Photo : Clare Park, Self portrait, Holding my Past
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हिंदी की
प्रतिष्ठा प्राप्त कथा-पत्रिका हंस के अप्रैल २०१६ में प्रकाशित पंकज सुबीर
की कहानी
"चौपड़े की चुड़ैलें" को
२०१६ का
"राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान" (योगिता यादव के साथ संयुक्त
रूप से) दिया गया है.
कथा आलोचक राकेश
बिहारी ने अपने चर्चित स्तम्भ भूमंडलोत्तर कहानी – विवेचना श्रृंखला के लिए इस
कहानी का चयन किया है.
२१ वीं शताब्दी
की हिंदी कहानी की संरचना और वैचारिकी की यात्रा को देखते हुए यह कहानी कहाँ ठहरती
है ?
जेंडर के सवाल को यह किस तरह से देखती है और
अंतत: यह कहती क्या है ? जैसे तमाम प्रश्नों से राकेश बिहारी जूझते हैं.
आप पहले कहानी पढ़िए फिर राकेश बिहारी को.
हमेशा की तरह
आपकी टिप्पणियों की प्रतीक्षा है.
कहानी
चौपड़े की चुड़ैलें
पंकज सुबीर
हवेली वैसी ही थी जैसी हवेलियाँ होती हैं और
घर वैसे ही थे, जैसे कि
क़स्बे के घर होते हैं. कुछ कच्चे, कुछ पक्के. इस क़स्बे से ही हमारी कहानी शुरू होती है. कहानी शुरू तो होती
है लेकिन, उसका अंत
नहीं होता है. उसका अंत होना भी नहीं है. क्योंकि यह वो कहानी नहीं है जिसका अंत
हो जाए. शहर से कुछ दूर यह क़स्बा बसा था. हवेली जर्जर हो चुकी थी. मगर उसे देख कर
लगता था कि कभी इसकी शानौ-शौक़त देखने लायक रही होगी. दीवरों के रंग अब उड़ चुके थे. बड़े-बड़े दरवाज़े जिनसे
कभी शायद हाथी भी अंदर चले जाते होंगे, वे भी बूढ़े हो चुके थे. उन दरवाज़ों पर काली चीकटें जमा थीं. जब अच्छा समय
रहा होगा तब इन दरवाज़ों को तेल पिलाया जाता होगा, रंग रौगन किया जाता होगा. अब समय वैसा नहीं
है तो समय ख़ुद ही इन पर चीकट चढ़ा कर रंग रौगन कर रहा है. बड़ी हवेली सूनी थी.
सूनी का मतलब वीरान जैसी नहीं थी. बस यह था कि हवेली में कोई चहल-पहल नहीं थी. कुछ
हिस्सा गिर चुका था. जो नहीं गिरा था वह भी कब गिर जाए, कुछ नहीं कह सकते थे. उस बचे हुए हिस्से में
तीन छायाएँ डोलती रहती थीं. तीन औरतें. उस खंडहर में वह तीन औरतें ही रहती थीं बस.
अकेली. तीनों उम्र के तीन अलग-अलग पायदानों पर खड़ीं थीं. सबसे बड़ी वाली पैंतालीस से पचास के बीच की थी.
उसके बाद वाली अभी न जवान थी और न बूढ़ी ही थी. यह कह सकते हैं कि लगभग जवान ही थी
और तीसरी वाली जवान थी.
हवेली के पीछे कुछ फासले पर एक बाग़ था. बाग़ में फूल-वूल जैसा कुछ नहीं
था. असल में यह एक आम के पेड़ों का झुरमुट था. घना झुरमुट. जिसके बीच में एक
बावड़ी बनी हुई थी. बावड़ी नहीं थी, बल्कि चौपड़ा था. चौपड़ा मतलब एक ऐसी चौरस बावड़ी जिसमें चारों तरफ से नीचे
उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हों. नीचे की तरफ जाकर जहाँ पानी भरा होता है, उससे कुछ ऊपर चारों
तरफ छोटी छोटी कोठरियाँ बनी हों. चौकोर आकार के चौपड़े में चारों दीवारों पर दोनों
कोने से उतरी सीढ़ियाँ अंग्रेजी के वी अक्षर का आकार बना कर एक जगही मिल जातीं.
उसके बाद उल्टा वी का आकार बना कर नीचे पानी की तरफ चली जातीं. ऊपर से उतरी
सीढ़ियाँ जहाँ पर आकर मिलतीं और फिर से दो हिस्सों में बँटती उसके ठीक नीचे ही यह
कोठरियाँ होतीं. उल्टे वी के नीचे. यह कोठरियाँ छिपी रहती थीं सीढ़ियों के पीछे.
चारों तरफ की सीढ़ियाँ जहाँ जाकर ख़त्म होती थीं वहाँ नीचे एक चारों सीढ़ियों को
मिलाता हुआ एक पत्थर का प्लेटफार्म था. प्लेटफार्म के नीचे पानी और बीच से कोठरी
में जाने को सीढ़ियाँ. इस प्रकार के चौपड़े हवेलियों और महलों की महिलाओं के लिए
बनवाए जाते थे पहले. बड़े घरों की महिलाएँ इनमें ही जाकर स्नान करती थीं. नीचे बनी
कोठरियों में कपड़े बदलतीं थीं और सीढ़ियाँ चढ़कर घर को लौट आती थीं. चौपड़ों में
पत्थरों की खूब नक्काशी की जाती थी. कोठरियों के अंदर भी नक्काशीदार आले बने रहते
थे. चबूतरे बने होते थे. महिलाएँ चाहें तो कुछ देर विश्राम भी कर लें वहीं पर. जब
हवेलियाँ गुलज़ार रहती थीं तो कोठरियों में सोने-बैठने की सारी व्यवस्था रहती थीं. हवेली
उजड़ीं तो कोठरियों में बस पत्थर के चबूतरे रह गए. ऊपर से देखने पर यह चौपड़े बहुत
खूबसूरत दिखते थे. चारों दीवारों पर सीढ़ियों का डमरू आकार और उस पर बनी कलाकृतियाँ.
चौपड़े में भी खूब कलाकारी की गई थी. जगह-जगह पत्थरों पर फूलों की बेलें बनीं थीं.
नक्काशीदार खंभे सीढ़ियों के पास खड़े थे. बहुत मेहनत के साथ और बहुत प्रेम से
बनवाया गया था इस चौपड़े को. जब बनवाया गया था, तब किसे पता था कि एक दिन इसे इस प्रकार
वीरान होना पड़ेगा.
तो आम के बाग में यह चौपड़ा था. उस आम के बाग को नागझिरी कहा जाता था.
क्यों कहा जाता था, उसका भी किस्सा है. असल में बाग के चारों तरफ पहले एक फसील हुआ करती थी. उस
पत्थर की फसील में जो दरारें थीं, उनमें छोटे मोटे साँप रहा करते थे. चूँकि नाग दरारों में या झिरियों में
रहते थे, इसलिए बाग़
का नाम पड़ गया नागझिरी. जब तक हवेली के अच्छे दिन रहे तब तक दरारें भी रहीं और
साँप भी. अब न तो फसील बची और न ही साँप बचे हैं. मगर नाम अभी भी है उसका नागझिरी.
यह जो नागझिरी बाग है, यह हवेली की संपत्ति है. या यूँ कहें कि हवेली वालों के पास बची हुई आख़िरी
संपत्ति. इसी बाग़ के सहारे हवेली अपने आज को बिता रही है. हवेली के पीछे से एक
पगडंडी जैसा रास्ता नागझिरी तक गया हुआ था. रास्ते के दोनों तरफ जंगली झाड़ियाँ
लगीं थीं. पीले और नारंगी फूलों वाली जंगली झाड़ियाँ, जिनके पत्तों को हाथ में लेकर मसलो, तो तीखी गंध आती थी.
यह पगडंडी केवल हवेली के उपयोग के लिए ही
थी. यह पगडंडी, जब चौपड़ा
बना तो महिलाओं के उपयोग के लिए, उनके आने जाने के लिए बनाई गई थी. इसीलिए इसके दोनों तरफ घनी झाड़ियाँ लगाईं
गईं थीं. इतनी घनी, कि हवा भी अंदर आने के लिए रास्ता ढूँढ़े. अच्छे समय में महिलाएँ इसी
पगडंडी से होकर स्नान के लिए चौपड़े पर जाती थीं. महिलाओं की हिफ़ाज़त के लिए जंगली
झाड़ियों को पगडंडी के दोनो तरफ लगाया गया था. हवेली की महिलाएँ नहाने के लिए जा
रही हैं और उनको कोई देख ले, यह हवेलियों को और महलों को कभी मंज़ूर नहीं रहा. बल्कि उनका तो यह भी
सोचना था कि हमारी महिलाएँ तो किसी भी सूरत में किसी को दिखाई नहीं दें. पता नहीं
कब पगडंडी बनी और कब झाड़ियाँ लगीं लेकिन झाड़ियाँ आज बेहद घनी थीं.
