प्रचण्ड प्रवीर का कथा लेखन : वागीश शुक्ल












भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली से रासायनिक अभियांत्रिकी में प्रौद्योगिकी स्नातक प्रचण्ड प्रवीर  हिंदी के कथाकार हैं. २०१० में प्रकाशित उनका पहला उपन्यास 'अल्पाहारी गृहत्यागी: आई आई टी से पहले' चर्चित प्रशंसित हो चुका है. उनका पहला कहानी संग्रह जाना नहीं दिल से दूर' २०१६ में हार्पर हिंदी से प्रकाशित हुआ है.

इस संग्रह को एक ‘घटना’ के रूप में देखा जा रहा है. विष्णु खरे का मानना है कि इसे हिन्दी साहित्य में अगले सौ साल तक याद किया जाएगा. प्रयाग शुक्ल इसमें कथा रसऔर प्रेम रसका एक विचित्र और अनूठा संयोजन देखते हैं.

और यह भी कि आई.आई.टी (दिल्ली) के गणित के प्रोफेसर और हिंदी, उर्दू, फारसी, संस्कृत के विद्वान और सघन आलोचक और भाष्यकार  प्रो. वागीश शुक्ल ने इस संग्रह पर यह लेख लिखा है जो यहीं प्रकाशित हो रहा है. इसे पढना अपने आप में एक संवेदनशील वैचारिकता  से संवाद करना है  और हिंदी में कहानी की नई छवि को समझना है.



प्रचण्ड प्रवीर का कथा लेखन                  
वागीश शुक्ल





1
प्रचण्ड प्रवीर की चौदह कहानियाँ जाना नहीं दिल से दूर में संकलित हैं. इनकी पाठ-ज्यमितियों में मुझे कुछ ऐसी रेखाएँ दिखायी देती हैं जिनका नामाकरण मैं ‘स्पर्शी- पाठ (=tangential text)’ करना चाहूँगा. ऐसा करने के पीछे मेरा आशय यह है कि ये पाठ-रेखाएँ कहानी को उसकी स्वनिर्धारित आकृति से अविभाज्य होने पर भी उसके बाहर की ओर धकेलती हैं– जैसे एक वृत्त की स्पर्शरेखा यह बता रही होती है कि वृत्त के बाहर भी एक दुनिया है. उदाहरण के लिए उनकी अनेक कहानियों के पात्र प्रसिद्ध आख्यानों से लिये गये हैं. कुछ में मूल आख्यान की झलक है, कुछ में नहीं.

इस प्रकार झूलन के माधव और रुक्मिणी का जोड़ा विवाहित है तथा विवाह के पक्ष में उस विप्लव से तर्क भी करता है जो राधा-कृष्ण के जोड़े का उदाहारण देकर कालिन्दी से विवाह नहीं करता किन्तु इसके आधार पर कहानी को उस दुनिया में खींच ले जाना सम्भव नहीं है जिसमें हम इस कहानी को कृष्ण-रुक्मिणी के प्रेम के स्वकीयानुरागी कृष्ण और राधाकृष्ण के प्रेम के परकीयानुरागी  कृष्ण के दो पलड़ों वाली तराज़ू के बर-अक्स इस कहानी के माधव और विप्लव के पलड़े जोड़ कर कोई तराज़ू तैयार कर सकें. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इस कहानी में प्रेम और विवाह की सहवर्तिता का सवाल उठा ही न हो. रुक्मिणी अथवा राधा की बहस कहानी में लगातार मौज़ूद है और कहानी के अन्त में एक पद के बहाने मीरा का आगमन हमें इस द्वन्द के अखाड़े से बाहर खींच ले जाता है, यद्यपि इतनी दूर नहीं कि अखाड़ा दिखायी ही न दे.



1.1
एक दूसरे प्रकार का स्पर्शी पाठ प्रचण्ड प्रवीर के उन निर्देशों से बनता है जो कई कहानियों के प्रारम्भ में दिये हुए हैं और कई बार समर्पण-वाक्यों के भेस में हैं. उदाहरणार्थ सावन आए या न आए का प्रारम्भ रफ़ी, शकील और नौशाद की स्मृति में" से होता है और आसमान से आगे का प्रारम्भ "बारुच स्पिनोज़ा के नीतिशास्त्र पर आधारित एक अभ्यास  से होता है .
ये कैसे  काम करते हैं इसके उदाहरण के लिए मैं फिर झूलन कहानी पर आता हूँ जिसका प्रारम्भयासुजिरो ओजू की ‘बानशुन' के प्रति  से होता है. यदि आपको पहले से पता नहीं है तो भी कुछ प्रयास के बाद आप यह पता कर सकते हैं कि यासुजिरो ओजु (1903 - 1963) एक जापानी फ़िल्म निर्देशक थे और  ‘बानशुन’ उनकी एक प्रसिद्ध फ़िल्म का नाम है. यह भी पता लग जायेगा कि इस फ़िल्म की कथा के अनुसार नायिका विवाह नहीं करना चाहती क्योंकि उसे अपने विधुर पिता की देखभाल करनी है और उसके पिता यह झूठी स्वीकारोक्ति करते हैं कि वे पुनर्विवाह करने वाले हैं ताकि अपनी इस ओढ़ी हुई जिम्मेदारी से उनकी बेटी मुक्त हो जाय और विवाह कर ले. होता ऐसा ही है और फ़िल्म इस अर्थ में ‘विवाह- विरोधी’ कहीं जा सकती है कि उसने इस मान्यता पर सवाल उठाया है कि बिना विवाह के एक स्त्री अपूर्ण है.

अब इस सन्दर्भ में जब झूलन कहानी पर ध्यान देते हैं तो पुन: उस बात की पुष्टि होती है जिसका जिक्र इस कहानी के सन्दर्भ में पहले किया गया था, अर्थात् कहानी इस सवाल को केन्द्र में रखती है कि क्या प्रेम पर्याप्त नहीं है और जिस स्त्री का विवाह नहीं होता वह ‘बेचारी’ है.

एक और प्रकार का स्पर्शी पाठ इनमें से कुछ कहानियों में उन तमाम पद्योद्धरणों के माध्यम से सामने आता है जो जगह- जगह टिप्पणियाँ का काम करते हैं. उदाहरण के लिए पहले प्यार का पहला ग़म नामक कहानी कई अनुच्छेदों में बँटी है और प्रत्येक अनुच्छेद का समापन एक शेर से होता है जो कहानी के उस अनुच्छेद का सारांश बताता हुआ माना जा सकता है. इस प्रकार कहानी के अन्तिम अनुच्छेद का समापन (मीर तक़ी
'मीर' के) इस शेर से होता है:
इस अह्द में इलाही मुहब्बत को क्या हुआ
छोड़ा वफ़ा को उनने मुरव्वत को क्या हुआ

और इसे कहानी के समापन वाक्यों दिलीप के पहले प्यार का पहला ग़म भी झूठा था. इस पूरे खेल में सब मोहरे थे. अलका, वीणा यहाँ तक कि खुद दिलीप भी. . . की काव्यात्मक प्रस्तुति माना जा सकता है. यह तकनीक मीर के शेर से अह्द(= युग) का आश्रय लेती हुई कहानी में वीणा की इस व्यथा को पुष्ट करती है कि आजकल लोगों को प्यार करना भी नहीं आता किन्तु इसी के भरोसे कहानी का छिछोरा प्यार  मीर के ‘इश्क़' की ऊँचाइयों की ओर छलाँग मारता है और इस ‘आजकल' को शाश्वतिकता देते हुए कहानी में अनुपस्थित है ‘आदर्श प्यार’ की हक़ीक़त पर भी प्रश्नचिह्न टाँकता है.

उद्धरणों पर आश्रय का चरम समीक्षा नामक कहानी है जिसकी देह ही उद्धरणों से बनी है और यह देह फिर इस अर्थ में उद्धरणों के ही लिबास में दृश्य है कि वह शुरू से आख़िर तक फ़िल्मी गीतों में सराबोर है. एक लड़की अपने पिता को एक कहानी सुना रही है जिसे उसकी प्रेम- कहानी मान सकते हैं किंतु पिता- पुत्री समवयस्क हैं और बीच-बीच में श्रोता के आसन पर पिता की जगह पिता के नामरूप में ही कोई अन्तरंग मित्र बैठ जाता है जो अपनी भी प्रेमकथा सुनाता रहता है. ऐसा लगता है कि कई कथाओं का एक कोलाज तैयार हो रहा हो जिसमें वक्ताओं श्रोताओं और वक्तव्यों की इयत्ताएँ अपनी पहचानों के टैग खो चुकीं हैं और एक दूसरे को कथाक्रम की गुमशुदा डोरी का सहारा छूट जाने के बाद आवाज़ के उतार चढ़ाव के भरोसे-टटोलने की कोशिश कर रही हों. हम एक ऐसे नाटक के दर्शक के रूप में अपने को पाते हैं जिसमें पात्रों के मुखौटे और उनके संवाद नाट्यलेख की पकड़ से बाहर हो गये हैं और अभिनय एक अपना अलग तर्क विकसित कर रहा है.

