सबद भेद : दूसरी परंपरा की खोज : अमरेन्द्र कुमार शर्मा

























वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह की १९८२ में प्रकाशित पुस्तक ‘दूसरी परंपरा की खोज’ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के ‘चिंतन और सृजन में विद्यमान मौलिकता को रेखांकित’ करती है. आचार्य के व्यक्तित्व की ‘उन्मुक्तता’ ही उनकी परम्परा का मूल स्वर है. और यही दूसरी परम्परा है इसके एक सिरे पर रवीन्द्रनाथ टैगोर हैं.

यह पुस्तक कितनी क्रांतिकारी है इसका अनुमान इसी से आप लगा सकते हैं कि इसके बाद साहित्य में दूसरी, तीसरी आदि परम्पराओं के अन्वेषण और स्थापना की होड़ लग गयी थी

अमरेन्द्र कुमार शर्मा  का यह शोध लेख मेहनत से लिखा गया है और पठनीय भी है.


‘दूसरी परंपरा की खोज’ : इनकाउंटर                                              
अर्थात्
‘हुआ यूँ इत्तिफ़ाक,आईन: मेरे रू-ब-रू टूटा’[i]
अमरेन्द्र कुमार शर्मा   


छवियाँ आज वास्तविकता की सिर्फ नकल नहीं हैं. वे वास्तविकता से ज्यादा महत्त्वपूर्ण बन चुकी हैं. वे वास्तविकता को नष्ट कर देना चाहती हैं और हम निरंतर इन छवियों के संसार में रह रहे हैं . 
सूसन सौंटैग (1933-2004)
अतीत के भग्नावशेष हमेशा हमारे वर्तमान में मौजूद रहते हैं और उन आद्य बिबों का अध्ययन करते हुए वर्तमान की शक्ल बनाई जा सकती है. 
वाल्टर बेंजामिन (1892-1940)

परंपरा एक सामंतवादी अवधारणा है.
थियोडोर एडोर्नो (1903-1969)
 






'दूसरी परंपरा की खोज’ जिसे नामवर सिंह ने आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की ‘बदल देने वाली दृष्टि के उन्मेष की खोज’ बताया है और यह कहा है कि, ‘संभव है , इसमें मेरी अपनी खोज भी मिल जाए’. दूसरी परंपरा के निर्माण में ‘बदल देने वाली दृष्टि’ और ‘अपनी खोज’ को बुनियादी तौर पर परखने के लिए उद्धृत सूसन सौंटैग, वाल्टर बेंजामिन, थियोडोर एडोर्नो  के उद्धरणों को मैं पहले पढ़ने की अपील करता हूँ.

  

लिखित परंपराओं से पूर्व मौखिक परंपराओं के ताने-बाने से हमारी दुनिया की निर्मिति रही है, समय-समय पर मनुष्यों की खोज ने इन निर्मितियों को ‘नया’ बनाये रखा है. दरअसल, कोई भी परंपरा इस यकीन पर आधारित या तय होती है कि किसी समाज या समूह की विशिष्ट पहचान निर्मित करने में उस समाज या समूह का अपने सांकेतिक संदर्भों में अतीत से क्या और कितना जुड़ाव रहा है और कितना अलग हुआ है. परंपरा हमेशा एक सांस्कृतिक, दार्शनिक, राजनीतिक विमर्श का हिस्सा रही है, तब जबकि यह स्पष्ट  है कि परंपरा मुख्यतः कला माध्यमों की प्रस्तुतियों के जरिए अपने सर्वोत्तम रूप में अभिव्यक्त होती रही है.



‘परंपरा’ मुख्यतः रोमन कानून से जुड़ा हुआ शब्द रहा है. यूरोपीय चिंतन पद्धति में ‘ज्ञानोदय युग’ के चिंतकों और दार्शनिकों के साथ यह शब्द आधुनिकता की अवधारणा से ‘विकास’ के सवाल पर मुठभेड़ करते हुए आगे बढ़ा है. परम्पराएँ सचेत रूप से कभी नहीं बदलती है बल्कि इसमें बदलाव की निर्मिति धीरे-धीरे कई पीढ़ियों में रिसते हुए समय-अंतरालों और उस अंतराल में उभरती हुई प्रवृतियों के आधार पर निर्मित होती है.



परंपरा की खोज (Invention of Tradition) पदबंध का  प्रयोग ब्रिटिश इतिहासकार एरिक जान होब्सबोम ( 1917-2012 ) ने ‘नए उपायों या लक्ष्यों’ की खोज का अतीत से संबंध जोड़ते हुए किया जिसकी वर्तमान के साथ जुड़े रहने की अनिवार्यता न हो. होब्सबोम ने औपनिवेशिक अफ्रीका की संरचना में निजी, वाणिज्यिक, राजनीतिक चिन्हों, ईसाई समुदाय में शादी के समय पहना जाने वाला सफ़ेद गाउन जो निश्चित रूप से रानी विक्टोरिया द्वारा शादी में पहने जाने के बाद परंपरा में शामिल हुआ, गोइथिक शैली के ब्रिटिश पार्लियामेंट और यूनाइटेड स्टेट्स के राजतंत्र के ढांचों को संदर्भित करते हुए ‘परंपरा की खोज’ जैसे पदबंध का प्रयोग किया. 1948 में विज्ञान-दार्शनिक कार्ल पापर (1902-1994) ने आधारभूत समाजशास्त्र के अध्ययन में विज्ञान को ‘रेशनल थ्योरी ऑफ ट्रेडिशन’ के साथ शामिल किया. कार्ल पापर यह मानते थे कि हर वैज्ञानिक में कुछ खास प्रवृतियाँ होती है जो विरासत में मिली होती है. यह विरासत कहीं न कहीं उनके अध्ययन, उनकी खोज में शामिल होती है और यह कभी-कभी आश्चर्यचकित भी कर जाती है. अकादमिक दुनिया में परंपरा मानवविज्ञान, पुरातत्व विज्ञान, जीवविज्ञान, इतिहास, दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र आदि में अलग-अलग अर्थों, संदर्भों में अभिव्यक्त होती है. साहित्य में परंपरा का अर्थ भी संदर्भ के साथ ही अभिव्यक्त होता है.  


क्या परंपरा संख्यावाची शब्द है. अगर है, तो फिर यह पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवीं होते हुए अनंत तक जा सकती है. यदि परंपरा दूसरी है, तो यह ‘दूसरी’ क्या है ? ‘पहली’ किसे कहा जाए ? क्या हर समय के साथ परंपरा अपना कलेवर बदलती रहती है ? जब कलेवर बदलती है तो क्या उस कलेवर में ‘पहली’ परंपरा के तत्व शामिल नहीं होते ? क्या इसे भी ‘दूसरी’ परंपरा कह सकते हैं, जब युधिष्ठिर  यक्ष के प्रश्नों का जवाब देते हुए तर्क की एक दुनिया रच रहे थे या जब नचिकेता यमराज से सवाल पूछता हुआ प्रश्न पूछने की परंपरा का निर्माण कर रहा था या सावित्री यमराज से अपने पति के प्राण वापस ले आने के संकल्प में यमराज का पीछा नहीं छोड़ रही थी या फिर एकलव्य जो अपने कौशल का विकास एक वैकल्पिक व्यवस्था की निर्मिति करके कर रहा था ? इस प्रकार के और भी उदाहरण हम अपने आख्यानों से निकाल सकते हैं. आख्यानों से बाहर यदि हम जाएँ तो क्या हम पूछ सकते हैं कि दूसरी परंपरा क्या वह हो सकती है जो गौतम बुद्ध, महावीर जैन ने निर्मित की या मोहम्मद पैगम्बर ने या फिर ईसा मसीह ने. ईसा मसीह, गौतम बुद्ध, मोहम्मद पैगंबर से पहले की परंपरा को क्या  ‘पहली’ परंपरा कहा जाना चाहिए ?

दरअसल, इन सवालों की पृष्ठभूमि में नामवर सिंह की 1982 में लिखी किताब है  ‘दूसरी परंपरा खोज’. आठ अध्यायों वाली इस किताब को नामवर सिंह पूरा करते हुए अपनी भूमिका में लिखते हैं, “आज उस खोज की अंतरिम रिपोर्ट पेश करते हुए मन थोड़ा हल्का लग रहा है”. जाहिर है, यह रिपोर्ट अंतिम नहीं है. किसी भी परंपरा की रिपोर्ट अंतिम हो भी नहीं सकती. यह रिपोर्ट दरअसल नामवर जी अपने गुरू आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के ‘बनने’ और ‘होने’ को लेकर तैयार की है. इस किताब को  आचार्य द्विवेदी के ‘बनने’ और ‘होने’ की दास्तान के रूप में पढ़ते हुए यह बार- बार लगता है कि नामवर जी का ‘लक्ष्य’ केवल अपने गुरू को याद करना या उनके संघर्षों का आरेख भर खींचना नहीं रहा है बल्कि ‘लक्ष्य’ कहीं और रहा है. भारतीय राजनीति में महात्मा गाँधी जब-जब सामुदायिक कार्यों की तरफ लौटते थे तो उनका उद्देश्य केवल सामुदायिक कार्य नहीं होता था बल्कि वे इस कार्य के द्वारा राजनीति के ऊपर एक दबाब तंत्र, एक अंकुश विकसित करते थे. राजनीति के ऊपर राजनीति से बाहर निर्मित दबाब तंत्र गाँधी की अपनी मौलिक विशेषता थी. नामवर सिंह का ‘लक्ष्य’ इस किताब को लिखते हुए क्या रहा होगा ? 

