हिंदी के कथाकार अगर कवि भी हैं तो उन्हें अक्सर यह शिकायत
रहती है कि उनके कवि पक्ष को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है.
उदय प्रकाश जितने बड़े कथाकार हैं उतने ही उम्दा कवि भी. प्रारम्भ में उन्हें कवि के ही रूप में ख्याति
मिली. १९८१ में भारतभूषण सम्मान उनकी कविता ‘तिब्बत’ के लिए उन्हें दिया गया था.
युवा उनकी कविताओं को खूब रूचि से पढ़ते हैं. उनके कविता संग्रह
‘एक भाषा हुआ करती है’ को सामने रखकर उनके कवि –
व्यक्तित्व पर युवा अध्येता अल्पना सिंह का यह आलेख प्रस्तुत है आपके लिए.
हिंसा क्यों है इतनी पूरब की
हवा में
अल्पना सिंह
‘साथियों, यह एक लुटेरा समय है
‘हमारी शताब्दी जिसका किंचित लोहित अवसान निकट है. वैचारिक उहापोह भर ही
नहीं, विचार के नाम पर संसारव्यापी तंत्रों के विकास और उनकी
तानाशाही और उनके अंततः, ध्वंस की शताब्दी रही है. वर्तमान
में हमने साहित्येत्तर विचारों और उनकी टेक्नालाजियों की भयानक और अमानवीय
परिणितियाँ देखी है उनमें इस हता के बाद जब यह मुकाम आ गया लगता है कि हम साहित्य
की अपनी वैचारिक स्वायत्तता उसके वैचारिक स्वराज्य पर ध्यान दें.’
समकालीन
कवि और कविता पर विचार व्यक्त करते हुये अशोक बाजपेयी की इन पंक्तियों पर उदय
प्रकाश खरे उतरते है. ‘हिंसा क्यों है इतनी पूरब की हवा में’ पंक्तियाँ
समकालीन साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर उदय प्रकाश द्वारा रचित हैं. अपनी कविता ‘घर
या मजार’ में वह
कुछ यूँ कहते हैं कि-
‘‘पश्चिम के
आकाश में उग रही हैं इतनी कुल्हाड़ियाँ
हिंसा क्यों है इतनी
पूरब की हवा में’’.
(एक भाषा हुआ करती
है)
वह जिन
परिस्थितियों के बीच रह रहे हैं और समाज में व्याप्त जिन बुराइयों पर उनकी नजर
जाती है उसकी समस्त प्रतिक्रिया उनके लेखन में दिखाई देती है. समकालीन कवि जिन
परिस्थितियों के बीच रहता है वहाँ एक ओर आजादी के बाद निरन्तर गहराते हुए सामाजिक
सांस्कृतिक विघटन की भयानक परिणति है और दूसरी ओर तत्कालीन वर्षों में राष्ट्रीय
और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली घटनाएं हैं जिन्होंने न केवल सामान्य जनजीवन
को बल्कि सारी मानवता के भविष्य से जुड़ी हुई समस्याओं को, पहले से
भी ज्यादा जटिल बना दिया है. कहते हैं, उनकी कविता का सम्बन्ध वर्तमान से है
इसलिए वर्तमान राजनीति से उसका विच्छेद
संभव ही नहीं है.
वर्तमान
दौर में सामाजिक सरोकार का कोई भी पहलू ऐसा नहीं है जिस पर राजनीति को प्रत्यक्ष
या परोक्ष प्रभाव नहीं पड़ा हो. शायद इसलिए उनकी कविताओं में बड़ी संख्या में ऐसी
कविताएँ हैं जिनमें राजनीति, सत्ता, सत्ता की राजनीति या साम्राज्यवादी
गतिविधियों से सम्बन्धित वैचारिक टिप्पणियां हैं. उनके यहां सत्ता या राजनीति
सामान्य अर्थबोधक शब्द नहीं है. इनकी संकल्पना व्यापक पृष्ठभूमि में बहुआयामी
संकेत बिन्दुओं को खोलने लायक दृष्टि से की गई है. अतः तथाकथित सत्ता या राजनीति
के साथ-साथ यहां शिक्षा की राजनीति है, संस्कृति या सभ्यता की राजनीति है, यहां तक
कि आध्यात्मिक क्षेत्र की भी राजनीति है यहां राजनीति मजबूत है, वहां
सत्ता की बिडम्बनाएँ भी देखी जा सकती हैं.
