मति का धीर : कामरेड विनोद मिश्र



भारतीय समाज को समझने में जिनकी दिलचस्पी है और जो  समझ कर इसे न्यायप्रिय और लोकतांत्रिक बनाने का कोई सपना देखते हैं. उनके लिए प्रसिद्ध क्रान्तिकारी विनोद मिश्र का यह संस्मरण प्रेरणादायी होगा. इस तरह के जमीनी आंदोलनों में जिनकी अकादमिक रूचि है उनके लिए भी यहाँ बहुत कुछ है.

कामरेड विनोद मिश्र CPI (ML) के १९७४ के बाद आजीवन महासचिव रहे. उन्होंने अपने शब्द और कर्म से अपने समय और समाज को न केवल गहरे प्रभावित किया बल्कि उसे आंदोलित भी  किया है.

आलोचक अनुवादक गोपाल प्रधान ने वी.एम. के मानवीय और संवेदनशील पक्ष को बखूबी  रखा है. इस संस्मरण में भारत के कम्युनिस्ट  आंदोलन का एक युग आ गया है
समालोचन के लिए ख़ास.      



संस्मरण :: कामरेड विनोद मिश्र के साथ
गोपाल प्रधान

अपने किसी अजीज की मय्यत में मैं आज तक शरीक नहीं हो सका. इससे लगता है जैसे वह आदमी आज भी जिन्दा हो. पार्टी भी दुनिया के सभी सहकारों से अलग एक भिन्न किस्म का अनुभव है. अनजाने आप एक चिन्तन पद्धति के आदी हो जाते हैं और सैकड़ों हजारों लोगों का चिन्तन एक आदमी के जरिए बोलने लगता है. सवाल समान होते हैं, फिर आप जो सोचते हैं लगता है मौलिक है तभी जी एस का कोई लेख, कोई भाषण आपके निष्कर्ष और जोर से मेल खा जाता है. पार्टी के भीतर की दुनिया बाहरी आदमी के लिए शायद कभी खुल नहीं सकती. वी एम के साथ मेरी मुलाकातें बहुत ही कम रहीं लेकिन यह घटना हर हमेशा ही घटती रही. संभवतः इसीलिए आज भी वे मेरे लिए मर नहीं सके हैं.

वी एम के साथ मेरी पहली मुलाकात जौनपुर में हुई. उनके चले जाने के बाद ही हम समझ सके थे कि वे वी एम थे. हम यानी मैं, रामविलास, सुभाष, मुख्तार साहब, मुन्नी सिंह आदि. यह पूर्वांचल में पार्टी में भरती हुए नए कार्यकर्ताओं की टोली थी. पार्टी तब भूमिगत थी. रीजनल कांफ़्रेन्स मुख्तार साहब के यहाँ हुई थी. पार्टी की तीसरी कांग्रेस होने जा रही थी. उसी की तैयारी में उत्तर प्रदेश का यह प्रादेशिक सम्मेलन हो रहा था. कांग्रेस के मसौदा दस्तावेज को हम गाँवों के कमउम्र कार्यकर्ता समझने की कोशिश कर रहे थे. रीजनल सम्मेलन से प्रादेशिक सम्मेलन के लिए एक मैनेजमेंट टीम का चुनाव किया गया था जिसमें मैं भी था. जौनपुर पहुँचकर हम लोगों को कामरेड आर टी एन ने बताया कि खाना नाश्ता चाय का प्रबन्ध हम लोगों के जिम्मे है. तब पार्टी मीटिंगों का प्रबन्ध भी गम्भीर जिम्मेदारी समझी जाती थी और एक तरह की परीक्षा भी. अनेक छोटी मोटी मीटिंगो के प्रबन्ध की परीक्षा से उत्तीर्ण होने के बाद यह जिम्मेदारी मिली थी और इसको लेकर मैं उत्तेजित था.

