भाष्य
अज्ञेय : ओ नि:संग ममेतर
सदाशिव
श्रोत्रिय
यह किंचित आश्चर्यजनक है कि अज्ञेय की इस कविता की चर्चा उनके साहित्य के प्रसंग में बहुत कम हुई जबकि मैं इसे उनकी एक सशक्त और अनूठी कृति के रूप में देखता हूं. क्या इसका कारण यह है कि इस कविता के अधिकांश पाठक इसके लिए अपेक्षित उस विशिष्ट सहृदयता से शून्य रहे हैं जो किसी कविता के भावलोक में प्रवेश की एक आवश्यक शर्त होती है?
कोई भी संवेदनशील पाठक इस बात को बड़ी आसानी से देख सकता है कि इस कविता का केन्द्रीय विषय सायुज्य है- वह स्थिति जिसमें कोई सागर भी है और सागर-तट भी, वापी भी है और वापी का पेय जल भी, किसी यज्ञ की दु:शम्य धधक भी है और हविष्यान्न भी :
ओ मेरी सहधर्मा,
छू दे यह मेरा कर : आहुति दे दूं --
ओ मेरी अतृप्त , दु:शम्य धधक , मेरी
होता,
ओ मेरी हविष्यान्न,
आ तू ,मुझे खा
जैसे मैं ने तुझे खाया है
प्रसादवत्.
हम परस्पराशी हैं क्योंकि परस्परपोषी
हैं ,
परस्परजीवी हैं .
( सदानीरा, नेशनल पब्लिशिंग हाउस , 1986 , पृष्ठ 138 )
इस कविता
में इस बात के काफ़ी प्रमाण हैं कि इसमें पर्सोना किसी मानवेतर और दैवी गुणों से संपन्न इकाई के साथ अपने सायुज्य की कामना कर रहा है. उसकी मान्यता है कि यह देवी-स्वरूपा संगिनी,
जिसे वह इस कविता में मंत्राहूत करता है, अपने सायुज्य-मात्र से उसे एक असाधारण और अलौकिक अनुभव करवाने में
समर्थ है जिसमें उन दोनों के द्वैत के पूरी तरह तिरोहित हो जाने की संभावना छिपी है:
तुम जो मेरी हो , मुझ में हो ,
सघनतम निविड में
मैं ही जो हो अनन्य
तुम्हें मैं दूर बाहर से, प्रांतर
से,
देशावर से, कालेतर से ,
तल से , अतल से , धरा से, सागर से ,
अंतरिक्ष से ,
निर्व्यास तेजस् के निर्गभीर शून्य
आकर से
मैं , समाहित , अंत:पूत ,
मंत्राहूत कर तुम्हें
ओ निस्संग ममेतर
ओ अभिन्न प्यार ,
ओ धनी ,
आज फिर एक बार
तुम को बुलाता हूँ --
और जो मैं हूं , जो जाना-पहचाना ,
जिया-अपनाया है , मेरा है ,
धन है ,संचय है , उस की एक-एक कली को
न्यौछावर लुटाता हूँ .
उस देवी के आह्वान की शब्दावली इस कविता की इन
प्रारंभिक पंक्तियों में साफ़-साफ़ पढ़ी जा
सकती है जिससे पर्सोना अपना सायुज्य चाहता
है. देश और काल की दृष्टि से इस देवी की कालातीतता
और देशातीतता के संकेत भी इन पंक्तियों में देखे जा सकते हैं. जैसे जैसे कविता आगे बढ़ती है इस ‘ममेतर’ का मानवेतर और विरोधाभासपूर्ण स्वरूप और पर्सोना
के साथ उसका जटिल और रहस्यात्मक संबंध अधिकाधिक प्रकट होता जाता है :
ओ सहजन्मा , सह-सुभगा
नित्योढ़ा ,
सहजीवा ,कल्याणी.
स्पष्टत: इस
सायुज्य के बिम्ब किसी देवी और उसके लिए
साधना करने वाले से संबंधित किसी प्राचीन ग्रंथ में ही खोजे जा सकते हैं. उदाहरणार्थ इन्हें देवी-साधना के किसी ऐसे ग्रंथ में खोजा जा सकता
है जिनमें देवी का सायुज्य प्राप्त हो
जाने पर देवी के अपने साधक-भक्त की परिचर्या उसी तरह करने का वर्णन मिलता है जिस
तरह की परिचर्या पत्नी अपने पति की करती है:
अनया व्याप्तमखिलं जगत्स्थावर्जंगमम .
इमां य: पूजयेद्भक्त्या स व्याप्नोति
चराचरम्॥
(भुक्त्वा भोगान् यथाकामं
देवीसायुज्यमाप्नुयात् .)
