भोपाल में जब कोई पहली बार भारत भवन जाता है तब उसकी पहली प्रतिक्रिया यही होती है कि भारत में ऐसी जगहें हैं ?
इस फरवरी में भारत भवन अपनी स्थापना के ३५ वर्षों का सफर पूरा कर रहा है. क्या यह भवन अब भी अपनी परम्परा में आगे बढ़ते हुए अपने उद्देश्यों के प्रति समर्पित है.
क्या भारतीय समाज संस्था-भंजक समाज है. क्यों शानदार संस्थाएं कुछ दशकों तक ही जीवित रह पाती हैं.
लेखक – चित्रकार मनीष पुष्कले का भारत भवन की स्थापना और उसके विचलन पर व्यथित करने वाला यह आलेख आपके लिए.
३५ वर्षों के बाद : भारत-भवन
(भारतीय कलाओं और
विचारों का प्रज्ञा-परिसर और राजनैतिक प्रायश्चित का प्रजातांत्रिक अवसर)
मनीष पुष्कले
अस्सी के दशक को कला-संस्कृति के क्षेत्र में भारत सरकार के द्वारा किये गए एक बेहद महत्वपूर्ण उपक्रम से भी याद किया जा सकता है. यह प्रसंग क्रमशः केंद्र सरकार, राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन के समवेत अवदान का एक उत्कृष्ट उदहारण भी है. इस प्रसंग का सम्बन्ध इंदिरा गाँधी से, शान्तिनिकेतन में हुई उनकी शिक्षा और वहाँ के प्रभावों से बने उनके मानस से और गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर के सानिध्य में मिली उस स्नेहिल दृष्टी से है जिन्होंने उन्हें प्रियदर्शिनी नाम दिया था.
भारत-भवन ने
समझौतों की प्रवृत्तियों से दूर रह कर सिर्फ गुणवत्ता के आधार पर जल्दी ही पूरे
देश ही नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर अपनी कीर्ति-ध्वजा
को स्थापित कर लिया था. देखते ही देखते भारत-भवन
कलाओं और भारतीय विमर्श का एक समकालीन मंदिर बन गया था. निश्चित
ही भारत-भवन जैसी संस्था रातों-रात
नहीं बनतीं. एक इमारत तो २ सालों में खड़ी हो सकती है
लेकिन एक ठोस-विचार को विश्वास में बदलने में समय लगता
है. हम जानते हैं कि भारत-भवन की
प्राण-प्रतिष्ठा में, उसकी
उड़ान में अशोक वाजपेयी और जगदीश स्वामीनाथन के युग्म ने अभूतपूर्व
काम किया था. लेकिन अभी इस लेख का उद्देश्य भारत-भवन से
इस अतुलनीय युग्म के योगदान को याद करने का न होकर इंदिरा गाँधी के द्वारा १९७२
में देखे अपने स्वप्न को सच्चाई में ढालने पर केन्द्रित है. क्या १९७७
से १९७९ के बीच उन दो वर्षों की छटपटाहट में, संताप
की इस अवधि में इंदिरा गाँधी को वह बोध नहीं हुआ होगा जब वे सत्ता से उखाड़ फेंक दी
गयीं थीं ? आखिर, तब
उनके पास आपातकाल की कालिख के अलावा और क्या बचा था
? वह कालिख, जिसे क्षमायाचना
के रूप में सिर्फ भारत-भवन जैसी संस्था की विभूति ही भस्म कर
सकती थी. यह भी संयोग है कि इसके दो वर्ष बाद, १९८४
में इंदिरा गाँधी की नृशंष हत्या कर दी जाती है. यह
अपने आप में एक शोध का विषय हो सकता है कि क्या भारत-भवन इंदिरा गांधी के प्रायश्चित का परिणाम था?
अस्सी के दशक को कला-संस्कृति के क्षेत्र में भारत सरकार के द्वारा किये गए एक बेहद महत्वपूर्ण उपक्रम से भी याद किया जा सकता है. यह प्रसंग क्रमशः केंद्र सरकार, राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन के समवेत अवदान का एक उत्कृष्ट उदहारण भी है. इस प्रसंग का सम्बन्ध इंदिरा गाँधी से, शान्तिनिकेतन में हुई उनकी शिक्षा और वहाँ के प्रभावों से बने उनके मानस से और गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर के सानिध्य में मिली उस स्नेहिल दृष्टी से है जिन्होंने उन्हें प्रियदर्शिनी नाम दिया था.
