(18th-century painting of Padmini.) महाकवि
जायसी कृत ‘पदमावत’ के ४८ वर्ष बाद 1588 ईस्वी में हेमरतन ने ‘गोरा
बादल पदमिणी चउपई’ की रचना
राजस्थानी भाषा में की थी. लगभग ६१६ छंदों और दस खंडों की इस कृति का हिंदी
रूपान्तर मध्यकालीन साहित्य के गहरे अध्येता और इधर मीरा पर हिंदी और उसके अंग्रेजी
अनुवाद (Meera vs Meera) से चर्चा में रहे प्रो. माधव माधव
हाड़ा ने किया है. इसका महत्व निर्विवाद है, और यह महत्वपूर्ण
कार्य है. माधव हाड़ा ने प्रभावशाली और प्रामाणिक अनुवाद किया है. जायसी की पदमावत और हेमरतन की इस कृति
को सामने रखकर जहाँ हम दोनों की विशेषताओं को समझ सकते हैं वहीं उस समय की शासकीय
मनोवृत्ति में स्त्री और शौर्य की केन्द्रीय उपस्थिति के विभिन्न आयामों पर भी
रौशनी पड़ती दिखती है. जायसी की पदमावत में जो महाकाव्यात्मक सौन्दर्य,
दार्शनिक गहराई और ट्रेजिक अंत है वह उन्हें महाकवि बनाता है, और अपने समय में विशिष्ट
भी. हेमरतन के इस ‘केळवस्यू साची कथा’ को पढ़ते हुए यह अहसास बराबर बना रहता है.
‘गोरा बादल पदमिणी चउपई’ की अपनी कुछ
अलग विशेषताएं हैं. अध्ययन और विवेचन का यह अब एक नया क्षेत्र खुल रहा है. |
केळवस्यू साची कथा
(हेमरतनकृत गोरा-बादल पदमिणी चउपई का हिंदी कथा रूपांतर)
माधव हाड़ा
1.
चारों ओर फैला हुआ चित्रकूट पर्वत पृथ्वी के नेत्र की तरह विशालकाय था. उस पर देवता, मनुष्य और किन्नर निवास करते थे. राम ने वहाँ अपना वनवास किया था. पर्वत के ऊपर ऊँचा और अत्यंत कठिन दुर्ग था. दुर्ग में अत्यंत सुंदर अनेक महल थे, जिनमें लोग विवेक पूर्वक निवास करते थे. त्याग और भोग सहित सभी लाभ उनको सुलभ थे. देवता भी चाहते थे कि वे इस दुर्ग में रहें. ऐसे दुर्ग में गहलोत राजा रत्नसेन शासन करता था. वह पराक्रमी और प्रतापी था. उसकी पटरानी प्रभावती रूप में रंभा और शील में सती थी. इंद्र की इंद्राणी भी रत्नसेन की पटरानी के समान नहीं थी.
अप्सरा रंभा की तरह उसकी अन्य कई स्त्रियाँ भी थीं. पटरानी ने अपने पति को अपने गुणों पर मोहित कर लिया था. वह पाक कला में निपुण
थी और राजा उस पर मुग्ध था. दोनों का एक-दूसरे से पर बहुत प्रेम था. दोनों
एक-दूसरे से एक क्षण के लिए भी अलग नहीं होते थे. प्रभावती के वीरभाण नाम का
प्रतापी और वीर पुत्र था. राजा रत्नसेन अपनी संपूर्ण सेना के साथ राज्य करता था और
उसने अपने शत्रुओं का नाश कर दिया था. योद्धा उससे स्नेह करते थे और कोई उसके साथ
छल नहीं करता था. देवराज इंद्र जिनकी साख भरे, उसके यहाँ ऐसे एक लाख योद्धा थे.
एक दिन भोजन के समय दासी ने आकर राजा से प्रार्थना की कि-
“स्वामी! भोजन करें. बहुत विलंब हो
गया और भोजन तैयार है.”
राजा आकर आसन पर बैठा. सोने के थाल और कटोरों में, सोने के पाट पर पटरानी ने राजा को भोजन परोसा. राजा भोजन
करता जाता और बीच-बीच में बातें भी करता जाता था. रानी केले के पत्ते से उसको हवा
कर रही थी. भोजन करते हुए राजा ने प्रभावती से कहा कि-
“आज भोजन अच्छा नहीं लग रहा है. यह हमेशा की तरह स्वादिष्ट
नहीं है. सभी पकवान हैं, लेकिन स्वादहीन हैं. भोजन स्वादिष्ट हो, इसके लिए कोई युक्ति करो.”
रानी को बुरा लगा. उसने अभिमान पूर्वक कहा कि
“मेरा भोजन अच्छा नहीं लगता है, तो आप कोई नयी
स्त्री ले आइए. किसी पद्मिनी से विवाह करिए, जो आपको अच्छा भोजन कराएगी. मुझे तो भोजन कराना आता नहीं है.”
मान में रानी विनय भूल गई. राजा भोजन छोड़कर तत्काल उठ खड़ा
हुआ. उसने कहा कि-
“अब मैं पद्मिनी स्त्री लाकर उसके हाथ से ही भोजन करूँगा.”
उसने खड़े होकर मूँछ मरोड़ी और घर से बाहर निकल गया. उसने
खवास (निजी सेवक) को साथ लिया और ख़जाना साथ लेकर दोनों चुपचाप चल पड़े. किसी को
इसका पता नहीं लगा. राजा ने प्रण किया कि-
“पद्मिनी के बिना घर नहीं आऊँगा, भले ही पहाड़ और गुफाओं में रहना पड़े. पद्मिनी के बिना शय्या पर नहीं सोऊँगा और
न ही प्रेम करूँगा.”
यह प्रण करके दोनों बीस-तीस योजन चले और फिर विचार किया कि
जैसे ऊसर खेत में बीज नहीं लगता, बिना झगड़े के शांति नहीं होती और बिना बादल के बरसात नहीं होती वैसे ही सिंघल जाने के लिए वहाँ का मार्ग तो
पता होना चाहिए. राजा ने सेवक से कहा कि-
“पद्मिनी के लिए मैं पृथ्वी भी लाँघूँगा. पद्मिनी जहाँ होगी, मैं वहाँ जाऊँगा. वह प्रसिद्ध जगह मुझे बताओ.”
सेवक ने कहा कि-
“हमारे पास ख़र्चा वगैरह सब है, लेकिन जब तक
मार्ग का पता नहीं लगे, तब तक उलझन है.”
राजा एक वृक्ष के नीचे बैठ गया, तभी वहाँ एक
पथिक आया. वह भूखा, प्यासा और बहुत थका हुआ था. राजा ने उसका उपचार
किया. उसे पानी पिलाया और खाना खिलाया. उसने सचेत होकर राजा से कहा कि-
“आपने मुझ पर उपकार कर मुझे दूसरा जन्म दिया है. मेरे योग्य
कोई काम हो, तो बताना. मैं सेवक और आप स्वामी हैं.”
राजा ने उससे पूछा कि-
“तुमने बहुत देश-विदेश देखे हैं. पृथ्वी भ्रमण करते हुए
क्या तुमने किसी पद्मिनी के संबंध में सुना है?”
