सैराट फ़िल्म का एक दृश्य |
मराठी फ़िल्म सैराट की विष्णु खरे की विवेचना से आरम्भ इस
वाद-विवाद- संवाद में अब तक आपने आर. बी. तायडे (इंग्लिश), कैलाश वानखेड़े, जयंत पवार (मराठी),
भारत भूषणतिवारी (अनुवाद), मयंक सक्सेना, टीकम शेखावत, सारंग उपाध्याय और संदीप सिंह के आलेख पढ़े. अब रंग आलोचक सत्यदेव त्रिपाठी
का यह आलेख खास आपके लिए.
मैं समझता हूँ
यह बहस सार्थक रही होगी, यह व्यापक और गहरी थी, इसमें अंतर-भाषाई सहयोग रहा. और
इसने बड़ी संख्या में पाठकों का ध्यान खींचा.
सत्यदेव त्रिपाठी ने क्या खूब लिखा
है, रंगमंचीय अंदाज़ का भी रंग यहाँ जमा है.
सिरफिरों का प्रेम-जुनून : विद्रोह से हलाल होने तक
मुझे स्वीकर करना है कि ‘सैराट’ देखने से रह गयी थी. अरुण देवजी
के आग्रह के बाद ही देखी. यू ट्यूब से मन नहीं माना, तो 35 सीटों वाले ‘गुलमोहर’
में मिली. वहाँ पता चला कि परिसर की बडी टाकिज़ में 8 सप्ताह चलकर निकल गयी, तो लगा
कि मेला उठ गया. लहर उतर गयी, शंख-सीपियां खरे-खरे (विष्णु) लोग खडे-खडे बीन ले
गये, पर छोड गये यह जानना कि लहर के दौरान ‘विरूपित इस सिकता (सैराट) पर क्या
बीती’..
सो, यहाँ होगा - सिकते की जानिब से उसकी आपबीती को देखने का प्रयत्न
...
परंतु उसके पहले यह, कि देख रहा हूँ ‘सैराट’ की चर्चा फिल्म से ज्यादा
इसके चलने को लेकर हो रही है - उसके कारणों की छान-बीन में अटकी है - गोया न चलती,
तो इतनी चर्चा न होती!! सो, ‘हिट होने से हिट होने तक’ ही अधिकांश चर्चाओं
की नियति बन गयी है. इतने चश्मे आ गये कला के बाज़ार में कि ऑंख से देखने की नौबत ही
न रही.... इससे थोडा पहले आयी ‘नटसम्राट’ भी हिट हुई, उसकी भी चर्चा कम न
हुई, पर ऐसी सर चढकर न चर्चा हुई, न बॉक्स ऑफिस पर वह इस तरह सर चढी....
लेकिन इन्हीं फेरों में ‘सैराट’ के फिट होने की तलाशें दब गयीं, जो
‘नटसम्राट’ के साथ नहीं हुआ. क्या ‘नटसम्राट’
ने होने न दिया?
तो क्या ‘सैराट’ ने होने दिया? क्या कुछ ऐसे समावेश ‘सैराट’ में हुए और
इस तरह हुए कि नुस्ख़े बन गये और फिल्म में निहित ‘पुरसिशे अल्लाह’ को भूल कर ‘सभी यह
पूछते हैं आपकी तनख़ाह कितनी है’!!
तनख़्वाह पूछने की बात वाली ‘सैराट’ से प्रादेशिक फिल्मों में भी एक
गहरे विश्वास के साथ ब्लॉकबस्टर बनाने की ज़ोरदार छूत (इन्फेक्शन) लगने की सम्भावना
प्रबल हो उठी है – अभी ‘बराड’ के चल निकलने की चर्चा हुई.... काश, यह छूत
‘नटसम्राट’ वाली लगती, तो मराठी में वह खाँटी संस्कृति प्रभावित न होती, जिसमें
अपनी पसन्द व अपनी तरह का काम करने की गहन-गुह्य प्रवृत्ति है, वरना क्या बात है
कि भारतीय सिनेमा का जनक होने के बावजूद मराठी सिनेमा हिन्दी सिनेमा की दुर्गति से
बचा रहा और अच्छे सिनेमा के प्रतिशत में भी पीछे न रहा. इसी छूत से भोजपुरी
फिल्मों ने उस कमनीय भाषा व खाँटी संस्कृति का सत्यानाश करके रख दिया है. ख़ुदा न
करे, ऐसा कुछ मराठी के साथ हो...
