आज के युवा ही कल के वरिष्ठ हैं. सभी क्षेत्रों की तरह साहित्य और कलाओं में भी नव पल्लव, नव रक्त चाहिए ही. कविता, कहानी की तुलना में आलोचना में सिर्फ़ नव से कुछ नहीं होता, अपार अध्ययन, अनुभव और अंतर्दृष्टि भी साथ-साथ चाहिए.
अगर हिंदी आलोचना को देखें और युवा
शब्द को बड़े अर्थों में ग्रहण करते हुए परखें तो आज हिंदी कथा के पास कुछ अच्छे ‘युवा’
आलोचक दिख जायेंगे. नारीवादी विमर्श, फिल्म-नाटक तथा कलाओं की विवेचना के क्षेत्र
में भी कुछ चहल-पहल है. दलित साहित्य पर भी लगातार लिखा जा रहा है.
कविता की आलोचना पर किसी युवा की कोई
ठीक ठिकाने की क़िताब आपको दिखी हो तो कृपया मुझे बताएं. साहित्य-सिद्धांत,
इतिहास-लेखन में अभी भी हम राह ही देख रहें हैं.
हिंदी का दलित साहित्य अब स्थापित हो
चुका है और साहित्य में उसकी भागीदारी भी दिखने लगी है. सम्पूर्णता में देखने वाली
युवा दलित आलोचना दृष्टि का वहां भी अभाव दिखता है. रजनी दिसोदिया ने विस्तार से इसकी
आवश्यकता पर यहाँ चर्चा की है और उसके विभिन्न पक्षों पर अपनी बात रखी है.
यह आलेख प्रस्तुत है.
युवा
दलित आलोचना की भूमिका
रजनी
दिसोदिया
दलित आलोचना की आवश्यकता
इस समय देश की सभी भाषाओं में बड़ी मात्रा में दलित साहित्य लिखा जा रहा है. शिक्षा और तकनीक के प्रभाव से दलित समाज की चिंतन और विश्लेषण शक्ति में जो इजाफ़ा हुआ है उससे न केवल वह साहित्य लिखने की ओर प्रवृत्त हुआ है बल्कि प्राचीन समय से अब तक लिखे जा चुके साहित्य के विश्लेषण की क्षमता और जरूरत भी उसे महसूस हो रही है. इस सबके संज्ञान के लिए दलित आलोचना का सक्रिय होना अत्यंत आवश्यक है. बल्कि इस समय दलित आलोचना की सबसे बड़ी जरूरत ही यही है कि वह दलित साहित्य और साहित्यकारों का संज्ञान ले. यहाँ संज्ञान लेने से अभिप्राय: यही है कि वह उस पर बात करे. उस पर चर्चा करे.
प्रायः
विभिन्न पत्र पत्रिकाएँ जो प्रायः मुख्य धारा की पत्र पत्रिकाएँ हैं वे यदा-कदा
दलित साहित्य के विशेषांक निकालती हैं और उनकी पहुँच में जो दलित साहित्य है उसे
प्रकाशित भी करती हैं. निश्चित ही यह कार्य सराहनीय है पर इतना पर्याप्त नहीं है. कोई
भी रचना सिर्फ़ लिख भर दिये जाने और छप जाने भर से ही स्थापित नहीं होती. उन पर बात
किये जाने, उन पर चर्चा किये जाने की जरूरत
होती है. आलोचना की नज़रें इनायत के बिना बड़ी-बड़ी रचनाएँ समय के प्रवाह में बह जाती
हैं. रचना और रचनाकार की खूबियों और खामियों पर विश्लेषण किये जाने की जरूरत होती
है. हम जानते हैं कि आलोचना रचना को स्थापित करती है. हालांकि इसका मतलब यह कतई
नहीं है कि किसी खराब या कमजोर रचना को आलोचना स्थापित कर सकती है या उसे ऐसा करना
चाहिए. जबकि आज की तथाकथित मुख्यधारा की हिन्दी आलोचना ऐसा प्रयास करती जरूर नज़र आती
है.