तब उसने उत्तर दिया कि-
“मेरे स्वामी! सिंघल द्वीप में बहुत पद्मिनी स्त्रियाँ हैं. सिंघल द्वीप दक्षिण में है और
बीच में समुद्र की बाधा के कारण कोई वहाँ जा नहीं पाता है.”
यह सुनकर राजा प्रसन्न हुआ और सिंघल द्वीप की दिशा में चल
पड़ा. कई नगरों और गाँवों का लाँघता हुआ वह समुद्र के समीप आ गया. सामने समुद्र
लहरा रहा था. मनुष्य तो क्या, हवा भी उसमें प्रवेश नहीं कर सकती थी. रत्नसेन
ने सोचा कि-
“भगवान जगदीश ने मेरे साथ कैसा किया?”
राजा के चित्त में पद्मिनी थी, लेकिन समुद्र की
लहरें बहुत भयावह थीं. समुद्र के पास घूमते हुए राजा की भेंट एक उदास योगी से हुई.
राजा ने उस सिद्ध योगी का प्रणाम किया और कहा कि-
“मुझे पद्मिनी किस तरह मिलेगी. मुझे दुःख देखते हुए बहुत
दिन हो गए हैं. आप मुझ पर दया कीजिए.”
योगी ने राजा रत्नसेन को पहचान लिया. उसने कहा कि-
“तुम मेरे पास आ गए हो, तुम्हारा भला
होगा.”
योगी ने आकाश में उड़ने की अपनी विद्या का स्मरण किया और
दोनों को अपनी बाँहों में भरकर सिंघल द्वीप पहुँचा दिया. नगर के समीप पहुँचकर योगी
अदृश्य हो गया. राजा प्रसन्न होकर द्वीप देखने लगा. नगर में बहुत कोलाहल था. राजा
को यहीं एक व्यापारी से ज्ञात हुआ कि सिंघल द्वीप के राजा की महिमा और गुण बहुत है.
उसकी बहिन प्रत्यक्ष पद्मिनी है, और उसकी तीनों लोक में कोई उपमा नहीं है. वह
कहती है कि-
“जो कोई मेरे भाई पर जीत हासिल करेगा, मैं उसी के कंठ में वरमाला डालूँगी.”
सिंघल द्वीप के राजा का प्रण है कि जो कोई उसे युद्ध या बात या शतरंज में पराजित करेगा उसे वह आधा राज्य और ख़जाना देगा और उसका परिणय अपनी पद्मिनी बहिन से करवाएगा. राजा रत्नसेन को शतरंज का खेल जँचा. यह बात सिंघल द्वीप के राजा के पास पहुँची, तो वह मन में प्रसन्न हुआ और रत्नसेन को बुलाकर आसन दिया. उसने रत्नसेन का बहुत स्वागत-सत्कार किया. दोनों खेलने के लिए बैठे हुए ऐसे लगते थे, जैसे सूर्य और चंद्रमा हों. उनके पास में कोमल और कमलमुखी कामिनी पद्मिनी बैठी.
रत्नसेन के शतरंज खेलने के दौरान ही पद्मिनी का मन उस पर आने लगा. वह कामना करने लगी कि रत्नसेन जीत जाए. सिंघलपति को आशंका हुई कि कामदेव के रूप-सौंदर्य और सुंदर वेषवाला यह व्यक्ति ज़रूर कोई शक्तिशाली राजा है. खेलते हुए सिंघलपति हार गया. पद्मिनी ने वरमाला रत्नसेन के कंठ में डाल दी. सिंघलपति ने रत्नसेन को अपना आधा राज्य और भंडार दे दिया. पद्मिनी के पास रूप की भंडार एक हज़ार दासियों के रहने का विधान था.
पद्मिनी पर भ्रमर गुंजार करते थे. वे
पद्मिनी की सुगंध पर मुग्ध थे. पद्मिनी रूप-सौंदर्य में इंद्राणी से भी अधिक थी.
रत्नसेन ने पद्मिनी से विवाह किया, उसकी इच्छा पूरी हुई. दस-पाँच दिन वहाँ रहने के
बाद रत्नसेन ने विदा की आज्ञा माँगी. सिंघलपति सेना सहित रत्नसेन के साथ हुआ और
उसने उसको समुद्र पार करवाया. समुद्र के पार पहुँचाने के बाद सिंघलनाथ ने लौटने की
आज्ञा माँगी. प्रीति-रीति का पालन करते हुए दोनों एक दूसरे से विदा हुए.
2.
राजा रत्नसेन चुपके चला गया था- इसका रहस्य किसी को ज्ञात नहीं था. संध्या हुई और जब राजा का पता नहीं चला, तो बाहर-भीतर सब चिंतित हुए. रानी प्रभावती ने बताया तो पता चला कि राजा क्रोधित होकर पद्मिनी से विवाह करने के लिए निकला है. रत्नसेन के योद्धा पुत्र वीरभाण ने राज्यसभा में कपट पूर्वक यह प्रचारित किया कि राजा अंदर जाप में है और इससे उसके प्रताप में वृद्धि होगी.
ऐसा करते हुए बहुत दिन व्यतीत हो गए. योद्धाओं के मन में आशंकाएँ जन्म लेने लगीं. कुछ लोग सोचते थे कि राजा कुशल है, जब कि कुछ लोगों के मन में था कि बेटे ने राजा को मार दिया. ऐसी बातें हो रही थीं कि रत्नसेन आ गया. उसके साथ चार हज़ार घोड़े, दो हज़ार हाथी और दो हज़ार ऐसी पालकियाँ थीं, जिनमें पद्मिनी की सखियाँ बैठी हुई थीं. बीच की पालकी में पद्मिनी थी, जिस पर भ्रमर गुंजार कर रहे थे.
योद्धा इतने थे कि उनकी गिनती ही नहीं थी. इस तरह सेना और
हाथी-घोड़ों के साथ राजा दुर्ग की तलहटी में पहुँचा. इससे धूल उड़ी और कोलाहल हुआ.
वीरभाण के मन में आशंका हुई कि शत्रुदल आ गया है. चारों तरफ़ अफरातफरी मच गई. तभी
राजा का दूत पत्र लेकर वहाँ आ गया. वीरभाण कपट छोड़कर योद्धाओं के साथ उसके स्वागत
के लिए गया. रत्नसेन हाथी पर चढ़कर दुर्ग में आया. महोत्सव हुआ. पद्मिनी को दुर्ग
में महल दिया गया- उसके पास चंचल, चपल और सुंदरी एक हज़ार दासियों रहती थीं.
रत्नसेन रानी प्रभावती के पास गया और कहा कि-
“पद्मिनी ले आया हूँ. मुझे शाबासी दो. तुमने बड़ा बोल बोला
था. अब मैं स्वादिष्ट भोजन करूँगा.”
सुनकर रानी व्यथित हुई. उसने कहा कि
“मेरी जिह्वा मेरी दुश्मन हो गई. मेरे कृत्य से मेरा रत्नसेन गया. अब
पश्चाताप करने से क्या लाभ?”
