्व है--
वे पटरियों से चिपके होते थे और उनके कंधों के नीचे से दो लम्बी टाँगें निकल आती थीं.
आठवीं मंज़िल की बाल्कनी -- यही वह जगह है, जहाँ मुझे अपना सारा जीवन बिता देना चाहिए था.
आपको भौतिक प्रतीकों के साथ-साथ नैतिक श्रेष्ठताओं को थामना होता है, नहीं तो वे ढह जाती हैं. पर दूसरे लोगों की
तुलना में मुझमें क्या श्रेष्ठता है? स्थिति की श्रेष्ठता, और कुछ नहीं.
मैंने खुद को अपने भीतर के मनुष्य से ऊपर स्थापित कर लिया है और मैं इसका अध्ययन
करता हूँ. यही कारण है कि नौत्रेदेम की मीनारें, आइफ़िल टावर के छज्जे, साक्रे-कोऊर और रुए दे लांबे पर स्थित आठवीं मंज़िल -- ये
सब मुझे हमेशा पसंद रहे हैं. ये बहुत बढ़िया प्रतीक हैं.
कभी-कभी मुझे सड़क पर जाना पड़ता, जैसे दफ़्तर जाने के लिए, तो मेरा दम घुटने लगता. यदि आप उनके बराबर खड़े हों तो
लोगों को चींटी मानना बहुत मुश्किल होता है. वे आपसे टकराते हैं. एक बार मैंने
सड़क पर एक मरा हुआ आदमी देखा था. वह मुँह के बल गिरा हुआ था लोगों ने उसे सीधा
किया. उससे ख़ून बह रहा था. मैंने उसकी खुली आँखें और चौकन्नी निगाह देखी. उसका
ढेर-सा ख़ून देखा. मैंने खुद से कहा, " यह कुछ भी नहीं है. यह गीले रोगन जैसा लगता है, गोया उन्होंने
उसकी नाक पर लाल रोगन फेर दिया हो. बस." पर मुझे अपने पैरों और गर्दन में एक
घिनौनी शिथिलता महसूस हुई. मैं बेहोश हो गया. लोग मुझे दवाइयों की एक दुकान पर ले
गए. उन्होंने मेरे मुँह पर कुछ थप्पड़ लगाए और पीने के लिए कुछ दिया. मैं उनकी
हत्या भी कर सकता था.
मुझे मालूम था कि वे मेरे शत्रु हैं, पर वे यह नहीं जानते थे. वे एक-दूसरे को पसंद करते थे. वे
कोहनियाँ रगड़ते थे. वे यहाँ-वहाँ मेरी मदद भी कर देते थे क्योंकि वे सोचते थे कि
मैं भी उन जैसा हूँ. पर यदि वे सच का ज़रा-सा भी अंदाज़ा लगा पाते तो वे मुझे पीट
देते. बाद में उन्होंने ऐसा किया भी. जब उन्हें पता चल गया कि मैं कौन हूँ तो
उन्होंने मुझे पकड़ लिया और मेरी खूब पिटाई की. उन्होंने दो घंटे तक स्टेशन-हाउस
में मुझे मारा, मुझे थप्पड़ रसीद
किए, घूँसे चलाए और मेरे हाथ
मरोड़े. उन्होंने मेरी पतलून फाड़ दी और अंत में मेरा चश्मा ज़मीन पर फेंक दिया.
जब मैं घुटनों और कोहनियाँ के बल झुक कर उसे ढूँढ़ रहा था तो वे हँसे और उन्होंने
मुझे ठोकरें मारीं. शुरू से ही मैं जानता था कि वे मेरी धुनाई करेंगे. मैं
हट्टा-कट्टा नहीं हूँ और अपना बचाव नहीं कर सकता. उनमें से जो बड़ी डील-डौल वाले
थे, वे लम्बे अरसे से
मेरी तलाश में थे. यह देखने के लिए कि मैं क्या करूँगा, सड़क पर चलते हुए वे जानबूझकर मुझसे टकरा जाते. मैं उन्हें
कुछ नहीं कहता. मैं ऐसा जताता जैसे मैं कुछ भी समझा ही नहीं. लेकिन उन्होंने मुझे
फिर भी पकड़ लिया. मैं उनसे डरता था, पर ऐसा नहीं है
कि उनसे नफ़रत करने के लिए मेरे पास और गंभीर कारण नहीं थे.
जहाँ तक इस सब का संबंध है, उस दिन से सब कुछ बेहतर हो गया, जिस दिन मैंने रिवॉल्वर ख़रीद लिया. जब आप अपने पास विस्फोट
और ज़ोरदार आवाज़ करने वाली कोई चीज़ रख लेते हैं तो आप खुद को मज़बूत महसूस करते
हैं. मैं हर रविवार को रिवॉल्वर साथ ले कर बाहर निकलता. मैं उसे अपनी पतलून की जेब
में रख लेता और घूमने निकल जाता. मैं उसे अपनी पैंट पर केकड़े की तरह रेंगता महसूस
करता. वह मेरी जाँघ पर ठंडी लगती, लेकिन धीरे-धीरे
शरीर के स्पर्श से वह गरम होने लगती. मैं कुछ दृढ़ता के साथ चलता. मैं जेब में हाथ
डाल लेता और उस चीज़ को महसूस करता. हर थोड़ी देर बाद मैं पेशाब करने के बहाने
शौचालय जाता. वहाँ भी मुझे सावधान रहना पड़ता, क्योंकि मेरे अग़ल-बगल लोग होते. वहाँ मैं सावधानी से
रिवॉल्वर बाहर निकालता. उसका भार महसूस करता.
उसके चारखानेदार काले हत्थे और ट्रिगर को निहारता, जो अधखिली पलक की तरह दिखाई देता था. दूसरे लोग,
जो मुझे बाहर से देख रहे होते, वे सोचते कि मैं पेशाब कर रहा हूँ. पर मैं
शौचालय में कभी पेशाब नहीं करता.
एक रात मुझे लोगों को गोली से उड़ा देने का विचार सूझा. वह
शनिवार की शाम थी. मैं ली से मिलने गया था. वह रूए मोंतपारनास्से पर स्थित एक होटल
में धंधा करती थी. मैं कभी किसी औरत के साथ सोया नहीं था. इस क्रिया में मैं खुद
को लुटा हुआ महसूस करता. हालाँकि आप ऊपर होते हैं, किंतु जो कुछ मैंने सुना है, उससे स्पष्ट है कि इस व्यापार में कुल मिला कर वे ही फ़ायदे
में रहती हैं. मैं किसी से कुछ माँगता नहीं, पर मैं किसी को कुछ देता भी नहीं. अन्यथा मेरे पल्ले भी कोई
ठंडी, पवित्र स्त्री पड़ती,
जो मेरे सामने घृणा से आत्म-समर्पण करती.
