बच्चे का जन्म लेना जैविक क्रिया है
लेकिन उसका धार्मिक बनना सामाजिक प्रक्रिया है जिसमें उसका कोई दखल नहीं होता है. अक्सर
माँ-पिता के धर्म ही बच्चे के धर्म हो जाते हैं. पर अगर माता पिता दोनों अलग
धर्मों के हों तब संतान का क्या धर्म होगा ? अगर वह ‘धर्म’ विहीन
रहना चाहे तो क्या यह संभव है? कानूनी प्रावधान क्या हैं?
‘यह वैचारिक आलेख प्रसिद्ध लेखक चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता सुभाष
गाताडे ने लिखा है. ख़ास आपके लिए समालोचन की यह प्रस्तुति.
क्या
हो बच्चे का धर्म ?
सुभाष
गाताडे
"Five
minutes after your birth, they decide your name, nationality, religion, and sect, and you spend the rest of your life defending something you did not even
choose."
:
Quote, unnamed
1.
आप
कह सकते हैं कि पहली दफा मैं इस पहेली से तब रूबरू हुआ था या कह सकते हैं कि अधिक
गंभीरता से सोचने लगा जब बंबई की इस ख़बर ने ध्यान खींचा था.
किस्सा
थोड़ा पुराना लग सकता है अलबत्ता आज भी मौजूं.
मराठी
परिवार में जनमी एक युवती और गुजराती परिवार में पले युवक ने- जिन्होंने
अन्तरधर्मीय विवाह किया है और बम्बई में बसे थे- दरअसल यह तय किया कि वह अपनी
नवजन्मी सन्तान के साथ किसी धर्म को चस्पां नहीं करेंगे. उनका मानना था कि बड़े
होकर उनकी सन्तान जो चाहे वह फैसला कर ले, आस्तिकता का
वरण कर ले, अज्ञेयवादी बन जाए या धर्म को मानने से इनकार कर
दे, लेकिन उसकी अबोध उम्र में उस पर ऐसे किसी निर्णय को
लादना गैरवाजिब होगा.
निश्चित
ही अपने इस फैसले पर अमल करने में उनके सामने काफी बाधाएं आयीं. सन्तान का जन्म प्रमाणपत्र
तैयार करने में अलग-अलग दफ्तरों के चक्कर काटने पड़े, एक अफसर ने
तो युवती से पूछ लिया कि क्या तुम्हें अपने धर्म पर गर्व नहीं है ? युवती ने तपाक से जवाब दिया कि
भले ही वह धर्म को मानने वाले परिवार में जन्मी हो, लेकिन
किसी भी रीति रिवाज को नहीं मानती और अहम बात यह है कि क्या एक जनतांत्रिक
धर्मनिरपेक्ष देश में मां बाप यह फैसला नहीं ले सकते कि वह अपनी संतान को किसी
धर्म से नत्थी नहीं करेंगे.
वैसे
इस युगल का यह फैसला बम्बई के चन्द अग्रणी अख़बारों तक ही सीमित रह गया. इस पर
अधिक चर्चा नहीं हो सकी.
इसे संयोग कह सकते हैं उन्हीं दिनों अमेरिका के 13 साल के एक किशोर की बीमारी के सन्दर्भ में उसके माता-पिता द्वारा अपनी विशिष्ट धार्मिक मान्यताओं के चलते लिए गए फैसले ने खलबली मचा दी थी. मिनियापोलिस के इस प्रसंग की चर्चा ‘स्टार ट्रिब्युन’ नामक अख़बार के अंक में विस्तार से हुई थी.[1] डॉक्टरों के मुताबिक डैनी हौजेर को होडकिन्स लिम्फोमा नामक बीमारी थी, जिसे हम एक किस्म का कैन्सर समझ सकते हैं और कीमोथेरपी से उसके ठीक होने की लगभग 95 फीसदी सम्भावना थी. कैथोलिक सम्प्रदाय में जनमे हौजेर के माता-पिता जिस देशज धार्मिक समुदाय से प्रेरणा ग्रहण करते हैं उसमें जड़ी बूटियों एवम् विटामिन्स से ही इलाज को मान्यता है.
गौरतलब
है कि एक बार कीमोथेरेपी से इलाज करने के बाद उसके माता-पिता कॉलीन और एन्थनी
हौजेर ने बेटे का इलाज बन्द कर दिया और अपने ‘‘वैकल्पिक इलाज’’ का सहारा लिया. बाल
संरक्षण के काम में लगे लोगों ने माता-पिता पर बच्चे की उपेक्षा करने तथा उसकी जान
को खतरे में डालने का आरोप लगाया और वह अदालत पहुंचे थे. हौजेर पति-पत्नी ने अपने
इस कदम को धार्मिक स्वतंत्रता का मामला माना और कहा कि उन्हें अपनी धार्मिक
मान्यताओं के अनुसार आचरण करने की आज़ादी है. अदालत ने सारे पक्षों पर विचार करने
के बाद यह कहते हुए कि मामला 13 साल के डैनी का है जो अभी अवयस्क है,
इसलिए माता-पिता की दलील का अनुचित माना. न्यायाधीश ने कहा कि
अमेरिकी संविधान आप के धार्मिक आस्था की गारंटी करता है लेकिन व्यवहार की नहीं.
