तुषार धवल कवि, चित्रकार और अनुवादक के रूप में जाने जाते हैं पर मराठी
साहित्य पर उनकी गहरी पकड़ का अंदाज़ा इस विद्वतापूर्ण आलेख को पढ़कर लगा. संत
ज्ञानेश्वर और संत तुकाराम के जीवन, दर्शन, संघर्ष पर यह बहुत सारगर्भित आलेख है. किस
तरह से भक्ति का मार्ग धर्म की रुढियों से लड़ते हुए निर्मित हुआ इसे पढना आज और भी
जरूरी है.
संत
ज्ञानेश्वर और संत तुकाराम : भक्ति काव्य और आधुनिकता के बीज
तुषार धवल
(1)
संत ज्ञानदेव (ज्ञानेश्वर, ज्ञानोबा) के जीवन काल के प्रामाणिक ऐतिहासिक साक्ष्य
उपलब्ध नहीं हैं. लेकिन उनका काव्य, उनके जीवन से जुड़ी लोक
कथाएं, संत नामदेव रचित श्री ज्ञानदेव
समाधि वर्णनम् में उनकी जीवंत समाधि की घटना और लोक गीतों में मौजूद उनसे जुड़ी
घटनाओं और उनके प्रति संबोधित भावों के आधार पर विद्वानों ने उनका जीवन चरित
पुनर्गठित किया है.
उनका जन्म महाराष्ट्र में
सन 1273-75 ई. के आसपास माना जाता है. ऐसी
मान्यता भी है कि महज 22 वर्ष की उम्र में ही
ज्ञानदेव ने पूर्णत्व प्राप्ति के बाद जीवंत समाधि ले लिया था. भक्ति साहित्य और
मराठी लोक वांङ्मय में इसके अनेक साक्ष्य उपलब्ध हैं. ज्ञानदेव के पिता श्री
विट्ठल पन्त नाथ पंथ के सिद्ध गुरु गहिनीनाथ के शिष्य थे और विवाहोपरांत उन्होंने
संन्यास ले लिया था. संन्यास के कुछ वर्ष बाद अपने गुरु के आदेश पर वे पुनः गृहस्थ
जीवन में लौट आये. कालान्तर में उनकी चार संताने हुईं. निवृत्तिनाथ, ज्ञानदेव, सोपानदेव और मुक्ताबाई. ये चारों संतानें भविष्य में महान संतों के रूप में
समादृत हुईं और चारों ने ही अलग अलग समय पर जीवंत समाधि का वरण किया.
इस बीच, क्योंकि विट्ठल पन्त संन्यास वरण करके उसका त्याग करके पुनः
गृहस्थ जीवन में लौट आये थे, उनके ब्राह्मण समाज ने
उनका बहिष्कार कर दिया. उस समाज में यह धर्म विरुद्ध था कि कोई संन्यास लेने के
बाद पुनः वैवाहिक जीवन में लौट आये. संन्यास लेने का अर्थ था सामाजिक मृत्यु. जो
व्यक्ति सामाजिक रूप से मृत हो चुका है, वह पुनः समाज में कैसे
लौट सकता है, सामाजिक जीवन कैसे प्राप्त कर
सकता है ? इस सामाजिक बहिष्कार से दुखी हो
कर उन्होंने उन्हीं ब्राह्मणों से इस ‘पाप’ का निदान पूछा. निदान यही था कि वे अपने ‘धर्म पतित’ जीवन का अंत कर दें. फलतः
विट्ठल पन्त ने डूब कर अपने जीवन का अंत कर दिया. इससे व्यथित उनकी पत्नी ने भी
पति की ही तरह अपना जीवन भी त्याग दिया.
अल्पायु में ही चारों भाई
बहन अनाथ हो गए. बाल्यकाल में ही चारों संतानों में सबसे बड़े निवृत्तिनाथ को
गहिनीनाथ ने, जो उनके पिता विट्ठल पन्त के भी
गुरु थे, शक्तिपात द्वारा नाथ पंथ में
दीक्षित किया. कुछ ही समय बाद निवृत्तिनाथ एक सिद्ध योगी हो गए. निवृत्तिनाथ ने
अपने अनुज ज्ञानदेव को भी शक्तिपात द्वारा दीक्षित किया और ज्ञानदेव अपने बड़े भाई
के शिष्य रूप में स्थापित हुए.
माता पिता द्वारा
प्रायश्चित स्वरुप जीवन का त्याग भी इन चारों भाई बहनों को ब्राह्मण समाज में वह
स्थान ना दिला सका और वे भी उस समाज में बहिष्कृत से ही रहे. ऐसी कथा है कि जब वे
ब्राह्मणों से सामाजिक मान्यता प्राप्त करने गए तो उन्हें अपमानित होना पड़ा.
फलस्वरूप ज्ञानदेव ने वहाँ से गुजर रही एक भैंस के मुँह से ऋग्वेद के मन्त्रों का
पाठ करवा कर उन सभी ब्राह्मणों को चमत्कृत कर दिया.
संत ज्ञानेश्वर नाथ
सम्प्रदाय के सिद्धों द्वारा दीक्षित हुए थे. भारत में, विशेषतः महाराष्ट्र,
दक्षिण भारत
के दक्खिनी पठारी इलाकों और पूर्वी भारत के कुछ हिस्सों में नाथ पंथ का बहुत बोल
बाला रहा है. नाथ पंथ के संत शैव मतानुयायी सिद्ध योगी थे जिनकी साधना का आरम्भ
गुरु द्वारा शक्तिपात प्राप्त करने से होता था. यह परम्परा आज क्षीण रूप में ही
सही, लेकिन कायम है. शक्तिपात दीक्षा
उसी साधक को दी जाती है जो इसे प्राप्त करने के लायक हो चुका है. शक्तिपात द्वारा
गुरु अपनी शक्ति शिष्य में प्रवाहित कर उसकी कुण्डलिनी शक्ति को जागृत कर देता है.