अधीते य इमं नित्यं रक्तदंत्या
वपु:स्तवम् .
तं सा परिचरेद्देवी पतिं प्रियमिवांगना ॥
रक्ततीक्ष्णनखा रक्तदशना रक्तदंतिका.
पतिं नारीवानुरक्ता देवी
भक्तं भजेज्जनम ॥
(श्री दुर्गा सप्तशती, अथ मूर्तिरहस्यम्)
इस सायुज्य की किसी मानवीय कल्पना में निश्चय ही भुक्त और भोक्ता का, पराजित और विजेता का, मर्त्य और अमर्त्य, तिरोहित और अवतरित का भेद सर्वथा मिट जाता है :
मैं ने छुआ है , और मैं छुआ गया हूँ ;
मैं ने चूमा है , और मैं चूमा गया
हूँ ;
मैं विजेता हूँ , मुझे जीत लिया गया
है ;
मैं हूँ , और मैं दे दिया गया हूँ ;
मैं जिया हूँ , और मेरे भीतर से जी
लिया गया है ;
मैं मिटा हूँ , मैं पराभूत हूँ , मैं
तिरोहित हूँ ,
मैं अवतरित हुआ हूँ , मैं आत्मसात्
हूँ ,
अमर्त्य ,कालजित् हूँ .
अपनी इस “ममेतर”
प्रिया की उपस्थिति को पर्सोना संपूर्ण चराचर में पाता है. उसकी
झलक वह पर्वत शिखरों से प्रकट स्वर्णिम किरणों के इंगित से लेकर पारदर्शी झीलों की गहराइयों तक में देखता है :
जिन शिखरों की
हेम–मज्जित उंगलियों ने
निर्विकल्प इंगित
से
जिस निर्व्यास उजाले को
सतत झलकाया है ---
उसमें जो छाया मैं ने पहचानी है
तुम्हारी है .
जिन झीलों की
जिन पारदर्शी लहरों ने
नीचे छिपे शैवाल को सुनहला चमकाया है
,
निश्चल निस्तल गहराइयों में
जो निश्छल उल्लास झलकाया है ,
उस में निर्वाक् मैं ने
तुम्हें पाया है .
समूची प्रकृति
में, ऋतुओं और महीनों के संपूर्ण चंक्रमण में भी वह सतत इसी ‘’ममेतर’’
की उपस्थिति अनुभव करता है:
भटकी हवाएं जो गाती हैं ,
रात की सिहरती पत्तियों से
अनमनी झरती वारि-बूंदें
जिसे टेरती हैं ,
फूलों की पीली पियालियाँ
जिन की ही मुसकान छलकाती हैं ,
ओट मिट्टी की , असंख्य रसातुरा
शिराएं
जिस मात्र को हेरती हैं ;
वसंत जो लाता है ,
निदाघ तपाता है ,
वर्षा जिसे धोती है , शरद सँजोता है,
अगहन पकाता और फागुन लहराता
और चैत काट , बाँध , रौंद , भर कर ले
जाता है ---
नैसर्गिक चंक्रमण सारा --
व्यक्तिगत स्तर पर भी वह हर समय उसे अपनी हर सांस में बसी लगती है:
पर दूर क्यों ,
मै ही जो सांस लेता हूँ
जो हवा पीता हूं --
उस में हर बार , हर बार
अविराम , अक्लांत , अनाप्यायित
तुम्हें जीता हूँ .
अपनी
‘’ममेतर’’ के इस नैकट्य के बावजूद पर्सोना अब तक उसके सायुज्य से वंचित
रहा है. कविता की निम्नांकित पंक्तियां अब
तक के इस असायुज्य को भली-भांति प्रमाणित करती हैं :
मुझ में पर – मुझ में – मुझ में --
मेरे हर गीत में , मेरी हर ज्ञप्ति
में
कुछ है जो काँटे कसकाता ,
अंगारे सुलगाता है ---
मेरे हर स्पंदन में , साँस में ,
समाई में
विरह की आप्त व्यथा
रोती है .
जीना – सुलगना है
जागना –उमँगना है
चीन्हना --- चेतना का
तुम्हारे रंग रँगना है .
कविता में पर्सोना इस ‘’ममेतर’’ के साथ उसके ऐन्द्रियक अनुभव का ज़िक्र भी करता है :
मैंने तुम्हें छुआ है
मेरी मुट्ठियों में भरी हुई तुम
मेरी उँगलियों बीच छन कर बही हो --
कण प्रतिकण आप्त , स्पृष्ट ,भुक्त .