इसके उत्तर में विश्वनाथ प्रसाद त्रिपाठी के एक लेख ‘नामवर सिंह : हक अदा न हुआ’ के इस अंश को आपके सामने रखता हूँ, “ ... ‘छायावाद’ या ‘कहानी- नई कहानी’  के बाद आलोचक नामवर सिंह को लेखन–प्रेरणा के लिए कोई न कोई ऐसा आलोचक या रचनाकार चाहिए जिसे वे खलनायक बना सकें. मूल्य का स्थान बेध्य ने ले लिया है. ‘कविता के नए प्रतिमान’ में खलनायक डा.नगेन्द्र थे. ‘दूसरी परंपरा की खोज’ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल.” इस अंश को पढ़ते हुए यह बार-बार लगता है कि क्या नामवर सिंह अपनी इस ‘खोज’ में अपने गुरु आचार्य द्विवेदी के बहाने आचार्य शुक्ल को अपना लक्ष्य बेध्य बनाये हुए हैं ? क्या उन्होंने आलोचना कर्म में अपने गुरु का इस्तेमाल तो  नहीं  किया ? 

आलोचना की क्या कोई परंपरा हो सकती है?  अगर परंपरा हो सकती है तो फिर उसका ‘फ्रेमवर्क’ यानि कि रुपरेखा क्या होनी चाहिए? क्या नामवर सिंह ने अपनी ‘खोज’ में आलोचना की परंपरा का कोई ‘फ्रेमवर्क’ बनाया / बताया है ? 1982 में जो नामवर सिंह ने ‘दूसरी परंपरा की खोज’ की और उसकी ‘अंतरिम रिपोर्ट’ प्रस्तुत की, उस अंतरिम रिपोर्ट का हिंदी आलोचना की परंपरा पर क्या प्रभाव रहा है ?  इस ‘खोज’ ने हिंदी आलोचना और समकालीन आलोचकों पर कोई प्रभाव छोड़ा ? ‘दूसरी परंपरा की खोज’ के चौंतीस वर्ष बीतते – बीतते  क्या यह सवाल बना हुआ नहीं है कि हिंदी की आलोचना पर उस खोजी हुई परंपरा का भविष्य क्या है ? ऐसे कई सवाल मन में नामवर सिंह की इस किताब को पढ़ते हुए उभरते हैं, तब भी जबकि इस किताब की भूमिका में लिखा है “कोशिश यही रही है कि न किंचित अमूल लिखा जाय,न अनपेक्षित”.  

हिंदी आलोचना की विकास परंपरा (यदि कोई परंपरा है तो) में यह ‘न किंचित अमूल’ और   ‘न अनपेक्षित’ कहाँ है ? जाहिर है 1982 में इस किताब के आने के बाद, इस किताब  में  ‘खोजी हुई दूसरी परंपरा’ का हिंदी आलोचना पर सीधा कोई प्रभाव या उस परंपरा का निर्वाह  दिखलाई नहीं देता. यहाँ मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि नामवर सिंह की यह बात स्मरण है , “...यह प्रयास परंपरा की खोज का ही है, सम्प्रदाय निर्माण का नहीं”.  आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी को हिंदी आलोचना में एक स्कूल (संप्रदाय) की तरह उपस्थित करने की कई कोशिशें रामविलास शर्मा और नामवर सिंह ने की हैं, कभी जान-बूझकर और कभी अनजाने में भी. नामवर सिंह की यह किताब भले ही किसी संप्रदाय निर्माण न करने की घोषणा के साथ हमारे सामने आती है, लेकिन किताब को पढ़ते हुए कई बार एक व्यक्तिवादी आलोचना को पढ़ने का अहसास होता है.   
                 
विष्णुचंद्र शर्मा अपने लेख ‘वाद-विवाद’ के केन्द्र में नामवर सिंह’ में एक महत्त्वपूर्ण बात करते हैं, नामवर जी ‘दूसरी परंपरा की खोज’ लिखकर ‘साईंट्फिक कल्चर’ से च्युत होने लगे थे ’. यह वाक्य पढ़ते हुए मेरे जैसे पाठक के लिए ठिठक जाना पड़ता है . इस वाक्य के सहारे यदि नामवर जी की इस किताब को देखा जाए तो कई बातें ‘डायलेक्टिस’ की विलोम लगती हैं, मसलन नामवर जी इस किताब की भूमिका में लिखते हैं , “इसमें न पंडित जी की कृतियों की आलोचना है, न मूल्यांकन का प्रयास. अगर कुछ है तो बदल देनेवाली उस दृष्टि के उन्मेष की खोज, जिसमें एक तेजस्वी परंपरा बिजली की तरह कौंध गयी थी . उस कौंध को अपने अंदर से गुजरते हुए जिस तरह मैंने महसूस किया , उसी को पकड़ने की कोशिश की है.”  मैं  एक तेजस्वी परंपरा बिजली की तरह कौंध गयी थी” को अलग से रेखांकित करना चाहता हूँ. विज्ञान और दर्शन में ‘खोज’ और ‘दर्शन पद्धतियाँ’ किसी ‘कौंध’ के साथ नहीं आती बल्कि अपनी द्वन्धात्मक्ताओं के विकसनशील अवस्था के साथ आती है .परंपरा बिजली की तरह कौंधती नहीं है .   
                       
नामवर सिंह अपनी लिखत में बढ़त हासिल करते हैं या अपने वाचिक में, यह सवाल बहुतों के मन में रहता है. उनके लिखे हुए को और उनके बोले हुए को अगर एक साथ देखा जाए तो  एकबारगी यह कहना कठिन हो जाता है कि वे, ‘मार्डन एज’ के प्रखर बुद्धिजीवी हैं या फिर अपने समकालीन आलोचकों पर तीखे प्रहार करते हुए गंगा किनारे पीपल के पेड़ के नीचे पैंतरा सीखते-सिखाते कोई सिद्धहस्त अखाडिया  उस्ताद. नामवर सिंह ‘व्यूह-रचना’ में माहिर आलोचक माने जाते हैं, जब वे लिख रहे होते हैं तब भी और जब बोल रहे होते हैं तब भी. उनकी ख़ामोशी का भाष्य करने की प्रतिभा कम से कम मुझमें तो नहीं है.

‘दूसरी परंपरा की खोज’ 1982 में प्रकाशित हुई थी और ठीक उसके एक साल बाद 1983 में टेरी ईग्लटन (1943) की बेस्ट सेलर किताब ‘लिटररी थ्योरी : एन इंट्रोडक्शन’ किताब आई. साठ और सत्तर के दशकों में उभरे विमर्श की तमाम पेचीदगियों और उसकी अंदरूनी गुत्थियों को यह किताब खोलती है. इन दो दशकों में लेंका, फूको, देरिदा, रोलां बार्थ, जूलिया क्रिस्तोवा आदि आलोचकों ने आलोचना में जो योगदान किया, वह परिवर्तनकारी साबित हुआ. हालाँकि अमेरिकी पूंजी के नए उभार के बाद साहित्य और संस्कृति में जिस प्रकार के बदलाव आये उसको लेकर ईग्लटन ने 2003 में  एक किताब ‘आफ्टर थ्योरी’ लिखी. पॉप-संस्कृति, प्रोनोग्राफी और फैशन-परेडों ने साठ और सत्तर के दशक के विमर्शों को आधारभूत ढंग से उसके आधारों को हिलाया है, ‘आफ्टर थ्योरी’ इन सब की पड़ताल करती है. ईग्लटन की इन दोनों किताबों के परिप्रेक्ष्य में ‘दूसरी परंपरा की खोज’ के विन्यास को हिंदी साहित्य और आलोचना की ‘परंपरा’ में हम देखते हैं तो लगता है कि नामवर सिंह की ‘लिखत’, ‘वाचिक’ और ‘ख़ामोशी’ एक स्वीकार्य छवि के साथ उपस्थित नहीं होती है, बल्कि उसमें कई बार एक खास तरह की ‘आलोचना की बुर्जुआ संस्कृति’ दिखलाई देती है.        
                         
कोस-कोस पर पानी का स्वाद बदल जाता है और तीन कोस पर बोली का स्वरूप, बड़े ही धडल्ले से ऐसे वाक्यों को अनेक अवसरों पर हम सुनते आये हैं, कम से गंगा-यमुना के कछारों में तो यह सही ही है. तो क्या गंगा-यमुना के कछारों में विन्यस्त हिंदी के आलोचक आचार्य शुक्ल, आचार्य द्विवेदी, नामवर सिंह, रामविलास शर्मा आदि में हिंदी आलोचना का स्वाद और उसकी भाषा का स्वरूप भी बदल रहा था. हिंदी आलोचना का स्वाद क्या कोस-कोस पर पानी के स्वाद की तरह बदल जाना चाहिए, क्या इसे आलोचना की विविधता की खूबसूरती कहकर हमें सरलीकृत निष्कर्ष निकाल लेना चाहिए ? यदि ऐसा है तो फिर गंगा-यमुना के कछारों में हिंदी साहित्य और आलोचना की कई परम्पराएं है. इस आधार पर ‘दूसरी परंपरा’ का मिथ टूट जाना चाहिए .
                          