लेकिन यदि हुआ, तो मराठी संस्कृति को ‘सैराट’ नहीं, इसकी सफलता
तोडेगी, जो निर्देशक के जाने कम, अनजाने ज्यादा आयी है. इसे हमारे गाँव में ‘99 का
चक्कर’ (नमक-रोटी खाकर हाथी को पूँछ से खींचकर खडा कर देने वाले के घर में अमीर
पडोसी ने ईर्ष्यावश 99 रुपये रुपये का बण्डल फेंक दिया, जिसे सौ करने के चक्कर ने
उसकी सारी ताक़त हर ली) कहते हैं, जो ‘सैराट’ से चल सकता है.
तो आइए, निर्देशक के जाने में की गयी ‘पुरसिशे अल्लाह’ की उन
कोशिशों की बात करें, जो अनजाने में तनख़्वाह के नुस्ख़े बन गयीं - ‘मैं अपने ही बेसुधपन में लिखती हूँ कुछ,
कुछ लिख जाती’...वाले कला के सच की तरह.
दो सवाल हैं सामने...
पहला - यदि फिल्म में प्रेमी युग्म का क़त्ल (इसे ‘शोकांतिका’ वाला
साहित्यिक नाम देना जँच नहीं रहा) न होता, तो क्या फिल्म इतना ही चलती? या
‘गुडी-गुडी’ (जैसे राजा-रानी के दिन फिरे, सबके फिरें) वाला मानके
छोड दी जाती? लोग अन्तरजातीय विवाहों को यूँ स्वीकारते, जो ख़बरें आ रही हैं?
दूसरा – हत्या होती, पर दलित-सवर्ण नुस्ख़ा न होता, तो क्या इतना चलती, यह सब होता? मछुआरे व उद्योगपति
के रूप में सचमुच ही नुस्ख़ा था. हत्या की प्रतिरूप आत्महत्या होते-होते नहीं हुई
थी, तो भी ‘बॉबी’ चली थी. उनके बचने में एक गहन मानवीय टच का टर्न अचानक आ
गया था, जो सामाजिक न होकर नितांत वैयक्तिक था (बेटे के बाप ने कहा – मेरी बेटी
जिन्दा है, तो बेटी के बाप ने कहा- मेरा बेटा भी जिन्दा है). ‘सैराट’ में यह
बेहद सामाजिक है. टच न होकर फिल्म का सुचिंतित हिस्सा है और टर्न न होकर
यही फिल्म है, जो सिरफिरे सैलानियों (सैराटों) की जीतोड ज़द्दोज़हद के बाद एक स्तरीय
जीवन बन गया है. उसे नागराज पोपटराव मंजुले ने त्रासद के रूप में फिल्म का
निर्णायक (विष्णु खरे का ‘हल’!!) बना दिया!!
क्या यह इसलिए ज़रूरी था, जैसा कि सन्दीप सिंह ने उद्धृत किया
है कि फ्लेविया वकील जैसों के आँकडों में आज भी ‘महाराष्ट्र में अंतरजातीय विवाह
के खिलाफ हत्याओं की लिस्ट’ का प्रतिशत काफी है? नागराजजी और सन्दीपजी, क्या कला
का यथार्थ इतना टिका होता है आँकडों पर और शॉक ट्रीटमेंट पर? या कला का अपना भी
कोई अस्तित्त्व होता है? इस आँकडेबाज़ी के अनुसार तो ‘कफ़न’ की गिनती ही साहित्य व
कला में नहीं होनी चाहिए, क्योंकि पत्नी-बहू के कफ़न के पैसों की शराब पी जाने
वालों का प्रतिशत तो ज़ीरो या 0.1 ही होगा.