शक्तिपात के क्षणों में शिष्य को दिव्य प्रतीति होती है और उसे अपने मूल स्वरुप की
पहली झांकी प्राप्त होती है.
दीक्षित होने के बाद
शिष्य की पूरी साधना ही कुण्डलिनी शक्ति को जागृत कर उसे मूलाधार चक्र से
उर्ध्वगमित कर शरीर में अवस्थित सात चक्रों,
यथा, मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्रार, का भेदन करते हुए सिर में स्थित सहस्रार चक्र (सहस्र दल कमल
के आकार का) में समाहित और वहीं उसे अवस्थित करने की तरफ प्रेरित होती है. यह एक
जटिल यौगिक प्रक्रिया है और इसे किसी सिद्ध गुरु के मार्गदर्शन में ही पूरा किया
जा सकता है. कुण्डलिनी शक्ति के सहस्रार में स्थिर होते ही साधक को शिवत्व की
प्रत्यक्ष अनुभूति होती है और वह ‘शिवोहम्’ भाव में लीन हो जाता है. यह परम आनंद की अवस्था और मोक्ष
है. ऐसी अवस्था में साधक जीवन मुक्त हो भव बंधन से उबर कर अपने शास्वत स्वरुप में, जो शिव है, सदा के लिए अवस्थित हो
जाता है. नाथ पंथ की मान्यताएं कश्मीरी शैव दर्शन से भिन्न नहीं हैं.
कश्मीरी शैव दर्शन शिव
सूत्र से उदित होता है. अन्य अगमों की तरह ही शिव सूत्र का भी एक मिथकीय आविर्भाव
माना गया है. मान्यता के अनुसार शिव सूत्र संभवतया आठवीं शताब्दी के अंत या नवमी
शताब्दी के पूर्वार्ध में वसुगुप्त पर प्रकट हुए थे. कल्लट के अनुसार खुद शिव ने
उनके गुरु वसुगुप्त को शिव सूत्र का ज्ञान दिया था. सत्य की मीमांसा जो शिव सूत्र
के माध्यम से प्रकट हुई है और जिसके अनुसार शिव ही एक मात्र परम चैतन्य है जिससे
हर कुछ उदित हो कर उसी में अस्त होता है, चार शताब्दी बाद
महाराष्ट्र के नाथ पंथ में भी उसी प्रबलता से व्यक्त और प्रतिपादित हुई है. यह
दर्शन संत ज्ञानेश्वर की ‘अनुभवामृत’ में बहुत प्रखर और उद्दात्त कवित्व के साथ प्रकट हुआ है.
"अनुभवामृत" का दिलीप चित्रे ने चालीस
वर्षों की अथक मिहनत से अँग्रेजी में "Anubhawamrut: An Immortal Experience of Being” के नाम से अनुवाद
किया है जो 1996 में साहित्य अकादमी से प्रकाशित
हुआ.
‘अनुभावामृत’ संत ज्ञानेश्वर की दूसरी रचना है. उनकी पहली रचना ‘ज्ञानेश्वरी’ तब संभव हुई थी जब वे महज
16 वर्ष की आयु के थे. ज्ञानेश्वरी श्रीमद्भगवद्गीता
पर संत ज्ञानेश्वर की 18 अध्यायों में की गई
काव्य व्याख्या है जिसमें चार चार पंक्तियों की 9000 ओवी (मराठी काव्य में प्रयोग में आने वाले छंद का ही एक प्रकार) हैं.
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह व्याख्या रूप काव्य मराठी भाषा में है. यह एक सायास
यत्न था कि इस ‘ईश्वर के गीत’ को अति संशिलष्ट और परिमार्जित संस्कृत भाषा से, जिस पर सिर्फ ब्राह्मणों का नियंत्रण था, निकाल कर लोक भाषा
में लोक सुलभ कराया जाए. यह एक ही साथ ज्ञान,
भक्ति और
भाषा का लोकतंत्र रचने का प्रयास था जो सत्य सम्बंधित गूढ़ चिंतन को ब्राह्मणों और
अभिजात के नियंत्रण से निकाल कर वर्ण, जाति और लिंग के विभाजनों
को अस्वीकार करते हुए जन जन तक पहुंचाने का माध्यम बना. वह भी तब,
जब उस जन
भाषा का कोई साहित्यिक अस्तित्व नहीं था. इससे ज्ञान के वे सीमान्त भी खुल गए जो
तब तक ब्राह्मणों के अलावा स्त्रियों और अन्य जातियों के लिए वर्जित थे. और इसका
मुख्य कारण था कि वेद उपनिषद आदि शास्त्रों की रचना ‘देव भाषा’ संस्कृत में हुई थी जिस
पर सिर्फ ब्राह्मणों का नियंत्रण हुआ करता था. प्रवचन करना समकालीन श्रोताओं का
निर्माण करता है जब कि लिखित पाठ भविष्य के पाठकों तक पीढ़ी दर पीढ़ी पहुँच कर एक
नए और विस्तृत क्षितिज का निर्माण करता है.
यह बोली गई भाषा के
मर्त्य रूप को लिखी हुई भाषा के अमर्त्य रूप में रूपांतरित करता है. संत
ज्ञानेश्वर का लोक भाषा में काव्य रचने का यह संकल्प मराठी साहित्य के बीज बोने का
ऐसा ही प्रयास था. यह काव्य सिर्फ इसलिए ही महत्त्वपूर्ण नहीं है कि इसमें जिस
भाषा का प्रयोग किया गया है, वह तब साहित्य के रूप में
बिलकुल नई थी बल्कि इसलिए भी कि इसी नई भाषा में काव्य की अद्भुत संभावनाओं और
अर्थों का विस्तार कर कवि ने उसे नई शक्ति और वह अर्थवत्ता प्रदान किया जो आज भी
मराठी साहित्य का पोषण कर रही है. ‘अनुभवामृत’ संभवतया ‘ज्ञानेश्वरी’ के बाद रचा गया था और संभवतया इसका रचना काल सन 1296 में संत ज्ञानेश्वर द्वारा 22
वर्ष की आयु में पुणे के पास स्थित आलंदी में ली गई संजीवन समाधि के ठीक पहले का
है. ज्ञानेश्वर की इस जीवंत समाधि का वर्णन संत नामदेव रचित ‘श्री ज्ञानदेव समाधी वर्णनम’ में मिलता है. संत नामदेव
ज्ञानेश्वर के समकालीन तो थे ही उनके सहयोगी,
साथी और
शिष्य भी थे.