‘दूसरी परंपरा की खोज’ को पढ़ते हुए और उसके विन्यास को समझने के लिए हमने यह जानने की कोशिश की, कि नामवर सिंह की ‘दूसरी परंपरा की खोज’ के सूत्र कहाँ- कहाँ बिखरे हो सकते हैं,  और क्या ये ठीक-ठीक बिखरे ही हैं ? यह भी संदेह बना रहा कि इस किताब को समझने के लिए यह कोशिश कितनी कारगर साबित हो सकती है. बहरहाल, हम इस कोशिश को आपके सामने रखना चाहते हैं .इस कोशिश में मुझे एक छोर आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ को लिखे पत्र में मिलता है. मैं यहाँ उसे हू-ब-हू उद्धृत कर रहा हूँ –


रवीन्द्र पुरी, वाराणसी-5
18-6-70


प्रिय सुमन जी ,

आशा करता हूँ, सपरिवार सानंद होंगे. एक बात कई दिनों से मन में आ रही है. आप तक पहुँचा देना उचित समझता हूँ. हिंदी में प्रोफ़ेसर और डाइरेक्टर जैसे पदों के लिए अच्छे आदमी इसलिए भी नहीं मिलते कि हम लोगों ने योग्यता की कसौटी विशेष-विशेष पदों पर शिक्षक होने को मान लिया है. मुझे प्रसन्नता है कि आपने उपाध्याय जी को नियुक्त करके इस गलत कसौटी का प्रत्याख्यान किया है. भगवतशरण उपाध्याय वास्तव में पंडित हैं और सही व्यक्तियों का सही ढंग से सम्मान होना ही चाहिए. नहीं तो देश का भविष्य भगवान भरोसे ही रहेगा. इसी प्रकार डा. नामवर सिंह का भटकना अखरता है. यह आदमी अपनी योग्यता और परिश्रम से कहीं भी चमक सकता है पर उपेक्षित रह गया है. कभी अवसर देने का प्रयत्न करें. नामवर वामपंथी विचारधारा के हैं पर विद्या की दुनिया में विचारों की विविधता और नवीनता स्वागत योग्य समझी जानी चाहिए. इतनी सी बात आप तक पहुंचाकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई. आपका समय नष्ट हुआ. उसकी कोई चिंता क्यों की जाए ? परोपकाराय सतां विभूतयः. आशा है सानंद हैं.
                                                                                                                                      
आपका
हजारीप्रसाद द्विवेदी
(हजारीप्रसाद द्विवेदी)
                      



(दो)
हम जानते हैं कुछ बर्षों बाद जोधपुर विश्वविद्यालय में नामवर सिंह प्रोफ़ेसर के पद पर नियुक्त हुए और शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ उनके चयनकर्ताओं में थे. इस पूरी प्रक्रिया के बारे में हिंदी समाज वाकिफ़ है. गुरु आचार्य द्विवेदी का यह पत्र नामवर सिंह के लिए प्राण वायु की तरह साबित हुआ. कहना चाहिए, ‘दूसरी परंपरा की खोज’ का एक बीज धीरे से नामवर सिंह के जेहन में उतर आया. दूसरा सूत्र मुझे नामवर जी के लेख ‘रचना और आलोचना के पथ पर’ में मिला, “मेरा पहला आलोचना लेख था :  आचार्य रामचंद्र शुक्ल पर. 1949 की मासिक ‘जनवाणी ’ में ‘हिंदी समीक्षा और आचार्य शुक्ल’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था. आचार्य की आलोचना से ही मैंने आलोचना कर्म का आरम्भ किया था. क्यों ? जाहिर है कि वे मेरी परंपरा हैं. एक परंपरा के रूप में मेरे अंदर हैं – अंदर रहे हैं. मुझे विरासत में सिर्फ मिले हैं– ऐसा भी नहीं. मैंने उन्हें साधना से अर्जित किया है. इसलिए मेरा उनसे टकराव भी है. एक प्रकार का ‘आत्मसंघर्ष.’ मुक्तिबोध का सा आत्मसंघर्ष. उस संघर्ष को सही शब्द मिला जब मैंने ‘दूसरी परंपरा की खोज’ नाम की पुस्तक लिखी 1982 में. जो यात्रा 1949 में शुरु की उसे सही नाम मिला 33 वर्ष बाद और तब यह प्रत्यभिज्ञान हुआ कि मैं इस दूसरी परंपरा के निर्माण के लिए कवि कर्म छोड़ कर आलोचना के पथ पर आ निकला.”

नामवर सिंह के यहाँ आचार्य शुक्ल दो तरह से आते हैं ‘एक परंपरा के रूप में मेरे अंदर हैं ’, ‘मैंने उन्हें साधना से अर्जित किया है ’. यानि विरासत भी हैं और साधना के द्वारा अर्जन भी, और ‘इसलिए मेरा उनसे टकराव भी है’. नामवर सिंह अपने इस टकराव को मुक्तिबोध की तरह का ‘आत्मसंघर्ष ’ बताते हैं. यह ‘आत्मसंघर्ष ’ ही ‘दूसरी परंपरा की खोज’ है. जिसमें आचार्य शुक्ल के स्थान पर आचार्य द्विवेदी  नामवर सिंह के शब्दों में ‘आकाशधर्मी गुरु ’ के रूप में मौजूद हैं, जो ‘हर पौधे को बढ़ने के लिए उन्मुक्तता देने के विश्वासी’ हैं, और ‘यह उन्मुक्तता ही उनकी परंपरा का मूल स्वर है ’. यानि, नामवर सिंह जिस ‘परंपरा’ की ‘खोज’ कर रहे हैं, उनमें ‘ उन्मुक्तता’ एक केन्द्रीय शब्द है और जिसकी ‘खोज’ की जाए उसकी अहर्ता ‘आकाशधर्मी गुरु’ होना है. जाहिर है, इससे किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती, होनी भी नहीं चाहिए  हम इस ‘नहीं होने’ के लिए ‘दूसरी परंपरा की खोज ’ किताब के थोड़े और निकट जाने की कोशिश करते हैं, और जानने की कोशिश करते हैं कि वह कौन सी बात है , जिसे ‘दूसरी परंपरा की खोज’ कहा जाय.

इस किताब के पहले अध्याय का शीर्षक है ‘दूसरी परंपरा की खोज’. इस ‘खोज’ में नामवर सिंह ने आचार्य द्विवेदी के ऊपर पड़ने वाले प्रभाव और उनकी मौलिक स्थापनाओं का एक संक्षिप्त आरेख खींचा है. नामवर जी पहले आचार्य द्विवेदी को उद्धृत करते हैं , “...द्रविड़ तत्त्वज्ञानी नहीं थे. पर उनके पास कल्पना-शक्ति थी, वे संगीत और वास्तु – कला में कुशल थे. सभी कला-विद्याओं में वे निपुण थे,” और फिर इससे वे निष्कर्ष निकालते हैं, “द्विवेदी जी ने इस रास्ते चलकर गंधर्वों,यक्षों और नागों जैसी आर्येतर जातियों के कलात्मक अवदान की खोज की,” (पृष्ठ 12) . द्विवेदी जी की इस खोज को नामवर जी एक मौलिक खोज बताते हैं. दूसरी बात नामवर जी कहते हैं, “द्विवेदी जी को भारतीय संस्कृति और साहित्य की परंपरा रवीन्द्रनाथ के माध्यम से मिली.” (पृष्ठ 12 ) वे आगे कहते हैं, “द्विवेदी जी ने कम-से-कम हिंदी को रवीन्द्रनाथ की प्रेरणा से वह दिया जो उनसे पहले किसी ने न दिया था.” (पृष्ठ 13) यह गौरतलब है कि ‘भारतीय संस्कृति और साहित्य की परंपरा’ आचार्य द्विवेदी जी को रवीन्द्रनाथ टैगोर के माध्यम से प्राप्त हुई, और इसी आधार पर द्विवेदी जी ने हिंदी को वह दिया जो ‘उनसे पहले किसी ने न दिया था’. यानि, नामवर सिंह यहाँ इस बात को स्वीकार करते हैं कि द्विवेदी जी के भीतर जो परंपरा निसृत हो रही है वह टैगोर के माध्यम से है.

यह जानना बेहद दिलचस्प होगा कि यह परंपरा टैगोर के पास कहाँ से आई, किस परंपरा से आई. खुद टैगोर किस तरह के आत्मसंघर्ष और वैचारिक संघर्ष से गुजर रहे थे. इसे बताने के लिए ‘वसुधा’ में प्रकाशित स्वयं के लिखे लेख ‘नवजागरण की यात्रा में रवीन्द्रनाथ टैगोर’ के अंश को उद्धृत करना चाहता हूँ, “ उन्नीसवीं शताब्दी के आखिर में लिखे उनके लेख और बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक समय में लिखे उनके लेख अगर देखे जाएँ तो हमें रवीन्द्रनाथ के विचार में होते हुए परिवर्तन दिखलाई देते हैं ,खासतौर से पूरब और पश्चिम; प्राच्य और पाश्चात्य चिन्तन के मसलों पर. 1887 में ‘ए करेस्पोंडेंस’ नामक लेख में उन्होंने लिखा – ‘जान पड़ता है कि आधुनिक विज्ञान के सारे अन्वेषण शांडिल्य, भृगु और गौतम ऋषियों को मालूम थे. दुःख है कि वेद – पुराण का युग बीत  गया है.’ 1888  में ‘प्रीचिंग’  नामक लेख में ; ‘ईसाई धर्म गिराकर हमें अपने हिंदू धर्म की रक्षा करनी है.’ रवीन्द्रनाथ का यह विचार उनके 1901 के ‘पूर्वी और पश्चिमी सभ्यता’ वाले लेख में और भी अधिक तीक्ष्ण होकर सामने आता है; ‘चाहे हम स्वतन्त्रता प्राप्त कर लें अथवा पराधीन ही रहें, किन्तु हमें अपने समाज में हिंदू सभ्यता को पुनर्जीवन देने की आशा कभी नहीं त्यागनी चाहिए. हमारे इतिहास, धर्म, समाज या गार्हस्थ्य जीवन में राष्ट्र निमार्ण को स्वीकार नहीं किया है.’ 