ऊपरोल्लेखित
दोनों किस्से बच्चे के अपने अधिकार, मां-बाप की अपनी-अपनी
निजी मान्यताओं और बालमन को ढालने के बारे में बिल्कुल अलग-अलग रास्तों को
उद्घाटित करते दिखते थे. दिलचस्प था कि तेरह साल का डैनी जिसका तब तक साबिका अपने
माता-पिता के विशिष्ट मतों से ही पड़ा था और वह लगभग उनसे ‘सहमत’ था, अदालत में वैकल्पिक तर्कों को सुन कर अलग ढंग से सोचने के लिए भी मजबूर
हुआ था.
प्रश्न
उठता है कि आज जबकि विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रचण्ड तरक्की ने हमें अब तक चले
आ रहे तमाम रहस्यों को भेदने का मौका दिया है और दूसरी तरफ हम आस्था के चलते सुगम
होती विभिन्न असहिष्णुताओं या विवादों के प्रस्फुटन को अपने इर्दगिर्द देख रहे हैं,
उस दौर में सन्तान और माता-पिता/अभिभावक की धार्मिक आस्था के
सन्दर्भ में किस किस्म की अन्तर-क्रिया अधिक उचित जान पड़ती है.
क्या
हर माता पिता/अभिभावक को चाहिए कि उनके संरक्षण में पल रहे अबोध शिशु को अपनी
धार्मिक मान्यताओं से लैस कर दें या उसे इस कदर शिक्षित संवेदित करें कि वह खुद इस
मसले पर निर्णय ले सके, जब वह वयस्क हो, अधिक समझने लायक हो. दूसरे शब्दों में कहें तो एक रास्ता यह दिखता है कि
21 वीं सदी में भी अपनी-अपनी धार्मिक मान्यताओं से अपनी सन्तानों को लैस करने के
माता-पिता के विशेषाधिकार पर हूबहू अमल होता रहे या दूसरा रास्ता यह भी हो सकता है
कि इस मसले को खोल दिया जाए तथा इसे बालमन की विशिष्ट स्थिति में सिचुएट करके देखा
जाए.
इन
पंक्तियों को पढ़ रहे अधिकतर लोग अगर अपने बचपन को देखें तो वे पाएंगे कि वह
विशिष्ट आस्था में रफ्ता-रफ्ता समाजीकृत, अनुकूलित कर
दिए गए हैं. माता पिता या अन्य वरिष्ठ जनों के साथ रहते हुए, घूमते हुए या किसी से मिलने जाते हुए इसमें अनुकूलित कर दिए गए हैं. और आज
वह उनके रहन सहन, संस्कृति का हिस्सा बन गया है, धर्मविशेष या आस्था विशेष से उनका जुड़ाव काफी हद तक उनके सामाजिक जीवन को
निर्धारित करता है.
और
अगर आप सचेतन तौर पर ऐसे पेशों में, कामों में, संवादों में, सहमना लोगों के साथ अन्तर्किंया में
संलग्न न हो, जहां धर्म या समुदाय से परे हट कर बात होती हो-
फिर चाहे आप का किसी समूह का, किसी ट्रेड यूनियन का, खेल कूद का या अन्य किसी व्यवसाय/उद्यम का हिस्सा हों- तब तक आप के लिए
आस्था से इर्दगिर्द अपनी इकहरी पहचान को चुनौती देना, तोड़ना
भी काफी मुश्किल जान पड़ता है.
2
प्रख्यात
ब्रिटिश विद्वान रिचर्ड डॉकिन्स- जिन्होंने बाल मन पर होने वाले धार्मिक प्रभावों
के परिणामों पर विस्तार से लिखा है- इस संदर्भ में थोड़ा हट कर सोचते हैं. अपनी
बहुचर्चित किताब ‘गॉड डिल्यूजन’ में वह एक छोटा-सा सुझाव यह देते हैं कि क्या हम
‘‘ईसाई बच्चा/बच्ची’’ कहने के बजाय ‘‘ईसाई माता-पिता की सन्तान’’ के तौर पर
बच्चे/बच्ची को सम्बोधित नहीं कर सकते ताकि बच्चा यह जान सके कि आंखों के रंग की
तरह आस्था को अपने आप विरासत में ग्रहण नहीं किया जाता.
उनका तर्क सरल है कि अगर संविधान हमें आस्था का अधिकार देता है तो वह कोई आस्था न रखने का अधिकार भी देता है. बदलते हुए समाज में जबकि सभी पहचानों के समान सम्मान की बात की जाती है, जहां हमने तृतीय लिंगी पहचान को भी अब स्वीकारा है तो आखिर किसी के ‘धर्म से परे तथा जाति से परे’ होने की पहचान को क्यों नहीं स्वीकार सकते. इस सन्दर्भ में उन्होंने भारत की बहुलतावादी परम्परा का भी उल्लेख किया है जिसे चार्वाकों, लोकायतों, नास्तिकों, मानववादियों, रैडिकल मानवतावादियों, समाजवादियों आदि ने रौशन किया है.
यह सोचने का सवाल है कि इतनी आसान सी बात से लोगों को काबिलेगौर क्यों नहीं दिखती?