झूलन कहानी पर लौटते हुए, इस तीसरे प्रकार के जो स्पर्शी पाठ उसमें हैं, वे जगह- जगह रुक्मिणी को उसके राधा होने और इस प्रकार राधा से रुक्मिणी में बदलने की याद दिलाते रहते है. विवाह के विरोध में विप्लव की ओर से कई तर्क दिये गयेहैं जिनमें कुछ तो झूठे हैं जैसे –‘शादी करूँगा लेकिन माँ बाप से पूछ कर’ किन्तु असली बात यह है :

मेरे मन में रह- रह कर गम्भीर प्रश्न ये उठता हैं कि आखिर ये विवाह किस लिए? ये आकर्षण सौन्दर्य का नहीं तो किसका है? एक दिन हमारा यौवन ख़तम हो जायगा फिर क्या प्रेम रहेगा ?
और आगे :
मेरी खुशी इसमें हैं कि कालिन्दी पूर्णिमा के चाँद की तरह कभी- कभी मेरे जीवन के आकाश में आये. वो इसके लिए तैयार नहीं, इसका मुझे बड़ा अफ़सोस है. मैं जानता हूँ शादी करने से मुझे कोई खुशी नहीं मिलेगी.

कहानी के बीच - बीच में माधव भी रुक्मिणी को राधा’ कह कर बुलाता है और अन्त में जब वह यही सम्बोधन उसके लिए प्रयोग करता है तथा रुक्मिणी कहती है,मैं रुक्मिणी हूँ, राधा नहीं" तब माधव की प्रार्थना है,  आज झूलन का आख़िरी दिन है.थोड़ा सोच कर बोलो जिस पर रुक्मिणी का उत्तर है, चलो, मैं रुक्मिणी नहीं, राधा नहीं, तुम्हारी माधवी . . .  और इसे समेटता हुआ मीराबाई का एक पद है जो कहानी को समाप्त करता है. इस प्रकार कहानी ‘रुक्मिणी’ और राधा’ से परे एक पात्र ‘माधवी’ की सृष्टि करती है जिसमें मीरा का समर्पण है और जो ‘माधव’ से पूर्णतया परिभाषित है. इसी पात्र में‘रुक्मिणी’ और ‘राधा’ दोनों: अन्तर्भुक्त हैं. इस प्रकार वस्तुत्त: माधव की भी तलाश वही है जो विप्लव की, अन्तर यह है कि माधव अपनी तलाश में यह पाता है कि ‘राधा’ और ‘रुक्मिणी’ को एक साथ साधा जा सकता है जबकि विप्लव द्वारा ‘राधा’ की तलाश अन्तहीन और असमाप्य है – कालिन्दी को जगह पर दूसरी लड़की इसी असमाप्य खोज की अगली कड़ी है .


1.2
वस्तुत: झूलन कहानी जिस असमंजस से जूझ रही है वह सीमाबद्धता (= finiteness) का नितान्त आधुनिक असमंजस है. जिन नामों के भरोसे इस असमंजस का समाधान ढूँढ़ा जा रहा है उनका आख्यान इसका समाधान बहुत पहले ढूँढ़ चुका है– और वह असीमता(= infiniteness) में है. कृष्ण वृक्ष नहीं, वन हैं; एकत्र नहीं, अनेकत्र हैं;व्यष्टि नहीं समष्टि हैं : व्रज में भी, मथुरा में भी, द्वारका में भी – रासमण्डल की प्रत्येक गोपी के साथ जोड़े में, कुब्जा के साथ शय्या पर और चाणूर के साथ अखाड़े में, सोलह हजार एक सौ आठ पत्नियों में से प्रत्येक के साथ उसके महल में. हर एक अपना कृष्ण स्वयं गढ़ता है और यदि वह अपने कृष्ण को दूसरे के गढ़े कृष्ण सेटकराता है तो कृष्ण उसके जीवन से लुप्त हो जाते हैं .

महर्षि वेदव्यास ने श्रीमद्भागवत में एक बहुत सूक्ष्म संकेत के माध्यम से यह बार स्पष्टकर दी है :
ततो गत्वा वनोद्देशे दृप्ता केशवमब्रवीत्
नं पारयेsहम चलितुम नय मां यत्र तो मन: ..
(श्रीमद्भागवत 10-30-38)

प्रसंग यह है कि रासलीला के समय एक गोपी (जिसे राधा माना जाता है) के साथ कृष्ण अकेले हो जाते हैं और वह कृष्ण से कहतीं है कि मैं थक गयी हूँ, चल नहीं सकती, (अत: तुम मुझे कन्धे पर बिठा लो और) जहाँ तुम्हारा मन करे ले चलो . इतना कहना था कि कृष्ण गायब हो जाते हैं क्योंकि राधा का यह कहना हो ही नहीं सकता कि ‘जहाँ तुम्हारा मन करे मुझे ले चलो’,वे यहीं कह सकती हैं कि ‘मुझे कन्धे पर बिठाओ और जहाँ मैं कहूँ, ले चलो’. रुक्मिणी को कृष्ण के पीछे चलना होता है, राधा के पीछे कृष्ण चलते हैं. दोनों एक देह में आ ही नहीं सकतें, उनका ऐक्य देह की सीमाबद्धता के पार कृष्ण की समष्टि में ही सम्भव है. इसीलिए एक व्रज में है, एक द्वारका में , इसीलिए कृष्ण कभी व्रज में लौटते नहीं. इसीलिए कृष्ण के जीवन के अनुरूप जीवन जीने की नहीं, समष्टि बन कर जीने की नहीं, उनके उपदेशके अनुरूप आचरण की अनुज्ञा की जाती है, व्यष्टि रहने और श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ने की अनुज्ञा की जाती है.

मेरी समझ में कहानी के अन्त में माधव द्वारा रुक्मिणी से राधा भी होने का जो अनुरोध है उसे व्यष्टि रहते हुए ही समष्टि जैसा आचरण करने का अनुरोध माना जा सकता है और रुक्मिणी द्वारा सोच विचार कर राधा- त्व तथा रुक्मिणी- त्व दोनों: का अनङ्गीकार करते हुए मीरा- त्व का वरण माधव के इस अनुरोध के पीछे की नादानी को रेखांकित करता है:
हमारी सादा दिली थीं जो हम समझते रहे
कि अक़्स है तो इसी आईने से गुजरेगा .
 (ज़फ़र इक़बाल)

इसका यह आशय नहीं है कि प्रेम और विवाह में किसी वरीयता क्रम का निर्देश किया गया है – कहा सिर्फ़ इतना ही गया है कि एक ही व्यष्टि-देशकाल में दोनों को एक साथ समाहित कर लेने का लोभ त्यागना होगा, यह स्वीकार करना होगा कि कोई अक्स ऐसा हो सकता है जो अलग आइने को माँग करें.
प्रवीर ने अपने स्पर्शी पाठों की रोशनी इतनी मद्धिम रखी है कि वह आँखों को चुभे न, कहीं से भी कहानी एक ‘रिमेक’ होने के लोभ में नहीं डगमगाती और अपनी सारी शाश्वतिकता के साथ है ‘समकालीन’ बनी रहती है जिसमें आज के पाठक को अपनी लालसाएँ और सीमाएँ - परखने- समझने का दिमाग़ी काम दिल और जिगर से लेना पड़ता है. एक सर्वदा-सर्वत्र उपस्थित विषय को एक नये प्रकाश वृत्त के भीतर खींच लाने के लिए प्रचण्ड प्रवीर धन्यवाद के अधिकारी हैं .


1.3
झूलन अपवाद नहीं है, संग्रह में अपनी विशिष्टता के नाते ध्यान आकृष्ट करने वाली कई कहानियाँ हैं. जाना नहीं दिल से दूर, जिसके नाम पर संग्रह का नामकरण भी है देवानन्द, सनसेट बुलैवार और मोबी डिक को एक श्रद्धांजलि के समर्पण- वाक्य से प्रारम्भ होती है, और अपने पात्र-नाम ‘बलराज ' के आधार पर बलराज साहनी का तथा अपनी कथावस्तु में गुरुदत्त, मीना कुमारी जैसे कुछ अन्य कलाकारों का पुण्य स्मरण भी करती है. यह बलराज नामक एक वरिष्ठ फोटोग्राफर की कहानी है जो एक फ़िल्म बना रहे हैं. उन्हें एक ज्योतिषी ने बता रखा है कि वह फिल्म कभी नहीं बना पायेंगे और अच्छा है कि वे एक फोटोग्राफर ही रह कर जीवन बितायें. लेकिन,जैसा कि बलराज साहब का कहना है ,  मैं अपने भाग्य से बड़ा हूँ. इस दावे को भरोसा मान कर बलराज साहब एक फ़िल्म बनाते हैं जिसे उन्होंने पूरा करने की ठानी है. हीरो वे स्वयं हैं, हीरोइन मीना कुमारी जिनकी तमाम फिल्मों से क्लिपिंग काटकर उनकी भूमिका निभवाई जा रही है. आख़िरी सीन बचा हुआ है किन्तु उसके लिए बलराज साहब उस समय की प्रतीक्षा कर रहे हैं जब वे मरने के लिए तैयार हों. वह समय आ गया है.