यह विचार सरणी 1907 के बाद से परिवर्तित होता हुआ दिखलाई पड़ता है. दरअसल प्राच्यवाद से पाश्चात्यवाद की ओर रवीन्द्रनाथ का आकर्षण प्राच्यवाद की प्रबल संकीर्णता और सामंती मूल्यबोधों के कारण  कम हो रहा था और विज्ञान के विकास के साथ पाश्चात्यवाद ने तर्क की एक सरणी विकसित कर ली थी जिसमें रवीन्द्रनाथ को जनता की मुक्ति की आशा दिखलाई पड़ रही थी. दरअलस, रवीन्द्रनाथ के सामने एक बुनियादी समस्या थी कि, ‘हमारा देश सर्वदा शास्त्रों और पंडों से निर्देशित हुआ है, इसलिए विदेश से आये हुए सिद्धांतों को वेदवाक्य समझने की ही प्रवृति हममें है, क्योंकि हमारा मन आसानी से मुग्ध हो जाता है.’ जिसे उन्हें अपनी रचनाओं के माध्यम से हल करना था.” इस लंबे उद्धरण के पीछे यह उद्देश्य है कि, जब स्वयं टैगोर के चिंतन में बदलाव और परिवर्धन के लिए संघर्ष चल रहा था, स्वयं टैगोर के प्रेरणा स्रोत में प्राच्य और पाश्चात्य की अलग-अलग बहसें थीं तो फिर उनके प्रभाव से नामवर जी के अनुसार “द्विवेदी जी ने कम-से-कम हिंदी को रवीन्द्रनाथ की प्रेरणा से वह दिया जो उनसे पहले किसी ने न दिया था.”

वह कितना मौलिक और कितना किसी ‘दूसरी परंपरा’ की निर्मिति करने वाला होगा, सहज ही मन में प्रश्न उठता है. टैगोर के बाद नामवर सिंह कहते हैं “कबीर के माध्यम से जाति-धर्म निरपेक्ष मानव की प्रतिष्ठा का श्रेय तो द्विवेदी जी को ही है. एक प्रकार से यह दूसरी परंपरा है.” (पृष्ठ 13)  टैगोर में जाति और हिंदू धर्म को लेकर एक खास तरह श्रेष्ठता बोध रहा है, कबीर में यह नहीं है. यदि आचार्य द्विवेदी में भारतीय संस्कृति और साहित्य की समझ टैगोर से आई है और नामवर जी ऐसा मानते भी हैं तो फिर संस्कृति में शामिल धर्म और जाति का प्रश्न आचार्य द्विवेदी में टैगोर से क्यों नहीं आया होगा, इसके लिए कबीर को याद करना दरअसल आचार्य द्विदेदी को ‘लेजिटिमेसी’ प्रदान करना जैसा लगता है. नामवर जी लिखते हैं, “सच कहें तो द्विवेदी जी उस तरह से हिंदीवाले थे भी नहीं” (पृष्ठ 13). यदि आचार्य द्विवेदी ‘उस तरह से हिंदीवाले’ होते तो क्या, उनके संदर्भ में ‘परंपरा की खोज’ का आशय कुछ और निकलता. अध्यापन के विषय अलग हो जाने और अध्ययन के विषय अलग हो जाने से क्या विचारों की निर्मिति में अंतर आ जाता है , और इस प्रकार के अंतर को साहित्य की परंपरा निमार्ण में छूट मिलनी चाहिए ?

‘ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत’ इस शीर्षक वाले अध्याय के तहत नामवर जी ने आचार्य द्विवेदी के काशी में आने की दास्तान कही है. दास्तान कहने में उन्होंने तुलसीदास को बार-बार याद किया है. काशी ने जो पीड़ा तुलसीदास को दी वही पीड़ा आचार्य द्विवेदी को भी मिली. नामवर जी लिखते हैं. “हजारीप्रसाद द्विवेदी अपनी अंतिम पुस्तक तुलसीदास पर लिखना चाहते थे. महाकवि का जीवन-संघर्ष उन्हें अपने ही जीवन-संघर्ष जैसा लगता था. ‘तुलसीदास का स्मरण’ शीर्षक निबंध में उन्होंने इसकी और संकेत करते हुए लिखा है, “मुझे तुलसीदास का स्मरण करने में विशेष आनंद आता है.”” (पृष्ठ 20). यह जानना बेहद दिलचस्प है कि आचार्य द्विवेदी अपने शुरूआती लेखन में ‘कबीर’ को रखते हैं और उनके फक्कड़पन को खुद से संदर्भित करते हैं, और अपनी अंतिम पुस्तक लिखने के लिए तुलसीदास को चुनते हैं और अपने जीवन-प्रणाली का साम्य  तुलसीदास में ढूंढते हैं. हम जानते हैं कि जिनमें  वे  अपने जीवन का साम्य   तलाश करना चाहते हैं उनकी भक्ति संबंधी अवधारणा से खुद को अलगाते भी हैं. नामवर जी दर्ज करते हैं, “जो द्विवेदी जी को निकट से जानता है वही जानता है  कि तुलसीदास की यह दुखद जीवन-कथा बहुत कुछ हजारीप्रसाद द्विवेदी की ही आत्मकथा है. बचपन की वही दरिद्रता, जवानी में काशी के पंडितों का वही घृणित विरोध और अंत में थोड़े दिनों की महंती भी वैसी ही.” (पृष्ठ 21 ) दरअसल, यह अध्याय आचार्य द्विवेदी की व्यक्तिगत पीड़ाओं से निर्मित है जिसमें उनके द्वारा ढ़ेरों उदाहरण शिवमंगल सिंह सुमन को लिखे आचार्य द्विवेदी के पत्रों का है. मैं यहाँ नामवर जी के हवाले से आचार्य द्विवेदी द्वारा 30/05/1950 को शिवमंगल सिंह सुमन को लिखे पत्र का एक छोटा अंश उधृत करना चाहता हूँ,

"रुपया तो मुझे चाहिए ही. आपको इस विषय में क्या बताऊँ. शायद आपको यह बताने की जरूरत नहीं कि यदि बिना रुपये के काम चल जाता तो मैं रुपये – पैसे के लेन-देन के चक्कर में कभी नहीं पड़ता. पर गरीब का सबसे भयंकर शत्रु उसका पेट होता है. गरीब का दूसरा दुश्मन उसका सर है जो झुकना नहीं चाहता. जो झुकना चाहता है वह भी शत्रु ही है ".(पृष्ठ 27 )

‘दूसरी परंपरा की खोज’ के संदर्भ से इन प्रसंगों का कोई महत्त्व मुझे समझ में नहीं आता सिवाय इसके कि आचार्य द्विवेदी किस प्रकार के द्वंद में थे. निजी और सामाजिक जीवन में द्वंद तो सभी मनुष्यों में होते हैं, लेकिन इस प्रकार के द्वंद कोई परंपरा की निर्मिति नहीं करते. अपनी ताब के इस अध्याय में नामवर जी आचार्य द्विवेदी को, उधृत करते हैं , “1955 में अपनी पहली कृति ‘सूर साहित्य’ के पुनर्मुद्रण के अवसर पर ‘निवेदन करते हुए लिखा : “पुरानी बातों को पढ़ता हूँ तो ह्रदय में एक प्रकार की पीड़ा का अनुभव करता हूँ. कहाँ से शुरू किया और कहाँ आ गिरा हूँ. जो होना चाहा था वह नहीं हो सका; जो सोचा भी नहीं था, उसके चक्कर में फँस गया हूँ .””