हिन्दी की तथाकथित मुख्यधारा की आलोचना सामान्यता दलित साहित्य और दलित साहित्यकारों पर बात नहीं करती. बहुत बार उनके द्वारा दलित साहित्य को पत्र-पत्रिकाओं में जगह दिये जाने को हम इस तरह देखते हैं कि उन्होंने दलित साहित्य को स्वीकार किया. पर यह ऐसा है जैसे बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ हिन्दी जानने वाले विशाल उपभोक्ता वर्ग तक पहुँचने के लिए हिन्दी में अपने उत्पाद का विज्ञापन बनाती हैं पर इस का मतलब यह नहीं है कि वे हिन्दी के प्रचार प्रसार की कोई मुहिम चला रही हैं. लगभग अस्सी नब्बे के दशक से ही दलित साहित्य का पाठक तेजी से बढ़ रहा है. वह अपने समाज, उसके दर्शन, संस्कृति और संघर्ष को साहित्य में पढ़ने को लालायित है. कुल मिलाकर दलित समाज का पाठक वर्ग हिन्दी पाठक वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा है.
असल में इस समय हिन्दी आलोचना के भी अपने घराने हैं. आलोचना दृष्टि और विचारधारा तो ऊपर के खोल हैं, भीतर-भीतर तो सब घराना और पार्टी पालिटिक्स चलती है. इस समय हिन्दी आलोचना के जितने भी छोटे-बड़े आलोचक हैं उनके सामने अपने-अपनों का लिखा साहित्य ही इतनी मात्रा में मौजूद है कि उनके पास दलित साहित्य पर लिखने के लिए समय ही नहीं बचता. साथ ही इस मामले में उनकी सीमाएँ भी हैं. दलित साहित्य का मूल्यांकन करने के लिए, उस पर लिखने के लिए दलित समाज की बुनावट को समझना जरूरी है. उनके जीवन मूल्यों को जानना जरूरी है. दलित होने का एहसास को महसूस कर पाना तो बिलकुल ही टेढ़ी खीर है. उनकी भाषा और मुहावरों को समझने के लिए पापड़ बेलने पड़ते हैं. ऐसे में उनसे यह अपेक्षा करना कि वे दलित साहित्य के आलोचक हो सकते हैं यह दलित साहित्यकारों की नादानी है.
दलित साहित्य केवल इसलिए ही दलित साहित्य नहीं है कि वह दलितों द्वारा लिखा जा रहा है. दलित समाज वास्तव में ब्राह्मणवादी व्यवस्था और जीवन दृष्टि से भिन्न एक जीवन व्यवस्था और जीवन शैली है. भारत में औपनिवेशिक समय से ही ब्राह्मणवादी व्यवस्था आदर्श रूप में इस कदर समाज पर हावी होने लगी कि आज विभिन्न समाजों की देखा-देखी दलित समाज भी उसके प्रभाव में है. ऐसे में दलित आलोचना को अपने साहित्य और साहित्यकारों का मार्गदर्शन करना पड़ेगा वरना वह समय दूर नहीं जब पढ़-लिख कर आगे आया दलित समाज पूरी तरह ब्राह्मणवादी संस्कारों में ढल जाएगा. इसलिए दलित आलोचना को दलित संस्कृति की रक्षा के लिए काम करना पड़ेगा.
इस
समय दलित आलोचना के अभाव में दलित लेखक भटक रहे हैं. उन्हें अपनी यात्रा की दिशा
नहीं मालूम. उनकी दृष्टि एकांगी हो रही है. यह दृष्टि अपने समाज में और अपने आप के
भीतर केवल अभाव, तिरस्कार, अपमान,
हार और हताशा ही देखती है. कोई समाज अगर इतिहास में लगातार संघर्ष
करते हुए अपने आप को बनाए रखता है, तो उसमें लड़ने और जिंदा
रहने का जज्बा कितना जबरदस्त होगा. हमारे पूर्वज अगर इतनी विपरीत स्थितियों में भी
दुर्दमनीय रहे तो जरूर उनकी रीढ़ खूब मजबूत रही होगी. उनकी सामूहिक एकता, उनका आपसी भाईचारा, एक दूसरे की जरूरत में साथ खड़े
रहने की आदत, एक दूसरे के साथ संवाद बनाए रखने की शैली ने
उन्हें मजबूत बनाया होगा. आज का तथाकथित पढ़ा-लिखा दलित बुद्धिजीवी कहने को समाज का
हिस्सा है पर वह इतना अकेला है कि समाज को साथ लेकर चलना तो दूर अपने परिवार तक को
साथ लेकर चलने का संयम और समझ उसमें नहीं है.