यही हाल गाँव का है, जो फिल्म में बडा महत्त्वपूर्ण है. सभी कहते हैं
कि गाँव ऐसा ही होता है और गाँव में ऐसा ही होता है. हमारे स्कूल-कॉलेजों में तो ऐसा
नहीं होता.... जितना मिलते हैं आर्ची-पर्श्या, उतने में तो कई-कई प्रलय आ जाती. और
पाटिल-बच्चे का टीचर को झापड वाला सामंतवाद आज कहाँ है? हाँ, सल्या व लँगडे जैसे
दोस्त अवश्य मिल जाते हैं, जो किसी लाभ-लोभ के बिना, मात्र दोस्ती के लिए जिन्दग़ी
और जान की बाज़ी लगा देते हैं. लेकिन शहर में भी पनाह देकर बसाने वाली ताई कितनी
मिलती हैं? लेकिन ‘सैलाट’ की ये ताई है बडी रीयल और ऐसी ताइयों की को सिरजे बिना
कोई भी कला अपनी बात कहाँ कह पाती है. ग़रज़ ये कि आँकडों और यथार्थ के भिन्न-भिन्न
रूप व मर्म होते हैं.
और वर्ण-विकास को लेकर ऐसे सैराटी जीवन का ऐतिहासिक यथार्थ न होता, तो
क्षितिमोहन सेन आदि विद्वानों के गहन शोध-अध्ययन के साक्ष्य पर भारत में
इतनी जातियां न बन पातीं. फिर यह ‘ऑनरकिलिंग’ जरूरी क्यों थी? क्या फिल्म का मक़सद
ही ऑनरकिलिंग था? यदि हाँ, तब तो फिल्म भटक गयी - जीवन की फिल्म हो गयी (अपने
ही बेसुधपन में...) और हत्या का मक़सद पेबन्द बन गया, जो पूरी पोशाक पर भारी
पडा. और यदि मक़सद ऐसा नहीं था, तो फिर इस हत्या में बहक गयी फिल्म. भागने के पहले
व भागने के दौरान की यातनायें व शातिर इरादे क्या दलित प्रेमी की ‘कैरियर किलिंग’
का संकेत नहीं कर चुके थे, जिसके खिलाफ सैराट होकर बना एक अदद जीवन. या यह जीवन का
मायाजाल बुना गया, जिससे दोनो की हत्या का यश लूटा जा सके और मात्र दलित-दमन के
कॉमन ईशू से बडा कुछ खडा किया जा सके, ताकि फिल्म हिट हो और उच्च कुलीन कन्या भी
क्यों बचे !!
कैसा स्वतोव्याघात (ख़ुद-इन्कारी) है कि ख़ून के धब्बे छोडते बच्चे के
क़दम से जो संकेत मंजुले जी देते हैं, ठीक पहले उसी के साकार रूप की हत्या करा चुके
हैं - सर काटकर बालों की रक्षा!! ऐसे में यथार्थ का यह संकेत क्या कैमरे का निशान
भर बनकर नहीं रह जाता? और इस ख़ून-सने अंत की यह कनिंग्नेस ही तो आम दर्शक से
झिंझाट नहीं कराती? क्या कहें लोकमन की!!
इतना कुशल लगता है निर्देशक पूरे रूपायन में, पर क़त्ल को शॉकिंग ट्रीटमेंट
देने के चक्कर में उस ‘हम पंछी इक चाल के’ जैसे मुहल्ले की प्रकृति का
इस्तमाल बच्चे को दूर करने के लिए तो करता है, ताकि उसे जिन्दा रखकर संकेत दिया जा
सके, लेकिन फिर उतनी देर तक वहाँ कोई परेवा भी कैसे नहीं फटकता!! या निर्देशक
फटकने नही देता...? सो, दृश्य बन गया अपवाली भरा व अंतर्विरोधी. क़ातिल भाई बन गया निर्देशक
का कठपुतली और जिस मातृत्त्व की डोर से बेटी-पोते का पता चला था, उसे तो पुतली
जितनी भी तवज्जो न मिली. पिता अंतर्ध्यान रहा.... ग़रज़ ये कि वर्ण-वर्ग वृत्ति को
लेकर रुटीन धारणा का इकतरफा अंजाम परोस दिया गया. दर्शक की आँख में धूल झोंकी गयी.
इस निर्णायक घटना का हर तरह से मनमाना इस्तेमाल हुआ. रिश्ते व मनुष्य की प्रवृत्ति
को लेकर अपने कन्विक्शन को स्पष्ट करने की ज़रूरत न महसूस की गयी.