निश्चित
ही इसका प्रमुख कारण धर्म या आस्था अधिकतर के जीवन का इतना अभिन्न हिस्सा होता है
कि उससे इतर जीवन की वह कल्पना तक नहीं कर सकते हैं. धर्म उनके लिए एक तरह से एक
‘सुरक्षा’ भी प्रदान करता है कि इस एकाकी दुनिया में वह आत्मिक तौर पर किसी न किसी
पर अवलंबित हो सकते हैं, इतना ही नहीं धर्म का संस्थागत
ढांचा भी उनके भौतिक एकाकी जीवन की भरपाई कर देता है.
स्पष्ट
है कि इसमें फैसला लेने में सब अधिक दुविधा का सामना इसलिए करते हैं क्योंकि हम
अक्सर धार्मिक मान्यता एवं नैतिकता को आपस में गड्डमड्ड करते हैं. हमें यह लगता है
कि बच्चे को अगर धर्म की शिक्षा नहीं दी जाएगी तो उसके ‘अनैतिक’ होने की सम्भावना
है. यह हम देख नहीं पाते कि दरअसल नास्तिक लोग अपनी सन्तानों को उन्हीं नैतिक
मूल्यों से अवगत कराते दिख सकते हैं, भले ही वह इन
मूल्यों/सिद्धान्तों को किसी खुदा के आदेश के तौर पर पेश न करते हों, बल्कि अन्य मानव जीवों के प्रति तदानुभूति के बात पर जोर देते हों.
बच्चे
की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि उसके बड़े जो कहें उसे चुपचाप मान लेना,
उस पर प्रश्न न करना; लेकिन उसका दूसरा पहलू
यह भी होता है कि हर चीज पर प्रश्न करना क्योंकि जिस भी चीज के सम्पर्क में आता है,
वह उसके लिए नयी है. अगर हम बच्चों के अपने अधिकार की अहमियत भी
समझें तो उसके स्वस्थ्य विकास के लिए क्या तरीका बेहतर होगा कि वह बिना प्रश्न
किए- अपने बड़ों के आदेशानुसार कहीं पहले झुकना सीखें या हम उसके मनोविकास के द्वार
चतुर्दिक खोलें ताकि उसकी संज्ञानात्मक प्रक्रिया ठीक से आगे बढ़ सके.
इस
सन्दर्भ में हमारी दुविधा इस वजह से भी बढ़ जाती है क्योंकि हम अपने इर्दगिर्द- फिर
चाहे राजनीति हो या सामाजिक जीवन हो- धार्मिकता के बढ़ते विस्फोट को भी देखते हैं.
दक्षिण एशिया के इस हिस्से में ईशनिन्दा के नाम पर सुनायी जानेवाली सज़ा ए मौत की घटनाएं
भी हमारे अन्तर्मन को कहीं न कहीं प्रभावित भी करती रहती हैं.
यह
भी स्पष्ट है कि अधिकतर लोग जिनके लिए तमाम स्थापित सहजबोधों को प्रश्नांकित करने
की जरूरत तक नहीं पड़ती, उनके लिए धर्म उनकी आदत का ही
हिस्सा बन जाता है, ऐसे में न वे गंभीरता से ऐसे उदाहरणों पर
गौर करते हैं जो एक वैकल्पिक रास्ता सुझाते हों, न वे इस बात
की भी पड़ताल करते हैं कि किस तरह आधुनिक युग की संस्थाओं ने धर्म पर प्रश्नांकन को
अधिकाधिक फैसिलिटेट किया है और न ही वे ऐसे उदाहरणों पर निगाह डालते हैं जहां धर्म
की मान्यताओं के जनमानस में गहराई में अंकित रहने से या धर्म के आग्रहों के मुल्क
के कानून को प्रभावित करने से किस तरह की दिक्कतें आती है.
और
यह चुनौती सिर्फ अपने मुल्क तक सीमित नहीं है.
इसके
एक छोर पर आप अपना ही कटा हाथ लेकर इलाके के इमाम को भेंट करने निकले 15 साल के
किशोर को देख सकते हैं तथा अपने इस लाडले की ईश्वर भक्ति का यह जीता जागता सबूत
देख कर माता पिता एवं गांववालों को भावविभोर होता देख सकते हैं और जुलूस की शक्ल
में उसके साथ नारे लगाते निकल पड़ें ?
जी
हां, मध्ययुगीन लगनेवाली यह घटना पड़ोसी मुल्क के लाहौर
से बमुश्किल 125 किलोमीटर दूर हुजरा शाह मुकीम नगर के एक गांव की है जब मस्जिद में
नमाज़ के पहले की तकरीर में इमाम पांचों वक्त़ नमाज़ पढ़ने की अहमियत बयां कर रहा था
और उसने अचानक पूछा कौन रोज नमाज़ नहीं पढ़ता है. 15 साल के कैसर (बदला हुआ नाम) ने
सवाल ठीक से सुना नहीं और हाथ खड़ा कर दिया. इसी बात पर इमाम ने कहा कि उसने ईश निन्दा
की है, उसे सफाई का मौका तक नहीं दिया और उसे सरेआम जलील
किया और संभवतः उसकी पिटाई भी की. आत्मग्लानि से भरा कैसर घर लौटा और इस बात को
प्रमाणित करने के लिए कि वह ईश निंदक नहीं है, उसने चारे की
मशीन में अपना हाथ काटा तथा इमाम को भेंट किया.