मान्यताओं के अनुसार वे
संत ज्ञानदेव द्वारा ली गई जीवंत समाधि के प्रत्यक्षदर्शी भी थे. कुछ विद्वान इससे
सहमत नहीं हैं क्योंकि उनके अनुसार संत नामदेव का जन्म 1306 ई. में हुआ था जो ज्ञानदेव की समाधि के 10 वर्ष बाद का समय है. नामदेव ने संत ज्ञानेश्वर की समाधि के
बाद उनके दो भाई और बहन, क्रमशः, निवृत्तिनाथ, सोपानदेव और मुक्ताबाई के
भी समाधि लेने का वर्णन किया है.
भारत के उत्तर में स्थित
कश्मीर में 8वीं- 9वीं शताब्दी में कश्मीरी शैव दर्शन के आविर्भाव का असर भारत
के दक्षिण पश्चिम इलाकों में चार शताब्दी बाद कैसे पहुँचा, इस पर कोई ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद नहीं है. इसे एक तरफ
वर्षों तक होने वाले संतों और लोगों के आवागमन से जोड़ कर देखा जा सकता है, वहीं दूसरी तरफ कुछ नाथ मतानुयायियों के अनुसार, यह उसी परम सत्य तक पहुँचने की बात है, जिस तक कश्मीरी संत अपने ढंग से पहुंचे और नाथ सिद्ध अपनी
तरह से. क्योंकि सत्य एक ही है और सिर्फ वही है, इसीलिए
जब भी कोई सत्य की बात करेगा वह वही कहेगा जो विश्व में कहीं भी उस सत्य तक पहुँचा
हुआ कोई भी व्यक्ति करेगा. इसलिए, इसे दो अलग अलग देश काल
में हुए स्वाधीन शोध की तरह ही देखा जाना चाहिए. नाथ पंथ के अनुसार, यह ज्ञान मत्स्येन्द्रनाथ को तब मिला जब वे मत्स्य रूप में
उस ताल में तैर रहे थे जिसके पास आदि गुरु शिव आदि शिष्या पार्वती को परम सत्य का
ज्ञान दे रहे थे. कथाओं के अनुसार मत्स्येन्द्रनाथ ने मत्स्य रूप में रहते हुए उस
ज्ञान को सुना और उसे आत्मसात कर लिया. उनके द्वारा यह ज्ञान उनके अनुयाइयों तक
पहुँचा और फिर यही नाथ पंथ के लिए परम ज्ञान का स्रोत बना.
संत ज्ञानदेव नाथ सिद्ध
थे जिन्हें अपने बड़े भाई निवृत्तिनाथ से दीक्षा प्राप्त हुई थी. निवृत्तिनाथ को
गहिनीनाथ से दीक्षा मिली थी जो खुद उस आध्यात्मिक परम्परा के थे जिसका प्रादुर्भाव
गोरखनाथ से हुआ माना जाता है.
लेकिन अपने चिंतन और
स्वभाव में कश्मीरी शैव मत और नाथ शैव मत सामान हैं. नाथ सिद्धों द्वारा
प्रतिपादित ज्ञान ‘अनुभवामृत’ में काव्य रूप में प्रकट हुआ है. यह ज्ञान ब्रम्हांड को एक
चैतन्य ऊर्जा की तरह देखता है जो शाश्वत, स्वतंत्र और सृजनशील है.
वह अपनी इच्छा से प्रेरित होता है और उसी के आनंद में सृजनशील होता है. यह सृष्टि
उसी चैतन्य का खेल है, विलास है, उसका ‘चिद्विलास’ है. आधुनिक युग में Quantum
Physics के
तथा अन्य कई विषयों के विद्वान इसे ‘Nature’,
‘Cosmic Intelligence’, ‘Cosmic Consciousness’ आदि नामों से संबोधित करते हैं.
इन मान्यताओं के अनुसार भी एक विस्फोट (Big
Bang) से ही
ब्रम्हांड की उतपत्ति हुई है और उसका विकास एवं संचालन ऊर्जा से होता है, ऐसी ऊर्जा जो ‘intelligent’
है, चैतन्य है.
सभी पदार्थ के मूल में
अणु परमाणु के बाद भी यदि कुछ है तो वह है एक धडकती हुई ऊर्जा. कुछ लोग इसे उसी
ब्रम्हाण्डीय ऊर्जा से जोड़ कर देखते हैं जो चैतन्य है और समस्त सृष्टि को चला रही
है. इस विषय पर अभी कई विवाद हैं तथा सृष्टि के मूल में क्या है, इस बात पर आधुनिक विज्ञान अभी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच
पाया है. यहाँ तक कि ‘Big Bang’ के सिद्धांत पर भी
वैज्ञानिकों में मतभेद है. अतः ‘चैतन्यम आत्मा’ के शिव सूत्र के पहले सिद्धांत को अभी भी एक धार्मिक दर्शन
ही माना जता है जिसे कल्पना और मिथक के वर्ग में रखा जाता है.
विषय पर लौटते हैं.