यह तो बात हुई हवेली की. अब बात करें क़स्बे की. तो क़स्बा वैसा ही क़स्बा था
जैसा होता है. कुछ बूढ़े थे जो दिन भर चौपाल पर बैठे बीड़ी फूँकते रहते थे और मरने
का इंतज़ार करते हुए एक दिन बिता देते थे. यह बूढ़े चौपाल का स्थायी हिस्सा थे.
इनके अलावा जो जवान थे या जवान से कुछ आगे की स्थिति में थे, वह खेती किसानी का
काम करते थे. और जब खेत पर करने को कुछ नहीं होता था तो यह भी क़स्बे के मंदिर के
पीछे के मैदान में बैठ कर गाँजा-चिलम सूँटते थे. इसके अलावा क़स्बे में एक और नस्ल भी थी. वह नस्ल जो अभी
जवान नहीं हुई थी. जो जवान होने की तैयारी में थी. मगर जवान होने से पहले ही जवानी
के सपने जिनकी आँखों में रात भर ठेला-ठेली करने लगे थे. यह लड़के क़स्बे के पास ही एक दूसरे क़स्बे के सरकारी हायर
सेकेंडरी स्कूल में पढ़ने जाते थे. साइकिलों से. और पढ़ कर आने के बाद दिन भर फिर
आवारा फिरते थे. माँ-बाप खुद तो पढ़े लिखे नहीं थे जो इनको पढ़ाई-लिखाई के लिए टोकते. उस पर यह कि सरकारी
स्कूल में नकल का भव्य आयोजन होता था परीक्षाओं के दौरान. इस नकल के आयोजन में
शामिल होने के लिए मास्टरों को फीस देनी पड़ती थी. माँ-बाप यह परीक्षा फीस देकर अपने बच्चों को पास
करवा लेते थे. शहर से दूर होने के कारण कभी कोई फ्लाइंग स्कवाड या शिक्षा विभाग का
छापामार दल यहाँ तक नहीं पहुँचता था. बच्चे उस स्कूल में जाते थे और साल भर बाद
पास होकर अगली कक्षा में आ जाते थे. ख़ैर तो बात यह कि यह लड़के अब जवान हो रहे थे.
जवान होती उमर अपने साथ बहुत सारे सवाल लाती है, जो इन लड़कों के पास भी थे. स्कूल से आने के
बाद इन लड़कों के पास कोई काम होता नहीं था. घर आकर खाना खाया और उसके बाद निकल
पड़े. यह उम्र में लोबान महकने का समय था. लड़के कस्तूरी की तरह अपनी नाभी
में महकते लोबान की तलाश में भटकते फिरते थे.
अब बात उस कहानी की जो पूरे क़स्बे में मशहूर थी. असल में नागझिरी के उस
चौपड़े को लेकर बहुत सारी बातें फैली हुईं थीं. असल में कहानियाँ तब बननी शुरू
हुईं थीं, जब हवेली की
दो लड़कियों की चौपड़े में डूबने से मौत हो गई थी. बात पुरानी है. हवेली के अच्छे
दिनों की. यह जो लड़कियाँ थीं, यह हवेली के मालिकों में से नहीं थीं. यह हवेली में काम करने वाली थीं. एक
दिन अचानक शाम को दोनो की लाश चौपड़े में तैरती हुईं पाईं गईं थीं. कम उम्र की
दोनो लड़कियाँ कुछ दिनो पहले ही हवेली में काम करने आईं थीं. तब हवेली में रौनक़ें
हुआ करती थीं. हवेली तब सचमुच की हवेली थी, आज की तरह खंडहर नहीं हुई थी. दोनो की मौत
पर हवेली ने प्रचारित किया कि चौपड़े का पानी पवित्र पानी है, जिसमें केवल हवेली
वालों को ही स्नान करना चाहिए. चौपड़े के पानी की रक्षा नागझिरी में रहने वाले
साँप करते हैं. यह साँप केवल हवेली वालों को ही पानी में नहाने देते हैं. इसके
अलावा कोई और अगर पानी में नहाने की कोशिश करे, तो साँप उसे डस कर मार डालते हैं. इन लड़कियों ने नियम तोड़ कर चुपचाप चौपड़े में
नहाने की कोशिश की इसलिए दोनो मारी गईं. चौपड़ा केवल हवेली वालों के लिए ही है.
क़स्बे वालों ने भी विश्वास कर लिया. हवेली के अच्छे दिन थे इसलिए सबने मान लिया कि
यह जो लड़कियों की गरदन पर गला घोंटने के निशान हैं, यह भी असल में साँप द्वारा कुंडली में कसने
के निशान हैं. नाग देवता ने लड़कियों को डसने के स्थान पर गले में अपनी कुंडली का
फंदा कस कर दोनो लड़कियों को मारा है. इस घटना के बाद यह भी प्रचारित हो गया था कि
चौपड़ा अभिशप्त है, उसमें केवल हवेली वाले ही नहा सकते हैं. उस समय तो नागझिरी के चारों तरफ
फसील थी इसलिए बाहर का तो कोई अंदर जा ही नहीं सकता था, लेकिन अब जब फसील टूट चुकी है, तब भी कोई नहीं
जाता उस तरफ. रात को तो बिल्कुल ही नहीं. वैसे भी उस बाग़ में और उस चौपड़े में है
ही क्या ऐसा जो कोई वहाँ पर जाए.
रात को नहीं जाने का कारण एक और कहानी है. कहानी जो बाद में बनी जब हवेली
के बुरे दिन आ गए. कहानी यह बनी कि वह दोनो लड़कियाँ जो बरसों पहले चौपड़े के पानी
में डूब कर मरी थीं, वह दोनो चुड़ैलें बन कर अचानक ही वापस आ गईं. हैरानी की बात यह थी कि उनके
मरने और चुड़ैलें बनने में काफी बरसों का अंतर था. ख़ैर तो जब वह चुड़ैलें बन कर आ
गईं तो लोगों को उनका पता भी चलने लगा. पता चलने लगा अफवाहों में. किसी को हँसने
की आवाज़ आती, तो किसी को
चूड़ियाँ खनकने और पायल बजने की आवाज़ आती. किसी-किसी को चुड़ैलें दिखाई भी दे जाती थीं. यह
सब रात को ही होता था. कई सारे क़िस्से हवाओं में थे. किसीको अचानक रात को चौपड़े
के पास दो लड़कियाँ फुंदी-फटाका खेलते दिख जातीं थीं. किसीको चौपड़े के पास खड़े आम के पेड़ की शाख
पर चुड़ैल बैठी दिखती, जो आदमी को देखते ही, शाख से सीधे चौपड़े के पानी में छलाँग लगा देती. छपाक की आवाज़ को वह आदमी
इतनी दहशत के साथ अपने क़िस्से में शामिल करता कि सुनने वाले की रूह फना हो जाती.
असल में चौपड़े और नागझिरी के कुछ दूर से एक रास्ता गया था खेतों की ओर. उस रास्ते
से आने जाने वाले ही क़िस्से बनाते थे. क़िस्से जवान और अधेड़ बनाते, बूढ़ों को और
बच्चों को कभी चुड़ैलें नहीं दिखी थीं. बूढ़े और बच्चे तो दिन भर उन क़िस्सों पर
चर्चा करते थे. दिन में नागझिरी और चौपड़ा दोनों अपने सूनेपन और ख़ामोशी को समेटे
चुपचाप खड़े रहते थे. नागझिरी का वह आमो का बग़ीचा हर साल हम्मू ख़ाँ ठेकेदार
हवेली से किराए पर ले लिया करता था. किराए पर लेने के बाद बग़ीचे के फल उसके होते
थे. हम्मू ख़ाँ हवेली का ही पुराना मुलाज़िम था, बहुत बच्चा था जब हवेली में काम पर लगा था.