मैंने तुम्हें चूमा है
और हर चुम्बन की तप्त , लाल अयस्कठोर
छाप
मेरा हर रक्त-कण धारे है .
आह ! पर मैं ने तुम्हें जाना
नहीं .
किंतु यह जीवनानुभूति, यह ऐंद्रियक अनुभव उसका काम्य नहीं है. उसका काम्य वस्तुत: वह संहति है जिससे वह संभवत: अनादि-अनंत काल से परिचित रहा है और जिसके रूप, गंध,स्वाद,स्वर और स्पर्श के इन्द्रियातीत अनुभव को उसकी स्मृति ने सदैव सुरक्षित रखा है :
हाँ , मैं ने तुम्हें जाना है , मैं जानता हूँ ,
पहचानता हूँ , सांगोपांग ;
और भूलता नहीं हूँ – कभी भूल नहीं
सकता !
भूलता नहीं हूँ
कभी भूल नहीं सकता
और मैं बिखरना नहीं चाहता .
आज, मंत्राहूत ओ प्रियस्व मेरी !
पर्सोना इस वर्तमान विशिष्ट और रहस्यमय अनुभव की प्रकृति से भली-भांति परिचित है. इस अव्यक्त को व्यक्त कर पाने की उसकी इस क्षण की बैचेनी को कविता की निम्नलिखित पंक्तियों में स्पष्ट देखा जा सकता है :
मुझ को जो कहना है , वह इस धधकते क्षण
में
वाग्देवता की यज्ञ-ज्वाला जब तक अभी
जलती है मेरी इस आविष्ट जिह्वा पर ,
तब तक -मैं कह लूँ :
मेरे ही दाह का हुताशन हो साक्षी मेरा !
यह स्पष्ट
है कि पर्सोना जिसे जीवनानुभूति कहता है वह केवल उसका पाथेय है; उसका लक्ष्य इससे उच्चतर और दिव्यतर कोई अनुभव है जिसे किसी स्वाति बूंद, सीप और चातक
जैसा मिथकीय बिम्ब या किसी वर-प्रदायिनी देवी द्वारा किसी मानव के वरण का पौराणिक
बिम्ब ही अभिव्यक्ति दे सकता है :
अब तू इस कृती सीप को अपने में समेट
ले ,
यह परिदृश्य सोख ले .
स्वाति बूँद ! चातक को आत्मलीन तू कर
ले !
ओ वरिष्ठ ! ओ वरदे ! वर ले !
कविता में इस बात के भी संकेत हैं कि जिस ‘’ममेतर’’ के सायुज्य की वह अब कामना कर रहा है उसकी ओर अपनी जीवन नौका को बढ़ाते हुए उसने अपनी डोर कुछ अन्य ठांवों पर भी बांधी थी पर उसने अंतत: उसने बंधन की उस डोर को तोड़ दिया है :
मैं चला हूँ
पहचान कर,
प्रकाश में,
दिक् –प्रबुद्ध,
लक्ष्यसिद्ध .
इसी बल
जहाँ –जहाँ पहचान हुई , मैं ने
वह ठाँव छोड़ दी ;
ममता ने तरिणी को तीर-ओर मोड़ा --
वह डोर मैं ने तोड़ दी .
दिलों को
तोड़ने और जोड़ने के इस संदर्भ में अज्ञेय ने एक अनूठे शरीरशास्त्रीय बिम्ब का प्रयोग करते
हैं जिसे वह कवि ही कर सकता है जिसकी काव्यात्मक संवेदना आधुनिक और
वैज्ञानिक के साथ ही पारंपरिक, पौराणिक और शास्त्रीय को भी समेटने में सक्षम हो :
हर लीक मैंने पोंछी, हर डगर मिटा दी, हर दीप
निवा मैंने
बढ़ अन्धकार में
अपनी धमनी
तेरे साथ जोड़ दी .
इस लेख के आरम्भ में इस कविता की उपेक्षा के कारण के संबंध में जो प्रश्न मैंने उठाया उसका उत्तर शायद इस बात में ढूंढा जा सकता है कि हमारे यहाँ आत्मकेन्द्रितता और व्यक्तिवाद पिछले कुछ समय में जिस तरह बढ़ा है उसने दो व्यक्तियों के बीच के द्वैत के विलयन की कल्पना का जैसे अंत ही कर दिया है. सारा ज़ोर अब जैसे अपने अहं को प्रधानता देने और उसे किसी दूसरे के अहं से कम महत्वपूर्ण साबित होने से बचाने पर है. ऐसे में किसी अन्य इकाई के साथ सायुज्य से पूर्णता प्राप्त करने की कल्पना जैसे निर्वासित ही होती चली गई है.