शैव मत ने एक और एक मात्र
परम चैतन्य की धारणा को प्रतिपादित किया जिसे ‘शिव’ की संज्ञा दी गई. शिव एक समाधिस्थ चैतन्य है. वह निष्कंप
चेतना है. आत्मावलोकन की प्रेरणा से उसकी चेतना उसमें शक्ति को जन्म देती है जो
शिव को उसके समाधिस्थ संकुचन की अवस्था से निकाल कर उसका प्रसार करने लगती है और
इसी तरह सृष्टि का सृजन होता है. संत गोरखनाथ के अनुसार, “प्रसारम भाषयेत शक्ति: संकोचम भाषयेत शिव:.” यह सृष्टि शिव और शक्ति के योग से बनती और प्रसार पाती है.
शिव अकल्पनीय आयामों का शाश्वत आत्म है. शिव निष्कंप चेतना है जिसका प्रसार शक्ति
द्वारा होता है. शक्ति प्रसार में व्यक्त होती है और शिव संकुचन में. प्रसार ‘उन्मेष’ तथा संकुचन ‘निमेष’ है. प्रसार और संकुचन का
यह चक्र ‘स्पंद’ कहलाता है. शिव और शक्ति के इस उन्मेष और निमेष को
ज्ञानेश्वर ने एक अपृथक, अविभाज्य देह के रूप में
वर्णित किया है जो बेतहाशा, बेसुध, बेलगाम मैथुन में निरंतर मग्न है. यह एक शास्वत मैथुन है.
इस शास्वत मैथुन के अविरत वेग की तीव्रता में प्रेमी एक दूसरे को निगलते उगलते
रहते हैं. यह क्रिया अनादि अनंत और शास्वत है. यही वह धड़कता हुआ अनादि स्पंदन है
जो सृष्टि का निर्माण, प्रसार और विध्वंस करता
रहता है. शिव और शक्ति एक दूसरे से अलग नहीं वरन एक ही देह हैं. शिव निष्कंप है
जिसमें सृष्टि की इच्छा उसमें निहित शक्ति को उभार देती है और शक्ति धड़धड़ाती हुई
शिव का प्रसार कर उठती है.
परम चेतना (परम चैतन्य)
इस तरह अपनी सृजनात्मक ऊर्जा का विस्तार पाते हुए आनंदित होती है. यही आनंद सृष्टि
का मूल स्वभाव है. अतः सृष्टि के अन्य घटकों की तरह ही यह मनुष्य का भी मूल स्वभाव
है. यही कारण है कि मनुष्य हमेशा आनंद की तरफ जाना चाहता है, आनंद की खोज में रहता है, जो
उसका मूल स्वभाव है. इस परम आनंद का परम बोध उसे तब प्राप्त होते ही उसे इस बात की
अनुभूति होने लगती कि वह भी शिव है; वह शिव ही है, अन्य कुछ भी नहीं.
शक्ति से स्पंदित शिव के
प्रसार में, प्रसार के आनंद में, शिव अलग अलग तत्त्व,
द्रव्य और
रूप ग्रहण करता चला जाता है, जिसके अणु, परमाणु रूप के बाद भी वह ऊर्जा रूप में हर अणु, हर परमाणु और उसके बाद की हर अवस्था में मौजूद रहता है.
प्रसार के इच्छित चरम पर पहुँच कर शिव खुद को खुद में समेट लेता है, संकुचन की तरफ प्रेरित होता है और शक्ति को समेट लेता है और
तब शिव सिर्फ चैतन्य रूप में रह जाता है. सृष्टि का लोप हो जाता है. इस आधार पर यह
कहा जाता है कि शिव में शक्ति, शक्ति में शिव है. शक्ति
में निहित शिव में भी शक्ति है और उस शक्ति में भी शिव है. दोनों अपृथक हैं, एक दूसरे में कुछ इस तरह अवस्थित हैं कि उन्हें अलग नहीं
किया जा सकता. वे दो नहीं हैं, एक हैं, उनमें अद्वैत है. यही ‘शिवाद्वैत’ है. अतः यह सृष्टि शिव यानि परम चैतन्य का आनंद है, उसकी क्रीड़ा है. इसीलिए समस्त सृजन को चिद्विलास भी कहते
हैं.
यह शिव के विलास का, उसकी इच्छा और आनंद का प्रतिफलन है. सृष्टि मात्र शिव है, आनंद है. सब कुछ केवल और केवल शिव है. यही अद्वैत है, चरम और परम सत्य है. शिव से परे कुछ भी नहीं, उसके बाद कुछ भी नहीं है. यह ‘कुछ नहीं’ भी शिव ही है. यही ‘अनुत्तर’ है. शिवाद्वय के इस अपृथक
अविभाज्य रूप को मैथुन रत अवस्था में भाषित करते हुए ज्ञानेश्वर ने अद्भुत काव्य
सृष्टि की है जिसमें श्रृंगार, अद्भुत, रौद्र और शांत रसों का प्रगल्भ संयोजन हुआ है. इस सम्पूर्ण
अनुभव के सत-चित-आनंद, सच्चिदानंद को उन्होंने ‘अनुभवामृत’ का नाम दिया है.