दलित आलोचना की परंपरा
ऐसा नहीं है कि हिन्दी में दलित आलोचना की कोई परंपरा नहीं है. वह है और अब उसे भी सामने लाने के लिए युवा दलित आलोचकों को आगे आना पड़ेगा.
आधुनिक दलित आलोचना की
बहुत मजबूत शुरूआत डॉ. धर्मवीर के द्वारा हुई थी. उन्होंने कबीर को लेकर, हिन्दी भाषा को लेकर, साहित्य इतिहास दृष्टि को लेकर
तथा समाज और परिवार में स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर बहुत जरूरी और महत्वपूर्ण
काम किया था. उनकी कुछ व्यक्तिगत समस्याओं के कारण और उनके आकस्मिक निधन के कारण बहुत
कुछ अधूरा और अधर में है. उनकी आलोचना दृष्टि के मूल में दलित समाज अपनी मौलिक
जीवन दृष्टि और जीवन शैली को लेकर, ब्राह्मणवादी विचारधारा
और समाज के मुकाबले चुनौती पूर्ण मुद्रा में मौजूद रहा है. उनकी पुस्तक ‘हिन्दी की आत्मा’ में उन्होंने जन भाषा के रूप में
हिन्दी को संस्कृत की परंपरा से नहीं बल्कि अपभ्रंश और प्राकृत की परंपरा से जोड़ा
है. हिन्दी और दलित समाज अगर एक तरफ़ है तो संस्कृत और ब्राह्मण समाज दूसरी तरफ़. ये
दोनों एक दूसरे के विरोध में ऐसे ही हैं जैसे मुक्तिबोध की कविता “मैं तुम लोगों
से दूर हूँ” की पंक्ति ‘तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा
इतनी भिन्न है कि जो तुम्हारे लिए विष है वह मेरे लिए अन्न है.’ वे ब्राह्मणों और उनके जीवन दर्शन जिसे ब्राह्मणवाद कहते हैं उसे दलित
समाज ही नहीं मानव समाज का विरोधी करार देते हैं. उनकी भाषा और विचारों का खरापन,
उसकी मारकता इतनी जबरदस्त थी कि आते के साथ ही उन्होंने अपने दोस्त
कम और विरोधी ज्यादा बनाए.
हिन्दी
साहित्य का बुद्धिजीवी जो अपने सौभाग्य से ब्राह्मण ही था उनकी प्रतिभा और उनके
आत्मविश्वास और उनके भाषाई तेवर को नहीं झेल पाया. उन्हें समझने की जगह वह उनका
विरोधी हो गया. यह डॉ. धर्मवीर की आलोचना का
एक पक्ष है तो दूसरा पक्ष यह भी है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की तरह डॉ. धर्मवीर
भी समय की धारा में बहुत कुछ जो बह रहा है उसे चीन्ह नहीं पाए. समाजेतिहासक परंपरा
को वे आलोचना में स्वीकार नहीं करते. समय को चीर कर शताब्दियों की यात्रा में पीछे
जाते हुए वे वापस आज में लौटकर नहीं आते.
दूसरा
बड़ा प्रयास डॉ. तेजसिंह ने ‘अपेक्षा’ नामक पत्रिका के माध्यम से किया. लगभग दस वर्षों तक उन्होंने न केवल बहुत
सारे दलित रचनाकारों को ढूँढ कर निकाला बल्कि उनकी रचनाओं के मूल्यांकन के लिए
अंबेडकरवादी आलोचना दृष्टि भी विकसित की. डॉ. तेजसिंह हिन्दी साहित्य और आलोचना
में मार्क्सवादी विचारधारा के रास्ते आए. उन्होंने अंबेडकरवाद को मार्क्सवाद के
अगले पड़ाव के रूप में देखा. जैसे किसी ऐप का नया वर्जन (संस्करण) आने के बाद
पुराना बेकार हो जाता है. पुराने की सारी खूबियों को लेकर वह आगे बढ़ जाता है.