जाहिर है, आचार्य अपने काशी के कटु अनुभवों का स्मरण कर रहे हैं, और जैसा कि मैंने पहले कहा है यह अमूमन सभी मनुष्यों के जीवन में स्थान, काल और उसकी आवश्यकताओं के संदर्भ से कटु और मधुर अनुभव होता है. लेकिन, नामवर जी यहाँ ‘दूसरी परंपरा की खोज’ में इसे किस प्रयोजन से और क्यों क्यों शामिल कर रहे हैं. क्या व्यक्ति के ‘होने’, ‘बनने’ की दास्तान किसी परंपरा के निर्माण के लिए आवश्यक है. नामवर जी का ‘परंपरा की खोज’ के संदर्भ से दूसरा तर्क द्विवेदी जी द्वारा काशी के हिंदी विभाग की बनी – बनाई परंपरा को तोड़ने की घटना से जुड़ा हुआ दिखलाई देता है. एम्.ए. के पाठ्यक्रम में निराला की कविता ‘तुलसीदास’ को शामिल करने और बी.ए. की कक्षाओं के सामान्य छात्रों को प्रेमचंद के पढ़ाए जाने की बात का नामवर जी उल्लेख करते हैं. आचार्य द्विवेदी, आचार्य शुक्ल के विरोधी थे, इस प्रकार के भ्रम फैलने की बात का भी उल्लेख नामवर जी करते हैं, नामवर जी शुक्ल जी के समर्थक को ‘रूढ़िवादी शुक्ल पूजक’ (पृष्ठ 32) कहते हैं और रामविलास शर्मा की किताब ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना’ को आड़े हाथ लेते हैं. हम नामवर जी के इस हेतु को समझ सकते हैं. ‘परंपरा की खोज’ की सार्थकता के संदर्भ से नामवर जी के इस उद्धरण को देखा जाना चाहिए जो उन्होंने आचार्य द्विवेदी द्वारा सुमन जी को लिखे पत्र के  हवाले से उधृत किया है,

“मैं अच्छा आस्तिक कभी नहीं रहा हूँ. परन्तु बुरा नास्तिक भी नहीं रहा हूँ. बुरा आस्तिक दंभी होता है और बुरा नास्तिक अहंकारी. मैं तो सुमन जी, एक अद्भुत मिश्रण हूँ. मुझमे थोड़ा दंभ है, पर अहंकार कम है. कभी-कभी सोचता हूँ कि अहंकारी होता तो अच्छा था. अहंकारी अच्छा, दंभी नहीं.”

इस उद्धरण को पढ़ते हुए इतना ही कहा जा सकता है कि संभवत: अहंकार और दंभ के इस द्वैत में कोई परंपरा निसृत होती हो, मुझे तो नहीं पता.               

     
              
(नामवर सिंह)

(तीन)
‘अस्वीकार का साहस’ वाले अध्याय में नामवर जी आचार्य द्विवेदी की ‘कबीर’ पर लिखी किताब और उस किताब में कबीर के ‘फक्कड़पन’ को अपनी ‘दूसरी परंपरा’ के विश्लेषण में धुरी की तरह इस्तेमाल करते हैं. नामवर जी ‘कबीर’ के प्रकाशन वर्ष 1942 (चौथे दशक) के इर्द-गिर्द हिंदी साहित्य में बिखरे ‘फक्कड़पन’ और ‘मस्ती’ को  बालकृष्ण शर्मा नवीन, भगवतीचरण वर्मा, हरिवंशराय बच्चन, रामधारी सिंह दिनकर की रचनाओं में रेखांकित करते हुए  साबित करते हैं. नामवर जी लिखते हैं, “कबीर की इस अभूतपूर्व और अभिनव कवि-प्रतिभा को ध्यान से देखे तो स्पष्ट हो जायेगा कि यह द्विवेदी जी के मनोवांछित विद्रोही कवि की अपनी कल्प-श्रृष्टि है, जिस पर बहुत हद तक चौथे दशक के फक्कड़पन की गहरी छाप है. ” (पृष्ठ 47) नामवर जी अपनी ‘फक्कड़पन’ और ‘मस्ती’ वाली बात को साबित करने के लिए आचार्य द्विवेदी  के निबंधों, उपन्यासों की तरफ बार-बार जाते हैं. आचार्य द्विवेदी के निबंध ‘प्रेमचंद्र का महत्त्व’(नवम्बर 1939,वीणा) में गोदान के एक ‘मौजी’ पात्र ‘मेहता’ के संदर्भ के सहारे नामवर जी ‘फक्कड़पन’ और ‘मस्ती’ को साबित करते हैं. वे आचार्य द्विवेदी जी के बारे में दर्ज करते हैं, “गोया वे प्रेमचंद के रूप में आधुनिक कबीर की प्रतिमा गढ़ रहे हों.” (पृष्ठ 49)

आचार्य द्विवेदी के उपन्यासों के पात्र वाणभट्ट, ‘चारु चंद्रलेख’ के सीदी मौला  ‘पुनर्नवा’ के माढव्य शर्मा और सुमेरु काका, ‘अनामदास का पोथा’ के गाड़ीवान रैक्य में ‘फक्कड़पन’ और ‘मस्ती’ के तमाम संदर्भ और उदाहरण देते हुए नामवर जी ने आचार्य द्विवेदी को ‘दूसरी परंपरा’ में शामिल किया है. आचार्य द्विवेदी ने अपने  लेख ‘मेरी जन्मभूमि’ में अपने इलाके के निवासियों के फक्कड स्वभाव की चर्चा की है. आचार्य द्विवेदी के  निबंधों में अशोक, शिरीष, देवदारु, कुटज आदि के मस्ती में झूमते स्वभाव को नामवर जी ने ‘फक्कड़पन’ और ‘मस्ती’ की धुरी पर कसा है. नामवर जी आचार्य द्विवेदी के लिए इस धुरी को समझाने के लिए निराला की ‘कुकुरमुत्ता’ (1940), राहुल सांकृत्यायन की ‘बोल्गा से गंगा’ (1942) को शामिल करते हुए दर्ज करते हैं , “वस्तुत बीसवीं सदी के चौथे दशक में विद्रोह फक्कड़पन के ही किसी-न-किसी रूप को लेकर साहित्य में प्रकट हुआ था.” (पृष्ठ 53) नामवर जी आचार्य द्विवेदी के जीवन और रचना-कर्म के सहारे ‘फक्कड़पन’ को ‘दूसरी परंपरा’ की विशेषता मानते हुए लगते हैं . तो क्या साहित्य का यह फक्कड़पन ‘दूसरी परंपरा’ का निर्माण कर रहा था ?     
                     
‘दूसरी परंपरा की खोज’ का चौथा अध्याय प्रेम के पुरुषार्थ का है, ‘प्रेमा पुमर्थो महान. आचार्य द्विवेदी का यह प्रेम कृष्ण भक्ति से ग्रहण किया हुआ है. आचार्य द्विवेदी की सूरदास  सम्बन्धी स्थापना को नामवर जी ‘प्रेम’ की धुरी पर घुमाते हुए उसे ‘दूसरी परंपरा की खोज’ की चाक पर चढ़ाते हैं. नामवर जी भक्तिकाव्य के सूरदास में कृष्ण के प्रति प्रेम को आचार्य द्विवेदी की रचनाधर्मिता में शामिल प्रेम के तत्व को तलाशते हैं और इस तलाश में जगह-जगह आचार्य शुक्ल को प्रश्नांकित करते चलते हैं. वे लिखते हैं, 

“हिंदी भक्ति-काव्य के अनेक लोकवादी मूल्यों के प्रशंसक आचार्य शुक्ल ने भी भक्तिकाव्य के प्राण ‘प्रेम’ को अभारतीय कहा” (पृष्ठ 64 ) नामवर जी का मानना है कि ऐसा शुक्ल जी प्रेम के माधुर्य भाव को फ़ारसी परंपरा का मान लेने के कारण कहते हैं . शुक्ल जी ऐसा इसलिए भी कहते है कि , “तुलसीदास को छोड़कर प्राय: सभी भक्त कवियों का प्रेम ‘एकांतिक’ है.” (पृष्ठ 65) नामवर जी का मानना है कि आचार्य द्विवेदी ने प्रेम की ‘लोकवादी’ भूमिका को रेखांकित किया और, “प्रेम के इसी लोक-आधार पर द्विवेदी जी ने हिंदी के भक्ति काव्य की स्वीकृतिपरक व्याख्या की है.” (पृष्ठ 67) इस तरह से आचार्य द्विवेदी एक ‘दूसरी परंपरा’ का निर्माण करते हैं. प्रेम का एक लोकवादी रूप. प्रेम पाप के अर्थों में नहीं बल्कि मनुष्य के स्वभाव के अर्थों में, इस स्वभाव की स्वीकृति से ही ‘चरम लक्ष्य’ को प्राप्त किया जा सकता है. लेकिन यह ‘चरम लक्ष्य’ क्या है ? कम से कम इस पुस्तक को पढ़ते हुए मालूम नहीं होता है.




(चार)                       
‘भारतीय साहित्य की प्राणधारा और लोकधर्म’ में नामवर जी आचार्य द्विवेदी द्वारा भक्तिकाव्य की निर्मिति में शामिल प्राण तत्वों की ‘खोज’ को सामने लाने का काम करते हुए दिखलाई देते हैं. इस खोज के लिए  नामवर जी दो धुरी आविष्कृत करते हैं, एक भारत में ‘इस्लाम का प्रभाव’ तथा दूसरा ‘शास्त्र और लोक के बीच का द्वंद्व’. इस्लाम के प्रभाव के संदर्भ में नामवर जी आचार्य द्विवेदी की किताब ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ से बहुप्रचलित/बहुउधृत  तर्क को प्रस्तुत करते हैं, “मैं जोर देकर कहाँ चाहता हूँ कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस (हिंदी) साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है.” (पृष्ठ 70) आचार्य द्विवेदी अपने इस तर्क को साबित करने के लिए तुलसीदास और सूरदास की कविता को आधार बनाते हैं (स्मरण रहे यहाँ वह अपने प्रिय कवि कबीर को सामने नहीं ला रहे हैं), नामवर जी ने इसे उधृत किया है, “सूरदास और तुलसीदास आदि वैष्णव कवियों की समूची कविता में किसी प्रकार की प्रतिक्रिया का भाव नहीं है.” (पृष्ठ 71).

