मीमांसा : माइकल फूको : अच्युतानंद मिश्र

















उत्तर आधुनिक दार्शनिक माइकल फूको (Michel Foucault) का जन्म १९२६ में फ्रांस में हुआ था. ज्ञान और ताकत के बीच के सम्बन्धों पर उनका दार्शनिक विवेचन बहुत प्रसिद्ध है. अच्युतानंद मिश्र का यह आलेख गम्भीरता से फूको की तमाम अवधारणाओं से उलझता है और प्रति – धारणाओं की भी खोज़ खबर लेता है.   




फूको                         
(ज्ञान और ताकत का साझा इतिहास)
                                                                        
अच्युतानंद मिश्र



क्योंकि मैं कभी ताकत से नहीं बोला
उम्मीद से बोला कि शायद मैं सही हूँ  
रघुवीर सहाय
                                 

पिछली शताब्दी ने आधुनिकता के अवसान के साथ साथ मार्क्सवाद का उद्भव भी देखा. तीस के दशक में फासीवादी क्रूरता ने मानवीय इतिहास को सबसे बड़ी चुनौती दे डाली. दो विश्वयुद्धों की मार झेल चुकी मनुष्यता अस्तित्वबोध के गहरे संकट में भी फंसी और शताब्दी के अंतिम दशकों तक आते -आते उत्तराधुनिकता ने तमाम तरह के अंत की घोषणा कर मनुष्यता को न सिर्फ गहरे राजनीतिक सामाजिक संकट में डाल दिया बल्कि सांस्कृतिक शून्य का बहुत बड़ा विभ्रम भी रच दिया. क्या इन तमाम विसंगतियों, विरोधाभासों के बीच किसी समग्रता की तलाश की जा सकती है. उत्तराधुनिकता की घोषणाओं के बावजूद यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि समग्रता के दर्शन के प्रति दार्शनिकों एवं चिंतकों का कभी मोहभंग नहीं हुआ. अल्थुसर फूको के शिक्षक रह चुके थे. उन्होंने पचास के दशक में समग्रता की जटिल अवधारणा प्रस्तुत की. उन्होंने  क्रूरता एवं दमन को राज्य की मशीनरी के प्रभाव के रूप में देखा. फूको अल्थुसर का विरोध करते हैं. वे समग्रता के दर्शन को नकारते हैं. बावजूद इसके यह कहना गलत न होगा कि  फूको बीसवीं सदी की तमाम विश्रृंखलित सी प्रतीत होती घटनाओं के मध्य कॉमन की तलाश करते हैं. वे इस साझा तत्व या कॉमन को ताकत का नाम देते हैं. फूको का समग्र लेखन एवं इसी ताकत के उद्भव, इसकी विकास प्रक्रिया एवं इसके कार्यकरण सिद्धांत के तलाश को समर्पित रहा. ताकत के उद्भव को फूको प्रबोधन के परिणामस्वरुप आधुनिकता के विकास से जोड़ते हैं. इस सन्दर्भ में यह भी देखना दिलचस्प है कि फूको वस्तुतः आधुनिकता का क्रिटिक रचते हैं. वे आधुनिकता को पूंजीवाद के सांस्कृतिक विमर्श के रूप में देखते हैं. फूको की ताकत सम्बन्धी अवधारणा, मूलतः पूंजीवाद की सत्ता सरंचना की प्रक्रिया का आलोचनात्मक विवरण तैयार करती है. इस समूची प्रक्रिया यानि ताकत के विश्लेषण एवं विवरण को फूको पूंजीवाद की राजनीतिक आलोचना जिसके केंद्र में स्पष्ट रूप से मार्क्सवाद रहा है, के समानांतर प्रस्तुत करते हैं. कहने का तात्पर्य यह है कि मार्क्सवाद की पूंजीवाद विरोधी राजनीतिक दर्शन के समानांतर फूको ताकत की अवधारणा को रखते हैं और पूंजीवाद की सांकृतिक एवं सामाजिक आलोचना तैयार करते हैं.

मार्क्सवाद की अपर्याप्तता या अधूरेपन की चर्चा फूको ने कई सन्दर्भों में की है. उन पर मार्क्सवाद विरोधी होने का आरोप भी लगाया गया. फूको नें प्रकट तौर पर इन आरोपों को भले स्वीकार न किया हो लेकिन इसका उन्होंने विरोध भी नही किया. यह कहना गलत न होगा कि फूको का समग्र लेखन व्यापक संदर्भों में मार्क्सवाद विरोधी नही है (मार्क्सवाद के प्रति जो मुखर विरोध फूको के यहाँ दीखता है वह मूलतः फ़्रांस की कम्युनिस्ट पार्टी को लेकर है न की मार्क्सवाद को लेकर) बल्कि फूको मार्क्सवाद की पूंजीवाद विरोधी चेतना को नया आयाम देते हैं, उसमे नए पक्ष को जोड़ते हैं. विशेषकर नई सदी में पूंजीवाद विरोध की चेतना को अधिक सुसंगत एवं प्रगाढ़ बनाते हैं. फूको उन कारणों की तलाश करते हैं जिसके तहत बीसवीं सदी में पूंजीवाद का पुनुरोदय होता है और साथ ही मार्क्सवाद की पराजय. फूको इन दोनों के बीच मौजूद एक सूत्रता की तलाश करते हैं. वे इसे ताकत के रूप में चिन्हित करते हैं .

फूको का मानना है कि उनके कार्य का महत्वपूर्ण उद्देश्य ताकत के चरित्र की व्याख्या का रहा है. फूको राजनीति और अर्थशास्त्र के सामानांतर अठारहवीं सदी के आरम्भ से ताकत के उद्भव की व्याख्या करते हैं. हालाँकि फूको ने कई बार इस बात की चर्चा की है कि वे यह नहीं कहना चाहते कि ताकत का उदय अठारहवीं सदी में ही होता है, यह हर दौर में मौजूद रहा होगा लेकिन अठारहवीं सदी में संस्थाओं के उद्भव के साथ इसके समूचे चरित्र में एक गुणात्मक परिवर्तन आता है. वे अठारहवीं सदी से पूर्व बरती जाने वाली क्रूरता एवं  ताकत प्रदर्शन की चर्चा करते हैं  और बताते हैं कि संस्थाओं ने इसे समाज की रगों में लहू की तरह प्रवाहित कर दिया.