यह १९८० का वह समय था जब इंदिरा गाँधी
चौथी बार देश की प्रधानमंत्री बन चुकी थीं. अर्जुन
सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे और उन दिनों प्रदेश के संस्कृति विभाग की
कमान उत्सवधर्मी कवि, आलोचक और बिरले प्रशासक अशोक वाजपेयी
के हांथों में थी. इतिहास अब हमारे सामने है और हम यह जानते
हैं कि सन १९७५ से १९८० तक, इंदिरा गाँधी पांच वर्षों के इस समय में अपने
आत्मिक और नैतिक संघर्षों के बीच, अपने राजनैतिक जीवन के सबसे ज्यादा
अन्धकार और अहंकार भरे क्षणों में थीं. आजाद भारत के इतिहास में आपातकाल का समय
प्रजातांत्रिक उहापोह के मध्य नैतिक मूल्यों की पराजय और
प्रतिघात का समय बन चुका था. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर के निर्मल सानिध्य में पली-बड़ी
प्रियदर्शिनी इंदिरा अराजकता के इसी काल-खंड में अंततः तानाशाह भी कहलायीं. लेकिन क्या पांच
वर्षों के इसी समय में, १९७७ का चुनाव हारने के बाद इंदिरा गांधी
संभवतः अपने आत्म-चिंतन में, पूर्व
में घट चुकीं राजनैतिक गलतियों के शोधन और सत्ता में अपनी वापिसी की छटपटाहट के
साथ वे कोई अन्य स्वप्न भी बुन रहीं थीं ? वह स्वप्न, जिसका एक
सिरा शान्तिनिकेतन में बने उनके मानस में लिप्त है तो वहीँ दूसरी ओर उसी स्वप्न का
दूसरा छोर गाँधी-दर्शन में पगा है. भारतीय
परंपरा में जिस प्रकार से संस्कारों को सबसे उच्च स्थान दिया जाता है यह उनके उन्ही
संस्कारों से बने रुझानों से उपजा स्वप्न था. वे १९७२
से यह चाहतीं थीं कि उनके सत्ता काल में भारत में कहीं पर एक ऐसा
सांस्कृतिक केंद्र बने जिसकी एक छत के नीचे भारतीय लोक-चिंतन, उसके
विमर्श और विभिन्न कलाओं का पूर्ण वितान स्थापित हो सके. ऐसा
स्थान जिसे 'भारत-भवन’ कहा जा सके (हालांकि
यह नामकरण अशोक वाजपेयी ने किया था).
गौरतलब तथ्य यह है कि आपातकाल के अंत और
इंदिरा गाँधी की हत्या के मध्य मात्र ७ वर्षों का अंतराल है. आपातकाल
और १९७७ ही हार के बाद वे १९८० में जब फिर से प्रधानमन्त्री
बनीं तो उसके ठीक दो वर्षों के बाद, १३ फरवरी १९८२ को भारत-भवन
लोकार्पित कर दिया था. यह अशोक वाजपेयी की सलाह और उस पर
मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की तत्परता से बना दुर्लभ संयोग था जिसने इंदिरा
जी के उस अधूरे स्वप्न को भारत के केंद्र में, उसकी
ह्रदय-स्थली मध्यप्रदेश में स्थाई स्थान दिला
दिया था. इस अभूतपूर्व काम के लिए मध्यप्रदेश की
राजधानी भोपाल को उपयुक्त स्थान माना गया. १९८२ में जब इंदिरा जी ने भारत-भवन का
उद्घाटन किया था तो उसकी भव्यता के साथ उसकी सादगी के वैभव को देख कर वे चकित थीं. जल्दी
ही भारत-भवन भारतीय कलाओं और विचारों का अद्भुत
प्रज्ञा-परिसर बन गया था. यह
कलाओं के सन्दर्भ, आधुनिक भारत की छवि के सन्दर्भ और प्रदेश
की नयी सांस्कृतिक पहचान के सन्दर्भ में एक बड़ी घटना तो थी ही लेकिन साथ ही यह एक
प्रकार से दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों के बरक्स संस्कृति के माध्यम से उनके
विकेंद्रीकरण की पहली प्रादेशिक कोशिश भी थी.