मैं हर शनिवार को ली के साथ इकेंसे होटल में जाता और वहाँ
एक कमरा लेता. वहाँ वह अपने कपड़े उतार देती और मैं बिना छुए उसे देखता रहता. उस
रात वह मुझे नहीं मिली. मैंने कुछ देर इंतज़ार किया. चूँकि वह आती हुई नहीं दिखाई
दी, मैंने अंदाज़ा लगाया कि
उसे ज़ुकाम हो गया है. वह जनवरी की शुरुआत थी और बेहद ठंड पड़ रही थी. मैं
कल्पनाशील व्यक्ति हूँ और मैंने उस सारे आनंद को अपने सामने चित्रित कर लिया जो
मुझे उस शाम मिलता. रूए ओडिसा पर काले बालों वाली एक गठीली और मोटी औरत मौजूद थी.
मैं उसे अकसर वहाँ देखता. मैं प्रौढ़ स्त्रियों से घृणा तो नहीं करता, लेकिन वे जब कपड़े उतार देती हैं तो दूसरी
औरतों की तुलना में ज़्यादा नंगी लगने लगती हैं. दरअसल वह मोटी औरत मेरी ज़रूरतों
के बारे में कुछ नहीं जानती थी, और मैं एकदम से
उससे वह सब कहते हुए डर रहा था. हालाँकि मैं नए परिचितों के बारे में ज़्यादा
फ़िक्र नहीं करता, लेकिन यह भी तो
हो सकता है कि ऐसी औरत ने दरवाज़े के पीछे किसी उचक्के को छिपा रखा हो, जो अचानक ही झपट पड़े और मुझसे मेरे रुपए-पैसे
छीन ले. फिर भी, उस शाम मुझमें
साहस था. मैंने तय किया कि मैं वापस घर जाऊँगा, रिवॉल्वर उठाऊँगा और फिर वहाँ जा कर अपनी किस्मत आज़माऊँगा.
पंद्रह मिनट बाद जब मैं इस औरत के पास पहुँचा तो मेरा
रिवॉल्वर मेरी जेब में था और मैं किसी चीज़ से भयभीत नहीं था. क़रीब से देखने पर
वह बेचारी लगी. वह सड़क पार वाली मेरी पड़ोसन, पुलिस सार्जेंट की बीवी जैसी लग रही थी. मैं बेहद खुश था
क्योंकि मैं लंबे अर्से से उसे नंगा देखना चाहता था. जब सार्जेंट घर में नहीं होता
था तो वह खिडकी खोल कर कपड़े पहनती थी और मैं अकसर उसे एक नज़र देखने के लिए परदे
के पीछे खड़ा रहता था. पर वह हमेशा कमरे के कोने में कपड़े पहनती थी.
होटल स्तेला में छठी मंज़िल पर केवल एक कमरा ख़ाली था. हम
ऊपर गए. वह औरत काफ़ी भारी थी और हर सीढ़ी पर साँस लेने के लिए रुकती थी. मुझे
अच्छा लगा. तोंद के बावजूद मेरी देह हल्की-फुल्की है और मुझे थकाने के लिए छह से
ज़्यादा मंज़िलों की ज़रूरत है. छठी मंज़िल पर पहुँचकर वह रुकी और अपने दिल पर
दायाँ हाथ रखकर उसने गहरी साँस ली. उसके बाएँ हाथ में कमरे की चाबी थी.
मेरी ओर देखकर मुस्कराने का प्रयास करते हुए उसने कहा ,
" बहुत ऊपर है." मैंने
बिना कोई जवाब दिए उसके हाथ से चाबी ले ली और दरवाज़ा खोल दिया. जेब में डाले अपने
बाएँ हाथ में मैंने रिवॉल्वर पकड़ रखा था . मैंने उसे तब तक नहीं छोड़ा जब तक
मैंने बत्ती नहीं जला दी. उन्होंने वाश-बेसिन पर हरे साबुन की एक टिकिया रख दी थी,
जो एक ग्राहक के लिए काफ़ी थी. मैं मुस्कराया.
नहाने के पीढ़ों और साबुन के टुकड़ों की मुझे ज़्यादा ज़रूरत नहीं पड़ती. वह औरत
अब भी मेरी पीठ के पीछे गहरी साँसें ले रही थी. और यह सब मुझे उत्तेजित कर रहा था.
मैं घूमा और उसने अपने होठ मेरी ओर बढ़ा दिए, लेकिन मैंने उसे दूर धकेल दिया.
"अपने कपड़े उतारो." मैंने उससे कहा .
कमरे में एक आरामकुर्सी थी जो कपड़े से मढ़ी हुई थी. मैं उस
पर बैठकर आराम की मुद्रा में आ गया. ऐसे ही समय मुझे सिगरेट की तलब होती है.
उस औरत ने अपने कुछ कपड़े उतार दिए और मुझे अविश्वास से
देखते हुए रुक गई.
" तुम्हारा नाम क्या है? "
" रेनी."
" अच्छी बात है
रेनी, जल्दी करो. मैं इंतज़ार
कर रहा हूँ. "
" तुम कपड़े नहीं उतारोगे ? "
" तुम चालू रहो." मैंने कहा , "
मेरी फ़िक्र मत करो."
उसने अपने अधोवस्त्र उतार दिए और उन्हें कपड़ों के ढेर पर सावधानी से डाल दिया.
"तुम थोड़े सुस्त हो, प्रिये. क्या तुम अपनी प्रेमिका से ही सब कुछ करवाना चाहते
हो ? "
यह कहते हुए वह एकदम मेरी ओर बढ़ी और अपने हाथों के सहारे
कुर्सी के हत्थे पर झुकते हुए उसने मेरे सामने घुटनों के बल बैठने की कोशिश की.
मैं झटके से उठ खड़ा हुआ.
" ऐसा कुछ नहीं है." मैंने कहा.
" तो तुम मुझसे क्या चाहते हो ? "
"कुछ नहीं. केवल चहलक़दमी. आस-पास घूमो. इससे
ज़्यादा मैं तुमसे कुछ नहीं चाहता."
वह भद्दी चाल से कमरे में इधर-उधर घूमने लगी. औरतों को नग्न
हालत में चहलक़दमी करने से ज़्यादा कोई बात नहीं क्रोधित करती. एड़ियाँ ज़मीन पर
सीधी रखने की उनकी आदत नहीं होती. उस वेश्या ने अपनी कमर धनुषाकार कर ली और अपनी
बाँहें लटका लीं. मैं जैसे स्वर्ग में था -- गले तक कपड़े पहने मैं आरामकुर्सी पर
शांत बैठा था. मैं अपने दस्ताने तक पहने हुए था, जबकि वह औरत मेरी आज्ञा से कपड़े उतार कर नग्न हो गई थी और
मेरे सामने इधर-उधर घूम रही थी. उसने अपना सिर मेरी ओर घुमाया और दिखावे के लिए
कुटिलता से मुस्कराई.