आचार्य द्विवेदी इस्लाम को ‘प्रभाव’ की तरह तो स्वीकार करते हैं लेकिन ‘प्रतिक्रिया’ की तरह नहीं. नामवर जी आचार्य द्विवेदी के पक्ष में रामविलास शर्मा के तर्क को काटते हुए इरफ़ान हबीब के लेख का हवाला देते हैं. रामविलास शर्मा का मानना रहा है कि तुर्कों ने भारत में आकर कोई युग परिवर्तन का काम नहीं किया, न उसने सामंतवाद को खत्म कर गण-व्यवस्था कायम की, न पूंजीवादी व्यवस्था. नामवर जी इसके लिए इरफ़ान हबीब के 13 वीं और  14 वीं सदी के संदर्भ में ‘प्रोद्योगिकीय परिवर्तन और समाज’ शीर्षक शोध निबंध के ठोस तथ्यों को सामने रखते हैं, “तुर्कों के शासन के समय भारत में वस्त्र उद्योग, सिंचाई,कागज,चुम्बकीय कुतुबनुमा, समयसूचक उपकरण तथा घुड़सवार सेना-प्रोद्योगिकी आदि के क्षेत्रों में उल्लेखनीय विकास हुआ.” (पृष्ठ 75)

नामवर जी आचार्य द्विवेदी की मान्यताओं को मजबूती से स्थापित करते हैं, वे कहते हैं, “मध्ययुग के भारतीय इतिहास का मुख्य अंतर्विरोध शास्त्र और लोक के बीच का द्वन्द्ध है, न कि इस्लाम और हिंदू धर्म का संघर्ष.” (पृष्ठ 78). नामवर जी इस लोक संघर्ष को वर्ग-संघर्ष के रूप में देखे जाने के लिए जान इर्विन  के लेख ‘द क्लास स्ट्र्गिल इन इंडियन हिस्ट्री एंड कल्चर’ को देखे जाने की वकालत करते हैं. हम जानते हैं कि लोक-धर्म शब्द का प्रयोग आचार्य शुक्ल के बाद आचार्य द्विवेदी ने किया था, लेकिन नामवर जी आचार्य शुक्ल के लोक-धर्म को ‘बहुत कुछ वर्णाश्रम धर्म’ की तरह का मानते है और आचार्य द्विवेदी के लोक धर्म को साधारण जनों के विद्रोह की विचारधारा की तरह देखते हैं. नामवर जी अपने इस तर्क को पैना करने के लिए अंतोनियो ग्राम्शी के ‘नोट बुक’ का सहारा लेते हैं, वे ग्राम्शी के किसानों और कारीगरों जैसे परम्परित वर्गों की वैचारिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखने के आग्रह को स्वीकार करते हैं और इसे आचार्य द्विवेदी के तर्क के समर्थन में खड़े कर देते हैं. ‘दूसरी परंपरा की खोज’ के संदर्भ से यह एक महत्त्वपूर्ण तर्क है .  

‘दूसरी परंपरा की खोज’ का छठा अध्याय ‘संस्कृति और सौंदर्य’ है. इस अध्याय के केंद्र में नामवर जी ने आचार्य द्विवेदी के निबंधों को रखा है. इसके माध्यम से नामवर सिंह ‘सामासिक संस्कृति’ अथवा ‘मिश्र संस्कृति’ की खोज को ‘दूसरी परंपरा की खोज’ में शामिल करते हैं . ‘अशोक के फूल’ के संदर्भ में आचार्य द्विवेदी को नामवर जी दर्ज करते हैं , “एक-एक फूल, एक-एक पशु, एक-एक पक्षी न जाने कितनी स्मृतियों का भार लेकर हमारे सामने उपस्थित है. अशोक की भी अपनी स्मृति-परंपरा है. आम की भी है, बकुल की भी है, चम्पे की भी है. सब क्या हमें मालूम है?” (पृष्ठ 86)

नामवर सिंह इस निबंध के बारे में खुद कहते हैं कि “यह निबंध द्विवेदी जी के शुद्ध पुष्प-प्रेम का प्रमाण नहीं, बल्कि संस्कृति-दृष्टि का अनूठा दस्तावेज है.” (पृष्ठ 87). नामवर जी इस क्रम में दिनकर की  ‘संस्कृति के चार अध्याय’, गोविन्दचंद्र पांडे की किताब ‘भारतीय परंपरा के मूल स्वर’, जयशंकर प्रसाद के निबंध ‘रहस्यवाद’ में सामासिक संस्कृति के तत्व की तलाश करते हुए उसे आचार्य द्विवेदी की चिंतन परंपरा के विस्तार के रूप में देखते हैं. संस्कृति और सौंदर्य के सवाल पर नामवर सिंह आचार्य द्विवेदी के कुछ मौलिक निष्कर्षों को ‘दूसरी परंपरा’ के लिए दर्ज करते चलते हैं, वे अजंता, साँची, भरहुत के चित्रों को आर्येतर सभ्यता की समृद्धि के तौर पर देखते हैं. नामवर जी आचार्य द्विवेदी की किताब ‘प्राचीन भारत का कला-विलास’ (1940) का जिक्र करते हुए सौंदर्यबोध की संस्कृति का उल्लेख करते हैं साथ ही उनके उपन्यासों में आये हुए तमाम नारी पात्रों के सौंदर्य के वैभव, नृत्य-कला के रूप,उसकी शोभा, सुषमा, सौभाग्य, चारुता, लालित्य, लावण्य को सौंदर्य की परंपरा में अभिहित करने के तर्क को स्थापित करते हैं. नामवर जी अपने इस अध्याय में ‘खोज’ को पुष्ट करने के लिए आचार्य द्विवेदी के तर्कों की एक कड़ी निर्मित करते हैं कि कैसे आचार्य द्विवेदी ‘सौंदर्य को सौंदर्य न कहकर ‘लालित्य’ कहना चाहते हैं.’ लालित्य की धारणा को आचार्य द्विवेदी भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से ग्रहण करते हैं. नामवर जी ने अपनी इस किताब में बताया है कि आचार्य द्विवेदी अपने अंतिम दिनों में ‘सौन्दर्यशास्त्र’ पर लालित्य-मीमांसा नाम से एक पूरी किताब लिखना चाहते थे, उस किताब के लिए केवल पांच ही निबंध पूरे हो सके थे. जाहिर है, आचार्य शुक्ल सौंदर्य और संस्कृति को लेकर एक लोकवादी धारणा लेकर चलना चाहते थे, यह उनकी लोकधर्मी परियोजना का हिस्सा था, जिसे नामवर जी ‘दूसरी परंपरा’ कह रहे हैं. जो लोग ‘इतिहास को नीचे से देखने की दृष्टि’ के संदर्भ से बात करते हैं या गायत्री स्पिवाक अपने निबंधों में ‘सबाल्टर्न’ को निरुपित करती हैं, क्या वे सभी एक भिन्न किस्म की परंपरा की बात नहीं कर रहे होते हैं.    

(नामवर सिंह)

(पांच)                 
साहित्य में ‘विचारधारात्मक संघर्ष’ को केंद्र में रखकर नामवर जी ‘दूसरी परंपरा की खोज’ करते हैं. त्वं खलु कृति वाले अध्याय में नामवर जी शिष्ट संप्रदाय की अलंकारशास्त्रीय चिंतन पद्धति को दर्शाते हुए इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि कैसे प्रभुत्वशाली वर्ग साहित्यिक मान्यताओं को पूरे साहित्यिक समाज पर लागू करते हुए प्रभुत्व कायम कर लेता है. गौरतलब है कि इस अध्याय में नामवर जी आचार्य द्विवेदी की आत्म समीक्षा  की ‘क्रीड़ाशीलता’ को ‘परंपरा की खोज’ के लिए धुरी की तरह इस्तेमाल करते हैं. नामवर जी कहते हैं, “उनके (आचार्य द्विवेदी) हाथों शास्त्र भी साहित्य बन जाता है और समीक्षा सर्जना . ... किसी छंद के साथ वे इस तरह खेलते हैं जैसे अर्थक्रीड़ा में उन्हें एक मजा मिल रहा हो. ” (पृष्ठ 109). आचार्य द्विवेदी की किताब ‘मेघदूत-एक पुरानी कहानी’ को इसी क्रीड़ा के तहत देखा जाना चाहिए. हम जानते हैं कि देरिदा ने भी ‘अर्थक्रीड़ाओं’ या ‘अर्थलीला ’ की बात कही है, मैं यहाँ देरिदा के संदर्भ से विस्तार में जाना नहीं चाहूँगा, बस इतना कहना चाहूँगा कि साहित्य में शब्दों के खेल आचार्य द्विवेदी के आने से बहुत पहले से ही प्रचलन में रहा है. बस उसे कहने के तरीके और उसके संदर्भ बदलते रहे हैं. इस तरह यह कोई ‘दूसरी परंपरा’ का निर्माण नहीं करता है बल्कि अध्ययन और विचार की एक अलग दृष्टि देता है .

