हिंदी दिवस के
ख़ास अवसर पर आपने पढ़ा राहुल राजेश का आलेख, ‘रोमन लिपि में हिन्दी का कुतर्क’. संजय
जोठे का
आलेख, ‘हिंदी की दुर्दशा का सनातन प्रश्न’.
आज प्रस्तुत है राहुल राजेश का आलेख – ‘हिन्दी का विरोध अंततः अंग्रेजी का ही समर्थन है.’
आज प्रस्तुत है राहुल राजेश का आलेख – ‘हिन्दी का विरोध अंततः अंग्रेजी का ही समर्थन है.’
हिन्दी का
विरोध अंततः अंग्रेजी का ही समर्थन है
राहुल राजेश
राजभाषा
हिन्दी और हिन्दी को लेकर लोगों के मन में तरह-तरह की निराधार और नकारात्मक धारणाएँ
बैठ गई हैं, या कहिए, जानबूझकर बैठा दी गई हैं, जिनको आधार
बनाकर लोग तरह-तरह से राजभाषा हिन्दी और हिन्दी का विरोध करते रहते हैं. कोई
राजभाषा हिन्दी का इसलिए विरोध करने पर आमादा है कि उसे लगता है, राजभाषा
हिन्दी बहुत संस्कृतनिष्ट है और इसलिए बहुत क्लिष्ट है. कोई राजभाषा हिन्दी का
इसलिए विरोध कर रहा है कि उसे लगता है, राजभाषा हिन्दी में उर्दू, अरबी, फारसी आदि
विदेशी भाषाओं से आए शब्दों पर प्रतिबंध है. कोई राजभाषा हिन्दी और पूरी हिन्दी भाषा
का ही सिर्फ इसलिए विरोध कर रहा है कि उसे लगता है, नरेंद्र मोदी
के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार द्वारा राजभाषा हिन्दी और हिन्दी का भगवाकरण किया जा
रहा है. कोई हिन्दी को राष्ट्रवाद और सांस्कृतिकवाद से जोड़कर देख रहा है और इसे
पूरे देश के लिए घातक बता रहा है.
कुछ लोग
राजभाषा हिन्दी की सरकारी कार्यालयों में तनिक कमजोर स्थिति को ही आधार बनाकर और
स्थितियों का अधकचरा आकलन-विश्लेषण कर पूरी की पूरी हिन्दी भाषा को ही कमजोर, दयनीय और
दरिद्र घोषित कर देने पर तुले हुए हैं. कुछ लोग यहाँ तक दावा करने लगे हैं कि
जैसे संस्कृत मर गई, वैसे ही हिन्दी भी मर जाएगी. (मानो इस संसार में
बस अंग्रेजी ही अमर-अनश्वर रह जाएगी.) और तो और, कुछ लोग
इतिहास और कुछेक महापुरुषों के असंगत-अप्रासंगिक उद्धरणों
और आधे-अधूरे तथ्यों को अपनी सहूलियत के हिसाब से तोड़-मरोड़कर पेश करते हुए हिन्दी
का ‘मर्शिया’ तक पढ़ने लगे
हैं.
सच कहें तो भाषा
का जितना विरोध, जितनी बदनामी खुद उस भाषा को बोलने, बरतने, पढ़ने और पढ़ाने
वालों ने किया है, उतना तो राजनैतिक दलों ने भी नहीं किया. हिन्दी की खाने
वाले तो हिन्दी को ही हरदम भरदम गरियाते रहे हैं. ‘समालोचन’ ई-मैगज़ीन पर
साल भर पहले छपा "हिन्दी के लोग" शीर्षक मेरा लेख कभी पढ़ें. हिन्दी वालों
की इस फितरत पर मैंने विस्तार से लिखा है. हिन्दी वाले हिन्दी को, राजभाषा हिन्दी
को कोसते तो बहुत हैं, इसके भले के लिये कभी कोई ठोस पहल नहीं करते. कभी कोई
कारगर दबाव नहीं बनाते.