अचानक मैंने उससे कुछ कहा.
" हरामी कहीं के !" वह शर्माते हुए होठों
में बुदबुदाई.
लेकिन मैं ज़ोर से हँसा. तब वह उछली और कुर्सी से अपने
अधोवस्त्र उठाने लगी.
" ठहरो ! " मैंने कहा, "अभी समय नहीं हुआ. थोड़ी देर बाद ही मुझे
तुम्हें पचास फ़्रैंक देने हैं लेकिन मुझे अपने पैसों की क़ीमत चाहिए."
अपने अधोवस्त्र पकड़ कर घबराए स्वर में वह बोली ,
" बहुत हो गया, समझे ? मुझे नहीं पता, तुम क्या चाहते
हो ? अगर तुम मुझे बेवक़ूफ़
बनाने के लिए यहाँ लाए हो , तो ... "
तब मैंने अपना रिवॉल्वर निकाल कर उसे दिखा दिया. उसने
गम्भीरता से मुझे देखा और बिना एक भी शब्द बोले अपने अधोवस्त्र वापस नीचे डाल दिए .
" शुरू हो जाओ , " मैंने उससे कहा , " कमरे में टहलती रहो ."
वह नग्न हालत में ही और पाँच मिनट तक कमरे में घूमती रही. फिर मैंने उसे अपनी छड़ी दी. वह चुपचाप वह सब करती रही जो मैंने उससे कहा. उसके बाद मैं उठा और मैंने उसे पचास फ़्रैंक का नोट थमा दिया. उसने वह नोट ले लिया.
" फिर मिलेंगे, " मैंने कहा, " उम्मीद है, इन पैसों के बदले
मैंने तुम्हें ज़्यादा नहीं थकाया."
पर उस रात मैं अचानक ही उठ बैठा. उसका चेहरा, उसे रिवॉल्वर दिखाते समय उसकी आँखों का भाव और हर सीढ़ी पर हिलता हुआ उसका थुलथुल पेट मुझे बीच रात में याद आने लगे .
क्या बेवक़ूफ़ी है , मैंने सोचा. मुझे बेहद अफ़सोस हुआ. जब मैं उसके साथ था,
मुझे तब उसे गोली मार देनी चाहिए थी. उसके पेट में अनेक छेद कर देने चाहिए थे. उस
रात और अगली तीन रातें अपने सपने में मैंने उसकी नाभि के चारो ओर छह गोल छोटे-छोटे
लाल छेद देखे.
(दो)
इस सब का नतीजा यह हुआ कि मैं रिवॉल्वर लिए बिना कहीं बाहर
नहीं निकलता. मैं लोगों की पीठ देखता और उनकी चाल से यह कल्पना करता कि यदि मैं
इन्हें गोली मार दूँ तो ये कैसे लगेंगे. मेरी आदत थी कि हर रविवार को शास्त्रीय
संगीत सभा ख़त्म होने के बाद मैं शातेले के आस-पास घूमता था.
छह बजे के क़रीब मैंने घंटी की आवाज़ सुनी और फिर वहाँ काम
करने वाले लोगों को शीशे के दरवाज़ों को खोलकर हुक से बाँधते हुए देखा. यह शुरुआत
थी. धीरे-धीरे भीड़ बाहर निकली. लोग मानो तैरते हुए क़दमों से चल रहे थे. आँखों
में अभी भी सपने सँजोए, दिलों में सुंदर
भावनाएँ लिए वे जैसे एक दुनिया से दूसरी दुनिया में आ रहे थे. मैंने अपना दाहिना
हाथ जेब में डालकर पूरी ताकत से रिवॉल्वर का हत्था पकड़ लिया. कुछ पल बाद मैंने
खुद को उन पर गोलियाँ चलाते देखा. मैंने उन्हें मिट्टी के मटकों की तरह तोड़ दिया.
गोली से उड़ा दिया. वे एक-एक करके उड़ते गए और बचे हुए भयभीत लोग दरवाज़ों पर लगे
शीशे को तोड़कर वापस थिएटर में भागने लगे. यह बहुत उत्तेजक खेल था. जब खेल ख़त्म
हुआ तो मेरे हाथ काँप रहे थे. मुझे अपना होश सँभालने के लिए त्रेहेर के शराबख़ाने
में जा कर कोन्याक पीनी पड़ी.
मैं स्त्रियों को जान से नहीं मारता. मैं या तो उनके गुर्दे
में गोली मारता या उनकी पिंडलियों में, ताकि वे नाचने लगें.
मैंने अभी तक कोई फ़ैसला नहीं किया था. पर मैंने हर काम
ध्यान से किया. मैंने छोटे-छोटे ब्योरों से शुरुआत की. मैं डेन्फ़र्ट-रोशेरो की 'शूटिंग-गैलरी' में अभ्यास करने गया. मेरा निशाना ज़्यादा सधा हुआ नहीं था, लेकिन आदमी बड़ा
लक्ष्य होता है. ख़ास करके तब जब आप नली सटा कर गोली मारते हैं. फिर मैंने अपने
विज्ञापन का प्रबंध किया. मैंने ऐसा दिन चुना जब मेरे सभी सहकर्मी दफ़्तर में
इकट्ठे हों. सोमवार की सुबह. मेरे उनके साथ हमेशा दोस्ताना संबंध रहे हैं, हालाँकि मैं उनसे हाथ मिलाते हुए डरता था. वे
अभिवादन करने के लिए अपने दस्ताने उतार लेते. हाथों को नंगा करने, दस्तानों को फिर से पहनने और उँगलियों पर
धीरे-धीरे सरकाने तथा झुर्रियों से भरी नग्नता को प्रदर्शित करने का उनका तरीका
बेहद अश्लील था. मैं अपने दस्ताने हमेशा पहने रहता.
सोमवार को हम ज़्यादा काम नहीं करते थे. व्यापारिक सेवा
विभाग से टाइपिस्ट हमारे लिए पावतियाँ ले आती थी. लोमोर्सिस खुश होकर उससे मज़ाक
करता और उसके चले जाने के बाद वे सब तृप्त भाव से उसकी सुंदरता की चर्चा करते. फिर
वे लिंडबर्ग के बारे में बात करते. मैंने उनसे कहा, " मुझे काले नायक पसंद हैं."
" नीग्रो ? " मसी ने पूछा .
" नहीं , काले. जैसे काला जादू में. लिंडबर्ग श्वेत नायक है. मुझे उसमें कोई रुचि
नहीं है."
