बांग्ला कविताओं की
अपनी जमीन है, उस में आदिम मनुष्यता की बची हुई जो महक है. प्रेम की लरजती हुई जो
लौ है वह अभी बुझी नहीं है. दिक्कत यह है
कि इस महक और लौ को आप मूल में ही महसूस कर सकते हैं. पर अगर सुलोचना वर्मा और शिव किशोर तिवारी जैसे
दोनों भाषाओँ के गहरे जानकार हिंदी में हैं तो ये आपके लिए इसे भी संभव कर सकते
हैं.
क्या शानदार कविताएँ
हैं. और क्या अनुवाद है. इसे मैं एक उपलब्धि की तरह देखता हूँ. इसे आप बार बार लौट
लौटकर पढ़ेंगे.
शंख घोष की दस कविताएँ
मूल बांग्ला से अनुवाद: सुलोचना
वर्मा और शिव किशोर तिवारी.
“समकालीन बांग्ला कविता-जगत
के प्रतिष्ठित कवि और आलोचक शंख घोष का जन्म अविभाजित बंगाल के चाँदपुर (अब
बांग्लादेश) में हुआ था. इनका मूल नाम चित्तप्रिय घोष है. प्रारंभिक शिक्षा
अविभाजित बंगाल में समाप्त कर बंगाल के विभाजन के बाद कलकता से बांग्ला भाषा में
परास्नातक किया, जादवपुर, दिल्ली और विश्वभारती विश्वविद्यालयों में बांग्ला साहित्यका
अध्यापन किया.
उन्होंने कविता के
क्षेत्र में नए-नए प्रयोग किए हैं. शंखघोष की कविताओं का परिपेक्ष्य इस कदर व्यापक है कि
कभी उनकी कविता सूफियाना प्रतीत होती है तो कभी इंकलाबी; कभी उनकी कविता निज से
संवाद करती है तो कभी आसपास के समाज से. प्रेम से लेकर सामजिक विसंगतियों तक और
धर्म से लेकर दर्शन तक शायद ही कोई विषय उनकी कलम से अछूता रह पाया हो. घोष कवि,
आलोचक और शिक्षाविद् के साथ–साथ रवीन्द्र साहित्य के विशेषज्ञ विद्वान भी हैं.
उनकी लेखनी में मनुष्य, समाज, देश और सभ्यता को दिया गया महत्व उनकी गहरी सामाजिक
प्रतिबद्धता को दर्शाता है. वह अपने काव्य में शब्दों का इस्तेमाल किसी शिल्पी की
मानिंद करते हैं. अपनी कविता “जन्मदिन” में लिखते हैं -
“तुम्हारे जन्मदिन
पर और क्या दूँगा इस वायदे के सिवा कि
कल से हर रोज़ होगा
मेरा जन्मदिन”
अपनी कविता को वह
किसी धारदार तलवार की तरह इस्तेमाल करते दिखते हैं. उनके काव्य संसार में शब्दों
की वैचारिकता से भी अधिक महत्व व्यंगात्मकता को दी गई है जो उनकी कविता “कलकत्ता”
में स्पष्ट झलकती है –
“कलकत्ता की सड़कों
पर भले ही सब दुष्ट हों
खुद तो कोई भी दुष्ट
नहीं ”
शंखघोष को साहित्य
अकादमी पुरस्कार, सरस्वती सम्मान, रवीन्द्र पुरस्कार, पद्मभूषण, कबीर सम्मान जैसे
अनेकों सम्मान के साथ वर्ष २०१६ के लिए देश का सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार
ज्ञानपीठ दिया गया है. ८५ वर्ष की उम्र में भी उनका लेखन कर्म नियमित रूप से जारी है
और उनके लेखन से हमारा काव्य समाज और भी समृद्ध होगा. उनके शब्दों में कहें तो उन्होंने
अपने काव्य में समय को “जड़ से कसकर पकड़” रखा है.”
सुलोचना वर्मा
शिव किशोर तिवारी
1.
चाहत का तूफ़ान
इस छोर से उस छोर तक घूमती
नि:शब्द निर्जनता में
अँधेरी शाम की तेज़ अकेली
हवा में
तुम उठाती हो अपना
बादलों-सा ठंडा, चाँद की तरह पांडुर
नीरक्त,सफ़ेद चेहरा
विपुल आकाश की ओर.
दूर देस में मैं काँपता हूँ
चाहत की असह्य वेदना से --—
तुम्हारे श्वेत पाषाण-सदृश
मुख को घेरे
काँपती हैं-
आर्त प्रार्थना में उठी
हज़ार उँगलियों की तरह-
बालों की पतली लटें, बिखरी
अलकें
अँधेरी हवा में.