जरा सोचिए, जो लोग
राजभाषा हिन्दी का इतना प्रबल विरोध करते हैं, क्या वे सीधे-सीधे
अंग्रेजी का समर्थन नहीं कर डालते? राजभाषा
हिन्दी का विरोध तो सरकारी कामकाज में अंग्रेजी के बने रहने को और अधिक ताकत ही देता
है न. भाषा का साम्प्रदायिकरण, भगवाकरण जैसे जुमले बस वामपंथी बकवास हैं. यदि
उनके हिसाब से ऐसा हो रहा है तो यह सिर्फ हिन्दी, संस्कृत का
नहीं, बल्कि अंग्रेजी का भी तो हो रहा होगा. या फिर अंग्रेजी
बहुत सेकुलर भाषा है, सिर्फ सेकुलरों की भाषा है.
कुछ लोगों को
लग रहा है कि संस्कृत भाषा के संरक्षण और संवर्धन की आड़ में भाषा का भगवाकरण किया
जा रहा है. अब भला संस्कृत का संरक्षण और संवर्धन यथा- संस्कृत में समाचार-वाचन
कहाँ से भाषा का साम्प्रदायिकरण या भगवाकरण हो गया? मुझे तो लगता
है,
'हमारी हिंदी' शीर्षक कविता में हिंदी को 'दुहाजू की नई बीवी' तक कह डालने
वाले रघुवीर सहाय जैसे हिन्दी के तमाम पुराने और नए लेखकों ने हिन्दी के हित के
नाम पर हिन्दी का अहित ही ज्यादा किया है. इसे खुलकर स्वीकार
करने की तत्काल सख्त जरूरत है.
कुछ
क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों को यह भी गलतफहमी है कि राजभाषा हिन्दी में केवल
संस्कृत से आए शब्दों का प्रयोग किया जाता है और उर्दू, अरबी, फारसी, पुर्तगाली, डच, अंग्रेजी आदि
भाषाओं से आए शब्दों पर सरकारी प्रतिबंध है. उनका यह भ्रम अदालती कामकाज पर महज एक
नज़र डाल लेने से ही दूर हो जाएगा. अदालत, फैसला, मामला, मिसिल, मुवक्किल, गवाह, गवाही, सबूत, कागज, दस्तावेज, दस्तखत, दस्ती, दस्तकारी, लिफाफा, कामगार, कारगर, कारोबार, बाजार, फर्राश, दफ्तरी, इस्तीफा, तबादला, तैनाती, सलाह, खबर, खिलाफ, गलतियाँ आदि
जैसे हजारों शब्द धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहे हैं जो संस्कृत से नहीं है और इनपर
कोई सरकारी प्रतिबंध नहीं है. लेकिन संस्कृत से आए हजारों शब्द ऐसे हैं जो लंबे समय
से प्रचलित हैं और पूरी तरह स्वीकृत हैं, उनको लेकर आपत्ति और विरोध करना सरासर मूर्खता ही
है.
कुछ
क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों का तर्क है कि जैसे संस्कृत अपने भाषायी आभिजात्य के
भार और ‘जन-अस्वीकार’ से मर गई, वैसे ही
हिन्दी भी मर जाएगी. अव्वल तो वे जान लें कि संस्कृत का ह्रास (मृत्यु कदापि नहीं)
अरबी, फारसी, उर्दू, अवधी आदि
जैसी भाषाओं के क्रमशः उदय और प्रसार के कारण हुआ है. न कि उसकी क्लिष्टता के कारण.
और भारत में मुग़लों के आने तक संस्कृत कमोबेश प्रचलित थी. जर्मन विद्वान मैक्समुलर
ने ऐसे ही नहीं कह दिया था कि इस देश में तो किसान भी संस्कृत में संवाद करते हैं.
