सहजि सहजि गुन रमैं : अनिल करमेले

पेंटिग : Vanity by Elena caron











आज जबकि कलाकारों से विचारहीनता की मांग की जा रही है और उनके मूल्यांकन में इसे एक निर्णायक तत्व के रूप में देखा जा रहा है, अनिल जैसे प्रखर राजनीतिक चेतना से सम्पन्न कवि का होना न केवल कविता की सेहत के लिए बल्कि समाज के स्वास्थ्य के लिए भी जरूरी है.

अनिल की इन कविताओं में जहाँ रंग – भेद में निहित श्रेष्ठताबोध की राजनीति की पहचान है वहीँ वह उस श्रमिक लोहार को भी  देखते हैं  जो दरअसल आम जीवन की जिजीविषा का प्रतीक है. सत्ताएं संस्कृति के माध्यम से अपनी स्वीकार्यता पाने की कोशिश करती हैं, इस विद्रूपता को वह अपनी अंतिम कविता में कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं-

“वह मरे हुए कबूतरों के पंखों को समेटता
किसी अदृश्य बिल्ली की ओर इशारा करता है.”


अनिल करमेले की कविताएँ                       

  
  

|| गोरे रंग का मर्सिया ||

सौन्‍दर्य की भारतीय परिभाषा में
लगभग प्रमुखता से समाया हुआ है गोरा रंग
देवताओं से लेकर देसी रजवाड़ों के राजकुमार तक
सदियों से मोहित होते रहे इस शफ्फ़ाक रंग पर
कुछ तो इतने आसक्‍त हुए
कि राजपाठ तक दाँव पर लगा डाला

अपने इस रंग को बचाने के लिए
बादाम के तेल से लेकर
गधी के दूध तक से नहाती रहीं सुंदरियाँ
हल्‍दी चंदन और मुल्‍तानी मिट्टी को घिस-घिस कर
अपनी त्‍वचा का रंग बदलने को आतुर रहीं
हर उम्र की स्त्रियाँ
कथित असुंदरता के खिलाफ़ एक अदद जंग जीतने के लिए

जंग जीतने के लिए राजाओं ने ऐसी ही स्त्रियों को
अपना अस्‍त्र बना डाला
साधन संपन्‍न पुरूष अक्‍सर सफल हुए गोरी चमड़ी को भोगने में
कुछ पुरूष अंधे हो गए इस गोरेपन से
कुछ हो गए हमेशा के लिए नपुंसक
और कुछ ने तो इसकी दलाली से पा लिया जीवन भर का राजपाठ

गोरे रंग के सहारे क़ामयाबी की कई दास्‍तानें लिखी गईं
पूरी दुनियां में अक्‍सर मिलते रहे ऐसे उदाहरण
जब चरित्र पर गोरा रंग भारी पड़ता रहा

दरअसल गोरेपन को पाकीज़गी मान लेना
हर समय में दूसरे रंगों के साथ अत्‍याचार साबित हुआ
इसी गोरेपन से
किसी लंपट के प्रेम में पड़कर
असमय इस दुनिया से विदा हो गई कई लड़कियाँ

उजली और रेशमी काया से उत्‍पन्‍न
उत्‍तेजना के एवज़ में
अक्‍सर मर्सिया दबे हुए रंगों को पढ़ना पड़ा

आखिर गोरा रंग हमेशा फ़कत रंग ही तो नहीं रहा.
 

ll विश्वसुंदरी ll   

खुर्दबीनी परीक्षण और
नुमाइश की
कसरतों से गुज़रने के बाद
उसने एक बहुत अच्‍छी बात कही
और ताज रखते हुए सर पर हमें चेताया
कि तीसरी दुनिया में गर्व करने के लिए
अब सिर्फ बची हुई है देह.



|| मैं रोज़ नींद में लोहे की धमक सुनता हूं ||

जेठ की घाम में
बन रही होती मिट्टी बोवाई के लिए
तपे ढेले टूटते लय में
उसी लय में भीमा लुहार की सांसें
फड़कती फिसलती हाथों की मछलियां
भट्टी में तपते फाल की रंगत लिए

गांव में इकलौता लुहार था भीमा
और घर में अकेला मरद
धरती में बीज डालने के औज़ारों का अकेला निर्माता
गांव का पूरा लोहा

उतरते जेठ रात के तीसरे पहर से ही
शुरू हो जाती उसके घन की धमक
साथ ही तेज सांसों का हुंकारा धम...हः...धम...हः...धम...हः

पूरा गांव सुनता धमक उठता नींद से गाफिल
आते असाढ़ में वैसे भी किरसान को नींद कहां
लोग उठते और फारिग हो ले पहुंचते अपना अपना लोहा
दहकते अंगारों से भीमा की भट्टी
खिलखिला उठती धरती की उर्वर कोख हरियाने