बीसवीं सदी के आरम्भ में पश्चिम में यह बहस महत्वपूर्ण हो उठी जिसके तहत मार्क्स की आधार-अधिरचना सम्बन्धी अवधारणा पर प्रश्न उठने लगे. मार्क्स ने राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना वाली अपनी पुस्तक में आधार -अधिरचना सम्बन्धी अपनी मान्यता की व्याख्या की थी. मार्क्स की उस व्याख्या को गलत संदर्भों और एवं विवरणों के साथ जोड़कर प्रचारित किया जाने लगा कि मार्क्स यह कह रहे हैं कि आर्थिक आधार ही वास्तव में मूलाधार है और वहीँ से सारे उत्पादन –उत्पादक सबंध विकसित एवं व्याख्यायित होते हैं. मार्क्स पर आरोप लगाने वालों में जोसफ ब्लोक भी थे. 1890 में यानि मार्क्स के गुजर जाने के कुछ वर्षों बाद जोसफ ब्लोक के आरोपों का जवाब देते हुए एंगेल्स ने लिखा था –

इतिहास की भौतिकवादी दृष्टिकोण के अनुरूप अंततः जीवन की वास्तविक प्रक्रिया का निर्धारण उत्पादन और पुनरुत्पादन के माध्यम से ही होता है. इससे अधिक न तो कभी मार्क्स ने और न कभी मैंने कुछ कहा. अतः अगर कोई इस बात को तोड़ मरोड़ कर गलत सन्दर्भों में के साथ यह कहता है कि आर्थिक तत्व ही निर्णायक है तो वह उसका कहना आधारहीन, अर्थहीन एवं अमूर्त है .आर्थिक स्थिति आधार है , लेकिन अधिरचना के भिन्न तत्व , वर्ग संघर्ष का राजनीतिक स्वरुप उसके परिणाम , विजेता वर्ग द्वारा स्थापित किये गए नियम (संविधान), न्यायिक प्रक्रिया के रूप ,विभिन्न स्तरों पर चलने वाले वास्तविक संघर्षों का स्वरुप, राजनीतिक न्यायिक एवं दार्शनिक सिद्धांत एवं व्यवस्था के भीतर  चलने वाली उनकी विकास प्रक्रिया, सब मिलकर ऐतिहासिक संघर्ष को प्रभावित करते हैं और उसके स्वरुप को निर्धारित करने में भूमिका अदा करते हैं. (1890 में ब्लोक के नाम लिखा गया एंगेल्स का पत्र )

स्पष्ट है कि एंगेल्स ने ब्लोक को दिए अपने उत्तर में आधार अधिरचना के सन्दर्भ में मार्क्सवादी दृष्टिकोण को स्पष्ट किया. बावजूद इसके बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में इस बहस ने गंभीर बहस का रूप ले लिया. बाद में स्टालिन ने भी एक बातचीत के कर्म में इसको स्वीकारा कि यह जरुरी नहीं कि आधार के बदलने से हर बार अधिरचना बदल ही जाये. अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए स्टालिन अधिरचना के तौर पर भाषा का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं. वे बताते हैं कि सोवियत सत्ता की स्थापना के बाद यानि आधार में परिवर्तन के बाद भी अधिरचना (भाषा )उस तरह नहीं बदली. यहाँ आधार अधिरचना की इस विचारोत्तेजक बहस में न जाकर मैं इस बात की और ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा कि उपरोक्त पत्र में परिवर्तन के सन्दर्भ में एंगेल्स एक जटिल व्याख्या प्रस्तुत करते हैं. इस जटिल सम्बन्ध को पहली बार बेहद गंभीरता के साथ देखने का प्रयत्न फ्रैंकफर्ट स्कूल के दार्शनिकों ने किया. वाल्टर बेंजामिन ने अपने संक्षिप्त जीवन काल में इतिहास और संस्कृति के अन्तर्सम्बन्धों और हमारी जीवन प्रक्रिया पर पड़ने वाले उसके प्रभावों का अध्ययन किया. बेंजामिन ने बाजार और मनुष्य की परस्पर विकास प्रक्रिया को भी अध्ययन का विषय बनाया. बेंजामिन एक हद तक यह दिखा पाने में सफल होते हैं कि अधिरचना के बदलने पर किस तरह उत्पादक उत्पादन सम्बन्धों में परिवर्तन आता है. यह बात एंगेल्स द्वारा कही गयी बात को आगे बढाती थी साथ ही आधार अधिरचना के परस्पर विभाजन को भी चुनौती देती थी. फासीवाद के उदय के साथ यह स्पष्ट होने लगा कि आधार और अधिरचना के बीच कोई एक रैखिकीय सम्बन्ध नहीं है. फूको के ताकत की अवधारणा वस्तुतः इसी जटिल सम्बन्ध की पड़ताल करती है, जिसके तहत वे अर्थव्यवस्था तथा राजनीति के समानांतर एक दूसरे तत्व की तलाश करते हैं, जो हमारी जीवन प्रक्रिया को प्रभावित करता है. उसे परिवर्तित करता है. हालाँकि फूको ने स्पष्ट कहा है कि ताकत की अवधारणा का तात्पर्य कहीं से भी राजनीति या अर्थव्यवस्था का  नकार नहीं है, बल्कि उनका मानना सिर्फ इतना है कि राजनीति और अर्थव्यवस्था के सामानांतर एक और तत्व की भूमिका को स्वीकार किया जाना चाहिए और वह है ताकत. फूको लिखते हैं  –