कहानी में निश्चय ही अतिप्राकृतिक (= preternatural) तत्त्व हैं किन्तु उन्हें कथा वक्ता को ट्रेन में मिले ज्योतिषी की भविष्यवाणी,उनकी फ़िल्म संभाल कर बनाना, पाणिनी.", बलराज साहब को चालीस साल पहले में ट्रेन में मिले ज्योतिषी की पुरानी भविष्यवाणी, और बलराज साहब तथा कथा वक्ता के बीच चल रहे टैरो खेल में कार्डों की तात्कालिक भविष्यवाणी तक सीमित करना भूल होगी. यह भविष्यवाणियाँ की अतिप्राकृतिकता नहीं है जो सिर्फ समय की रैखिकता को एक शीशे में सिकोड़ करझलका देती हैं. यह अतिप्राकृतिकता प्रकृति का अन्वालोप (= envelop) है ;यह देह की प्रकृति का, या यों कहिए कि प्रकृति की देह का, क्षरण है जिसमें भाग्य की भूमिका उतनी ही है जितनी पुरानी तस्वीर का रंग उड़ने में, बोले गये शब्द के हवामें लुप्त होने में या कली के फूल बन कर झरने में.

बलराज साहब यहीं भूल करते हैं जब वे अपनी लडाई भाग्य से मानते हैं जो भविष्यवाणी के शीशे में उनका पीछा कर रहा है और जिससे वे अपनी ज़िन्दगी का पहिया घुमा कर बच सकते हैं. उनके ये वाक्य – आज मैं मरने के लिए तैयार हूँ .. . . आज हम आख़िरी सीन शूट करेंगें."– अपने बोलने वाले की देह और उसके मन के पार, उसकी आत्मा के भीतर की छिपी हुई सचाई सामने ले आतें हैं. इन वाक्यों का निहितार्थ यह है कि फ़िल्म को बनाने वाला कोई और है, फ़िल्म का पात्र कोई और, जैसे जीवन का बनाने वाला जीवन जीता नहीं है और जीवन जीने वाला अपना जीवन बनाता नहीं है. बलराज साहब इस निहितार्थ को उपेक्षित करते हुए अपने जीवन को स्वयं बनाना चाहते हैं जिसके नाते आख़िरी सीन शूट करने के लिए उन्हें मृत्यु की प्रतीक्षा करनी होती है. वस्तुत: उनके वाक्य,  मैं अपनी जान दें दूँगा लेकिन इसे पूरा कर के दम लूँगा.  में ‘लेकिन ' का तात्पर्य है ‘अर्थात्’, किन्तु बलराज साहब अपने शब्दों का सही अर्थ कर पाने में असमर्थ हैं और शब्द तथा अर्थ के बीच का यह अ- साहित्य हो उस अधूरेपन का साहित्य है जिसे उनका जीवन कहा जा सकता है. वे अपनी ही आत्मकथा को फ़िल्म में उतारना चाहते हैं किन्तु इसे एक देहान्तरण के रूप में परिकल्पित करते हुए भी इसी देह में रहतें हुए निर्मिति और निर्माता दोनों को भूमिका एक साथ निभाना चाहते हैं. यह दिये गये मैंके यथार्थ को इतना खींचने की कोशिश है कि उस पहलेपन के भीतर मेरी कल्पना’ का दूसरापन भी समाविष्ट हो जाय. किन्तु यदि निर्मिति निर्माता भी होना चाहती है तो उसे निर्माण-काय से बाहर होना ही पड़ेगा. एक तरह से यह भी,झूलन की तरह किन्तु एक दूसरे मुहावरे में, व्यष्टित्त्व विना- खोये हुए ही समष्टि-त्व पा लेने की लालसा का असमंजस है.

किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि बलराज साहब की कर्ता के रुप में कोई भूमिका ही नहीं है. यह एक प्रेम-कथा भी है जिसके नायक के रुप में बलराज साहब नायिका के अनुपस्थित हो जाने के बाद बचा हुआ जीवन जीने के लिए विवश हैं. किसी प्रेम कथा में (नायक या) नायिका की अनुपस्थिति को बे- वफाई’ शब्द से बता सकतें हैं – प्रेम का अ- निर्वाह चाहे मर कर हुआ हो, चाहे शुरू से ही न आ कर हुआ हो, चाहे बीच में छोड़ देने से हुआ हो. जोड़े में से जो पीछे छूट जाता है निभाना उसी को पड़ता है. बलराज साहब एक ऐसा ही निबाह कर रहे हैं उस अनुपस्थित प्रेमिका के साथ जिसे वे मीना कुमारी की उन क्लिपिंग्स में पा रहे हैं जो उनके पास मौजूद हैं. प्रस्तावित फिल्म की नायिका कहती है ,  मैं तुम्हें अपने शरीर से दूर भेज रही हूँ लेकिन तुम कहीं जाना नहीं दिल से दूर. यह एक शाप या वरदान है किन्तु बलराज साहब इसे चुनौती समझ रहे हैं और फिल्म बनाने की पूरी प्रक्रिया को पुरुषार्थ तथा भाग्य के बीच एक युद्ध की तरह परिकल्पित करते हैं. इस तरह से देखने पर भाग्य की जय और पुरुषार्थ की पराजय होती है किन्तु सच तो यह है कि फिल्म पूरी इसी तरह होनी थीं, आख़िरी सीन में है ‘आख़िरी’ होना यही तो था कि बलराज साहब की मृत्यु हो और इस मृत्यु को कैमरा फिल्म में दर्ज़ करें – ऐक्टर की हरकतें बन्द होते ही शूटिंग शुरू हो.


1.4
तलाश एक ‘प्रति- ऐतिहासिक’ कहानी कही जा सकती है. सलीम अनारकली को एक कहानी सुनाता है जो वर्तमान को उस दीवार का एक्स-रे करती हुई मशीन बना देती है जिसमें अकबर ने अनारकली को चिनवा दिया था. ये सलीम और अनारकली खुद भी एक ‘अल्फ लैला’ (= हजार रातें) के भीतर मौज़ूद हैं जिसकी हजार रातों का कथावाचन कहानी सुनाने वाले की नहीं है कहानी सुनने वाले की जीवनावधि तय करती हैं - कहानी सुनाने वाला सलीम है और अनारकली तब तक है जब तक हजार कहानियाँ ख़त्म नहीं होती. इस प्रकार हमारे अपने समय का प्रतिक्षेपण उसे दोहरे ऐतिहासिक काल की खोल के भीतर समेटता है. लेकिन समय के इस तिहरेपन के भीतर ताक़त का एक ही खेल चल रहा है - जिस में छोटा बच्चा सत्या बड़ों की दुनिया में राजा और पुलिस की ताक़त हासिल करके ही घुसना चाहता है, जिस में सलीम अनारकली को अपनी पहुँच में खींच लाने के लिए वह ताकत चाहता है जो अकबर के पास है और जिस में मौत उस ताकत के चुकने का इन्तिजार कर रही है जो ‘अल्फ़ लैला’ के कथावाचन में है. कहानी की सारी बुनावट इस खेल की बिसात में है जो आखिर तक बिछी रहती है क्योंकि उसके समेटे जाने पर खिलाड़ी परिचित से अपरिचित में बदल जाएँगें, खिलाड़ी न रह कर विजेता और विजित में परिवर्तित हो जाएँगे.
सावन आए या न आए भी ऐसी ही प्रति-ऐतिहासिक कहानी है जिसमें कच, ययाति, शर्मिष्ठा, देवयानी,पुरु, ये सब पात्र तो हैं ही, देवयानी के किताबों के बीच पले बढ़े होने का जिक्र करके उसके पिता की शुक्राचार्य से समकक्षता भी बता दी गयी है, देवयानी तथा शर्मिष्ठा का परस्पर सापत्न्यभाव भी मौजूद है और ययाति द्वारा पुरु से यौवन की याचना भी. पहचानना आसान है कि इसमें महाभारत के प्रसिद्ध शर्मिष्ठोपाख्यान की ओर कथावाचन को ले जाने का एक आग्रह है. किन्तु कहानी में पुरानी विख्यात कथा से कोई सम्बन्ध – पुन:-रचना का भी – ढूँढ़ना भ्रामक होगा, ये नाम सिर्फ यह याद दिलाते हैं कि ये पात्र इस कहानी के भीतर ही नहीं है इस कहानी के बाहर भी हैं, कहीं और, कहीं दूर, किसी दूसरी कथावस्तु के साथ. इन्हीं सब के बीच देवयानी से निकलता एक सदिश  (= vector ) थम्बेलिना तक भी जाता है, डेनिश परीकथा की अँगूठे जितनी लड़की जो संग साथ के विविध अभ्यर्थियों की चाहतें पार करते हुए अन्त में अपनी कदकाठी का साथी पाती है .