भारतीय समाज में हमेशा से एक ऐसा वर्ग रहा है जो सभी परिस्थितियों में शक्तिशाली और वर्चस्ववादी रहा है. वर्तमान समय यह वर्ग जातिवादी, सामंतवादी, साम्राज्यवादी, फासीवादी या साम्प्रदायिकतावादी में से कोई भी हो सकता हैं या इनमें से कई भी हो सकते है. इनके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है. इनके निमित्त समाज, नियम, कानून सब हाशिए पर रहता है.
भारतीय समाज में हमेशा से एक ऐसा वर्ग रहा है जो सभी परिस्थितियों में शक्तिशाली और वर्चस्ववादी रहा है. वर्तमान समय यह वर्ग जातिवादी, सामंतवादी, साम्राज्यवादी, फासीवादी या साम्प्रदायिकतावादी में से कोई भी हो सकता हैं या इनमें से कई भी हो सकते है. इनके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है. इनके निमित्त समाज, नियम, कानून सब हाशिए पर रहता है.
उदय
प्रकाश का लेखन इन्हीं निरंकुश सत्ताओं को चुनौती देता है. ‘एक असहिष्णु सामंती अवशेषों में जकड़े जातिवादी समाज में उदय प्रकाश ने
हमेशा ही खुंखार प्रतिरोध के खतरे उठाते हुए सृजन किया है.’ उनका
कविता संग्रह ‘एक
भाषा हुआ करती है’ इस दृष्टि से उत्कृष्ट दस्तावेज है, जिसकी कुछ
कविताओं में वर्तमान विसंगतियों को बेबाक तरीके से उठाया गया है. इस संग्रह की
कविताओं को पढ़ते हुये हर तरह के अन्याय और वेदना से पीड़ित लोगों को सहारा मिलेगा
कि कोई तो है, जो
उनकी आवाज बनने का खतरा उठाने को तैयार है. उनकी कविताएं पढ़ कर ऐसा लगता है मानों
विसंगतियों पर प्रतिरोध दर्ज कराना उनकी नैतिक जिम्मेदारी है.
‘एक
भाषा हुआ करती है’ में उन्होंने समाज के हर वर्ग को देखा है, न्याय
व्यवस्था तो उनका पुराना विषय है ही. इससे वे इसमें भी बच नहीं पाये और ‘चंकी
पांडे मुकर गया’ भी
इसी विषय से सम्बद्ध है, कि किस प्रकार एक अपराधी सबकुछ करने के बाद भी आजाद घूमता है
और एक निर्दोष व्यक्ति बेगुनाह होते हुये भी दण्डित किया जाता है यह परम्परा सी बन
चुकी है कि एक अपराधी को बचाने में सरकार और भारतीय न्याय व्यवस्था कितनी भागीदार
है. यह बहुत बड़ी विडम्बना है कि कसाब की मृत्यु निश्चित थी, फिर भी
उसे पचास करोड़ से भी अधिक रूपये खर्च करके
जीवित रखा गया. अफजल गुरू जैसे कई उदाहरण है जिन पर करोड़ो रूपये खर्च किये गये और
हम और हमारी कानून व्यवस्था परिस्थितियों के हाथ की कठपुतली बने रहे.
वर्तमान
समय में एक आतंकी ‘अजमल आामिर कसाब’ जो कि आतंकवादी सिद्ध भी हो चुका है उसे सजा
सुनाने में लगभग दो वर्ष से ज्यादा का समय लग लाता है. इतना सब होने के बावजूद वह
भारतीय न्याय प्रणाली का लाभ उठाता है .