" हाँ , अटलांटिक पार करना बहुत आसान है न ." बूखसिन ने खट्टे मन से कहा.
" मैंने उन्हें काले नायक की अपनी संकल्पना से
परिचित करवाया."
" अराजकतावादी ? "
" नहीं, " मैंने शांत भाव से कहा." देखा जाए तो अराजकतावादी
मनुष्य से प्रेम करते हैं."
" फिर वह कोई पागल होगा."
मसी कुछ पढ़ा-लिखा था. उसने हस्तक्षेप किया. "मैं
तुम्हारे पात्र को जानता हूँ." उसने मुझसे कहा , " उसका नाम इरोस्ट्रेटस है. वह प्रसिद्ध होना
चाहता था और उसे दुनिया के आश्चर्यों में से एक इफ़ीसस के मंदिर को जलाने से बेहतर
कोई काम नहीं सूझा."
" और उस मंदिर को बनवाने वाले व्यक्ति का क्या
नाम था ? "
" मुझे याद नहीं , " उसने स्वीकार किया." शायद कोई भी उसका नाम नहीं जानता
है. "
" सच ? लेकिन तुम्हें इरोस्ट्रेटस का नाम याद है. क्या तुम जानते हो , चीज़ों के बारे में उसकी कल्पना ज़्यादा बुरी
नहीं थी ."
इन्हीं शब्दों के साथ बातचीत ख़त्म हो गई , पर मैं एकदम शांत था.
समय आने पर उन्हें ये बातें याद आएँगी. मैंने इससे पहले
इरोस्ट्रेटस का नाम नहीं सुना था. पर मेरे लिए उसकी कथा प्रेरणा का स्रोत थी . वह
दो हज़ार साल से भी पहले मर चुका था, पर उसका कृत्य अब भी काले हीरे-सा चमक रहा था. मैंने सोचना शुरू किया कि मेरी
नियति लघु और त्रासद होगी. पहले मुझे डर लगा, किंतु फिर मैं इसका आदी हो गया. यदि आप इस बारे मे विशेष
दृष्टिकोण से सोचें तो यह भयानक लग सकता है, पर दूसरी ओर यह बीत रहे पल को काफ़ी शक्ति और सुंदरता
प्रदान करता है. सड़क पर चलते हुए मुझे अपने भीतर एक अजीब-सी ताकत का अहसास होता.
रिवॉल्वर मेरे पास था -- वह चीज़ जो, जो विस्फोट और आवाज़ करती है. लेकिन अब मुझे वह चीज़ शक्ति नहीं देती थी.
दरअसल शक्ति और विश्वास मेरे भीतर से उत्पन्न हो रहा था. जैसे मैं खुद किसी
रिवॉल्वर की तरह था , तारपीडो की तरह
था, बम की तरह था. मैं भी
अपने शांत जीवन के अंत में एक दिन फट जाऊँगा और मैग्नीशियम की तरह लघु और तेज चमक
से विश्व को प्रकाशमय कर दूँगा. उस समय मुझे कई रातों तक एक ही सपना आया. मैं
अराजकतावादी था. मैंने खुद को ज़ार के रास्ते में डाल दिया था और मेरे पास आग
उगलने वाला एक यंत्र था. निश्चित समय पर जुलूस निकला, बम फटा और हम भीड़ के सामने हवा में उछाल दिए गए -- मैं ,
ज़ार और सुनहरे फ़ीतों वाले तीन अधिकारी.
इसके बाद मैंने कई हफ़्तों तक दफ़्तर में अपनी शक्ल नहीं
दिखाई. मैं मुख्य मार्गों पर अपने भावी शिकारों के बीच घूमता या कमरे में बंद होकर
अपनी योजनाएँ बनाता. अक्टूबर के शुरू में उन्होंने मुझे नौकरी से निकाल दिया . तब
मैंने आराम से यह पत्र लिखा , जिसकी मैंने एक
सौ दो प्रतियाँ बनाईं --
'श्रीमन्
आप प्रसिद्ध व्यक्ति हैं और आपकी रचनाएँ हज़ारों की संख्या
में बिकी हैं. मैं आपको बताता हूँ, क्यों -- क्योंकि
आप मनुष्य से प्यार करते हैं. आपके लहू में मानवतावाद है. आप भाग्यशाली हैं. जब
आप लोगों के साथ होते हैं तो अपना विस्तार कर लेते हैं. जब भी आप अपने जैसा कोई
इंसान देखते हैं, आपमें उसके लिए
सहानुभूति उमड़ आती है, भले ही आप उसे
जानते भी न हों. आपमें उसके शरीर के प्रति, उसकी टाँगों के प्रति, और इन सबसे ज़्यादा उसके हाथों के प्रति रुचि है -- इससे
आपको ख़ुशी होती है, क्योंकि उसके हर
हाथ में पाँच उँगलियाँ हैं और वह बाक़ी उँगलियों के साथ अपना अँगूठा भिड़ा सकता है.
जब आपका पड़ोसी मेज़ से क़लम उठाता है तो आप खिल उठते हैं, क्योंकि उसे उठाने का एक तरीका है जो बेहद मानवीय है और
जिसका वर्णन अकसर आपने अपनी रचनाओं में किया है. यह किसी बंदर के तरीके से कम
लचीला और कम तेज है, लेकिन उससे कहीं
ज़्यादा समझदार तरीका है. आप भी आदमी की गहरे ज़ख़्म खाई मुद्रा से और उसकी
प्रसिद्ध दृष्टि से प्यार करते हैं. यह जंगली पशु के तौर-तरीक़ों से अलग है. इसलिए
आपके लिए इंसान से उसी के बारे में बात करने के लिए सही लहज़ा ढूँढ़ना आसान है --
मर्यादित, किंतु उन्माद से भरा हुआ.
लोग आपकी किताबों पर लालचियों की तरह टूट पड़ते हैं. उन्हें ख़ूबसूरत
आरामकुर्सियों पर बैठकर पढ़ते हैं. वे महान प्रेम के बारे में सोचते हैं -- शांत
और त्रासद प्रेम , जो आप उनके सामने
प्रस्तुत करते हैं. वह उनकी अनेक कमियों, जैसे बदसूरत होने, रिश्तों में
धोखेबाज़ी और पहली जनवरी को वेतन वृद्धि न होने की भरपाई कर देता है. तब वे ख़ुशी
से आपकी नई पुस्तक के बारे में कहते हैं -- अच्छी रचना है.
मुझे लगता है, आप यह जानने को
उत्सुक होंगे कि वह व्यक्ति कैसा होगा जो मनुष्य से प्यार नहीं करता. ठीक है ,
मैं वैसा ही आदमी हूँ और मैं उनसे इतना कम
प्यार करता हूँ कि जल्दी ही मैं बाहर जाकर उनमें से आधा दर्जन की हत्या कर दूँगा.