इस घटाटोप से झर रही बूँदों में हम देवयानी को पुरु के साथ नाचते हुए पातें हैं, ययाति के पत्र की चिन्दियों के बीच और उनके ऊपर,पानी के ऊपर और पानी में भीगते हुए. बनाव और अभिनय में अपने को छिपाये हुए देवयानी का अपने ईमान के भरोसे आदर बटोरती हुई शर्मिष्ठा से जो मुक़ाबला होता है उसमें कहीं न कहीं देवयानी के इस आरोप की सचाई भी सामने आ ही जाती है कि ययाति के यौवन की समाप्ति की उत्तरदायी शर्मिष्ठा है. इसलिए नहीं कि देवयानी का परित्याग करके उसने शर्मिष्ठा को अपना लिया, अपितु इसलिए कि शर्मिष्ठा चुनाव की सम्भावनाओं का, द्विविधाओं और विकल्पों का, एक महाजाल सामने प्रस्तुत करती है. ययाति ख़ुद इस बुढापे की स्थिरता में ही है, यौवन की सार्थकता तो देवयानी और शर्मिष्ठा से परस्परों में खर्च होनी थी. ययाति एक आइने का नाम है, देवयानी और शर्मिष्ठा उसमें से गुजर चुके अक्सों का जिन्होंने अब हमें उस आइने के सामने अकेला छोड़दिया है.


1.5
दरअसल प्रचण्ड प्रवीर के कथा लेखन की जिस तकनीक को मैंने स्पर्शी पाठ की संज्ञा दी है वह कुछ वैसी ही है जैसी किसी बड़े शाइर की मशहूर ग़ज़ल की जमीन में ग़ज़ल लिखना. आप छन्द और क़ाफ़िया उस महाकवि का लेते हैं, बातें अपनी कहतें हैं. जाहिर है कि पढ़ने वाले के मन में एक तुलना सी- चलती रहती है जो कभी- कभी एक क़ाफ़िये के भरोसे दो कवियों के दो अशआर के मुक़ाबले तक जा पहुँचती है. इसमें परवर्ती कवि के लिए खतरा बड़ा है क्योंकि वह अपने शिष्यत्व की प्रत्यक्ष घोषणा करता है किन्तु उसे एक सुविधा भी है कि अगर वह यह साबित कर सके कि उसने उस्ताद के अखाड़े के दाँव पेंच सीख लिये हैं तो उसका शिष्यत्व प्रमाणित हो जाता है. और अगर वह कोई बढ़त करता है तो बड़े उस्ताद का अच्छा शागिर्द कहा जाता है. प्रचण्ड प्रवीर का तरीक़ा अधिक मुश्क़िल-पसन्द है. मैं सातवीं कील नामक कहानी के स्पर्शी पाठों की चर्चा से अपनी बात को कुछ और साफ करना चाहता हूँ और शुरू में ही यह कह देना चाहता हूँ कि इस कहानी ने मुझमें जितनी उम्मीदें जगायीं उनके अनुपात में कहानी की उड़ान मुझे कम लगी.

इस कहानी के पात्रों में दुष्यन्त और शकुन्तला दोनों के नाम हैं और पहली नजर में इनके अतिरिक्त कहानी का कोई तार न तो महाभारत के शकुन्तलोपाख्यान से जुड़ता है न कालिदास के अभिज्ञान-शाकुन्तल से. किंतु हम देखतें हैं कि दुष्यन्त और शकुन्तला के बीच तलाक को नौबत इसलिए आयी है कि शकुन्तला को बच्चा चाहिए और दुष्यन्त इसके लिए तैयार नहीं है. इसके सहारे हम शकुन्तलोपाख्यान तक कहानी को एक कदम और खिसका सकतें हैं क्योंकि उसमें भी शकुन्तला विवाह के लिए इसीलिए हामी भरती है कि उसे बच्चा चाहिए, उसमें भी दुष्यन्त का बच्चे की जिम्मेदारी लेने से इनकार है और अगर तलाक़ नहीं है तो कोई ऐसा दाम्पत्य भी नहीं है जिसके सहारे शकुन्तलोपाख्यान आगे बढ़ता हो. इस कहानी में शकुन्तला के लिए विवाह की गौणता इसलिए है कि बच्चा चाहिए, दुष्यन्त के लिए विवाह की गौणता इसलिए है कि बच्चा नहीं चाहिए, और इस मतभेद में जिस बात पर ऐकमत्य है वह यह कि विवाह बच्चा होने का साधन है. दुष्यन्त की बहन रोशनी ने विवाह नहीं किया, शायद इसलिए कि उसे पिता की देखरेख करनी है और यद्यपि ऐसा कहा नहीं गया, उसके पिता जो उससे नाराज़ रहते हैं उसका यही कारण भी है.

किन्तु कहानी में ये सारी बातें रिक्तियों को भरने की जगह उन्हें स्फीत ही करती हैं, एक गुब्बारा बनाती हुई जिसकी सतह पर कहानी का चित्राङ्कन है. इस चित्राङ्कन में कहानी का शीर्षक ‘सातवीं कील’ और ‘इंगंमार बर्गमैन को श्रद्धांजलि' का समर्पण-वाक्य मिल कर कुछ ऐसा माहौल बनातें हैं जैसे इंगमार बर्गमैन की फिल्म ‘सातवीं मुहर’ (अँगरेजी में The Seventh Seal ) से इसमें कुछ होगा किन्तु इस पार्श्व संगीत की धुन से ताल मिलाता हुआ कहानी का कोई कदम नहीं उठता. ( वैसे, ‘प्रभाव’ खोजने की बार हो तों कहा जा सकता है कि जाना नहीं दिल से दूर में शतरंज का खेल और समुद्र के किनारे तूफान में मौत ‘सातवीं मुहर’ से लिये गयें हैं.)

मेरा कहना यह है कि ये शब्दालंकार हमें कहानी की आर्थी व्यंजनाओं का कोई सुराग नहीं देतें. यह शिल्प हमें ‘सातवीं मुहर’ के पीछे की बाइबली कहानी की याद दिलाता है जिसमें ईश्वर के हाथ में एक खर्रा है जिस पर सात मुहरें लगी हुई हैं और उसको पढ़ने के लिए अधिकृत व्यक्ति को वे मुहरें तोड़ कर ही उस खर्रे को पढ़ना होगा. जाहिर है कि इस प्रक्रिया में उन मुहरों को तोड़ कर फेंक ही देना होगा. ऐसा कर देने के बाद कहानी की प्रतीकात्मकता सीधी है. अँगरेजी में एक मुहावरा है, ताबूत की आखिरी कील’ जिसकी जगह कभी- कभी ‘ताबूत की छठीं कील’ भी लिखा जाता है क्योंकि सैद्धान्तिक रूप से ताबूत को टिकाये रखने के लिए (न्यूनतम) छह कीलें चाहिए. इसके अतिरिक्त जितनी भी कीलें लगती हैं वे अतिरिक्त दृढता के लिए लगायी जाती हैं. प्रचलन इक्सीस कीलों का है (और यह मृतक के सम्मान में इक्कीस तोपों को सलामी देने का प्रतीक माना जाता है).

कहानी में एक कविता के माध्यम से इस संख्या को अधिक मानते हुए यह कहा गया है कि केवल छह कीलें इस्तेमाल होनी चाहिए और एक सातवीं कील लगनी चाहिए जो मृतक के सीने में ताबूत से ठोंकी जाय और इस प्रकार यह सुनिश्चित करे कि मुर्दावस्तुत: मर गया है. दुष्यन्त की बहन इस कविता में अपना जीवन मानते हुए यह कहती है कि वह एक ताबूत में बन्द है और तब तक रहेगी जबतक कोई उसके सीने में सातवीं कील न ठोंक दे –तात्पर्य यह कि वह मृत्युपर्यन्त इसी स्थिति में रहेगी. इस सन्दर्भ के सहारे रोशनी का अकेलापन, पराजय का उसके द्वारा निर्विकार स्वीकार,सबकुछ सामने लाया गया है. वस्तुत: यह एक बड़े ताबूत को कहानी है जिसमें सभी पात्र बन्द हैं. यह बन्द पड़ा रहना , जिसका संकेत रोशनी का अपने पिता के पास बने रहना है चाहे इसे उसके पिता की असहायता का नाम दिया जाय चाहे उस‘नफ़रत' का जिससे उन्होंने उसे बाँध रखा है और जिसकी जकड़ उस ‘प्यार’ से ज़ियादा मज़बूत है जो दुष्यन्त के मन में इन्हीं असहाय पिता के लिए है,  इस ताबूत में एक कील के रूप में पहले से मौजूद है. गिनती में यह कील सातवीं तब साबित होगी जब इन दोनों में से किसी एक की मौत हो जाय और तब शायद रूहें ताबूत से बाहर निकल जायें किन्तु यह मुक्ति की कहानी नहीं है, ताबूत की है.