जगदीश स्वामीनाथन |
अपने शासन काल में आपातकाल को लागू करने
से जिस लोकतंत्र की हत्या उनके हांथों से हुई थी क्या उसका पश्चाताप उन्होंने 'भारत-भवन' नाम के
सांस्कृतिक पुष्प को वापिस लोकतंत्र में चरणों में अर्पित करके किया था ? लेकिन
हम यह न भूलें कि भारतीय सन्दर्भ में पश्चाताप, आत्म-बोध से
आत्म-शुद्धि का मार्ग प्रशस्त करता है. यहाँ
हमें उसे ईसाई धर्म के सन्दर्भ से आत्म-ग्लानी से अलग रखना होगा.
मैं
यह बात साफ़ कर दूं कि मेरे मन में भारत-भवन के रूप में
इंदिरा जी के प्रायश्चित की संभावना का विचार ७० के दशक में घटी राजनीति से उपजा
है. अब, जब
न इंदिराजी जीवित हैं और न ही भारत-भवन उस तरह से प्रासंगिक
बचा है तो यह मुझे उस समय की घटनाओं के आधार पर यह सोचने को बाध्य करता है कि आखिर
क्यों एक ऐसी अभूतपूर्व संस्था को हम नहीं बचा पाए? भारत-भवन
को तोड़ने में, उसके ओज को तहस-नहस
करने में उस समय मध्य-प्रदेश की राजनीति
ने कोई कसर नहीं छोड़ी. शुरुआत से भारत-भवन
की दीवारें बाहर से तो राजनैतिक परछाइयों से घिरीं ही रहीं लेकिन जब तक अशोक
वाजपेयी वहाँ रहे उन्होंने उन्हें भीतर नहीं आने दिया. अशोक
वाजपेयी के जाते ही और सत्ता के बदलते ही जैसे बाहर खड़े भुतवा साए भारत-भवन
के गलियारों में प्रविष्ट कर गए. इन राजनैतिक प्रविष्टियों
को साफ़-साफ़ देखा जा सकता था. इसी
कारण से मेरे मन में इंदिरा जी के प्रायश्चित का यह विचार आया और मैंने उसे
राजनैतिक प्रायश्चित कहा है अन्यथा भारत-भवन जैसी संस्था
को राजनैतिक-रण बनाए की क्या आवश्यकता थी ? वैसे
भी सांस्कृतिक संस्थानों के प्रति सरकारों का जो रवैया रहा आया है वह हम सभी जानते
हैं. ऐसे में म.प्र. में
सत्ता के बदलते ही सिर्फ इसी संस्था के प्रति सरकार के मन में आक्रोश या बदले की
भावना क्यों जागी ?
इस
बिंदु पर आकर मुझे यही लगता है कि वह इंदिरा जी की हत्या के पहले एक प्रकार से
उनका अंतिम और बेहद सफल सामजिक योगदान था जिसके पीछे उनका
१९७२ से पाला हुआ दिव्य-स्वप्न था जिसे
तहस-नहस करने में नयी सरकार ने बड़ी चुस्ती
दिखाई. जाहिर है अगर नयी सरकार की दिलचस्पी संस्कृति
में होती तो ऐसा नहीं होता. लेकिन सरकार की
दिलचस्पी संस्कृति में न होकर इंदिरा गांधी के काल में हुई इस मौलिक उपलब्धि को
नेस्तनाबूत करने में थी, उसने वैसा कर दिया. जैसा
भारत-भवन के साथ हुआ वैसी किसी अन्य संस्था के
साथ नहीं हुआ था. यह एक सरकार का एक
संस्था के निमित्त से एक व्यक्ति से बदला था. एक
व्यक्ति, जिसने संभवतः उसी संस्था के निम्मित से
पूर्व में हुयीं गलतियों का राजनैतिक प्रायश्चित किया होगा (विशेषकर
आपातकाल). यह व्यक्तिगत रूप
से मेरे लिए व्यथित करने के लिए काफी है, चूँकि, मैं
अपने आप को भारत-भवन का परिणाम
मानता हूँ यह देख कर दुःख होता है कि हमारी बाद की युवा
पीड़ी को अब उसके खँडहर और इतिहास के अलावा कुछ नहीं मिल सकता. क्या यह
एक राजनेता के जीवन में आत्म-बोध से अपने संस्कारों की पृष्ठभूमि में
की गयी आत्म-शुद्धि का अभूतपूर्व उदहारण को भी खोने
जैसा नहीं होगा ?