‘चंकी
पांण्डे मुकर गया है’ कविता उस
भारतीय कानून व्यवस्था पर गहरी चोट करती है जिसमें सबूत और गवाहों के अभाव में
हमेशा न्याय प्रभावित होता रहा है. गुलशन कुमार की हत्या के बाद गवाहों के मुकर
जाने से अबू सलेम का बच जाना. किस तरह एक अपराधी सब कुछ करने के बाद भी स्वतंत्र
घूमता है और एक निर्दोष व्यक्ति बेगुनाह होते हुऐ भी दण्डित किया जाता है. ‘चंकी
पाण्डे मुकर गया’
कविता में उदय प्रकाश इसी तथ्य को उद्घटित करते हैं-
एक ऐसी वीडियो
रिकार्डिंग थी दुबई की
जिसमें अबू सलेम की
पार्टी में शामिल थे
बड़े-बड़े आला कलाकार
और साख-रसूख वाली हस्तियाँ
इसी टेप से सुराग
मिलता था गुलशन कुमार की हत्या का लेकिन
अदालत में चंकी
पांडे ने कहा कि वह तो अबू सलेम को पहचानता ही नहीं
और टेप में तो वह
यों ही उसके गले से लिपटा दिखाई देता है
ऐसा ही बाकी
हस्तियों ने कहा
हिन्दुस्तान की
अदालत ने भी माना कि दरअसल उस टेप में दिख रहा
कोई भी आला
हाकिम-हुक्काम,
अभिनेत्रियाँ या अभिनेता
अबू सलेम को नहीं
पहचानता.’’
उन्होंने
इस कविता में इस प्रकरण को उठाया कि बड़े से बड़ा जो काण्ड हो जाता हैं और काण्ड के
पीछे किसी न किसी रसूखदार व्यक्ति का हाथ भी होता है. या तो वह माफिया के श्रेणी
में आता है या राजनीतिक में मजबूत पकड़ रखता है. ऐसा व्यक्ति जब घटना को अंजाम देने
के बाद गलती से अदालत के कटघरे में आ भी जाता हैं तो कोई भी गवाह उनके खिलाफ गवाही
देने को तैयार नहीं होता और मजबूरन अदालत को या तो उसे आजादी देनी पड़ती है या केस
को आगे बढ़ाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता. ऐसे ही घटनाओं पर उदय प्रकश की नजर
टिकती है-
‘‘तो
लुब्बे-लुआब यह कि अबू सलेम को पहचानने के मामले में
सारे गवाह मुकर गए
उसी तरह जैसे
बी.एम.डब्ल्यू कांड में कार से कुचले गये
पांच लोगों के
चश्मदीद गवाह
संजीव नंदा और उनकी
हत्यारी कार को पहचानने से मुकर गए
जैसे जेसिका लाल
हत्याकांड के सारे प्रत्यक्षदर्शी
मनु शर्मा को
पहचानने से मुकर गए.’’
वर्तमान
समय में भी हमारी सरकार और मंत्रियों के होते हुये भी अपराधी अपने काम को अंजाम
देते हैं और ज्यादा मजबूत होने की वजह से वह अदालत से भी जल्दी आजाद हो जाते हैं
क्योंकि ज्यादातर अपराधी तो सरकार के ही साथ रहते हैं. जिस सरकार में अपराधियों की
संख्या ज्यादा होगी वही शासन करेगा. अपराधी तो मात्र एक जरिया होता है जिसके
माध्यम से घटना को अंजाम दिया जाता है असली अपराधी तो दूसरा होता है, जो उसे उस
कार्य को करने के लिए भेजता है और बाद में उसकी रक्षा करता है. वर्तमान समय में
अदालत, कानून
को मजाक समझा जाने लगा है जिसका श्रेय भी उसी को जाता है. आज की व्यवस्था ऐसी बिगड़
चुकी है कि ऊपर से लेकर नीचे तक सब बिकने को तैयार है बस उन्हें चाहिए तो अपनी सही
कीमत. नेता और अपराधी एक सिक्के के दो पहलू हैं बिना एक के दूसरे का कोई अस्तित्व
नहीं.