व्योमकेश शास्त्री उर्फ हजारीप्रसाद द्विवेदी, इस अध्याय में नामवर जी आचार्य द्विवेदी के शास्त्री बन जाने की प्रक्रिया का खुलासा करते हैं, और इसके लिए स्वयं आचार्य द्विवेदी की स्वीकारोक्तियों को उधृत करते चलते हैं. “अपने ज्योतिष गुरु के मत की आलोचना में एक लेख लिखा. अपने नाम से छपाने की हिम्मत न थी. इसलिए नाम छिपाने के लिए एक छद्म नाम चुना– व्योमकेश शास्त्री.” (पृष्ठ 111) . कहते हैं कि इस लेख के बाद आचार्य द्विवेदी को एक शास्त्रार्थ के लिए बुलाया गया, भेद खुल जाने के भय से आचार्य द्विवेदी इसके समाधान के लिए रवीन्द्रनाथ टैगोर के पास गए, “गुरुदेव ने क्षण-भर आँखों में देखा, फिर सहज भाव से कहा – न जाओ. तुममें सत्य के प्रति जितनी आस्था है, उससे कहीं अधिक भय और संकोच. तुमने अपना नाम छिपाया, वहीं से गलत रस्ते पर चल पड़े.” (पृष्ठ 112).

नामवर जी बताते हैं कि इस घटना के बाद भी कुछ ललित लेख आचार्य द्विवेदी ने व्योमकेश शास्त्री के नाम  से लिखे जो ‘विचार और वितर्क’ में संकलित है.  हम जानते हैं कि ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ और ‘चारु चन्द्रलेख’ उपन्यासों के साथ व्योमकेश शास्त्री का नाम आबद्ध है. आचार्य द्विवेदी के इस नाम के बचाव के पक्ष में नामवर जी एक महत्वपूर्ण तर्क प्रस्तुत करते हैं, जो गौरतलब है, “जब अपने छद्म नाम की समस्या को लेकर द्विवेदी जी रवीन्द्रनाथ के पास गए तो उन्होंने उनसे क्यों नहीं पूछा कि आपने भानुसिंह नाम से अपनी आरंभिक रचनाये क्यों छपवायी ? रवीन्द्रनाथ ने जिस भय और संकोच का जिक्र किया था , क्या वह स्वयं अपना अनुभव था ?” (पृष्ठ 112) हम जानते हैं कि न केवल भारतीय साहित्य में बल्कि विश्व साहित्य में भी कई बार छद्म नाम से लिखने की परंपरा मिलती है. छद्म नाम से लेखक कई बार कई तरह की बात कहने का छूट ले लेता है जो वह सीधे-सीधे अपने नाम के साथ नहीं कह सकता. नामवर जी रेखांकित करते हैं कि, छद्म नाम का अगर आचार्य द्विवेदी के पास मुखौटा न होता तो क्या वे वाणभट्ट की आत्मकथा, अनामदास का पोथा, चारु चंद्रलेख जैसे उपन्यासों मे सुकुमार-संवेदना वाली साहसिक प्रेम कहानियां लिख पाते. दरअसल, समाज में मुखौटों का एक खास महत्त्व रहा है.

भरतमुनि के नाटयशास्त्र में भी मुखौटों का जिक्र ‘प्रतिशीर्षक’ नाम से आया है. मुखौटों के संदर्भ में नामवर जी आस्कर वाइल्ड को याद करते हैं, “किसी सभ्य समाज में लोगों के बारे में दिलचस्प चीज है वह मुखौटा है जो उनमें से प्रत्येक धारण करता है, न कि मुखौटे के पीछे की वास्तविकता. उनकी यह धारणा थी कि मनुष्य जब स्वयं बोलता है तो अपने असली रूप में नहीं होता.” (पृष्ठ 115) आचार्य द्विवेदी द्वारा छद्म नाम धारण करना दरअसल, हिंदी साहित्य में लेखन के औजारों का एक प्रतिसंसार रचता है, एक ऐसी दुनिया की निर्मिति जिसमें कहने की छूट का अवकाश हमेशा बना रहे, लेकिन यह यहाँ कहना जरुरी है कि मात्र इस आधार पर इसे ‘दूसरी परंपरा’ कहा जाए, एक सरलीकृत बयान भर होगा, और कुछ नहीं.  
                       
‘दूसरी परंपरा की खोज’ में आचार्य द्विवेदी के ‘बदल देने वाली दृष्टि के उन्मेष की खोज’ को साबित करने के लिए नामवर जी आठ अध्यायों की इस पुस्तक में हर अध्याय के लिए एक धुरी आविष्कृत करते हैं.  धुरी पर नामवर जी अपने  चिंतन के चक्र को आचार्य द्विवेदी के इर्द-गिर्द घुमाने की सुविधा अर्जित करते हैं. पहले अध्याय में आचार्य द्विवेदी  के ‘बनने’, ‘होने’ में  रवीन्द्रनाथ टैगोर के प्रभावों  और शांति निकेतन  के महत्त्व को धुरी की तरह रेखांकित किया है तो दूसरे अध्याय में आचार्य शुक्ल के निजी जीवन के संघर्षों, अनुभवों को (विशेषकर काशी के संदर्भ में) स्थापित करने के लिए नामवर जी तुलसीदास के संघर्षों को अपने विश्लेषण के लिए धुरी बनाते हैं. नामवर जी, तीसरे अध्याय में आचार्य द्विवेदी की रचनाओं और उनके जीवन की दास्तान कहने के लिए कबीर को याद करते हैं; और कबीर के ‘फक्कड़पन’ को आचार्य द्विवेदी के ‘फक्कड़पन’ से जोड़ते हैं. नामवर जी  के लिए ‘फक्कड़पन’ एक अगली धुरी है. आचार्य द्विवेदी की रचनाओं में प्रेम के लोकवादी स्वरूप को जिसका आधार वे कृष्ण के प्रेम का लेते हैं. यह प्रेम वह है  जिसे सूरदास ने अपनी रचनाओं में दर्ज किया है. नामवर जी इसी ‘प्रेम’ को अपनी एक और धुरी बनाते हैं. आचार्य शुक्ल की भक्ति काव्य की उद्भव सबंधी धारणाओं को समझाने के लिए नामवर जी दो धुरी बनाते हैं, एक इस्लाम के प्रभाव को और दूसरा शास्त्र तथा लोक के बीच के द्वन्द्ध को. द्विवेदी जी की रचनाओं में निसृत सामासिक संस्कृति की समझ को ‘दूसरी परंपरा’ की कोटि में लाने  के लिए  नामवर जी द्विवेदी जी के सौंदर्य/लालित्य को धुरी बनाते हैं.

साहित्य और जीवन में विचारधारात्मक संघर्ष को द्विवेदी जी की रचना से जोड़ते हुए नामवर जी आचार्य द्विवेदी की ‘क्रीड़ाशीलता’ को ‘दूसरी परंपरा’ के विश्लेषण के लिए धुरी बनाते हैं. अपने अंतिम अध्याय में नामवर जी आचार्य द्विवेदी के व्योमकेश शास्त्री बन जाने की  साहित्यिक मज़बूरी और जरुरत को रेखांकित करने के लिए मुखौटे की धारणा को धुरी की तरह इस्तेमाल करते हैं. इन धुरियों का निर्माण नामवर सिंह की आलोचना का रण-कौशल है, व्यूह रचना है. तमाम सहमतियों और असहमतियों के बाद भी आलोचना में एक ‘उस्ताद’ की तरह नामवर जी का बर्ताव उनकी खासियत है और उनकी सीमा भी.           
                           
नामवर जी जब ‘आलोचना’ पत्रिका का पहली बार जुलाई-सितम्बर 1968 में  संपादन कर रहे थे, तब उन्होंने अपने पहले सम्पादकीय में लिखा था “दरअसल विरोध की राजनीति का भी क्रमशः एक अपना ‘रेटारिक’ बन जाता है - फिर वह विरोध चाहे जितना ‘निजी’ हो; और नहीं तो अपनी ही आवृति होने लगती है.” दरअसल, ‘रेटारिक’ का अपना एक वजूद होता है, मोटे तौर पर ‘रेटारिक’ को  अठारहवीं सदी के बाद नकारात्मक ढंग से प्रस्तुत किया जाने लगा था. टेरी इग्लटन इसकी पुनर्स्थापना करते हैं, वे मानते हैं कि ‘रेटारिक भाषा में अनुरोध, मनाने और बहस करने की गुणवत्ता का अध्ययन किया जाता था’ उसे हमें एक नया संदर्भ देना होगा. ‘हमें इस विश्वास की और लौटना होगा कि आधुनिक विमर्श मानवीय नियति के बदलाव की चिंताओं से जुड सकता है. तमाम तरह के विमर्श, संकेत-चिन्हों का अध्ययन और संरचनात्मक चीर-फाड़’ एक जरुरी कार्य है. और यह कार्य बदलाव से जुड़ा है. इसलिए कोई भी विरोध और प्रतिरोध को इन्हीं बदलावों के संदर्भ से समझा जाना चाहिए न कि किसी प्रकार के हमले की तरह.  आचार्य दिवेदी की ‘कबीर’ पर लिखी किताब निश्चित ही हिंदी साहित्य में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, आचार्य शुक्ल से भिन्न यह कबीर पर सोचने और तक करने की नई दृष्टि देता है लेकिन इस आधार पर नामवर सिंह का यह कहना, “‘कबीर’ के साथ एक भिन्न परंपरा ही नहीं आती, साहित्य को जांचने-परखने का एक प्रतिमान भी प्रस्तुत होता है.” और यह भी कहते हैं , “इस चिंतन क्रम में द्विवेदी जी जहाँ परंपरा से  प्राप्त हिंदी साहित्य के इतिहास के मानचित्र को बदलकर एक दूसरा मानचित्र प्रस्तुत करते हैं.” (पृष्ठ -17) तो सहज ही मन में प्रश्न उठता है कि क्या हिंदी साहित्य की सम्पूर्ण विकसनशील पद्धति को किसी एक व्यक्ति के चिंतन-ढांचे के आधार पर संकुचित कर दिया जाना चाहिए, और यह भी सवाल उठता है कि यह ‘दूसरा मानचित्र’ क्या है ? यह मानचित्र वही तो नहीं जो नामवर जी ने आठ अध्यायों में कही है. ऊपर आठ आध्ययों के बारे में लिखते हुए मन में यह विचार बार-बार आता रहा कि यह एक शिष्य का अपने गुरु के प्रति आदर दर्शाने का माध्यम मात्र है ; जैसे १९८२ के लगभग तीस वर्षों बाद २०१२  में विश्वनाथ त्रिपाठी ने आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का पुण्य स्मरण करते हुए ‘व्योमकेश दरवेश’ लिखी. नामवर सिंह और विश्वनाथ त्रिपाठी दोनों आचार्य द्विवेदी के शिष्य रहे हैं.  भिन्न समय में लिखी ‘दूसरी परंपरा की खोज’  और ‘व्योमकेश दरवेश’ का तुलनात्मक अध्ययन करना संभव है हमें आचार्य द्विवेदी को लेकर एक भिन्न किस्म का निष्कर्ष प्रदान करे.
                                
