२१ वीं शताब्दी की हिंदी कविता
कवियों की धरती
माटी का कविता विशेषांक प्रकाशित हो गया है. नई सदी की
हिंदी कविता की शुरुआत मैंने २० वीं शताब्दी के आखिरी दशक से मानी है. इस तरह से
लगभग ढाई दशकों की यह यात्रा हमारे सामने हैं. इसे ‘नई सदी की कविता’ नाम दिया है.
अधिकतर कवि इसी दरम्यान के हैं. कुछ गर पहले के हैं तो प्रमुखता से रेखांकित
इन्हीं दशकों में हुए हैं. धरती को क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर में विभक्त किया
गया है और प्रत्येक में सात कवि शामिल हैं. इस तरह से नई सदी में एक साथ पांच
सप्तक इकट्ठे (अज्ञेय से आँख चुराते हुए) प्रकाशित हो रहे हैं.
अज्ञेय की ही तरह ही कहना चाहूँगा ये किसी गुट के नहीं हैं. पर नई सदी की संवेदना,
त्वरा और तेवर इनमें है. कवियों के चुनाव को लेकर सभी का एकमत होना अपेक्षित भी नहीं
है. कुछ कवि कविताएँ भेजने में आलस्य कर गए, कुछ से मैं और तगादा नहीं कर सका.
इनमें से कुछ कवि भी अगले दशकों में अपनी यात्रा अनवरत रखते हैं और पहचान सुदृढ़ करते हैं तो थोडा सा संतोष तो मुझे होगा ही.
अक्सर कवियों ने मुझसे कहा कि माटी में तो जो होगा वह होगा पर उन्हें ख़ुशी होगी
जब ये कविताएँ समालोचन पर भी आयें. सबका समालोचन पर प्रकाशन तो उचित नहीं होगा. पर
अपने प्रिय कवि प्रभात की कविताएँ प्रकाशित करने के लोभ से अपने को बचा भी नहीं पा
रहा हूँ.
प्रभात
पीढ़ियाँ
चाचा
की मृत्यु से पहले की
उस
उम्र में पहुँच गया हूँ
जब
चचेरी बहन
चूल्हे
पर रोटी सेकना सीख गई थी
उस
उम्र के चाचा की तरह
बढ़ी
हुई सफेद दाढ़ी के साथ
खाने
की थाली पर झुका हूँ
बेटी
पूछ रही है-
‘पापा
एक रोटी और लाऊँ’
मैं
कहता हूँ-
‘रोटी
नहीं बेटी पानी.’
कहते
हुए सोचता हूँ
इस
बीच घर की वह भाषा भी गई
पेड़ों
पक्षियों और जल से वह जुड़ाव गया
और
वह आकाश
जिसमें
झाँकते हुए चाचा कहा करते थे
आज
रात हिरनी उगी ही नहीं
या
धुँधलके में दिख नहीं रही.
बदनामी
वह
किसी और की बदनामी थी
मेरे
आगे आकर खड़ी हो गई थी
उसमें
कुछ भी असुंदर नहीं था
सुंदर
ही लगी मुझे वह
मेरे
पास मेरी अपनी ही बदनामियाँ
बहुत
हैं-मैंने
कहना चाहा
मगर
मुग्ध हो गया मैं
उसकी
कथा की मुश्किल पर
तुम
कहो तो मैं जा भी सकती हूँ
भटकती
रहूँगी अकेली पीपलों के नीचे
उसने
कहा विरक्त भाव से
भटकोगी
क्यों-मैंने
कहा आसक्त भाव से
मेरे
जीवन में रहो मेरे अस्तित्व तक
मुझे
अपने बचपन के किस्से याद आए
जिनमें
किसी को भी
यह
कहते हुए जगह दे देते थे लोग
चार
बच्चे हमारे हैं
क्या
उनके बीच यह पाँचवा नहीं धिकेगा
जैसा
रूखा-सूखा
वे खाएँगे
यह
भी खा लेगा, हमारा
क्या लेगा
बदनामी
मुस्करायी
उसकी
आँखें भर आई
मुझसे
लिपट गई
लिपटी
रही.
प्रेम और पाप
बुआ
की उन आँखों की ज्योति चली गई
जिन
आँखों से युवपन में
किसी
को प्यार से देखने के कारण दो बार बदनाम हुई
जब
कुछ भी अच्छा न चल रहा हो तो
प्रेम
जैसी अनुपम घटना भी पाप से सन जाती है
बुआ
का प्रेम पाप कहलाया और उसे उजाड़ गाँव में ब्याह दिया गया
अब
बुआ बूढ़ी हो गई थी और उसका प्रेम एक लोककथा
उसका
बेटा उसे गोबर के कण्डों के घर में रखता था
प्रेम
जैसी अनुपम घटना के बदले में बुआ को पाप जैसा जीवन मिला.