‘अनुभवामृत’ पर अंग्रेज़ी में लिखे अपने एक अप्रकाशित और अधूरे लेख में दिलीप
चित्रे के अनुसार, “अनुभवामृत की पहली 64 ओवी ‘शिवाद्वय’ की काम-रत धारणा पर
केन्द्रित है जिसमें ईश्वर को मनुष्य देह में दर्शाया गया है, एक ऐसी देह जिसमें स्त्री पुरूष एक ही साथ हैं, अलग नहीं. यह देह लगातार दोलन की अवस्था में है जिसमें देह
का एक हिस्सा दूसरे पर हावी होने को उद्धत रहता है. ज्ञानदेव ने यहाँ बेसुध, बेकाबू, बेतहाशा और तीव्र गति से
चल रहे अनंत मैथुन के रूपक का प्रयोग किया है जो यदि दिव्य और अनादि सन्दर्भों में
नहीं होता तो यह मर्यादाओं का जघन्य उल्लंघन होता. ‘अनुभवामृत’ की शुरुआती ओवी को यौनिक क्रियाओं का, जिसमें तमाम काम केलियाँ, मुख
मैथुन और लैंगिक मैथुन आदि समाहित हैं, निर्भीक (निर्लज्ज भी)
वर्णन कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी. काम-रत यह युगल कई बार कामोत्कर्ष (orgasm) का अनुभव करता है पर पृथक
नहीं होता. वह शाश्वत रूप से आपस में गुंथा रहता है. ऐसा करते हुए ज्ञानदेव
दरअसल कश्मीरी शैव दर्शन के पहले सिद्धांत को प्रतिपादित करते है जिसके अनुसार शिव
और शक्ति अविभाजित- अपृथक हैं और लगातार अनत:क्रिया-मग्न रहते हैं.
शिव सूत्र का पहला सूत्र
है : “चैतन्यम आत्मा” जिसमें चेतना शक्ति और आत्मा शिव है. प्रथम स्पन्द्कारिका
के अनुसार शिव को “शक्तिचक्रविभवप्रभावम” की तरह वर्णित किया गया है. ज्ञानदेव ‘चैतन्य’ की व्याख्या शक्ति या
प्रेयसी के रूप में और ‘आत्मा’ की प्रेमी या शिव के रूप में करते हैं. इच्छा के धड़धडाते
वेग को वे ‘शिव की इच्छा’ और उसके ‘स्वातंत्र्य’ के रूप में व्याख्यायित करते हैं. ‘अनुभवामृत’ की 29-31 ओवी में ज्ञानेश्वर “शक्तिचक्रविभवप्रभावम” की व्याख्या करते हैं जिसका सार है कि शक्ति अपने स्वामी को
अपनी देह में धारण करती है और उसी से सहज आनंद के वेग में फूटती है. इस बात से
लज्जित कि उसका स्वामी कहीं नजर नहीं आता वह सृष्टि को उसके अलग अलग नामों और उसके
अलग अलग रूपों में आभूषण स्वरुप धारण कर लेती है. अपने मिलन को सीमित पा कर वह
अपनी कामनाओं का राग और उमंग से अपनी प्रचुरता में उत्सव करती है. (दिलीप
चित्रे के अंग्रेज़ी में काव्यानुवाद “Anubhavamrut, The Immortal Experience of Being, pg. 28 पर
आधारित).
शंकर (समकर) प्रकाश का
आदिम स्पंद है जिससे तरंग रूप में प्रवाहित शक्ति ऊर्जा के अनगिन रूपों का तेज
बुनती प्रसारित होती है. शक्ति शिव का अनवरत प्रस्फुटन है और यही ‘आदिस्पंद’ का मूल रूप है. अपने
अनादी निस्पंद रूप के अतल से शिव में आत्मावलोकन की इच्छा प्रेरित होती है.
शिवात्म एक ही साथ वस्तु भी बन जाता है और खुद उसका साक्षी भी हो जाता है. यहीं से
उस दिव्य कामेक्षा का उद्भव होता है और शक्ति शिव का प्रसार करने लगती है. शिव
विविध रूप धारण करने लगता है. ये सभी रूप शिव के आत्म का ही प्रक्षेप हैं. ये
प्रक्षेप शिव का ‘उन्मेष’ हैं शक्ति जिसका ‘विमर्श’ है.
अपने ‘आत्म’ से बेसुध शिव शक्ति को
अपने अस्तित्व की छोर तक ले जाना चाहता है लेकिन शिव का कोई छोर नहीं है, इसकी भिज्ञता आते ही कि सब कुछ अनंत शिव है, शिव खुद को खुद में समेट लेता है और अनादि चैतन्य के स्पंद
में संकुचित हो जाता है. ज्ञानेश्वर इस ‘निमिषोन्मेष’ को शिव-शक्ति की दो ध्रुवीय अनवरतता के रूप में वर्णित करते
हैं जो प्रबल काम के आवेग में संलिप्त हो कर सृष्टि को आकार दे रहा है. ऐसा करते
हुए वे वास्तव में बताते है कि भक्ति और भक्त एक ही हैं. भक्त शिव है और भक्ति
शक्ति है. इस तरह भक्त ही भक्ति भी है. शिव और शक्ति सब उसी परम चैतन्य शिव के रूप
हैं. यह अनवरत प्रेमानंद ही सृष्टि का स्वरुप है और यही भक्त और भक्ति का, शिव और शक्ति का अद्वैत है. यही है ‘शिवोहम’ और यही है ‘प्रत्ययाभिज्ञता’. यही है वह ‘सामरस्यता’ जो प्रेमी एक दूसरे को
पाते हुए अपने अहं को विलीन करते हुए परम आनंद की अवस्था में पाते है.
इस दर्शन के अनुसार शिव
ही सम्पूर्ण सृष्टि है और इस सृष्टि का हर एक अवयव ‘स्पंद’ से जुड़ा हुआ है. स्पंद से परे कुछ भी नहीं है. शिव शक्ति को
शास्वत प्रेम में रमे एक अविभाज्य शरीर की तरह कल्पित करते हुए ज्ञानेश्वर ने
स्पंद को उनके शास्वत मैथुन के रूप में रूपायित किया है. उनकी दृष्टि में (यह
शैव दर्शन से ही प्रभावित दृष्टि है)
सृष्टि उस दिव्य प्रेम और विलास की लगातार बदलती, अनगिनत
रूप लेती सृजनात्मक आत्माभिव्यक्ति है. यही ‘चिद्विलास’ है, ‘समकर’ की वह अवस्था है जो ‘जीवनमुक्त’ प्राप्त करता है. ईश्वर प्रेम है और प्रेम से परे कुछ भी
नहीं. भक्ति उसी प्रेम के पूर्णत्व की प्राप्ति है.