यहाँ तक पहुंचकर उस तिल-तिल कर बने जीवन का नष्ट हो जाना प्रेम की उस
बुनियाद को भी हिला देता है, जिसके सैराटपने के बल यह जीवन बना था. अंत की भयंकरता
और ‘मुँहज़ोर तुरंग ज्यों’ कहीं की कहीं खींच ले गयी विष्णु खरे की बहुत हद तक खोटी
टिप्पणियों ने सारी चर्चाओं के मुँह इस क़दर फेर दिये कि सबकुछ के नियामक उस ख़ाँटी
मसृण भाव का यह दुर्दमनीय (सैराट) जज़्बा ही जज़्ब होकर रह गया, जिसमें निहित है
मंजुले की कारग़र कारीगरी.
और वही सब तो फिल्म है, फिल्म का मजा है. मेरे मते सफलता का कारक भी
वही है. कोई देखता ही नहीं कि आधी फिल्म उन्मत्त सैलानी (सैराट) रोमांस है – जान
देने की कीमत पर. यही सैराटपना आज के भौतिक दबावों में खत्म हो रहा है, पर मनों
में पीर बनकर कहीं गडा रहता है, जो फिल्म के सैराट में भा रहा है. इसे सहजता व
संजीदग़ी से पेश करना इसकी सिवा ख़ासियत है. फिर शेष आधी फिल्म उसी जज़्बे को सार्थक
करने, बसाने का अनथक-सतत प्रेम (सैराट) है. इस दोपट में दरेरे जाकर मसल उठते हैं
वर्ण व वर्ग के भेद. पर्श्या-आर्ची के ज़रिए इस प्रक्रिया का ऐसा सूझ-बूझ भरा
नियोजन करते हैं मिस्टर नागराज कि शिष्टजन और बहुजन दोनो सध जाते हैं.
दोनो की वर्गीय व वर्णीय वृत्तियों की नुमाइन्दगी क़ाबिलेग़ौर है.
सामर्थ्य के विश्वास से भरी आर्ची ही समाज के समक्ष हर तरह की पहल करती है – चाहे
वह पर्श्या के घर पानी पीना हो या भागने का प्रस्ताव. दोनो रूपों में विपन्न
पर्श्या सिर्फ पिटता है, वरना दो-एक हाथ तो मार ही सकता था. वहीं आर्ची जान पर खेल
कर मुक़ाबला करती है. उसी के हार के पैसे से जीवन चलता है. लेकिन शहर पहुंचकर ख़स्ताहाल
जीवन के समक्ष जब आर्ची की उच्च वर्ग-वर्ण वाली प्रकृति पस्त हो जाती है, तब
पर्श्या की वर्गीय सामर्थ्य काम करती है - दिन भर काम करता है, फिर घर की सफाई भी.
काम से लौटने के बाद खाना न बना देख बनाता भी है और अनमनी आर्ची को अपने हाथ से
खिलाता भी है. भयंकर अभाव के बीच आर्ची की वृत्ति उस तस्वीर को खरीदने में भी स्पष्ट
है और उस पर पर्श्या की चुप्पी में भी. इस तरह फिल्म में वर्ग-चेतना इसकी नियामक
है’ पर यह सामर्थ्य देता है सिर्फ प्रेम, वरना यह सब यूँ ही नहीं होता.... फिर
इनकी चर्चा नदारद क्यों है खरेजी...? और वर्ण चेतना को अचानक संहारक बनाते हुए ऑनर
किलिंग हावी क्यों है? ये क्या कर दिया मंजुले तुमने?
