परख और परिप्रेक्ष्य : बाज़ार और साहित्य



बाजार और साहित्य
प्रभात कुमार मिश्र


साहित्य

आज का हिन्दी समाज एक ऐसा समाज है जिसमें एक तरफ वैश्वीकरण का शोर है तो दूसरी तरफ स्कूलों की ढहती इमारतें हैं, एक तरफ चमक, दमक और ऐश्वर्य है तो दूसरी तरफ पेट भरने की जुगत में पिसती अधिसंख्य आबादी है, एक तरफ ब्रांडेडडेड फैशन और उसके प्रचार में लगी विशालकाय होर्डिंगें हैं तो दूसरी तरफ उन्हीं चौराहों पर मजदूरों की फौज काम की तलाश में मानो उन्हीं होर्डिंगों का मुंह चिढा रही हो, एक तरफ गरीबों के सरकारी कोश से अरबों का गबन है तो दूसरी तरफ अमीरों के बटुए भी मारे जा रहे हैं, एक तरफ संस्कृति की रक्षा के नाम पर कलात्मक प्रदर्शनियां हैं तो दूसरी तरफ लोकगीत गानेवाले कलाकार गुमनामी के अंधेरे में खोते जा रहे हैंए एक तरफ साहित्य में शाश्वत और सार्वभौम का छल है तो दूसरी तरफ क्रांति के मोहक सपने भी.......

यह कहना कुछ लोगों के लिए असुविधाजनक तो हो सकता है लेकिन दुःख इस बात का है कि इस बात को लेकर किसी को भी अफसोस नहीं है कि आज के साहित्य का नियंता बाजार बन चुका है. बहुत विस्तार में न भी जाएँ तो अब यह समझना मुश्किल नहीं है कि बाजार जिसमें एक ही नियम चलता है खरीदने और बेचने का. इस वजह से साहित्य की दुनिया भी बिल्कुल एकरस हो गई है. बाजार के प्रतिकूल प्रभाव से साहित्य और संस्कृति की दुनिया में व्याप्त अनेकरूपता और विशिष्टता का लोप हो गया है और एक नीरस एकरूपता कायम है जिससे नई रचनाशीलता कुंद होती है. और सब बातों को छोड़ भी दें तो केवल साहित्यिक विधाओं की वर्तमान स्थिति से इसे बेहतर समझा जा सकता है. कविता कि सार्थकता और निरर्थकता को लेकर जितना सवाल आज खड़े किए जा रहे हैं उनसे कविता मात्र पर संकट गहरा रहा है. यूँ ही नहीं है कि आज के प्रायः सभी कवि अपनी कविता में कविता के ही जीवित बचे रहने की घोषणा करते दिखाई पड़ते हैं. मार्क्स ने कहा भी था कि पूंजीवादी उत्पादन कला और कविता का दुश्मन है. वस्तुतः आज के हिन्दी समाज में कविता के सामने एक बड़ा संकट संस्कृति के उद्योग का विस्तार है. संस्कृति के उद्योग से उपभोग की संस्कृति विकसित होती है और उपभोग की संस्कृति केवल उपभोग की वस्तुएं ही पैदा नहीं करती बल्कि उपभोग की इच्छा भी पैदा करती है. इसी कारण से आजकल कविता जैसी विधा सांस्कृतिक जीवन के हाशिये पर जीने को मजबूर है.

कहानी और उपन्यास का क्षेत्र आज भी अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित है क्योंकि उसमें पूंजीवादी सभ्यता और उपभोग की संस्कृति के अनुरूप रोमांस, उत्सुकताए आश्चर्य और उत्तेजना के लिए अधिक अवकाश है. जहाँ तक नाटकों की बात है तो यह दो टूक लहजे में कहा जा सकता है कि आज नाटक नहीं लिखे जा रहे हैं. बाजार और बाजार की संस्कृति की सबसे ज्यादा मार नाटकों पर ही पड़ी है और पूंजीवादी सभ्यता की प्रतिनिधि कला फिल्म के सामने वह कहीं भी नहीं टिक पा रहा. संभवतः इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण पूंजीवादी सभ्यता से इसके अनिवार्य विरोध में निहित है. वस्तुतः नाटक सामूहिकता की अपेक्षा करता है, जिसमे विभिन्न कलाओं का आपसी संयोग होता है और इन कारणों से वह स्वभावतः ही लोकतान्त्रिक होता है. अब किसी लोकतान्त्रिक स्वाभाव की विधा का पूंजीवादी अधिनायकतंत्र में कैसे गुजारा हो सकता है.

