(कृति द्वारा नीलोत्पल)
‘पहाड़ एक फूल चुनता है
आसमान एक बादल
दोनों झर जाते हैं
वृहत्तर सांझ के लिए’
२१ वीं सदी की हिंदी
कविता का जो परिसर है उसमें नीलोत्पल अपने मासूम और अनछुए प्रेम – आसक्ति के साथ उपस्थित
हैं. प्रेम कविता में ढलते हुए कवि के लिए तमाम चुनौतियाँ साथ-साथ लिए चलता है.प्रेम
के रसायन में जब तक नवोन्मेष है, प्रेम जिंदा है और बची है मनुष्यता.
इसी नवोन्मेष को कवि अर्जित करता है और लिखता
है.
नीलोत्पल की कुछ नई
कविताएँ.
नीलोत्पल की कविताएं
हमारे बीच जाने कितने समुंदर हैं
उस पुराने जर्जर मकान की तरह
जहां अब कोई नहीं रहता
वहां प्यार, उत्सव, संघर्ष दफ़न है
जो किसी के नहीं
सिवाए उस राख के
जो चुन ली गई नदी के बहाव में
काटती लहर को
मैं आता हूं वह स्मृति लिए
तुम्हारे पास
मैं चाहता हूं कि
जो सुंदर और अनाम चीजें दफ़न हैं
उसे हम देखें
हमारे बीच जाने कितने समुंदर हैं
जाने कितनी फैली वृक्षों की जड़ें
लेकिन कितना बिखराव !
मैं तुम्हें उसी तरह चूमना चाहता
हूं
कि वह नष्ट संसार
हमें अपनी अधूरी आंखों से देखे
और दे सके हमें वे निर्जीव शब्द
जिसके लिए एक आदमी जीता है
अपनी मृत्यु के बाद भी
होगा यह कि
हम मरेंगे अपनी-अपनी यादों के साथ
खाली आकाश से देखते हुए
नीचे वह घर अभी
ज़िंदा है उखड़ती सांसों में
प्यार अमर नहीं होगा
कुछ है जो बुदबुदाया जाएगा
सम्बलों की गहराई में
मैं तुम्हारी उंगलियों और आँखों
के सहारे
महसूस करता रहूंगा
अपने जीवन के वे तमाम क्षण
जिन्हें हमने ताप और प्यार से रचा
जो किसी तरह घर होंगे
उखड़ते पोपडे़, सीलन और दरारों के बीच
धीमे-धीमे सांस लेते.
प्रेम की आदिम गुफाओं में
हम कोई शुरूआत नहीं करते
हम सिर्फ़ प्रेम करना चाहते हैं
ऐसा करते हुए
हम सिर्फ़ दो हैं जो नहीं चाहते
कोई अंत.
तुम्हारे ख़्याल से
मैं एक पहाड़ हूं और तुम एक चिड़िया
तुम ऊंचाई और नीचाई पर समान रुप
से जाती हो
जबकि मैं मेंढक की नन्हीं उछाल भी
नहीं ले पाता
लेकिन हमारा यह असामान्य गुण
काटता नहीं एक-दूसरे को
हम सिर्फ़ कुछ चीज़ें चाहते हैं; मसलन
खिडकियां, पत्तियां, रोशनी, चन्द लम्हें एक-दूसरे को
भुलाने और याद करने के.
वह घिसा पत्थर जिस पर तुमने चटनी
बनाई
उस पत्थर के भीतर
तुमने रख छोडे़ अपने गीत
और न जाने कितने न मालूम अहसास
जब तुम निकल जाती हो आईने के पार
मैं सुनता हूं उस पत्थर को
मैं सुनता हूं उस पत्थर को
कैसे तुमने उसे नदी बना दिया है
जो तैर रहा है अब मेरे भीतर.
प्यार के रास्ते होते है बेहतर
हम एक शुरुआत करते हैं शब्दों से
जो किसी ईश्वर के भीतर नहीं रहते
हम देते हैं उसे पनाह
उसे रचते हैं
हम आज्ञाएं नहीं ढोते
हमने स्वतंत्र कर रखा है उन्हें
जो नहीं चाहते प्यार
क्या वे प्रेम की उन आदिम गुफाओं
में
जा पाएंगे
जहां हमने जनम दिया
अपने भीतर बसे हुए मासूम शब्दों
को.