‘जीवित’ कविता में
उदय प्रकाश की संवेदना एक व्यापक रूप लेती है. इस कविता में कवि कहता है कि हमारी
सरकार उन अपराधियों जो कि भारतीय न्याय संहिता से अपराधी करार दिये जा चुके हैं
उनको लेकर एक अजीब असमंजस में पड़ जाती है- ‘करूणा और नैतिकता के शीरे में पगी है हमारी
संस्कृति/अहिंसा के स्वर्ग में बना है संविधान.’’ संविधान की न्याय प्रणाली में कई ऐसे
प्रावधान दिये गये हैं जो कि अपराधी को सजा से वंचित रखता है. अदालत द्वारा दिये
गये निर्णय पर मानवाधिकार आयोग, और राष्ट्रपति के समक्ष माफीनामा आदि सब आता
है.
दिल्ली के संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरू इसी श्रेणी में आता है वह भी भारतीय न्याय संहिता के आग्रित होकर जी रहा है. आतंकवादी और फांसी की सजा मिलने के बावजूद अजमल आमिर कसाब को जिंदा क्यों रखा गया है सरकार उसकी सुरक्षा के लिए क्यों पचास करोड़ से ज्यादा खर्च कर चुकी है. कविता इन पहलुओं की ओर संकेत करती है कि हमारी लचर कानून व्यवस्था इसी बिन्दुओं का एक हिस्सा है. यह कविता इन परिस्थितियों पर करारा व्यंग्य करती है-
दिल्ली के संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरू इसी श्रेणी में आता है वह भी भारतीय न्याय संहिता के आग्रित होकर जी रहा है. आतंकवादी और फांसी की सजा मिलने के बावजूद अजमल आमिर कसाब को जिंदा क्यों रखा गया है सरकार उसकी सुरक्षा के लिए क्यों पचास करोड़ से ज्यादा खर्च कर चुकी है. कविता इन पहलुओं की ओर संकेत करती है कि हमारी लचर कानून व्यवस्था इसी बिन्दुओं का एक हिस्सा है. यह कविता इन परिस्थितियों पर करारा व्यंग्य करती है-
‘जिसकी हत्या
का निर्णय लिया जा चुका है
उसको लगातार जीवित
रखने का
कितना सक्रिय और
सक्षम प्रावधान है
जिसकी हत्या की जा
चुकी है
वह थोड़ा-सा जीवित
रखा जाता है
अपनी हत्या के
प्रमाणों और अटकलों को मिटाता हुआ
उसका जरा-जरा सा
जीवन
साक्ष्य बनता है उस
दयालुता का
जो हत्यारों की
सत्ता के पक्ष में हमेशा ही सिद्ध हुआ करती है’
‘समकालीन
साहित्य की केन्द्रीय समस्या’ कविता वर्तमान पुरस्कार संस्कृति पर अच्छा
व्यंग्य करती है. आज साहित्य में पुरस्कारों को लेकर खुलेआम हो रही राजनीति का
नाटक सभी देख रहे हैं. साहित्यकारों का संस्थाओं से जुड़ होना साहिज्य के लिए ही
नहीं समाज के लिए भी घातक है. अब जबकि पुरस्कार भी जातिवाद और राजनीति दांव-पेंचों
के घेरे में है तब उदय प्रकाश लिखते है कि-
‘समकालीन
साहित्य की केन्द्रीय समस्या यह थी
जो बार बार सामने
आती थी
कि हर बार हड्डी एक
हुआ करती थी और जबड़े कई एक
हर बार एक यही दृश्य
बनता था
सबसे सुसंगठित, फुर्तीला और
ताकतवर
सुनियोजित तरीके से
हड्डी ले भागता था.’
ये
सुसंगठित, फुर्तीला
और ताकतवर कौन है ? वह कौन है जो सुनियोजित तरीके से हड्डी ले भागता है? यह वही है
जो अपनी होशियारी,
चतुराई और लामबंदी के द्वारा पुरस्कार प्राप्त करता है. कविता
इतने पर ही खत्म नहीं होती बल्कि अगले पुरस्कारों की तैयारी का एक दृश्य प्रस्तुत
करती है. इस कविता द्वारा अकादमी के पुरस्कार वितरण में हो रही बंदरबाट का सच
उजागर हुआ है. वह लिखते हैं- ‘और जो आज कल का साहित्य है/ जिसमें लोलुप बूढ़ों और उनके वफादार
चेलों-चपाटियों की संस्थानिक चहल-पहल है..... यह भ्रष्ट राजनीति का ही परम भ्रष्ट
सांस्कृतिक विस्तार है.’