राजा रत्नसेन पद्मिनी के साथ विलासमग्न रहने लगा. चंदन के
वृक्ष पर चढ़कर नागर बैल जैसे उससे लिपट जाती है, वैसे ही सुंदरी
पद्मिनी अपने पति से संयुक्त थी. राजा को रमण करते हुए कितने ही दिन बीत गए. उस
नगर में राघवचेतन व्यास रहता था, जो विद्वान् था और राजा उससे प्रभावित था. वह
राजमहल में निर्विघ्न विचरण करता था और राजलोक में उसका उठना-बैठना था. एक दिन
राजा पद्मिनी के साथ विलासमग्न था. वह उसको आलिंगन में लेकर चुंबन कर रहा था. उसी
समय राघव व्यास पद्मिनी के महल में पहुँचा- उसने राजा और पद्मिनी को विलासमग्न देख
लिया. राजा नाराज़ हुआ. उसने राघव पर कोप किया और कहा कि-
“राघव ने मुझे और पद्मिनी को देखा है- मैं इसकी आँखें
निकलवा लेता हूँ.“
राघव भयभीत हो गया- वह वहाँ से निकलकर बहुत मुश्किल से अपने
घर पहुँचा. कवि कहता है कि राजा कभी किसी का मित्र नहीं होता. चतुर व्यक्ति को यह
चतुराई नहीं है कि वह बिना बुलाए बार-बार आए, गोष्ठी में
अरुचिकर बात कहे और निकालने पर भी नहीं निकले.
3.
राजा की नाराज़गी अच्छी नहीं होती, यह सोचकर राघव व्यास ने अपना घर और चित्तौड़ छोड़ दिया और वह दिल्ली पहुँच गया. वह दिल्ली में ज्योतिष से प्रसिद्ध हो गया. वह वहाँ शास्त्र पठन-पाठन और विवेकपूर्ण वार्ताएँ करता. दिल्ली का बादशाह अलाउद्दीन ख़लजी था, जिसका संपूर्ण पृथ्वी पर शासन था और जिसे सभी राजा सलाम करते थे. उसने ब्राह्मण राघव व्यास की ख्याति सुनी. बादशाह ने उसको बुलवाया. व्यास ने बादशाह को कई कवित्त सुनाए, जिन पर सभी मुग्ध हो गए. बादशाह ने कहा कि ब्राह्मण गुणी है. उसने उसको उपहार, वस्त्र और गाँव दिए.
इस तरह राघव व्यास बादशाह के पास रहने लगा. एक दिन राघव
व्यास के मन में आया कि रत्नसेन ने मुझे अपमानित किया है. मैं उससे किसी तरह बदला
लूँगा. मैं उससे पद्मिनी छीनकर बादशाह को प्रस्तुत कर दूँगा. उसने इस निमित्त एक
भाट और खोजा से मित्रता कर ली. उसने दोनों को मान, महत्व और धन
दिया. उसने बादशाह के सामने पद्मिनी की बात चलाने के लिए दोनों से आग्रह किया. एक
दिन बादशाह दरबार में बैठा था, तो भाट हंस का कोमल और रोएँदार पंख लेकर दरबार
में आया. बादशाह ने उससे पूछा कि–
“इससे कोमल वस्तु के संबंध में क्या तुमने सुना
है?”, तो भाट ने कहा कि
“इससे कोमल और पतली पद्मिनी स्त्री है.”
बादशाह ने कहा कि ‘पद्मिनी कहाँ है?”, तो भाट ने कहा कि
“आपके हरम में हज़ारो स्त्रियाँ हैं, तो उनमें कुछ पद्मिनी भी होंगी.”
खोजे ने बात काटकर कहा कि
“आपके यहाँ तो सब सांखिनी स्त्रियाँ हैं.”
बादशाह ने कहा कि “तुम विश्वास दिलाओ”, तो खोजा ने कहा कि
“राघव व्यास को शास्त्र का ज्ञान है. पद्मिनी स्त्री की पहचान आप उससे पूछिए.”
बादशाह के पूछने पर राघव व्यास ने चारों प्रकार की स्त्रियों के भेद और पद्मिनी स्त्री के लक्षण विस्तार से बताए. पद्मिनी स्त्री की पहचान सुनकर बादशाह ने राघव व्यास से कहा कि-
“मेरे हरम की परीक्षा करो और उसमें से पद्मिनी बताओ.”
राघव व्यास ने उत्तर दिया कि- “मैं आपके हरम की परीक्षा नहीं कर सकता”, तो बादशाह ने कहा कि-
“मैं मणिमय आवास बनवाता हूँ. तुम उसमें प्रतिबिंब देखकर परीक्षा करना.”
राघव
व्यास ने परीक्षण किया और बताया कि हरम में हस्तिनी, चित्रिणी और
शंखिनी तो हैं, लेकिन पद्मिनी कोई नहीं दिखती. बादशाह ने जब यह
सुना तो कहा कि-
“पद्मिनी के बिना मेरे जीवन में उत्साह नहीं है. उसके बिना
रति, रंग, सुख आदि व्यर्थ हैं.”
उसने राघव व्यास पूछा कि- “पद्मिनी कहाँ मिलेगी?”, तो उसने बताया कि- “पद्मिनी दक्षिण दिशा में सिंघल द्वीप
में हैं और बीच में अथाह समुद्र है.” बादशाह ने कहा कि- “मेरे आगे सिंघल द्वीप
क्या है? मैं स्वर्ग-पाताल खोदकर पद्मिनी स्त्री खोज निकालूँगा.” हाथी-घोड़ों पर सत्ताईस
लाख लशकर के साथ बादशाह ने सिंघलद्वीप पर चढ़ाई की. हाथी-घोड़ों के चलने से उड़ी धूल
में सूर्य और चंद्रमा छिप गए. शेषनाग के लिए पृथ्वी का भार असहनीय हो गया.
4.
अलाउद्दीन ने अपने सभी योद्धाओं को साथ लेकर यलगार किया.
तीव्र गति से पृथ्वी लाँघकर वह समुद्र के समीप पहुँचा. वह युद्ध वीर और पराक्रमी
था. उसने कहा कि-
“मैं समुद्र को भरकर जमीन कर दूँगा और सिंघल द्वीप के सात
टुकड़े कर सिंघलपति को जीवित पकड़कर पद्मिनी लाऊँगा.”
यह कहकर उसने लशकर पानी में उतार दिया, लेकिन यह पानी में डूब गया. बादशाह को क्रोध आया. उसने नयी नावें बनवाकर फिर
योद्धाओं को उन पर आरूढ़ किया, लेकिन ये सभी भँवर में फँसकर खंड-खंड हो गईं. इस
तरह बड़े-बड़े योद्धा पानी में ही रह गए. बादशाह हठी था- उसने कहा कि-
“योद्धा मर गए, तो बला टली. दूसरे बहुत नए ले आऊँगा. एक हज़ार
वर्ष तक यहाँ रहूँगा, लेकिन बिना पद्मिनी के बिना वापस नहीं जाऊँगा.”
योद्धाओं ने राघव व्यास से कहा कि
“हे पापी! तूने बादशाह को क्या कुमति दी है कि कई योद्धाओं
का नाश हो गया है. अब कोई उपाय बताओ, जिससे बादशाह अपने घर लौट जाए.”