घिर आये बादल अपने ही भार से
आकाश के एक कोने में जमा हो गये —
उस पुंज के बीच बार-बार ज़ोर
से कौंधती है
कामना की तड़ित् ;
प्रचंड आवेग से फेनिल होता
प्रेम का अबाध्य प्रवाह
अंधकार के सीमाहीन अंतराल और
विचारमग्न, स्थिर धरित्री की
घन कांति को
अस्थिर करता है.
तुम उठाती हो अपना
बादलों-सा ठंडा, चाँद की तरह
पांडुर मुख,
रोते-रोते थककर चुप हुई धरती
के उठते-गिरते स्तन,
प्रार्थना में
क्लांत,विकल,दुर्बल, दीर्घ प्रत्याशा के हाथ,
विपुल, विक्षुब्ध आकाश की ओर
उठे —
और सबको घेरकर फैला अंधकार, तुम्हारे विरल केश,
असीम, एकाकी हवा में असंख्य
स्वरों वाले वाद्य.
धीरे-धीरे सृष्टि प्रस्तुत
होती है,
मानो
मर्मभेदी एक मधुर मुहूर्त
में दु:सह वज्र बनकर टूटता है उसकी चाहत का बादल
तुम्हारे उद्धत, उत्सुक, प्रसारित,
विदारित वक्ष के मध्य
मिलन की पूर्ण प्रेमाकुलता
के साथ -―
उसके बाद भीगी, अस्तव्यस्त, भग्न पृथ्वी की
गंदगी साफ़ कर
आता है सुंदर, शीतल,
ममता-भरा विहान
(काव्य संग्रह “दिनगुलि
रातगुलि” (1956) में संकलित, मूल शीर्षक- आकांखार झड़)
2.
बाउल
कहा था तुम्हें लेकर जाऊँगा
दूर के दूसरे देश में
सोचता हूँ वह बात
दौड़ती रहती है दूर-दूर तक
जीवन की वह सातों माया
सोचता हूँ वह बात
तकती रहती है पृथ्वी, तुमसे हार मानकर
वह
बचेगी कैसे !
जहाँ भी जाओ अतृप्ति और
तृप्ति दोनों चलती है जोड़े में
बाहर भी, अंदर भी.
उदासीन नहीं कुछ से-- समझ
सकता हूँ तुम्हारे सीने में
है कुछ और,
यंत्रणा खोलती है हृदय को
अपनी हर गिरह में, उस खुलने का
है अर्थ कुछ और .
नींद में देखता हूँ प्रकाश
के पूर्ण- कुसुम को नीलांशुक में
नहीं बाँध सकता है ये
जगते ही देखता हूँ कितनी
विचित्र बात है, एक भी खरोंच नहीं लगी
उसके प्रेम की देह पर
कहा था तुम्हें मैं फैला
दूँगा दूर हवा में
सोचता हूँ वह बात
तुम्हारे सीने के अन्धकार
में बजा है सुख मदमत्त हाथों से
सोचता हूँ वह बात.
(दिनगुलि रातगुलि, मूल
शीर्षक-वही)
3.
त्रिताल
तुम्हारा कोई धर्म नहीं है, सिर्फ
जड़ से कसकर पकड़ने के सिवाय
तुम्हारा कोई धर्म नहीं है, सिर्फ
सीने पर कुठार सहन करने के
सिवाय
पाताल का मुख अचानक खुल जाने
की स्थिति में
दोनों ओर हाथ फैलाने के
सिवाय
तुम्हारा कोई धर्म नहीं है,
इस शून्यता को भरने के सिवाय
.
श्मशान से फेंक देता है श्मशान
तुम्हारे ही शरीर को टुकड़ों
में
दुः समय तब तुम जानते हो
ज्वाला नहीं, जीवन बुनता है जरी .
तुम्हारा कोई धर्म नहीं है
उस वक़्त
प्रहर जुड़ा त्रिताल सिर्फ
गुँथा
मद्य पीकर तो मत्त होते सब
सिर्फ कवि ही होता है अपने
दम पर मत्त्त.
(मूल शीर्षक - वही, प्रकाशन-तिथि
की सूचना अभी अप्राप्त)
4.
जल
क्या जल समझता है तुम्हारी
किसी व्यथा को? फिर क्यों, फिर क्यों
जाओगे तुम जल में क्यों छोड़
गहन की सजलता को?
क्या जल तुम्हारे सीने में
देता है दर्द? फिर क्यों, फिर क्यों
क्यों छोड़ जाना चाहते हो दिन
रात का जलभार?