अंबेडकरवाद को उन्होंने मार्क्सवाद के मुकाबले ऐसे ही देखा. इस समय भारतीय मानस
में यह परिवर्तन दिखाई दे रहा है. असल में भारत में मार्क्सवाद अपने शुरुआती समय
से ही ब्राह्मणवाद की शरणस्थली बन गया था. वरना कोई कारण नहीं है कि डॉ. अंबेडकर
इसके प्रति आकर्षित न हुए होते. इसके बावजूद डॉ. तेजसिंह ने समाज के हित में
मार्क्सवादियों के प्रयासों की सराहना की. उनके जमीनी प्रयासों को स्वीकार किया. अंबेडकरवादी
आलोचना दृष्टि के निर्माण हेतु डॉ. तेजसिंह बौद्ध दर्शन और मार्क्सवादी विचारधारा
का गहन अध्ययन कर रहे थे. संस्कृत के काव्यशास्त्र का आलोचनात्मक अध्ययन और बौद्ध
जीवन दर्शन से दलित आलोचना दृष्टि के निर्माण का काम वे कर ही रहे थे कि उनका भी
असमय निधन हो गया. युवा दलित आलोचकों पर उनके काम को सामने लाने और उनके अधूरे काम
को पूरा करने की जिम्मेदारी है.
दलित
आलोचना के क्षेत्र में एक और महत्वपूर्ण नाम डॉ. कंवल भारती का है. उत्तर भारत में
हिन्दी दलित साहित्य की परंपरा की खोज में उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण काम किया है.
नवजागरण में स्वामी अछूतानन्द हरिहर और आदि हिंदू आंदोलन पर उनका शोधपूरण कार्य
उल्लेखनीय है. हिन्दी दलित साहित्य को मराठी दलित आंदोलन की पृष्ठभूमि से जोड़कर
देखने की जो परंपरा बन गई थी उसके मुकाबले के लिए डॉ. कंवल भारती ने हिन्दी बेल्ट
में दलित आंदोलनों की परंपरा को खोज निकाला. डॉ. भारती भी मार्क्सवादी विचार धारा
के रास्ते दलित साहित्य में आए. उनकी आलोचना दृष्टि पर आज भी मार्क्सवादी दृष्टि
का प्रभाव है. मार्क्सवादी दृष्टि विरोध और प्रतिरोध में ही अपनी सार्थकता देखती
है उसके आगे की यात्रा वहाँ प्रायः बाधित रहती है. विरोध और विद्रोह ही उसका
एकमात्र लक्ष्य है.
प्रो.
चौथीराम यादव हिन्दी दलित आलोचना का एक और बड़ा नाम हैं. उनकी आलोचना समावेशी
आलोचना है. जिसमें स्त्री भी अपनी पर्याप्त भूमि प्राप्त करती है. आचार्य हजारी
प्रसाद द्विवेदी की परंपरावादी आलोचना की दिशा में प्रो. चौथीराम यादव वेद के
मुकाबले लोक को स्थापित करते हैं. लोक मंगल के मुकाबले वे लोक रंजन को महत्व देते
हैं. लोक के मंगल के लिए किसी अवतार को आना पड़ता है जबकि लोक अपने रंजन की
व्यवस्था अपने आप कर लेता है.
प्रो.
विमल थोराट ने भी हिन्दी दलित आलोचना में महत्वपूर्ण शुरूआत की. ‘दलित अस्मिता’ पत्रिका के माध्यम से तथा उनके
प्रयासों से स्थापित ‘सेन्टर फ़ॉर दलित लिटरेचर एंड आर्ट’ के माध्यम से दलित रचनाओं और रचनाकारों को आगे लाने के काम उन्होंने किया.
साथ ही साथ उन्होंने दलित आलोचना को आगे बढ़ाने का काम भी किया. आलोचक के रूप में
दलित स्त्रीवाद के माध्यम से दलित आलोचना को एक नई दिशा प्रदान की है. दलित स्त्री
का शोषण तिहरा शोषण है यह पहली बार उन्होंने ही कहा.