यह कहानी उस कालकोठरी की घुटन की एक सशक्त वर्णना है जिसमें हम अपनी उन तमाम मजबूरियाँ के चलते कैद होते हैं जो हो सकता है कि हमारे निर्णयों की उपज मानी जाय किंतु जो वस्तुत: हमारे जन्म लेने की सहज परिणति हैं. यह हमारे इतने पास की है कि इसे मुहरबन्द करना ग़ैरज़रूरी था.



1.6
यह सवाल शायद जायज है कि आख़िर नामोल्लेख के इन उदाहरणों पर इतना जोर देना क्या उचित है और क्या इस एक शिल्पविधि के भरोसे कहानी के मूल्यांकन को टिका देना सही तरीका है. दरअसल मेरा मानना है कि शिल्प का कोई न कोई धागा पकड़ कर उसे उधेड़ते हुए हम किसी कलाकृति की पूरी तहें खोल ले जा सकते हैं. हिन्दी में पौराणिक कथाओं के पुनर्लेखन तो हुए हैं और कभी-कभार पैरोडी लिखने की भी कोशिश हुई है किन्तु ‘स्पर्शी पाठ’ के जिस शिल्प को प्रचण्ड प्रवीर ने अपनाया है उसका उदाहरण मुझे हिन्दी में नहीं मिला. इस शिल्प पर दस परमादेशों (= Ten Commandments) में से तीसरे, तुम उसका नाम व्यर्थ में मत लेना" के अनुपालन की शर्त भी लागू होती है और इस अनुपालन को जॉच करना मैंने आवश्यक माना.

इस शिल्प से बहुत काम लिया जा सकता है और मैं इस कथन को योगवासिष्ठ (उत्पत्तिप्रकरण, सर्ग 89 - 90) में दी गयी कृत्रिम इन्द्र और अहल्या की कथा के उदाहरण से पुष्ट करना चाहता हूँ. कहानी यह है कि एक राजा की रानी का नाम अहल्या था और एक बार उसे पुराण सुनते हुए इन्द्र तथा अहल्या की कथा का परिचय प्राप्त कर यह ध्यान आया कि जब मेरा नाम अहल्या है तो मुझे इन्द्र क्यों नहीं चाहता. यह बात वह अपनी अंतरंग सखी से कहती है जो शहर से एक इन्द्रनाम के लफंगे को उसके सामने ला खड़ा करती है. अब ये इन्द्र और अहल्या परस्पर प्रेम में लिप्त हो जाते हैं. राजा को खबर होती है और वह इनको विविध प्रकार से दण्ड देता है हाथी से कुचलवा कर, तालाब में डुबोकर आदि. किन्तु इन पर कोई असर नहीं होता. अन्त में एक ऋषि इन्हें शाप देते हैं जिसके उत्तर में इनका कहना है कि ऋषि ने अपने पुण्य का क्षय व्यर्थ ही किया क्योंकि उनके शरीर तो इस शाप से नष्ट हो जायेंगें किंतु उनका प्रेम शरीर के परे वर्तमान है जिसे कोई शक्ति नहीं नष्ट कर सकती. ऐसा ही होता भी है और ये ही इन्द्र तथा अहल्या विविध जन्म प्राप्तकर के अन्त में एक तपस्वी- ब्राह्मण दम्पती के रूप में जन्म लेते हैं.

योगवासिष्ठ की यह कहानी इन दो नामों के सहारे पौराणिक कथा से सामाजिक औचित्य के सारे प्रश्नों को दरकिनार कर के प्रेम की उस शाश्वतिकता तक पहुँच सकी है जो उस कथा की मज्जा है. जैसा कि इस कहानी ने इंगित किया है, सामाजिक सदाचार की किताब देशकाल में लिखी जाती है और देशकाल से परिवर्तन के साथ परिवर्तित हो सकती है. यहाँ इस कहानी का उल्लेख करने का तात्पर्य इससे प्राप्त शिक्षा को ओर ध्यान दिलाना नहीं है, उस कथन प्रविधि की ओर ध्यान दिलाना है जो एक कथा से नाम निकाल कर उनकों एक दूसरी कथा में पिरोती है और कथा के कायाकल्प का एक नया औषध योग प्रस्तुत करती है .



2
अपने चरित्र में संग्रह की सारी कहानियाँ यथार्थ की परत को उधेड़ कर कहीं भीतर घुसने की कोशिश करती हैं और उसका विवरण प्रस्तुत करने से सन्तुष्ट नहीं रहना चाहती. यथार्थ के भीतर की हलचलों को कई कहानियाँ में अति प्राकृतिकता की चिमटी से पकड़ा गया है. इममें से कुछ कहानियाँ का जिक्र इस आलेख में आ चुका है. लकीरें का हस्तरेखा-विशेषज्ञ रजत, एक फूल एमिली के लिए का ज्योतिषी रुद्रप्रताप भी ऐसी ही चिमटियाँ का काम करतें हैं.
दरअसल इन कहानियाँ में काम करता हुआ मन इस स्वीकारोक्ति के साथ कार्यरत होता है कि कोई भी घटित असम्बद्ध और स्वत: पूर्ण नहीं होता है जितना दीखता है उससे ज़ियादा वह है जो नहीं दीखता और कला का प्रयास उन कोनों में पहुँचने का होना चाहिए जहाँ की हलचलें नज़रों से ओझल हैं. यह कोशिश कुछ पौराणिक या ऐतिहासिक व्यक्तियों के उलेख के सहारे हो सकती है, कुछ अन्य कलाकृतियाँ –फिल्मों, गानों, कविताओं की ओर इशारा कर के हो सकती है, कुछ रहस्यमय विद्याओं के भरोसे हो सकती है. लेकिन प्राय: इनकी रचनात्मक बेचैनी का प्रकाश-जाल एक बडी दूरी को अपने घेरे में लेने की इच्छा और सानुपातिक ऊर्जा से सम्पन्न होता है.

मैं इस दृष्टि से आसमान से आगे नाम की कहानी को लेकर कुछ उलझन में हूँ. यों तो मैं इस कहानी में एक जगह नरेन्द्र के कुरते में से काला पिस्तौल झाँकता दिखा" के बाद दूसरी जगह नरेन्द्र को अपने कुरते की जेब में बन्दूक घुमाते देखा" पढ़ कर ही थोड़ा चौंका क्योंकि हिन्दी में हम ‘बन्दूक (= Shotgun)’ समझते हैं यद्यपि यह सच है कि अगर यह कहानी अँगरेजी में लिखी गयी होती तो gun शब्द का प्रयोग हुआ होता जिसमें पिस्तौल से ले कर तोप तक का समाहार है तथा gun का अनुवाद प्राय: ‘बन्दूक’ किया जाता है. किन्तु ऐसी चूकें आसानी से ठीक की जा सकती हैं यदि भाषा- सुधार पर थोडा और ध्यान दिया जाय. शब्दों: का चुनाव अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है – उदाहरण के लिए इसी कहानी में ‘परीक्षा में नकल’ के लिए ‘चोरी’ शब्द का उपयोग यह बता देता है कि यह कहानी बिहार की पृष्ठभूमि में है. मैं जिस ओर इशारा करना चाहता हूँ वह एक दूसरी बात है.

कहानी ऊपर-ऊपर से ‘परीक्षा में नकल’ की है जिसमें नक़ल कराने की कोशिश में लगे नरेन्द्र नामक एक गुन्डे द्वारा अनन्या नाम की एक ईमानदार शिक्षिका पर चलायी गयी गोली बीच में आ पड़े सनत कुमार नामक एक लड़के को लग जाती है. किन्तु सनत कुमार की मृत्यु को उसकी ‘हवा में उड़ने’ की चाहत से जोड़ दिया गया है और यही मेरे असमंजस का कारण है. उसकी मृत्यु के बाद जो होता है वह इस प्रकार वर्णित है :


दूर गगन में उड़ते- उड़ते सनत कुमार की खुशी की सीमा न रही. आखिरकार वो अपनी इच्छा से कभी ऊपर, कभी नीचे, कभी बाएँ, कभी दाएँ, कभी हवा के साथ- साथ, कभी झोंकों से लड़ता वो अब सचमुच उड़ने लगा था. ऐसे गुदगुदाती हवा, इतनी ऊँचाई, धरती पर लड़ते- झगड़ते चीटियों जैसे लोग.
सनन कुमार के अनन्त आनन्द से अनभिज्ञ मरणशील केवल, मानस, अपने पर शर्मिन्दा लज्जित खड़े थे.