एक बार तुम खो दो अपनी आवाज़
तुम खोल लो अपनी बांहें
और बीत जाने दो बारिश
देखो पेड़ के भीतर उतर रही चिड़िया
कितनी शांत और सहज है
वह धूप की स्याही से लिखती है एक
पंक्ति
जो हमें नहीं दिखती
बड़े मज़े से वह गुनगुनाती है
पेड़ और नदी एक साथ बहते हैं
पहाड़ एक फूल चुनता है
आसमान एक बादल
दोनों झर जाते हैं वृहत्तर सांझ
के लिए
एक बार तुम खो दो अपनी आवाज़
भूल जाओ पहनावे,
वे भटकाव जो चुने थे जीवन की
ख़ातिर
आहिस्ते-आहिस्ते रख दो
अशांत पत्तियों पर अपनी नींद
तुम्हारी मुलाकात उन चिडियों से
जिन्होंने तुम्हारे लिए घोंसले
बनाए
वे फूल, वे बादल जो रोपे गए
झरने के बाद तुम्हारे सपनों में
सुनो बारिश जारी है....
क्या तुमने खोल लिए हैं दरवाजे
जो स्वर्ग की तरफ नहीं
खुलते हैं जंगलों की अनगढ़ सुबहों
में
गीले पेड़
शायद मुझे सभी गलत कहेंगे
लेकिन कोई नहीं जानता
जीवन की काली गुफाओं में
कितना अंधेरा था जब मैंने प्रवेश
किया
मैंने एक पत्थर पर हाथ रखा
और उस पर अपना संतुलन नहीं रख पाई
वह पत्थर तैरता था, मैं नहीं
मेरे हाथों की रेखाएं गिर गई
और किताबों और लोगों के
अनगिनत संग भी छुट गए मुझसे
मैं नहीं जान पाई ख़ालीपन के विशाल
बोगदे में
कैसे मैंने कुछ तय कर लिया
यह सब जैसे होना था
मैं तो सिर्फ़
बादलों के अश्वेत रंगों में छिपा
रही थी
अपने पैरों की महावर
जिसे मैंने खुद ही रच लिया
आपत्तियां थी
मैंने भी सोचा अंधेरे में खड़ी
ट्रेन में चढने से पहले
पैर उठते ही नहीं
जैसे किसी ने पहाड़ के अंतिम सिरे
पर खड़ा कर दिया हो
मेरे लिए सोचना नामुमकिन था उस
वक्त
आख़िर मैं हारी भी तो किससे
अपने अजन्में प्यार से
मैंने कदम बढाएं
आख़िर जिन पर मेरा वश नहीं था
मेरा इरादा बजते हुए संगीत में
घुल जाने का है, एक हो जाने का है
मैं चाहती थी बस
गीले पेड़
जिनसे बारिश की जमी बूंदे गिरती
रहे
और उनसे गुजरते हुए मैं भींगती
रहूं
जीवन पर्यंत
मैं तुममें घटकर बढ़ता हूं
मैं तुम्हें करता हूं प्यार
इन उंचाईयों से
जहां मैं सांस लेता हूं
तुम्हारे मुख,
तुम्हारे हाथ और आंखों से
मैं तुम्हें चाहता हूं
इन नीचाईयों से
जहां मैं गिरता हूं
तुम्हारे होंठ, तुम्हारे बालों
तुम्हारी जांघ और नाखूनों में
मैं तुममें अतृप्त होकर तृप्त
होता हूं
मैं तुममें घटकर बढता हूं
मैं कितनी देर तक देखता हूं
तुम्हें
कि याद नहीं रहती कोई वजह
मेरे पास कुछ नहीं कीमती
सिवाय तुम्हारे खत और चुम्बनों के
बस यह क्षितिज जो कहीं खतम नहीं
तुम आती हो अपने पैरों से चलकर
एक बिंदू
एक नक्षत्र
एक रिक्तता बनकर
यह पृथ्वी एक आलापहीन औरत की तरह
बैठी है ललचाती हुई
तुम्हारे मुंख से बरस पड़ने को.