खिलन्दड़ापन तो बाद में मुझमें बढ़ा. एक बात और थी. वी एम सम्मेलन में आनेवाले थे. सुन रखा था वे विल्स सिगरेट निरंतर पीते रहते हैं. इसको पहचान का पैमाना हम लोगों ने बना रखा था. बाकी सब डेलीगेट ऊपर ही थे. कोई दो लोग नीचे ड्राइंगरूम में बने हुए थे. उनको लेकर एक उत्सुकता सबके भीतर देखी जा सकती थी. उन क्षणों को याद करके हँसी आती है. वी एम मिलें तो बताऊँ कि उनसे पहली मुलाकात कैसे हुई थी. पहले हम लोगों का वहाँ जाना निषिद्ध सा रहा. रामजी भाई नाश्ता लेकर जा रहे हैं और लौटते हुए कदम्ब की तरह फूले हुए हैं. अवधेश प्रधान चाय लेकर जा रहे हैं और वापस आते हुए मन्द मन्द मुस्करा रहे हैं. फिर मैं और रामविलास एक साथ कुछ लेकर गये. विल्स सिगरेट जिन सज्जन के हाथ में थी उनके साथ हम लोग अतिरिक्त सम्मान से पेश आये. सवाल उनके साथ वाले सज्जन पूछ रहे थे- साथी लोग किस इलाके में काम करते हैं? लेकिन जवाब देते हुए हम विल्स वाले साथी कि ओर मुखातिब रहे. एक नाम धीरे धीरे हवा में तैरना शुरू हुआ- राजू जी. मुख्तार साहब ने कहा कि अच्छा है, उधर राजीव गांधी इधर राजू . बहरहाल, सम्मेलन तकरीबन तीन दिन चला. कभी कभार चाय पहुँचाने अंदर जाना होता रहा. खाना सब लोग बाहर खाते थे. एक खामोश सा सम्मान उस व्यक्ति के प्रति बना रहा जिसके हाथ में पहले पहल विल्स देखी थी.

सम्मेलन की समाप्ति पर धन्यवाद देने के लिए हम लोगों को भी अंदर बुलाया गया. इस बार विल्स दोनों के हाथ में थी. फिर भी हम लोगों ने विश्वास को डिगने नहीं दिया. किसुन जी ने कुछ रुपये हम लोगों के वी एम के हाथ में दिए. उन्होंने रुपये हाथ में लिए हुए ही बोलना शुरू किया जो साथी लोग तीन दिन से लगातार मेहनत करते हुए सम्मेलन की सफलता के लिए काम करते रहे---- तभी उनके साथी ने टोक दिया पहले गिन लीजिये और फिर वे रुपये गिनने लगे. उनके साथी ने मानो उनकी जगह पर बोलना शुरू किया. अत्यन्त सहज ढंग से, तकरीबन ध्यान न देने योग्य लहजे में- हम लोगों ने पार्टी दस्तावेज में लिखा है कि भारतीय क्रान्ति को पूरा करने के अब तक के प्रयास सफल नहीं हो सके हैं, लेकिन इस बार हमें असफल नहीं होना है . तो साथियों, पूरी पार्टी को, सभी साथियों को इसी दिशा में तैयारी करनी चाहिए . इस दरम्यान वी एम किसुन जी से हिसाब किताब में उलझे हुए थे. फिर हम लोग बाहर आ गये. कुछेक डेलीगेटों और उन दोनों के चले जाने के बाद हमें आर टी एन भीतर बुला ले गये.

अवधेश प्रधान ने महासचिव का उद्घाटन भाषण साफ़ अक्षरों में नोट कर रखा था. उसी का पाठ होना था. हमारी पार्टी नव जनवादी क्रान्ति की मंजिल में है . नव जनवादी क्रान्ति के तीन कार्यभार होते हैं- किसानों को जमीन, राष्ट्रीयताओं को मुक्ति और जनता के हाथ में सत्ता . ये कार्यभार सारतः बुर्जुआ क्रान्ति के ही कार्यभार हैं .वर्षों बाद यही तर्क मैंने एक गलती को ढकने के लिए दिया . जे एन यू में दूसरी बार हम लोग चुनाव लड़ रहे थे. इंडिपेन्डेंट्स की ओर से राकेश चौबे उपाध्यक्ष पद के उम्मीदवार थे. चन्दू संयुक्त सचिव पद पर चुनाव लड़ रहे थे, मैं अध्यक्ष पद पर. स्वभावतः मेरी जिम्मेदारी अधिक थी. राकेश अपने भाषण में कहीं बोल गये कि रूस की बोल्शेविक क्रान्ति बुर्जुआ क्रान्ति थी. श्रोताओं के अनेक प्रश्न इस सम्बन्ध में स्पष्टीकरण माँग रहे थे. चन्दू बिगड़ उठे कि उनके लिए ऐसे लोगों के साथ रहने में परेशानी है. तब मैंने इसी तर्क का सहारा लिया था. चन्दू भी अपने सौम्य गुस्से में कितने प्यारे लगते थे ! उद्घाटन भाषण के अन्त में एक पैराग्राफ़ वह जो हम लोगों से 'वी एम' के साथ वाले सज्जन बोल गये थे. हमारे तो हाथ के तोते उड़ गये. वी एम से हम मिले, बात की लेकिन चेहरा तक याद नहीं रह गया .