मनीष पुष्कले चित्रकार
है और दिल्ली में, हौज़ खास में रहते हैं. जन्म १९७३
म.प्र. के भोपाल में हुआ. मनीष कभी-कभी अपने रंगों से बिदक कर अपनी कलम से शब्दों
को तराशते हैं. अपनी शिक्षा से मनीष भूगर्भ शास्त्री हैं.
प्रख्यात चित्रकार रज़ा के
प्रिय शिष्य रहे और और उन्ही के द्वारा स्थापित रजा न्यास के आप न्यासी भी हैं.
मनीष ने यशस्वी कथा-शिल्पी कृष्ण बलदेव वैद को समर्पित वैद सम्मान की स्थापना की
है जिसके अंतर्गत अभी तक ५ लेखकों को समानित किया जा चुका है ! मनीष ने इसके अलावा 'सफ़ेद-साखी' (पियूष दईया के साथ चित्र-तत्व
चिंतन), "को देखता रहा' (विभिन्न विषयों पर लिखे लेखों का संकलन), ‘अकथ'(अशोक वाजपेयी को लिखे पत्रों का संपादन ) और हाल ही में "आगे जो
पीछे था " नाम का एक उपन्यास भी लिखा है.
manishpushkale@gmail.com
manishpushkale@gmail.com
कुछ भी हो भारत भवन के भीतर जाना एक कुए मे उतरने का गहरा अहसास होता है,उपर देखते हैं तो आकाश दिखता है। यह चार्ल्स कोरिया की जादुगरी, स्वामीनाथन की आदिम चेतना,अशोक वाजपेयी का कलाबोध और सबसे अहम बात 'भाव' (feelings) से सृजित हुआ है, और निर्माण संसाधनों से । इस कुएं का सो्ता सुखा नहीं, उसपर बडे बड़े मेंढकों को का टोला अदबदल कर बैठता है, मुझे विश्वास है इस सो्तो कि जड़े स्वामी जी के आग के दरिया से जुडे है,कुआ लबालब होगा।
जवाब देंहटाएंजहां तक प्रायश्चित की बात है, नेहरू ने तिब्बत का प्रायश्चित दलाइ लामा को धर्मशाला मे पनाह देकर,इंदिरा गांधी ने भारत भवन बनाकर, और राजिव गांधी और अरजुन सिंह ने १९८३ की भोपाल गैस त्रासदी के प्रायश्चित के रूप मे यहा कला गतिविधिया सक्रिय होनेदी(गैस त्रासदी पर नाटक या अन्य कलागतिविधी नहीं,हो सकी)
मगर स्वामीजी के भाव और आग का दरिया निरंतर बहता रहेगा। निरंतर
आदरणीय श्री मनीष पुष्कले जी
जवाब देंहटाएंहालही में मैं पहली बार भारत भवन होकर आया हूँ। बम्बई में रहने वाले मेरे संगीतकार मित्र का कार्यक्रम था। उज्जैन में जन्म लेने और तरुणाई व्यतीत करने के बावजूद भी, मुझे ये अवसर 26 वर्ष की आयु पूर्ण करने पर मिला। बम्बई से आये हुए व्यक्ति से अपने प्रदेश के किसी केंद्र की प्रशंसा सुनना गौरवान्वित करने वाला अनुभव होता है। भारत भवन से मेरा पहला परिचय आश्चर्य और इसी गर्व से ओतप्रोत रहा। जैसा कि आपने लिखा है, भारत भवन, भारत का प्रतिनिधि है, मध्यप्रदेश की सीमित पहचान से इसे जोड़ने के दुराग्रह के लिए मैं क्षमाप्रार्थी भी हूँ।
श्रीमती इंदिरा गाँधी के पर्यावरण के प्रति समर्पण को उद्धृत करते हुए श्री जयराम रमेश की पुस्तक पिछले साल आयी थी। आपने उनके जीवन के एक और पक्ष को प्रकाश में ला दिया है। किसी भी व्यक्ति की केवल एक पहचान नहीं होती। उसमें व्यापकता और जटिलता निहित होती है। विशेषकर जनसेवा में लगे व्यक्तियों में और उनके जीवन में और भी बहुत-सी पेचीदगियाँ होती हैं। हमारा देश युवा है, और सम्भवतः 60-70 प्रतिशत आबादी का श्रीमती इंदिरा गाँधी के शासन काल से प्रत्क्षय परिचय नहीं है। अतः यह अनिवार्य है कि उनके राजनैतिक पापों से इतर भी उनके व्यक्तित्व का विश्लेषण हो। आपने ऐसा ही किया है।