5.
जन्मदिन
तुम्हारे जन्मदिन पर और क्या
दूँगा इस वायदे के सिवा
कि फिर हमारी मुलाक़ात होगी
कभी
होगी मुलाक़ात तुलसी चौरे पर, होगी मुलाक़ात बाँस
के पुल पर
होगी मुलाक़ात सुपाड़ी वन के
किनारे
हम घूमते फिरेंगे शहर में
डामर की टूटी सड़कों पर
दहकते दोपहर में या अविश्वास
की रात में
लेकिन हमें घेरे रहेंगी
कितनी अदृश्य सुतनुका हवाएँ
उस तुलसी या पुल या सुपाड़ी
की
हाथ उठाकर कहूँगा, यह रहा, ऐसा ही, सिर्फ
दो-एक तकलीफें बाकी रह गईं
आज भी
जब जाने का समय हो आए, आँखों की चाहनाओं से
भिगो लूँगा आँख
सीने पर छू जाऊँगा ऊँगली का
एक पंख
जैसे कि हमारे सामने कहीं भी
और कोई अपघात नहीं
मृत्यु नहीं दिगंत अवधि
तुम्हारे जन्मदिन पर और क्या
दूँगा इस वायदे के सिवा कि
कल से हर रोज़ होगा मेरा
जन्मदिन .
('जन्मदिन' और 'जल' कविताएं इन्हीं
नामों से " निहित पातालछाया" (1961) में संकलित हैं.)
6.
कलकत्ता
हे बापजान
कलकत्ता जाकर देखा हर कोई
जानता है सब कुछ
सिर्फ मैं ही कुछ नहीं जानता
मुझे कोई पूछता नहीं था
कलकत्ता की सड़कों पर भले ही
सब दुष्ट हों
खुद तो कोई भी दुष्ट नहीं
कलकत्ता की लाश में
जिसकी ओर देखता हूँ उसके ही
मुँह पर है आदिकाल का ठहरा हुआ पोखर
जिसमें तैरते हैं सड़े शैवाल
ओ सोना बीबी अमीना
मुझे तू बाँधे रखना
जीवन भर मैं तो अब नहीं
जाऊँगा कलकत्ता.
(“आदिम लतागुल्ममय” (1972)
में संकलित, मूल शीर्षक-कोलकाता)
7.
बौड़म
ख़ूब भले बचे अपन
क़िस्मत ही अच्छी है,
धोखे की दुनिया में
आँखों पे पट्टी है.
किसी को छू लेता हूँ,
पूछता हूँ यारा,
“गली-गली फिरता है
क्यों मारा-मारा ?
इससे भला था, सब
परपंच भुलाकर
एक बार बेपरवा’
हँसता ठठाकर.“
सुनकर वे कहते हैं
“कौन मनहूस है?
छुपा-छुपा फिरता है
निश्चय जासूस है.“
हद्द ! बोले कल के
वो छोकरे चिल्लाकर
‘बौड़म’, हमाई ओर
उंगली उठाकर.
बस तब से बौड़म बन
श्याम बाजार के
आसपास रहता हूँ
वही रूप धार के.
(आदिम लतागुल्ममय, मूल शीर्षक
- बोका)
8.
मुखौटे
तब, जब सब सो जाते
दु:खीजन जग उठता.
आसमान आँखों के आगे झूले
नीचे शहर झूलता, और मकान
तारों-जैसे एक दूसरे से
मिलते हैं –
रात्रिकाल का निर्जन रस्ता,
गालों पर आँसू की लंबी
रेखा-जैसा
समय तैरता जलस्रोत पर,
और
सब कोई जब सोते हों, तब
दिन के मुखौटे उतारकर रख
हिम्मत करके सच्ची-सच्ची बोल.
(‘मूर्ख बड़ो, सामाजिक नय’
(1974) में संकलित, मूल शीर्षक- मुखोशमाला)
9.
अकेला
कितनी उम्र थी, दिल भी क्या
था
पद्मा नदी ने जब दे दी थी
मुझे विदा !
आज मन ही मन जानता हूँ कि
तुम नहीं, तुम नहीं,
मैं ही ख़ुद को छोड़ आया था
आधी रात.
उसी अपराध का फल है, नूरुल, कि तू अकेला
मेरे बग़ैर ही लड़ाई को चला
गया
उसी अपराध के कारण आज
बैठा-बैठा देख रहा हूँ तुझ
अकेले का दु:ख, मृत्यु, विजय.
(आदिम लतागुल्ममय, मूल
शीर्षक- एका)
10.