राघव व्यास ने कहा कि
“एक नई युक्ति करते हैं. एक हज़ार घोड़े और 500 हाथी, एक करोड़ दीनार और कई उपहार नावों में भरकर बादशाह से कहते हैं कि ये सिंघलपति
ने दंड स्वरूप भेजे हैं.”
और कोई उपाय नहीं देखकर सभी योद्धाओं ने यही किया.
रातों-रात प्रपंच किया गया. बादशाह को इसका पता नहीं था. सुबह जब उसने समुद्र में
वाहन देखें, तो पूछा कि
“ये किसके हैं?” तब व्यास ने
प्रेम पूर्वक बताया कि ये सिंघलपति की तरफ़ से हैं. नावों से उतरकर लोग बादशाह के
पाँवों में पड़े और कहा कि- “आप दिल्ली के बड़े बादशाह हैं. सिंघलपति तो आपके पाँवों
की धूल है. उसने यह सब आपके आतिथ्य के लिए भेजा है. यह आपके पान पर चूने की तरह है.
आप दया कीजिए.” बादशाह इन विनयपूर्ण वचनों से प्रसन्न हुआ. उसने सिंघलपति के लिए
सिरोपाव दिया. सिंघलपति के भेजे उपहार उसने अपने योद्धाओं में बाँट दिए और सेना
सहित वहाँ से कूच कर दिल्ली आ गया.
5.
बादशाह अपने नगर आ गया, लेकिन जगह-जगह
लोग बात करते थे कि बादशाह पद्मिनी के लिए गया था, लेकिन बिना
विवाह किए क्यों आया. जगह-जगह स्त्रियाँ बात करती थीं कि बादशाह यों तो तेज़ है, लेकिन पद्मिनी के मामले में इतना सीधा क्यों हुआ. बादशाह अपने घर
आया. सेवक जब उसके शस्त्र लेकर भीतर गया, तो बड़ी बीबी ने कहा कि-
“बादशाह ने जिस पद्मिनी से विवाह किया है, उसको मुझे दिखाओ. मैं उसको एक बार अपनी नज़र में निकालना चाहती हूँ. जिसके घर
में चार पद्मिनियाँ नहीं है, उसके लिए तो सारा संसार सूना है. सुल्तान की
सुल्तानी व्यर्थ है, जो यदि उसने पद्मिनी से रमण
नहीं किया.”
बीबी जब सेवक से बात कर रही थी, तभी बादशाह आ गया. उसने बीबी से कहा कि- “तुमने सही कहा है.” उसने तत्क्षण राघव व्यास को
बुलवाया और कहा कि “सिंघल द्वीप के अलावा पद्मिनी कहाँ है?, मुझे बताओ.” राघव व्यास ने कहा कि-
“एक पद्मिनी चारों दिशाओं में विख्यात चित्तौड़ में है.
युद्धवीर और पराक्रमी राजा रत्नसेन के घर में पद्मिनी उसी तरह है, जैसे शेषनाग के पास मणि है. उसको कोई ले नहीं सकता.”
बादशाह ने कहा कि- “हे ब्राह्मण! मैं दुर्गपति को जीवित
पकड़कर खड़े-खड़े पद्मिनी ले लूँगा.” बादशाह ने शक्तिशाली सेना के साथ चित्तौड़ पर
चढ़ाई की, जिससे धरती काँपने लगी और शेष नाग विचलित हो गया.
6.
हठी बादशाह सत्ताईस लाख लशकर और हथियारों के साथ दुर्ग की
तलहटी में आ गया. योद्धा हाथियों की तरह उन्मत्त होकर युद्ध करने लगे. आतिशबाजी
होने लगी. चारों दिशाओं में नगाड़े और ढोल बजने लगे. बादशाह को ससैन्य आया हुआ
देखकर रत्नसेन भी क्रोधित हुआ. उसने अपने योद्धाओं को बुलाकर सेना तैयार की. उसने
कहा कि-
“बादशाह! तू आ भले हो गया हो, लेकिन अब यहाँ
ख़त्म होकर ही रहेगा. अब मैं तुझे अपने हाथ दिखाऊँगा. दिल्लीपति! अब ढीले मत रहना, तुम कितने योद्धा हो पहले बता देना.”
रत्नसेन ने दुर्ग के कोट को दुरुस्त करवाया और दुर्ग के
द्वार बंद करवाकर सब अंदर प्रविष्ट हो गए. भीषण युद्ध हुआ. बादशाह ने अपने
योद्धाओं से एकत्र होकर गढ़ को ध्वस्त करने के लिए कहा. संध्या तक संग्राम हुआ, लेकिन सफलता नहीं मिली. कई मुसलमान योद्धा मारे गए. बादशाह मन में चिंतित हुआ.
राघव व्यास ने कहा कि-
“दुर्ग इस तरह से जीतना बहुत मुश्किल काम है. कपट करके ही
काम हो सकता है. रत्नसेन को वचन दो और कहो कि हम उससे विचलित नहीं होंगे. किसी
प्रधान (प्रतिनिधि) को भेजो और उससे कहलवाओ कि बादशाह पद्मिनी के हाथ से भोजन करके
किले के मुख्य स्थान देखना चाहता है. उसकी और कोई माँग नहीं है. थोड़ी-सी सेना के
साथ वह दुर्ग में आएगा और भोजन करके वह दिल्ली लौट जाएगा.”
प्रतिनिधि ने यह प्रस्ताव रत्नसेन के सामने रखा और कहा कि
यदि आप बात मान लेते हैं, तो बादशाह इसके बाद दिल्ली लौट जाएगा. उसने कहा
कि-
“बादशाह को पद्मिनी स्त्री देखने की बड़ी इच्छा है. उसका वचन
सत्य है. वह आपका जन्मांतर का भाई है. उसने कुकृत्य के कारण असुर शत्रु के यहाँ
जन्म लिया है, जब कि सद्कर्मों के कारण आप चित्तौड़गढ़ के स्वामी
हैं.”
रत्नसेन ने कहा कि- “यदि बादशाह यह बात करता है, तो मुझे भी उससे मिलने का उत्साह है.” रत्नसेन ने सोचा कि बादशाह अपने वचनों
का पक्का है. वह थोड़ी-सी सेना के साथ भीतर आएगा. मेरे घर का अन्न ग्रहण करेगा और
इससे हमारे बीच परस्पर सम्मान बढ़ेगा.
7.
प्रतिनिधि जब लौटकर आया, तो बादशाह ने उससे पूछा कि- “क्या बात बन गई?” बादशाह के लिए
शपथ झूठी थी. वह मुँह से मीठा और मन में दुष्ट था. राघव व्यास ने रत्नसेन को पकड़ने
के लिए बादशाह से मंत्रणा की. राजा के मन में कोई छल-भेद नहीं था, लेकिन बादशाह के मन में द्वेष था. रत्नसेन ने दुर्ग का द्वार खोल दिया. बादशाह
तीस हज़ार सवारों के साथ दुर्ग में प्रवेश कर गया. रत्नसेन ने सरल मन से मंत्री को
उसका स्वागत करने भेजा. राघव व्यास सहित बादशाह तत्काल आ गया. किले में सब ने इस
कला से प्रवेश किया कि कोई दिखाई नहीं पड़ा, लेकिन वे सब एकत्र हुए, तो बहुत अधिक थे. रत्नसेन मन में नाराज़ हुआ.
