दिल्ली विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त कर आगरा कॉलेज, आगरा में सहायक
प्रोफेसर हैं. Role of labor in development of language विषय पर यू. जी. सी के फेलोशिप के अंतर्गत शोध कार्य कर
रहे हैं. अकादमिक विषयों में रुचि और गति है. कविताएँ भी लिख रहे हैं.
कविताएँ
II भूपाल सिंह II
मधुवन
में शकीरा
एक
दबी सी इच्छा
एक
संभला सा जबाव
राधा
के मन में
शकीरा
नाचे
एक
बार मधुवन में
सारे
के सारे
वासदेव
खड़े
रह जायं
जमुना
के किनारे
ज्यों
फरास,
फूले न फले
शकीरा
बाँधकर निकल जाय
सरी
कमाई की पोटली
वासदेवों की
एक
ना चले.
राधा
थिरक रही है
टी.वी.
के सामने
शकीरा
की ताल के साथ
अपनी
ही परछांई के डाले गले में हाथ
राधा
दो सौ बरस बाद
लौट
रही है देह में
उतर
फेंकना चाहती है
सदियों
का शाप
कि
राधा फँसी है कान्हा के नेह में
राधा
लौट रही है देह में.
पार्वती तुम ही
वहीं
चक्करदार मोड़ों पर
छपे
हैं पाँवों के निशान
भले
ही
तुम्हारी
महावर की छापों को
आलता
कहते रहें.
इन
लाल छापों के पीछे से
वही
आवाज पीछा करती है
जो
लिपटी बबूल की बन्द फलियों से
फूट
पड़ती रही थी
तुम्हारे
पाँव से.
साथ
देने लगी थी कालि के गीतों का.
कलाई
तक बँधी आस्तीनें
मन
मसोस कर रह जाती हैं
कि
तुमको छू नहीं सकता
इन निशानों के परे, उस पार समय के
तुम्हारे
होठों की फुसफुसाट
घाटियों
में घुल गई है
बार
बार मेरे होटों से गुफ्तगू करती है.
फूलम
के कलेजों से फूटती गरमी
--------तुम
नहीं तो क्या
आरक्षित
जंगलों में
धुँधली
होती ये पकडण्डियाँ
इतिहास
की इबारत हैं
कि
तुम यही से गुजरती थी
छिल
गये रहे चट्टानों के सीने
तुम्हारे
चाप से
खूबानी
की पत्तियों की जीन कोड़िंग में
तुम्हारे
फिंगर प्रिंट स्थाई हो गये हैं
तभी
तो प्रकृति उपादानों में ढ़ूढ़ते रहे हैं
लाखों
कवि तुमको अब तक.
कहो तो सही बल्द होशियार
घूंघटों की ओट से घूरती
मैनावतियों की आँखें
हल्की हल्की सी याद हैं.
उसके पैरों से
चलने की आवाज नहीं होती थी
खरगोश की तरह साँसे रोककर
या गिरगिट की तरह रंग बदलने में
वह माहिर था,
घिघिया जाती थीं वे उसके मसखरेपन से
यही खौफ उनका स्थाई भाव बना रहा
कान नाक मुँह सभी उनकी आँखे बन गये
जो सिर्फ देखती थीं बोलती कुछ नहीं.
पता नहीं कब
किसकी उँगलियों में शरारत खुजा गई
कि उसने टीप दिये
आँगन, चौबार, द्वार और लिलार सब
लाल रंग से
ओखल पर बाँध दिया लाल धागा मनौती का
न जाने क्या माँग डाला...
चुपचाप
पदचाप हल्की सी हाथ से फिसल गई
मौन चीख को निगल गई.
हटो हटाओ घूँघट
देखने दो सन्नाटा और मसखरापन
माथे पर लाल कुंकुम
चूड़ियों में बँधा लाल धागा
दिखाल में रखी ढिबरी
बढ़ा दो
थोड़ा सा प्यार आने दो.