इस लेख को अंत करने से पहले मैं फिर से लौटना चाहता हूँ इस किताब की भूमिका की तरफ, लेकिन इससे पहले टेरी ईग्लटन की इस बात की तरफ ध्यान दिलाना चाहता हूँ , “साहित्यक अध्ययन में ‘पद्धति’ के बजाय ‘वस्तु’ महत्त्वपूर्ण होती है. वस्तु ही विमर्श को विशिष्ट और असीमित बनाती है. आज कृति में हम ‘वस्तु’ को स्थिर कर जीवन-वृत्त की पद्धति से मिथकों की पद्धति तक और वहाँ से वाक्य-संरचना की पद्धति तक आ-जा रहे हैं लेकिन हासिल कुछ नहीं होता.” भूमिका में नामवर सिंह अपनी इस किताब के बारे में लिखते हैं, कि ‘इसमें न पंडितजी की कृतियों की आलोचना है, न मूल्यांकन का प्रयास.’ तो इसमें क्या है, इसमें है एक व्यक्ति के ‘बदल देने वाली उस दृष्टि के उन्मेष की खोज’ यानि एक व्यक्ति का जीवन-वृत्त. जाहिर है इस कृति में ‘वस्तु’  आंशिक रूप में ही आया. कहा भी जाता है कि यदि किसी भी कला-रूप से / में  ‘वस्तु’ और ‘विचार’ के स्थान पर ‘ध्वनि’ और ‘विचार’अभिव्यक्त होने लगें तो ऐसे में वह कला-रूप चाहे जो कुछ भी रहे, ‘एंटी डायलेक्टिककल’ हो जाता है. कहते हुए थोड़ा भयभीत होता हूँ कि क्या नामवर जी की ‘दूसरी परंपरा की खोज’ ‘एंटी डायलेक्टिकल’ है ? क्या आचार्य द्विवेदी की ऐसी छवि प्रस्तुत की गई है जो वास्तविकता से दूर है. मैं एक बार फिर से सूसन सौंटैग, वाल्टर बेंजामिन, थियोडोर एडोर्नो  के ऊपर दिए उद्धरणों को पढ़ने की अपील करता हूँ .  

माफ कीजियेगा यदि मेरा यह लेख नामवर सिंह की ‘दूसरी परंपरा की खोज’  के संदर्भ में ‘आह-आह’, ‘वाह-वाह’, ‘अरे-अरे’, ‘अहो-अहो’ की श्रेणी में न आ सका हो . 

आखिर में ‘दूसरी परंपरा की खोज’ पर अपनी बात खत्म करते हुए निम्न पंक्ति को उद्धृत करता हूँ ,बिना कोई संदर्भ कहे -

‘तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी
प्रेरणा इतनी भिन्न है
कि जो तुम्हारे लिए विष है         
मेरे लिए अन्न है ’
       


[i] कहाँ आते मुयस्सर , तुझसे , मुझको खुदनुमा इतने
हुआ यूँ इत्तिफ़ाक , आईन: मेरे रु-ब-रु टूटा ; दीवाने-ए-मीर; संपादक- अली सरदार जाफरी,राजकमल प्रकाशन,पहली आवृति 2003 ,पृष्ठ 101
(यह आलेख बहुवचन-५० में प्रकाशित है)
 



अमरेन्द्र कुमार शर्मा 
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय , वर्धा
09422905755

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  1. शुरू में ही परंपरा के संदर्भ में अतीत और वर्तमान के तीनों ऐसे उद्धरण है जिन्हें लेखक ने ख़ास तौर पढ़ने का आग्रह किया है । इन तीनों में से भविष्य पूरी तरह ग़ायब है । और इसी वजह से इसमें वर्तमान में संक्रमण के किसी भी नये संयोग की संभावना शेष नहीं रहती है, जबकि सच यह है कि वर्तमान के ऐसे संयोग के बिंदु पर भविष्य की दिशा अतीत के खोल को भी पलट देती है और परंपरा की दूसरी नई श्रृंखला निर्मित होती है । इसलिये अतीत के भग्नावशेषों के आद्य बिंबों से जितना वर्तमान तय नहीं होता, वर्तमान के गर्भ में पल रहे भविष्य के बीज से अतीत भी एक नया रूप ले लेता है । एक समय के क्रांतिकारी विचार अचानक ही चरम संरक्षणवादी, यहाँ तक कि पोंगापंथी भी नज़र आने लगते हैं ।
    यह लेख भी कुछ ऐसा ही लगता है , मूलत : सार-संग्रहवादी । लेखक के सामने वर्तमान की कोई चुनौती नहीं है । रवीन्द्रनाथ सागर थे, अतीत, वर्तमान और भविष्य के त्रिआयामी विराट के पुंज । उनके पास रह कर यदि कोई भक्त-रसिया बन कर रह जाए तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । कहते भी है कि जो तत्ववेत्ता नहीं है, ऐसे सिर्फ़ चर्या (पूजा-पाठ) में निष्ठा रखने वाले का चित्त संशययुक्त होने पर ज्ञान की हानि होती है । हज़ारी प्रसाद द्विवेदी को इसीलिये हम एक पुजारी लेखक के रूप में ज़्यादा पाते हैं । इस पर हमने अन्यत्र थोड़ा विस्तार से लिखा भी है ।
    गुरु-शिष्य संबंधों की सोच की धुरी पर टिका यह पूरा विवेचन भी इसीलिये ज़रा सा भी आकर्षित नहीं कर पा रहा है । लेखक में हमें तो नया कोई सोच देने की शक्ति नहीं दिखाई देती है, क्योंकि वे भी विषय के पास भक्ति भाव से जाते हैं, उसे किसी प्रकार से भी समस्याग्रस्त करके देखने की इनकी ताक़त ही नहीं है ।

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  2. आलोचना का पहला गुण यह है कि वह पठनीय हो । अमरेंद्र जी ने इसका ध्यान रखा है । नामवर जी पर यह सुपठित विवेचन है ।

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  3. भक्त कवियों को छोड़कर हिन्दी के ज्यादातर लेखकों की स्थिति राज्यसभा के उन मनोनीत सदस्यों की तरह है जिनमें अपने मनोनयन के लिए तिकड़म भिड़ाने के बावजूद अक्सर बहुत से गुण तो होते हैं,पर उनका कोई जनाधार नहीं होता.वजह यह कि हिन्दी समाज और ख़ास तौर से हिन्दी भाषी अभिजन अपनी भाषा और साहित्य को कोई महत्त्व नहीं देता. हिन्दी के लेखक चाहे जो कहें लेकिन यह जाहिर सी बात है कि अब हिन्दी साहित्य में से चुनिंदा रचनाएं या उनके अंश केवल हिन्दी के अच्छे-बुरे आलोचक,अध्यापक और विश्वविद्यालयों में हिन्दी के छात्र मजबूरन पढ़ते हैं.उच्चाधिकारियों और अभिजनों की मौजूदगी में ‘राष्ट्रीय एकता दिवस’ पर सरदार पटेल के जीवन पर आधारित एक वृत्तचित्र दिखाए जाने के बाद संवाद के दौरान जब मैंने वृत्त चित्र में दिखाए गए विभाजन के दौरान हुए दंगों के प्रसंग में यशपाल के ‘झूठा सच’ का जिक्र किया तो पाया कि वहाँ उपस्थित कोई व्यक्ति यशपाल के नाम तक से परिचित नहीं था.ऐसे में परिश्रम से लिखित किसी आलेख को ‘अध्यापकीय आलोचना’ कहकर खारिज कर देना अनुचित है.

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  4. यह बेहद अफ़सोसजनक है कि हिंदी में कुछेक बरस से बिना पढ़े टिपण्णी करने का बाजार बेहद गर्म हुआ है। अरुण माहेश्वरी जी के बारे में ऐसा नहीं रहा है , यहाँ बिना पढ़े उनकी टिपण्णी हैरत में डालने वाला है ।

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  5. मैं आपके लेख का और इस पूरे प्रसंग का यथास्थान बहुत सही ढंग से इस्तेमाल करूँगा । आपने मुझे एक अच्छा विषय दिया है, जिसपर मुझे विस्तार से चर्चा करनी चाहिए ।

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