शायद आप हैरान होंगे कि केवल आधा दर्जन ही क्यों ? क्योंकि मेरे रिवॉल्वर में केवल छह गोलियाँ हैं. अमानवीयता
है न ? और एकदम असभ्य कृत्य?
लेकिन मैं आप को बताता हूँ कि मैं उनसे प्यार
नहीं करता. मैं समझता हूँ, आप क्या महसूस
करते हैं . किंतु जो कुछ आपको अपनी ओर खींचता है, वही मुझमें घृणा उत्पन्न करता है. मैंने आप ही की तरह लोगों
को हर वस्तु पर निगाह रखे, बाएँ हाथ से
इकोनॉमिक रिव्यू के पन्ने धीरे-धीरे पलटते हुए देखा है. क्या यह मेरी ग़लती है कि
मैं समुद्री सिंहों को भोजन करते हुए देखना अधिक पसंद करता हूँ ? इंसान अपने चेहरे को शरीर-विज्ञान के खेल में
बदले बिना उससे कोई काम नहीं ले सकता. जब वह मुँह बंद करके कुछ चबाता है तो उसके
जबड़े के कोने ऊपर-नीचे होते रहते हैं. मैं जानता हूँ, आप इस दुख भरे आश्चर्य को पसंद करते हैं. पर मुझे इससे
परेशानी होती है, न जाने क्यों ;
मैं शुरू से ही ऐसा हूँ.
यदि हम लोगों में केवल रुचियों का ही अंतर होता तो मैं आपको
कष्ट नहीं देता. पर यह सब कुछ ऐसे घटित होता है जैसे सारी सज्जनता आपमें ही है, मुझमें कुछ नहीं. मैं न्यूबर्ग झींगे को पसंद
या नापसंद करने के लिए तो स्वतंत्र हूँ, किंतु यदि मैं मनुष्यों को नापसंद करता हूँ तो मैं कमीना हूँ और सूरज की रोशनी
तले मेरे लिए कोई जगह नहीं. उन्होंने जीवन की संचेतना पर जैसे एकाधिकार कर लिया है.
मेरा ख़्याल है कि आप मेरा मतलब समझ जाएँगे. पिछले तैंतीस सालों से मैं ऐसे बंद
दरवाज़े खटखटा रहा हूँ जिन पर लिखा है -- 'यदि आप मानवतावादी नहीं हैं तो आपके लिए प्रवेश निषिद्ध है. ' मुझे सब कुछ त्यागना पड़ा है. मुझे चुनाव करना
पड़ा -- वह या तो असंगत और दुर्भाग्यपूर्ण प्रयत्न रहा या देर-सवेर वह उनके फ़ायदे
में बदल गया. मैं खुद को उन विचारों से अलग नहीं कर सका, जिन्हें बनाते समय मैंने उनका स्थान साफ़-साफ़ नियत नहीं
किया था. वे मेरे भीतर संघटित जातियों की तरह बने रहे. मेरे प्रयोग किए हथियार तक
उनके थे. उदाहरण के लिए, शब्द -- मैं अपने
शब्द चाहता था, किंतु जिन शब्दों
का मैं इस्तेमाल करता था , वे पता नहीं
कितनी चेतनाओं से घिसटकर निकले हैं. उन आदतों के कारण जो मैंने दूसरों से पाई हैं ,
वे खुद-ब-खुद मेरे ज़हन में क्रमबद्ध हो जाते
हैं. और यह भी असंगतिहीन नहीं है कि मैं लिखते समय उनका प्रयोग कर रहा हूँ.,
हालाँकि यह अंतिम बार है.
मैं आपको बताता हूँ, लोगों से प्रेम कीजिए वरना उन्हें हक़ है कि वे आपको बाहर
खदेड़ दें. ख़ैर, मैं खदेड़ा जाना
नहीं चाहता. जल्दी ही मैं अपना रिवॉल्वर लूँगा, नीचे सड़क पर जाऊँगा और यह सुनिश्चित करूँगा कि कोई उन
लोगों का कुछ बिगाड़ सके. अलविदा. शायद आप ही वह हों जिससे मैं मिलूँगा.
आप इस बात का अंदाज़ा बिलकुल नहीं लगा पाएँगे कि आपको हैरान
करने में मुझे कितनी ख़ुशी होगी. यदि ऐसा नहीं होता -- और इसकी सम्भावना ज़्यादा
है -- तो कल का अख़बार पढ़िएगा. उसमें आप पाएँगे कि पॉल हिल्बेयर नाम के शख़्स ने
उन्माद के पल में छह राहगीरों की हत्या कर दी. समाचारपत्रों के गद्य के महत्त्व को
आप औरों से अधिक समझते हैं. आप समझते हैं न कि मैं ' उन्मादी ' नहीं हूँ. इसके
ठीक उलट मैं एकदम शांतचित्त हूँ और महोदय, मैं आप से प्रार्थना करता हूँ कि आप इन विशिष्ट भावनाओं में मेरे विश्वास को
स्वीकार करें.
--- पॉल हिल्बेयर
मैंने वे एक सौ दो पत्र एक सौ दो लिफ़ाफ़ों में डाले और उन पर फ़्रांस के एक सौ दो लेखकों के पते लिख दिए. उसके बाद मैंने डाक-टिकटों की छह गड्डियों के साथ सब कुछ अपनी मेज की दराज में डाल दिया.
अगले दो सप्ताह मैं बहुत कम बाहर निकला. मैंने खुद को
धीरे-धीरे अपने अपराध में जज़्ब होने दिया. अकसर मैं शीशे में देखता कि मेरे चेहरे
में ख़ुशी से बदलाव हो रहा है. मेरी आँखें बड़ी हो गयी थीं. ऐसा लगता था जैसे वे
मेरे सारे चेहरे को खा रही हों. वे चश्मे के पीछे काली और कोमल लगती थीं और मैं
उन्हें नक्षत्रों की तरह घुमाता था. वे आँखें किसी कलाकार या हत्यारे की आँखों की
तरह तेज थीं, पर मैंने अंदाज़ा
लगाया कि सामूहिक हत्याओं के बाद उनमें और भी गहरा परिवर्तन होगा. मैंने दो
ख़ूबसूरत लड़कियों की फ़ोटो देखी है -- नौकरानियों की , जिन्होंने अपनी मालकिनों की हत्या करके उन्हें लूट लिया था.