दूसरी मुलाकात उनके गृह नगर कानपुर में हुई. गृह नगर यों कि कानपुर में जहाँ उनके पिताजी रहे थे वहाँ परिवारी लोगों से मिलने शायद वे कभी कभार आया करते थे. मैं भी पार्टी के होलटाइमर के बतौर उस समय कानपुर में था. इंचार्ज के बतौर रंजीत जी उनकी देखभाल कर रहे थे. गोविन्दपुरी में एक वकील साहब के यहाँ ऊपर वे लेटे हुए थे. मैं रंजीत जी के साथ पहुँचा, वर्मा जी भी थे. तीनों किसी बात पर आँख छलछला आने की हद तक हँसते रहे. मुझसे कोई बात नहीं हुई. दूसरे दिन संदेश मिला कि रेलवे स्टेशन से उन्हें लेकर मुझे रेलवे कालोनी पहुँचाना है. वे कानपुर में रहे थे, पुलिस उन्हें खोजती रहती थी. ऐसे में यह जिम्मेदारी भी काफ़ी बड़ी लगी. मैं तय समय पर स्टेशन पहुँचा. पार्टी के समर्थक एक डाक्टर के स्कूटर पर वे आये. फिर उन्होंने सिगरेट खरीदना चाहा. मैंने सोचा विल्स. पूछा, उन्होंने कहा नहीं . बी एच यू में रहते हुए तब मैंने नई नई चलन में आई चार्म्स पी थी. उसके लिए पूछा. उन्होंने नाउ खरीदी. मुझे भी अच्छी लगी. बहरहाल, थोड़ी ही दूर जाना था. मैंने कहा रिक्शा कर लें. उन्होंने कहा नहीं, पैदल ही चलते हैं. रास्ते में उनकी साँस थोड़ी भारी सी चलती लगी. लगातार मैं बम्बई में रहनेवाले अपने बड़े भाई के बारे में बताता रहा कि उनसे पार्टी को सम्पर्क करना चाहिए. बाद में पता लगा कि अशोक जी ने उन्हें खोज निकाला. जहाँ पहुँचे वहाँ एक रेलवे सफाई कर्मचारी के के घर में भोजन का इन्तजाम है. कानपुर पार्टी के सभी कार्यकर्ता बैठे हुए थे. सबसे वे उनका काम पूछते और फिर उस सेक्टर में कहीं और पार्टी का काम कैसा चल रहा है इसकी जानकारी देते.

तभी उनकी एक खूबी का पता चला. किसी छोटी सी समस्या पर भी बात करते हुए वे उसे पार्टी नीतियों और दर्शन की ऊँचाई दे देते थे. जाने मेरे डिफ़ेन्स सेक्टर के बारे में या हरी सिंह के टेक्सटाइल के बारे में बात करते हुए वे फ़ैक्शनल वर्क की व्याख्या करने लगे. बोले- फ़ैक्शनल वर्क का यह मतलब नहीं कि आप उस यूनियन में अपने को विलीन कर लीजिए. नहीं, यूनियन का नेतृत्व तो गद्दार, समझौतापरस्त लोगों के हाथ में है. लेकिन वे मजदूरों की समस्या पर संघर्ष का आवाहन करते हैं. उन्हें अपनी नेतागिरी चलाने के लिए भी ऐसा करना पड़ता है. संघर्ष के दौरान हमारे साथियों को जुझारू लोगों की एक टीम के बतौर दिखना चाहिए. ताकि जब स्थापित नेतृत्व संघर्ष से भागे तो मजदूर आपकी ओर आकर्षित हों. इसमें दुस्साहसिकता की भी जरूरत नहीं है. इसी तरह धीरे धीरे आप यूनियन के नेतृत्व पर काबिज होंगे.

तीसरी बार मुलाकात बनारस में हुई. मँड़ुवाडीह में हीरालाल के घर पर शम्भू जी, वर्मा जी और वी एम थे. शम्भू जी का चश्मा मुगलसराय में एक साथी के यहाँ छूट गया था. वही लेने मुझे जाना था. लेकर देने गया. समय नहाने का था, लोग वी एम से जिद कर रहे थे- आप भी नहा लीजिए. फिर उनके नहाने में संकोच को लेकर हँसी मजाक होने लगा. उन्होंने कहा गलत बातें तेजी से फैलती हैं. तभी लुंगी के ऊपर गमछा लगाकर नहाते हुए पहली बार किसी को देखा. हीरालाल ने कोई फ़िल्मी डायलाग बोला तो बोले अगर कोई दो चार हिन्दी फ़िल्में देख ले तो वह दार्शनिक अवश्य हो जाता है. तभी उनका अंग्रेजी हस्तलेख भी देखा था.