प्रेम-भाव के फिल्माने में भी निर्देशक की सोच-समझ ऐसी ही सटीकता लिये
हुए है. पर्श्या में यह भाव कब उपजा, कैसे पनपा, तो नहीं दिखता; पर अपने प्रिय
क्रिकेट के महत्त्वपूर्ण मुक़ाबले को छोडकर आर्ची को एक झलक देखेने भर के लिए खेत
में छिपे रहना और फिर बावडी में नहाने आयी जानकर अनजान बनते हुए झम्म से कूद पडना
उसके जज़्बे की दुर्निवारता (सैराटपना) नहीं तो और क्या है? बावडी से निकलते हुए
सीढियों पर आर्ची पहली बार देखती है पर्श्या की ‘बेबाक़ी नज़र की औ मुहब्बत की
ढिठाई’ को. फिर चिट्ठी के भेजने-लौटाने की जगलरी में ‘दोनो ओर प्रेम पलता है’,
पर उसे सरेआम प्रकट करती है आर्ची - अपने लिए पर्श्या को पीटने वाले को फटकार
कर.... इसके बाद ही भरी क्लास में किसी की परवाह किये बिना पर्श्या को एकटक देखने
में उसकी बावडी वाली किंचित ढिठाई की बेबाक़ जवाबी तो है ही, बाइक-ट्रैक्टर से
खेतों में मिलने से लेकर पार्टी में घर बुलाने तक ड्राइविंग सीट पर वही है. झिंझाट
के जोश में मस्त पार्टी से पर्श्या को लेकर बाहर एकांत में चले जाने वाला उसकी
नवची जवानी (टीनएज) का अफाट आवेग (सैराट) सबसे ख़तरनाक सिद्ध होता है.
सैराट फ़िल्म का एक दृश्य |
मुम्बई में मैंने पाया कि कुछ उच्च्वर्णीय बुधजनों में कथित रूप से बिना देखे ही ‘सैराट’ के प्रति निषेध का एक अयाचित भाव है. वे अपनी अरुचि का कारण बावडी में नहाने और पर्श्या के सपने में अधखुली बदन की आर्ची वाले दृश्यों को बताते हैं, जो मुझे अपने गाँव की पंचायतों में मेहरी छोडने पर उतारू पति द्वारा साग में हल्दी न डालने के आरोप जैसा लगता है. वे अन्दर जाते, तब न देखते कि जीवन-यथार्थ की विडम्बना भी विरल कलात्मकता का सबब व सुफल कैसे बन जाती है, जब पतरे की बाड वाली खोली में ये दोनो (हीरो-हिरोइन!!) अपनी पहली रात बिताते (‘हनीमून’ मनाते!!) हैं. मोटे-से ओढने के अन्दर एक दूसरे को गुदगुदी करते दो दिलों के हहास में हिचकोले खाती गठरी (डांसिंग कार को याद करें?) आधे मिनट में शांत हो जाती है.... तब देख पाते उस सचाई को, जो कालांतर में साथ रहते हुए हर ‘सैराट’ के जीवन में आती है. पिता-पुलिस से लड पडने वाली आर्ची पर्श्या के थप्पड व घेघा दबाने पर भी हाथ तक नहीं उठाती. लेकिन पर्श्या के मनौवल पर मान छोडती भी नहीं. नाराज़ होकर घर के लिए ट्रेन पकड लेती है. यह मुक़ाम भी ज़रूरी है - प्रेम की परख के लिए. वह होती है उस वृद्ध भिखारी दम्पति समक्षता में, जहाँ स्त्री भीख माँगकर भी अपने अन्धे पति की साज-सम्हार कर रही है.... और आर्ची वापस आ जाती है. इधर दिखता है फँसडी लगाने का फन्दा टांगे बैठा पर्श्या.
इसके बाद उस दिली प्यार का जो संसार बसता है, वही जीवन है. यह
जीवनपरकता ही काम्य है, जो इस फिल्म का श्रेय-प्रेय है....