उसने भी अपनी सेना लगा दी. बादशाह ने कहा कि-
“सेना क्यों लगा रहे हैं, हम युद्ध करने
नहीं आए हैं, दुर्ग देखकर चले जाएँगे. हमारे मन में कोई खोट, छल-भेद नहीं है.”
राजा ने कहा कि आपने थोड़ी-सी सेना लाने का निश्चय किया था, लेकिन आप तीस हज़ार सैनिक लाए हैं. फिर मैं क्या करता. आपके मन में क्या है, लेकिन यह धूर्तता है. बादशाह ने कहा कि-
“अतिथियों का सम्मान करना चाहिए. अभी
सुकाल है और अन्न बहुत है. हे राजा! बहुत-बहुत क्या करते हो. भोजन कराने में संकोच है और ख़र्च करते हुए ज़ोर आता है, तो इनको वापस भेज देते हैं.”
राजा ने कहा कि-
“हे बादशाह! सुनो, तुम और सैनिक बुला लो, लेकिन छोटी बात
मत करो. पानी और अन्न बहुत हैं, पकवान भी बहुत हैं. जो अच्छा लगे, वह भोजन करो, लेकिन छोटी बात मत करो.”
बातचीत करके दोनों प्रसन्न हुए. दोनों एक दूसरे के हाथ पर
ताली दी. दोनों में परस्पर विश्वास कायम हुआ और उनके मन की आशंकाएँ ख़त्म हुईं.
रत्नसेन भोजन का प्रबंध करने लगा. वह भीतर गया और पद्मिनी
से कहा कि-
“अब तुम बादशाह को भोजन करा दो, जिससे वह
प्रसन्न हो जाए.”
पद्मिनी ने उत्तर दिया कि-
“बादशाह को षटरस भोजन दासी परोसेगी.” दो हज़ार सुंदर दासियों
के पद्मिनी के पास रहने का विधान था. सभी प्रबंध करके दिल्लीपति को भोजन के लिए
भीतर बुलाया गया. महल की साज-सज्जा ऐसी थी, जैसे देवताओं का
विमान हो. रत्नजड़ित आवास थे और उनमें चित्र बने हुए थे. बादशाह वहाँ आकर बैठ गया.
उसके मन पद्मिनी को लेकर उत्साह था. दासियाँ आती थीं और अपना रूप दिखाती थीं- एक
आकर बैठने के लिए आसन देती, दूसरी आती और थाल सजाती, तीसरी आकर हाथ
धुलवाती और चौथी आती और चँवर ढुलाती थी. दासियाँ बार-बार आती-जाती थीं और इस तरह
बादशाह की बुद्धि विचलित होती जाती थी. वह कहता, यही पद्मिनी है- यह उसके जैसी सुंदर दिखाई पड़ती है. राघव व्यास ने बादशाह को
समझाया कि- “आप सँभलिए, ये सभी पद्मिनी की दासियाँ हैं. आप बार-बार मत
चौंकिए. पद्मिनी यहाँ क्यों आएगी.”
रंभा के समान दासियों को देखकर बादशाह ने विचार किया कि जब
दासियाँ इतनी सुंदर हैं, तो पद्मिनी कितनी सुंदर होगी. राघव व्यास ने कहा
कि-
“हे बादशाह! सँभलिए. पद्मिनी स्त्री की यह पहचान है कि वह
बिजली के समान झलकती है, कुंदन की कांति की तरह उजली है, अंधेरे में उजाला कर देती है, देखते ही मन को हरती है और वह कमल के समान है, जिसका भूलकर भी भ्रमर साथ नहीं छोड़ते. इसलिए जब वह आएगी, तो कैसे छिपेगी.”
बादशाह ने कहा कि-
“ये दासियाँ धन्य हैं, जो अपनी नजरों
से पद्मिनी की देह निहारती हैं.”
राघव व्यास ने कहा कि-
“ये ऊँचा दिखाई देने वाला आवास है, वहाँ पद्मिनी का
निवास हैं, राजा रत्नसेन यहीं रहता है और पद्मिनी से एक क्षण का विरह भी उसको सहन नहीं
होता. पद्मिनी को और कोई नहीं देखता, जो देखता है, वह पागल हो जाता है.”
सुल्तान और राघव व्यास बात कर रहे थे कि उसी समय पद्मिनी ने
उधर देखा और कहा कि- “देखूँ, असुर अलाउद्दीन कैसा है.”
दासी ने बताया कि वह झरोखे के नीचे बैठा है. पद्मिनी गज गति से चलती हुई झरोखे में
आकर बैठ गई. व्यास ने उधर देखा, तो उसे पद्मिनी बैठी दिखाई दी. उसने तत्क्षण
बादशाह से कहा कि-
“स्वामी! पद्मिनी देखो. बादशाह ने ऊँचे देखा, तो उसे
प्रत्यक्ष पद्मिनी दिखाई पड़ी. उसने कहा कि-
“अहो! पद्मिनी के सामने रंभा, रुक्मिणी, नागकुमारी, किन्नरी और इंद्राणी क्या हैं? ऐसा अनुपम
रूप-सौंदर्य इसका है कि दूसरी कोई स्त्री इसके अँगूठे के बराबर भी नहीं है.”
पद्मिनी उसके हृदय में बस गई. बादशाह मूर्च्छित होकर धरती
पर गिरने लगा. व्यास ने कहा कि-
“हे नरराज! संभलिए. व्यर्थ में अपनी लज्जा क्यों खो रहे हैं.
धैर्य धारण कीजिए, साहस रखिए, कोई दूसरा उपाय
करना पड़ेगा. जब तक रत्नसेन हाथ में नहीं आता, तब तक पद्मिनी
हाथ नहीं आएगी.”
चुप रहकर सब ने भोजन किया. राजा ने बादशाह को खूब अच्छी तरह
से भोजन करवाया. दोनों ने एक-दूसरे को उपहार- हाथी, घोड़े, वस्त्र आदि दिए. सभी अतिथि संतुष्ट हुए. बादशाह ने कहा कि–
“अब क़िला दिखाओ. हमें यहाँ आए
हुए बहुत समय हो गया है.”
रत्नसेन बादशाह को क़िला दिखाने ले गया. जो-जो प्रसिद्ध स्थान थे, सब उसको दिखाए. बादशाह ने कहा कि-
“ऐसा क़िला मैंने नहीं देखा.”
दोनों एक-दूसरे के प्रति उत्साहित थे. बादशाह ने कहा कि-
“आपने हमारा बहुत आतिथ्य किया. कोई काम-काज हो, तो बताना. अब हमें विदा दो.”
राजा ने कहा कि- “आगे चलिए मुझे अच्छा लग रहा है.”
यह कहकर वह किले से बाहर निकल गया. राजा के मन में कोई जटिलता नहीं थी, लेकिन बादशाह के मन में द्वेष था. व्यास ने बादशाह से कहा कि- “यह अवसर अच्छा
है. बाद में मत कहना कि मैंने नहीं कहा था.” बादशाह ने अपने सैनिकों को बुलाया.