बीस-पच्चीस साल
तक हवेली में काम किया है उसने. जब हवेली की हैसियत मुलाज़िम रखने की नहीं रही, तो हम्मू ख़ाँ भी
बाकियों की तरह हवेली से चला आया. ज़िंदगी चलाने को बस यही काम करता है. आम, अमरूदों, इमलियों और दूसरे
फलदार पेड़ों को ठेके पर लेता है और फल बेचकर गुज़ारा करता है. यहाँ भी वह दिन भर
बाग़ की रखवाली करता था. ठेके में एक निश्चित राशि और कुछ आम उसे हवेली को देने
होते थे. तो आमो के सीज़न में तो हम्मू खाँ बाग़ में दिख जाता था लेकिन, उसके बाद फिर से
वीरानी छा जाती थी. तो बाक़ी के साल भर कोई उस तरफ जाता भी नहीं था. हवेली की
महिलाओं ने तो चौपड़े पर नहाने के लिए जाना बरसों पहले ही बंद कर दिया था. उन
लड़कियों के मरने की घटना के ठीक बाद. अब वह लोग हवेली में ही लगे हैंड पंप से
पानी लेकर वहीं नहा लेती थीं. यह हैंड पंप उन लड़कियों के मरने की घटना के बाद
पुरुषों ने लगवा दिया था. तो यह भूतिया नागझिरी बाग़ सन्नाटे में डूबा हवेली के
पिछवाड़े खड़ा था.
क़स्बे के जवान होते लड़कों के लिए चौपड़ा मुफीद जगह थी दिन काटने की. चौपाल
पर बूढ़ों का कब्ज़ा था और मंदिर के पीछे के मैदान पर जवानों का. तो लड़कों ने
अपना अड्डा बनाया नागझिरी और चौपड़े में . गरमी के दिनों में तो वहाँ हम्मू ख़ाँ भी
होता था. लम्बी और मेंहदी के रंग में रँगी दाढ़ी, सिर पर गोल जालीदार टोपी, टोपी से झाँकते
मेंहदी में रंगे बाल, बड़ी मोहरी का सफेद पायजामा और उस पर गोल गले का सफेद कुरता. कुरते की जेब
से लटकते तम्बाख़ू-सुपारी की थैली के बंद. आँखों में गहरा सुरमा. मुँह में हमेशा दबा हुआ पान.
उँगली के सिरे पर लगा हुआ चूना, जिसे बीच-बीच में चाटने की आदत. हाथ में हमेशा एक लाठी. उम्र यही कोई पैंतालीस से
पचास के बीच. हम्मू ख़ाँ और इन जवान हो रहे लड़कों के बीच अजीब सा रिश्ता था.
लुकाछिपी का. एक अकेला हम्मू ख़ाँ और जवान होते
कई सारे लड़के. हम्मू ख़ाँ इनको लौंडे-लपाटी कहा करता था. दिन भर डंडा लेकर घूमता
रहता था बाग़ में. दिन में यह लड़के हिम्मत करके चौपड़े में कूद कर नहा भी लेते थे, हम्मू ख़ाँ से
परमीशन लेकर. अब तो नहाने की कोई मनाही नहीं थी, असल में अब तो रखवाले ही चले गए थे. रखवाले
मतलब वह साँप जो पहले दरारों में रहते थे. चौपड़े के पानी की केवल हवेली वालों के
लिए रक्षा करने वाले जा चुके थे. अब तो कोई भी नहा सकता था उस पानी में. हालाँकि
चौपड़े में क़स्बे वाले अब भी नहीं नहाते थे, बल्कि वह तो चौपड़े की ओर जाते भी नहीं थे
मगर, लड़कों को
कौन रौकता. लड़के चकमा देकर आम भी उड़ा ले जाते थे. कभी-कभी ऐसा लगता था कि हम्मू ख़ाँ को भी पता था
कि लड़के आम उड़ा ले जाते हैं लेकिन, वह अनभिज्ञ बना रहता है. कई बार तो वह लाठी लेकर उस पेड़ के नीचे ही खड़ा
रहता, जिस पेड़ पर
कोई लड़का चढ़ा होता और कई बार यह भी होता कि वह कनखियों से देखता हुआ निकल जाता.
शायद चुड़ैलें भी इसी प्रकार से इन लड़कों को खेलता देख कर चुपचाप निकल जाती होंगी, और शायद नागझिरी के
साँप भी.
बात उस समय की है जब चुड़ैलों का प्रकोप चौपड़े पर बढ़ा हुआ था. बात उन
दिनों की भी है जब यह लड़के देह की तरफ से परिवर्तित हो रहे थे. जिज्ञासाओं के
पहाड़ अपनी छाती पर लाद कर घूमते थे. जिज्ञासाएँ जिनका कोई समाधान नहीं था. सवाल
थे लेकिन, उन सवालों
का कोई उत्तर नहीं था. जिनके पास उत्तर थे वह लोग इन लड़कों को उत्तर बताने के लिए
तैयार नहीं थे. लड़के अपनी देह में ऊगते प्रश्नों को सहलाते रहते थे. चौपड़े के
पानी में तलाश करते थे कि कहीं कोई गंध दिन में बची हो चुड़ैलों की. नहा कर चौपड़े
की कोठरियों में बने चबूतरों पर लेट जाते. चबूतरों में से कभी-कभी कोई गंध आती भी
थी, धीमी-धीमी. गंध अजीब सी
होती थी. लड़कों ने इससे पहले यह गंध नहीं सूँघी थी. जिस दिन भी गंध आती उस दिन
लड़के चबूतरे के पत्थर पर पेट के बल लेट कर, नाक को पत्थर पर टिका कर गहरी-गहरी साँसें भर
सूँघते रहते उस गंध को. अपने अंदर, गहरे, बहुत कहरे
उतारते रहते उस गंध को. पत्थर के बीचों-बीच से आती थी वह गंध. जब तक चौपड़े में रहते तब तक कपड़ों से कोई राब्ता
नहीं होता इनका. नहाने से पहले उतारे हुए कपड़े, तब ही पहनते जब वापस चौपड़े से निकलने का
समय हो जाता. और निकलने का कोई तय समय तो था नहीं. जब सूरज उतरने लगे, तब निकल लो. निकल
लो, क्योंकि अब
चुड़ैलों का समय हो रहा है. बचपन अभी कुछ दिनों पहले ही विदा हुआ था, इसलिए डर तो था मन
में. अँधेरा होने से पहले ही निकल कर भाग जाते थे चौपड़े से. जब तक चौपड़े में
रहते तब तक, इधर-उधर पड़ी हुई कुछ
काँच की बोतलों और कुछ अजीब से सामानों को उठाते और उनसे राब्ता पैदा करने की
कोशिश करते. लड़कों को कुछ पता नहीं था कि यह सब क्या हो रहा है? यह जो देह में
अँखुए से फूट रहे हैं यह अँखुए आखिर हैं क्या? तलाश जारी थी सत्य की. तो रात भर जहाँ
चुड़ैलों का साम्राज्य रहता था, वहीं दिन में इन भूतों का डेरा उस चौपड़े में जमा रहता था. नागझिरी का वह बाग़ पूरी तरह से अतृप्त आत्माओं
के चंगुल में आ चुका था, दिन में भी और रात में भी.
एक गरमी का मौसम बीत कर दूसरा आने तक, लड़कों और हम्मू ख़ाँ के बीच कुछ संवाद शुरू
हो गए थे. लड़के अब हम्मू ख़ाँ के आम चुराते नहीं थे, बल्कि उन आमों की रखवाली करने में भी हम्मू
ख़ाँ का साथ देते थे. लड़कों के जीवन से कच्ची कैरियाँ और आम खाने के मौसम अब जा
चुके थे. अब पेड़ों पर लगी कैरियाँ उनको ललचाती नहीं थीं. लेकिन और भी अब बहुत कुछ
ऐसा था जो उनको ललचाता था. लेकिन जो ललचाता था वह कैरियों की ही तरह पत्तों में
छिपा था. सामने ही नहीं आता था. लड़के पत्तों का हटा-हटा कर तलाशते थे कि क्या है, जो ललचा रहा है
लेकिन...... बचपन अब पूरी तरह से बीत चुका था. लड़के अब हिम्मत करके हम्मू ख़ाँ से पूछ
भी लेते थे कि चाचा आपने कभी देखी हैं यहाँ की, चौपड़े की चुड़ैलें ? कैसी हैं वह
चुड़ैलें ? आप तो रात-बिरात भी जब आँधी
चलती है, तो बाग़ में
आते हो टपकी हुई कैरियों को बीनने. हम्मू ख़ाँ, चुड़ैलों का नाम आते ही चुप हो जाते थे. कुछ
कहने की कोशिश करते, फिर कुछ सोचकर चुप हो जाते. उनकी सुरमे से भरी आँखें मिंचमिंचाने लगतीं.