मैंने उनके पहले के और बाद के चित्र देखे हैं. पहले के चित्रों में उनके चेहरे किसी
बदसूरत भूत के कॉलरों पर जमे शर्मीले फूलों-से दिखाई देते थे. किसी सतर्क घूँघट
बनाने वाली कंघी ने उनके बालों को बिलकुल एक जैसा आकार दिया था. उनके घुँघराले
बालों से भी ज़्यादा भरोसा दिलाने वाली चीज़ थी उनके कॉलर और फ़ोटोग्राफ़र के
सामने होने का उनका अहसास. उनमें बहनापे की समानता लगती थी -- एक ऐसी समानता, जो फ़ौरन ख़ून के रिश्तों और
प्राकृतिक-पारिवारिक सम्बन्धों को उजागर कर देती है. बाद की फ़ोटो में उनके चेहरे
आग जैसे दैदीप्यमान थे. उनकी गर्दनें उन क़ैदियों की तरह नंगी थीं जिनके सिर अभी
-अभी उड़ाए जाने हो. हर जगह झुर्रियाँ थीं. डर और घृणा की डरावनी झुर्रियाँ,
जैसे कोई हिंस्र पशु उनके चेहरों पर चला हो और
अपनी छाप छोड़ गया हो . और वे आँखें -- वे काली , उथली आँखें मेरी आँखों की तरह थीं.
" यदि यह अपराध, जो अधिकांश में केवल अवसर था, " मैंने खुद से कहा , " इन लड़कियों के चेहरों को बदलने के लिए पर्याप्त है,
तो मैं उस अपराध से क्या अपेक्षा नहीं कर सकता,
जिसकी कल्पना मैंने स्वयं की है और जिसे मैं
खुद शक्ल दूँगा . " वह मुझ पर अधिकार पा लेगा और मेरे सारे मानवीय भद्देपन को
दूर कर देगा ... अपराध , जो उसे दोहरे रूप
में करने वाले आदमी के जीवन को काट देता है. ऐसा समय आ सकता है जब कोई पीछे लौटना
चाहे, पर यह चमकदार चीज़ उस समय
आपके पीछे होती है, आपका रास्ता
रोकती हुई. मेरी माँग केवल एक घंटे की थी ताकि मैं अपने कृत्य का आनंद ले सकूँ.
मैंने ज़्यादा खर्चीली ज़िंदगी शुरू कर दी. मैंने रुए वेविन
पर स्थित एक रेस्तराँ के मालिक से सुबह-शाम अपना खाना मँगवाने का प्रबंध कर लिया.
वेटर ने घंटी बजाई पर मैंने दरवाज़ा नहीं खोला. मैंने कुछ मिनट इंतज़ार किया,
फिर दरवाज़ा आधा खोला और फ़र्श पर रखी थाली में
भाप छोड़ती बड़ी प्लेटें देखीं.
27 अक्टूबर को शाम छह बजे मेरे पास कुल 17 फ़्रैंक और 50 सेंतीमे बचे थे. मैंने अपना रिवॉल्वर उठाया, चिट्ठियों का पुलिंदा लिया और नीचे चला गया.
मैंने दरवाज़ा जानबूझकर बंद नहीं किया ताकि काम ख़त्म करके लौटते समय मैं ज़्यादा
तेज़ी से भीतर आ सकूँ. मेरी तबीयत ठीक नहीं थी. मेरे हाथ ठंडे हो गए थे और ख़ून
जैसे मेरे सिर में जमा हो रहा था. मेरी आँखों में जलन हो रही थी.
मैंने होटल देस एकोलेस और स्टेश्नरी वाली दुकान की ओर देखा,
जहाँ से मैं पेंसिलें ख़रीदता था. वे जानी-पहचानी नहीं लगीं. मुझे हैरानी हुई .
मैंने खुद से पूछा, " यह कौन-सी सड़क
है? "
बुलेवा द्यूत मोंते पर्रनास्से लोगों से खचाखच भरा हुआ था.
वे मुझे ठेल रहे थे. दबा रहे थे. अपनी कोहनियों या कंधों से मुझे धकेल रहे थे.
मैंने खुद को धक्का लगाए जाने का विरोध नहीं किया. मुझमें उनके बीच घुसने की ताकत
नहीं थी. किंतु अचानक मैंने खुद को उस भीड़ के बीचों-बीच पाया , भयावह रूप से लघु और अकेला. केवल चाहने भर से
वे मुझे चोट पहुँचा सकते थे. मैं अपनी जेब में पड़े रिवॉल्वर के कारण डरा हुआ था.
मुझे लगा कि लोग मेरे पास रिवॉल्वर होने का अनुमान लगा सकते हैं. वे अपनी तीखी
निगाहों से मुझे घूरते और अपने पाशविक पंजों से मुझे बेधते हुए ख़ुशी भरी घृणा से
कहते , " ऐ, तुम ... हाँ , तुम्हीं ... !" वे मेरे चिथड़े उड़ा सकते थे. वे मुझे
अपने सिरों से भी ऊपर उछाल सकते थे और मैं उनकी बाज़ुओं में कठपुतली की तरह वापस आ
गिरता. मैंने अपनी योजना को अगले दिन तक के लिए स्थगित कर देना बेहतर समझा. मैंने
कूपोले में जा कर भोजन किया. वहाँ मैंने 16 फ़्रैंक और 80 सेंतीमे ख़र्च
कर दिए. अब मेरे पास 70 सेंतीमे बचे थे
और मैंने उनको गटर में फेंक दिया.
मैं तीन दिनों तक अपने कमरे में बिना कुछ खाए, बिना सोए पड़ा रहा. मेरी आँखों के सामने अँधेरा
छाने लगा था और मुझमें इतना साहस भी न था कि मैं खिड़की के पास चला जाऊँ या बत्ती
जला लूँ. सोमवार को किसी ने दरवाज़े पर घंटी बजाई. मैंने अपनी साँस रोक ली और
प्रतीक्षा करने लगा. फिर मैं पंजों के बल चलकर गया और अपनी आँख चाबी के छेद से लगा
दी. पर मैं केवल काले कपड़े का टुकड़ा और एक बटन देख सका. उस आदमी ने दोबारा घंटी
बजाई . फिर वह चला गया. मुझे नहीं पता, वह कौन था. रात में मुझे तरोताज़ा करने वाली चीज़ें दिखाई दीं -- तालवृक्ष ,
बहता हुआ पानी और गुम्बद के ऊपर नीला, लोहित आकाश. मैं प्यासा नहीं था, क्योंकि मैं हर घंटे नल पर जा कर पानी पी लेता
था. पर मैं भूखा था.
मुझे वह वेश्या फिर दिखाई दी. या वह मेरी कल्पना थी. यह सब
एक क़िले में था जो शहर से 60 मील दूर कॉसेस
नॉएरस में था. वह नग्न थी. अकेली. मेरे साथ. रिवॉल्वर से डराते हुए मैंने उसे
घुटने के बल झुकने और हाथ-पैरों पर दौड़ने के लिए विवश कर दिया. फिर मैंने उसे एक
खम्भे से बाँध दिया और उसे अच्छी तरह यह
समझाने के बाद कि मैं क्या करने वाला हूँ, मैंने उसे गोलियों से भून दिया. इन वेश्याओं ने मुझे इतना परेशान कर दिया था
कि मुझे इसी से संतोष करना पड़ा. बाद में मैं अँधेरे में बिना हिले-डुले पड़ा रहा.