उन्होंने तत्काल रत्नसेन की पकड़ लिया. बात बिगड़ गई. साथ में जो योद्धा थे वे
हतप्रभ रह गए. बेड़ी डालकर राजा को बिठा दिया गया. बादशाह ने उस पर जुल्म और अन्याय
किए. राजा शक्तिशाली था, लेकिन पकड़े जाने से बलहीन हो गया.
8.
बादशाह ने राजा का पकड़ लिया है और बात बिगड़ गई है, दुर्ग में जब सभी ने यह सुना, तो हलचल मच गई. योद्धा एकत्र हुए और दुर्ग के
द्वार बंद कर दिए गए. वीरभाण योद्धाओं के बीच आकर बैठा. सभी एक-दूसरे की आलोचना
करने लगे और दुर्ग में चिंता हो गई. एक ने कहा कि हमें रात में धावा करना चाहिए, तो एक ने कहा कि हम गढ़ में जूझेंगे, तो एक ने कहा कि हम मौका देखकर संघर्ष करेंगे, तो एक न कहा कि हमारा कोई नायक नहीं है और उसके बिना युद्ध व्यर्थ है. इस तरह
सभी विचार कर रहे थे और सभी के मन में भय था. इसी समय बादशाह एक प्रतिनिधि आया और
उसने कहा कि-
“बादशाह कहता है कि हमको पद्मिनी स्त्री दे दो, तो दुर्गपति को छोड़ देंगे. यदि तुम पद्मिनी नहीं दोगे, तो हम उसके
प्राण ले लेंगे. पद्मिनी नहीं दोगे, तो कई योद्धा
मरेंगे.”
सब ने सम्मानपूर्वक प्रधान से कहा हम विचार करेंगे और फिर
बतायेंगे. योद्धा विचार करने लगे कि यदि हम पद्मिनी देंगे, तो हमारा थोड़ा
भी मान नहीं रहेगा और यदि नहीं देंगे, तो सारी बात बिगड़ जाएगी. वीरभाण पद्मिनी देने
में प्रसन्न था, क्योंकि उसकी माता का सुहाग पद्मिनी ने लेकर
उसको दुःख दिया था. वीरभाण ने सभी को समझाया कि पद्मिनी देने से सब बच जाएगा. सभी
योद्धाओं ने तय किया कि सुबह हम पद्मिनी दे देंगे. यह विचार कर वे उठे थे कि
पद्मिनी को सब पता लग गया. पद्मिनी के हृदय में खलबली मच गई. उसने कहा कि–
“मैं अपने को चिता में जला दूँगी, लेकिन राक्षस
के घर नहीं जाऊँगी. मेरे पर यह कैसा समय आया है. मुझे शरण देने वाला कोई नहीं है.
हे भगवान जगदीश ! अब मैं क्या करूँ. रामचंद्र ने सीता को बाहर निकला, पांडवों ने द्रोपदी को दे दिया, मैं भी क्या राक्षसों से छूट पाऊँगी ? हे जीव ! मृत्यु ही सही है.”
उस नगर में क्षत्रियत्व का निर्वाह करने वाला गोरा रावत
रहता था. उसका भतीजा बादल भी योद्धा था. ये दोनों शक्ति के स्वामी और गुणी थे.
दोनों राजा से नाराज़ थे और उसकी कृपा नहीं लेते थे. दोनों चाकरी नहीं करते थे और
घर पर ही रहते थे. रत्नसेन ने उनको छोड़ रखा था. वे दोनों जा रहे थे, लेकिन दुर्ग पर घेरे के कारण नहीं जा पाए. दोनों क्षत्रिय थे- क्षत्रियत्व
धारण करते थे, अपयश से डरते और स्वामिधर्म का निर्वाह करते थे.
पद्मिनी ने मन में विचार किया कि–
“गोरा और बादल, दोनों गुणी हैं, मैं उनसे जाकर
प्रार्थना करूँ, दूसरों में तो रत्ती भर भी गुण नहीं हैं.”
यह विचार कर पद्मिनी पालकी में बैठकर सखियों सहित गोरा के
दरबार में आई. गोरा ने पद्मिनी को देखा, तो सामने दौड़कर आया और कहा कि–
“माता! आपने बहुत दया की. आप किस काम के लिए आई हैं. यह ऐसे हुआ जैसे आलसी के
घर पर चलकर गंगा आई हो.”
पद्मिनी ने कहा कि–
“मैं तुमसे मिलने आई हूँ. दया-धर्म की दीक्षा लेनेवाले योद्धाओं ने मुझे विदा
दे दी है. अब तुम भी मुझे विदा दे दो, तो मैं राक्षसों के घर चली जाऊँ. योद्धा
शक्तिहीन हैं, पृथ्वी से क्षत्रियत्व उठ गया है. योद्धाओं ने
तय किया है कि पद्मिनी देकर राजा को लेंगे.”
गोरा ने कहा कि–
“मैं तो दुर्ग में कहने मात्र के लिए हूँ. राजा का खर्च नहीं खाता, न मुझ से कोई परामर्श करता है. पर आप दुःखी मत होइए. सब अच्छा होगा. आप मेरे
घर आ गई हैं, तो राक्षसों के घर नहीं जाएँगी. योद्धा मर जाएँ, पर स्त्री देकर राजा को लेना ठीक नहीं है.”
गोरा ने आगे कहा कि मेरे बड़े भाई गाजण का पुत्र बादल बड़ा
शक्तिशाली है. हमें उससे भी परामर्श करना चाहिए. दोनों बादल के
यहाँ आए. बादल सामने दौड़कर आया. उसने प्रणाम किया और काम पूछा. गोरा ने उससे कहा
कि–
“सभी योद्धाओं यह मंत्रणा की है कि पद्मिनी देकर राजा लेंगे. इसके अलावा और कोई
उपाय नहीं है. पद्मिनी अपने पास आई है. जैसा तुम कहोगे, वैसा करेंगे.
योद्धा बहुत बैठे हैं, लेकिन जूझने के लिए कोई तैयार नहीं है. हमारे
पास कोई गाँव-ग्रास भी नहीं है. हम दो ही शरीर हैं और बादशाह के पास लशकर बहुत हैं.
हम उससे कैसे जीतेंगे?‘‘
पद्मिनी ने कहा कि–
“तुम्हारी शरण में आई हूँ. तुम रखो तो ठीक है, नहीं तो वापस
जाती हूँ. मैं चिता में जल जाऊँगी.”
यह सुनकर बादल ने कहा कि-
“हे बाबा! योद्धा हैं तो उनको रहने दो. उनसे क्या काम है.
मैं अकेला ही सब करूँगा. पद्मिनी ने आँगन में पाँव रखकर मेरा घर पवित्र किया है.
उसने पद्मिनी से कहा कि– “आप महल पधारें और मन में दुःख मत करें. मैं बादशाह को अकेला
ख़त्म करूँगा. शत्रु को ख़त्म करके राजा की विपत्ति दूर करूँगा और उसको घर लाऊँगा.
बादल के बोल झूठे नहीं होंगे.”