हम्मू ख़ाँ उन लड़कों के साथ अब कुछ ऐसी बातें भी कर लेते थे, जिनको सुनकर लड़कों
के मन में रस उतरता था. हम्मू ख़ाँ के पास तो क़िस्सों का भंडार था. क़िस्से जो
नीली फिल्मों की तरह नीले-नीले थे. हम्मू ख़ाँ कभी-कभी लड़कों को यह नीले क़िस्से भी सुना देते थे. लड़कों के दिलो-दिमाग़ पर एक नशा सा
तारी होने लगता था इन क़िस्सों को सुनकर. एक और, एक और, और हम्मू ख़ाँ एक के बाद एक नीले क़िस्से
सुनाते जाते. लड़के एक-दूसरे की तरफ देख-देखकर मुस्कुराते रहते और सुनते रहते. हम्मू ख़ाँ को पता था कि यह उमर क्या
माँगती है. इस उमर में क्या सुनने की इच्छा होती है. हम्मू ख़ाँ पूरे क़िस्सागो थे, इतना रस लेकर, इतनी जीवंतता के
साथ क़िस्से सुनाते थे कि लड़कों को लगता था जैसे उनके सामने ही क़िस्सा चल रहा है.
एक दिन जब गरमी की चिलचिलाती दोपहर में लड़के हम्मू ख़ाँ को घेर कर बैठे थे, तो एक बार फिर से
चुड़ैलों का ज़िक्र निकल आया. लड़के ज़िद पर अड़ गए चुड़ैलों के बारे में जानने को
लेकर. हम्मू ख़ाँ बहुत देर तक सोचते रहे फिर बोले -देखोगे चुड़ैलों को ? है इतना दम ? लड़के एकदम सकपका
गए. यह तो उन्होंने सोचा ही नहीं था. हम्मू ख़ाँ ने फिर कहा -क्यों डर गए, सूख कर गले में आ
गई? मियाँ बात
करना आसान है और आमने-सामने देखना अलग बात है. जवान-जहान लौंडे हो, चुड़ैलों से डरते हो? अब आगे से कोई मत छेड़ना चुड़ैलों की बात. लड़कों को भी बात लग गई. उस समय
तो चले गए लेकिन, ठान ली कि अब तो चुड़ैलों को देखना ही है. आठ दस लड़के हैं, कुछ भी हुआ तो सब
एक साथ टूट पड़ेंगे. योजना बनी कि जब शाम थोड़ी उतर जाएगी और रात आने को होगी, तब चुपचाप जाकर एक
पेड़ पर चढ़ जाएँगे सारे और बिना आवाज़ के पेड़ों पर लटके रहेंगे. कोई भी आवाज़
नहीं करेगा. जब तक कोई भी एक इशारा नहीं करेगा तब तक पेड़ से उतरेगा भी नहीं कोई.
ज़रा भी ख़तरा होगा तो एक साथ कूद-कूद कर भाग लेंगे सारे के सारे. देखेंगे कि कोई चुड़ैल आती है तो ठीक नहीं
तो घंटे-दो घंटे के
बाद उतर कर आ जाएँगे.
लगभग पूरे चाँद की रात थी. लड़के आम के पेड़ों पर टँगे हुए थे. पत्तों में
दबे-छिपे. जब
रात होने को थी तो सबसे पहले रास्ते की तरफ से एक साया उभरा. लड़कों ने दम साध
लिया. चौपड़े तक आते-आते साया हम्मू ख़ाँ बन गया. लड़कों ने राहत की साँस ली. हम्मू ख़ाँ ने आकर
इधर-उधर देखा.
चौपड़े में झाँका और फिर चौपड़े की मुँडेर से टिकी हुइ खटिया को बिछा दिया. हम्मू
ख़ाँ अपनी खटिया पर लेटे हुए थे. नागझिरी के बाग़ में सन्नाटा फैला हुआ था. पत्ता भी
खड़के तो उसकी भी आवाज़ आ जाए. झींगुरों की चिकमिक सन्नाटे को तोड़ती हुई गूँज रही
थी. लड़के साँस थामे हुए थे, पता नहीं किस तरफ से चुड़ैलें आ जाएँ? रात और गहरी हुई. क़स्बे की रातें वैसे भी
जल्दी हो जाती हैं. और यह तो फुरसत का समय था. खेत में कोई काम था नहीं. एक फसल कट
के बिक चुकी थी और दूसरी को बोने में अभी समय था. हम्मू ख़ाँ के कारण लड़के और
सन्नाटे में थे, चुड़ैल होती
तो उतर कर भाग भी जाते. लेकिन हम्मू ख़ाँ के कारण एक राहत यह हो गई थी कि अब अगर
कुछ भी होता है तो कम से कम यहाँ पर हम्मू ख़ाँ तो हैं ही उनको बचाने के लिए.
अचानक हवेली की तरफ से आती हुई पगडंडी पर तीन साए उभरे. झाड़ियों के झुरमुट
के बीच से. हम्मू ख़ाँ ने धीरे से खाँसा. तीनों साए धीरे धीरे झाड़ियों के बीच से
होकर इस तरफ ही आ रहे थे. चौपड़े की तरफ. आहिस्ता-आहिस्ता. हम्मू ख़ाँ खटिया पर उठ कर बैठ गए.
लड़के दम साधे हुए थे. तीनो साए इसी तरफ बढ़ते आ रहे थे. आकर वह तीनो साए ठीक
हम्मू ख़ाँ के सामने खड़े हो गए. दो साए कुछ दूर चौपड़े की सीढ़ियों के पास खड़े हो
गए और तीसरा साया जो दोनो से कुछ भारी दिख रहा है, वह हम्मू ख़ाँ के पास तक आ गया. यही हैं
चुड़ैलें ? पहनावा तो
चुड़ैलों का ही है. हम्मू ख़ाँ की आवाज़ आई -सलाम बाई जी साहब, बैठिए. उत्तर में कोई आवाज़ नहीं आई, भारी साया खटिया पर
बैठ गया. अचानक नागझिरी के पास से जाते हुए रास्ते पर भी पाँच-छह साए प्रकट हुए.
वह भी इस ओर ही आ रहे थे. चाँद इतना तो खिला ही था कि सब कुछ दिखाई दे. यह साए
पहनावे के हिसाब से चुड़ैल नहीं थे, भूत थे. यह भी वहीं आकर खड़े हो गए. खटिया के पास. चुड़ैलों ने चेहरे ढँक
रखे थे, लेकिन भूतों
के चेहरे खुले हुए थे. तेज़ चाँदनी में पहचान भी आ रहे थे वह चेहरे. कुछ-कुछ. पहचान में
इसलिए आ रहे थे क्योंकि पहचाने हुए थे. जो लड़के पेड़ों पर लटके थे, उन्होंने देखा कि
कुछ पिता हैं, कुछ चाचा
हैं, कुछ बड़े
भाई हैं और हाँ मामा भी. कुछ भूतों के हाथों में कुछ बोतलें भी थीं.
भूत हम्मू ख़ाँ के पास खड़े थे, हर भूत कुछ पैसे अपनी जेब से निकाल कर हम्मू ख़ाँ को दे रहा था. लड़के अपने
लोगों को हम्मू ख़ाँ को पैसे देते देख कर हैरत में थे. हम्मू ख़ाँ ने पैसे हाथ में
लेकर उनको गिना और मुंडी हिला कर इशारा कर दिया. भूत चौपड़े की सीढ़ियों की ओर बढ़
गए. सीढ़ियों पर खड़ी चुड़ैलों ने भूतों को आते देखा तो वह भी सीढ़ियों की ओर बढ़
गईं. धीरे-धीरे उतरते
हुए भूत और चुड़ैलें चौपड़े के अंदर गुम हो गए. हम्मू ख़ाँ ने हाथ में रखे पैसे
खटिया पर बैठी तीसरी चुड़ैल की ओर बढ़ा दिए. चुड़ैल ने पैसे लेकर उनको अपने हाथ
में पकड़े हुए एक थैले समान बटुए में रख लिया और फिर उस बटुए को खटिया के सिरहाने
रख दिया. हम्मू ख़ाँ उसी प्रकार से कुछ झुक कर खड़े हुए थे. कुछ देर तक दोनो उसी
अवस्था में रहे. फिर खटिया पर बैठे साए ने अचानक हम्मू ख़ाँ को खटिया पर अपने पास
खींच लिया. लड़कों की साँसें तेज़ हो गईं. यह सब तो क़िस्सों में ही सुना था.
लेकिन चुड़ैल के साथ? चाँद आसमान पर खिला हुआ था. नीचे खटिया पर का मौसम धीरे-धीरे बदल रहा था.