दाम्पत्य-संबंधों में भी अब पहली फ़िक्र व्यक्ति-स्वातंत्र्य को बचाने की है. यह सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लिया गया है कि पुरुष अब तक नारी का शोषण ही करता रहा है और इसलिए आज आवश्यकता इस बात की है कि नारी पुरुष से अलग अपनी स्वतंत्र सत्ता साबित करने का हर संभव प्रयास करे. वह प्रेम जिसमें प्रेमी और प्रेमिका को एक-दूसरे में श्रेष्ठता और पूर्णता का मूर्त रूप दिखाई देता था अब सामान्य मानवीय अनुभव से बाहर होता जा रहा है.
किसी के लिए अपना सब कुछ खोकर,
अपना सब कुछ न्यौछावर करके, अपने को संपूर्णत: मिटा कर पूर्णता को प्राप्त करने की
समूची अवधारणा ही किसी को व्यक्तिवादी सोच से विपरीत दिशा में ले जाती है अत: जनसाधारण
के लिए अब वह वरेण्य और ग्राह्य नहीं रह गई
है. ‘’प्रेम गली अति साँकरी या में दो न
समाय‘’ वाली बात अब लौकिक प्रेम के संदर्भ में अधिकतर लोगों के लिए अनुभवगम्य नहीं
रह गई है. पर निश्चय ही इस कविता के रचयिता के लिए वह एक अनुभवगम्य भाव
रहा है और इसमें इस भाव की अभिव्यक्ति ही
इस कविता का वैशिष्ट्य है.
अज्ञेय
लेखकों के जिस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं उसके अनुभव केवल
लौकिक और भौतिक तक सीमित नहीं रहे थे. शायद अज्ञेय के लिए सार्थक मनुष्य-जीवन की परिभाषा
अलौकिक और मानवेतर को छूती थी. यद्यपि
लेखक के रूप में अज्ञेय की छवि मोटे तौर पर एक नास्तिक बुद्धिजीवी की ही रही
पर उनके पिछले जीवन के बारे में उनके कुछ
अंतरंग मित्रों ने जो लिखा है उसे
महत्वहीन नहीं कहा जा सकता. साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित अज्ञेय
काव्य-स्तबक की भूमिका में विद्यानिवास मिश्र "अज्ञेय की जीवन यात्रा" शीर्षक अपने लेख में
कहते हैं :
अप्रैल 1960 में ये दूसरी बार यूरोप यात्रा पर निकले और इस बार ये मसीही संस्कृति की साधना की गहराइयों में प्रविष्ठ होने के लिए गये. कार्ल यास्पर्स से जहां पहली बार विचार-विमर्श कर के वे केवल बौद्धिक पक्ष को आत्मसात् कर पाए थे, वहां अब आध्यात्मिक पक्ष के अन्वेषण में लगे. इस दूसरी यात्रा में इनकी भेंट स्वर्गीय पॉल मासीन्यो से हुई, जिन्होंने सहारा के रेगिस्तान में मठ बनाया था, गज्जाली के सूफ़ी रहस्यवाद से प्रेरणा ग्रहण की थी और ईसाइयत के दायरे से बाहर जाकर साधना का पथ ग्रहण किया था. फ्रांस में ये कट्टर कैथोलिक पादरी पियेर दानियेल से मिले और एक महीने तक पियेर क्विवीर के मठ में भी रहे. इन्हें फ्रांस के प्रवास ने यह दृष्टि दी कि जहां फ्रांस में इतनी भोगवादी सर्वनिरपेक्ष दृष्टि है , वहीं आस्तिकता की संभावना पर सबसे अधिक चिन्तन भी हुआ है, श्रद्धा की अपेक्षा स्वीकार की गयी है, मसीही मज़हब के मताग्रहों को दूर करने का यत्न हुआ है. ---- पियेर-क्विवीर गुफा में मौन रहते थे.