इस
घटना पर प्रतिक्रिया देते हुए ‘अवर हीरो ऑफ़ दे डे’ शीर्षक आलेख में पाकिस्तानी पत्रकार
नोमान अंसारी ने पूछा था कि (द डॉन, 16 जनवरी 2016)
एकबारगी विचलित करने वाली इस घटना को जब आप जज्ब़ करते हैं, आप
सोचने के लिए मजबूर होते हैं उस किशोर, उसके माता पिता,
इमाम और समूचे गांव की स्थापित मान्यताओं को लेकर. आखिर किस किस्म
के लोग वितृष्णा पैदा करनेवाले ऐसे दृश्य पर जश्न मना सकते हैं?’
अपने-अपने
धर्म की मान्यताओं के प्रति लोगों के विशिष्ट आग्रह, अगर किसी
मुल्क के कानून की किताबों में दर्ज हों, तो वह किस तरह
मानवाधिकारों के हनन का जरिया बन सकते हैं, इसे हम रोमन
कैथोलिक संप्रदाय बहुल आयरलैंड में भारतीय
मूल की एक चिकित्सक सविता की असामयिक मौत के सन्दर्भ में भी देख चुके हैं, जिनका वक्त रहते गर्भपात न करने से यह स्थिति बनी थी.
याद
रहे कि तमिलनाडु की तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता अस्पताल में भरती थीं तब उनकी
‘जान बचाने के नाम पर’ तमाम बच्चों को शरीर में सुइयां चुभोने जैसी रस्म से गुजरना
पड़ा ताकि ‘ईश्वर को खुश किया जा सके’ और उसे भी परम्परा का मुलम्मा चढाया गया.(
हिन्दुस्तान टाईम्स, 28 मार्च 2017) कर्नाटक के कुछ
इलाकों में बच्चे की शारीरिक विकलांगता दूर करने के नाम पर उसे कुछ क्षणों के लिए
जमीन में बाकायदा गाड़ा जाता है या सूबा महाराष्ट्र में बच्चों के नसीब को चमकाने
के लिए उन्हें पचास फीट उंचे टॉवर से नीचे फेंका जाता है, जिन्हें
नीचे कोई पकड़ लेता है.
अगर
राज्य की एजेसियां बाल अधिकारों को लेकर सम्वेदनशील न हों,
तो सन्तान के जान पर भी बन आ सकती है. कुछ वक्त पहले, तेरह साल की सुलोचना (बदला हुआ नाम), जो दक्षिण के
एक अग्रणी शहर में अंग्रेजी मीडियम स्कूल में आठवीं की छात्रा थी तथा एक समृद्ध
परिवार की सदस्य थी, जिसके परिवार में तमाम पढ़े लिखे लोग हैं,
उसकी मौत के बाद इस कड़वी सच्चाई से हम सभी रूबरू हुए थे.
मालूम
हो कि जैन समुदाय से सम्बद्ध सुलोचना समुदाय के पवित्र कहे जानेवाले समय चौमासा के
पूरी कालवधि में व्रत पर थी, अर्थात उसने अन्न
ग्रहण नहीं किया था. व्रत समाप्ति पर उसकी शोभायात्रा निकाली गयी थी और उसे ‘बाल
तपस्वी’ घोषित किया गया था. डाक्टरों के मुताबिक व्रत की समाप्ति के बाद अचानक
उसकी तबीयत बिगड़ी और दिल का दौरा पड़ने से उसका निधन हुआ. उसकी मौत पर बाल अधिकार
संरक्षक समूहों में जबरदस्त आक्रोश था. इस संबंध में मनोवैज्ञानिकों की राय स्पष्ट
है जो कहते हैं कि माता पिता द्वारा अनजाने से जो दबाव डाला जाता है वह बच्चे को
मनोवैज्ञानिक तौर पर पंगु बना सकता है. और जब हम इसमें धर्म को खींच कर लाते हैं
तो उसके साथ अपराध बोध भी जुड़ जाता है कि
फलां चीज़ नहीं की गयी तो उससे विपत्ति आ सकती है. बच्चे को यह यकीन दिलाया जाता है
कि यह सब परिवार की बेहतरी के लिए है और उसे महज अपने स्वास्थ्य का कुछ त्याग करना
है. उसकी मौत के पांच माह बाद पुलिस ने ‘सबूतों के अभाव में’ इस केस को समाप्त
करने का निर्णय लिया.
कटा
हुआ हाथ लेकर निकला वह किशोर और जश्न मनाते लोग या चौमासा में अन्न ग्रहण न की वह
किशोरी और उल्लसित समाज आदि ख़बरों के बीच हम उन ख़बरों को भी पलट सकते हैं जहां
कुछ नयी लकीरें भी बन रही हैं, कुछ नयी जमीन भी
तोड़ी जा रही है, नयी बयार भी बहती दिख रही है.