लिखता हूं पानी की सतह पर
मैं तुम पर क्यों लिखता हूं
इसकी मेरे पास कोई वजह नहीं
मैं सब वजहें और कारण भूलता हूं
मैं लिखता हूं और गुम हो जाता हूं
मैं छिपता हूं तुमसे
भागता हूं
तेजी से रास्ते पार करते हुए
गिर पड़ता हूं
मैं नहीं जानता ऐसा क्यों है
जबकि तुम नहीं होती आसपास
मेरे पास कुछ नहीं है
न शब्द, न उपहार, न आवाज़
मैं अपने गूंगेपन में तुम्हें
गाता हूं
लिखता हूं पानी की सतह पर
तुम्हारे सपने और उम्मीदें
मैं तुम्हें भेंट करता हूं
पिघलता गिलेशियर
मैं तुम्हें बूंद-बूंद टपकते
देखता हूं
उफ! कितनी शांत आती हो तुम
जैसे एक गांव सो रहा है
तुम्हारी मूंदी पलकों के भीतर
तुम्हारी नग्न और बैलोस आंखें
चमकती है जुगनुओं की तरह
मैं तुम पर जो रचता हूं
वह तुम्हारे लिए नहीं होता
यह बात यहां ख़त्म होती है
बाकी सब मेरे ध्वस्त अस्तित्व का
हिस्सा है
जैसे तुम पर रचा सब कुछ.
मुझे तुमसे प्रेम है
मैं जीतता हूं
क्योंकि मुझे तुमसे प्रेम है
मैं पराजित होता हूं
क्योंकि मुझे तुमसे प्रेम है
मैं शब्दों में रचता हूं तुम्हें
शब्दों से छूता हूं
शब्दों में भोगता हूं
मैं चाहता हूं हर शब्द तुम्हारे
लिए हो-
ये अग्निशिखर हैं,
ऊंची उठती मीनारें हैं,
न लौटे हुए समुद्र में भटकते जहाज
हैं,
किले में दफ़्न एक खामोश मक़बरा है,
पहाड़ी ढ़लान से उतरती बारीश है,
गिरती बिजलियों में दमकता
तुम्हारा सूर्ख चेहरा,
छाती पर उभरा रात का सूरज,
खोयी कल्पनाओं की बंद सीपियां
ये फर्श, छायाएं और आलोडन
कुर्सियां, किताबें और परदे
खिड़कियां, तस्वीरें और जालियां
लकडी, शहद और इत्र
सब तुम्हारे लिए
हां सब तुम्हारे लिए
मैं इनमें धंसता हूं
चिन्ह्ता हूं अपने विजेता शब्द
मैं रीतता हूं
क्योंकि मुझे तुमसे प्रेम है.
______
(23
जून 1975, रतलाम, मध्यप्रदेश.)
पहला कविता संकलन ‘अनाज पकने का समय‘ भारतीय ज्ञानपीठ से वर्ष 2009 में तथा दूसरा संग्रह "पृथ्वी को हमने जड़ें दीं" बोधि
प्रकाशन से वर्ष 2014 में प्रकाशित.
पत्रिका समावर्तन के “युवा द्वादश” में कविताएं संकलित
पुरस्कार : वर्ष 2009 में विनय दुबे स्मृति सम्मान, वर्ष 2014 में वागीश्वरी सम्मान.
सम्प्रति: दवा व्यवसाय
सम्पर्क: 173/1, अलखधाम नगर
उज्जैन, 456 010, मध्यप्रदेश/ मो.: 0-94248-50594
Swapnil Srivastava नीलोत्पल की कविताओं में प्रेम और सम्वेदना की सघनता है । उनकी कविताओं की बनावट अद्भुत है ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर कविताएं है।����
जवाब देंहटाएंसमलोचन बहुत ही पसंदीदा जगह है अच्छा साहित्य पढ़ने के लिए. Arun Dev जी कितना कुछ जुटा रहे!
जवाब देंहटाएंनीलोत्पल को शानदार कविताओं के लिए बधाई। कवितायें पढ़ने के लिए समलोचन मेरा पसंदीदा प्लेटफार्म है। अरुण जी का चयन प्रशंसनीय है।
जवाब देंहटाएंनीलोत्पल की कवितायें कमाल की है| पाठक ओ बांधती हैं | पहले भी पढ़ी| लेकिन ये नयी है... इन सुन्दर कविताओं को पढवाने के लिए समालोचन को / अरुण देव जी को धन्यवाद ..
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविताएँ
जवाब देंहटाएंUmda kavitayein
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