बाद के
वर्षों में अज्ञेय के सोच में इस तरह के परिवर्तन का प्रमाण हम विष्णुकांत
शास्त्री के उनसे संबंधित एक लेख के निम्नांकित अंश में भी देखते हैं :
सच्चाई यही है कि अपने जीवन के कुछ विशिष्ट अनुभवों के कारण अज्ञेय जी [ बाद के वर्षों में ] आस्तिक हो गये थे. धर्म और अध्यात्म के सम्बन्ध में भी उनके विचार में उनके अपने विवेक का स्थान था. वे पुनर्जन्म को मानने के पक्ष में नहीं थे किंतु आत्मा की अमरता को, परमात्मा को मानते थे. वे यह भी मानते थे कि साधना के द्वारा आत्मा का परमात्मा में विलय हो सकता है. ....हो सकता है इस परिवर्तन में कुछ भूमिका विद्यानिवास जी मिश्र की भी रही हो. मिश्र जी के माध्यम से ही अज्ञेय जी स्वामी अखंडानन्द सरस्वती से मिले थे. उन्हीं के आश्रम में वृन्दावन में वत्सलनिधि का एक शिविर भी अज्ञेय जी ने किया था. ...........ऐसा प्रतीत होता है कि अपने जीवन के अंतिम दो दशकों में वे उत्तरोत्तर भागवत सत्ता की ओर अपनी अंतर्यात्रा में अग्रसर होते जा रहे थे यद्यपि इसकी मुखर चर्चा से वे विरत रहते थे. यह भी स्मरणीय है कि उनकी आध्यात्मिकता इस जीवन और जगत् की उपेक्षा कर इसके उत्तरदायित्वों से पलायन का रास्ता नहीं खोजती थी. इसी जीवन और जगत् को अधिक सारवान बनाने की अंतर्दृष्टि थी वह.
(अज्ञेय का संसार : शब्द
और सत्य , सं. अशोक वाजपेयी, पूर्वोदय प्रकाशन ,2002 , पृष्ठ
56-57)
मेरी मान्यता यह है कि हम किसी भी कविता को यदि ठीक से समझना चहते हैं तो हमें कवि के जीवन के बारे में जानने से इसमें मदद ही मिलेगी. अज्ञेय के व्यक्तित्व के बारे में जो जानकारी हमें विभिन्न स्रोतों से मिलती है उससे हमें इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है कि वे अपने जीवन काल में वे निरंतर आत्म-बोध ( self-actualization ) की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास करते रहे थे. इसके लिए उन्होंने न सिर्फ़ हर ख़तरे और चुनौती का सामना किया बल्कि तमाम स्वीकृत मान्यताओं की परवाह न करते हुए वही किया जो उन्हें सहज और स्वाभाविक लगता था. व्यक्तिगत नैतिकता के उनके अपने निजी मापदंड थे जिनकी ज़िम्मेदारी वे स्वयं उठाने को हरदम तैयार रहते थे . मनोवैज्ञानिकों की मान्यतानुसार उनमें निश्चय ही वे दुर्लभ गुण थे जो किसी व्यक्ति को आत्म-बोध की दिशा में ले जाने में सहायक होते हैं. उनका जीवन उस तरह के अनेक अनुभवों से समृद्ध था जिन्हें हम मनोविज्ञान की भाषा में शिखर अनुभव ( peak experiences ) कहते हैं.
यदि हम एक
क्रांतिकारी के रूप में और एक जीवन-साथी के रूप में उनके जीवन के विभिन्न अनुभवों पर ही नज़र डालें तो यह बात
प्रमाणित हो जाएगी. अज्ञेय में अपने आपको
और दूसरों को भी हर रूप में, बिना किसी अपराध-बोध के, स्वीकार कर सकने की अद्भुत क्षमता थी. जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण मोटे तौर पर यथार्थवादी था. निजता और एकांत उन्हें प्रिय थे. उनमें अपने आप पर हँस सकने या अपनी ख़ामियों को
देख सकने की वह आवश्यक क्षमता भी थी जिसे
हम सेंस ऑव् ह्यूमर कहते हैं. किसी लक्ष्य की दिशा में आगे की ओर यात्रा करते
हुए अपनी इस यात्रा का आनंद लेने की
क्षमता भी उनमें भरपूर थी .
इस कविता के
संबंध में अपनी समापन टिप्पणी के रूप में मैं
दो बातें कहना चाहूंगा. पहली तो यह कि किसी कविता को ठीक से समझने के लिए हमें अपने
तमाम वैचारिक पूर्वाग्रहों को छोड़कर किसी तरह उस भावलोक में प्रवेश करना ही होता
है जो उस कविता की रचना के समय कवि का भावलोक रहा होता है. कृष्णा सोबती जी ने अज्ञेय की मृत्यु के समय
लिखे अपने एक लेख (“ बावरा अहेरी : जिसका वह आखेट करता है”, अज्ञेय का
संसार: शब्द और सत्य , सं. अशोक वाजपेयी, पूर्वोदय प्रकाशन ,2002
, पृष्ठ 120-126) में इस कविता की अनेक पंक्तियों का उपयोग किया है. पर
जहाँ खड़े रह कर वे इस कविता को देख रही हैं वहाँ से इसे ठीक से देख पाना संभव नहीं
है. इसीलिए इन पंक्तियों की उनकी
व्याख्या इस कविता के साथ पूरा न्याय नहीं
कर पाई है .