इसलिए सबसे पहले तो संस्कृत को ‘काल-कवलित भाषा’ की तरह पेश
करना बंद करें. संस्कृत हाल-हाल तक की जीवित भाषा है और उसकी नमी और जड़ें तमाम
भारतीय भाषाओं में जीवित हैं. ठीक वैसे ही जैसे इलाहाबाद के संगम में सरस्वती.
जहाँ तक ‘समालोचन’ में हिन्दी
दिवस के अवसर पर मेरे लेख ‘रोमन लिपि में हिन्दी का कुतर्क’ के बाद
प्रकाशित संजय जोठे के लेख ‘हिन्दी दुर्दशा का सनातन प्रश्न’ का सवाल है तो
यह लेख भी हिन्दी को कमज़ोर बताने और कमज़ोर साबित करने की सतत कोशिश करने वाली
रूढ़िवादी मानसिकता का ही दुष्परिणाम है. और यही नकारात्मक मानसिकता ही हिन्दी का
सबसे अधिक अहित कर रही है. संजय जोठे का आलेख इतिहास के पुराने मानदंडों से
हिन्दी का वर्तमान तौलने की तयशुदा कोशिश है. यह प्रयास ठीक वैसा ही है जैसे इस
देश के अनेक बुद्धिजीवीगण फ्रेंच अर्थशास्त्री और विचारक थॅामस पिकेटी की
किताब 'कैपिटल इन दी ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी’ (2013 में
प्रकाशित) को आधार बनाकर मार्क्सवादी सिद्धांतों का वर्तमान संदर्भों में
पुनर्विश्लेषण और पुनर्व्याख्या करने की भरसक कोशिश करते फिरते हैं, जबकि पिकेटी
ने अपनी किताब में सन् 2000 तक के ही
आंकड़ों, संदर्भों और परिस्थितियों को आधार बनाकर अपना
पक्ष रखा है. लेकिन सन् 2000 से सन् 2016 तक के सोलह
साल के लम्बे अंतराल में समय, समाज, बाज़ार और
अर्थव्यवस्था की डायनामिक्स, संदर्भ और इनसे सम्बन्धित सभी आँकड़े तेजी से और
लगभग आमूलचूल बदल गए हैं.
संजय जोठे
जैसे लोगों को यह समझने की सख्त जरूरत है कि भाषा कोई रूढ चीज़ नहीं है. यह
निरन्तर समय, समाज, सत्ता और बाज़ार के साथ बदलते रहती है. कोई भाषा
इस क्रम में मजबूत होती जाती है तो कोई भाषा कमज़ोर. हिन्दी इस क्रम में कमज़ोर
नहीं, बल्कि मजबूत ही हुई है. इसके लिए खुली आँखों और
पूर्वग्रहों से मुक्त होकर तथ्यों और प्रमाणों का विश्लेषण करने की आवश्यकता है.
संजय जोठे जैसे लोगों को यह बात भी तत्काल समझने की जरूरत है कि हर बात को
राष्ट्रवाद और सांस्कृतिकवाद से जोड़ देने से कोई तर्क सही नहीं हो जाता. यदि उनके तर्क
को थोड़ी देर के लिए मान भी लें तो वे बताएं कि इस संसार की कौन-सी भाषा या बोली
अपनी जातीय अस्मिता या राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ी हुई नहीं है? क्या वे यह
पक्का मानते हैं कि किसी भी भाषा या बोली का उसकी जातीय या फिर राष्ट्रीय अस्मिता
से कुछ लेना-देना नहीं होता है? क्या वे बताएंगे कि अंग्रेजी भाषा इंग्लैंड और
ब्रिटिश लोगों की जातीय और राष्ट्रीय अस्मिता से नहीं जुड़ी हुई है? क्या वो
बताएंगे कि भारत में हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाएँ अपनी जातीय या राष्ट्रीय
अस्मिता से च्युत हैं और मुक्त हैं? क्या इस देश
में हिन्दी, बंगला, मराठी, उर्दू आदि
भाषाएँ अपनी जातीय अस्मिता से ऐतिहासिक रूप से जुड़ी हुई नहीं हैं? क्या वे यह
मानते हैं कि भारत में अंग्रेजी जातीय या राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ी हुई है?