मैं इस उद्धरण में एक ही वाक्य में ‘वो’ के दो बार छप जाने और एक ही वाक्य में ‘शर्मिन्दा’ और ‘लज्जित’ दोनों के आने पर ध्यान नहीं दूँगा किन्तु मैं इस वर्णनात्मक क्रूरता का औचित्य समझ पाने में असमर्थ रहा. मृत्यु को स्वतन्त्रता से जोड़ने के बहुत से तरीके हैं स्पिनोज़ा ने भी कहा ही है कि ‘स्वतंत्र मनुष्य मृत्यु से कम कुछ नहीं सोचता’ और भारतीय चिन्तन में तो अनेक तरह से जीवन को बन्धन माना गया है – किन्तु इन सभी दार्शनिक स्थापनाओं के पीछे या समस्वरी साहित्यिक जुमले बाजियों के पीछे भी, विविध तर्कसंगतियाँ होती हैं जो उन्हें शोभन बनाती हैं.

आ बैल मुझे मार’ में व्यक्त की गयी ख्वाहिश, और ज़ुज़ ज़ख़्म-ए-तेग़-ए-नाज़ नहीं दिल में आरज़ू" में व्यक्त की गयी ख्वाहिश, दोनों ही चोट खाने की ख्वाहिशें हैं किन्तु वे एक दूसरे से मिलायी नहीं जा सकती. इस कहानी में जो तैयारी है वह इस मृत्यु को ट्रेजिडी की अर्थवत्ता ही दे सकती है, उसमें कोई और मोड़ पैदा करने के लिए तैयारी में भी बदलाव करना पड़ेगा.


2.1
संग्रह में कुछ कहानियाँ ऐसी भी हैं जिनमें बयान बेहद सपाट है और यह सपाटपन ही कहानी में सम्पूर्णता ले आता है क्योंकि आमतौर पर इन कहानियाँ के सरोकार बडे घटाटोप के साथ प्रस्तुत होते हैं. उदाहरण के लिए कसक समकालीन लेखन में ‘साम्प्रदायिक सौहार्द’ की कहानी होने को प्रतिश्रुत है और इसे इस प्रतिश्रुति का फलादेश होने से बचा ले जाना ही कहानी का कहानीपन है. ठीक यहीं बार यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते के बारे में सच है जिसे उसकी सादगी के नाते स्त्री-विमर्श’ के तहत दाख़िल-दफ़्तर कर पाने में मुझे हिचकिचाहट है.

हिन्दी कहानी लेखन की प्रचलित पद्धति के सर्वाधिक, निकट पहुँचती हुई कहानी बाजरे की रोटी भी अपनी अभिव्यक्ति में खुलखेल मुखर नहीं है. इसकी संरचना में कोई उलझाव नहीं है, एक मुहल्ले में एक स्त्री आ बसी- है जिसके बारे में यह फैला दिया गया है कि वह वेश्यावर्ग से है और मुहल्ले के लोग उसका गुपचुप बहिष्कार करते हैं जिसके अन्तर्गत बच्चों को भी उसके यहाँ जाने की मनाही हो गयी है. इस कारण से एक लड़का उस स्त्री के यहाँ बाजरे की रोटी नहीं खाता यद्यपि वह उस स्त्री में ममता ही पाता है. बाद में वह अपने घर में बनी हुई बाजरे की रोटी भी खाने से मना कर देता है. यह एक सीधे से अनौचित्य के विरोध में सीधा सा विद्रोह है.

साधारणतया ऐसी कहानी ‘हल्ला बोल’ शैली में लिखी जाती है किन्तु इस कहानी में हायतोबा मचाने से परहेज किया गया है और नीचे सुरों में ही अपनी बात कही गयी है. लेकिन प्रचण्ड प्रवीर की फितरत में जटिलता एक सहज तत्त्व है और बयान की यह सादगी वस्तुत: बहुत सारी तहदारी को अदा करने का एक सलीका भर है.

इन्द्रधनुष एक शीशे की तरह है जिसमें हर चीज का अक्स असानुपातिक दिखता है, शहर छोटा है जिसमें बैंक की छोटी सी नौकरी कर रहे नलिन बाबू की मामूली सी अमीरी महिन्दर जिल्दसाज की ग़रीबी पर भारी पड़ रही है और हरीश तथा जोगी ठाकुर के बीच सामान्य ज्ञान को मामूली सी क्विज़ सत्य निर्णय हेतु होने वाली वादगोष्ठियों का आडम्बर तानती है. यह कहानी बडे पैमानों और आकलनों की पैमाइश एक बेहद छोटी मापनी से करती हुई उनका मखौल उड़ाती है किन्तु इस क्रम में वह कहीं-न- कहीं बड़ाई को खराद भी रही होती है. इस खराद के बाद विजेता बालकृष्ण और पराजित महिन्दर शक्तिमान और शक्तिहीन नहीं रह जाते, अपने मोहरों हरीश और जोगी ठाकुर की तरह ही एक ही प्रजाति के खिलाड़ी रह जाते हैं जो अगर इस बाजी में जीत सकतें हैं तो पिछली बाजी में या अगली बाजी में हार भी सकते हैं. समाज को स्थिर और अपरिवर्तनीय वर्ग-विभाजन से परिभाषित करने वाली दृष्टि से भिन्न दृष्टि अपनाती हुई यह कहानी हमारे रूढ समाज चिन्तन में भी एक ताजगी ले आती है.

इक्कीसवीं सदीं ने हिन्दी में दो- तीन ऐसे कहानीकार दिये हैं जिन्होंने आदि- मध्य-अन्त के रैखिक कथा- विस्तार को बनाती हुई कथन-ज्यामिति में परिवर्तन लाने की चेष्टा की है. उनमें से प्रत्येक के पास अपना तरीका है. प्रचण्ड प्रवीर की शैली घटबोलेपन की है, वे बहुत कुछ न कह कर कहते हैं. उदाहरण के लिए वे कसक में यह कहीं नहीं बताते कि वयस्क अवस्था में मिली सबा के प्रति अकस्मात् उभर आया उदार भाव बचपन में मिली आलिया को पहुँचाये गये नुकसान की भरपाई है. इन्द्रधनुष में शुरुआती उठानें ग़रीबी अमीरी की पहचानी थापों पर कदम ताल करती हैं किंतु शीघ्र ही वे निचली तहों तक जा पहुँचती हैं और शक्ति-निर्णय के एक अर्थवान किन्तु अनुर्वर खेल को उजागर करती है .
हिन्दी के कथाकारों में ऐसा संयम दुर्लभ है – उनका तरीक़ा पाठक के जिम्मे कोई काम बाक़ी न रखने का है और वे साफ़- साफ़ हर कदम पर बता कर ही मानते हैं कि उनकी कहानी में प्रेम कहाँ है, अन्याय कहाँ है, जाति कहाँ है, सम्प्रदाय कहाँ है, और इन सबसे निपटने का उपाय कहाँ है. कहानी के इस निर्देश पुस्तिका माडल से बाहर आने के लिए प्रचण्ड प्रवीर बधाई के पात्र हैं.



3.
भारतीय साहित्य में ‘आधुनिकता’ एक आयातित शब्द है. निश्चय ही, जिन तर्कों ने पश्चिम में उसका रूप गढ़ा वे भारत में नहीं पनपे. किन्तु अब यह सोचने की घड़ी शायद आ गयी है कि पश्चिम के बौद्धिक सम्पर्क में इतना समय बिताने के बाद क्या हमारे सोच विचार के तरीकों में कोई बदलाव ही नहीं आया और क्या फ़ेसबुक गूगल ने उस दीवार में कोई दरार पैदा ही नहीं की जो भारत और यूरोमेरिका में है? मुझे लगता है कि हमारे मन पर इसका असर पड़ा ज़रूर है और अब हम तमाम चीजों पर उस तरह से बात नहीं करते जिस तरह से सौ या पचास बरस पहले करते थे. इस वाक्य में ‘हम’ का अर्थ एक साथ सारा भारतीय समाज नहीं है क्योंकि जाति, धर्म, और धन, के बीच के तमाम अन्तरों के बावुजूद आपसी परिचय के रूप में जो कड़ी मौजूद थी अब वह जर्जर हो कर नि:शेष होने के कगार पर है. अब धीरे- धीरे हम अपने उस कुटुम्बी को पहचान ही नहीं पाते जो हमसे बात कर रहा है और फलत: हमारे लिए उन बातों को नितान्त अर्थहीन और अप्रासंगिक मानने या नितान्त अर्थवान और प्रासंगिक मानने के विकल्प हमारे निजी चुनाव के भरोसे पर खुलने लगे हैं क्योंकि वक्तव्य को वक्ता को पहचान के साथ जोड़ पाना हमारे लिए सम्भव नहीं रहा.