भट्टी के लाल उजाले में
देवदूत की तरह चमकता भीमा का चेहरा
घन उठता और हज़ार घोड़ों की ताकत से
तपते लोहे पर गिरता
लाल किरचियां बिखरतीं टूटते तारों की मानिंद
गिरते पसीने से छन-छन करता पकता लोहा

भीमा घन चलाता
उसकी पत्नी पकड़ती संड़सी से लोहे का फाल
घन गिरता और पत्नी के स्तन
धरती की तरह कांप जाते
जैसे बीजों के लिए उनमें भी उतरता दूध

लगते असाढ़
जितनी भीड़ खेतों में होती
उतनी ही भीमा की भट्टी पर
धौंकनी चलती तपता लोहा बनते फाल
क्वांरी धरती पर पहली बारिश में
बीज उतरते करते फालों को सलाम

भीमा की तड़कती देह
फिर अगहन की तैयारी में जुटती
बरस भर लोहा उतरता उसके भीतर

बिन लोहा अन्न और बिन भीमा लोहा
अब भी संभव नहीं है

मैं रोज़ नींद में लोहे की धमक सुनता हूं.


|| बाकी बचे कुछ लोग ||

सब कुछ पा कर भी
उसका मन बेचैन रहता है
हर तरफ अपनी जयघोष के बावज़ूद
वह जानता है
कुछ लोगों को अभी तक
जीता नहीं जा सका

कुछ लोग अभी भी
सिर उठाए उसके सामने खड़े हैं
कुछ लोग अभी भी रखते हैं
उसकी आँखों में आँखें डाल कर बात करने का हौसला
उसके झूठ को झूठ कहने की ताकत
उसके अंदर के जानवर को
शीशा दिखाने का कलेजा

वह जानता है
बाकी बचे कुछ लोगों के बिना
अधूरी है उसकी जीत
और यह सोच कर
और गहरी हो जाती है उसके चेहरे की कालिख

वह नींद में करवट बदलता है
और उठ जाता है चौंक कर
देखता है चेहरे को छू- छू कर
उसकी हथेलियाँ खून से सन जाती हैं
गले में फँस जाती हैं
हज़ारों चीखें और कराहें

वह समझ नहीं पाता
दिन की कालिख रातों में
चेहरे पर लहू बन कर क्यों उतर जाती है

वह उसे नृत्य संगीत रंगों और शब्दों के सहारे
घिस-घिस कर धो देना चाहता है
वह कोशिश करता है बाँसुरी बजाने की
मगर बाँसुरी से सुरों की जगह
बच्चों का रुदन फूट पड़ता है

वह मुनादी की शक्ल में ढोल बजाता है
और उसके भयानक शोर में
सिसकियाँ और चीत्कारें
दफ़्न हो जाती हैं
वह मरे हुए कबूतरों के पंखों को समेटता
किसी अदृश्य बिल्ली की ओर इशारा करता है

वह हर बार एक घटिया तर्कहीन बात के साथ
कहता है इस देश के लोग यही चाहते हैं

अपनी सार्वजनिक स्वीकार्यता के लिए
अंतत: हर तानाशाह
संस्कृति के ही पास आता है

बाकी बचे कुछ लोग यह जानते हैं. 

_________________________

अनिल करमेले का एक कविता संग्रह ईश्वर के नाम पर प्रकाशित है. उन्हें मध्यप्रदेश शासन का दुष्यंत कुमार सम्मान भी प्राप्त है.  
भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (सीएजी) के अंतर्गत महलेखाकार लेखापरीक्षा कार्यालय ग्वालियर में सेवारत हैं.
संपर्क :  58, हनुमान नगर, जाट खेड़ी, होशंगाबाद रोड, 
भोपाल
462026/ मोबाइल : 094256-75622

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  1. मैं रोज़ नींद में लोहे की धमक सुनता हूं...अनिल जी की कविताएँ जैसे भग्नावशेषों को देखते हुए गाइड का स्वर..वह सब कुछ देख पा रहा है और सुना रहा है. हम वहां होते हुए भी उस स्वर के बिना उस जगह से अपरिचित रह जाते है. लौट आने के बाद भी इतिहास की धमक कानों में गूंजती है और ह्रदय को मथती है.

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  2. अच्छी कविताएँ । नया ज्ञानोदर में सबसे पहले पढने नहीं की मिल गई थी । बधाई अनिल भाई ।

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (09-04-2016) को "नूतन सम्वत्सर आया है" (चर्चा अंक-2307) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    चैत्र नवरात्रों की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. सच्ची बात शब्दों की अंगुली पकड़ कर मन तक पहुँची है । बेहतरीन कविताएँ । बधाईयाँ

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  5. सुंदर और अर्थपूर्ण कविताएँ

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