मेरा सिर एकदम ख़ाली था. पुराना पलंग चरमराने लगा. सुबह के पाँच बज रहे थे. मैं
कमरे से बाहर निकलने के लिए कुछ भी दे सकता था, पर मुश्किल यह थी कि सड़क पर लोगों के होने की वजह से मैं
नीचे नहीं जा सकता था.
फिर दिन निकल आया. अब मुझे भूख महसूस नहीं हो रही थी ,
लेकिन मुझे बेइंतहा पसीना आ रहा था. मेरी
क़मीज़ पूरी तरह भीग चुकी थी. बाहर धूप निकली हुई थी. तब मैंने सोचा -- "वह
बंद कमरे में अँधेरे से घिरा हुआ है. उसने तीन दिनों से न कुछ खाया है , न ही वह सोया है. उन्होंने घंटी बजाई और उसने
दरवाज़ा नहीं खोला. जल्दी ही वह सड़क पर जाएगा और हत्याएँ करेगा."
मैंने खुद को डराया. शाम को छह बजे मुझे फिर से भूख सताने
लगी. मैं ग़ुस्से से पागल था. मैंने मेज-कुर्सियों से ठोकर खाई. फिर मैंने कमरों, रसोई और शौचालय की बत्तियाँ जला दीं, और बेहद ऊँची आवाज़ में गाने लगा. इसके बाद
मैंने अपने हाथ धोए और बाहर चला गया. सारी चिट्ठियों को डाक के बक्से में डालने
में मुझे पूरे दो मिनट लग गए. मैंने उन्हें दस-दस करके भीतर धकेला. कुछ लिफ़ाफ़े
तो मैंने मोड़ भी दिए होंगे. फिर मैं बुलेवा द्यू मोंते पार्नास्से पर रुए ओडीसा
तक बढ़ गया. मैं एक बिसाती की खिड़की के आगे रुका और जब मैंने अपना चेहरा देखा तो
सोचा , " आज रात ! "
मैं रुए ओडीसा के सिरे पर रुक गया. सड़क का खम्भा मुझ से
ज़्यादा दूर नहीं था. मैं इंतज़ार करने लगा. दो औरतें एक-दूसरे की बाँहों में
बाँहें डाले गुज़रीं.
मुझे ठंडा पसीना आ रहा था . कुछ देर बाद मैंने तीन आदमियों
को आते हुए देखा . मैंने उन्हें जाने दिया. मुझे छह लोगों की ज़रूरत थी. बायीं ओर
वाले आदमी ने मुझे देखा और जीभ से चटकारा लिया . मैंने अपनी आँखें घुमा लीं.
सात बज कर पाँच मिनट पर एडगर-क्विनेट मुख्य मार्ग पर लोगों
के दो झुंड आए. उनमें दो बच्चे , एक पुरुष और एक
महिला थी. उनके पीछे तीन वृद्धाएँ थीं. मैं एक क़दम आगे बढ़ा. महिला ग़ुस्से में
लग रही थी और छोटे लड़के की बाँह खींच रही थी. पुरुष धीरे से बोला , "
कितना कमीना है ! "
मेरा दिल इतनी तेज़ी से धड़क रहा था कि मेरी बाँह पर चोट कर
रहा था. मैं आगे बढ़ा और उनके सामने खड़ा हो गया. जेब में मेरी उँगलियाँ रिवॉल्वर
के ट्रिगर को घेरे हुए थीं.
"माफ़ कीजिए." पुरुष मुझसे टकराते हुए बोला.
उसी समय मुझे याद आया कि मैंने अपने मकान का दरवाज़ा बंद कर दिया था और इससे मुझे
ग़ुस्सा आ गया. मैं जान गया कि मुझे उसे खोलने में अपना क़ीमती समय नष्ट करना
पड़ेगा. इस बीच वे लोग मुझसे और दूर होते जा रहे थे. मैं घूमा और यांत्रिक ढंग से
उनके पीछे चलने लगा , पर अब मुझमें उन
पर गोली चलाने की इच्छा नहीं बची थी.
वे मुख्य सड़क पर भीड़ में खो गए. मैं दीवार के सहारे खड़ा
हो गया. मैंने आठ और नौ बजे के घंटे सुने. मैंने खुद से दोहराया, " मैं इन लोगों को क्यों मारूँ जो पहले से ही मरे
हुए हैं !" और मैंने हँसना चाहा. एक कुत्ता आया और मेरे पैर सूँघने लगा.
जब वह लम्बा-तगड़ा आदमी मेरे पास से गुज़रा तो मैं उछल कर
उसके पीछे हो लिया. मैं उसके डर्बी हैट और ओवरकोट के कॉलर के बीच उसकी लाल गर्दन
की झुर्री देख सकता था. वह चलते हुए थोड़ा उचक रहा था और गहरी साँसें ले रहा था.
वह भारी-भरकम दिखाई देता था. मैंने जेब से अपना रिवॉल्वर निकाला. वह ठंडा और
चमकदार था. उसने मेरे भीतर नफ़रत पैदा कर दी. मैं यह अच्छी तरह याद नहीं कर पा रहा
था कि आख़िर मुझे उससे क्या काम लेना है. कभी मैं रिवॉल्वर को देखता, कभी उस आदमी की गर्दन को. मुझे लगा जैसे उसकी गर्दन
की झुर्री मुझ पर कड़वी मुस्कान फेंक रही थी. मुझे हैरानी हुई कि कहीं मैं अपना
रिवॉल्वर नाले में न डाल दूँ.
अचानक वह आदमी मुड़ा और मुझे घूरने लगा. वह चिढ़ा हुआ था.
मैं पीछे हटा.
" मैं आपसे पूछना चाहता था .... "
लगता था जैसे वह सुन ही नहीं रहा था. वह केवल मेरे हाथों की
ओर देख रहा था. मुझे बात आगे बढ़ाने में मुश्किल हुई, " ... कि रुए दे लागाइते को कौन-सा रास्ता जाता है ? "
उसका चेहरा भारी था. उसके होठ काँप रहे थे. वह कुछ नहीं
बोला. उसने अपना हाथ आगे बढ़ाया. मैं और पीछे हटा और बोला , " मैं चाहता ..."
तब मैं जानता था कि मैं चीख़ना शुरू कर दूँगा. मैं यह नहीं
चाहता था. मैंने उसके पेट पर तीन बार गोली चलाई. वह बेवक़ूफ़ाना भाव लिए घुटनों के
बल गिरा और उसका हाथ बाएँ कंधे पर लुढ़क गया.