9.
पद्मिनी जैसे ही घर गई, बादल की माता आ
गई. उसने सब सुन लिया था. वह उदास थी- उसकी आँखों से आँसू बहते थे और वह निश्वास
छोड़ रही थी. माँ की यह दशा देखकर बादल ने पूछा कि– “किस कारण से तुम
इस तरह हो. तुम्हारे चित्त में क्या कष्ट है और तुम क्यों विचलित हो?” माता ने कहा कि–
“मेरे तुम्हारे बिना कोई नहीं है. तुम जबरदस्ती इस जंजाल में क्यों पड़ रहे हो.
बहुत योद्धा हैं, जिनको जागीरें मिली हुई हैं, हम तो अपना ख़र्च करते हैं. तुमने कभी कोई संग्राम नहीं किया, इसलिए तुम्हें युद्ध नहीं आता. अभी तुम बालक हो. अभी तो
तुम्हारा विवाह हुआ है. पहले अपनी पत्नी को तो साध लो, उसके बाद ऐसा कोई निश्चय करना.”
बादल ने जवाब दिया कि-
‘‘हे माता! तुमने ऐसा क्यों कहा? पहले तुम मुझे समझाओ कि मैं बालक किस तरह से हूँ.
मैं पालने में नहीं सोता. तुम मुझे बालक कहती हो, लेकिन देखो, में किस तरह उत्पात करता हूँ और राजाओं को
उखाड़कर स्थापित करता हूँ. शत्रुओं सिर उड़ा दूँ, तो ही मैं
तुम्हारा पुत्र हूँ. क्षत्रियत्व और संग्राम में मैं पीछे हटता हूँ, तो ही तुम्हें ऐसा कहना चाहिए.”
अपने योद्धा पुत्र की बातें सुनकर माता के मन में खलबली मच
गई. यह सोचकर कि बादल माता की बात नहीं मानेगा, वह बिलखती हुई
चली गई. उसने सारी बात बताकर अपनी बहू से कहा कि–
“वह मेरी सीख नहीं मारता. तुम्हारे प्रेम से रह जाएगा.”
सभी शृंगार करके और शोभाकारी वस्त्र पहनकर बादल की पत्नी आई.
वह रूप में रंभा के समान थी और लज्जा सहित ललित वचन बोलती थी. उसने कहा कि–
“स्वामी! मेरी बात सुनो. बादशाह बहुत दुष्ट और प्रबल है. तुम उससे कैसे जूझोगे. वे बहुत
हैं और तुम अकेले हो, फिर तुमने यह निश्चय क्यों किया.”
बादल ने कहा कि-
‘‘हे सुंदरी! हाथी बहुत और सिंह एक होता है, तो भी उसके मन
में कोई भय नहीं होता. हाथी के मद बहुत झरता है, लेकिन फिर भी वह
सिंह के सामने भागता फिरता है. सिंह हमेशा सामने धँसता है वह रोकने से पीछे नहीं
हटता.”
बादल की पत्नी ने कहा कि ‘‘स्वामी! मेरी बात का बुरा मत मानो. मैं अच्छी बात करती, लेकिन समय बहुत विकट है.‘‘ बादल ने कहा कि–
“मुझे युद्ध का बहुत भय मत दिखाओ. कायर हँस-हँसकर बातें करता है, लेकिन मौका आने पर खिसक जाता है.”
बादल की पत्नी ने कहा कि-
“भीषण युद्ध होगा और गोले चलेंगे. उस सब में तुम अकेले कैसे प्रवेश करोगे.”
बादल ने उत्तर दिया कि–
“तुमने यह कैसी बात कही, मैं घोड़े और हाथियों पर आरूढ़ और पैदल सैनिकों एक बार में ही चकनाचूर कर दूँगा. सत्ताईस लाख लशकर लूटकर बहुत माल घर लाऊँगा.”
बादल
को स्त्री ने कहा कि-
“हे स्वामी! रहने दो. अभी तो तुमने सेज भी नहीं सजाई. अपनी
स्त्री के साथ प्रेम भी नहीं किया. अभी तुम बालक की तरह निष्कलंक हो. तुमको तो
होंठों पर चुंबन देना भी नहीं आता. तुम क्या जूझोगे.”
बादल ने कुछ नहीं कहा. स्त्री ने फिर कहा कि–
“अभी तो तुमने मुझे भी हाथ नहीं लगाया, तो तुम शत्रुदल का नाश किस तरह करोगे?” बादल ने उलटकर
जवाब दिया कि-
‘‘हे सुंदरी! अब मैं तुम्हारी सेज पर उस दिन आऊँगा, जिस दिन शत्रु को जीत लूँगा. जब तक बादशाह को नष्ट कर धूल नहीं कर देता, तब तक कोई सेज, प्रेम और स्नेह नहीं हैं.”
यह सुनकर स्त्री को गर्व हुआ. उसने कहा कि–
“शाबाश! यह बहुत अच्छा है. मैं जन्म-जन्म से तुम्हारी दासी हूँ. जो तुमने बोला
है, उसका निर्वाह करना. किसी बात से विचलित मत होना. अब मैं युद्ध में तुम्हारे
हाथ देखूँगी- योद्धा तलवार और भाले चलाते हैं और उनके प्रहार अपने शरीर पर खूब
झेलते हैं. वे युद्ध में पाँव पीछे नहीं रखते और मरने का भय नहीं मानते. मेरा
जीना-मरना आपके साथ है. मैं आपको नहीं छोड़ूँगी.”
बादल ने कहा कि-
‘‘तूम मेरे हृदय में समा गई हो. तूमने बहुत अच्छी बातें कहीं. तुमने कुल की
मर्यादा रखी.”
पत्नी ने हथियार लाकर दिए, जिनसे योद्धा बादल ने शृंगार किया. फिर वह घोड़े पर चढ़ा और गोरा के यहाँ आया. उसने गोरा से कहा कि–
“तुम यहीं रहना. मैं एक बार बादशाह को देखकर आता हूँ.”
गोरा ने कहा कि तुम और मैं एक हैं. तुम जाते हो, तो मुझे कष्ट होता है. बादल ने कहा कि-
‘‘काका तुमने कच्ची बात की है. अभी मैं केवल भेद लेने जा रहा हूँ. युद्ध मैं और तुम साथ होंगे. मैं तुम्हारा दायाँ हाथ रहूँगा.”
गोरा रावत से पूछकर वह चला. आगे उसकी भेंट सभी योद्धाओं से हुई. उसने योद्धाओं की पूछा कि–
“आपने क्या विचार किया?” योद्धाओं ने उत्तर दिया कि–
“हम सभी ने एक मत से निश्चय किया है कि हठी बादशाह ने राजा को ले
लिया है और वह यहाँ आएगा, तो क़िला भी ले लेगा. पद्मिनी देकर छूट सकते हैं.
नहीं तो दुर्ग की भी कोई आस नहीं है. दुर्ग जाने पर कुछ नहीं रहेगा. फिर तुम जैसा
कहो करें.”