दर्द
मैं
एक दर्द को लिए-लिए चलता हूँ
जैसे
एक स्त्री गर्भ को लिए-लिए चलती है
इसके
लिए मेरी इच्छा बढ़ती ही जाती है
आँखों
में जब-तब
दो आँसू
इसी
दर्द के तपते.
बच्चे की भाषा
रेस्त्रां
में सामने की मेज पर
एक
यूरोपियन जोड़ा
खाना
और पीना सजाए हुए था
मैं
चौंक गया जब उनका छह महीने का बच्चा
हिन्दी
में रोने लगा
उसका
युवा पिता उसे अंग्रेजी में चुप कराने लगा
उसे
बहलाते-खिलाते
हुए बाहर ले गया
बाहर
खुली हवा में बच्चा
दिल्ली
की फिज़ा में मिर्जा गालिब के
सब्जा-ओ-गुल
औ अब्र देखते हुए
उर्दू
में चुप हुआ
तब
वह युवा फिर से रेस्त्रां में भीतर आया
मैं
एक बारगी फिर चौंक गया
जब
वह बच्चा उराँव भाषा बोलते हुए
चम्मच
गिलासों से खेलने लगा.
मजदूर की साईकिल
रंग
बिरंगी साईकिलें तितलियों की तरह
तिरती
फिरती हैं
मगर
मजदूर की साईकिल
उसके
जंग को वह रोज हटाता है
रोज
काम पर जाता है
साईकिल
का रंग
उसकी
त्वचा की तरह धूसर है
उसके
टायर उसके तलुवों की तरह घिसे हुए हैं
दोनों
ट्यूब में उसके फेंफड़ों की तरह अदृश्य सूराख हैं
अपनी
साईकिल से अधिक कुछ नहीं है उसका अपना जीवन
जल्द
आ जाने वाले अन्तिम दिनों में कबाड़ के हवाले होना
काल
के ठेले में कबाड़ों के बीच खामोश विदा होना.
भादौ में याद
भादौ
आ रहा है
झमर
झमर हवाएँ चल रही है काली बदलियों भरी
याद
आ रही है स्त्री
सहरिया
आदिवासी
याद
आ रही है गीत की पंक्ति
जो
उसने सुनायी थी
रही
होगी उस जैसी ही कोई स्त्री
जिस
पर किसी घुड़सवार ने किया होगा कभी अत्याचार
अब
न वह स्त्री थी न घुड़सवार
मगर
अभी भी था उसके आसपास अत्याचार
सो
वह भूलती नहीं थी
बल्कि
आत्मा को भेदती
जल
तरंगों भरी आवाज में गाती थी-
‘तेरे
घुड़ला को डसियो कारो नाग
भादौ
की तोपै बिजुरी पड़ै’.
घर का एक बाशिंदा
सावन
की भोर के एक सपने में
धुँधले
उजास में खिड़की खोली तो देखा
गर्मी
के दिन हैं सारी रात आँधी चली है
रास्ते
के पार सामने वाले पड़ोसियों की छत पर
पिता
डोल रहे हैं
वे
जाने कब से घर में हममें से किसी के जागने का इंतजार कर रहे थे
कोई
जागे तो वे अंदर आएं और चाय के लिए कहें
लेकिन
इससे पहले कि वे खिड़की से झाँकता मुझे देखें
मैंने
वापस खिड़की लगा दी
और
ओढकर सो गया
और
पिता को कोसने लगा
ये
कहां से आ गए एकाएक
और
वहां पड़ोसियों की छत पर क्यों सो गए
ये
क्यों हमारी बदनामी करवाने पर तुले हैं
ये
पड़े क्यों नहीं रहते वहाँ जहाँ पड़े रहते हैं
क्यों
बार-बार
हमारी नाक में दम करने चले आते हैं
आखिर
ये चाहते क्या हैं
ये
जानबूझकर हमें और बच्चों को परेशान करने के लिए चले आते हैं
या
तो कुछ पैसों की जरूरत होगी
या
बीमारी का बहाना ले कर आए होंगे
मैंने
ओढी हुई चादर हटायी
फिर
से खिड़की खोली
बाहर
झाँककर देखा
वहाँ
कोई नहीं था
इस
दफा मैंने सपने में नहीं
वास्तव
में जागकर खिड़की खोली थी
और
बाहर किसी को भी न पाकर एकदम खुश हो गया था
सपने
ने जो इतना तनाव दे दिया था वह एकदम चला गया था
चाय
बनाते हुए मैं सोच रहा था
घर
का एक बाशिंदा घर में आना चाहता है
वह
कोई भी हो सकता है
परित्यक्ता
बहन
विधवा
बुआ
बेरोगार
छोटा भाई
सपने
में होता है कि
घर
छोड़कर चला गया भाई
सात
साल बाद उसी दशा में वापस आ गया है
हम
परेशान हो जाते हैं
विधवा
बुआ वापस आ गई
हम
बुरी तरह परेशान हो जाते हैं
जबकि
मालूम है कि वह रेल की गुमटी के पास
झोंपड़ी
डालकर रहने लगी है
परित्यक्ता
बहन बच्चे को गोद में लिए दरवाजा खोलने के लिए
धीमे-धीमे पुकार रही है
जबकि
मालूम है कि अब वह इस दुनिया में नहीं है.