प्रेम का यह पूर्ण विश्व
ही कविता और कला की पूर्ण शिव-स्वरूप अभिव्यक्ति है. ज्ञानदेव के लिए यह पूरी
सृष्टि शिव का चिद्विलास है, और कविता का उत्कृष्टतम
स्वरुप भी चिद्विलास ही है. इसे यूँ भी व्याख्यायित किया जा सकता है कि सृजन के
क्षण में कवि भी उसी सर्वव्यापी शास्वत चैतन्य से आत्मा के स्तर पर सामरस्य की
अवस्था में आ जाता है. वही ‘आदि स्पंद’ और वही चैतन्य कविता के सृजन का आधार है. अतः जिस कविता ने
उस ‘आदि स्पंद’ को छू लिया वह उस चिद्विलास से एकीकृत हो जाती है.
ज्ञानेश्वर ने कविता को उसी ‘समकरी विद्या’ या ‘शंकरी विद्या’ के चरम स्थल तक पहुँचा कर कविता को चिद्विलास के रूप में
प्राप्त कर लिया.
इसकी समझ ही हमें संत
ज्ञानदेव और संत तुकाराम की कविताओं के मर्म तक पहुँचा सकती है. यही वह प्रस्थान
बिंदु या नाभि स्थल है जहाँ से परवर्ती मराठी कविता का उद्गम स्थल सृजित होता है.
इस लिहाज से, ‘अनुभवामृत’ न केवल शिवानुभूति या आत्म साक्षात्कार पर आधारित काव्य है, बल्कि अपने कवित्व के उद्दाम शिखर पर गूँजता, आने वाले समय की मराठी
कविताओं का आधार भी है.
(2)
संत तुकाराम (1608-1650) का जन्म वर्तमान पुणे जिले के अनतर्गत देहू नामक
स्थान पर एक धनाढ्य वैश्य परिवार में हुआ था जो कृषक था और कृषक उत्पादों के
व्यापार के अलावा ब्याज पर ऋण भी दिया करता था. राज्य व्यवस्था ने उनके पूर्वजों
को गाँव के ‘महाजन’ का पद दिया था जिस पर बाद में तुकाराम भी आसीन हुए.
किशोरावस्था में विवाहोपरांत वे एक गृहस्थ जीवन बिताते हुए एक बड़े संयुक्त परिवार
का भरण पोषण कर रहे थे. कुछ समय बाद उनका दूसरा विवाह भी हुआ जिससे उनकी सांसारिक
जिम्मेदारियाँ और भी बढ़ गईं. सन 1620 के दशक में लगातार तीन
वर्षों तक पड़े भयानक अकाल ने उनके जीवन की गति और दिशा को बदल दिया. अकाल के दौरान
लोगों को भूख से बचाने के लिए उन्होंने अपने अनाज का भंडार खोल दिया, जब वह भण्डार ख़तम हो गया तो उन्होंने अपनी संपत्ति गिरवी रख
कर अनाज का प्रबंध किया और भूखे लोगों में बाँट दिया. लेकिन हालात नहीं सुधरे और
लोग भूख से मरते ही चले गए, उनकी संपत्ति ख़त्म हो गई
और अब उनके पास अपने परिवार को भोजन देने लायक कुछ भी नहीं बचा. भूख से तड़प कर
उनकी पहली पत्नी की भी मृत्यु हो गयी और गिरवी पड़ी संपत्ति को छुड़ा पाने की उनकी
असमर्थता की वजह से ‘महाजन’ का पद भी छिन गया.
अब पूरे गाँव में उनकी थू
थू हो गई. हताशा में वे बिलकुल चुप हो गए और लोगों से कतराने लगे. घंटों एकांत में
बैठे तुकाराम का जी जीवन से ऊचाट होने लगा और वे अंतर्मुख हो गए. दुनियादारी से
विमुख, वे अपनी गृहस्थी भी भूल गए और हर
तरफ से तिरस्कृत होने लगे. अपने इर्द गिर्द इतनी मृत्यु, दुःख दर्द, असफलता, बीमारी और कष्ट की स्थितियों से हुए घोर संताप और निराशा
में वे अपने कुल देवता विट्ठल की तरफ मुड़े और प्रार्थना करने लगे. विट्ठल ने संत
नामदेव के साथ उनके स्वप्न में प्रकट हो कर उन्हें आदेश दिया कि तुम कवितायें
(अभंग) लिखो, वही तुम्हारा असली पेशा है. इन
बेकार की चीज़ों में मत रमो. उन्हें यह भी कहा गया कि नामदेव ने संकल्प किया था कि
वे विट्ठल के लिए 10 लाख अभंग लिखेंगे लेकिन वे उस
संकल्प को पूरा नहीं कर पाए. इसलिए, बाकी अभंगों को लिखने का
काम तुकाराम को स्वप्न में विट्ठल ने सौंप दिया. इस स्वप्न के बाद तुकाराम कहीं
निकल गए और कई दिनों के बाद पुनः प्रकट हुए. अब वे कवि थे और कविता के माध्यम से
वे विट्ठल से सीधा संवाद करते थे. इस बात से विचलित ब्राह्मणों के एक वर्ग ने
उन्हें कविता करने से मना किया और उनके लिखे को धृष्ट कर्म बताते हुए उनकी कविताओं
को इंद्रायणी नदी में डुबो दिया.