दूसरी यह कि
अपने तीव्र प्रेम के तथाकथित पागलपन में यदि कोई प्रेमी अपनी किसी प्रेमिका में
किसी प्रकार के देवीत्व की कल्पना करता है तो उसका मोहभंग अवश्यंभावी है. एक मानुषी उसके संबंध में किसी भी कल्पना के
बावजूद एक मानुषी ही रहती है और उसे अधिक निकट से देखने पर कोई भी प्रेमी उसे धीरे-धीरे एक सामान्य मानुषी की तमाम कमज़ोरियों और
अपूर्णताओं से संयुक्त ही पा सकता है. अत: किसी मानवीय प्रेम के माध्यम से आत्म-बोध की
कल्पना अंतत: केवल एक भ्रम ही साबित होती है .
___
अज्ञेयओ नि:संग ममेतर
आज फिर एक बार
मैं प्यार को जगाता हूँ
खोल सब मुंदे द्वार
इस अगुरु-धूम-गन्ध-रुंधे सोने के घर के
हर कोने को
सुनहली खुली धूप में निल्हाता हूँ.
तुम जो मेरी हो, मुझ में हो,
सघनतम निविड में
मैं ही जो हो अनन्य
तुम्हें मैं दूर बाहर से, प्रान्तर से,
देशावर से, कालेतर से
तल से, अतल से, धरा से, सागर से,
अन्तरीक्ष से,
निर्व्यास तेजस् के निर्गभीर शून्य आकर से
मैं, समाहित अन्तःपूत,
मन्त्राहूत कर तुम्हें
ओ निःसंग ममेतर,
ओ अभिन्न प्यार
ओ धनी!
आज फिर एक बार
तुम को बुलाता हूँ-
और जो मैं हूँ, जो जाना-पहचाना,
जिया-अपनाया है, मेरा है,
धन है, संचय है, उस की एक-एक कली को
न्योछावर लुटाता हूँ.
२
जिन शिखरों की
हेम-मज्जित उंगलियों ने
निर्विकल्प इंगित से
जिस निर्व्यास उजाले को
सतत झलकाया है—
उस में जो छाया मैं ने पहचानी है
तुम्हारी है.
जिन झीलों की
जिन पारदर्शी लहरों ने
नीचे छिपे शैवाल को सुनहला चमकाया है,
निश्चल निस्तल गहराइयों में
जो निश्छल उल्लास झलकाया है,
उस में निर्वाक् मैं ने
तुम्हें पाया है.
भटकी हवाएँ जो गाती हैं,
रात की सिहरती पत्तियों से
अनमनी झरती वारि-बूंदें
जिसे टेरती हैं,
फूलों की पीली पियालियाँ
जिस की ही मुस्कान छलकाती हैं,
ओट मिट्टी की, असंख्य रसातुरा शिराएँ
जिस मात्र को हेरती हैं;
वसन्त जो लाता है,
निदाघ तपाता है,
वर्षा जिसे धोती है, शरद संजोता है,
अगहन पकाता और फागुन लहराता
और चैत काट, बांध, रौंद, भर कर ले जाता है-
नैसर्गिक चंक्रमण सारा-
पर दूर क्यों,
मैं ही जो साँस लेता हूँ
जो हवा पीता हूँ—
उस में हर बार, हर बार,
अविराम, अक्लान्त, अनाप्यायित
तुम्हें जीता हूँ.
३
घाटियों में
हँसियाँ
गूंजती हैं.
झरनों में
अजस्रता
प्रतिश्रुत होती है.
पंछी ऊँऽऽची
भरते हैं उड़ान-
आशाओं का इन्द्र-चाप
दोनों छोर नभ के
मिलाता है.
मुझ में पर-मुझ में-मुझ में-
मेरे हर गीत में, मेरी हर ज्ञप्ति में-
कुछ है जो काँटे सा कसकाता,
अंगारे सुलगाता है—
मेरे हर स्पन्दन में, साँस में, समाई में
विरह की आप्त व्यथा
रोती है.
जीना—सुलगना है
जागना—उमंगना है
चीन्हना—चेतना का
तुम्हारे रंग रंगना है.
४
मैंने तुम्हें देखा है
असंख्य बार:
मेरी इन आँखों में बसी हुई है
छाया उस अनवद्य रूप की.
मेरे नासापुटों में तुम्हारी गन्ध-
मैं स्वयं उस से सुवासित हूँ.
मेरे स्तब्ध मानस में गीत की लहर-सा
छाया है तुम्हारा स्वर.