इतिहास यहीं कहीं
शाम के
झुरमुटों से निकल आते हैं
तमाम गुम
निशान
गुम्बद की
सलवटों में
आवाज देते
हैं- रुको ये राहबर, हमें आजाद कर दो
इतिहास की
दस्ती पर हमें भी दर्ज कर दो
कोई नहीं
सुनता केवल
सन्नाटा है.
सवाल फैलकर
अनुत्तरित--
गुम्बद की
छाँह में धरती के गले लग रोते हैं
ओंस की
बूँदों से
आँचल भिगोते
हैं.
पुराने
गुम्बद में से टपकती हैं
घुंघरुओं की
आवाजें
आहिस्ता-
आहिस्ता करुण स्वर में
पुकारती सी
प्यार
इन्तजार और
हार.
ये आवाजें
उस पहली औरत की आवाज से मेल खाती हैं
जिसकी बालों
में एक सुबह उलझ गये थे फूल
और जो हँस
पडी थी
गुम्बद की
दीवार में दफ्न
अभी अभी
यहीं खड़ी थी.
इतिहास की
महान पुस्तक के
अस्पष्ट
पन्ने पर यह गुम्बद- न जाने कब से यहीं है
कुछ गौर तलब
बातों के साथ
मसलन कि
इसमें लाल रौशनी नहीं आती
परिन्दे
आसरा नहीं लेते
खूनी
चमगादड़ें दुनियां की नजर से बचकर यहीं छुपतीं हैं.
मुनीर खाँ मनिरा
मुनीर
खाँ मनिरा और उसकी बीबी सबीना फेरी पर निकलते हैं
चूड़ी
पहनाने गली गली
सबीना
मन को भाँप चूड़ी के रंग दिखाती है
ग्राहक
पटाती है
मुनीर
खाँ चूड़ी पहनाता है.
जवान
होती लड़कियों और नई दुलहिनों की
कलाई
दबाता है.
हर
कलाई पर दाब का दुख
भर
हल्की सी आह हवा में तैरता है
सबीना
के दिल पर न जाने क्या गुजरता है
बन्द
होठों के भीतर ही वह हर बार मरती है
काँच
की हर एक चूड़ी उसी गले पड़ती है.
फत्ते
की माँ गली भर जोर से पूछती है
तेरी
बहू को क्या दुख खाये जाता है
कि
सूखती जाती है
न
बोलती है, न गाती है.
सबीना
कैसे कहे
मुनीरा
कितनी ही कलाई दबाता है.
घुण्डियाँ
आओ
खोल दूँ
तुम्हारे
दिल पर बँधी
तमाम
घुण्डियाँ
साँस
उफनती होगी
दिल
घुटता होगा.
यह
सोचना फिजूल है कि
तुम्हारे
हाथ कमजोर हैं
या
मन मजबूर है
यह
सोचना फिजूल है कि
तुम
उदासी से बहुत खुश हो.
जरा
सी जर्रे भर धूल
आँख
में उठा लेना
गिरते
हुए आँसू को
आँख
में छिपा लेना
न तो
कोई साहस की बात है
न
जरूरी ही.
तुम्हारी
उँगलियाँ बेहतरीन ख्वाब सिलती हैं
और
हँसी में अबूझ कुलाँचें हैं
अभी
भी
कभी
भी
कुछ
खत्म नहीं होता.
आओ
मैं तुम्हारे करीब बैठ लूँ
कुछ
कह लूँ, कुछ सुन लूँ
रेत
होती बात समेट लूँ.
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भूपाल जी की कविताएं अलग आस्वाद की हैं... बिल्कुल नया स्वर... स्वागत और बधाई..
जवाब देंहटाएंसच में भूपाल सिंह की इन कविताओं का स्वागत किया जाना चाहिये। एक बेलौस और बिंदास अंदाज से रची गई इन कविताओं में हमारे जीवन की ऐसी अर्थछवियां हैं कि पढ़ते हुए बहुत आनंद आता है। कवि का यह अंदाज बना रहे, मेरी शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंमंगलाचार पर भूपाल सिंह जी का स्वागत. अच्छी हैं..
जवाब देंहटाएंगज़ब का अन्दाज़ है भूपाल जी का
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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