बना दो भिखारी पर ऐसी गौरी
तो नहीं हो तुम
मुझे हासिल करना है? इतनी ज़री बिखेरती,
ओ सुंदरी,
झालरें गिराती दोनों हाथों
से
!
ग्रहण करोगी मुझे? कभी न देखा इन
आँखों
ऐसा अतुल्य प्रेम.
तुम्हारा मृदु हास मेरे लिए
दुनिया पाने के आसपास,
तुम्हारे होठों में आणविक छटा
की ऊष्मा.
ले जाना है मुझे? किस सूने खेत से?
तुम बनीं आज अन्नपूर्णा, हाय!
समर्पण चाहिए बस तुम्हें, बारी-बारी सब
निकालना है –
मेद,मज्जा,दिल,दिमाग़.
उसके बाद चाहती हो मैं घुटने
तोड़ सरेआम रास्ते पर बैठूँ
हाथ में अल्मुनिये का कटोरा
लेकर.
लपेट लो रेशमी रस्सी, ख़ूब
बिखेरो ज़री, सुंदरी,
रोज़-ब-रोज़ मुझे अपने पैरों
के तले लाना चाहो.
बना दो भिखारी , पर
तुम्हारे मन में कभी यह
ख़्याल नहीं आया
कि ऐसी गौरी तो नहीं हो तुम !
(तुमि तो तेमन गौरी न’ओ (1978) में संकलित, मूल शीर्षक –
भिखारी बाना’ओ किन्तु तुमि तो तेमन गौरी न’ओ)
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शिव किशोर तिवारी
२००७ में भारतीय
प्रशासनिक सेवा से निवृत्त.
हिंदी, असमिया,
बंगला, संस्कृत, अंग्रेजी,
सिलहटी और भोजपुरी आदि भाषाओँ से अनुवाद और लेखन.
tewarisk@yahoocom
सुलोचना वर्मा
(जलपाईगुड़ी, पश्चिम बंगाल)
कॅंप्यूटर विज्ञान के
क्षेत्र मे कार्यक्रम प्रबंधक
आगमन तेजस्विनी सम्मान
verma.sulochana@gmail.com
शंख घोष की कविता एक ध्वनि पर कई-कई प्रतिध्वनियों का विरल समुच्चय है। शब्दों की गूंज-अनुगूंजों के संपन्न हो जाने के बाद बिंब गूंजना शुरू होते हैं, कई-कई जलबिंबों में। यहां एक साथ दस रचनाएं पढ़ना सुखद अनुभव..
जवाब देंहटाएंसब कोई जब सोते हों, तब / दिन के मुखौटे उतारकर रख / हिम्मत करके सच्ची-सच्ची बोल.
बहुत अच्छी कविताएँ और सटीक अनुवाद। वाह!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविताएँ और अनुवाद.
जवाब देंहटाएंadbhut kavitaen shankho da !!!!!!!!!!
जवाब देंहटाएंanuvad ki kala ki sunder baanagee k liye sulochna, tiwari ji ko sadhuwad!!!!!!!
इन कविताओं को उपलब्ध कराने के लिए आप सब का आभार।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (31-07-2017) को "इंसान की सच्चाई" (चर्चा अंक 2682) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
पढ़ सकी इसका आभार !
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबांग्ला अपनी लय और गीतात्मकता के कारण अद्भुत लगती है, अनुवाद में भी इसे बनाए रखना निश्चय ही कठिन होता होगा. खूबसूरत अनुवाद.
जवाब देंहटाएंKobi kay tumi i Jotha jotho samman diyechho. Tumi dhonyo.
जवाब देंहटाएंकिसी एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद एक बहुत हीं जटिल प्रक्रिया है। अगर यह महज भाषांतरण और लिप्यंतरण का मामला होता,तो फिर बात आसान होती। लेकिन बात जब दो भाषाओं की आत्मा, जमीन और जड़ों को पहचानकर उनके बीच एक सृजनात्मक अंतर्क्रिया और संबंध स्थापित करने की हो,तो बात उतनी आसान नहीं रह जाती। मेरी समझ से अनुवाद दो भिन्न संस्कृतियों एवं उसकी भावभूमियों का आपसी संयोग और संवाद है। प्रायः अनुदित कृतियाँ सिर्फ़ भाषांतरित होकर निरस हो जाती हैं। इस संदर्भ में समालोचन पर आज शंख घोष की अनुदित कविताएँ पढकर लगा कि कोई भाषा दूसरी भाषा की कृति को भाषा और लिपि के आग्रहों से मुक्त होकर, भाव की सहज संवेदना से हीं ग्राह्य, संप्रेषणीय और एक कृति के साथ न्याय कर सकती है ।
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