यह नही है कि इसका प्रभाव केवल रचना पर पड़ा है बल्कि आज की हिंदी आलोचना भी इन विपरीत परिस्थितियों से अछूती नहीं है. आज के हिन्दी आलोचकों के बारे में यह आम धारणा है कि जो कविता, कहानी, उपन्यास आदि नहीं लिख सकता और लेखक कहलाना चाहता है वही आलोचना के क्षेत्र में आता है. आज आलोचना की एक निश्चित सी शब्दावली हो गई है. मिटटी से जुडाव, द्वंद्व, टकराव, संघर्ष, सामंजस्य, जिजीविषा, व्यापकता, सरोकार आदि . जिसके मध्यम से हम आलोचना के असामाजिक हो जाने का सहज ही अनुमान कर सकते हैं.

साहित्यकार

आज के हिन्दी समाज में साहित्यकारों की स्थिति का अनुमान करने के लिए आइये जरा एक नजर उनकी आमदनी के श्रोतों पर डालें. दरअसल कोई भी सच्चा लेखक अपने लेखन को केवल जीविका का साधन नहीं समझताए लेकिन उसे लिखने के लिए जीने की जरूरत तो होती ही है. इसलिए उसे जीविका के साधन की भी आवश्यकता पड़ती है. हिन्दी समाज जो इन दिनों अपने आर्थिक पिछडेपन के बावजूद कुल मिलाकरए कम से कम पढ़े-लिखे तबके में ही, जैसे हो वैसे धन कमाने की अंधी दौर में शामिल है, वह इस बात की रत्ती भर भी चिंता नहीं करता कि उसके साहित्यकारों का प्रतिदान इतना कम क्यों है, जिस समाज के प्रति जिम्मेदारी का साहित्य में लगभग मानदंड के रूप में इस्तेमाल किया जाता है उसी समाज को न तो साहित्य में रूचि है, न ही उसके रचनेवालों की कोई परवाह.

साहित्यकारों के कल्याण, आवास, पेंशन, सामाजिक सुरक्षा, रोयल्टी आदि को लेकर न तो समाज की दिलचस्पी है न ही लेखक संगठनों में चिंता है और न ही सरकारी एजेंशियों को. आज कि स्थिति यह है कि प्रायः सभी अन्य कला माध्यमों. चित्रकलाए संगीत, नृत्य, मूर्तिशिल्प, के मुकाबले साहित्य में रायल्टी और पारिश्रमिक बेहद धीमी रफ़्तार से बढे हैं. इसका एक और दुखद पहलू यह है कि अंग्रेज़ी में लिखने से अधिक रूपया मिलता है यह हिन्दी जगत की सामान्य समझदारी है. भारत के ही कुछ अंग्रजी लेखकों को, जिनमे से कुछ को छोड़कर अधिकांश अन्य भाषाई लेखकों की तुलना में खासे मीडियाकर ठहरते हैं. को भी लाखों की अग्रिम रायल्टी मिल जाती है जबकि हिन्दी के बड़े लेखकों को भी यह नसीब नहीं. आज के अधिकांश साहित्यकार जीवनयापन के लिए कुछ.न.कुछ और करने पड़ मजबूर हैं क्योंकि केवल साहित्य लिखकर इतना नहीं कमाया जा सकता कि गरिमा और सुविधा के साथ जीवन यापन किया जा सके. इस समस्या का नैतिक आयाम यह है कि साहित्यकार जाने.अनजाने ऐसे.वैसे समझौते करने और चुप्पियाँ बरतने के लिए मजबूर हो जाता है.

प्रकाशन

साहित्य और साहित्यकार की स्थिति को प्रभावित करनेवाला एक प्रमुख कारक प्रकाशन व्यवसाय है. इसलिए साहित्य और साहित्यकार की स्थिति का विवेचन प्रकाशन व्यवसाय की चर्चा के बिना अधूरा ही रहेगा. प्रकाशकों का सारा ध्यान आज किताबों को जैसे-तैसे बेचने पर है इसलिए जाहिर है बाज़ार में बिकनेवाली किताबों को ही छापने पर है. प्रकाशकों के बीच से इस सवाल का अब कोई औचित्य नहीं रह गया हैए या कहें कि उसका दायरा बहुत छोटा हो गया है कि वे क्या छापने जा रहे हैं. आज इस सवाल का मतलब उनके लिए बाज़ार में चलनेवाली है कि नहीं इसी तक सीमित हो गया है. इतना ही नहीं कई बार तो प्रकाशक ही यह भी तै कर देते हैं कि बाज़ार में कौन सी किताब बेचीं जायेगी. इस मामले में प्रकाशकों के एकाधिपत्य का आलम यह है कि लेखक-रचनाकार पहले तो किताब लिखेए फिर उसे छपवाने के लिए प्रकाशकों के पीछे दौडे, यहाँ तक कि पैसा भी ख़ुद ही लगाए और छप जाने के बाद लेखक ही उसके बेचने की व्यवस्था भी करे. इस भीषण चक्रव्यूह में घिरे रचनाकार से हम किस नैतिकता के तहत छल-छद्म से लड़ने और समाज के कदम से कदम मिलाकर चलने की और समाज कि चिंता ही करने की अपेक्षा कर सकते हैं.