संजय जोठे जिस
अंग्रेजी को जिस बाजार की पसंदीदा भाषा बता रहे हैं, वह भी एक जमाने
में दरिद्र, कमजोर, निम्न भाषा थी. फ्रेंच, ग्रीक, लैटिन, जर्मन आदि
प्राचीनतर भाषाओं की तुलना में तो बहुत ही दरिद्र और कमज़ोर. लेकिन ब्रिटिश
साम्राज्य के विस्तार के साथ-साथ अंग्रेजी मजबूत और क्रमशः समृद्ध होती गई, सत्ता और
कारोबार और बाज़ार की भाषा बनती गई. इस मामले में तो हिन्दी यानि खड़ीबोली हिन्दी
की उम्र तो अभी महज सौ साल भी नहीं हुई है. फिर हिन्दी पर इतने फतवे जारी करने की
इतनी जल्दबाज़ी क्यों भाई? यदि बाज़ार के कारण ही अंग्रेजी मजबूत होती गई तो
उन्हीं कारणों और कारकों के बूते हिन्दी भी मजबूत हो रही है. जिस बाज़ार ने जिन
कारणों से जैसे अंग्रेजी को ‘प्रोमोट’ किया, वही बाज़ार
उन्हीं कारणों से हिन्दी को भी ‘प्रोमोट’ कर रहा है और
करेगा. प्रसंगवश यह भी बता दें कि जिस अंग्रेजी की आज हर तरफ इतनी
जय-जयकार की जा रही है, वह भी आरंभ में दरिद्र ही थी और उसमें भी
ज्ञान-विज्ञान-अनुसंधान और परम अध्यात्म की किताबें नहीं ‘रची’ जा रही थी.
इतना ही नहीं, अंग्रेजी तब तो अपने शब्द-भंडार में भी इतनी
दरिद्र और दयनीय थी कि उसे अपना शब्द भंडार बढ़ाने के लिए French
borrowings, Greek borrowings, Dutch borrowings, Latin Borrowings आदि करनी पड़ी. यही कारण है
कि अंग्रेजी अपनी ऐसी ‘उधारियों’ से लदी-फदी
है और हर कदम पर अब भी दुरूह है. यह बाजार का दबाब ही है कि अंग्रेजी अपनी इन ‘उधारियों’ से मुक्त
होने को फड़फड़ा रही है और हिन्दी की तरह जन-जन के लिए ‘सहज-सरल-क्रिस्पी-क्रंची-मंची’ होना चाह रही
है. लेकिन हिन्दी को बात-बात पर संस्कृतनिष्ठ बताने वाले लोगों को इस अंग्रेजी की
यह ‘संस्कृतनिष्ठता’ नजर नहीं आती.
जहाँ तक
हिन्दी को लेकर अरविन्दो घोष के इन असंगत उद्धरणों का प्रश्न है तो संजय जोठे
हिन्दी के हक और पक्ष में दिये गए उन प्रचुर दृढ़ विचारों और
स्थापनाओं-प्रस्थापनाओं को क्यों नहीं देखना चाहते जो गांधी, सुभाष, बंकिम, शरत, रवीन्द्र से
लेकर सुदूर दक्षिण तक के विद्वानों, नेताओं और
महापुरुषों ने दिये हैं? और, भाषा और खासकर संस्कृत और हिन्दी को जाति और वर्ण
के खांचों में बाँट देना तो सरासर मूर्खतापूर्ण उपक्रम है. ‘बोलियाँ’ जन-साधारण की
‘थाती’ होती हैं तो ‘भाषाएँ’ उनका
परिमार्जित रूप, यह भी संजय जोठे को बताने की जरूरत है???