मेरे संदर्भ में सदैव ग़लतफ़हमी रही या मैंने खुद को गलत व्याख्यायित किया. मैंने यह कभी नही कहा कि ताकत की अवधारणा से हर चीज की व्याख्या की जा सकती है. मेरी कोशिश अर्थव्यवस्था की भूमिका के स्थान पर ताकत की भूमिका को स्थापित करने की कभी नहीं रही. मैंने उन तमाम भिन्न विषयों के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया जो ताकत से सम्बद्ध रहें हैं. ऐसा करते हुए मैंने उनके मूल स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं किया है बल्कि उन्हें ऐसा ही रहने दिया है जैसे वे अपने आरम्भ में थे. मेरे लिए ताकत वह है जिसकी व्याख्या की जा सके. जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ और उन समाजों के ऐतिहासिक मूल्याङ्कन से अर्जित अनुभवों की पड़ताल करता हूँ तो पाता हूँ कि ताकत के प्रश्न को किसी भी परम्परा के तहत चाहे वह इतिहास दर्शन की परम्परा रही हो ,समाजशास्त्र या राजनीति की अब तक व्याख्यायित नहीं किया गया. यानि ताकत के सन्दर्भ में तथ्य , उनकी कार्यकरण प्रक्रिया उनके अंतर्संबंध ,जिनकी भूमिका पागलपन, चिकित्सा एवं सजा में रही है, मैंने उसे व्याख्यायित करने की कोशिश की  है ” .(Essential works vol-3 ,page -284)

यहाँ फूकों के उपरोक्त कथन से यह स्पष्ट है कि उनके लिए ताकत वह नहीं है जिसके तहत राजनीति या अर्थव्यवस्था को नाकारा जा सके बल्कि वह कुछ विषयों को व्याख्यायित करने के क्रम में राजनीति और अर्थव्यवस्था के सामानांतर ताकत की भूमिका को रेखांकित करते हैं.

मानव मस्तिष्क के कार्य करने की क्षमता उसकी तार्किकता में अन्तर्निहित है. यह तथ्य अठारहवीं सदी की उपज है. ज्ञान की समूची प्रक्रिया को तर्क तक सीमित कर दिया गया. फूको ज्ञान के इस रूपांतरण का विरोध करते हैं. फ्रैंकफर्ट स्कूल के विद्वानों विशेषकर एडोर्नो और होर्खिमायर ने उन्नीसवीं सदी में विज्ञान के विकास को तकनीक एवं प्रबंधन के विकास के रूप में देखने का प्रयत्न किया. इस संदर्भ में दोनों ने प्रबोधन की द्वंधात्मकता यानि सामाजिक विकास की प्रक्रिया और ज्ञान के विकास की प्रक्रिया के अंतर्विरोधों को अध्ययन का विषय बनाया. फूको इसी कार्य को आगे बढ़ाते हुए विज्ञान के विकास को प्रबोधन काल की तार्किकता से जोड़कर देखने का प्रयत्न करते हैं. एक बातचीत के दौरान फूको ने न सिर्फ फ्रैंकफर्ट स्कूल के अवदान को स्वीकारा बल्कि यह भी माना कि अगर उन्होंने फ्रैंकफर्ट स्कूल के कार्यों को आरम्भ में देखा होता तो वे यह सब कुछ न करते और सिर्फ उनके द्वारा किये गए कार्यों पर टिप्पणी करने भर से उनका काम हो जाता.

फूको सवाल उठाते हैं कि विज्ञान उदाहरण के लिए सैद्धांतिक भौतिकी एवं कार्बनिक रसायन, अर्थव्यवस्था एवं राजनीति से किस तरह सम्बद्ध है ? क्या इस की सहज व्याख्या संभव है ? जिस तरह मनोविज्ञान का सम्बन्ध राजनीति या आर्थिकी से जोड़ा जा सकता है अगर उस तरह की सम्बद्धता भौतिकी या रसायन शास्त्र की संभव नहीं है तो इसके मूल में कौन से कारण हैं.  फूको के अनुसार यही वह बिंदु है जहाँ विज्ञान की एक ऐसी सैद्धांतिकी निर्मित की गयी जिसे समाज से निरपेक्ष बताने का प्रयत्न किया गया. फूको इस प्रक्रिया को यानि विज्ञान के दर्शन के विकास को व्याख्यायित करने के लिए चिकित्सा शास्त्र के तीन सौ वर्षो का इतिहास लिखते हैं. वे बताते हैं कि अठारहवीं सदी के आरम्भ में किस प्रकार नई चिकित्सा पद्धति का जन्म हुआ. दवाओं के सामाजिक प्रभाव की व्याख्या करते हुए फूको इस और ध्यान आकृष्ट करते हैं कि दवाओं के प्रभाव का मिथ रचा गया. यही वह बिंदु है जहाँ पागलपन को बीमारी का स्वरूप देकर पागलों की प्रताड़ना का नया शास्त्र, चिकित्सा विज्ञान के हवाले से रचा गया. अठारहवीं सदी में स्वास्थ्य की राजनीति (The politics of health in eighteenth century ) शीर्षक लेख में फूको लिखते हैं कि अठारहवीं सदी एक दोहरी प्रक्रिया को दर्शाती है. चिकित्सा से सम्बद्ध बाज़ार का विकास, चिकित्सा की निजी सुविधाओं का विकास एवं क्लिनिक का जन्म. इसके साथ ही चिकित्सीय जाँच पद्धति की आधुनिक वैज्ञानिक प्रक्रिया का विकास जो बाहरी तौर पर एक नैतिक वैज्ञानिक प्रक्रिया नज़र आती है वह प्रकारांतर से स्वास्थ्य सुविधाओं के व्यक्तिकरण का आर्थिक तर्क निर्मित कर रही थी. दूसरी तरफ इस पूरी प्रक्रिया को नैतिक बनाने के लिए तथा समाज में स्वीकृति दिलाने के लिए बहुत सारी संस्थाएं, धर्मस्थल, धर्मगुरुओं आदि ने मिलकर एक सामाजिक भ्रम रचने का प्रयत्न किया.