उन्होंने तुकाराम से कहा
कि यदि विट्ठल सचमुच तुमसे संपर्क में हैं तो अब इन्हीं डुबोई गई कविताओं को वापस
ला कर दिखाओ. व्यथित तुकाराम अन्न-जल त्याग कर वहीं इंद्रायणी नदी के किनारे बैठ
गए और जिद से भर कर विट्ठल की प्रार्थना करने लगे कि अब तो तुम्हें ही सम्हालना
होगा. अब प्रतिष्ठा का सवाल है. तुम अब जब तक वे कवितायें वापस नहीं लाओगे, मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करूँगा. कथाओं के अनुसार तुकाराम
इंद्रायणी के तट पर 13 दिनों तक अन्न-जल का
त्याग कर बैठे रहे और अंत में अचानक वे सभी कवितायें नदी की सतह पर उभर कर तैरने
लगीं. वे उसी रूप में वापस आ गईं जिस रूप में डुबोये जाने के पहले वे थीं. इस घटना
ने उनकी ख्याति चहुँ ओर फैला दिया. अब वे संत तुकाराम थे. वे आजीवन सिर्फ और सिर्फ
कविताएं ही लिखते और गाते रहे जो आज भी लोक परम्पराओं में और श्रुतियों में उपलब्ध
मिलती हैं. नदी से प्राप्त हुई कविताओं की घटना का जिक्र उनकी कविता में भी मिलता
है.
ऐसा माना जाता है कि सन 1650 ई के किसी एक दिन
वे अचानक कहीं गायब हो गए और फिर कभी किसी को नज़र नहीं आये. उंनका क्या हुआ, इसकी जानकारी किसी को नहीं है, हाँ उनसे जुड़ी कई कथाएं लोक मानस में अवश्य दर्ज हैं.
वारकरी सम्प्रदाय में प्रचलित मान्यता के अनुसार उस दिन खुद विट्ठल उन्हें लेने
आये थे और रोशनी से सजे एक रथ पर उन्हें वे अपने साथ ले गए. कुछ लोगों का मानना है
कि विट्ठल के गीत गाते गाते तुकाराम सूक्ष्म हवा में विलीन हो गए. एक अन्य मत के
अनुसार उन्होंने नदी में डूब कर अपना प्राण त्याग दिया. कुछ विद्वानों ने यह भी
शंका प्रकट किया है कि संभवतः ब्राह्मणों ने उनकी हत्या करवा दिया था. लेकिन किसी
भी एक वजह पर कोई मतैक्य नहीं है. आजीवन कविता लिखने वाले इस संत कवि ने कितनी कवितायें
लिखी है इस पर कोई मतैक्य नहीं है. विद्वानों का मत है कि उन्होंने जीवन में 5000 से 8000 तक कविताओं/ अभंगों की
रचना की जिनमें अब कुछ ही कवितायें उपलब्ध हैं. दिलीप चित्रे ने तुकाराम की
कविताओं का अनुवाद ‘Says Tuka’ शीर्षक से किया है जिसमें
उनकी 750 कविताओं/अभंगों का अनुवाद
है.
तुकाराम की कविताओं/
अभंगों की विशेषता है उनका ईमानदार आत्म कथन. वे कवि बनने से पहले भी एक समर्पित
सत्यवादी माने जाते थे और अपना व्यापार भी पूरी ईमानदारी से किया करते थे. विट्ठल
से आदेश मिलने के बाद उनकी तकलीफ और भी बढ़ गई कि जिस विट्ठल की उन्हें अनुभूति ही
नहीं हुई है, वे उनके बारे में क्या और कैसे
लिखेंगे. अपनी इस समस्या को उन्होंने अपने अभंगों में बहुत स्पष्ट जगह दी है. जैसे
जैसे विट्ठल की उन्हें अनुभूति होने लगी वैसे वैसे उन्होंने और भी सघन काव्य की
रचना की.
उनका काव्य ईमानदार आत्म
कथन है जिसमें वे अपने जीवन और समय की सभी स्थितियों और संकटों का ब्यौरा देते हैं
और उन्हीं ऐहिक स्थितियों के बीच वे पारलौकिक सत्य को ढूँढ लेते हैं. वे अस्तित्व के ईश्वरीय अनुभव की खोज करते हैं
जिसमें आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ का भेद, व्यक्ति और विश्व का भेद
घुल जाता है , ‘नाहीस’ (चित्रे की कविताओं में आया ‘नाहीसा’ शब्द) यानि ‘नहीं-सा’ हो जाता है, मिट जाता है. वे अपनी
चेतना को एक ब्रम्हांडीय और वैश्विक घटना की तरह देखते हैं जिसकी जड़ रोज मर्रा के
जीवन में गहरे धँसी हुई है लेकिन जो बोध की अनंतता तक फैला हुआ है जो ‘अणु से भी लघु और आकाश से भी व्यापक’ है.
दिलीप चित्रे ने उन्हें
मध्यकालीन और आधुनिक मराठी काव्य के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी की तरह देखा है और यह
भी स्थापना की है कि संत तुकाराम में आधुनिक कविता के सभी तत्त्व मौजूद थे.
उन्होंने भक्ति को ही एक अस्तित्ववादी आयाम दे दिया है जिसमें भाव और चिंतन का
अद्भुत सामंजस्य है. उनकी कविताओं में आधुनिक मनुष्य के अस्तित्व के प्रश्न, उसके उल्लास और संकट,
पीड़ा, घुटन और संत्रास, उसके भय और उसकी
व्याग्रताएं, दुःख दर्द, विषाद, और सुख शान्ति की चाह के
बीच छटपटाता मनुष्य, सभी एक ‘गूढ़ विनोद’ की तरह आते हैं.
स्वतंत्रता जहाँ अस्तित्व के आत्मनिर्धारण की स्वतन्त्रता है, वैसी जीवन स्थिति की चाह भक्ति काव्य के माध्यम से उनकी
कविताओं में व्यक्त होती रही है.
उनका काव्य ऐहिक विश्व की
रोज मर्रा की समस्याओं, मानव स्थितियों के चित्रण, जीवन के प्रति दार्शनिक बोध और इन सबके जरिये रचा एक अद्भुत
काव्य है जो सतह के नीचे बहुत ही गहरी अर्थ छवियों और गंभीर चिंतन लिए बहता चला
जाता है. चित्रे ने तुकाराम को विरोधाभासों का कवि बताते हुए कहा है कि वे ऐहिक
अनुराग के योगी हैं, वे ऐसे घनघोर भक्त हैं जो
अपने ईश्वर की प्रतिमा को भी प्रेम में डूब कर तोड़ सकता है, जिसे यह बोध है कि वह अपने भाव और अपने काव्य का अधिपति है.