चौथी बार भेंट दिल्ली में हुई . आई पी एफ़ की पहली विशाल रैली खत्म हुई थी. रैली के इन्तजाम में मैं चार दिन लगा रहा था. एकाध दो दिन बाद आई पी एफ़ दफ़्तर पहुँचा. दीपांकर की जैसी आदत है कुछ हलकी फुलकी गप्प होती रही. इस बीच लगातार वी एम बाहर भीतर दिखाई देते रहे. मैं संकोच में नमस्कार न कर सका . रात के ग्यारह बजे हम और दीपांकर जी बाहर जे एन यू के बारे में बात कर रहे थे. अचानक वे आये. बोले- आप, गोपाल प्रधान ?' मैंने कहा- जी और फिर नमस्कार किया. बोले- पहचान रहे हैं ?' मैंने कहा- 'हाँ, लेकिन इस संकोच में था कि शायद आप न पहचान रहे हों.' बोले- 'चेहरे से तो नहीं लेकिन आवाज से पहचान गया.' फिर बैठ गये, मैं भी नया नया जे एन यू गया था . हिन्दी पढ़ने वाला वैसे भी वहाँ बाहरी तमाम ही होता है . वहाँ के वातावरण और रैली के असर के बारे में बताने लगा . दीपांकर जी उत्साह से उठे 'चाय पीते हैं' . फिर चाय पीते हुए बातें होने लगीं. कुछ क्षमा याचना मैंने की. बोले- 'नौजवान ही क्या जब जिन्दगी एक सीध में बीत जाय . सक्रिय होना वापस होना तो लगा ही रहता है.' एक क्षण में मैं समूचे अपराध बोध से मुक्त हो गया. एम- एल ग्रुपों के छात्र संगठन डी आर एस ओ की बात आई. उनके अराजकतावाद के कारण ही मैं भी उसमें शामिल नहीं हुआ था. उनके एक नेता प्रकाश देव सिंह राष्ट्रीयताओं की मुक्ति के अनन्य समर्थक थे. भोजपुरी भाषियों को भी राष्ट्रीयता मानते थे और उनके स्वतंत्र राष्ट्र के लिए आन्दोलन चलाना चाहते थे. वी. एम. ने ऐसी साहसिक टिप्प्णी की कि आज भी भूल नहीं पाता. 'पागल है क्या ?' मैं अवाक. फिर व्याख्या करने लगे- 'अरे, कोई खालिस्तान की, कश्मीर की बात करे तो समझ में आता है. किन्ही देशों के साथ इनकी सीमाएं लगती हैं. लेकिन भोजपुरी क्षेत्र के साथ तो ऐसा भी नहीं है.' मुझे लगता है मार्क्सवाद के नाम पर बेचे जा रहे इस तरह के अराजकतावादी नुस्खों से उन्हें भयंकर चिढ़ थी और वे समस्याओं के प्रति बेहद ठोस नजरिया अपनाते थे. उनकी इस खूबी को एक बार फिर मैंने लखीमपुर में प्रेस कांफ़रेंस में देखा. चीन का सवाल, पाकिस्तान का सवाल, तिब्बत का सवाल- सब पर बेहद व्यावहारिक और ठोस दृष्टिकोण.


फिर पटना. आइसा के पार्टी कोर की बैठक में भाग लेने का निमंत्रण मिला. गणेशन जी ने कहा - इट्स ए रिस्पांसिबिलिटी. मैंने कहा भुवना से- णेशन वाज सेइंग इट्स ए रिस्पांसिबिलिटी बट आई वुड लाइक टु एक्सप्लेन इट ऐज ऐन अपार्चुनिटी . दो दिनों तक लगातार वी एम के साथ मीटिंग में रहा. वर्मा जी भी थे. पटना के किसी मध्यवर्गीय पार्टी समर्थक के घर बैठक थी. इरफ़ान ने कांग्रेस की प्रचार फ़िल्म का एक कैसेट दिखाया. विष्णु राजगढ़िया को इस बात का अफ़सोस रहा कि वे अगर बैठक में होते तो बहुत सारी बातें लिख ले सकते थे.