फूको कहते हैं कि इस दोहरी प्रक्रिया में व्यक्ति और समाज के अंतर्विरोधों को ढकने का प्रयत्न किया गया ताकि चिकित्सा के विकास के साथ उठने वाले आर्थिक प्रश्नों को गौण मान लिया जाये. इस पूरी प्रक्रिया को सिर्फ राज्य की साजिश के रूप में देखना इस समस्या की बहुस्तरीयता को नकारना है. राज्य के साथ बहुत सारे स्वतंत्र अस्तित्व वाली संस्थाओं ने इसे सम्भव बनाया. फूको अठारहवीं सदी में संस्थाओं के उदय को एक महत्वपूर्ण परिघटना के रूप में स्वीकारते हैं. दरअसल फूको के समस्त चिंतन में पूंजीवाद की प्रक्रिया को राज्य की भूमिका तक सीमित कर देने का नकार मौजूद है. फूकों का स्पष्ट मानना है कि राज्य की भूमिका तक पूंजीवाद को सीमित करना प्रतिरोध की राजनीति की सीमा दर्शाता है. वे कहते हैं कि पूंजीवाद के उदय के साथ संस्थाओं एवं ज्ञान अनुशासनों के विकास ने पूंजीवाद की समूची प्रक्रिया को बेहद जटिल बना दिया.

व्यापक अर्थों में कहें तो बुर्जुआ क्रांति महज़ सामंतवाद को अपदस्थ कर राज्य पर एक नये वर्ग का आधिपत्य नहीं था न ही वह एक सांस्थानिक संगठन प्रक्रिया थी. अठारहवीं सदी  एवं उन्नीसवीं सदी के आरम्भ की बुर्जुआ क्रांति ,ताकत की  नई तकनीक का इजाद थी, विभिन्न अनुशासनों का विकास  इसके अनिवार्य तत्व थे.(Abnormal ,page 88)

फूको कहते हैं कि अनुशासनों के विकास ने पूंजीवाद की समूची प्रक्रिया को अनुकूलित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. वस्तुतः फूको अपने समग्र चिंतन को ज्ञान-अनुशासनों के विकास के अध्ययन एवं समाज पर पड़ने वाले प्रभाव पर केन्द्रित  करते हैं. इस क्रम में फूको तीन महत्वपूर्ण विषयों तक खुद को सीमित करते हैं ये विषय है .चिकित्सा विज्ञान, न्याय प्रक्रिया और कामुकता. फूको इन तीन विषयों के माध्यम से बताते है कि किस तरह सामाजिक संस्थाओं एवं अनुशासनों के विकास ने राज्य से स्वतंत्र इनकी सामाजिक भूमिका विकसित की. यहाँ यह स्पष्ट है कि राज्य की भूमिका को स्वीकार करते हुए भी फूको उसे अंतिम या निर्णायक मानने से गुरेज करते हैं.

फूको तर्क (ज्ञान) के ताकत (सत्ता) में रूपांतरण की प्रक्रिया का बारीक़ विश्लेषण करते हैं. फूको प्रबोधन की समग्र प्रक्रिया को मनुष्यता एवं नैतिकता के विरुद्ध मानते है. फूको बीसवीं सदी की क्रूरता को अठारहवीं सदी की तार्किकता के विकास के रूप में देखते हैं. यही वजह है कि फूको तार्किकता के गढ़ में फंसी मनुष्यता को एक गहन अंधकार में पाते हैं. उनका कहना है कि तर्क ने सत्ता की शक्तियों के साथ एक गठबंधन निर्मित कर लिया है ऐसे में मुक्त ज्ञान की परिकल्पना महज़ एक भ्रम है. वास्तव में ज्ञान मुक्त हो ही नहीं सकता. ज्ञान का इस्तेमाल या तो ताकत को स्वीकारने के लिए है या उसे समाज के लिए अनुकूलित करने में. फूको के लिए तार्किकता का विरोध अतार्किक होना नहीं है. वे कहते हैं तार्किकता का विरोध इसलिए किया जाना चाहिए क्योंकि वह ताकत के पक्ष में खड़ा है. फूको की इस परिकल्पना को अगर हम उलट दे तो हम पाते हैं कि जिसे हम सच के रूप में समाज में स्वीकृत पाते हैं वास्तव में वह ताकत की स्वीकृति है. हम ज्ञान के उसी पक्ष को देख पाते हैं जिसे सत्ता स्वीकार करती  है या जो सत्ता को स्वीकार्य बनाता है. ज्ञान और सत्ता के बीच तमाम अंतर्विरोधों की समाप्ति के लिए अठारहवीं सदी में अनुशासनों का विकास किया गया. यहीं से यह तथ्य उभरकर सामने आया कि ज्ञान या तार्किकता का विरोध अतार्किक होना है. इस तरह विरोधी युग्मों का सह-अस्तित्व विकसित किया गया.  फूको इस विपरीत युग्म के अस्तित्व को नकारते हैं.