चुड़ैल की चादर खटिया के नीचे गिर गई थी और हम्मू ख़ाँ का कुरता पायजामा भी उस चादर
के पास ही कहीं पड़ा हुआ था. खटिया के नीचे कपड़ों का एक ढेर सा बन गया था. और ऊपर
? ऊपर अब कोई
कपड़े नहीं थे, सब नीचे
फेंके जा चुके थे. दो शरीर थे जो केवल चाँदनी पहने हुए थे. या शायद यूँ कि चुड़ैन
ने हम्मू ख़ाँ को पहना हुआ था और हम्मू ख़ाँ ने चाँदनी को. दिन भर आम के बाग़ में
उदास सी पड़ी रहने वाली हम्मू ख़ाँ की खटिया अब जीवंत हो उठी थी. अब हम्मू ख़ाँ भी
नहीं थे, और चुड़ैल
भी नहीं थी. अब वह स्त्री और पुरुष थे. लड़के देख रहे थे कि किस प्रकार चौपड़े की
एक चुड़ैल हम्मू ख़ाँ को पुरुष बना रही थी. और कल्पना कर रहे थे कि बाक़ी की दो
चुड़ैलें भी जो उनके चाचा, पिता, मामा, भाई को लेकर चौपड़े
के अंदर गईं हैं, वहाँ भी वह चुड़ैलें उनको पुरुष बना रही होंगी. लड़के दम साधे आम के पेड़
पर टँगे थे, हम्मू ख़ाँ
की हिलती-डुलती पीठ
पर चाँदनी ठहरने की कोशिश कर रही थी और चौपड़े के अंदर चुड़ैलों के खिलखिलाने, झनझनाने और खनखनाने
की आवाज़ें धीरे-धीरे तेज़ होती जा रही थीं.
लड़के धीरे से उतर कर चौपड़े के अँधेरे तरफ वाली मुँडेर के पास खड़े हो गए
और चौपड़े के अंदर चल रहा कार्यक्रम देखने लगे. हम्मू ख़ाँ ने लड़कों को देखा, देखता ही रहा, मौन, चुपचाप. बड़ी
चुड़ैल ने भी देखा. मगर, चौपड़े के अंदर जो लड़कों के चाचा, भाई, पिता, मामा टाइप के लोग
थे, उन्होंने
नहीं देखा. देख भी कैसे सकते थे, अँधेरे में जो थे. लड़के चौपड़े के अंदर का दृश्य देख रहे, जहाँ उनके कई
रिश्ते, चट्टानों पर
वस्त्रहीन बिछे हुए थे. कुछ देर तक देखते रहने के बाद लड़के धीरे से रास्ते की ओर
गए और गहरे अँधेरे में समा गए.
(दो)
उस रात के बाद से सब कुछ बदल गया. सब कुछ बदल गया मतलब यह कि चौपड़े का
सारा माहौल ही बदल गया. चौपड़ा अब सचमुच ही भूतिया हो गया. भूतिया हो गया से
तात्पर्य यह कि अब वहाँ रात को चुड़ैलों की महफिल सजनी बंद हो गई. अब रात बिरात
किसी को वहाँ पर चूड़ियों के खनकने और पायलों के छनकने की आवाज़ें नहीं सुनाई देती
थीं. तो क्या उस दिन के बाद इन लड़कों ने कुछ हंगामा मचाया या कुछ ऐसा किया कि
जिससे बवाल मचा. नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. असल में तो यह हुआ कि लड़का पार्टी ने धीरे से सत्ता
को अपने हाथों में ले लिया. अपने ही परिवार के बड़े पुरुषों द्वारा रात के अँधेरे
में जो चौपाल, चौपड़े में
लगाई जाती थी, उस चौपाल की
सत्ता को लड़कों ने अपने हाथ में ले लिया. और चौपाल का स्थान भी बदल दिया था.
चौपड़े की चुड़ैलों को उन्होंने हवेली पर ही वह सब कुछ देना शुरू कर दिया, जिससे उन चुड़ैलों
का चौपड़े तक आना बंद हो गया. चुड़ैलों का एकमात्र मीडियेटर हम्मू ख़ाँ तो उनका
पहले से ही सेट था. तो कुल मिलाकर हुआ यह कि पहले यह लड़का पार्टी जो दिन भर
चौपड़े में धमाल मचाती रहती थी, अब वह हवेली में पड़ी रहती थी. आते पहले ही की तरह चौपड़े पर ही थे, लेकिन उसके बाद बीच
के रास्ते से धीरे से हवेली के अंदर बिला जाते थे. ऐसे जैसे भादौ की अँधियारी रात
में, बरसते पानी
में धीरे से कोई करिया नाग आँख बचा कर घर में बिला जाता है. उसके बाद यह लड़का
पार्टी वहीं रहती थी, हवेली के अंदर ही.
बात का स्वभाव है कि वह फैलती ही है. लड़का पार्टी की हवेलीबाज़ी भी
सुगबुगाहट की तरह क़स्बे में फैली. फैली, तो परिवार वालों को आपत्ति हुई, स्वभाविक सी बात है. रोका-रोकी और टोका-टोकी शुरू हुई. मगर अब बात रोका-रोकी और टोका-टोकी की कहाँ थी. लड़का पार्टी ने अपनी आँखों से अपने परिवार के पुरुषों को, सम्मानित पुरुषों
को चौपड़े की चुड़ैलों के साथ चौपड़े के अंदर उतरते देखा था. उनके पास तो तुरुप का
इक्का था. चाचा, मामा, पिता, भाई जैसी उपाधियों
के रिश्तों को इन लड़कों ने अपनी आँखों से चौपड़े के अंदर कपड़े उतारते देखा था.
उन कपड़ों के साथ ही रिश्ते और उन भारी-भरकत रिश्तों से जुड़े ख़ौफ़ भी उतर गए थे. कपड़े परिवार के पुरुषों ने उतारे
थे लेकिन, उस घटना ने
लड़कों को नंगा कर दिया था. उसी प्रकार का नंगा जिसके बारे में कहा जाता है कि
उससे तो ख़ुदा भी डरता है. हालाँकि अभी भी एक प्रकार की -तृण धरी ओट, या तिनके की मर्यादा को रख कर यह लड़के अपने
परिवार के पुरुषों से डील कर रहे थे. इस प्रकार कि मान लीजिए सुरेश के चाचा ने उसे
हवेली जाने से मना किया, डाँट-डपट की तो
दिनेश ने जाकर उनसे डील कर ली. डील....? डील का मतलब यह कि उनको बता दिया कि उस दिन रात को जब वे चौपड़े की
चुड़ैलों के साथ वस्त्रहीन अवस्था में किन्हीं प्राकृतिक कार्यों को संपन्न कर रहे
थे, तब पूरी
बच्चा पार्टी चौपड़े की मुँडेर से ग्लेडिएटर के दर्शकों की तरह उस प्राकृतिक
क्रीड़ा का अवलोकन कर रही थी. यह एक सूचना चाचा, मामा, भाई टाइप के रिश्तों के कस-बल ढीले कर देती थी.
धीरे-धीरे उन
लड़कों को हवेली में खुल कर आने-जाने का परमिट मिल गया. चौपड़ा वीरान होता गया और हवेली की रौनक लौटने लगी.
हम्मू ख़ाँ का रिश्ता बड़ी चुड़ैल से था और बड़ी चुड़ैल में लड़का पार्टी की
कोई दिलचस्पी नहीं थी. लड़का पार्टी तो मँझली और छोटी चुड़ैलों के साथ ही मस्त थी.
इसलिए किसी को किसी से कोई परेशानी नहीं थी. हम्मू ख़ाँ अपनी जगह खुश था और लड़के
अपनी जगह पर. हम्मू ख़ाँ को भी अब अपना कार्य संपन्न करने के लिए हवेली में ही आने-जाने का सुभीता हो
गया था. कभी भी. पहले तो यह था कि रात ढलने का इंतज़ार करना होता था. अब शारीरिक
इच्छाएँ भी कोई समय देख कर उठती हैं भला ? पता चला दोपहर में ही बादल घिर आए हैं, बरसात होने लगी है.