और रसास्वाद: मेरी स्मृति में अभिभूत है.
मैंने तुम्हें छुआ है
मेरी मुट्ठियों में भरी हुई तुम
मेरी उंगलियों बीच छन कर बही हो-
कण प्रतिकण आप्त, स्पृष्ट, भुक्त.
मैंने तुम्हें चूमा है
और हर चुम्बन की तप्त, लाल, अयस्कठोर छाप
मेरा हर रक्त-कण धारे है.
आह! पर मैं ने तुम्हें जाना नहीं.
५
नहीं! मैंने तुम्हें केवल मात्र जाना है.
देखा नहीं मैंने कभी,
सुना नहीं, छुआ नहीं,
किया नहीं रसास्वाद—
ओ स्वतःप्रमाण! मैंने
तुम्हें जाना,
केवल मात्र जाना है.
देख मैं सका नहीं:
दीठ रही ओछी, क्यों कि तुम समग्र एक विश्व हो
छू सका नहीं:
अधूरा रहा स्पर्श क्योंकि तुम तरल हो, वायवी हो
पहचान सका नहीं: तुम
मायाविनि, कामरूपा हो.
किन्तु, हाँ, पकड़ सका—
पकड़ सका, भोग सका
क्यों कि जीवनानुभूति
बिजली-सी त्वरग, अमोघ एक पंजा है
बलिष्ठ;
एक जाल निर्वारणीय:
अनुभूति से तो
कभी, कहीं, कुछ नहीं
बच के निकलता!
६
जीवनानुभूति: एक पंजा कि जिस में
तुम्हारे साथ मैं भी तो पकड़ में
आ गया हूँ!
एक जाल, जिस में
तुम्हारे साथ मैं भी बंध गया हूँ.
जीवनानुभूति:
एक चक्की. एक कोल्हू.
समय कि अजस्र धार का घुमाया हुआ
पर्वती घराट् एक अविराम.
एक भट्ठी, एक आवाँ स्वतःतप्त:
अनुभूति!
७
तुम्हें केवल मात्र जाना है,
केवल मात्र तुम्हें जाना है,
तुम्हें जाना है, अप्रमाद तुम्हें जपा है,
तुम्हें स्मरा है.
और मैं ने देखा है—
और मेरी स्मृति ने
मेरी देखी सारी रूप-राशि को इकाई दी है.
मैंने सुना है—
और मेरी अविकल्प स्मृति ने
सभी स्वर एक मूर्छना में गूँथ डाले हैं.
—सूंघा, और स्मृति ने
विकीर्ण सब गन्धों को
चयित कर दिया एक वृन्त में एक ही वसन्त के.
—मैंने छुआ है:
और मेरे ज्ञान ने असंख्य माया-मूर्तियों के
दी है वह संहति अचूक
जो-मात्र मेरी पहचानी है
जिसे-मात्र मैं ने चाहा है.
—मैंने चूमा है,
और, ओ आस्वाद्य मेरी!
ले गयी है प्रत्यभिज्ञा मुझे उत्स तक
जिस की पीयूषवर्षी, अनवद्य, अद्वितिय धार
मुझे आप्यायित करती है.
हाँ, मैंने तुम्हें जाना है, मैं जानता हूँ,
पहचानता हूँ, सांगोपांग;
ओर भूलता नहीं हूँ—कभी भूल नहीं सकता!
भूलता नहीं हूँ
कभी भूल नहीं सकता
और मैं बिखरना नहीं चाहता.
आज, मन्त्राहूत ओ प्रियस्व मेरी!
मुझ को जो कहना है, वह इस धधकते क्षण में
वाग्देवता की यज्ञ-ज्वाला जब तक अभी
जलती है मेरी इस आविष्ट जिह्वा पर,
तब तक—मैं कह लूँ:
मेरे ही दाह का हुताशन हो साक्षी मेरा!
८
ओ आहूत!
ओ प्रत्यक्ष!
अप्रतिम!
ओ स्वयंप्रतिष्ठ!
सुनो संकल्प मेरा:
मैं ने छुआ है, और मैं छुआ गया हूँ;
मैं ने चूमा है, और मैं चूमा गया हूँ;
मैं विजेता हूँ और मुझे जीत लिया गया है;
मैं हूँ, और मैं दे दिया गया हूँ;
मैं जिया हूँ, और मेरे भीतर से जी लिया गया है;
मैं मिटा हूँ, मैं पराभूत हूँ, मैं तिरोहित हूँ,
मैं अवतरित हुआ हूँ, मैं आत्मसात् हूँ,
अमर्त्य, कालजित् हूँ.