उनकी एक
कविता है ‘राज्यसत्ता’. इसमें वह
कहते हैं कि जिसके पास बल होता है वही शासन करता है आज के समय में कोई भी सरकार
साफ सुथरी छवि नहीं रखती, सबके मंत्रिमण्डल में ऐसे नेताओं की छवि
ज्यादा है. जो वहां तक पंहुचने में गरीबों, शोषितों के साथ अन्याय और अपराध के बल पर
पहुंचे हैं और सत्ता में आने के बाद भी देश का शोषण करते हैं. वर्तमान समय में एक
सत्ता दलीय नेता जो कि सत्ता पर काबिज है और मंत्रिपद को भी रखता है आई.पी.एल.
जैसी संस्था में पैसे को लेकर उसका विवाद ललित मोदी से होता है जो कि आई.पी.एल. के
मुख्य कमिश्नर हैं. यह विवाद भी तब ख्याति पकड़ता है जब वह जनता के मध्य में आ जाता
है.
दूसरे
दलों के नेताओं ने जब सरकार पर उंगुली उठाई तब सरकार को इसकी याद आयी और उन्होंने
उनसे मंत्रिपद से इस्तीफा ले लिया लेकिन तब जब थरूर सत्तादल के नेता थे जब मोदी ने
उन पर उंगुली उठाई तो सरकार के प्यादे कहे जाने वाले आयकर विभाग ने आई.पी.एल. पर
छापा मारा यदि मोदी थरूर के खिलाफ कुछ न बोलते तो दोनों खाते-पीते पड़े रहते. मोदी
को यही खामियाजा भुगतना पड़ा यदि सत्ता के खिलाफ उंगली उठाई तो सजा तो मिलेगी ही.
पत्रकारिता को लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ कहा जाता है. पर आज पत्रकारिता निष्पक्ष
नही रह गई है. उदय प्रकाश इस यथार्थ को भली-भाँति जानते और समझते है और कहते है-‘न किसी
पत्रिका न किसी अखबार में इतनी नैतिकता है/न साहस कि वे किसी एक घटना का/ पिछले
पाँच साल का ही ब्यौरा ज्यौं का त्यौं छाप दें.’
हाल की ही
घटनाओं को लिया जाये तो सलमान खान का हिट एण्ड रन केस में क्लीन चिट मिल जाने का
मामला हो सुनन्दा पुष्कर का मामला. हमारी न्याय व्यवस्था लाचार है.भारतीय न्याय
व्यवस्था के बारे में हमेशा से यह जुमला कहा जाता रही है कि ‘भले
ही सौ गुनहगार बरी हो जाये पर एक गेकसूर को सजा नहीं होनी चाहिए.’ यह
वर्तमार सन्दर्भों में पूरी तरह से चरितार्थ हो रहा है. गवाहों को खरीद लिया जाना
आम बात है. ‘विचार’ कविता में
वह लिखते हैं- ‘कुछ न्यायाधीश दिखेंगे/ अन्याय के पक्ष में जिनका फैसला पूर्वघोषित
है/दिखेंगे कुछ चश्मदीद गवाह जो कहेंगे हमने कुछ नहीं देखा/उस दिन हम इस पृथ्वी पर
थे ही नहीं.’
‘मक्खियों
की आत्मायें’ कविता
में वह कहते है कि इस देश को लूटने वाले हमारे राजनेता, ठेकेदार, पूँजीपति
और आतंकवादी तक की सुरक्षा पर करोड़ो रूपये व्यय कर दिये जाते हैं. पैसे के दम पर
इस देश की सरकार का भविष्य तय किया जाता है.