आपके आलेख में यह भी उभर कर आता है कि कैसे सत्ता में बैठे व्यक्तियों के अपने संस्कार, समकालिक समाज और संस्कृति को आकार देते हैं। आपने भारतीय लोगों को संस्था भंजक कहा है, जिसका बोझ आपने अनुपात से अधिक राजनीति पर डाल दिया है। राजनीति पर बोझ डाल कर आपने सम्भवतः अभिजात वर्ग को उसकी अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया है। मैं यह तो नहीं कह सकता कि यही आपका उद्देश्य रहा होगा। किन्तु कला और साहित्य के क्षेत्र में प्रतिष्ठित व्यक्तियों से अपेक्षा कुछ अधिक बढ़ जाती है।
वर्तमान में कला, साहित्य, संगीत, नव-उदारवाद की चपेट में हैं। नव-उदारवाद केवल आर्थिक व्यवस्था नहीं है। वह एक सर्व-भूत व्यवस्था है। ऐसे में अभिजात वर्ग, जिसका कि निजी स्वार्थ ऐसी व्यवस्था से जुड़ा हो, कैसे भारत भवन जैसी संस्था के साथ न्याय कर सकता है? मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि नव-उदारवाद की आलोचना करते हुए, मैं इसके दूसरे ध्रुव वामपंथ का आलिंगन नहीं कर रहा हूँ। कला, साहित्य, और संगीत के परिप्रेक्ष्य में नव-उदारवाद की मेरी आलोचना पृथक और स्वतंत्र है|
आपका आलेख निश्चित ही वृहद चिंतन के लिए विवश करता है। धन्यवाद!
भारत के अन्य कला केंद्रों की सांस्कृतिक गाथा पर और उसके राजनीतिक निहितार्थ पर चरणबद्ध ढंग से लिखा जाना चाहिए ।
जवाब देंहटाएंPolitics always cast a shadow on Art same is true on the earth of Bharat and Bhawan.
जवाब देंहटाएंभारत भवन को हम भोपाल वासी बाहर रहते हुए उसी गर्व और सम्मान के साथ देखते रहे हैं जो आज से पच्चीस तीस बरस था |ज़ाहिर हैं कारंत जी , मणि कौल, स्वामी नाथन का समय |लेकिन अब उसकी स्थिति यदि इतनी निराशाजनक है तो वाकई दुःख की बात है ...
जवाब देंहटाएंसम्यक् चिंतन और सम्यक् अवलोकन ।समालोचन और मनीष दोनों को बधाई
जवाब देंहटाएंमैंने अपने जीवन में श्रीमती इंदिरा गांधी को इतने निकट से पहली और अंतिम बार देखा था। 13 फरवरी 1982। अवसर था भारत भवन भोपाल का शुभारंभ। अपने कुछ मित्रों के साथ मैं इंदौर से आया था। मैं यह देख हतप्रभ था कि अपनी दबंग प्रधानमंत्री होने की हैसियत के बावजूद वे बिरजु महाराज, कुमार गन्धर्व, यामिनी कृष्णमूर्ति, गंगूबाई हंगल, गिरीश कर्नाड जैसी भारत की भिन्न अनुशासनों की उपस्थित अन्य हस्तियों से बेहद आत्मीय विनम्रता और सम्मान के साथ बात कर रही थी। वे इन सबसे पहली बार नहीं मिल रही थी। इसलिए उनकी बातों में पारिवारिक और स्वास्थ्य को लेकर फिक्र भी शामिल थी। जाहिर है, उस समय मैं बेहद लड़कपन के दौर में था। मन किया कि गिरीश कर्नाड का ऑटोग्राफ लिया जाए।लिया भी और इस बहाने कुछ अधिक ही देर उनसे बात भी कर ली। मुझे नहीं पता था कि पाँच वर्षों बाद , जब मैं पच्चीस वर्ष का हो जाऊंगा, इसी भोपाल में मध्यप्रदेश कला परिषद की मासिक पत्रिका "कलावार्ता" के सम्पादक की तरह काम करने लगूंगा। वह दौर मेरे लिए हमेशा अविस्मरणीय रहेगा। उस कालखण्ड में मध्यप्रदेश साहित्य परिषद की पत्रिका "साक्षात्कार" का सम्पादन सोमदत्त जी और मध्यप्रदेश लोककला परिषद की पत्रिका "चौमासा" का सम्पादन कपिल तिवारी जी कर रहे थे।