हिन्दी आलोचना की मुख्य धाराएँ और दलित साहित्य
क्या
हिन्दी आलोचना की ऐसी कोई धारा है, जिसने दलित साहित्य के प्रति न्याय किया हो या हिन्दी आलोचना की किस धारा
को दलित साहित्य अपने निकट पाता है? असल में हिन्दी आलोचना
की दो ही प्रमुख धाराएँ हैं. पहली समाज केंद्रित धारा जो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
से होती हुई आज वामपंथी (मार्क्सवादी) धारा के नाम से जानी जाती है. आलोचना की यह
धारा व्यक्ति की अपेक्षा समाज को महत्व देती हुई आगे बढ़ती है. यह साहित्य को समाज
से जोड़ती है. समाज का मंगल या कहें लोक का मंगल इसके अनुसार साहित्य लेखन का
उद्देश्य है. पर इसकी सबसे बड़ी सीमा यह है कि यह व्यक्ति विशेष के प्रयासों में लोक
का मंगल देखती है. आ. शुक्ल के लोकमंगल की अवधारणा में लोक का मंगल स्वयं लोक के
द्वारा नहीं होता उसके लिए ईश्वर को अवतार लेकर आना पड़ता है. ईश्वर के अवतार लेने
से यहाँ मतलब है कि नायक को रूप गुण शील में विशेष होना. वहाँ आम साधारण व्यक्ति
अपनी तमाम कमजोरियों साथ नायक नहीं हो सकता. भारतीय काव्यशास्त्र में धीरोद्दात, धीर ललित नायक
की अवधारणा का यह आलोचना दृष्टि समर्थन करती है. यह आलोचना दृष्टि लोक के मंगल के
लिए किसी व्यवस्था या परंपरा का निर्माण नहीं करती बल्कि भगवान, राजा या व्यक्ति विशेष के प्रयासों में समाज का मंगल देखती है.
हिन्दी
आलोचना की दूसरी धारा परंपरावादी धारा है जिसे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के
नाम से जाना जाता है. असल में हिन्दी आलोचना ने ‘परंपरा’ शब्द का अवमूल्यन किया है इसे ‘रूढ़ि’ का पर्याय या सहधर्मी बना दिया है.
अज्ञेय
की मशहूर कविता ‘यह दीप अकेला’ की तरह स्वयं को पंक्ति को देना है. स्वयं को पंक्ति में देखना है. परंपरावादी
धारा रचना और रचनाकार को समझने के लिए उसे उसकी ऐतिहासिक परंपरा में देखना और
समझना चाहती है. यह अपनी ऊर्जा सीधे संस्कृत के काव्यशास्त्र से न पाकर बीच के
सिद्धों, बौद्धों से होती हुई आधुनिक समय तक आती है. असल में
पाँचवीं छठी शताब्दी से लेकर बारहवीं तेरहवीं शताब्दी तक के पाली, प्राकृत, अपभ्रंश के साहित्य के अध्ययन, विश्लेषण का कुछ प्रयास हिन्दी आलोचना की इसी धारा ने किया. पर बाद की
हिन्दी आलोचना ने बीच के इस समय को अनदेखा कर सिर्फ़ संस्कृत से अपने आपको जोड़कर
देखने का प्रयास किया. बीच की कड़ियाँ टूटी रहने की वजह से हिन्दी आलोचना अपनी परंपरा
से जुड़ी न रह सकी और पश्चिमी आलोचना दृष्टि की तर्ज पर ही काम करती रही.
हिन्दी
आलोचना की यह परंपरावादी धारा ही सबसे ज्यादा दलित साहित्य के निकट महसूस होती है.
इस धारा के कुछ आलोचक आज भी आलोचना की मुख्य धारा के बीच हैं जिन्होंने दलित
साहित्य को स्वीकार किया है. आलोचना की यह धारा साहित्य में लोकमंगल और लोकरंजन
जैसा कोई विभाजन नहीं करती. इस विभाजन ने ही रीति कालीन साहित्य को समाज विरोधी
करार दिया.
दलित आलोचना में सौंदर्यशास्त्र की भूमिका
अब
तक दलित साहित्यकार दलित साहित्य में सौंर्यशास्त्र के प्रश्नों को नकारते आए
हैं. वे इसे बेमानी समझते हैं. मेरा मानना है कि प्रत्येक तरह के साहित्य में
सौंदर्य शास्त्र की भूमिका है. बल्कि साहित्य के साहित्य होने की कसौटी ही उसका
सौंदर्यशास्त्र है. पर यहाँ यह देखना जरूरी है कि सौंदर्यशास्त्र से हम अर्थ क्या
लेते हैं? प्रायः हम रचना के शिल्प पक्ष को उसके कला पक्ष को
सौंदर्यशास्त्र से जोड़ते हैं. कुछ हद तक ऐसा है भी पर पूरी तरह से सौंदर्यशास्त्र
का अर्थ यह नहीं है.