‘‘एक बिक चुके
देश में
वोटों को खरीदने के
निमित्त
कितने माध्यमों में
कितनी तकनीकों में कैसे-कैसे हुनर में
कितने-कितने क़ीमती
दिलकश विज्ञापन है ज़रा देखो तो’’
इस कविता
में वह उस वर्ग को दर्शाते हैं जो वोटों के लेन-देन में माहिर होते हैं. वर्तमान
समय में वोटों की कीमत पैसे से की जाती है. जो नेता जितनी पूँजी लगाकर चुनाव लड़ता
है वह अपनी जीत के प्रति उतना ही आश्वस्त रहता है . नेता या मंत्री अपने कार्यकाल
में जनता के समक्ष नहीं आते लेकिन चुनाव नजदीक आते ही वह बिन बुलाये मेहमान की
भांति घर-घर में प्रकट होते रहते हैं. गरीब जनता को भी अच्छा बहाना मिलता है अपनी
प्यास बुझाने का. नेता गांवों में षराब भेजते हैं जो उनके वोट खरीदने का जरिया
होता है. निम्न स्तर से लेकर ऊँचे स्तरों तक के चुनावों में वोट को खरीदा-बेचा
जाता है जब सरकार वोट को खरीदकर बनती है तब वह अपनी साफ-सुथरी छवि जनता के समक्ष
कैसे प्रस्तुत करे. इस कविता में जहाँ एक ओर वह भ्रष्ट नेताओं को निशना बनाते हैं
तो वहीं दूसरे वर्ग में उन्होंने हिन्दी के साहित्यकार को दर्शाया है जो अपनी
कविता के दम पर आगे बढ़ने का प्रयत्न करता है लेकिन वह आगे नहीं बढ़ पाता क्योंकि
आगे बढ़ने के लिए जिस वस्तु की जरूरत होती है वह है पूँजी. और साहित्यकार के पास इस
चीज की कमी रहती है. पूँजी के अभाव में कवि उस सूचना को पाने से वंचित रह जाता है
जिसकी उसे जरूरत थी. इस कविता में वह कहते हैं कि-
‘‘मरता है उधर
कवि कोई एक
संस्कृति के अंधकार
में सूचनाओं से बाहर
उपनगर के किसी
विस्मृत कोने में
न बिकने की बेहद
अपनी ज़िद में बीमार’’
‘सफल
चुप्पी’ कविता में
उदय प्रकाश की संवेदना उन परिस्थियों को छूती है जो सिर्फ एक कवि ही कर सकता है.
दिल्ली जो भारत की राजधानी है कविता केन्द्रीय बिन्दु है. दिल्ली में प्रतिदिन न
जाने कितने अपराध होते रहते हैं. लोग पूँजी कमाने और अजीविका को चलाने के लिए
दिल्ली जाते हैं. लेकिन वहाँ किस परिस्थितियों में जीते हैं वो कोई नहीं जानता.
लोग वहाँ झोपड़ी इसलिए डालते हैं क्योंकि ऊपर छत का रहना जरूरी होता है. और उसका एक निष्चित स्थान नहीं होता. समय-समय पर उनसे उनकी बस्तियों को खाली करा लिया जाता है जिससे मजबूर होकर मजदूर और उसका परिवार खुले स्थानों पर जीवन यापन करने को मजबूर हो जाता है जिससे उनके बच्चे ढेलों दुकानों, होटलों, ढाबों आदि में काम करते दिखाई देते हैं जिनकी उम्र पढ़ने और जीवन को एक नये सिरे से शुरू करने की होती है बेचारे भूख के कारण मजबूरन काम तो करते हैं जिनसे उनकी भूख तो मिट जाती है लेकिन उनके आगे बढ़ने में रोक भी लग जाती है.