बरसात को देख कर सच्ची वाला मोर तो नाचता ही है लेकिन, उसके साथ एक और मोर भी नाचता है. वह मोर होता
है पुरुष के शरीर में बैठा इच्छाओं का मोर. कमबख़्त बादलों को देखकर ही पंख फैलाने
लगता है. जब ये पंख हौले-हौले इधर-उधर अपनी छुअन देते हैं सारी देह सलबलाहट से भर जाती है. ऐसा लगता है कि बस
अभी....... लेकिन हम्मू ख़ाँ को रात तक का इंतज़ार करना पड़ता, तब तक सारे बादल
बरस-बुरस के जा
चुके होते. कीचड़ हो रही होती. मच्छर हो चुके होते. कुल मिलकार बरसात का सारा बना-बनाया माहौल ही
विदा ले चुका होता. तो अब तो हम्मू ख़ाँ के भी मज़े थे, जब बरसात हो रही हो तभी........ जब मोर का नाचने
का मन हो तब नाच ले. इसलिए हम्मू ख़ाँ ने भी अपना अघोषित वीटो लड़का पार्टी के पक्ष
में ही रखा था. वैसे भी उसके अलावा कोई चारा भी नहीं था. हम्मू ख़ाँ जो अगर वीटो
नहीं देते तो लड़का पार्टी तो हम्मू ख़ाँ को दो तरफा घेर लेती. पहला तो जो है वो है
ही, दूसरा यह कि
हम्मू ख़ाँ मुसलमान थे और चुड़ैलें हिन्दू थीं. हम्मू ख़ाँ को तो लड़कों के पक्ष में
झुकना ही झुकना था.
हवेली को सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी पैसों की. जिसके लिए गहरी रात में
चुड़ैलें चौपड़े तक जाती थीं. लड़के चूँकि अपने-अपने घरों में उस स्थिति में नहीं थे कि
जेबों में हमेशा पैसे रहें, फिर भी उनके लिए इधर-उधर से थोड़ा बहुत गोल-गपाड़ा करना कोई मुश्किल काम भी नहीं था. खलिहान में भरी हुई फसल में से
पसेरी-दो पसेरी
अनाज अगर उड़ा दिया तो फर्क कहाँ पड़ता है. तो चुड़ैलों का ख़र्च लड़कों के माध्यम
से भी चलने लगा था. वैसे भी चुड़ैलों को बहुत ज़्यादा तो चाहिए नहीं था. हवेली थी
ही रहने को. लड़का पार्टी भी बड़ा दल था. एकाध का हाथ अगर किसी दिन खाली भी रहे तो
कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था. चुड़ैलों को जो भी भुगतान दिया जाता था वह सामुहिक
दिया जाता था, चंदे की
शक्ल में. इस चंदे के कई रूप होते थे. रुपयों के रूप में भी और दूसरे रूप में भी.
जैसे अनूप के पिता की डेयरी थी और सुबह शाम दूध बाँटने का काम अनूप ही करता था.
हवेली कांड के बाद से उस दूध में सुबह और शाम चार-चार लीटर पानी बढ़ जाता था. और बढ़ा हुआ चार-चार लीटर दूध हवेली
की चुड़ैलों को भोग लगा दिया जाता. सब्ज़ियाँ थीं, फल थे, अनाज था, गन्ने, गुड़ और जाने क्या-क्या तो था लड़कों के पास देने के लिए. यहाँ पर समय इतिहास में लौट कर चला गया था, वस्तु विनिमय का
सिद्धांत एक बार फिर अस्तित्त्व में आ गया था. लड़के वस्तुएँ देते थे और चुड़ेलों
से वस्तुएँ प्राप्त कर लेते थे. तुम्हारी भी जय-जय हमारी भी जय-जय.
(तीन)
उस लड़के का नाम सोनू था जो इस कहानी में एक ट्विस्ट के रूप में आता है.
सोनू कहीं बाहर से नहीं आया था. असल में वह इस लड़का पार्टी का ही हिस्सा था.
लेकिन चौपड़े की चुड़ैलों का राज़ खुलने से पहले ही वह क़स्बे छोड़ कर जा चुका था.
तब तक वह इस लड़का पार्टी का हिस्सा रहा था, जब तक यह गैंग अपनी प्यासों को लेकर चौपड़े
के पानी में कूदती थी. शरीर से उठते प्रश्नों को अपने ही हाथों से सहलाती थी. सोनू
के अंदर भी यह प्रश्न उठते थे, लेकिन सोनू के अंदर यह प्रश्न कुछ ज़्यादा फनफनाकर सर उठाते थे. ऐसे कि वह
चौपड़े के अंदर पड़े पत्थर पर ही अपना गुस्सा उतार देता था. उसकी आँखों में लाल
डोरे उतर आते थे. उसे कुछ भी नहीं सूझता था. बाकी लड़कों के अंदर अगर भट्टियाँ थी, तो सोनू के अंदर एक
पूरा ज्वाला मुखी था, जो अपना लावा निकाल देने के लिए उबाल मारता रहता था. यही सोनू अपने सुलगते
हुए सवालों को लेकर क़स्बे से चला गया था. चला गया था या भेज दिया गया था आगे की
पढ़ाई के लिए. शहर भेज दिया गया था उसे. जाते समय उसकी आँखों में उम्मीदें थीं, सपने थे. सपने, पढ़ाई या कैरियर के
नहीं थे, ये सपने तो
क़स्बा का कोई भी लड़का नहीं देखता था. बाप-दादाओं की ज़मीनें थीं, खेती-बाड़ी थी, वही कैरियर थी. तो
सोनू भी जो सपने लेकर गया था वह सपने, पढ़ाई कैरियर जैसी फालतू चीज़ों के नहीं थे. सपने थे देह में उठते हुए
सवालों के हल होने के सपने. अपने अंदर के ज्वालामुखी को किसी अँधेरी ख़ला में उड़ेल
कर ख़ाली कर देने के सपने. शहर तो वैसे भी सपनों की मंज़िल होता है. क़स्बा अपने हर
सपने को पूरा करने के लिए शहर की ओर देखता है. सोनू भी सपनों की लाल-सुनहरी चिंदियाँ
आँखों में लिए शहर की ओर गया था. मगर कुछ ही दिनों में अपना बोरिया-बिस्तर समेट कर
वापस क़स्बे में लौट आया था.
सोनू पहले हवेली की मंडली में कुछ झिझकते हुए आया, क्योंकि वह चौपड़े की उस चुड़ैलों वाली रात
का दर्शक नहीं था. उस रात के जो दर्शक थे वह सब तो झिझक-विझक जैसी चीज़ों को छोड़-छाड़ कर हवेली का
हिस्सा बन चुके थे. हवेली अब उनका अड्डा थी. सोनू भी उस अड्डे में आया तो हवेली ने
उसे वह सब दिया जो उसे चाहिए था. जिस ज्वालामुखी को वह अपने अंदर दबाए फिरता था, वह हवेली में आकर
फूट गया. फूटा तो सोनू भी फूटा. उसने वह सब कुछ बताया जो उसके साथ शहर में हुआ था.
लड़का पार्टी और चुड़ैलों ने बैठकर उसकी पूरी कहानी को सुना. सुना तो सब सन्न रह
गए.
जो कहानी सोनू ने इन लोगों को सुनाई वह किसी और को नहीं सुनाई थी. और यह
कहानी ही सोनू के शहर से क़स्बे वापस आने की असली कहानी थी. कहानी कुछ इस प्रकार थी.
असल में सोनू जब शहर गया तो कॉलेज, पढ़ाई, जैसी बातों
से ज़्यादा चिंता उसे थी उस बात की जो सवाल बनकर उसके शरीर में लहराती थी. वह
बुझना चाहता था. और आते ही उसने सबसे पहले तलाश शुरू की उस ठिकाने की जहाँ पर वह
अपने आप को बुझा सके. जो जुनून, जो दीवानापन उसके दिमाग़ पर चौबीसों घण्टे सवार रहता है, उसका कुछ उपचार हो
सके. लेकिन यह कोई आसान काम तो था नहीं. पुराने समय में हर शहर में इस प्रकार के
कुछ ठिकाने होते थे, लेकिन समय के साथ वह ठिकाने भी समाप्त हो गए. अब क्या किया जाए ?
सोनू की तलाश समाप्त हुई एक समाचार पत्र में छपे विज्ञापन पर. विज्ञापन में
लिखा था आइये मीठी बातें करिए. मीठी बातें ? सोनू का दिमाग़ कुछ ठनका. मगर उस विज्ञापन
में एक कुछ कम कपड़े पहने हुई लड़की का चित्र भी लगा हुआ था. विज्ञापन उसी समाचार
पत्र में प्रकाशित हुआ था, जिसके मालिक ने कुछ दिनों पहले किसी संस्था में भाषण देते हुए कहा था कि
महिलाओं को ठीक कपड़े पहनने चाहिए, उनके द्वारा पहने जा रहे ग़लत कपड़ों के कारण ही बलात्कार की घटनाएँ बढ़ रही
हैं. बाद में उन मालिक के ख़िलाफ़ कुछ महिलाओं ने मोमबत्ती लेकर एक प्रदर्शन भी
किया था. मालिक को भी बुरा नहीं लगा था, समाचार पत्र के मालिक थे जानते थे कि पब्लिसिटी के टोटके क्या होते हैं.