साहित्य
में सौंदर्यदृष्टि का अर्थ उन जीवन मूल्यों से है जिन्हें लेकर साहित्य या रचना
चलती है जिन्हें वह समाज में स्थापित करना चाहती है. जीवन का सौंदर्य ही साहित्य
का सौंदर्य है. जीवन किसी का भी, कैसा भी हो सकता है,
उसने उसे कैसे देखा, कैसे समझा, कैसे जिया, वह बताना चाहता है. वह अपना अनुभव सुनाना
चाहता है और अगर उसे पढ़कर पाठक को अपने भीतर कुछ और नया जुड़ने, कुछ नया पाने, किसी उलझन के सुलझने का एहसास होता है
तो रचना में सौंदर्य है. साहित्य का उद्देश्य है कि मानव जीवन को कैसे सुखी,
मूल्यवान और संतोषप्रद बनाया जा सकता है. मामला केवल आर्थिक जरूरतों
को पूरा करने तक सीमित नहीं है. डॉ. अंबेडकर ने कहा था पेट तो जानवर भी भरते हैं.
मनुष्य उससे आगे मानसिक संतुष्टि भी चाहता है. कुछ रचकर, कुछ
पैदा करके, कुछ निर्माण करके उसे मानसिक संतुष्टि मिलती है.
कर्मरत रहना और होना ही राममय होना है. वे कौन से काम हैं जिन्हें करते हुए मनुष्य
अपने आप को, अपने होने को महसूस करता है, मानसिक संतुष्टि पाता है. साहित्य में उनकी पहचान आलोचना का उद्देश्य है.
इसके लिए अपने समय की उन प्रवृतियों और व्यवस्थाओं को पहचाना जरूरी है जो समाज में
मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद और वैमनस्य, पैदा
करती हैं, एक मनुष्य को भीतर से खाली करती हैं, उसे लक्ष्यहीन बनाती हैं. किसी मनुष्य और समाज को इस स्थिति तक ले आती हैं
कि पेट भरने की जद्दोजहद में ही उनकी जिंदगी बीत जाती है. वह जानवर की स्थिति तक
पहुँच जाता है.
आलोचना और विमर्श के बीच की विभाजक रेखा
विमर्श
समस्या विशेष को देखना है जबकि आलोचना संपूर्ण को देखना है. यह ऐसे है जैसे शरीर
के किसी हिस्से में बीमारी होने पर हम उस हिस्से को,
उसकी बीमारी को ध्यान में रखकर कुछ समय के लिए दवा लेते हैं. उस समस्या पर ही
केन्द्रित हो उसे मिटाने के तात्कालिक प्रयास करते हैं. पर हमें कोई रोग ही न हो इसके लिए हम सही जीवन
शैली और सही खान पान का हमेशा पालन करने की कोशिश करते हैं. इसी तरह दलित विमर्श
के तहत हम दलित साहित्य में दलित समाज के दुख दर्द उनकी पीड़ा, उनके संताप ही देखते उन पर ही बात करते हैं और साहित्य लेखन में उन्हें ही
जरूरी मानते हैं. जबकि दलित आलोचना में दलित दृष्टि से हम संपूर्ण समाज को देखते
हैं. उसका मूल्यांकन करते हैं. दलित दृष्टि का मतलब दलित समाज की अपनी, जीवन को देखने की, समझने की और उससे जुझने की
दृष्टि है. असल में दिक्कत क्या है कि ब्राह्मणवादी दृष्टि या विचारधारा तो अपने
आपको सनातन सिद्ध करती हुई, वैदिक साहित्य के ब्रह्म से अपना
संबंध दिखाकर कालजयी बन जाती है पर दलित शब्द क्योंकि आधुनिक युग का बहुत नया शब्द
है इसलिए जब दलित दृष्टि की बात होती है तो हमें यह अलग से बताना पड़ता है कि जो
बुद्ध का जीवन दर्शन है, जो संतों का,
सिद्धों का जीवन दृष्टि है वही दलित दृष्टि या जीवन दर्शन है. यही दलित आलोचना की
आधार भूमि है. दलित आलोचना का लक्ष्य समाज और इतिहास में अपनी परंपरा को खोजना और
उसे स्थापित करना है.