समीक्षा कहानी में इस आधुनिकता की ओर यों इशारा किया गया है :

लेखक के परिचय की उपस्थिति एक नवीनता का अनादर करती है जो हमने परम्परा और अनभिज्ञता से आज तक सहेज कर रखा है. मेरा प्रश्न उस परम्परा की वैधता और गरिमा पर है जो किसी बिन्दु से सारे आयाम जानने और परखने की आकांक्षा रखता है और इसे अपनी विवशता कहता है.

‘परम्परा’ स्त्रीलिंग शब्द है अत: उद्धरण के अन्तिमांश को मैं आकांक्षा रखती है और इस अपनी विवशता कहती है के रुप में पढ़ना चाहूँगा किन्तु इस त्रुटि के नाते इस उद्धरण के कथ्य की ओर से ध्यान नहीं हट सकता. यह कथ्य पश्चिम में उभरी ‘लेखक की मृत्यु’ की घोषणा में एक मोड़ है. यहाँ जो बात उठायी गयी है वह ‘आधिकारिकता (= authority)’ की नहीं है जिसके भरोसे ‘लेखक (=अधिकारी=author)’ की अवधारणा विकसित होती है अपितु ‘नवीनता’ की है. लेखक की मौजूदगी और नवीनता के अनादर की सहवर्तिता का प्रस्ताव हमें इन शब्दों पर फिरसे एक नज़र डालने के लिए विवश करता है.
साहित्य में ‘नवीनता’ क्या है? बहुत सी संस्कृतियों: में लेखक के बिना भी साहित्य होता है और उनपर सभी का अधिकार होता है जैसे लोरियों पर सभी का अधिकार होता है. हमारे भारतीय साहित्य में बहुत कुछ इस प्रकार का है. अनेक ग्रन्थों के लेखक वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, नारद, हनुमान जैसे नामों के पीछे छिपे हुए हैं. लेकिन जहाँ ऐसा नहीं है, वहाँ क्या है? 

प्रमीथिअस की कथा को जब शेली ने पुन: लिखा तों उसमें नियति के विरुद्ध लड़ने को शौर्य मानना ही नया था किन्तु यदि हम इसे ही उसकी साहित्यिक स्वीकार्यता मान लें तो ईस्कलस के नाटक की स्वीकार्यता किसमें होगी जिसमें नियति के विरुद्ध लड़ने को अपराध माना गया है और क्या ‘प्रमीथिअस’ नाम की फिल्म नयी नहीं है जो शेली से ईस्कलस की ओर लौटने की कोशिश करती है
?

जब सामी चेतना ने यह अवधारणा प्रस्तुत की कि मनुष्य को ईश्वर ने अपनी प्रतिकृति के रूप में गढा है और इस प्रकार उसे सृष्टि में सर्वोच्च स्थान दिया है तब उसने  निश्चय ही एक नया विचार सामने रखा था क्योंकि इसके पहले मनुष्य को ऐसी केन्द्रीयता किसी सभ्यता ने नहीं दीं थी. आदि-मध्य अन्त में समय को समेट लेने वाला इतिहास भी तभी से प्रारम्भ हुआ –इसके पहले समय और देश हमारे ऐन्द्रिक अनुभव के आगे भी माने जाते थे. आँख- कान- नाक भीतर समस्त ज्ञान को समेटने का आग्रह भी तभी से प्रारम्भ हुआ और इन इन्द्रियों से बोध्यता के परे होने के नाते तभी से ईश्वर का ज्ञान से पार्थक्य भी स्वीकृत हुआ. जिसे हम आज ‘नवीनता’ कहते हैं वह पूरी तरह रैखिक कालबोध के भीतर टाँके हुए पड़ावों से नापी जाती है और इसी सामी चेतना की उपज है. 


इस चेतना के तहत ‘नवीनता’ का अर्थ हुआ परिपाटीगत चलन का विरोध. परिपाटीगत देव - वैविध्य का विरोधी एकदेववाद
, परिपाटीगत सामाजिक आचारों का विरोध करतें हुए नये सामाजिक आचार, यह सब उस चेतना के बुनियादी अवयव थे. पेगन मन और जीवन को पूरी तरह बदल कर ही यह नयापन आ सकता था और इस तरह अपने पूर्वजों की जीवन पद्धति का सर्वथा अस्वीकार ही इसकी रीढ़ थी. नवीनता की परिभाषा वैपरीत्य से निर्धारित हुई.
भारत में भी आधुनिकता और उसकी सहवर्ती नवीनता इसी चेतना से सम्पर्क और विनिमय का परिणाम है. हमारा जो रहन- सहन आज है वह हमारे पूर्वजों के रहन-सहन का विस्तार या संकोच नहीं है , उसका वैपरीत्य है. इस असमंजस को साधना हमारे लिए अपेक्षाकृत कठिन है. सामी चेतना ने पेगन चेतना को कुचलने और मिटादेने में पूर्ण सफलता प्राप्त की और कविता या मूर्तिकला में कभी कभार कोई अक्स भले उभर जाय, अपनी प्राचीन रीति-नीति का कोई अवशेष उनके पास नहीं है. यूरोपने अपने ईसाई करण के बाद अपने उत्तराधिकार के लिए विनष्ट हो चुकी ग्रीकोरोमन सभ्यता का एक कागजी पुनर्निर्माण किया और इस प्रकार एक सांस्कृतिक धरोहर के वारिस बन बैठे किन्तु जो कुछ बाइबिल में बचा रह गया है उसके अतिरिक्त उन लोगों के बारे में कोई जानकारी नहीं है जिन्होंने बाइबिल अपनायी.

हमारे यहाँ के ‘अपनाने’ का काम सिर्फ़ उन्होंने ही किया है जिन्होंने पुराने का तिरस्कार किया किन्तु तिरस्कार से अपरिचित एक सारा समाज अपनी चली आ रही जिन्दगी को जस-का- तस स्वीकर करते हुए चल रहा है- उसने नये जमाने से अनुकूलन किया है उसके आगे समर्पण नहीं किया. समर्पित आधुनिकों को इसी पारम्परिक जीवन के बीच रहना होता है और वैर के प्रतिदान के अभाव में वैसे ही एक तरफा हमले करने पड़ते हैं जैसे हवा चक्कियों के खिलाफ़ डान कीहोती के हमले होते थे. किन्तु जिन्हें आक्रामकता का कीर्ति लोभ नहीं है उनके लिए उस दुनिया को देखना तकलीफ़देह है जिसमें उनका प्रवेश अब सम्भव नहीं किन्तु जिसकी चल फिर से वे इनकार भी नहीं कर पाते. ऐसे हाल में वे इन दो संसारों के बीच के उस संवाद से तुको खोजना चाहते हैं जिसके अवशेषों को वे पहचान सकते हैं किन्तु जिसकी उपयोगिता अब नि:शंक नहीं रही. इन्हें ही हम ‘भारतीय आधुनिक’ कह सकते हैं .
प्रचण्ड प्रवीर इन्हीं भारतीय आधुनिकों में से हैं. इनका भारत एक निजी गमले में रोपा गया बोनसाई पौधा नहीं अपितु एक छतनार बरगद है जिसकी ताजी पत्तियाँ अपनी नसों में बोनसाई कला के पीछे का भी पुराकाल टाँके हुए हैं. इसलिए इनकी आशाओं और निराशओं की  किसी शीशमहल में नहीं, उस ज़मीन में हैं जो अपनी उर्वरता के लिए कृषि विज्ञान की मुहताज नहीं और अपनी लेख्यता का दावा बिना लेखकीय प्रमाण पत्र बने भी कर सकती है. आधुनिक भारत के तमाम ऊहापोहों को उधेड़ने- बुनने से बनी ये कहानियाँ एक नये वाद्ययन्त्र के परदों की तरह हमारे सामने आती हैं जिनको छेड़ने से परिचय की आश्वस्ति और अपरिचय की आशंका एक साथ थामे हुए संगीत को एक ऐसी महफ़िल सामने आती है जो है सर्वथा नयी यद्यपि उसमें पहचाने हुए रास्तों से ही जाया जाता है.
मैं हिन्दी कहानी-कला में एक नये चरण का प्रारम्भ करने के लिए प्रचण्ड प्रवीर की इस पुस्तक का स्वागत करता हूँ और मुझे पूरी आशा है कि हिन्दी का विशाल पाठक वर्ग इन कहानियाँ को खुले मन से अपनायेगा. उसे इसमें कुछ ताजा मिलेगा जो उसका अपना होगा. (12 जून 2017) 
wagishs@yahoo.com
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प्रचण्ड प्रवीर  बिहार के मुंगेर जिले में जन्मे और पले बढ़े हैं. इन्होंने सन् २००५ में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली से रासायनिक अभियांत्रिकी में प्रौद्योगिकी स्नातक की उपाधि ग्रहण की. सन् २०१० में प्रकाशित इनके पहले उपन्यास 'अल्पाहारी गृहत्यागी: आई आई टी से पहले' ने कई युवा हिन्दी लेखकों को प्रेरित किया. सन् २०१६ में प्रकाशित इनकी दूसरी पुस्तक, 'अभिनव सिनेमा: रस सिद्धांत के आलोक में विश्व सिनेमा का परिचय', हिन्दी के वरिष्ठ आलोचकों द्वारा बेहद सराही गई. सन् २०१६ में ही इनका पहला कथा संग्रह 'जाना नहीं दिल से दूर' प्रकाशित हुआ. इनका पहला अंग्रेजी कहानी संग्रह Bhootnath Meets Bhairavi (भूतनाथ मीट्स भैरवी )सन् २०१७ में प्रकाशित हुआ. इन दिनों प्रचण्ड प्रवीर गुड़गाँव में एक वित्त प्रौद्योगिकी संस्थान में काम करते हैं .
prachand@gmail.com

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  1. समीक्षा बहुत अच्छी लगी। बाक़ी तो संग्रह पढ़कर ही पता चलेगा।

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  2. Manisha Kulshreshtha28 जून 2017, 3:02:00 pm

    बिलाशक, प्रचण्ड प्रवीर ने समकालीन हिंदी कहानी को नया आयाम दिया है।

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  3. आलोचकीय दृष्टि ऐसी होनी चाहिए.

