महात्मा गांधी का निर्माण साम्राज्यवाद विरोधी
चेतना, आंतरिक जातिवाद और सम्प्रदायवाद विरोधी चिंता और दो विश्व युद्धों के बीच मानवता
की दुर्दशा पर चिंतन के बीच हुआ है.
ये सभी स्थितियाँ आज भी कमोबेश बनी हुई हैं. ज़ाहिर
है ऐसे में उनकी चेतना, चिंता और चिन्तन को बदली हुई परिस्थितियों में फिर से
देखने की जरूरत है और विकसित करने की भी.
गाँधी जयंती के अवसर पर प्रकाशचंद्र
भट्ट का यह आलेख आपके लिए
संस्कृति में प्रतिरोध का स्वर और गाँधी
(हिन्द स्वराज का संदर्भ)
प्रकाशचंद्र भट्ट
गाँधी के ‘हिंद स्वराज’ का यथार्थ औपनेवेशिक भारत है पर
तैयारी औपनिवेशिकता से टकराहट तक सीमित नहीं, इस नाते यह किताब तथाकथित समकालीनता
की किताब न होकर ऐतिहासिक चेतना की किताब है. इतिहास बोध से संपन्न इस रचना की
चिंता स्वाधीन भारत की सत्ता और संस्कृति को लेकर दिखाई देती है. रचना स्वाधीन
भारत के सवालों से मुठभेड़ के समय एक भविष्य दृष्टि लेकर उपस्थित होती है‚ यानी
रचनाकार की ऐतिहासिक चेतना काल के एक आयाम तक सीमित नहीं है.
सांप्रदायिकता, राष्ट्रवाद, पूँजीवादी दमनकारी तुरन्ता चेतना का प्रसार और
दखल दिनो़ं दिन बढ़ता जा रहा है. दृष्टि से अलग नहीं हुआ करता व्यवहार‚ प्रतिक्रियावादी
दृष्टि भी चिंतन से व्यवहार में उतरती है. गाँधी ‘हिंद स्वराज’ में प्रतिक्रियावादी
दृष्टि से टकरात॓ हुए हिंद‚ स्वराज‚ संस्कृति‚
राष्ट्र‚ धर्म‚ आधुनिक और इतिहास का
बहुलतावादी अर्थ सामने रखते हैं. भय से निर्मित प्रजा में प्रतिरोध की शक्ति का
विलोप प्रजा की गुलामी को गहरा बनाता है. ‘हिंद स्वराज’ इस शक्ति के जागरण का
वैचारिक अणु बनकर आता है- “अगर लोग एक बार सीख लें कि जो क़ानून हमें अन्यायी मालूम हो
उसे मानना नार्मदगी है, तो हमें किसी का भी जुल्म बाँध नहीं सकता”.
समय एवं मानवीय चेतना की संश्लिष्टता की समझ के लिए
जिद्दी-एकांगिक दृष्टि बहुत दूर तक सहायक नहीं हो सकती, आर्थिक-विकास एवं समाजवैज्ञानिक दृष्टि की
उपेक्षा करने वाला संस्कृति का कोई भी पाठ, अतीत द्वारा वर्तमान का अधिग्रहण होकर
रह जाया करता है. इस बिंदु पर कहना न होगा कि इन विषयों की एकाकी यात्रा भी विकास को
मानवीय चेतना से रिक्त कर देगी. इस संकट को जानने, महसूसने और उससे बचने के लिए विकास को वैज्ञानिकों या अर्थशास्त्रियों की
बपौती मानने के पूर्वाग्रह से मुक्ति आवश्यक प्रतीत होती है. संस्कृति में यदि
विकासकामी चेतना तो हो किंतु सामाजिक चेतना से युक्त असहमति, विरोध और प्रतिरोध विलुप्त हो तो क्या उस चेतना
को मानव निर्मित पर्यावरण यानी संस्कृति कह सकते है? सोचने की बात है. उत्तर यदि ना में आए तो यह
स्वीकारा जा सकता है कि सामाजिक चेतना से युक्त प्रतिरोध को संस्कृति की परिभाषा
में शामिल किया जाना चाहिए.