प्रकाशकों की सबसे बड़ी चिंता सरकारी संस्थाओं द्वारा किताबों की थोक में खरीद से सम्बंधित है. यह कहने में कोई हर्ज़ नहीं है कि कई किताबों को तो छापा ही इसलिए जाता है कि उन्हें पुस्तकालयों में खपाया जा सके. और तो और प्रकाशक ही लेखकों के पास अब यह प्रस्ताव भी भेजने लगे हैं कि अमुक तारीख तक आप इस विषय पर एक किताब लिख दीजिये, अभी इसका मार्केट है और ऐसे लेखकों कि भी कमी नहीं है जो प्रकाशक के निर्देशानुसार तै समय पर सामग्री उन्हें उपलब्ध करा देते हैं. मानो किताब न होकर कोई माल हो. जब भी कोई चर्चित वाकया होता है तो उस विषय पर तुरत ही किताबों की लाईन लग जाती है.







हिन्दी विभाग, असम विश्वविद्यालय, सिलचर
BHU और JNU से उच्च शिक्षा
आलोचना, कथादेश, साखी, आदि में लेख

ई – पता : prabhat432@gmail.com


2/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. एक समीचीन लेख .. साझा करने के लिए शुक्रिया ..

    जवाब देंहटाएं
  2. देखिए ज्यादातर लोग जब भी कोई सभ्यतागत नए पड़ाव पर इतिहास पहुँचता है और चीजें बदलना शुरू हो जाती हैं तो लगते हैं विधवा-विलाप करने कि हाय अब तो पुराना अर्जित और संचित को तो काठ मार जाएगा। वह तो बचेगा ही नहीं। पेन आया तो पेंसिल को खतरा, पेन ड्राइव आया तो डीवीडी का अंत इत्यादि...इत्यादि। यही डर सिनेमा-सीरियल से साहित्य को पहुँचने को लेकर महसूस किए गए और यही कमतर भरोसा अपने लिखे हुए पर बाजार के सूचना-संचार प्रौद्योगिकी और पूंजी की पीठ पर सवार होकर आ धमकने के बाद भी देखा गया। वे भी क्या दिन थे जब स्व.राजीव गांधी के कंप्यूटरीकृत तसव्वुर की हमारे आर्थोडाक्सी माइंडसेट ने न जाने कितनी आलोचनाएँ करवाईं। लेकिन आज नजारा बदल गया। इंटरनेट विचारधाराओं की भाषा का एक अद्भुत संचार बन गया है। यह कैसे एक साहित्य विरोधी साइबर रच सकता है। ऐसे ही बाजार है। बाजार मार्क्सवादी व्याकरण से पूंजी का रक्तबीजी उपज है। यह मुनाफे का विस्फार है। यह पुराने शोषण का नया मोहजाल है। यह सांस्कृतिक निरक्षरता का घोर मल्टीप्लेक्सवादी विज्ञापन है। कोई शक नहीं कि ऐसे बाजार के इंद्रजाल में साहित्य के लिए स्पेस की कमी लगातार बढ़ती जा रही है। इसलिए ऐसा विलाप होता रहेगा मानो साहित्य का जनाजा निकल गया हो। Alvin Kernan की एक किताब़ है - The Death of Literature। इसमें प्रोफेसर केर्नेन इस संकट की पड़ताल करते हुए बता रहे हैं कि कैसे प्रौद्योगिकी क्रांति के साए में सभ्यता का प्रयाण मुद्रण से इलेक्ट्रॉनिक संस्कृति की तरफ बड़ी तेजी से हुआ है। कैसे लिखित शब्द की सत्ता को टेलीविजन, फिल्म, कंप्यूटर स्क्रीन से घनघोर चुनौती मिल रही है। वे साहित्य को प्रासंगिक बने रहने की समस्याओं को सुलझाने के कुछ सूत्र भी हमें थमाते हैं।

    मैंने श्री प्रभात मिश्र भाई का लेख पढ़कर ही अपना पक्ष रखा है। उन्होंने साहित्य, साहित्यकार और प्रकाशन की बाजारवादी दबावों के संदर्भों में बड़ा सधा हुआ विश्लेषण प्रस्तुत किया है। मैं उनका ख़ैरमकदम करता हूँ। बहुत अच्छा प्रभात जी। बधाई..........। अरुण जी को भी........।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.