फूको के अनुसार विपरीत युग्मों के  सह-अस्तित्व को स्वीकारना वर्चस्व को स्वीकारना है. किसी एक स्थिति का विरोध भी अंततः दूसरे के वर्चस्व की स्वीकृति ही है. फूको के लिए यह राजनीति की सीमा है कि वह इन विपरीत युग्मों में एक के विरोध और दूसरे के समर्थन में मुक्ति को परिलक्षित करती है. फूको के अनुसार वास्तव में ऐसा होता नहीं हैं. वे बहुलताओं के सह-अस्तित्व में ज्ञान से वर्चस्व की मुक्ति को रेखांकित करते हैं. ज्ञान की भूमिका महज़ तार्किक होने में नहीं है, बल्कि वह मनुष्य के रूप में हमें अधिक सजग और संवेदनशील बनाती है. फूको कहते हैं वर्चस्व की प्रक्रिया हमें दो विरोधी युग्मों में सोचने को बाध्य करती है. उनके अनुसार ऐसा इसलिए कि ऐसा करते हुए यह प्रतीत होता है कि हम निर्णय पर पहुँच रहे हैं. एक के विरोध में दूसरे को देखना सदैव एक निर्णयात्मक प्रक्रिया साबित होती  है. लेकिन यह प्रक्रिया वास्तव बहुत सारे विकल्पों, संभावनाओं का दमन करती है. बहुलता का यह दमन सत्ता की क्रूरता के रूप में परिलक्षित होता है. फूको बताते हैं कि विरोधी युग्मों में देखने की प्रणाली अठारहवीं सदी के आसपास विकसित की गयी. वे कई तरह के युग्मों की चर्चा करते हैं. मसलन स्त्री –पुरुष, गोरा- काला, पूरब-पश्चिम इत्यादि. फूको कहते हैं कि सारी दुनिया में स्त्रियों पर वर्चस्व के लिए स्त्री अध्ययन संस्थान खोले गए. पुरूषों का अध्ययन क्यों नहीं किया गया? पुरुष के विपरीत स्त्री. इस तथ्य को प्रमाणित करने के लिए जेंडर विज्ञान विकसित किया गया. जेंडर विज्ञान ने स्त्री पुरुष के विरोधों का अध्ययन किया और एक तर्क प्रणाली विकसित की. इस तर्क के अनुसार स्त्री से अधिक ताकतवर पुरुष को स्वीकार किया गया. इस अवधारणा को अठारहवीं सदी में अनुशासन में बदला गया. पूरी दुनिया में जेंडर अध्ययन केंद्र खोले गए. क्योंकि अनुशासन में बदलने के बाद ही विज्ञान के तर्क को सामान्य तर्क में परिणत किया जा सकता था. फूको यह नहीं कहते हैं कि स्त्री –पुरुष का विभाजन समाज में पहले से मौजूद नहीं था. उनके अनुसार वह था , लेकिन अठारहवीं सदी में उसे पहले विज्ञान और फिर एक अनुशासन में तब्दील किया गया. विज्ञान के तर्क मनुष्य की चेतना पर अधिक प्रभाव डाल सकते थे, क्योंकि यह प्रबोधन का युग था. प्रबोधन की प्रक्रिया ने मनुष्य की ज्ञानात्मकता को संवेदना से दूर कर उसे महज़ तार्किकता में बदल दिया. इस तरह स्त्री –पुरुष के विभाजन को समाज के सामान्य बोध के स्तर तक लाया गया. समाज में स्वीकृत होने के बाद इसे व्यवहार में बदला गया. पुरूषों द्वारा बरती जाने वाली क्रूरता हमारे लिए बहुत आम या साधारण सी बात हो गयी, क्योंकि हम इस तर्क के गुलाम हो चुके थे कि पुरुष अधिक शक्तिशाली है.

बीसवीं सदी में कुछ स्त्री विमर्शकारों ने इस तर्क को झुठलाने का प्रयत्न भी किया. उन्होंने वैज्ञानिक आंकड़ों के द्वारा यह साबित करने का प्रयत्न किया कि वास्तव में स्त्री पुरुष के मुकाबले प्राकृतिक तौर पर अधिक श्रेष्ठ है, लेकिन समाज पर इसका असर न के बराबर हुआ क्योंकि पुरुष स्त्री से अधिक महत्वपूर्ण है यह तर्क एक ताकत या वर्चस्व का रूप ले चुका था. इस तरह पुरुषों को केंद्र मानकर एक परिधि निर्मित की गयी. पुरुषार्थ की परिभाषा के समक्ष उन्हें खड़ा किया गया. इस परिधि में न सिर्फ स्त्रियाँ बल्कि हिजड़े, कुष्ठ रोगी, एड्स के मरीज़ आदि थे. यह परिधि समाज के केंद्र यानि पुरुष के वर्चस्व को प्रमाणित करने के लिए निर्मित की गयी थी. फूको  की इस परिकल्पना को बीसवीं सदी के विमर्शकारों ने नये परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयत्न किया है. स्पष्ट है कि फूको अपनी इस अवधारणा के माध्यम से अनवरत चली आ रही इतिहास की अवधारणा को चुनौती देते हैं.  वे परिधि की दुनिया का समानांतर इतिहास लिखते हैं.    

द हिस्ट्री ऑफ़ सेक्सुअलिटी तीन खंडों में लिखित इस पुस्तक में, फूको परिधि की विकास प्रक्रिया उसके परिधि में विलयित होने का इतिहास आदि को व्यापक संदर्भों में प्रस्तुत करते हैं. वस्तुतः फूको अपने द्वारा उठाए गये इस प्रश्न का कि अब तक पुरुषों का अध्ययन क्यों नहीं किया गया का जवाब ढूंढते हैं. 

हम जानते हैं कि साम्राज्यवाद को स्वीकृत बनाने के लिए अठारहवीं सदी के आरम्भ में पश्चिम बनाम पूरब की अवधारणा विकसित की गयी. यह कहा गया कि पश्चिम का नैतिक दायित्व बनता है कि वह पिछड़े हुए पूरब का विकास करे. विकास की यह प्रक्रिया साम्राज्यवादी लूट थी . हम यह भी देखते हैं  कि जहाँ जहाँ यूरोपीय साम्राज्यवाद का प्रसार हुआ वहां वहां पूरब अध्ययन संस्थान या ओरिएण्टल स्टडीज सेंटर खोले गये. हम यह भी जानते हैं कि भारत जैसे देशों में इस अध्ययन प्रणाली के कितने घातक परिणाम निकले. देश की आन्तरिक व्यवस्था आज भी इन अध्ययनों के परिणाम को भुगत रही है. एक तरह से यूरोप ने इस तरह के अध्ययन से जहाँ एक ओर अपने साम्राज्यवादी मंसूबों को पुख्ता किया वहीँ पूरब के नैतिक बल को भी दबाने का प्रयत्न किया. यह अन्यथा नहीं है कि गाँधी साम्राज्यवाद का विरोध करने के लिए सबसे पहले यूरोपीय आधुनिकता को नकारते हैं. एक तरह से कहें तो गाँधी के हिन्द स्वराज का मूल सन्दर्भ इसी आधुनिकता के नकार से जुड़ा हुआ है. इस बिंदु पर यह कहना गलत न होगा कि फूको और गाँधी दोनों आधुनिकता का विरोध करते हैं. फूको दार्शनिक शब्दावली में बहुलताओं के सह-अस्तित्व की बात करते हैं तो वहीँ गाँधी नैतिकता के पुनराविष्कार के माध्यम से समानांतर आधुनिकता की मांग करते हैं  