3
धर्म
लोक प्रचलित तर्क पद्धति है, धर्म उत्पीड़ित प्राणी
की आह है, एक हृदयहीन संसार का हृदय है ..अधार्मिक आलोचना का
आधार हैः मनुष्य धर्म की रचना करता है, धर्म मनुष्य की रचना
नहीं करता है. धर्म मनुष्य की स्व-चेतनता और स्व-प्रतिष्ठा है, ऐसे मनुष्य की जो अभी तक अपने आपको जान नहीं पाया है, या फिर-फिर से भटक गया है. लेकिन मनुष्य जिसने इस संसार से बाहर पड़ाव डाल
रखा हो, कोई अमूर्त प्राणी नहीं है. मनुष्य तो मनुष्य का
संसार, राज्य और समाज है.”[2] कार्ल मार्क्स
लगभग
तीन साल पहले केरल के जानेमाने फुटबॉल खिलाड़ी विनीत की जिन्दगी का एक छोटा-सा कदम राष्ट्रीय
सुर्खियां बना.
अपने बेटे के जन्म प्रमाणपत्र के लिए दी गयी उनकी दरखास्त में उन्होंने जाति और धर्म का कॉलम खाली छोड़ा था. पत्रकारों द्वारा पूछे जाने पर उन्होंने टका-सा जवाब दिया था कि मेरी सन्तान वयस्क होने पर खुद तय करेगी कि वह अपने आप को क्या प्रस्तुत करना चाहती है? उसका पिता होने के नाते मैं जन्म से प्राप्त अपनी पहचान उस पर कैसे लाद सकता हूं ?
संयोग
कह सकते हैं कि विनीत इस मामले में अकेले या अपवाद नहीं है,
इसकी ताईद राज्य की विधानसभा में भी हुई थी. निवर्तमान केरल
विधानसभा में कैबिनेट मंत्री सी रविन्द्रनाथ द्वारा दिए गए लिखित जवाब के बाद यह
साफ हो गया था कि सी के विनीत अकेले नहीं हैं. रेखांकित करने वाली बात है कि केरल
के स्कूलों में पढ़ने वाले- पहली से बारहवीं कक्षा तक के- एक लाख चौबीस हजार से
अधिक बच्चों ने अपने प्रवेश फार्म में धर्म या जाति का उल्लेख नहीं किया है. इनमें से एक लाख 23 हजार बच्चे पहली से दसवीं
कक्षा के हैं जबकि एक हजार से अधिक बच्चे ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा में पढ़ते हैं.[3]
फिलवक्त
छात्रों की यह संख्या- कुल छात्रों की संख्या 42 लाख से महज तीन फीसदी दिखती हो,
मगर एक ऐसे समय में जबकि धर्म के नाम पर दंगा-फसाद- झगड़े आये दिन की
बात हो गए हों, जाति को लेकर ऊंच-नीच की भावना और तनाव 21
वीं सदी की दूसरी दहाई में भी मौजूद हों, उस पृष्ठभूमि में
यह ख़बर ताजी बयार की तरह प्रतीत होती है. 11 वीं एवं 12 वीं कक्षा के हजार से
अधिक छात्रों का इस सूची में होना यह बताता है कि उनके माता पिता ने यह अहम फैसला
एक दशक से पहले लिया था.
इंडियन
रैशनेलिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष नरेन्द्र नायक बताते हैं कि दस साल पहले उनके शहर
मंगलौर में एक मलयाली युगल ने भी अपनी जुड़वा सन्तानों को स्कूल में दाखिला देने के
पहले जाति और धर्म के कॉलम को भरने से इनकार कर दिया था. केरल के कांग्रेस के
विधायक वी टी बलराम और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के लोकसभा सदस्य एम बी राजेश
भी उन माता पिताओं में शुमार हैं जिन्होंने बच्चों के एडमिशन फार्म में जाति और
धर्म लिखने से तौबा किया था.
संविधान
की धारा 51- जो नागरिकों के बुनियादी अधिकारों को लेकर है तथा जिसमें वैज्ञानिक
चिन्तन, मानवता, सुधार
और खोजबीन की प्रवृत्ति को विकसित करने पर जोर देती हो- का उल्लंघन जब अपवाद नहीं
नियम बनता जा रहा हो, उस पृष्ठभूमि में केरल का यह अलग किस्म
का मॉडल निश्चित ही प्रेरित करता है.
कोई
पूछ सकता है कि क्या यह परिघटना महज केरल केन्द्रित है. निश्चित ही नहीं !
मिसाल
के तौर पर इस प्रसंग के सुर्खियां बनने के पहले वर्ष 2017 में हैदराबाद उच्च
न्यायालय में दायर एक जनहित याचिका की चर्चा थी जिसमें यही सवाल फोकस में था अपनी
सन्तान को क्या माता पिता के नाम जुड़ी जाति तथा धर्म की पहचान के संकेतकों से
नत्थी करना अनिवार्य है. न्यायालय ने भी इस सम्बन्ध में आंध्र प्रदेश तथा तेलंगाना
की सरकारों को ही नहीं बल्कि केन्द्र सरकार को भी जल्द जवाब देने के लिए कहा था.