दलित आलोचना दृष्टि और अंबेडकरवादी आलोचना
दलित
आलोचना दृष्टि को अंबेडकरवादी आलोचना दृष्टि कहा जाए तो बेहतर है. यह काम बहुत
पहले डॉ. तेजसिंह ने शुरू कर दिया था. इसके लिए बहुत जरूरी है कि डॉ. अंबेडकर का
विजन, संविधान निर्माण का उनका पूरा प्रयास जिस दर्शन पर
खड़ा है उस बौद्ध साहित्य और दर्शन पर शोध किया जाए. इसके बिना ब्राह्मणवादी
विचारधारा और दर्शन से लड़ना तो बहुत दूर उसे ढंग से समझना भी मुश्किल है. छठी
सातवीं शताब्दी से लेकर बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी के इतिहास और साहित्य पर बहुत
अध्ययन की जरूरत है. अंग्रेजों के आने से पूर्व के साहित्य और इतिहास का पुनर्पाठ
करने की जरूरत है. दलित साहित्य केवल इसलिए ही दलित साहित्य नहीं है कि वह दलितों
द्वारा लिखा जा रहा है.
दलित
समाज वास्तव में ब्राह्मणवादी व्यवस्था और जीवन दृष्टि से भिन्न एक जीवन दृष्टि और
समाज व्यवस्था है. भारत में औपनिवेशिक समय से पूर्व ही मुगलों की मजबूत केन्द्रीय
सत्ता के पतन के साथ ही ब्राह्मणवादी व्यवस्था समाज पर हावी होने लगी. आज विभिन्न
समाजों की देखादेखी दलित समाज भी उसके प्रभाव में है. ऐसे में दलित आलोचना को अपने
साहित्य और साहित्यकारों का मार्गदर्शन करने की जरूरत है. वरना वह समय दूर नहीं जब
पढ़-लिख कर आगे आया दलित समाज पूरी तरह ब्राह्मणवादी संस्कारों में ढल जाएगा. दलित
आलोचना को दलित संस्कृति की रक्षा के लिए काम करना पड़ेगा.
डॉ. रजनी
दिसोदिया
एसोशियेट
प्रोफ़ेसर
हिन्दी विभाग, मिरांडॉ हाउस, दिल्ली.
rajni.disodia@gmail.com
दलित साहित्य की आलोचना के विविध पक्षों को समेटता अच्छा आलेख लिखा है रजनी जी ने। रजनी जी और समालोचन को बधाई। - - हरिमोहन शर्मा
जवाब देंहटाएंसाहित्य में दलित आलोचना की दशा और दिशा पर केन्द्रित इस आलेख से इसके मूल सरोकारों को समझने में हमें बहुत कुछ मदद मिलती है। इस संदर्भ में साहित्य की दूसरी परंपरा का जिक्र भी है जिसका पहला श्रेय हजारी प्रसाद द्विवेदी को जाता है। लेकिन आलेख में यह कहना कि 'हिन्दी आलोचना ने परंपरा शब्द का अवमूल्यन किया है और इसे रूढि का पर्याय या सहधर्मी बना दिया है', सही नहीं लगता। हिन्दी साहित्य की दूसरी परंपरा जो संस्कृत से कटकर लोकभाषा में निखरी या रूपायित हुई और कबीर जिस परंपरा के सशक्त वाहक हैं,वह अत्यंत समृद्ध है। दलित विमर्श के मुतल्लिक दूसरी बात यह कि देखे और स्वयं भोगे में बाँट कर कुछ लेखकों को जन्म के आधार पर दलित साहित्य में अछूत मान लेने से साहित्य का नुकसान ही हुआ है। इन्हें बेदखल करना या इन्हें स्पेस न देना भी एक रूढ़ि है । यह कतई जरूरी नहीं कि केवल किसी का भोगा हुआ यथार्थ ही अनिवार्य रूप से श्रेष्ठ साहित्य होगा। करीब से देख-महसूसकर भी दुनिया के साहित्य में बहुत कुछ जीवंत, श्रेष्ठ और प्रामाणिक लिखा जाता रहा है। दलित चिंतन पर इस विमर्श के लिए रजनी जी और समालोचन को बधाई !