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राहुल राजेश
सहायक प्रबंधक (राजभाषा)
भारतीय रिज़र्व
बैंक,
15, नेताजी
सुभाष रोड, कोलकाता-700001
(प. बंगाल). मो.:
09429608159 # ई-मेल:
rahulrajesh2006@gmail.com
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (17-09-2016) को "अब ख़ुशी से खिलखिलाना आ गया है" (चर्चा अंक-2468) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सारा आलेख जोठे-खंडन के बदले मूल प्रश्न 'हिंदी कल आज और कल' पर केंद्रित होना चाहिए था|और हिंदी को आज भी राजभाषा के रूप में देखने वाले दृष्टिदोष से पीड़ित हैं| हिंदी सदा राष्ट्रभाषा ही रही है,संख्यात्मक स्वीकृति जितनी भी रही हो - और गांधी का ध्यान इसी पर था|और लैटिन, संस्कृत विश्व-सारित्य की संपदा हैं, वे अमर भाषाएं हैं,जिसमें विश्व साहित्य का सर्वोच्च संचित है|
जवाब देंहटाएंभाषा का अस्तित्व साहित्य और लोकोपयोग - दोनों स्तर पर होता है| दोनों धाराएं समानांतर प्रवाहित होती हैं और परस्पर प्रभावी होती हैं|टिप्पणी में तर्कों का विस्तार संभव नहीं|
राहुल राजेश को बधाई इस प्रखर और बेबाक लेख के लिए । सँजय जोठे के लेख पर मैँ ने जो आपत्तियाँ की थी उन का समर्थध मुझे राहुल जी के इस लेख मेँ मिला । मुझे लगता है हिन्दी के प्रति एक अघोषित पक्षपात अँगरेजीदाँ लोगोँ के मनोँ मेँ घर कर गया है । राजभाषा घोषित होने से पहले हिन्दी जनता मेँ राष्ट्रभाषा तक थी और अब वह वास्तविक राजभाषा न हो कर भी बुद्धिजीवियोँ के विद्वेष की शिकार है । अब कुछ लोगोँ ने हिन्दी के विरोध मेँ उस की बोलियोँ को आगे कर दिया है ।
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक लिखा है राजेश जी ने। .
जवाब देंहटाएंसार्थक सामयिक प्रस्तुति हेतु धन्यवाद!
पढ़ा। भाई, हिंदी को राजभाषा बनाकर उसपर उपकार नहीं कर रहे हैं। यह ओहदा वापस ले लें तो क्या हिंदी मर जाएगी? हिंदी विश्व की वह भाषा है जिसे करोड़ों पराधीन लोगों ने अपनी मुक्ति के लिए गढ़ा। एेसा गौरव दुनिया की किसी भाषा को प्राप्त नहीं है। इस कारण से ही हिंदी राष्ट्रभाषा है और बनी रहेगी।
जवाब देंहटाएंएक बात पर गौर करिए, प्राय: संस्कृत ग्रंथि वाले हिंदी जन अंगरेजी से भी घबराए मालूम पड़ते हैं। संस्कृत जननी भाषा होने के अलावे अतीत के ज्ञान की भाषा है और अंगरेजी आधुनिक ज्ञान विज्ञान की। दोनों से मुँह नहीं चुरा सकते । आधुनिक हिंदी में ये दोनों भाषाएँ शामिल हैं , बोलियाँ तो आधार ही हैं। हिंदी को खामख्वाह प्रतियोगिता में उतार देते हैं। इसकी संरचना पर भी आघात किया जाता है। चुनौती यह है कि नयी पीढ़ी हिंदी साहित्य से दूर जाती प्रतीत होती है, अंगरेजी की रचनाएँ उसके लिए ज्यादा सुभीते की चीज है। बाजार की भाषा बनना ही पर्याप्त नहीं है, साहित्य और चिंतन-विचार की भाषा के रूप में भी हिंदी को आगे बढ़ते रहना है।
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