चित्रे ने तुकाराम को एक आधुनिक अस्तित्ववादी कवि कहते हुए उन्हें भारतीय काव्य के
लिए अग्रेज़ी काव्य में शेक्सपीयर और जर्मन काव्य में गेथे के समतुल्य माना
है.
संत कवियों का काव्य आज
भी लोक मानस में श्रुतियों के रूप में बसा हुआ है. मराठी समाज में श्रुतियों के
रूप में लोक काव्य के अन्य स्वरुप भी मिलते हैं, मसलन, ‘ओवी’. ‘ओवी’ एक प्रकार का लोक छंद है जिसे महिलायें अक्सर घरेलू काम
करती हुई, जाँता (चक्की) चलाती हुई, चावल चुनती हुई, या एक समूह में कोई भी
काम करती हुई गाती गुनगुनाती हैं. ‘ओवी’ छंद का प्रयोग संत कवियों के काव्य में भी प्रचुर मात्रा
में हुआ है. ‘ओवी’ के अलावा ‘पोवड़ा’ या पावड़ा भी एक प्रकार का लोक काव्य है जिसे ‘साहिर’ गाते हैं. साहिर उत्तर
भारत में पाए जाने वाले चारण कवियों की ही तरह राजाओं की प्रशंसा और उनकी
विरुदावली गाने वाले कवि हैं. आज के सन्दर्भ में इसे राजनैतिक नारे बाजी के गीतों
के रूप में उपलब्ध माना जा सकता है.
इसी तरह लोक काव्य ‘लावणी’ और ‘तमाशा’ के रूप में भी अभिव्यक्त
होता है. ये दोनों ही काव्य को गीत और नृत्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं और किसी
घटना का विवरण करते हैं. इनकी छटा में एक अल्हड़पन, मस्ती
और ठेठ किस्म की खुरदुरी रूमानियत होती है जो यौनिक अभिप्रायों से भरी होती है. ‘इरॉटिक’ बिम्ब कभी सांकेतिक तो
कभी प्रकट रूप से इन दोनों माध्यमों में पाए जाते हैं. इन्हीं माध्यमों से मराठी
लोक थियेटर का विकास हुआ है जो आगे चल कर नाट्यशास्त्र और पश्चिमी थिएटर के मिले
जुले प्रभावों से आज के मराठी रंगमंच और माराठी सिनेमा और यहाँ के ‘‘पॉप’ संगीत का स्वरुप और आकार
तय करता है.
कुल मिला कर जहाँ संत
ज्ञानेश्वर ने भाषा, काव्य, ज्ञान और भक्ति को शास्त्रों की जकड़ से मुक्त कर उसका
लोकतांत्रिकरण कर, लोक भाषा में पहला साहित्य रचा और
ईश्वर और भक्ति को जन-सुलभ करते हुए सामंतवादी परिपाटी से विद्रोह कर आधुनिक
मानवतावाद का बीज बोया, वहीं संत तुकाराम ने
कविता में ईमानदार आत्मकथन और रोज- मर्रा के जीवन और उसकी समस्याओं को ईश्वर से
संवाद के रूप में प्रमुख स्थान दिया. महाराष्ट्र का पूरा का पूरा भक्तिकाव्य ही
सामंतवाद से विद्रोह कर आम जनता की महत्ता को स्थापित करता है और रोज रोज के जीये
जीवन को अपने काव्य में प्रमुख स्थान देता है. आधुनिक कविता में आने वाले ये तत्व
मराठी भक्तिकाव्य में बहुत पहले से मौजूद रहे हैं.
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तुषार धवल
22 अगस्त 1973,मुंगेर (बिहार)
पहर यह बेपहर का (कविता-संग्रह,2009). राजकमल प्रकाशन
ये आवाज़े कुछ कहती हैं (कविता संग्रह,2014). दखल प्रकाशन
ये आवाज़े कुछ कहती हैं (कविता संग्रह,2014). दखल प्रकाशन
कुछ कविताओं का मराठी में अनुवाद
दिलीप चित्रे की कविताओं का हिंदी में अनुवाद
कविता के अलावा रंगमंच पर अभिनय, चित्रकला और छायांकन में भी रूचि
सम्प्रति : भारतीय राजस्व सेवा में
tushardhawalsingh@gmail.com
वाह तुषार वाह!शानदार आलेख हेतु आपको और अरुण देव जी को हृदय से बधाई।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (12-08-2017) को "'धान खेत में लहराते" " (चर्चा अंक 2694) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही परिष्कृत और सारगर्भित लेख मिला।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बधाई।।
इजाज़त हो तो कुछ सुझाव:
जवाब देंहटाएं1.पोवड़ा या पावड़ा नहीं, बल्कि 'पोवाड़ा' सही है.
2.साहिर नहीं, 'शाहिर' सही है. इसकी उत्पत्ति 'शायर' से है.
3.पोवाड़ों और शाहिरों को लेकर यह पंक्ति- 'आज के सन्दर्भ में इसे राजनैतिक नारे बाजी के गीतों के रूप में उपलब्ध माना जा सकता है' - ज़रा condescending लगती है.
महाराष्ट्र के प्रगतिशील आंदोलन में शाहिरों और उनके पोवाड़ों का सुनहरा इतिहास है. इप्टा से जुड़े 'लोकशाहिर' द्वय अण्णाभाऊ साठे और अमर शेख़ हों या आज के समय के संभाजी भगत, महाराष्ट्र के सांस्कृतिक जीवन में इन शाहिरों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता।
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