“हम किसी का भी जुल्म और दबाव नहीं चाहते- चाहे
वह गोरा या हिंदुस्तानी हो. हम सबको तैरना सीखना और सिखाना है”- ‘हिंद स्वराज’ के इन जलते कोयलों को यदि
आज सांस्कृतिक प्रतिगामी दृष्टि द्वारा पकड़ लिया जाए तो संभावना बनती है कि ‘हिंद
स्वराज’ पर प्रतिबंध लग जाए क्योंकि सांस्कृतिक अग्निशमन घटना-स्थल पर तत्काल पहुँच
संस्कृति को बचा लिया करते हैं‚ किताब‚ लेखक‚ विचार को ठिकाने लगा डालते हैं.
जब व्यक्ति और उसके विचार
को बदनाम किया जा रहा हो और उसकी रचना को प्रतिबंधित तो दो बातों की संभावना बनती
है. एक, बदनाम और प्रतिबंधित
करने वाली सत्ता और रचनाकार के मध्य स्वीकार, सामंजस्य और सहमति का संबंध न होकर तनाव, अस्वीकार, असहमति, विरोध और प्रतिरोध का संबंध है. दो, वह व्यक्ति, विचार, और रचना यथास्थितिवाद के विरोध में उठी है, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक या आर्थिक
सत्ता के लिए चुनौती बनती है. गाँधी अपनी जिस किताब को छोटी और जीवन-क्रम में अजीब
कहते हैं, संवाद शैली में गढ़ी
गयी ‘हिंद स्वराज’ के साथ ऐसा ही कुछ होता है. कहीं गाँधी गहरी चाल चलते हुए तो
कहीं अपने अजीब ख्याल और धार्मिक प्रयोगों से हिंदुस्तान को नुकसान पहुँचाने वाले
कहे जाते हैं. सत्ता, किताब के वितरण पर
रोक लगाती है. इस कार्रवाई पर गाँधी का प्रतिरोध जन्म लेता है- ‘हिंद स्वराज’ का
सृजन और गुजराती से अंग्रेज़ी में अनुवाद, प्रतिरोध की चेतना का ही प्रतिफल रहा है.
यह किताब आधुनिक सभ्यता की सख्त टीका तक सीमित नहीं रहती.
औपनिवेशिक भारत की समस्याओं से जूझते हुए राजनीति और धर्म में प्रेम की प्रस्तावना
करते हुए उसे मनुष्य जीवन की मूल संवेदना
के रूप में रेखांकित करती है. मनुष्य की
समग्र और अखंड स्वाधीनता की चाह राजनीतिक स्वाधीनता तक सीमित नहीं हो सकती.- “हम किसी का भी जुल्म और दबाव नहीं चाहते- चाहे
वह गोरा या हिंदुस्तानी हो. हम सबको तैरना सीखना और सिखाना है”.
सत्ता, प्रतिरोध की चेतना की धार को विभिन्न औजारों से भोंथरा करती रही है, ताकि सत्ता की मनचाही का प्रतिपक्ष न उभर सके.
वर्तमान और इतिहास से यह समझ बनती है कि
निरंकुश सत्ता के लिए पुलिस एवं कानून ऐसे ही सार्वकालिक शांत दिखने वाले
हिंसक अस्त्र रहे हैं. भय से निर्मित प्रजा में प्रतिरोध की शक्ति का विलोप उनकी
गुलामी को गहरा बनाता है. “अगर लोग एक बार सीख लें कि जो क़ानून हमें अन्यायी मालूम हो उसे मानना नार्मदगी
है, तो हमें किसी का भी
जुल्म बाध नहीं सकता”.