उसको पता था कि मोमबत्तियाँ पब्लिसिटी के लिए जलाई जाती हैं और मशालें क्रांति के
लिए, इसलिए जब तक
मोमबत्तियाँ जलाईं जा रही हैं तब तक घबराने की कोई बात नहीं है. ख़ैर तो बात यह चल रही थी कि उन आदर्शवादी मालिक
के समाचार पत्र में ही वह विज्ञापन प्रकाशित हुआ था. उसके साथ कुछ नंबर भी दिए गए
थे. सोनू ने कुछ झिझकते हुए उस नंबर पर कॉल किया. मीठी बातें हुईं और बहुत सी मीठी
बातें हुईं. जब कॉल काटा तो पता चला कि अंतर्राष्ट्रीय कॉल के हिसाब से पैसे कट गए
हैं. लेकिन वह कोई बड़ी बात नहीं थी. सोनू अभी क़स्बे से आया था और जेब में ख़ूब माल
था. असली बात यह थी कि बातें बहुत ज़्यादा ही मीठी हुईं थीं. बातें, हालाँकि केवल बातें
ही थीं, उनसे कुछ
भौतिक कार्य तो संपन्न नहीं होना था. लेकिन दिमाग़ में जो रसायन उत्पन्न होते हैं
वह तो बातों से भी हो जाते हैं. और दिमाग़ में इस बातचीत के दौरान भरपूर मात्रा में
रसायनों की उत्पत्ति हुई थी.
यह जो रसायनों की उत्पत्ति थी यह आने वाले दिनों में और, और, और का कारण बनने
वाली थी और बनी भी. सोनू ने उसके बाद कई-कई बार उस नंबर पर कॉल किए. हर बार कॉल काटने के बाद आया हुआ मैसेज एक बड़ी
राशि कट जाने की सूचना देता था. हर बार
किसी नई आवाज़ से बातें होती थीं. सोनू चाहता था कि कल जिससे हुई थी उससे से ही हो
लेकिन, वैसा नहीं
होता था. सोनू की इच्छा थी कि अगर कोई रिपीट में एक बार भी मिल जाए तो उससे कुछ
आगे का सिलसिला जोड़ा जाए. मगर वैसा हो नहीं पा रहा था.
असल में ऐसा होना तकनीकी रूप से संभव भी नहीं था. क्योंकि जिस कंपनी के
नंबर पर बातें होती थीं उस कंपनी ने पूरे भारत में क़रीब पाँच हज़ार से ज़्यादा
मोबाइल कनेक्शन ग़रीब और ज़रूरतमंद महिलाओं तथा लड़कियों को दिये थे. इन लड़कियों
में ज़्यादातर छोटे क़स्बों की लड़कियाँ थीं. इन मोबाइल नंबरों पर ही वह मीठे-मीठे कॉल आते थे.
इन महिलाओं को उन कॉल्स को सुनने के सौ से डेढ़ सौ रुपये रोज़ मिलते थे. चार
शर्तें इन महिलाओं को पूरी करनी होती थीं. पहली यह कि मोबाइल किसी भी स्थिति में
स्विच्ड ऑफ नहीं किया जाएगा. दूसरी सामने वाला आदमी जो भी, जैसी भी बातें करे, इनको फोन नहीं काटना होगा, हाँ में हाँ मिलाना
होगा और अपनी तरफ से भी बातें करनी होंगी. तीसरी शर्त यह कि सभी कॉल्स को रिसीव
करना होगा और दिन भर में कम से कम तीन घंटे की बात करनी ही होगी, यह उनका उस दिन का
टारगेट रहेगा. टारगेट पूरा न होने पर उस दिन का पैसा नहीं दिया जाएगा. मोबाइल
स्विच्ड ऑफ मिलने, कॉल रिसीव नहीं करने पर भी पूरे दिन का पैसा काट दिया जाएगा. तीन से
ज़्यादा बार मोबाइल स्विच्ड ऑफ मिलने पर पूरे महीने का पैसा काट लिया जाएगा. और
यदि ग्राहक की बात सुनकर फोन काट दिया तो भी पूरे महीने का पैसा कट जाएगा. चौथी
शर्त यह कि किसी भी हालत में ये अपनी कोई भी वास्तविक जानकारी कॉल करने वाले को
नहीं बताएँगीं. सब कुछ झूठ ही बताना है. इन शर्तों के बाद भी ग़रीब और ज़रूरतमंद कई
महिलाएँ अपना परिवार चलाने के लिए मोबाइल कंपनी के इस गोरखधंधे से जुड़ी हुईं थीं.
मोबाइल कंपनी ने जो नंबर विज्ञापन में दे रखे थे उन पर कॉल करने से कॉल सीधे आई.एस.डी. से ही शुरू होता था.
ज़ाहिर सी बात है कि सोनू कितना ही सर पटक लेता उसे एक ही लड़की से दूसरी बार बात
करने का मौका, किसी दैवीय
संयोग के अलावा नहीं मिल सकता था. पाँच हज़ार में दोहराव की गुंजाइश ही कितनी कम
थी.
लेकिन कहते हैं न कि जहाँ चाह वहीं पर राह. उस दिन बात करने वाली लड़की
शायद नई थी, उसे नहीं
पता था कि वह अपने ग्राहक से जो भी बातें करती है, उन बातों को कंपनी के लोग सुनते हैं, रिकार्ड भी करते
हैं. क़रीब घंटे भर की बातचीत के बाद लड़की सोनू के प्रति पिघलने लगी. दोनों के बीच
मीठी बातों से इतर पर्सनल बातें होने लगीं. इस प्रकार की स्थिति में अक्सर कंपनी
के लोग बीच में ही कॉल को डिस्कनेक्ट कर देते थे. लेकिन इससे पहले कि कंपनी की ओर
से उसका कॉल काटा जाता, उसने अपना वास्तविक मोबाइल नंबर सोनू को उपलब्ध करवा दिया. वह अपने शहर और
पते के बारे में कुछ और जानकारी उपलब्ध करवाती उससे पहले ही कॉल काट दिया गया.
लेकिन उससे क्या होना था ? सोनू के पास तो लड़की का मोबाइल नंबर आ चुका था. लड़की से सीधे संपर्क करने
पर पता चला कि लड़की उस शहर की नहीं थी, जिस शहर में सोनू रह रहा था. दूसरे किसी शहर की थी. फिर भी बातचीत तो हो ही
सकती थी. किसी अज्ञात के साथ मीठी-मीठी बातें करने से ज़्यादा आनंद देता है, किसी ज्ञात के साथ करना.
कहानी में मोड़ ठीक अगले ही दिन तब आ गया, जब लड़की का कॉल सोनू के पास आया. उसने सोनू
को, सोनू के ही
शहर के एक स्थान का पता दिया कि मैं तुमसे मिलने आ गयी हूँ, इस जगह पर ठहरी हूँ, आ जाओ. सोनू को तो
मानो पंख ही लग गए. मीठी बातें के स्थान पर, मीठी घातें करने का मौका जो मिल रहा था.
सोनू तयशुदा समय पर उस स्थान पर पहुँच गया. वहाँ वह सब कुछ नहीं था, जो वह सोच कर आया
था. वहाँ कुछ और था. वह वास्तव में एक सेक्सटॉर्शन केन्द्र था. सोनू का वहाँ
सेक्सटॉर्शन किया गया. और जो कुछ भी किया गया उस सब का बाक़ायदा तेज़ हेलाजन लाइटों
की चुँधियाती हुई रौशनी में वीडियो भी बनाया गया. महँगे विदेशी कैमरों से हाई
डेफिनेशन वीडियो. जैसे किसी कमर्शियल फिल्म की शूटिंग होती है, ठीक उसी प्रकार से.
लड़कियों और सोनू की कुछ भिन्न-भिन्न प्रकार की वीडियो बनाई गईं, इसके बाद अंत में सोनू की जमकर पिटाई की गई. इस प्रकार की हड्डी नहीं टूटे, किन्तु हर स्थान पर
चोट आए. इस पिटाई का भी पूरा वीडियो बनाया गया. सोनू का मोबाइल, पैसे, एटीएम कार्ड, घड़ी आदि जो कुछ भी
उसके पास था कपड़ों को छोड़कर, वह सब कुछ छीन लिया गया. इस मोबाइल नंबर को फिर चालू नहीं करवाने और किसी
को कुछ नहीं बताने की धमकी दी गई. उसके बाद एक कार में बिठा कर कहीं छोड़ दिया गया.