मैं जे एन यू में नई नई स्कालरशिप के कारण कुछ सजा धजा था. कुछ अतिरिक्त चंचलता वैसे भी थी. भोजन को लेकर बहुत उत्साहित रहता था. अव्यवस्था फैलाने की मेरी कोशिशों को वी एम बहुत धीरज से काबू में कर लेते. दाल मेरी प्लेट में है तभी दूर दाल के भगौने की ओर हाथ बढ़ाता . वी एम भगौना उठाकर मेरी ओर बढ़ा देते. मैं सिगरेट को लेकर कुछ बोलने की सोचता. वी एम अपनी डिब्बी सरका देते. देर रात तक बैठक चलने के बाद लोग सोने की कोशिश करते होते. मध्यवर्गीय घरों में देर रात शोर करना वैसे भी बुरा माना जाता है. मैं और कमलेश किसी और को जबर्दस्ती जगाने की फ़िराक में होते. तभी वी एम उठकर बात करने लगते. मैं इसे उनकी अतिरिक्त सावधानी समझता रहा. बाद में छपे संस्मरणों से जाहिर हुआ कि अपनी सुविधा पर दूसरे को तरजीह देना उनकी आदत में शुमार था. उन्होंने वहीं कहा- चालीस के ऊपर पहुँचकर आदमी दुनिया को ज्यादा स्थिर ढंग से देखने लगता है. उस बैठक में ही आइसा का केन्द्रीय कार्यालय दिल्ली लाने का फ़ैसला किया गया. धीरेन्द्र जी को इस काम को अंजाम देना था. उनसे मजाक करते हुए वी एम ने कहा- कुछ हेल्थ बनाइए, वर्ना आप तो कालाहांडी के प्रतिनिधि लगते हैं. मुखपत्र की बात आई . लाल बहादुर जी को इलाहाबाद से अंग्रेजी मुखपत्र निकालना था. वे अमरेश या पंकज मिश्रा को इसकी जिम्मेदारी सौंप चुके थे और कह रहे थे कि वहीं कुछ समस्यायें हैं. वी एम ने कहा- 'साथी, ध्यान देकर देखियेगा. समस्या कहीं आपके भीतर होगी. अन्यथा दूसरे को आप संपादन क्यों सौंपते.' कमलेश ने बताया कि बिहार में आइसा के प्रदर्शन की तैयारी हो चुकी थी लेकिन राज्य कमेटी ने उसे रोक दिया. वी एम ने पार्टी के भीतर जनवादी केन्द्रीयता के संचालन संबंधी दिक्कतों को व्याख्यायित करना शुरू किया- "शायद कम्युनिस्ट पार्टी के संगठन के भीतर ही कुछ ऐसी समस्या है, लेकिन इसके अतिरिक्त इसका कोई हल नहीं कि धीरज के साथ आप अपनी स्थिति से नेतृत्व को अवगत कराइए . इसीलिए हमारी पार्टी में किसी भी सदस्य को उच्चतम पार्टी मंच तक अपनी बात रखने का अधिकार दिया गया है." संभवतः उसी बैठक में उन्होंने आइसा की सम्भावनाओं को समझ लिया था .


 इसी तरह मुखपत्रों के बारे में बोलते हुए उन्होंने कहा- सभी पत्रिकाओं को लिबरेशन की तरह नहीं हो जाना चाहिए. वह एक सैद्धांतिक पत्रिका रहे लेकिन बाकी पत्रिकाओं को रोचक होना चाहिए. इसी प्रसंग में उन्होंने आसा न्यूज का नाम लिया . हमारी पार्टी के भीतर वी एम की प्रतिष्ठा बहुत थी. जिस तरह उनकी बात को ही तकरीबन निर्णय समझा जाता था उसमें मुझे लगा कि कोई आईना कैसे देखता होगा. पार्टी के विकास के लिए संभवतः वे खुद ही आईनों की भी तलाश करते थे. बंगाल के संबंध में वे कोई सुझाव दे रहे थे. अनिंद्य बोल उठे-मेनी कामरेड्स टेक इट ऐज ए डाइल्यूशन आफ़ आवर पार्टी पोजीशन. तब वी एम ने सी पी एम से लड़ाई की कार्यनीति पर लंबा वक्तव्य दिया- "अगर आपका दुश्मन जमीन पर है तो आप हवा में रहकर उससे नहीं लड़ सकते. सही, वास्तविक लड़ाई लड़ने के लिए आपको भी जमीन पर उतरना पड़ेगा. सेकंड सी सी से अधिक तीखी आलोचना सी पी एम की और कौन कर सकता है. लेकिन वे सी पी एम का कुछ नहीं बिगाड़ सकते. सी पी एम के भीतर जो विक्षुब्ध हैं उन्हें हमारी आलोचना सुनाई पड़नी चाहिए. इस तरह तो हम आलोचना कर रहे हैं लेकिन उन्हें हमारी भाषा ही नहीं समझ में आती. सी पी एम का जो सैद्धांतिक ढाँचा था वह सोवियत रूस के बिखरने के बाद तहस नहस हो चुका है. इसले उनके भीतर वैचारिक विभ्रम बढ़ेगा. यह विभ्रम सैद्धांतिक विवादों के रूप में ही सामने आये यह आवश्यक नहीं है. वह तमाम तरह के रूप पकड़ेगा. अतः हमें भी अपनी पोजीशन थोड़ा डाइल्यूट करके जमीन पर उतरना पड़ेगा ताकि इस परिस्थिति का फ़ायदा उठा सकें. बंगाल में पार्टी के मुख्य काम, किसान फ़्रंट, के बाद सबसे अधिक ध्यान छात्र फ़्रंट पर दिया जाना चाहिए." लगता था जैसे कोई रेल की पटरी से कान लगाकर आती हुई गाड़ी की आवाज सुनने की कोशिश कर रहा है . ऐसे थे हमारे कामरेड वी एम !