फूको की ताकत सम्बन्धी अवधारणा का विस्तार एक और एडवर्ड सईद के कार्यों  में भी देखा जा सकता है. फूको की ज्ञान –सत्ता के महत्व को सईद स्वीकारते तो हैं, हालाँकि सईद ने फूको के राजनीतिक नकारवादी दृष्टिकोण की आलोचना की है वे कहते हैं कि फूको इतिहास में जाते हैं लेकिन अपने पूर्वाग्रहों के साथ.

फूको ताकत के प्रयोग के समानांतर प्रतिरोध की भूमिका को भी अनिवार्य मानते हैं. वे कहते हैं प्रतिरोध का होना स्वाभाविक है. वे ताकत की बजाय ताकत-सम्बन्धों पर विचार करते हैं. फूको के अनुसार राज्य के अस्तित्व में ताकत की भूमिका को तलाशने के बजाय उन सम्बन्धों में, उन संस्थाओं में ताकत की भूमिका को देखा जा सकता है जहाँ उसे कार्यान्वित किया जाता है. वे ताकत के क्रियान्वन में सत्ता की केन्द्रीयता को नकारते हैं. वे कहते हैं कि राज्य की मशीनरी मसलन शिक्षा, चिकित्सा, न्यायालय, पुलिस आदि राज्य से स्वतंत्र शक्ति केन्द्रों का रूप ले लेते हैं. वे एक ऐसे स्वचालित यंत्र का रूप धारण कर चुके हैं जिसके माध्यम से ताकत सम्बन्धों को क्रियान्वित किया जाता है. लेकिन ताकत की यह स्वतंत्रता उसमे गुणात्मक रूप में भिन्न किस्म की परस्परता भी निर्मित करती है. काफ्का की प्रसिद्ध कहानी दंडद्वीप को याद करें, वहां भी प्रतीकों के माध्यम से एक ऐसी दुनिया का जिक्र किया गया है जहाँ  व्यवस्था रूपी स्वचालित मशीन राज्य से स्वतंत्र होकर दंडप्रक्रिया यानि ताकत के प्रयोग को क्रियान्वित करती है.

ताकत की सांस्थानिक क्रियान्वन की प्रक्रियाओं के मध्य मनुष्य के मानस का विकास होता है . ऐसे में वह इन सम्बन्धों को शाश्वत मान लेता है. वह इन परिस्थितयों से बाहर निकलने की कोशिश करता है जिसके तहत कभी वह मूक तो कभी मुखर प्रतिरोध करता है. फूको प्रतिरोध की प्रक्रिया को भी ताकत सम्बन्धों के अंतर्गत विश्लेषित करते हैं. अगर हम फूको की इस बात को समझने के लिए पिता-पुत्र सम्बन्धों की ऐतिहासिक विकास प्रक्रिया को देखें तो स्थिति अधिक स्पष्ट होगी. पिता-पुत्र सम्बन्धों में नया मोड़ तब आया होगा जब कृषि के परिणामस्वरूप घर और परिवार की स्थापना हुयी होगी. पिता –पुत्र सम्बन्धों ने तभी से ताकत सम्बन्धों में खुद को ढाला होगा. धीरे-धीरे इस प्रक्रिया को सामाजिक व्यवहार की प्रक्रिया में बदला गया होगा और तब इसने स्वाभाविकता का रूप ले लिया होगा. इस ताकत सम्बन्ध के कार्यान्वन के लिए पुत्र के कर्तव्यों का निधारण किया गया होगा. पुत्र द्वारा पिता की सेवा, उनका आदर करना, उनकी हर बात को मानना, उनके समक्ष जोर से ना बोलना आदि को  सहज सामाजिक बोध के रूप में परिणत किया गया. इन सबका परिणाम हुआ होगा पिता का परिवार पर वर्चस्व. इसे सिर्फ आर्थिक आधार तक सीमित करके नहीं देखा जा सकता. खासकर कृषि प्रधान समाज में विकसित हुए ये सम्बन्ध धीरे धीरे आर्थिक वर्चस्व से मुक्त होकर एक स्वतंत्र वर्चस्व का रूप ले चुके हैं. हर तरह के वर्गों में पिता पुत्र के बीच ताकत सम्बन्धों को देखा जा सकता है .मार्क्सवाद ने परिवार की भूमिका निजी सम्पत्ति के संचय में  ढूंढी और वहां से वर्ग सम्बन्धों के विकास की अवधारणा विकसित की गयी. फूको परिवार के भीतर मौजूद वर्चस्व की अवधारणा को विकसित करते हैं.

प्रतिरोध और वर्चस्व के द्वैत की अवधारणा विकसित करते हुए फूको कहते हैं जहाँ भी ताकत –सम्बन्धों का क्रियान्वन होता है वहां प्रतिरोध की मौजूदगी अनिवार्य रूप से होती है. वे कहते हैं इस तरह दोनों मिलकर एक समग्रता निर्मित करते हैं. मालिक-नौकर सम्बन्धों पर विचार करने का अर्थ है उन प्रसंगों की भी चर्चा जिसके तहत दोनों एक दूसरे की अनुपस्थिति में अपने समकक्षों के साथ दूसरे की चर्चा करते हैं. अक्सर यह देखा जा सकता है कि नौकर अपने मित्रों के साथ मालिक की अनुपस्थिति में उसका मजाक बनाते है, उसकी आवाज़, उसकी चाल, उसकी हंसी आदि की नक़ल उतारते हैं. इसी तरह मालिक भी नौकर की अनुपस्थिति में उसकी शिकायत अपने समकक्षों के सामने करता है. फूको के अनुसार ताकत सम्बन्धों के अध्ययन में इन छोटे छोटे प्रतिरोधों की भूमिका को नाकारा नहीं जा सकता.  