और इसे जिस कलात्मक सूझबूझ और तकनीकी कौशल से प्रस्तुत किया गया है,
उसकी सही व पर्याप्त चर्चा इस प्लेट्फोर्म पर हो चुकी है. इसी की ताक़त है कि कई
बार दुहरायी गयी यह थीम फिर नयी लग रही है. प्रेम और कला की इसी ख़ासियत के लिए
फिराक़ साहेब ने कहा है – हजार बार
ज़माना इधर से गुज़रा है, नयी-नयी सी है पर तेरी रह-गुज़र फिर भी.... ’
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सत्यदेव त्रिपाठी :
लेखक |
सत्यदेव त्रिपाठी :
(02-06-1954), आज़मगढ (उ.प्र)
प्रकाशन
: शिवप्रसाद सिंह का कथा साहित्य, समीक्षा
का व्यावहारिक सन्दर्भ:सोच एवं प्रस्तुति,शिवप्रसाद सिंह का परवर्ती क्था साहित्य, लोकसंचार माध्यम: प्रस्तुति के रचनात्मक आयाम, मध्यकालीन
कविता के सामाजिक, हिन्दी उपन्यास : समकालीन विमर्श,हिन्दी रंगमंच : समकालीन विमर्श, तीसरी आँख का सच, ‘समकालीन फिल्मों के आईने
में समाज’ आदि
बीस सालों तक दैनिकों न.भा.टा. व जनसत्ता (मुम्बई) के लिए रंग
समीक्षा आदि
सम्मान
: बाबू विष्णुराव पराडकर 1997-(महाराष्ट्र.रा.सा.अकादमी), नन्ददुलारे वाजपेयी सम्मान–
2007,कमलेश्वर कथा सम्मान –
2007 (वर्तमान साहित्य, अलीगढ),नागरी रत्न – 2010 (नागरी प्रचारिणी सभा, देवरिया का राष्ट्रीय
सम्मान),अनंत गोपाल शेवडे सम्मान – 2013 (महाराष्ट्र
राज्य साहित्य अकादमी)
सम्पर्क-
तल मंजिल, नीलकंठ, एन.एस. रोड
नं-5. विलेपार्ले-पश्चिम, मुम्बई-400056
मो.- 09819722077
मो.- 09819722077
बहुत सुलझी और समझ में आने वाली समीक्षा है.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद...
हटाएंसमीक्षा का नया एंगल,अच्छी समीक्षा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद. अच्छा लगा पढ़कर. सत्यदेव जी, मैं नहीं मानता कि कला का यथार्थ आंकड़ों पर या 'शॉक' पर टिका होता है. यदि ध्यान से पढ़ें तो पायेंगे कि फ्लेविया के लेख में आये आंकड़ों की बात मैंने आर बी तायडे जी की आपत्ति के सन्दर्भ में उठाई थी. क्योंकि तायड़े जी मानते ही नहीं कि ऑनर किल्लिंग कोई बड़ा मुद्दा है! दूसरा, जितने स्पष्टीकरणों या विजुअल खुलासों की मांग हम इस फिल्म से कर रहे हैं मुझे लगता नहीं कि ढाई-तीन घंटे में खुद को समेटने वाली 'वर्तमान' फिल्म विधा में यह संभव है. हम शायद 'महाकाव्यों' की मांग की तरफ बढ़ रहे हैं. तीसरा, मेरा मानना है कि नागराज को और कुछ आता हो या न आता हो, पर प्रेम-कहानियों के वे अनोखे दास्तानगो हैं. जाहिर है प्रेम-कहानियों की मांग तो बहुजन-सर्वजन हर जगह है और रहेगी. मेरे मते सैराट सबसे पहले एक प्रेम की, रोमान की ही फिल्म है, निश्चय ही बाकी चीजों की 'चाशनी' में रची-बसी हुई. चौथा, वर्ग-चेतना की सामर्थ्य और वर्ण-चेतना की चुप्पी दोनों मुख्य चरित्रों के सन्दर्भ में. और वर्ग-चेतना की नियामकता और वर्ण-चेतना की संहारकता फिल्म की पूरी कहानी के सन्दर्भ में. यही तो पेंच है साहब! लाल और नीले झंडे का झगड़ा भी इसमें छुपा हुआ है. 