यद्यपि सरकार ने चैदह वर्ष तक के बच्चों को कार्य करने से मुक्त किया है और आदेष देती है कि यदि चैदह वर्श तक के बच्चों से जबरन कार्य करवाते हेतु कोई पकड़ा जाये ता उसे सजा दी जाये. लेकिन इस तरह के कानून होने का भी क्या फायदा जब कानून बनाने वाले ही कानून को तोड़ते नज़र आते हैं. उदय उन्हीं बच्चों के ऊपर दृष्टि रखते हैं इस कविता में लिखते हैं-
लोग वहाँ झोपड़ी इसलिए डालते हैं क्योंकि ऊपर छत का रहना जरूरी होता है. और उसका एक निष्चित स्थान नहीं होता. समय-समय पर उनसे उनकी बस्तियों को खाली करा लिया जाता है जिससे मजबूर होकर मजदूर और उसका परिवार खुले स्थानों पर जीवन यापन करने को मजबूर हो जाता है जिससे उनके बच्चे ढेलों दुकानों, होटलों, ढाबों आदि में काम करते दिखाई देते हैं जिनकी उम्र पढ़ने और जीवन को एक नये सिरे से शुरू करने की होती है बेचारे भूख के कारण मजबूरन काम तो करते हैं जिनसे उनकी भूख तो मिट जाती है लेकिन उनके आगे बढ़ने में रोक भी लग जाती है.
यद्यपि सरकार ने चैदह वर्ष तक के बच्चों को कार्य करने से मुक्त किया है और आदेष देती है कि यदि चैदह वर्श तक के बच्चों से जबरन कार्य करवाते हेतु कोई पकड़ा जाये ता उसे सजा दी जाये. लेकिन इस तरह के कानून होने का भी क्या फायदा जब कानून बनाने वाले ही कानून को तोड़ते नज़र आते हैं. उदय उन्हीं बच्चों के ऊपर दृष्टि रखते हैं इस कविता में लिखते हैं-
‘‘लाखों या
करोड़ो ऐसे बच्चे प्लेटें धोते थे, भुट्टे, ब्रेड, प्लास्टिक के सामान
अंडे-अखबार
और अटर-शटर चीज़ें
बेंचते मकोड़ों की तरह रेंगते थे शहर भर में
और सौ साल से भी
ज़्यादा लगती थी उनकी उम्र
उनकी चुप्पी से पता
चलता था कि वे सब कुछ जानते हैं
सब किसी के बारे में
अपनी चुप्पी में
छुपाते हुये अपनी जानकारियाँ’’
वर्तमान
समय चाटुकारियों और अवसरवादियों का है, इसी कारण प्रतिभासमपन्न एक वर्ग आज हाशिऐ पर
पड़ा हुआ है. पुराने समय में एक कहावत प्रचलित थी कि ‘धनवंता मत
होइए, होइए
गुणवंता, गुणवंता
के द्वार पर खड़े रहत धनवंता’ लेकिन आज के सन्दर्भों में बात की जाये तो
परिस्थितियां बिल्कुल उलट चुकी हैं. आज गुणवान होने से ज्यादा धवान होना आवश्यक हो
गया है. यह कहावत पूरी तरह से उलट कर ऐसे हो गई है ‘गुणवंता
मत होइए,
होइए धनवंता, धनवंता के द्वार पर खड़े रहत गुणवंता’. उदय
प्रकाश इन परिस्थितियों से भली भांति परिचित है. वह प्रश्न करते है कि जिसके पास
है सबसे ज्यादा विचार, क्यों वही पाया जाता है सबसे लाचार.
वह कहते है कि वर्तमान समय में विचार, आस्था या सम्मान पूँजी को देखकर किया जाता है. समाज उस वर्ग के लोगों को ज्यादा सम्मान प्रदान करता है जो अपनी तिजोरियों को भरे पड़े हैं और वह वर्ग सर्वश्रेश्ठ माना जाता है दूसरे वर्ग के लोगों को निन्दनीय समझा जाता है क्योंकि उनके पास उस चीजों की कमी रहती है जिसको समाज या जनता देखती है.
वह कहते है कि वर्तमान समय में विचार, आस्था या सम्मान पूँजी को देखकर किया जाता है. समाज उस वर्ग के लोगों को ज्यादा सम्मान प्रदान करता है जो अपनी तिजोरियों को भरे पड़े हैं और वह वर्ग सर्वश्रेश्ठ माना जाता है दूसरे वर्ग के लोगों को निन्दनीय समझा जाता है क्योंकि उनके पास उस चीजों की कमी रहती है जिसको समाज या जनता देखती है.