" हरामी कहीं का ," मैंने कहा , " सड़ा हुआ आदमी ! "
फिर मैं भागा. मैंने उसे खाँसते हुए सुना. मैंने शोर की आवाज़ और अपने पीछे भागते हुए क़दमों की चरमराहट भी सुनी. किसी ने पूछा , " झगड़ा हुआ था क्या ? " उसके ठीक बाद कोई चिल्लाया , " ख़ून ! ख़ून ! " मैंने सोचा , इस शोर का मुझसे कोई लेना-देना नहीं है.
मैंने केवल एक बहुत बड़ी ग़लती कर दी थी -- रुए ओडीसा पर
एड्गर क्विनेट की ओर भागने के बजाए मैं बुलेवा द्यू मौंतेपार्नास्से की ओर भाग रहा
था. जब मुझे इसका अहसास हुआ तब तक बहुत देर हो चुकी थी. मैं भीड़ से घिर चुका था.
हैरानी से भरे हुए चेहरे मुझे घूर रहे थे, ( मुझे एक महिला का
भारी और खुरदरा चेहरा याद है जो पंखों के गुच्छे वाली एक टोपी लगाए थी) और मैंने
अपने पीछे रुए ओडीसा से आने वाली चिल्लाहटें सुनीं -- "ख़ून , ख़ून ! "
एक हाथ ने मुझे कंधे से पकड़ लिया. मैं अपना मानसिक संतुलन
खो बैठा. मैं इस भीड़ के हाथों पिट कर मरना नहीं चाहता था. मैंने दो बार गोली चला
दी. लोगों ने चीख़ना और इधर-उधर भागना शुरू कर दिया. मैं एक कैफ़े में घुस गया.
मैं जब खाने-पीने वालों के बीच से हो कर भागा तो वे सब चौंके, पर किसी ने मुझे रोकने की कोशिश नहीं की. मैंने
कैफ़े के अंत में स्थित शौचालय में खुद को बंद कर लिया. अभी मेरे पास रिवॉल्वर में
एक गोली बाक़ी थी.
कुछ पल बीत गए. मैं बुरी तरह हाँफ़ रहा था और मेरी साँस फूल
गई थी. सब कुछ असामान्य रूप से मौन था , जैसे लोग जानबूझकर शांत हों.
मैंने रिवॉल्वर को अपनी आँखों के सामने किया और उसका
छोटा-सा छेद देखा, गोल और काला -- वहाँ
से गोली निकलेगी, पाउडर मेरा चेहरा
जला देगा. मैंने बाँह नीचे की और इंतज़ार करने लगा . कुछ पलों के बाद वे आ गए.
काफ़ी भीड़ होगी -- मैंने फ़र्श पर पैरों की आहट से अनुमान लगाया . वे कुछ
फुसफुसाए और फिर शांत हो गए. मैं अभी ज़ोर-ज़ोर से साँस ले रहा था और सोच रहा था
कि दरवाज़े के दूसरी ओर वे मेरी साँसों की आवाज़ सुन रहे होंगे. उनमें से कोई आगे
बढ़ा और उसने दरवाज़े की कुंडी घुमाई. वह मेरी गोली से बचने के लिए ज़रूर दरवाज़े
से चिपका खड़ा होगा. मैं अभी गोली चलाना चाहता था, लेकिन अंतिम गोली मेरे लिए थी.
वे किसलिए प्रतीक्षा कर रहे हैं ? मुझे आश्चर्य हुआ. अगर उन्होंने अचानक झटके से दरवाज़ा तोड़
दिया तो मेरे पास इतना भी समय नहीं होगा कि मैं खुद को गोली मार सकूँ और वे मुझे
ज़िंदा पकड़ लेंगे. पर उन्हें कोई जल्दी नहीं थी. वे मुझे मरने के लिए बहुत समय दे
रहे थे. हरामज़ादे , सब-के-सब डरे हुए
थे.
कुछ देर बाद एक आवाज़ ने कहा , " ऐ ... दरवाज़ा खोल दे. हम तुझे मारेंगे नहीं ."फिर ख़ामोशी छा गई और उसी आवाज़ ने दोबारा कहा , " तू बचकर नहीं निकल सकता ."
मैंने कोई जवाब नहीं दिया. मैं अभी भी हाँफ़ रहा था. गोली
चलाने लायक हिम्मत जुटाने के लिए मैंने खुद से कहा, " अगर उन्होंने मुझे पकड़ लिया तो वे मुझे पीटेंगे, मेरे दाँत तोड़ देंगे. हो सकता है , मेरी एक आँख ही निकाल लें."
क्या वह विशालकाय आदमी मर गया था ? या मैंने उसे सिर्फ़ घायल किया था ? शायद दूसरी दोनों गोलियाँ भी किसी को न लगी हों .... वे लोग
कुछ तैयारी कर रहे थे. वे फ़र्श पर कोई भारी चीज़ घसीट रहे थे. मैंने तेज़ी से
रिवॉल्वर की नली अपने मुँह से लगाई. पर मैं गोली नहीं चला पाया, यहाँ तक कि मैं अपनी उँगली भी ट्रिगर पर नहीं
रख पाया. चारो ओर गहरा सन्नाटा था .


मैंने रिवॉल्वर फेंककर दरवाज़ा खोल दिया.
____________
सुशांत
सुप्रिय
A-5001, गौड़
ग्रीन सिटी, वैभव
खंड , इंदिरापुरम,
ग़ाज़ियाबाद -201014 (उ. प्र.)
मो:
8512070086
/ई-मेल : sushant1968@gmail.com
समालोचन के पोस्ट अपनी गुणवत्ता और सन्दर्भों से चकित करते हैं मुझे।
जवाब देंहटाएंमैंने भी सार्त्र की कुछ कहानियों का अनुवाद किया है। उन्हें एक बार फिर से टाईप करना होगा। भेजूँगा आपको।
जवाब देंहटाएंएक जमाना था जब सार्त्र के Existentialism पर लोगों का काफी रुझान था । वर्तमान प्रसंग में आपने इस ism की अच्छी याद दिलाई । निराशा , हताशा , क्षणवाद ,विद्रोह , अकेलापन , अस्तित्व आदि पर आधारित इस दर्शन से कई भाषाओं के साहित्य प्रभावित रहे ।
जवाब देंहटाएंआपकी स्वाध्याय की प्रवृत्ति चिरंजीवी रहे ताकि हमें भी पुनरावलोकन का मौका मिलता रहे , यही शुभकामना है ।
इस कहानी ने तो साठ के दशक के मेरे कॉलेज के दिन हू-ब-हू लौटा दिए. अभी भी मैं उसी ट्रांस में हूँ.
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