संस्कृति का समाजशास्त्र में मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है कि संस्कृति का
बुनियादी अर्थ है मानस के परिष्कार की विशिष्ट अवस्था. इस परिष्कार की प्रक्रियाएँ
भी संस्कृति के अंतर्गत आती हैं. उन प्रक्रियाओं को जिन वस्तुओं से मदद मिलती है
उन्हें सांस्कृतिक रूप या साधन कहा जा सकता है. ऐसे साधनों में मुख्य हैं- मनुष्य
की बौद्धिक क्रियाएँ और विभिन्न कलाएँ. गाँधी का कहना है कि “हिंदुस्तानी सागर के किनारे पर ही मैल जमा है. उस
मैल से जो गंदे हो गए हैं उन्हें साफ होना है. हम लोग ऐसे ही हैं और खुद ही बहुत
साफ़ हो सकते हैं”. इसी बिंदु पर यदि
हम संस्कृति की मूल चिंता और प्रक्रिया को देखें तो ‘हिंद स्वराज’ की मूल चेतना को
समझा जा सकता है.
मनुष्य की स्वाधीनता की नैतिकता के लिए गाँधी स्वराज, सभ्यता, संस्कृति और स्वभाव शब्द का प्रयोग करते हैं.
स्वराज के बाद सभ्यता का प्रयोग अधिक करते हैं. उनकी सभ्यता चेतना की समझ के लिए
स्वराज के साथ हिंद शब्द भी बड़े काम का है. इटली और हिंदुस्तान में गाँधी बताते
हैं कि ”इमेन्युअल कावूर और गैरीवाल्डी के विचार से इटली का अर्थ था इमेन्युअल या इटली
का राजा और उनकी हुजूरी. मेजिनी के विचार से इटली का अर्थ था इटली के लोग- उसके
किसान”. गाँधी मेजिनी से जुड़ते हुए
हिंदुस्तान का अर्थ करते है -करोड़ों किसान और जनता. जिनके सहारे राजा और हम सब जी
रहे हैं. स्पष्ट है कि गाँधी की चिंता के केंद्र में है किसान और प्रजा की गुलामी.
संस्कृति के भी उद्योग बनते समय में समाजशास्त्री कहते हैं
कि ऎसे में एक आयामी समाज बनता है और एक आयामी मनुष्य पैदा होते हैं. सत्ता सबसे
पहले संस्कृति को समय से कर देखना दिखाना चाहती है. इसमें सामाजिक व्यवस्था के साथ
संचार-माध्यम सत्ता का सहयोग करते हैं. इनके माध्यम से अनुभूतियों की कंडीशनिंग
घनीभूत होती जा रही है. इससे समाज में प्रश्नाकुलता और आलोचनात्मक चेतना की जगह
बने बनाए सच की परछाइयाँ लेती जा रही हैं. पाठक से संवाद में गाँधी कहते हैं- “शरीर का सुख कैसे मिले, यही आज की सभ्यता ढूँढ़ती है, और यही देने की वह कोशिश करती है‚ परन्तु वह सुख
भी नहीं मिल पाता.“ आलोचनात्मक चेतना के
हनन का यह तरीका पूँजीवादी व्यवस्था का तरीका, आलोचनात्मक विवेक के सहारे समझा जा सकता है.
पूँजीवादी व्यवस्था खरीदने और बेचने की आज़ादी के रास्ते
पराधीनता की विराट व्यवस्था है और संस्कृति मनुष्य की स्वाधीनता की रचना और
अभिव्यक्ति. गाँधी आधुनिक सभ्यता का सख्त प्रतिरोध यूँ ही नहीं करते. बिना बोध के
प्रतिरोध कैसे संभव है? 1909 में गाँधी लिखते हैं- ”पहले लोगों को मार-पीट कर गुलाम बनाया जाता था, आज लोगों को पैसे का और भोग का लालच देकर गुलाम
बनाया जाता है”. गाँधी इतना और
जोड़ते हैं कि पैसा उनका खुदा है, यह ध्यान में रखने से सब बातें साफ हो जाएँगी.