______
प्रभात
१९७२ (करौली, राजस्थान)
१९७२ (करौली, राजस्थान)
प्राथमिक शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम विकास, शिक्षक- प्रशिक्षण, कार्यशाला, संपादन.
राजस्थान में माड़, जगरौटी, तड़ैटी, आदि व राजस्थान से बाहर बैगा, बज्जिका, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी भाषाओं के लोक
साहित्य पर संकलन, दस्तावेजीकरण, सम्पादन.
सभी महत्वपूर्ण पत्र – पत्रिकाओं में कविताएँ और
रेखांकन प्रकाशित
मैथिली, मराठी, अंग्रेजी, भाषाओं में कविताएँ अनुदित
‘अपनों में नहीं रह पाने का गीत’
(साहित्य
अकादेमी/कविता संग्रह)
बच्चों के लिए- पानियों की गाडि़यों में, साइकिल पर था कव्वा, मेघ की छाया, घुमंतुओं
का डेरा, (गीत-कविताएं ) ऊँट के अंडे, मिट्टी की दीवार, सात भेडिये, नाच, नाव में
गाँव आदि कई’ चित्र कहानियां प्रकाशित
युवा कविता समय सम्मान, 2012, भारतेंदु
हरिश्चंद्र पुरस्कार, 2010, सृजनात्मक
साहित्य पुरस्कार, 2010
सम्पर्क : 1/551, हाउसिंग बोर्ड, सवाई माधोपुर, राजस्थान 322001
बधाई अरुण जी. अंक का इंतजार है. प्रभात की बेहतरीन कविताएं.
जवाब देंहटाएंआदरणीय अरुण देव जी आपका यह अथक और भागीरथ प्रयास हिन्दी के सृजनशीलता और रचनात्मक संसार में एक बहुरंगी अध्ययाय जोड़ रही है, बहुत बधाई बहुत शुभकामनाएँ
जवाब देंहटाएंएक पाठक
बहुत कोशिश करता रहा हूँ कि प्रभात की बेहतर कविताओं से विचलित न होऊँ लेकिन असफल रहता हूँ.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविताएँ. ऐसी जो झकझोर दें.
जवाब देंहटाएंमिट्टी से सच्चे अर्थों में जुडी कविताएँ...सरल किन्तु दूरगामी.
जवाब देंहटाएंप्रभात जी की कविताएं पसन्द हैं।एक अलग ही अपनेपन और तपिश से भरी हुई कविताएं जब चलती हैं तो लगता है कि आदिम राग चल रहा हो।
जवाब देंहटाएंबीएचयू के रूसी भाषा और साहित्य विभाग में बर्षों पहले पढ़ाने के लिए एक रुस से अध्यापक परिवार सहित आए थे।उनकी एक छोटी सी बिटिया थी।वह हिंदी न जानने के कारण उदास रहती ।एक दिन कुत्ते को भूंकते हुए सुन वह खुशी से चिल्ला उठी -ममा कुत्ता रसियन में भूकता है'
जवाब देंहटाएंअपनी भाषा की खोज ।
हटाएंशानदार । केवल विनम्र संशोधन कि उराँवों की भाषा कुड़ुख कहलाती है । किन्तु कविता सम्पूर्ण सौंदर्य के साथ सम्प्रेषित हो रही है जो ज्यादा महत्वपूर्ण है । साधुवाद । ढेर सारी बधाई
जवाब देंहटाएंप्रभात की कविताएँ सीधे हमारे जीवन से जुड़ी हुई कविताएँ हैं। इन कविताओं को पढ़ कर मन अपने बचपन में जा पहुँचा और बहुत मनोयोग से आसमान के सारे तारे देखने गिनने लगा। ये कविताएं सहज ही प्रकृति से हमारा नाता जोड़ती हैं। बच्चे के रोने में हिंदी-उर्दू और कुडुख में सुनना बच्चे को उसके नैसर्गिक रूप में देखना है। अरुण को बधाई कि उन्होंने माटी में छपी कविताओं को प्रकृति के पंच तत्त्वों से जोड़ा है। इस अर्थ में अरुण का भावबोध और उसकी अभिव्य्क्ति दोनों ही परंपरा से अनुस्यूत और समृद्ध हैं। इस अर्थ में अरुण भारतीय मानस को उसके पूर्ण विस्तार में ग्रहण करते हैं। बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंUmda . Behtareen . Priy Kavi mitra ko mera Salaam !! Ve jitne achchhe kavi hain ; utne hi achchhe insaan bhi ... Shubhkaamnayen !! Samalochan ka Dhanyavaad ...
जवाब देंहटाएं- Kamal Jeet Choudhary ( J&K )
sudar ..........badhai
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कविताएं।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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