फूको इतिहास को राजनीति से अलग करने का प्रयत्न करते हैं. हालाँकि उनके अनुसार यह लगभग असंभव है क्योंकि इतिहासकार परिणाम देने की जिम्मेदारी से बच नहीं सकता. फूको कहते हैं ऐसे में इतिहासकार का काम किसी दृष्टिकोण से प्रेरित होकर उस दृष्टि की प्रमाणिकता तलाशने में नहीं होना  चाहिए बल्कि उसका काम एक तटस्थ और निरपेक्ष इतिहास प्रस्तुत करना है. हालाँकि फूको तटस्थता और निरपेक्षता के खतरों से भी वाकिफ हैं. इसलिए फूको लिखते हैं इतिहासकार राजनीतिक कार्यकर्ता होने की भूमिका से बच नहीं सकता क्योंकि संस्थागत स्तर पर इतिहास लेखन की जो प्रक्रिया है वह वास्तव में ताकत की केन्द्रीयकृत भूमिका को स्वीकारती है. फूको ज्ञान के केन्द्रीयकृत ढांचे के विकल्प के रूप में स्थानीय ज्ञान को महत्व देते हैं. उनके अनुसार ज्ञान का ताक़त के रूप में रूपांतरण दरअसल सत्ता के केंद्रीय ढांचे की परिकल्पना में अंतर्निहित है. इसलिए संस्थाओं से निकलने वाला ज्ञान अंततः ताकत को ही प्रतिबिंबित करता है.

ऐसे में अनिवार्य हो जाता है कि इस केन्द्रीयता को विखंडित करने के लिए ज्ञान की स्थानिकता को महत्व दिया जाये. फूको बताते हैं कि ज्ञान की स्थानिकता में वर्चस्व का प्रतिरोध मौजूद होता है. फूको इतिहास लेखन में केंद्र से परिधि की तरफ नहीं बढ़ते  हैं. वे कहते हैं कि यह प्रक्रिया ही ज्ञान को ताकत में परिवर्तित करती है. उनका मानना है कि इसके विपरीत बहुत सारी स्थानीय घटनाएँ जो हमारे इर्द-गिर्द मौजूद होती हैं उनके छोटे छोटे ब्यौरे एक वृहद् इतिहास बोध को निर्मित करते हैं. लेखक का काम इन घटनाओं का एक कोलाज बनाने का होना चाहिए. इससे निर्मित इतिहास ही वास्तव में प्रतिरोध का इतिहास होगा.     

फूको के लेखन में समाज की न्यायिक प्रक्रिया का मूल्याङ्कन बेहद महत्वपूर्ण है. फूको ने बीसवीं सदी की क्रूरता को आधुनिक ज्ञान विज्ञान और तकनीक के विकास से जोड़कर देखने का प्रयत्न किया. इसके   साथ ही वे मनुष्य के शरीर के वस्तुकरण की चर्चा करते हैं. वे कहते हैं कि अठारहवीं सदी के आरंभ में मनुष्य का शरीर एक विषय का रूप धारण करता है. इस संदर्भ में वे तीन प्रक्रियाओं की चर्चा करते हैं . उनके अनुसार मनुष्य के शरीर को विषय में बदलने की प्रक्रिया को अंजाम देने के लिए सबसे पहले  ज्ञान विज्ञान एवं तर्क का विकास किया गया. जिसमें मनुष्य को वस्तु के रूप में देखने की परम्परा विकसित की गयी. मनुष्य को समस्या की शक्ल देकर उसके अध्ययन के अनुशासन विकसित किये गए. इसके उपरांत विभेदीकरण की प्रक्रिया को महत्व दिया गया. जिसके तहत समाज में भिन्न स्तर के लोगों का वर्गीकरण किया गया जैसे बीमार लोग, पागल ,हिजड़े ,कुष्ठ रोग के मरीज इत्यादि . उनकी भिन्न छवि निर्मित की गयी. तीसरी प्रक्रिया है कामुकता. कामुकता को मनुष्य की समग्रता से काटकर पहले आनंद और फिर उपभोग में बदल दिया गया. कामुकता को एक हद तक बर्बरता में रूपांतरित किया गया ताकि मनुष्य शरीर की चेतना से निरपेक्ष हो जाये. इन तीन प्रक्रियाओं ने मनुष्य के शरीर को यातनाओं का घर बना दिया . इस संदर्भ में कैदियों के आत्मविभाजन एवं दंडप्रक्रिया की चर्चा फूको ने डिसिप्लिन एंड पनीश द बर्थ ऑफ़ प्रिज़न में की है.