प्रस्तुत
याचिका को डी वी रामकृष्ण राव और एस
क्लारेन्स कृपालिनी ने अदालत में पेश किया था. अन्तर-धर्मीय एवं अन्तर-जातीय विवाह
किए इस दंपति ने जिसमें से एक धर्म में विश्वास रखता है तथा एक किसी धर्म का
अनुयायी नहीं है, यह तय किया है कि अपनी दोनों
सन्तानों के साथ वह जाति तथा धर्मगत पहचान नत्थी नहीं करना चाहते. उन्होंने देखा
कि ऐसा कोई विकल्प सरकारी तथा आधिकारिक दस्तावेजों में नहीं होता जिसमें लोग अपने
आप को ‘किसी धर्म या जाति से न जुड़े होने’ का दावा कर सकें, इसलिए
यह याचिका अदालत में प्रस्तुत की गयी थी ताकि इन फार्म्स में एक कॉलम ‘धर्म विहीन
और जाति विहीन’ होने का भी जुड़ सके.
अपनी
दोनों बेटियों - स्पंदना और सहजा को स्कूल में प्रवेश दिलाते वक्त या दसवीं के
इम्तिहान में फार्म भरते वक्त उन्हें जिन दिक्कतों का सामना करना पड़ा उसे मददेनज़र
रखते हुए उन्होंने अदालत का दरवाजा खटखटाया है. इसी मसले को लेकर उन्होंने एक ऑनलाइन
पीटिशन भी शुरू की थी.[4]
अपनी
इस पीटिशन में उन्होंने इस बात का विशेष उल्लेख किया था :
‘'भारत की जनगणना में ही छह धर्मों के लोगों को (हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, बौद्ध, सिख और जैन) को दर्ज किया जाता है जबकि सातवीं पहचान ‘‘धर्म बताया नहीं
गया (Religion not Stated)*’’ कहा जाता है, जो एक तरह से धर्म विहीन लोगों को लेकर सही अभिव्यक्ति नहीं है ..अगर हम वर्ष 2011 की जनगणना को देखें तो ऐसे लोग
जिन्होंने ‘धर्म की सूचना नहीं दी’ वह संख्या 28.7 लाख है. उनका भी वर्गीकरण
वैज्ञानिक पद्धति से किया जाना चाहिए. जन्म से लेकर मृत्यु तक जहां आवश्यक हो एक
और विकल्प होना चाहिए ‘धर्मविहीन और जातिविहीन’ Non Religious and No caste. ..धर्म के अधिकार का मतलब है धर्म न होने का भी अधिकार. एक बदलते समाज
में हमें चाहिए कि हम सभी पहचानो का उचित ढंग से सम्मान करें. ... ''
इस अलग किस्म के केरल मॉडल के सुर्खियों में आने के बाद तिरूपत्तूर की 35 साल की स्नेहा- जो पेशे से एडवोकेट हैं, तथा जो जन्म से ही बिना जाति और बिना किसी धर्म के पली-बढ़ी हैं, यहां तक कि उसके जन्म प्रमाणपत्र या स्कूल प्रमाणपत्र में भी जाति एवं धर्म की जानकारी अनुपस्थित है- का किस्सा भी चर्चा में रहा. वजह यह बनी कि खुद तमिलनाडु सरकार ने ही स्नेहा को यह प्रमाणपत्र दिया कि वह एक जाति और धर्मविहीन व्यक्ति है. शायद मुल्क की पहली ऐसी व्यक्ति जिसे ऐसा औपचारिक प्रमाणपत्र मिला हो.[5]
स्नेहा
ने संवाददाता को बताया कि उसके माता पिता, बहनें,
पति और बेटियां सभी जाति या धर्म की पहचान के बिना रह रहे है और
उन्हें जो प्रमाणपत्र मिला है, वह तो एक कानूनी दस्तावेज है,
हम सभी नास्तिक हैं. उसके पति पार्थिबराजा ने आगे बताया कि उनके सास
ससुर पी वी आनंदकृष्णन और मानिमोजी दोनों वकील हैं और दोनों अलग जातियों से
संबंधित थे, वे तर्कवादी हैं और वामपंथी हैं और स्नेह का नाम
तेलंगाना की उस लड़की की याद में रखा गया है जिसकी पुलिस हिरासत में मौत हुई थीं.
स्नेहा और उनके पति ने अपनी तीन बेटियों के नामों को अलग-अलग धर्मों के नामों के संमिश्रण से बनाया है - आधिराई नसरीन, आधिला इरेन और आरिफा जेसी.
4
‘मनुष्य की सीमाओं को पहचानने पर, उसकी दुर्बलता व दोष को समझने के बाद परीक्षा की घड़ियों में मनुष्य को बहादुरी से सामना करने के लिये उत्साहित करने, सभी ख़तरों को पुरुषत्व के साथ झेलने और सम्पन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बाँधने के लिये ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना हुई, अपने व्यक्तिगत नियमों और अभिभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा-चढ़ा कर कल्पना एवं चित्रण किया गया. जब उसकी उग्रता और व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है, तो उसका उपयोग एक भय दिखाने वाले के रूप में किया जाता है. ताकि कोई मनुष्य समाज के लिये ख़तरा न बन जाये. जब उसके अभिभावक गुणों की व्याख्या होती है, तो उसका उपयोग एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त और सहायक की तरह किया जाता है...’
मैं
नास्तिक क्यों हूं, भगतसिंह
रेखांकित
करनेवाली बात है कि अदालतें भी इस मामले में बेहद सकारात्मक रवैया अपनाती दिखती
हैं.