जवाब देंहटाएंयह सब मैं इसलिए लिख रहा हूँ कि यह सब भारत भवन की परिकल्पना के ऐसे अदृश्य रचनात्मक केंद्र थे, जो भारत भवन की अवधारणा में ही पनप रहे थे, निसन्देह भारत भवन बनने के बहुत पहले से ही। इसे यूँ भी कहा जा सकता है ये सारी अकादमियां, इनके आयोजन, इनके प्रकाशन कहीं ना कहीं भारत भवन के पूर्व अभ्यास की तरह ही थी। अगर यह सब नहीं होता , तब यकीनन भारत भवन भी वह नहीं होता, जिसे हम हमेशा स्मरण में रखते हैं।
इस देश में जब पहली बार वास्तविक अर्थो में अंतरराष्ट्रीय कविता महोत्सव भारत भवन में हुआ था, तब अशोक वाजपेयी ने मुझे कुछ महीनों के लिए भारत भवन स्थान्तरित कर दिया था। कलावार्ता तो मुझे निकालना ही थी , इस कविता महोत्सव की टीम के साथ जुड़कर इसके लिए काम भी करना था। उस दौरान मैंने "कलावार्ता" का एक अंक विश्व कविता समारोह पर सम्पादित किया था। जिसमें लगभग 22 देशों की विभिन्न भाषाओं की कविताओं का हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया था। ये सारे कवि इस समारोह में शामिल भी थे। मुझे याद है कि इसी समारोह में इस विशेषांक का लोकार्पण चीन की एक कवियत्री ने किया था। इन कविताओं के अनुवादकों में कुंवर नारायण, रघुवीर सहाय, सोमदत्त, गिरधर राठी, प्रयाग शुक्ल, रमेशचंद्र शाह इत्यादि शामिल थे।
भारत भवन के 35 वर्ष पूरे होने के बाद यह हमारी रचनात्मक जिम्मेदारी है कि हम इसके योगदान पर अधिकाधिक विमर्श करें और यथासम्भव उसे दस्तावेजी भी बनाने का उपक्रम करें। मित्र मनीष पुष्कले ने इसकी बेहतर शुरुआत कर दी है, अब इसे बहुआयामी अर्थो में विस्तारित किया जाना चाहिए।
भारत भवन भोपाल के ३५ वें स्थापना दिवस को लेकर चर्चा अवश्य होनी चाहिए। लेख पढ़कर , अपने आप को अतीत में झांकने से रोक नहीं पाया। मैं स्वंय इन समस्त कार्यक्रमोंं में शामिल था। भारत भवन रंगमंडल में बतौर अभिनेता कार्यरत था। श्री ब व कारंत जी हमारे निर्देशक थे। भारत भवन का निर्माण कार्य चलाने के दौरान रंगमंडल ने अपनी प्रस्तुतियाँ आरंभ कर दी थीं। श्रीमती इंदिरा गांधी जी के आगमन से हम सब का उत्साह देखने लायक था। अंतरंग के बाहर भारत का बुध्दीजीवी वर्ग , कलाकार , चित्रकार , संगीत , वह मूर्तिकार एकत्र थे। श्री स्वामीनाथन जी , ओम प्रकाश चौरसिया जी , अशोक बाजपेई जी , भूतपूर्व मुख्यमंत्री श्री अर्जुन सिंह की मौजूदगी थी। भारत भवन समस्त देशवासियों के लिए कला की एक महत्वपूर्ण भेंट होने जा रहा था। स्वर्णिमयुग था हमारे जीवन का , उस समय भारत भवन से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति का। प्रसन्नता है कि आज ३५ वर्ष गुज़र जाने के पश्चात भी , कलाओं के इस तीर्थ स्थल में कलाकारों का जमघट लगा रहता है।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.