मैं चला हूँ
पहचानकर,
प्रकाश में,
दिक्-प्रबुद्ध,
लक्ष्यसिद्ध.
इसी बल
जहाँ-जहाँ पहचान हुई, मैं ने
वह ठाँव छोड़ दी;
ममता ने तरिणी को तीर-ओर मोड़ा—
वह डोर मैं ने तोड़ दी.
हर लीक पोंछी, हर डगर मिटा दी, हर दीप
निवा मैं ने
बढ़ अन्धकार में
अपनी धमनी
तेरे साथ जोड़ दी.
९
ओ मेरी सह-तितिर्षु,
हमीं तो सागर हैं
जिस के हम किनारे हैं क्योंकि जिसे हम ने
पार कर लिया है.
ओ मेरी सहयायिनि,
हमीं वह निर्मल तल-दर्शी वापी हैं
जिसे हम ओक-भर पीते हैं—
बार-बार, तृषा से, तृप्ति से, आमोद से, कौतुक से,
क्योंकि हमीं छिपा वह उत्स हैं जो उसे
पूरित किये रहता है.
ओ मेरी सहधर्मा,
छू दे मेरा कर: आहुति दे दूँ—
ओ मेरी अतृप्त, दुःशम्य धधक, मेरी होता,
ओ मेरी हविष्यान्न,
आ तू, मुझे खा
जैसे मैं ने तुझे खाया है
प्रसादवत्.
हम परस्पराशी हैं क्योंकि परस्परपोषी हैं
परस्परजीवी हैं.
१०
ओ सहजन्मा, सह-सुभगा
नित्योढ़ा,
सहभोक्ता,
सहजीवा, कल्याणी.
११
ओ मेरे पुण्य-प्रभव,
मेरे आलोक-स्नात, पद्म-पत्रस्थ जल-बिन्दु,
मेरी आँखों के तारे,
ओ ध्रुव, ओ चंचल,
ओ तपोजात,
मेरे कोटि-कोटि लहरों से मंजे एकमात्र मोती
ओ विश्व-प्रतिम,
अब तू इस कृति सीप को अपने में समेट ले,
यह परदृश्य सोख ले.
स्वाति बूंद! चातक को आत्मलीन तू कर ले!
ओ वरिष्ठ! ओ वरदे! ओ वर ले!
(जनवरी, १९६४ संग्रह सदानीरा से )
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अज्ञेय को बिना इस कविता को पढ़े शायद पूरा जानना सम्भव नहीं !! शेखर एक जीवनी को पढ़ने के बाद ये कविता जैसे उस पुस्तक पूरा करती है मेरे लिए! समालोचन का बहुत धन्यवाद! 🙏
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर
जवाब देंहटाएंसदाशिव श्रोत्रिय जी कविता के एकान्त-साधक है । जैसे बरसों से बन्द पट खुल गए हों । इस तरह अज्ञेय की कविता ने आज अपने अर्थ खोले । वैदिक और तत्सम शब्दावलियों में अर्थ वृक्ष की छाल की तरह जुड़े/चिपके रहते हैं । अज्ञेय की यह वैदिक-मुद्रा अनोखी और विशिष्ठ है । सम्राज्ञी का नैवेद्य दान भी अभारतीय है । अज्ञेय अपने अंतिम समय में भारतीयता की तरफ़ मुड़ रहे थे । उसका साक्ष्य यह अप्रतिम कविता है जिसे मैंने कभी चलते चलते पढा था । कितना अभागा था । यह सदाशिव जी की व्याख्या से समझा । सदाशिवजी और समालोचन का आभार ।
जवाब देंहटाएंअज्ञेय की इस अनुपम कृति को पढ़कर उनके परम आस्तिक होने व स्वयं को असीम सत्ता में मिला देने के अनुभव का सहज ही भान हो रहा है, बहुत बहुत आभार इसे पढ़वाने हेतु
जवाब देंहटाएंप्रकृति-सत्ता का जो विस्तार और सौंदर्य-शिल्प इस कविता में है, प्रकृति के अंतस में गहनतर डूबती यह कविता अपना नूतन अर्थ-विस्तार इस आलोचना में रच पा रही है।आलोचक का आभार ।अंतिम दो पैराग्राफ संगत नहीं बनता दिखता-- यह मेरी सीमा, या कि क्षुद्रता , हो सकती है ; इनके बिना ,मुझे ऐसा प्रतीत होता है, काम बिगड़ता नहीं दिखता ।
जवाब देंहटाएंतल्लीनता और निस्संग विश्लेषणात्मकता - दो विपरीतों को साधा है सदाशिव श्रोत्रिय जी ने इस लेख में
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