गाँधी के यहॉ औपनिवेशिक चेतना द्वारा गढ़ी गयी आधुनिक सभ्यता
के चरित्र की गहरी और व्यापक पहिचान दिखाई देती है. आप बतलाते हैं कि यह बाहर से
सांत्वना देती है और अंदर से चूहे की तरह कुतरकर खोखला कर देती है. उसकी खूबी यह
है कि लोग उसे अच्छा मानकर उसमें कूद पड़ते है. फिर तो न वे दीन के और न रहते
दुनिया के. प्रो. पुरुषोत्तम
अग्रवाल मास कल्चर पर लिखते हुए माइकेल
माहात्म्य लिखते हैं. कलाकार या परफारमेंस को स्टार में बदलना पूँजीवादी संस्कृति
की विशेषता है. पूँजीवादी संस्कृति यानी मास कल्चर. उसके सामाजिक पर पड़े प्रभाव को
बतलाते हुए आप कहते हैं कि ”उनके चेहरों पर तृप्त उत्तेजना का आनंद सचमुच ब्रहमानंद सहोदर है लेकिन बस कुछ
घंटों के लिए. इंस्टैंट फूड, इस्टैंट काफी और इंस्टैंट विचार खोजते समाज में माइकेल जैक्सन वैसा ही
इंस्टैंट निर्वाण देने वाला माध्यम है जैसे कि भगवान श्री रजनीश”.
स्पष्ट है कि गाँधी अपनी जनचेतना के कारण मास कल्चर का खंडन करते हैं. गाँधी
की संस्कृति, सांस्कृतिक चिंताएँ‚
इस्टैंट स्वीकार, इस्टैंट अस्वीकार का
परिणाम नहीं. गाँधी जब रेल, अख़बार, संसदीय लोकतंत्र, वकील का अस्वीकार करते हैं उसके मूल में इसी
तुरंतापन का विरोध है.
बंगाल का विभाजन, अशांति और असंतोष खंड को पढ़कर गाँधी की प्रतिरोधात्मक चेतना के तेवर को समझा
जा सकता है. बंगाल का विभाजन में गाँधी बताते हैं- “उस असंतोष से अशांति पैदा
हुई और उस अशांति में कई लोग मरे, कई बरबाद हुए, कई जेल गए, कई को देशनिकाला हुआ, आगे भी ऐसा होगा, और होना चाहिए. ये सब लक्षण अच्छे माने जा सकते
हैं”. अतः बने और बनाऐ गए साँचे टूटने चाहिए. पूँजीवादी
वर्चस्व के समाज में बात याद रखे जाने लायक महसूस होती है - आगे भी ऐसा होगा और
होना चाहिए. गाँधी की सांस्कृतिक दृष्टि में न्याय की पक्षधरता और अन्याय के
प्रतिरोध का निर्भय स्वीकार है. संदर्भ चाहे देश या विदेश की जनता हो या ब्रिटिश
सत्ता या देसी रियासतें. प्रतिरोध में यह विवेक बराबर उपस्थित है कि “इसका नतीजा बुरा भी आ सकता है”.
रवीन्द्रनाथ टैगोर लिखते हैं- ”एक खास तरह के इतिहास द्वारा सांस्कृतिक औपनिवेशिकता इस देश
के इतिहास का लोप कर देना चाहती है. हम पेट की रोटी के बदले, सुशासन, सुविचार और सुशिक्षा सब कुछ एक
बड़ी़........दूकान से खरीद रहे हैं- बाकी बाजार बंद हैं....... जो देश भाग्यशाली
हैं वे सदा स्वदेश को देश के इतिहास में ही खोजते और पाते है.... हमारे मामले में
इसका उल्टा है. देश के इतिहास ने ही हमारे स्वदेश को ढक रखा है”. गाँधी जब इतिहास, राष्ट्र, शिक्षा, भाषा, लिपि, कारीगरी, सांप्रदायिता के प्रश्नों पर विचार करते हैं तो
वे औपनिवेशिक‚ नवऔपनिवेशिक संस्कृति की चालों से असहमति रखते हैं, उसका विरोध करते हैं.