‘साथियों, यह एक लुटेरा समय है
जे जितना लुटेरा है, वह उतना ही चमक रहा है और गूंज रहा है
हमारे पास सिर्फ
अपनी आत्मा की आॅच है और थोड़ा-सा नागरिक अंधकार
कुछ शब्द हैं जो
अभी तक जीवन का विश्वास दिलाते हैं
हम इन्हीं शब्दों
से फिर शुरू करेंगे अपनी नई यात्रा’
यह एक कवि
का अपने शब्दों पर अटूट विश्वास है जो फिर से नई शुरूआत करने की आस और जीवन का विश्वास
दिलाते है. अशोक वाजपेयी ने लिखा है कि ‘हमारे भागते-दौड़ते कठिन और तेज समय
में जब बहुत कुछ हाशिए पर जा रहा है, जिसे पहले जरूरी समझा जाता था, क्या
कविता के लिए कोई जगह, कोई काम बचे हैं? उदय
प्रकाश की कविता के केन्द्र में यही चिन्ता है.’
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अल्पना सिंह
सहायक प्राध्यापक-
हिन्दी
बाबा साहेब भीमराव
अम्बेडकर (केन्द्रीय)
विश्वविद्यालय, लखनऊ
dr.singh2013@gmail.com
लखनऊ से अनिल यादव ने जब एक ब्लॉग पर इस बात का खुलासा करते हुए, उदय प्रकाश को नंगा करते हुए जब जुतियाया तो उदय प्रकाश हत्थे से उखड़ गए । सर्वदा की तरह बौखला गए । चिग्घाड़ने लगे कि यह अनिल यादव कौन है ? अनिल ने फौरन जवाब दिया कि आप मेरे काम के प्रशंसक रहे हैं , मेरे घर भी आए हैं , आदि-आदि । तब उदय प्रकाश कहने लगे अच्छा वह चंदन मित्रा का नौकर ? मेरे मित्र चंदन मित्रा का नौकर ? अनिल यादव उन दिनों पायनियर अखबार में नौकरी कर रहे थे और चंदन मित्रा पायनियर अखबार के मालिक और संपादक हैं । बताइए भला बातचीत की, असहमति की ही सही यह भाषा होती है भला ? अनिल यादव क्या आप के आसामी हैं ? आप होंगे अपने गांव में ज़मीदार । चलाइए वहीं अपनी यह सामंती भाषा और अभद्रता । पर हिंदी जगत में यह छुद्रता नहीं चलने वाली , नहीं चलती । असहमति की भी एक शिष्टता होती है । लेकिन यह बात उदय प्रकाश नहीं जानते । इसी तरह हर किसी को अपनी सामंती भाषा के लिबास में लपेट लेने की उन्हें असाध्य बीमारी हो गई है । उन की अभद्रता का एक और नमूना देखिए जो अभी बीते महीने , फेसबुक की अपनी टाईमलाईन पर उन्हों ने परोसी है :
जवाब देंहटाएंhttp://sarokarnama.blogspot.in/2015/05/blog-post_30.html?m=1
जवाब देंहटाएंउदय प्रकाश जितने बड़े कथाकार हैं उतने ही उम्दा कवि भी।
जवाब देंहटाएंआपने वो बात कही जिसे कहने से कई लोग जानबूझकर कतराते हैं।
उदय कहानीकार बड़े हैं कवि उतने बड़े नहीं ।मैं 80 से धरातल में छपी उनकी कविताओं को पढता रहा हूँ फिर सर्वेश्वर जी ने दिनमान में जो लिखा उसे भी ।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज गुरूवार (01-06-2017) को
जवाब देंहटाएं"देखो मेरा पागलपन" (चर्चा अंक-2637)
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
उदय जी, जितने बड़े कथाकार हैं, उतने ही महत्वपूर्ण कवि। हमारी पीढ़ी के लिए तो जैसे वे स्टार ही हैं।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.