चौमासा
में अन्न न ग्रहण करने के चलते कालकवलित हुई सुलोचना को लेकर उठा विवाद अभी थमा ही
नहीं था कि सत्रह साल के एक बच्चे- जो आधिकारिक तौर पर वयस्क भी नहीं हुआ था तथा
जिसने 12 वीं की परीक्षा में 99.93 परसेन्टाइल हासिल किए थे- के बाल भिक्खु बनने
की ख़बर सुर्खियां बनी थीं. बताया गया था कि इनकम टैक्स आफिसर पिता एवं माता ने
अपनी इस संतान को बिल्कुल ‘धार्मिक’ वातावरण में पाला था,
उनके घर में टीवी या रेफ्रिजरेटर भी नहीं था और बिजली का इस्तेमाल
भी बहुत जरूरी होने पर किया जाता था क्योंकि उस दंपति का मानना था कि ऊर्जा
निर्माण के दौरान पानी में रहनेवाले जीव मर जाते हैं, जो
उनके धर्म के अहिंसा के सिद्धांत के खिलाफ पड़ता है.[6]
इस
प्रथा के खिलाफ उपरोक्त समुदाय के- खासकर श्वेताम्बर सम्प्रदाय में- अन्दर-विरोध
की आवाज़े भी बीसवीं सदी की शुरूआत से बुलन्द होती रही हैं.[7]
बम्बई
प्रांत और गुजरात के ‘मूर्तिपूजक श्वेताम्बर जैन’ समुदाय के बुद्धिजीवियों,
लेखकों, प्रगतिशीलों ने बाकायदा एक मुहिम
चलायी थी ‘बाल दीक्षा प्रतिबंध अभियान.’ वर्ष 1955 के बाद से यह कोशिश लगातार चलती
रही है कि बाल दीक्षा के खिलाफ संसद कानून बनाए. कुछ समय पहले समाज के युवकों ने
भी इसे रोकने के लिए जनजागरण अभियान चलाया था. वर्ष 2008 में मुंबई उच्च अदालत की
खंड पीठ ने यह कहा भी था कि ‘कोई भी धर्म किसी अल्पवयस्क को साधु नहीं बना सकता है.
यह सती प्रथा की तरफ खतरनाक मामला है और अल्प वयस्कों को दीक्षा लेने से रोकने के
लिए कानून बनाने की जरूरत है.’[8]
कुछ
साल पहले राजस्थान उच्च न्यायालय ने बच्चे के अधिकारों की हिफाजत में एक अहम फैसला
सुनाया था. न्यायमूर्ति सुश्री बेला त्रिवेदी ने अपने आदेश में बच्चे के माता पिता
को अपनी पांच माह की सन्तान मुल्क राज को एक साधु/गॉडमेन को सौंपने पर रोक लगा दी.
अदालत का कहना था कि जब पांच साल से छोटे बच्चे की परवरिश का जिम्मा पिता को नहीं
दिया जाता तो उसे किसी भी सूरत में उपरोक्त साधु को सौंपा नहीं जा सकता.
मालूम
हो कि जयपुर के एक व्यापारी युगल ने- जो मध्यप्रदेश के किन्हीं छोटे सरकार नामक
साधु के अनुयायी हैं- उन्होंने अपनी एक माह की सन्तान को उपरोक्त साधु को गोद में
दिया था, जिसने उस बच्चे को अपना उत्तराधिकारी
भी घोषित कर दिया था. जब यह ख़बर युगल के अपने माता पिताओं को लगीं तो उन्होंने दोनों
को समझाने की काफी कोशिश की, उन्हें कहा कि बच्चा कोई खिलौना
नहीं होता, बाद में जब वह नहीं माने तो उन्होंने जयपुर उच्च
अदालत का दरवाजा खटखटाया, जहां उनके पक्ष में निर्णय हुआ.
अदालत ने यह भी कहा कि यह बच्चा तय करेगा कि वह साधु बनेगा या शैतान, आप उस पर यह निर्णय क्यों लाद रहे हैं ?
देश
की आला अदालत का एक अन्य निर्णय इसी बात की ताईद करता है कि बच्चे के लालन पालन के
लिए उसे सौंपे जाने के मामले में धर्म एकमात्र पैमाना नहीं हो सकता.[9]
मालूम
हो अदालत नौ साल की एक बच्ची की अभिरक्षा से सम्बधित एक मामले पर गौर कर रही थी,
जिसमें उसकी नानी और दादी के बीच मुकदमा चल रहा था. मालूम हो कि
बच्ची का पिता अपनी मां की हत्या के जुर्म में सज़ा भुगत रहा है. सर्वोच्च न्यायालय
की न्यायमूर्ति बोबडे की अगुआई वाली पीठ ने इस मामले में बेटी की दादी की इस
याचिका को खारिज कर दिया- जिन्होंने दावा किया था कि मुस्लिम पिता और उसकी हिन्दू
पत्नी, जिसने विवाह के बाद इस्लाम धर्म कबूल किया था- कि
उनकी पोती के लालन पालन का अधिकार उन्हें मिलना चाहिए क्योंकि वह ‘‘मुस्लिम’’ है.
सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में मुंबई उच्च अदालत के निर्णय पर ही मुहर लगा दी
कि उसकी नानी ही बच्ची की अभिभावक हो सकती है. इस तरह अदालत ने बच्चे के कल्याण को
सर्वोपरि रखा.