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  4. समीक्षा पढ़कर किताब पढ़ने का मन बन गया...

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  5. प्रत्यक्षा30 जून 2017, 8:50:00 am

    जाना नहीं दिल से दूर की कहानियाँ एक खास शैली और डीटचमेंट में पाठक तक आती हैं । इन कहानियों में किस्सागोई के साथ-साथ एक हैरानी भरा मोड़ ऐसी आसानी और सहजता से आता है कि पाठक उसमें बँध जाता है । आम हिंदी कहानी कहन की विधा से अलग हटी ये कहानियाँ पाठक को सुखद अचरज से भरती हैं ।

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  6. अविनाश मिश्र30 जून 2017, 8:50:00 am

    जाना नहीं दिल से दूर की ये चौदह कहानियाँ उन कथा-सूत्रों की वापसी की तरह पढ़ी जा सकती हैं जिनका केंद्रीय वैभव अपनी कहन को स्पष्टता से संप्रेषित और संवेदित करने में निहित होता था।

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  7. मीनाक्षी ठाकुर30 जून 2017, 8:52:00 am

    ये ऐसी कहानियाँ हैं जिनको पढ़ कर लगता है कि हिन्दी कहानी के आज और भविष्य उज्जवल हैं। हिन्दी कहानी को नया मोड़ देते हुए, यह बेहद संवेदनशील और सूक्ष्म कहानियाँ अपने बेमिसाल होने का दावा नहीं करती। यह शांत और सिद्ध कहानियाँ हैं, नाटकीयता से परे, अपनी सादगी और गहन चेतनाओं से भरपूर। इसके पात्र हमारे आपके जैसे लोग हैं, या फिर वे लोग जिनसे हम कहीं-कभी ज़रूर मिले होंगे । जाना नहीं दिल से दूर हमको उन्हीं लोगों, उनकी ज़िन्दगियों और भावनाओं के ओर वापिस लिए जाती है ।

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  8. वंदना राग30 जून 2017, 8:53:00 am

    जाना नहीं दिल से दूर दरअसल मानव मन के विभिन्न परतों को खोलती कहानियाँ है और अपने खिलंदड़े अंदाज़ में वे अपने समय और परिवेश की पड़ताल भी करती हैं। लेखक के पास प्रेम भी एक खूबसूरत नॉस्टॅल्जिक रंग में उभरता है, लेकिन कथ्य की गंभीरता कभी सिरा नहीं छोड़ती। सर्वथा नए तेवर की कहानियाँ प्रभावित करती हैं।
    लेखक को अशेष शुभकामनाएं।

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  9. अनु सिंह चौधरी30 जून 2017, 8:53:00 am

    ये कहानियाँ जादू हैं जादू …कभी गंगा किनारे लिए जाती हैं तो कभी बालिका वर्ष की महत्ता नन्हें की रुलाई के ज़रिए बताती हैं। शहर वही, किरदार वही - अपने आस-पास के, जाने-पहचाने से। लेकिन क़िस्सागोई के अंदाज़ का कमाल ही कहिए कि मन की वो गहरी परतें खुलती हैं, जिन्हें न हमने पहले देखा होगा न जिनके बारे में सोचा होगा कभी। हर कथानक का यही नयापन 'जाना नहीं दिल से दूर' की हर कहानी को बेहद पठनीय, बेहद ख़ास बनाता है।

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  10. सुधा सिंह30 जून 2017, 8:54:00 am

    प्रचण्ड प्रवीर की नवीनतम पुस्तक 'जाना नहीं दिल से दूर' कहानी के क्षेत्र में अभिनव प्रयोग है। नई भाषा-शैली, कथ्य और विन्यास के साथ यह पुस्तक पाठक का ध्यान सहज ही खिंचती है। यह वास्तव में आम पाठक को ध्यान में रखकर लिखी गई हैं, केवल हिन्दी साहित्य के पाठकों को केन्द्रित करके नहीं। इसकी भाषा कतई साहित्यिक नहीं है, शायद यही इसकी शक्ति भी है क्योंकि यह पाठक को अपने से जोड़े रखने में एकदम सफल है। कहानी में मनुष्य का अखंड विश्वास बोलता है। इन कहानियों में मेहनतकश, निम्न मध्य वर्ग की ज़िदगी है, जो सामान्य स्थिति में परिस्थितियों पर पार तो नहीं पा सकती लेकिन अदम्य विश्वास से किसी चमत्कार की आशा करती है। मसलन, 'कसक' कहानी। पुराकथाओं और आधुनिक परिवेश को जोड़कर कहानी कहने का सुंदर प्रयास 'सावन आए न आए' में है। विद्यार्थी जीवन पर कई कहानियाँ हैं। जिसमें आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ अंधविश्वासों को भी पोसा जाता है। पुरानी चेतना जड़ जमाए है, जहाँ तर्क से काम नहीं चलता , वहाँ अंधविश्वास से चल जाता है। लेखक हिन्दी कहानी की परंपरा और आधुनिकता से भलीभांति परिचित है। लेकिन वह प्रेमचंद और देवकीनंदन खत्री को मिलाकर कहानी रचना चाहता है और कह सकते हैं कि इसमें उसे सफलता मिली है।

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  11. सदफ़ नाज़30 जून 2017, 8:56:00 am

    मुझे जाना नहीं दिल से दूर की कहानियाँ पढ़ कर वैसा ही महसूस हुआ, जैसा अक्सर हिंदी की क्लासिक कहानियों को पढ़ कर होता है । शैली और लिखावट बेहद ख़ूबसूरत । पात्रों से लेकर घटना डिटेलिंग बेहद ख़ूबसूरती से उकेरी गईं हैं । सच कहूँ तो इस लिखावट में क्लासिक टच है । क़िस्सागोई का अंदाज़ बेहद आकर्षित करता है । सब से बढ़ कर भाषा में बिलकुल पानी जैसा बहाव है । पढ़ने वाला भाषा और क़िस्सागोई के बहाव में बहता चला जाता है । कहानियाँ पूरे वक़्त बांधे रखती हैं और अंत तक जिज्ञासा बनाए रखती हैं । नए लेखक़ों की लेखन शैली में यह शैली अलग हट कर है ।
    पुस्तक की सफलता के लिए ढ़ेर सारी शुभकामनाएं ।

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  12. कहानियाँ पढ़कर ही कुछ समझ बनेगी. फ़िलहाल ये समीक्षा तो बुरी तरह कन्फ्यूज करती है.

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  13. jana nahi dil se doorki kahanion me prachand praveer ne manav man ki bhool bhulaia, jindagee ke tantu aur reshon kojis baareeki se pakad kar uski part dar part samne rakha haiwah unke mahir kathakar hone ka pata detee hai aur Wageesh Shukl jaise sahitya maneeshi jinhe ganit vigyanewam jyotish se lekar tantra mantra jaise goodh vishayon par acchi vidwata hasil hai unhone har kahanee ki jitnee gahanata se pareekshan karke pathakon ko uskee baareekian samjhaya hai wah na sirf jahnee ka mool tatwa samajhne me madad kartee hai balki uski bhool bhool bhulaia se ubaartee bhi hai, mera unhe naman jis ek kahnee par vidwan sameekshak ne asmanjas vyakt kia hai wah hai aasman se aage kahanee me Sanat Kumar ka aasman me udne ki chahat.

    Darasl yah hai Sanat Kumar ke awachetan me uska apnee aasann mrityu ki aahat jise Sanat Kumar sunta hai aur baar baar aasman se aage bahut aage udne ki baat doharata hai aur antatah mrityu ko prapta hota hai aur aasman se jag ka mujaraleta hai. -someshshekhar44@gmail.com 9935794728

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