कलकत्ता में उनके गुप्त जीवन का खात्मा हुआ और कलकत्ता रैली के बाद जे एन यू आइसा को इस बात का सौभाग्य मिला कि उसके प्रथम कैंपस सम्मेलन का उद्घाटन वी एम ने किया. आने में देर हो रही थी. राधेश्याम वगैरह गेट पर खड़े होकर उनका इंतजार कर रहे थे. वे आए, लाल सलाम के नारों के बीच सीधे मंच पर चढ़े. चंदू ने उनका स्वागत भाषण देना शुरू किया. उन्होंने धीरे से मुझसे पूछा कौन हैं मैं बताता रहा. फिर माइक की ओर बढ़ते हुए पूछा 'अंग्रेजी में ?' मैंने कहा 'एकदम' . बहुत थोड़ी देर, तकरीबन पाँच मिनट बोले. पार्टी बैठकों में बोलने की आदत अभी बनी हुई थी. धीमी आवाज में बिना स्वर ऊँचा किये लेकिन मंच का दबाव संक्षेप का कारण बन गया. मेरी समझ में तो कुछ नहीं आया. धीरे धीरे ही वे बाद में मंच के साथ सहज हो पाये. फिर पटना में आइसा के पार्टी कोर की बैठक हुई. तब अखिलेंद्र भाई और वे बैठक में रहे. लोग भी अधिक थे. मैं दो बार चुनाव लड़ चुका था. वी एम जे. एन. यू. में संगठन के विकास पर नजदीक से ध्यान दे रहे थे. पहली बैठक में ही उन्होंने कहा था- 'पार्टी के जितने नेताओं को आप लोग सभाओं में बुलाना चाहते हैं उनकी सूची बनाकर वर्मा जी को दे दीजिए. हवा में चुनाव नहीं जीते जाते. उनकी योजना बनानी पड़ती है.' बहरहाल अध्यक्ष पद के लिए दो विकल्प थे- चंदू और प्रणय. पूरी मीटिंग आधे आधे में बँटी हुई थी. पार्टीवादी लोग चंदू के पक्ष में थे, आइसा के लीडरान प्रणय के पक्ष में. लेकिन जो प्रणय के पक्षधर थे वे लोग कुछ बातों को छिपाकर अन्य चीजों को उभार रहे थे. वी एम बोले- "हमें चुनाव में प्रत्याशी जीतने के लिए ही लड़ाना चाहिए. लेकिन प्रत्याशी के बारे में मूल्यांकन वस्तुगत रखना चाहिए. तभी हम उसे पार्टी की मुख्यधारा से जोड़ने का काम गंभीरता से कर पायेंगे. किसी को प्रत्याशी बनाने के लिए लीपापोती करने की जरूरत नहीं है. उसके जीतने की संभावना ही इसके लिए काफ़ी है. लेकिन माना जाय कि वे अभी किनारे पर खड़े हैं तभी पार्टी के साथ उन्हें एकरूप भी किया जा सकेगा." और प्रणय का नाम तय हुआ. फल सबने देखा.

दिल्ली में रहते हुए मुलाकातें बहुतेरा होती रहीं. आइसा द्वारा आयोजित एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में अरविंद नारायण दास के साथ किस आत्मविश्वास से टहल रहे थे ! बाद में तो दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों की सभाओं को भी संबोधित करना शुरू कर दिया था. लेकिन सबसे मजेदार वाकया था दिल्ली का राज्य सम्मेलन. जे एन यू आइसा में फूट के बीज तब तक पड़ चुके थे. नारों को ही पकड़कर लटके रहने वाला एक जड़सूत्रवादी लफ़्फ़ाज गुट अस्तित्व में आ चुका था जिसमें पार्टी के भी कुछ लोग थे. दिव्यराज मंच पर चढ़े और उत्साह में बोल गए- 'हम लोगों ने नारा दिया है- मेक जे एन यू ए रेवोल्यूशनरी सेंटर आफ़ इंडियन स्टूडेंट मूवमेंट .' वी एम ने अपने समापन भाषण में अन्य प्रसंगों के साथ इसको भी पकड़ा . "एक साथी ने कहा कि जे एन यू को भारतीय छात्र आंदोलन का क्रांतिकारी केंद्र बना दो. लेकिन पिछले दिनों हुए सम्मेलन में पूरे भारत के छात्र जब अपने क्रांतिकारी केंद्र की एक झलक देखने के लिए पहुँचे तो उन्हें बड़ी निराशा हुई. न खाने का इंतजाम न ठहरने का इंतजाम. तो भावना अच्छी होने के बावजूद अगर ठोस काम न किया गया तो इरादे हवाई रह जाते हैं."