जवाब देंहटाएंदलित आलोचना के क्षेत्र में सूर्यनारायण रणसुभे Suryanarayan Ransubhe का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण है। उनके अलावा कुछ अन्य लोगों ने भी महत्त्वपूर्ण काम किया है ।
जवाब देंहटाएंKailas Ghate आपने कंवल भारती के आलोचना साहित्य का गंभीर अध्ययन किया है।
इस आलेख को ज़रूर पढ़िए और अगर कोई बात छूट गयी हो तो उसका उल्लेख कीजिए।
बहरहाल, रजनी दिसोदिया जी को साधुवाद।
रजनी लगातार उल्लेखनीय काम कर रही हैं। उनकी यह पड़ताल भी मानीखेज है। उन्होंने डॉ. धर्मवीर की जिस ‘हिंदी की आत्मा’ पुस्तक का जिक्र किया है उससे एक ओर जहां हिंदी अपभ्रंश और प्राकृत की परंपरा से जुड़ती है, वहीं दूसरी ओर यह दलित आलोचना का भी प्रस्थान बिंदु है। यह एक अति महत्वपूर्ण पुस्तक है जिसे सबको पढ़ना चाहिए। धर्मवीर के बाद कंवल भारती दलित आलोचना ही नहीं बल्कि हिंदी आलोचना के भी एक बड़े स्तंभ हैं। कंवल भारती को पढ़ने पर पता चलता है कि यदि उनको नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा।
जवाब देंहटाएंरजनी दिसोदिया अच्छी रचनाकार हैं और बिना लाग-लपेट के अपनी स्थापना देने वाली आलोचक| उनका यह लेख पढ़कर अच्छा लगा| दलित आलोचकों में ओमप्रकाश वाल्मीकि की भी गणना की जानी चाहिए|
जवाब देंहटाएंमार्क्सवादी आलोचना पर उन्होंने दो स्थापनाएं कीं| पहली कि इसके आदि हस्ताक्षर आचार्य रामचंद्र शुक्ल हैं और यह आलोचना व्यक्ति-विशेष के प्रयासों को ही महत्त्व देती है| व्यक्ति-विशेष से उनका आशय नायक या अवतार से है| दूसरी स्थापना स्वयं उन्हीं के शब्दों में-
"मार्क्सवादी दृष्टि विरोध और प्रतिरोध में ही अपनी सार्थकता देखती है उसके आगे की यात्रा वहाँ प्रायः बाधित रहती है. विरोध और विद्रोह ही उसका एकमात्र लक्ष्य है."
सोचिए कि जो आलोचना-दृष्टि 'विद्रोह' जैसी मामूली मानसिकता/ परिस्थिति के निर्माण में अपने को खपा दे, उसका क्या महत्त्व होगा!
मार्क्सवाद में न भविष्य को लेकर कोई चिंता है और न कोई संभावना - रजनी दिसोदिया की यह स्थापना सचमुच विचारणीय है|
पता नहीं, बजरंग भाई, आपको दिसोदिया जी ने छोड़ दिया है। आप तो कथादेश के 'दलित प्रश्न' स्तम्भ के जरिये न केवल दलित आलोचना को समृद्ध करते रहे हैं बल्कि हिंदी के एवं बंगाली, गुजराती, पंजाबी, कन्नड़, उड़िया जैसी तमाम भाषाओं में लिखने वाले नए पुराने महत्वपूर्ण लेखकों एवं साहित्य से हिंदी जगत का परिचय कराते रहे हैं।
जवाब देंहटाएंदलित, आदिवासी एवं स्त्री साहित्य एवं आलोचना की समृद्धि में रमणिका गुप्ता एवं उनकी पत्रिका 'युद्धरत आम आदमी' की भूमिका भी उल्लेखनीय है।
मुझे लगता है दलित आलोचना की समृद्धि में मोहनदास नैमिशराय, जयप्रकाश कर्दम एवं श्यौराज सिंह बेचैन की भूमिका को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। कर्दम जी तो 1999 से लगभग हर वर्ष 'दलित साहित्य वार्षिकी' पुस्तक निकालकर न केवल हिंदी दलित साहित्य का अपडेट प्रस्तुत कर रहे हैं बल्कि दलित आलोचना की सम्पदा को भी सम्पन्न कर रहे हैं।
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