बच्चे
का धर्म क्या हो, इसके बारे में बहस दक्षिण एशिया के
अन्य हिस्सों में भी जारी है.
मलेशिया
की उच्चतम अदालत ने तीन साल पहले यह फैसला दिया कि बच्चे का धर्म तय करने के लिए
दोनों माता पिताओं की सहमति जरूरी है. और इस तरह ए इंदिरा गांधी नामक महिला की- जो
पेशे से शिक्षिका हैं- की लगभग दस साल अपने पूर्व पति के साथ चल रही कानूनी जंग का
फैसला उनके हक़ में कर दिया. मालूम हो कि उनके पूर्व पति- जो मुस्लिम हैं- उन्होंने
सुश्री इंदिरा की सहमति के बिना ही अपनी तीनों सन्तानों को इस्लाम धर्म की दीक्षा
दी थी. याद रहे कि एक मुस्लिम बहुल मुल्क में- जहां इस्लामीकरण की हवाएं जोर पकड़ती
दिख रही हैं- वहां अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों को सुरक्षित करते इस
निर्णय की काफी सराहना हुई थी.[10]
अन्त
में, अपनी सन्तान को किसी आस्था के साथ नत्थी न करने
के माता पिता का आग्रह कभी शेष समाज के दबाव में रक्तरंजित शोकांतिका में भी बदल
सकता है, इसे भी ध्यान में रखने की जरूरत है. चार साल पहले
तमिलनाडु के कोईम्बतूर कार्पोरेशन के पास फारूक हामीद नामक तर्कवादी की हत्या हुई
थी जब इस्लामिस्टों के एक गिरोह ने उसे घर से बुला कर मार डाला था.[11]
पुलिस
के मुताबिक अपनी सन्तान की सालगिरह पर साझा की उसकी एक तस्वीर- जिसमें बच्ची
‘ईश्वर नहीं है’ लिखी तख्ती पकड़ी हुई थी- उसके पिता की बर्बर ढंग से हत्या का सबब
बनी थी. ए फारूक- पेशे से लोहे के कबाड़ के व्यापारी थे,
मगर वह सूबे में पेरियार रामस्वामी नायकर के विचारों के वाहक एक
संगठन द्रविडार विदुथलाई कझगम के कार्यकर्ता भी थे और समाज में तर्कशीलता का
प्रचार करते थे. वह एक वाटसएप ग्रुप का संचालन करते थे, जिसमें
तमिलनाडु के अलग-अलग इलाकों में फैले 400 से अधिक लोग सम्बद्ध थे, जिनमें अधिकांश मुस्लिम थे, जिसके जरिए वह तर्कशीलता
की बातों को लोगों तक पहुंचाते थे.
वैसे
बच्चे के धर्म को लेकर जारी चर्चा में हम भारतीय संस्कृति की धूमिल होती जा रही
वैज्ञानिक चिन्तन की धारा की झलक भी देख सकते हैं. सभी जानते हैं कि आज से ढाई
हजार साल पहले महात्मा बुद्ध ने एक वैचारिक क्रान्ति का आगाज़ किया था. बुद्ध के
बारे में यह बात प्रसिद्ध है कि उनके मृत्यु के पहले उनके परम शिष्य आनन्द ने उनसे
अन्तिम सन्देश पूछा था. बुद्ध का जवाब था ‘अप्पो दीपम् भव्’ ! अपने दीपक आप बनो.
क्या
हम अपनी सन्तानों को भी यह कहने का साहस बटोर सकते हैं.
बहु सम्यक और विचारणीय
जवाब देंहटाएंइस आलेख की विषयवस्तु का संबंध समूचे मानव समाज की उस आस्था से है जो कभी धर्म या जाति के नाम पर इतिहास में कटते-मरते रही है। इसपर चिंतन जरूरी है कि धर्म और जाति जन्म आधारित न हो।यह संपत्ति की तरह कोई उत्तराधिकार नहीं है, ना हीं माता-पिता से विरासत में प्राप्त। संविधान में भी धर्म चुनने और बदलने की आजादी मौलिक अधिकारों में शामिल है।ईश निंदा का कानून इस बात की तस्दीक़ है कि इस दुनिया के कुछ मुल्कों में अभी भी प्राचीन असभ्य कबिलाई समाज की बर्बरता और दरिंदगी विरासत के तौर पे जीवित है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंएक ज्वलंत प्रश्न पर संवेदनशील और तार्किक लेख।
जवाब देंहटाएंअन्ततः बच्चों की दुनिया बडों से ही तय होगी। यह हमें तय करना होगा कि हम उन्हें कैसी दुनिया देना चाहते हैं।
मौजूदा संरचनागत व्यवस्थाएं और प्रक्रियाएं आरंभ से ही बच्चे का समाजीकरण व सांस्कृतिरण घोषित रूप से करती हैं। जो कि परिवार व स्कूल के जरिए वस्तुतः बच्चे का अनुकूलन और उस पर मतारोपण है।
आप तिब्बती शिविरों में बच्चों की कठोर दीक्षा- चर्या देखें तो कांप उठेंगे। ऐसे उदाहरण सर्वत्र व्याप्त हैं।
Great article thanks for sharing this
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