एक और वाकया. दिल्ली से चलते चलाते की आखिरी लंबी मुलाकात थी . 'इंडियन इंस्टीच्यूट आफ़ मार्क्सिस्ट स्टडीज' की बैठक दिल्ली में हुई . बी बी पाण्डे ने जगह के लिए जे. एन. यू. सिटी सेंटर कहा . मैंने बुक करा दिया . उन्होंने कहा तो मैं फिर से प्रबंधकीय जिम्मेदारी निभाने के लिए तैयार हो गया. अरविंद नारायण दास ने इस बैठक में डी. डी. कौशाम्बी की किताब के आधार पर बनाए गये सीरियल की तीन चार कड़ियाँ दिखाईं. बैठक में ही मैंने देखा कि शिवरामन से माँगकर वे सिगरेट पीने लगे हैं. शायद कम करना शुरू कर चुके थे. इंस्टीच्यूट क्या करेगा इसके संबंध में बड़ी बड़ी योजनाएँ साथी लोग बता रहे थे. कोई कह रहा था कि पार्टी में क्लासें आयोजित करना इंस्टीच्यूट की जिम्मेदारी होनी चाहिए. इस पर हस्तक्षेप करते हुए उन्होंने कहा- 'अनेक कम्युनिस्ट पार्टियों को हम अपने सामने स्टडी सर्किल्स में रूपांतरित होते देख रहे हैं. इसलिए इस संबंध में थोड़ी सावधानी बरतनी चाहिए. अध्ययन कक्षाएँ चलाना पार्टी की जिम्मेदारी है और वह चलाएगी. इस इंस्टीच्यूट का गठन पार्टी ने एक विशेष मकसद से किया है. कुछ ऐसे सवाल हैं जो नये हैं और जिन पर पार्टी और पार्टी के बाहर के बुद्धिजीवी समान रूप से चिंतित हैं. निश्चय ही उनका जवाब हमें शास्त्रीय मार्क्सवाद के भीतर ही खोजना है. लेकिन इस प्रयास में कुछ विशेष साथियों और पार्टी के दायरे के बाहर के बुद्धिजीवियों को अतिरिक्त रूप से लगना होगा . पार्टी के सामने कुछ सवाल हैं और उनका उत्तर खोजने में इंस्टीच्यूट को पार्टी की मदद करनी चाहिए . पार्टी शिक्षा का सवाल एक अलग सवाल है.' इस तरह आई आई एम एस की भूमिका तय हुई. इसी बैठक में अखिल भारतीय स्तर पर कुछ सेमिनारों की शृंखला आयोजित करने का निर्णय हुआ. सेमिनार के विषयों के बतौर जब एस गोपाल ने चुनाव संबंधी मार्क्सवादी नीति को शामिल करने का प्रस्ताव किया तो वी एम ने कहा कि यह विवाद हल हो चुका है. जिन्हें भाग लेना है उनके  लिए भी और जिन्हें बहिष्कार करना है उनके लिए भी . एस गोपाल ने कहा इट्स स्टिल ए बर्निंग क्वेश्चन. दीपांकर तपाक से बोले आलरेडी हाफ़ बर्न्ट. एक पुस्तिका जब उन्होंने 'सांप्रदायिकता और धर्म निरपेक्षता' विषय पर प्रस्तावित की तो एक साथी इस सवाल पर सामाजिक न्यायवादी खेमे में बहस को ले जाते हुए वैकल्पिक नाम सुझाने लगे. वी एम ने दुबारा अपनी बात पर जोर दिया- नहीं, प्रश्न इसी रूप में उपस्थित हुआ है और इसी रूप में हमें उसे संबोधित करना चाहिए.

पार्टी के विलयन/विखंडन के हर छोटे से खतरे के प्रति भी अत्यंत सचेत, शास्त्रीय मार्क्सवाद की सैद्धांतिक बरतरी में अटूट विश्वास और प्रत्येक वैचारिक विचलन में हस्तक्षेप- ये उनके व्यक्तित्व की स्थायी खूबियाँ थीं. अंतिम बार उनसे मुलाकात लखीमपुर खीरी में हुई थी. तब उनकी आयु पचास के करीब पहुँच चुकी थी. मिलते ही बोले- 'और ? पैसा वैसा तो ठीक ठाक मिल रहा होगा ?' मैं पुवायां में पढ़ाने लगा था . नई नई नौकरी में पैसे लगते भी ज्यादा थे. हाँ कहने पर बोले कुछ करिए. वही कुछ करने की आशा अब भी बनी हुई है.