इतिहास-लेखन में सामाजिक चेतना के आने का कारण में इतिहासकार
हरबंस मुखिया “ध्यान केन्द्र में नए परिर्वतन“ को बतलाते हैं, जिसका अर्थ होता है आधुनिक दृष्टिकोण. “असल में इतिहास में हमें जिस चीज का अध्ययन करना
चाहिये वह है काल के एक बिन्दु से दूसरे तक समाज के विकास की मंजिल, समाज की उत्पादन प्रणाली में आने वाले परिर्वतन
और उससे उत्पन्न सामाजिक संगठन आदि. ऐसा अध्ययन अतीत के सम्पूर्ण समाज का अध्ययन
होगा और वास्तव में शासक का निजी धर्म तो अनावश्यक हो जायेगा. सच तो यह है कि हमें
जो राजनीतिक इतिहास पढ़ाया जाता है वह
वस्तुतः शासक राजवंशों का इतिहास है”. गाँधी कहते हैं
इतिहास या हिस्ट्री का अर्थ बादशाह या राजाओं की तवारीख तक, राजाओं के संघर्षों तक सीमित नहीं हो सकता. कहते
हैं कि अगर यही इतिहास होता, अगर इतना ही हुआ होता, तब तो दुनिया कब की डूब गयी होती. यहाँ गाँधी की ऐतिहासिक दृष्टि को देखा जा
सकता है.
बिना आलोचनात्मक विवेक के रचनात्मक नहीं हुआ जा सकता. गाँधी
कहते हैं कि जुल्म का प्रतिरोध भारत का स्वभाव है, क्योंकि राजा के जुल्म पर प्रजा के रुठने के
साक्ष्य यहा बराबर मिलते हैं. ये प्रजा एक दिन में नहीं बनती, उसे बनने में कई बरस लगते हैं. गाँधी पैसिव
रेज़िस्टेन्स के द्वारा प्रजा का निर्माण करने में तत्पर लक्षित होते हैं. इस
रास्ते व्यक्ति-स्वराज को सामाजिक-स्वराज में बदला जा सकता है. बिना इस चेतना के
स्वराज का अभिप्राय अधिनायकवाद और हिन्द का अर्थ हिन्दुस्तान की सत्ता हो जाएगा. गाँधी
को इन अर्थों से घोर आपत्ति है, इनसे गाँधी का संबंध असहमति और विरोध
का है. सोचना होगा हमें हिंद और स्वराज के प्रतिगामी अर्थ से मोह है या प्रगतिशील
अर्थ को पाने, बचाने और बढ़ाने की चेतना. यहीं से सहमति और प्रतिरोध के रास्ते में से एक को चुनना पड़ता है.
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संदर्भ -
1.भारत
: इतिहास और संस्कृति- गजानन माधव मुक्तिबोध, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
2- हिंद स्वराज- महात्मा गाँधी, शिक्षा भारती, दिल्ली, 2011
3- भारतीय समाज में
प्रतिरोध की परम्परा- मैनेजर पाण्डेय, भूमिका, वाणी प्रकाशन, दिल्ली 2013
4- तीसरा रुख़ - पुरुषोत्तम
अग्रवाल, वाणाी प्रकाशन, दिल्ली, 1996
5- मैं नास्तिक क्यों हूँ-
भगत सिंह, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया
6- प्रसाद, निराला अज्ञेय- रामस्वरुप
चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
7- इतिहास की पुनर्व्याख्या-
संपादित, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
8- आधुनिक भारत का आर्थिक
इतिहास - सव्यसाची भट्टाचार्य, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1999
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (01-10-2016) के चर्चा मंच "कुछ बातें आज के हालात पर" (चर्चा अंक-2483) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएंमहात्मा गान्धी और पं. लालबहादुर शास्त्री की जयन्ती की बधायी।
साथ ही शारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएँ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
लेख में गांधी चिंतन के साथ गांधी पर अन्य दृष्टियों को दर्शने का सहारा है, पाण्डेय जी, पुरुषोत्तम जी के सन्दर्भ से लेख या तो गंभीर बना है या शोध शैली का प्रभाव है। ख़ैर वर्तमान में गांधी को आत्मिक रूप से समझने की ज़रूरत है, उनकी औपनिवेशिक सोच और खतरों को निकट से महसूस किया जाना चाहिए और जिस तरह साफगोई से गांधी अपनी रचना करते हैं वैसी रचना का प्रभाव और अंश आज हमारे भीतर होना ज़रूरी है।
जवाब देंहटाएंविचारपूर्ण लेख
जवाब देंहटाएंआभार सर......
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