कहानी सुनते ही पूरी लड़का पार्टी और चुड़ैलों के बीच सन्नाटा खिंच गया था.
(चार)
आते-आते हवेली
के माहौल में सोनू भी धीरे-धीरे घुल गया और सहज होता चला गया. अब उसे शहर की उस घटना की कील चुभती
नहीं थी. मँझली चुड़ैल उस पर कुछ ज़्यादा ही मेहरबान रहती थी. बल्कि यूँ कहें तो
भी ग़लत नहीं होगा कि अब मँझली चुड़ैल पूरी
तरह से सोनू के लिए ही आरक्षित हो गई थी. बड़ी चुड़ैल पहले से ही हम्मू ख़ाँ
के लिए आरक्षित थी, तो अब लड़का पार्टी के लिए बस छोटी चुड़ैल ही बची थी.
एक दिन अचानक जब मँझली चुड़ैल ने सोनू से उस जगह के बारे में पूछा जहाँ
सोनू को ले जाया गया था, तो सोनू कुछ असहज हो गया. क्या मतलब है यह पूछने का, जानने का. मगर
मँझली चुड़ैल के दिमाग़ में तो और ही कुछ था. मँझली चुड़ैल को सोनू द्वारा बताया
गया मोबाइल पर बातें करने का काम बहुत मुफ़ीद नज़र आ रहा था. सोनू को राज़ी करने में
मँझली चुड़ैल को बहुत ज़्यादा देर नहीं लगी. सोनू को भी लगा कि जो कुछ मँझली
चुड़ैल कह रही है, उसमें दम तो है. सोनू आख़िर में मान गया मगर, सब कुछ नए सिरे से तलाश करना पड़ा. हालाँकि
बात बहुत पुरानी नहीं हुई थी, इसलिए सूत्र उसे बहुत ही जल्दी मिल गए. वह सूत्र जो कंपनी से जुड़े हुए थे.
समय लगा. इस बीच कंपनी के कुछ लोग आकर हवेली देख गए. यह कंपनी विज़िट थी. और अंततः
तीनों चुड़ैलों को कंपनी की ओर से मोबाइल नंबर प्रदान कर दिए गए.
काम जब शुरू हुआ तो चुड़ैलों को बात करने में कुछ झिझक होती थी. ग्राहक
बहुत खुली बात करना चाहता था, लेकिन चुड़ैलें ज़रा दबी-छिपी बातें करती थीं. फिर एक दिन सोनू ने मँझली चुड़ैल को बताया कि ग्राहक
क्या चाहता है. सोनू ने एक ग्राहक का कॉल अटैंड किया और उसके साथ लड़की की आवाज़
में बात की. खुली-खुली बातें. मँझली चुड़ैल की आँखें, कान और दिमाग़ सब खुलता गया. उसके बाद मँझली
चुड़ैल ने मानो पूरे काम के सूत्र अपने हाथ में ले लिए. इस प्रकार से कि जो ग्राहक
पहले दस मिनिट तक बात करता था वह अब दो-दो घंटे चिपका रहता. मँझली चुड़ैल को सोनू ने धीरे-धीरे पूरा ट्रेण्ड कर दिया. उस अनुभव से, जो उसने कंपनी के
मोबाइलों पर बात कर-करके सीखा था. मँझली चुड़ैल अब दक्ष हो गई थी. उसने बाकी दोनों चुड़ैलों को
भी धीरे-धीरे
ट्रेण्ड कर दिया. काम ज़ोरों से चल निकला. चुड़ैलें अब खुलकर बातें करती थीं. बिना
किसी झिझक के, बिना किसी
संकोच के. इस प्रकार, कि कई बार सामने से बातें कर रहा ग्राहक भी शरमा जाता था. चुड़ैलों को समझ
में आ गया था कि केवल बातें ही तो करना है, वह भी उसके साथ जो उनको जानता तक नहीं है.
किसी अज्ञात के साथ केवल बातें करने में क्या बुरा है. यह ब्रह्मज्ञान प्राप्त
होते ही चुड़ैलों के दिव्य नेत्र भी खुल गए थे.
चुड़ैलें पूरा दिन व्यस्त रहती थीं. काम फैल रहा था. तीनों मोबाइल दिन भर
व्यस्त रहते थे. चुड़ैलें चाहती थीं कि कुछ और मेाबाइल हों लेकिन उन पर बात करेगा
कौन ? अब हवेली को
कुछ और चुड़ैलों की आवश्यकता थी. मँझली चुड़ैल ने अपना जाल फैलाया. कुछ ग़रीब, ज़रूरतमंद महिलाओं और लड़कियों को पैसों की चमक दिखाई. चमक ने कुछ को खींचा
और वो हवेली के दरवाज़े तक आ गईं. दरवाज़े से हवेली के कमरे तक लाने का काम मँझली
चुड़ैल ने किया. जो कमरे तक आईं वो चुड़ैल बन गईं. मंझली चुड़ैल ने उनकी गरदन के
पीछे दाँत गड़ा कर अंग्रेज़ी फिल्मों की तरह कुछ ख़ून-वून तो नहीं चूसा मगर, कुछ ऐसा ज़रूर किया
कि चुड़ैलों की संख्या बढ़ गई. अब हवेली में कुछ और चुड़ैलें हो गईं थीं. अब कुछ
कढ़ाई, कशीदाकारी
के काम भी हवेली में शुरू किये गये. दिखाने के लिए कि हवेली में यह काम किया जा
रहा है. नई चुड़ैलें कानों पर हैडफोन लगाए हवेली के अंदर के कमरों में कशीदाकारी
करती रहतीं. या यूँ कहें कि कशीदाकारी करने का नाटक करती रहतीं, असल काम तो हैडफोन
से चलता रहता था. अब हवेली एक हस्त शिल्प केन्द्र बन चुकी थी.
(पांच)
उस बात को अब दो साल से भी अधिक हो गए हैं. कॉल सेण्टर में कॉल अटेण्डर
चुड़ैलों की संख्या अब काफी बढ़ गई है. हवेली के एक हिस्से को तुड़वा कर वहाँ पर
तीन चार वातानुकूलित हॉल बना दिए गए हैं. इनमें कई सारे साउंड प्रूफ कक्ष हैं. इन
कक्षों में बैठ कर चुड़ैलें अपना काम करती रहती हैं. मँझली चुड़ैल अब वास्तव में
ही कंपनी की सीईओ है. कई सारे समाज सेवा के काम करवाती रहती है. आए दिन उसके फोटो
समाचार पत्रों में छपते रहते हैं. सोनू और उसने शादी तो नहीं की लेकिन, बात शादी जैसी ही
है. सोनू के वह वीडियो जो कंपनी ने बनाए
थे, कई सारी
पॉर्न वैब साइटों पर इंडियन सैक्शन में उपलब्ध हैं. सोनू और मँझली चुड़ैल अक्सर
इनको देखते हैं, हँसते हैं.
चुड़ैलें अब हवेली से निकल कर वरचुअल हो गईं हैं. हवा में फैल गईं हैं, सिग्नल्स के रूप
में, फ्रिक्वेंसी
के रूप में. अब वे हर किसी के मोबाइल में हैं. मीठी बातें करती हुई, कुछ लाइव ध्वनियाँ
पैदा करती हुईं. चुड़ैलें अब रूप बदल-बदल कर आ रही हैं. अब उनका कोई नाम कोई ठिकाना स्थायी नहीं है. अब वह
चौपड़े की चुड़ैलें नहीं रहीं, अब वे ब्रह्माण्ड की चुड़ैलें हो चुकी हैं. पूरे के पूरे वरचुअल ब्रह्माण्ड
की चुड़ैलें. अब वे कहीं से भी झपटती हैं. जैसे आकाश में चमकने वाली बिजली काली
वस्तु को देख कर झपटती है, वैसे ही चुड़ैलें भी काले मोबाइल को किसी के भी हाथों में देख कर झपट्टा
मारती हैं और समा जाती हैं उसमें. और उसके ज़रिए मोबाइल धारी के कानों में, आत्मा में, मन में. चुड़ैलें
फैलती जा रही हैं, फैलती जा रही हैं, फैलती जा रही हैं.
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यह तो बनते बनते रह गयी. आख़िरी हिस्सा सूचनाओं का नेटवर्क है. सब अपने आप पूर्व -अनुमानित ढंग से घटित होता जा रहा है.
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (02-09-2016) को "शुभम् करोति कल्याणम्" (चर्चा अंक-2453) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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