फूको बताते हैं कि उन्नीसवीं सदी में कैदियों पर निगरानी रखने के लिए जेल को एक विशेष तरह के भवन निर्माण में बदला गया. इसे पैनिप्टकोण (paniptcon) कहा जाता था. इसमें जेल अधिकारी एक साथ हर कैदी पर निगरानी रख सकते थे. उसकी हर गतिविधि को देख सकते थे लेकिन कैदी न तो अधिकारी को देख सकता था और न ही वह साथी कैदियों को देख सकता थे. इस तरह कैदी के शरीर का विषयीकरण कर दिया गया. उसे यातनागृह में बदल दिया गया. वर्तमान युग में पैनिप्टकोण (paniptcon) की भूमिका में हम C.C.T.V  कैमरा को पाते हैं. पिछले एक दशक में इसे इस हद तक लोकप्रिय बना दिया गया है कि एक सामान्य  सी परचून की दुकान पर भी हम यह सन्देश पढ़ सकते हैं “आप C.C.T.V कैमरे की निगरानी में हैं”. हर क्षण हर पल कोई हम पर निगाह रख रहा है. वास्तव में कैमरे  के माध्यम से यह तथ्य हमारे  भीतर आरोपित किया जाता है कि कोई हमे देख रहा है. हालाँकि यह भी संभव हो कि इस कैमरे  में अंकित होने वाले दृश्यों को कोइ देख नहीं रहा हो. लेकिन कैमरे के सामने खड़ा मनुष्य इस चेतना से कभी मुक्त नही हो सकता कि कोई उस पर निगाह रख रहा है. यानि निगाह रखने वाले की आंख हमारे भीतर ही प्रवेश कर जाती है और हमारे भीतर से ही हमारे ऊपर निगाह रखी जाती है. इस तरह हमारा आत्म विभाजित हो जाता है. आत्म विभाजन की यह प्रक्रिया मनुष्य को उसके शरीर की चेतना से अलग करती है. ऐसे शरीर को आसानी से यातनाओं के केंद्र में बदला जा सकता है. फूको इस परिकल्पना को सौन्दर्य प्रसाधन, ब्यूटी पार्लर, जिम आदि से जोड़कर देखते है और बताते हैं कि इस सब ने मनुष्य के शरीर को यातना के नये ठिकाने के रूप में चिन्हित किया है. हमारे शरीर का वजन कितना होना चाहिए. हमारी लम्बाई क्या होनी चाहिए. यह सब एक नई परिकल्पना का अंग बन चुका है. हमारी सांस्कृतिक चेतना का अंग. हमारे शरीर पर लगातर कोई दूसरा निगाह रख रहा है. वही इसे नियंत्रित भी कर रहा है.

बीसवीं सदी के मनुष्य के समक्ष विज्ञान ने आधुनिकता के माध्यम से नये संकट प्रस्तुत किये. विज्ञान की समूची परिकल्पना समाज के विरोध में खड़ी हो गयी. अगर हम गैलिलियो को याद करें तो स्पष्ट रूप से पहले ऐसा नहीं था . दर्शन और विज्ञान दो अलग धाराएँ नहीं थी. ऐसे में यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण हो उठता है कि विज्ञान के पास जो विकास की अवधारणा है, जिसके तहत वह लगातर एक नई दुनिया रच रहा है. वह वास्तव में किसकी अवधारणा है. कौन इस विज्ञान को  नियंत्रित कर रहा हैं किसके इशारे पर वैज्ञानिक सोच रहे हैं ?


आधुनिक विज्ञान इस उत्तरपूंजीवाद के साथ खड़ा है. आधुनिक विज्ञान में वह शक्ति नही रही कि वह समाज के नैतिक प्रश्नों को हल करे. आधुनिक यांत्रिकी ने शरीर के वस्तुकरण की नई प्रणाली विकसित की है. तकनीक और मशीनों के इस्तेमाल से आधुनिक पूंजीवाद ने ताकत के प्रयोग के नये तरीके ढूंढ लिए हैं. फूको की यह परिकल्पना वर्तमान दौर में बाज़ार की भूमिका और वैश्वीकरण की प्रक्रिया के गंभीर परिणामों के प्रति हमे आगाह करती है. आरंभिक पूंजीवाद के दौर में कला संस्कृति और राजनीति के स्वतंत्र अस्तित्व की कल्पना की जा सकती थी. लेकिन इस उत्तरपूंजी के दौर में संस्कृति और राजनीति पूरी तरह एक दूसरे में घुल मिल चुके हैं. ऐसे में फूको के चिंतन में दृष्टि को गैर राजनीतिक कहकर नकारा नहीं जा सकता है. एक तरह से कहें तो फूको सांस्कृतिक परिवर्तन की प्रक्रियाओं के माध्यम से आधारभूत राजनीतिक परिवर्तन को लक्षित करते हैं. फूको के ताकत के क्रियान्वन का विश्लेषण हमें अपने इर्दगिर्द फैले बेहद जटिल संरचना के प्रति सचेत बनाती है. इससे मुक्ति क्या संभव है? फूको निश्चित रूप से इस विषय में कुछ नही बोलते. लेकिन परिवर्तन का रास्ता सिर्फ राजनीतिक होगा निश्चित रूप से फूको इससे इंकार करते हैं. सवाल को समझना भी तो जवाब की तरफ बढ़ा आधा कदम होता है. 
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अच्युतानंद मिश्र
27 फरवरी 1981 (बोकारो)
महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में कवितायेँ एवं आलोचनात्मक गद्य प्रकाशित.
आंख में तिनका (कविता संग्रह२०१३)
नक्सलबाड़ी आंदोलन और हिंदी कविता (आलोचना)
देवता का बाण  (चिनुआ अचेबेARROW OF GOD) हार्पर कॉलिंस से प्रकाशित./ प्रेमचंद :समाज संस्कृति और राजनीति (संपादन)
मोबाइल-9213166256/mail : anmishra27@gmail.com

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  1. आपने बहुत व्यवस्थित लिखा है ! पर मैं सोचता हूँ, कि 'फूकों' ने तर्क को औद्योगीकरण के साथ जोड़कर और उसे सत्ता की सहचरी कह कर जिस तरह उसे नकार दिया, विस्तृत ढंग से इसकी संगति असंगति पर बात होती तो अच्छा होता। हार्दिक बधाई !

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  2. Foucault ki di hui power ki awdharna aaj bhi utni hi prasangik hai...bahut accha aalekh..

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  3. बहुत बधाई . फूको के ताकत मोड्यूल को समझने में बहुत सहायक . विरोधी युग्मों को लेकर कुछ सवाल आते हैं . विमर्शों के खेमों में दुनिया लगभग बंट चुकी है -इस द्वंद्व के पीछे क्या तर्क और वर्चस्व की कोई साजिश नहीं छिपी है .उत्तर आधुनिकता को उलट कर देखती हूँ तो आधुनिकता का एक और छद्म नज़र आता है ...आधुनिकता और तर्क ने मनुष्य को वस्तु में तब्दील किया पर उत्तरआधुनिकता के तर्क और तमाम विमर्श क्या सह अस्त्तित्व का द्वार खोल सके ?

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