'जाति नहीं जाती' का नारा कहाँ से आता है. जाति-प्रथा के निर्मूलन में अन्य चीजों के अलावा अंतरजातीय विवाह को अम्बेडकर केन्द्रीय दर्जा क्यों देते हैं? रोटी के साथ बेटी देने का चलन क्यों शरू कराना चाहते थे अम्बेडकर? ऑनर किल्लिंग के अधिकाँश मसले अंतर्वर्गीय विवाहों में सामने आये हैं या अंतरजातीय विवाहों में? शोलापुर की ही 2014 की जिस घटना से सैराट की साम्यता की जाती है (जहाँ लड़की के भाई ने 2 साल बाद उसकी पति और बच्चे सहित हत्या कर दी थी) वहां तो लड़का मध्यवर्गीय ब्राह्मण था और लडकी सम्पन्न मराठा परिवार से. अब आप ही तय करें कि हमारे देश के 'मुश्किलों से गुजरे' प्रेम-विवाहों में ज्यादा समस्या वर्गीय कारणों से आती है या जातीय कारणों से? चाहें तो आंकड़ों की मदद ले सकते हैं! दरअसल बात किसी को तर-ऊपर करने की नहीं हैं वरन ठोस सन्दर्भों में देखने, समझने और समझाने की है. धन्यवाद
जवाब देंहटाएंमधु काकरिया जी को धन्यवाद। और संदीपजी, फ़िल्म या नाट्यविधा को इतना असमर्थ न आंके। आधे-एक मिनट के शॉट में वह माँ का पक्ष या वर्णीय प्रतिशोध की मानसिकता बतायी जा सकती है। बिना उसके बताये इस तरह के सामाजिक सरोकार वाला कलाकर्म न प्रामाणिक हिट, न पूरा। आर्ची से माँ की बात के बाद का पूरा घटित ब्लैंक और इसीलिए ब्लैक पार्ट है फ़िल्म का, जिसे किसी भी तरह बख्शा नहीं जा सकता। और दो साल बाद मारने वाले उदाहरणों की चर्चा आंकड़े के रूप में हो चुकी है। रोटी बेटी की जो बात है, वह कहने की है, अनकहे रूप से हुए के तथ्यों व प्रमाणों वाले क्षितिमोहन सेन आदि के शोध व् समाज विकास के विमर्श व् निष्कर्ष के संकेत दिए जा चुके हैं...उत्तर व् संवाद का शुक्रिया...
हटाएंकरीने से लिखी गई समीक्षा। बधाई।
जवाब देंहटाएंआधे-एक मिनट क्यों, पूरे चार मिनट भी दिए जा सकते थे. दिखाया जा सकता था कि बेटी/नाती के प्रेम में विकल मां, बड़ी आरजू-मन्नत के साथ घर के मुखिया के नाना बनने और गुस्सा थूक देने की चिरौरी करती है. दम्भी बाप और गुस्सैल बेटा इसके बाद अता-पता लगा लेते हैं और वह किया जो करते दिखाए गए. तो? इससे क्या स्पष्ट हो जाता? क्या इसका संकेत फिल्म न कर रही थी? दिखाया तो यह भी जा सकता था कि पर्श्या के माँ-बाप ने क्या-क्या किया होगा. पर्श्या ने क्या कोशिश नहीं की होगी अपने परिवार से संपर्क करने की? दोस्तों से? और ऐसी एक दर्जन चीजें.
जवाब देंहटाएंरोटी-बेटी की बात 'कहने' भर की कैसे हो सकती है? कहाँ हैं आप? तमिलनाडु में द्रविड़ आन्दोलन का मुख्य मुद्दा रहा ये एक वक़्त तक. पेरियार ने तो यहाँ तक कह दिया कि लड़का-लडकी, एक आदमी के सामने भी शादी कर लें तो वह valid मानी जायेगी. इस बाबत कानून भी बना आगे चलकर. क्षितिमोहन सेन को तो नहीं पर K. बालगोपाल, योगेन्द्र सिंह, TK ऊमेन आदि को मैंने पढ़ा है, और ज्यादातर ये वर्ण-व्यवस्था की 'आपराधिक विशेषता' को ही चिन्हित कर रहे हैं. न फिल्म का मकसद ऑनर किल्लिंग था न वह भटकी. ठोस भारतीय सामाजिक/सांस्कृतिक सन्दर्भों में दो युवाओं के 'सैराट' प्रेम को दरपेश चुनौतियों, साजिशों, संभावनाओं और असंभावनाओं व असाध्यता को प्रस्तुत करना ही फिल्म का 'सिनेमाई' उद्देश्य मेरे मते जान पड़ता है.'कूदना, भागना, बिछड़ना, मार दिए जाना माध्यम है फिल्म का, उद्देश्य ज्यादा 'टोटल' है. पेबंद पोशाक पर भारी नहीं पड़ा. ये पोशाक ही क्षत-विक्षत है और पेबंदों से भरी पड़ी है. खैर.'वर्ग-वर्ण-विरोधी' आलोचकों के संकेतों को देखकर बड़ा अच्छा लगता है कि ये नागराज बहुत ही ऊँची चीज निकला. 'ससुरे' को 'हत्या का यश लूटना' क्या खूब आता है. जियो भाई मंजुले.
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