लखनऊ में सी सी की बैठक होने जा रही है यह मुझे पता था. मीटिंग के इंतजाम के लिए कुछ पैसे भी अरुण जी ने माँगे थे . एक सुबह देर से उठकर नीचे अखबार उठाने गया तो आधा मुड़े अखबार पर उनकी फ़ोटो छपी थी. खबर पढ़ने के लिए पन्ना खोला तो सन्न रह गया. तुरंत लखनऊ फ़ोन किया. पता चला दस बजे लोग बनारस निकल जायेंगे. बनारस से दूसरे दिन सुबह पटना के लिए निकलेंगे. लखनऊ पहुँच पाना संभव नहीं था. शाहजहांपुर रेलवे स्टेशन पर पता चला सभी गाड़ियाँ देर से चल रही हैं. सुबह तक बनारस पहुँचने की भी संभावना न रही. पूरब की तरफ़ मुँह घुमाकर दूर से ही अंतिम विदाई दी और घर लौट आया.

जिंदगी में बहुतों से मुलाकात होती रहती है लेकिन मुझे गर्व है कि मेरी मुलाकातें कामरेड विनोद मिश्र से भी होती रही हैं. वे भी बहुतों को खोते रहे थे. उनकी पूरी जिंदगी ही साथियों के एक समूह का निर्माण और फिर उनसे अलग होने का इतिहास बन गयी थी.                        









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  1. का. विनोद मिश्र के व्यक्तिव की विशेषताओं की संक्षिप्त रूपरेखा इस संस्मरण में देखने को मिली ! गोपाल प्रधान जी इसके लिए बधाई के पात्र हैं और अरुण देव जी धन्यवाद के !

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  2. मैं कामरेड विनोद मिश्र से कई बार मिला हूं. राजू जी के रूप में तो कभी पहचान नहीं पाया. उनके खुले में आने के बाद विनोद मिश्र के रूप में एकबार बेरमो में प्रेस कॉन्फ्रेंस में मिला तो पता चला कि राजू जी ही विनोद मिश्र थे. अद्भुत व्यक्तित्व था उनका. सवाल पूरा होने के पहले ही जवाब हाजिर. हम उन्हें कंप्यूटरमैन कहते थे. उनका जाना वाम आंदोलन के लिए एक बड़ा झटका था. उनकी कमी खलती है. आपके पोस्ट ने भूतकाल की बहुत सी खिडकियां खोल दीं. शहीद विधायक महेंद्र सिंह की याद भी ताज़ा हो गयी.
    ----देवेंद्र गौतम

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  3. बेनामी23 मई 2011, 3:41:00 pm

    yade kavi khatam nahi hoti. kamred ko yad karna avi ke samay ki sab se bari jrurat hai. waise samay me jab marxwad ko irlevant kaha ga raha ho.

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  4. गोपाल जी ने अरुण जी को बहुमूल्य जवाहरात भेंट किये है, समालोचन निश्च्य ही ऐसी कृतियों से विशिष्टताओं के शिखर पर पहुंचती है.एक सांस में सारा लेख पढ गया और खो गया अपने अतीत में, कई घटनायें, सम्मेलन, रैलियों का जिक्र जहां किया गया है, उनसे मैं भी जुडा रहा था, मुझे गर्व होता है कि मैं वी.एम. के नेतृत्व वाली एम.अल. का कार्ड धारी पूर्णकालिक सदस्य रहा हूँ. आप दोनों को इसके लिये दिल से बधाई..सादर

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  5. Wah...Gopal Pradhan ne ek achha kam kiya hai...Peechhe mur kar dekhta hun to unke sath guzare pal yad ate hain...

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  6. पुष्पेन्द्र फाल्गु25 मई 2011, 5:49:00 pm

    तभी उनकी एक खूबी का पता चला. किसी छोटी सी समस्या पर भी बात करते हुए वे उसे पार्टी नीतियों और दर्शन की ऊँचाई दे देते थे. जाने मेरे डिफ़ेन्स सेक्टर के बारे में या हरी सिंह के टेक्सटाइल के बारे में बात करते हुए वे फ़ैक्शनल वर्क की व्याख्या करने लगे. बोले- फ़ैक्शनल वर्क का यह मतलब नहीं कि आप उस यूनियन में अपने को विलीन कर लीजिए. नहीं, यूनियन का नेतृत्व तो गद्दार, समझौतापरस्त लोगों के हाथ में है. लेकिन वे मजदूरों की समस्या पर संघर्ष का आवाहन करते हैं. उन्हें अपनी नेतागिरी चलाने के लिए भी ऐसा करना पड़ता है. संघर्ष के दौरान हमारे साथियों को जुझारू लोगों की एक टीम के बतौर दिखना चाहिए. ताकि जब स्थापित नेतृत्व संघर्ष से भागे तो मजदूर आपकी ओर आकर्षित हों. इसमें दुस्साहसिकता की भी जरूरत नहीं है. इसी तरह धीरे धीरे आप यूनियन के नेतृत्व पर काबिज होंगे

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  7. रोचक संस्मरण. राजनीतिक संस्मरण भी, इतिहास भी और रेखाचित्र भी.

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