बादल ने कहा कि–
“आपने अच्छा विचार किया कि आप पद्मिनी देंगे. सही है, लेकिन एक बात मेरी भी सुनो. आप यह तय कर लें कि इसका समस्त देश में प्रचार
होगा, किसी के भी सिर पर सम्मान नहीं रहेगा और इससे
क्षत्रियत्व का लोप होगा. मान के बिना मनुष्य वैसा ही है जैसे कण के बिना व्यर्थ
भूसा है. काया-माया, दोनों व्यर्थ हैं– यह एक घड़ी टेढ़ी और दूसरी घड़ी
समान हो जाती है. कायर हो या योद्धा, मृत्यु किसी की नहीं टलती, इसलिए पशु होकर जुगाली करने से अच्छा तो युद्ध में घायल
होकर मरना है.”
यह सुनकर वीरभाण बोला कि–
“तुमने अच्छी बात कही, लेकिन तुम तिल मात्र भी नहीं समझते. बादशाह
ईश्वर का अवतार है. उसके साथ सत्ताईस लाख लशकर है. उसमें यवन योद्धा बड़े जुझारू
हैं.”
बादल ने कहा कि-
‘‘कुँवर, यह सोच अपनी नहीं है. सिंह विचार नहीं करता, वह हाथी को मार
देता है. ऐसा करते हुए जो मरता है, उसकी कीर्ति निर्मल होती है. काया के बदले यदि
कीर्ति मिले, तो यह खरीदने में महँगी नहीं है. काया तो चमड़े
की थैली है- यह एक क्षण उजली और अगले क्षण मैली हो जाती है. यदि इसके बदले कीर्ति
मिलती है, तो इसे लेते हुए पीछे कौन हटेगा?”
वीरभाण ने अब कहा कि-
‘‘बादल, तुम्हारी बुद्धि बहुत निर्मल है. अर्जुन की तरह
तुम श्रेष्ठ हो. जो तुम्हें अच्छा लगे, करो. राजा छूट जाए, पद्मिनी भी रह
जाए, इस बात से कौन प्रसन्न नहीं होगा.”
बादल ने कहा कि– “अभी बहुत काम शेष हैं, मैं लशकर में
जाता हूँ और सारी बात की थाह लेकर आता हूँ. सब को अभिवादन कर वह घोड़े कर चढ़ा तो
जैसे देवराज इंद्र का साहस संकट में पड़ गया.
10.
बादल दुर्ग के द्वार से नीचे उतरा. वह बुद्धिमान और साहस से परिपूर्ण था. उसका भाल चमक रहा था और उसका हृदय प्रताप और तेज से युक्त था. उसने नए शोभायमान वस्त्र पहन रखे थे और वह सभी शस्त्रों से सुसज्जित था. बादशाह ने उसे आते हुए देखा, तो यह पता करने के लिए दूत भेजा कि वह कौन है और उसके आने का प्रयोजन क्या है. दूत ने जब उससे पूछा तो उसने जवाब दिया कि–
“मैं बात करने आया हूँ और सुबह पद्मिनी ले आऊँगा. बादशाह मेरी राय मानेगा, तो मैं उसका बहुत काम करूँगा.”
दूत ने जब अपने स्वामी को जाकर यह बताया तो वह
बहुत प्रसन्न हुआ और उसने बादल को अंदर बुलवाया और बहुत सम्मान दिया. बादशाह ने
उससे उसका परिचय पूछा और कहा कि– “तुम यहाँ क्यों आए हो?” बादल अवसरानुकूल
बात करने में निपुण था. उसने सम्मानपूर्वक कहा कि–
“पद्मिनी ने मुझे अपना प्रधान बनाकर भेजा है. उसने जब से आपको झरोखे के नीचे
भोजन करते हुए देखा है, तब से वह काम दग्ध है. वह सोचती है कि वह स्त्री
धन्य हैं, जिसको आप जैसा पति मिला. वह विरह में व्याकुल बैठी रहती है और रात-दिन आपका
सपना देखती है. वह उदास रहती है- उसकी आँखों में आँसू है और बड़ी-बड़ी साँसे लेती है.
पद्मिनी को आपसे बहुत प्रेम है, लेकिन मेरे मुँह से यह कहा नहीं जाता. वह आलिम, आलिम करती रहती है. उसने मुझे यह सब कहा है. आपका प्रधान आया था, उसको सम्मान भी दिया, लेकिन योद्धा कहते हैं कि मर जाएँगे, पर पद्मिनी नहीं देंगे. मैंने सभी योद्धाओं को समझाया, तब जाकर आज बात
बनी है. आप मुझे विदा कीजिए. मैं पद्मिनी की पास जाता हूँ. वह बेचैन होकर आपके
संदेश की प्रतीक्षा करती होगी. विरहिणी से विरह की व्यथा नहीं सही जाती. काम की
पीड़ा उसके हृदय में चलती है. आपका संदेश अमृत रस जैसा है, आप से संदेश
लेकर मैं पद्मिनी को दूँगा.”
पद्मिनी के अपने प्रति प्रेम की बात सुनकर बादशाह बहुत
प्रसन्न हुआ. इस तरह बादल ने पद्मिनी रूपी गारुड़ी मंत्र से बादशाह रूपी सर्प को
कीलित कर दिया.
बादशाह ने बादल से कहा कि–
“तुम मेरे घर आज अतिथि हो. मैं तुम्हारी क्या सेवा और सत्कार करूँ. तुम्हें
देखकर मेरे मन को शांति मिली है. मैं पद्मिनी से प्रेम करता हूँ. तुम अपने
योद्धाओं का समझाकर मुझे पद्मिनी दिलवा दो.”
यह कहकर बादशाह ने बादल को एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ और
हाथी-घोड़े दिए. उनको लेकर बादल आया, तो उसकी माता और पत्नी बहुत प्रसन्न हुई. गोरा
भी मन में प्रसन्न हुआ कि अब बादल अपने काम में सफल होगा. पद्मिनी भी हर्षित हुई
कि बादल मेरे स्वामी का मुझ तक पहुँचा देगा. सभी योद्धाओं की बादल की शक्ति पर
भरोसा हुआ. आग दबी हुई हो, तो भी जला देती है. बादल ने
योद्धाओं के साथ बैठकर मंत्रणा की और कहा कि–
“दो हज़ार पालकियाँ सजाओ और यह बात किसी को भी पता नहीं लगना चाहिए. पालकियों
में दो-दो योद्धा रखना, जिनके पास शस्त्र हों और जो साहसी हों.
पालकियों को एक-दूसरे के पीछे रखना और कहना कि इनमें पद्मिनी की सखियाँ हैं. बीच
की पद्मिनी की पालकी की शोभा-शृंगार ख़ास हो. उसके ऊपर गुंजार करते हुए भ्रमर रखना.
इस पालकी में गोरा रावत रहेगा. पालकियों के बीच दूरी नहीं हो और ये इस तरह रहे कि
दुर्ग के द्वार से शुरू होकर सेना तक फैल जाएँ. ऐसा करके तुम आना और उचित समय की
प्रतीक्षा करना. मैं बीच-बीच में जाकर बात करूँगा और सारी बात बताता रहूँगा. मैं
जाकर राजा को लाऊँगा. उसको क़िले में पहुँचाकर हम सब आक्रमण करेंगे.”
यह विचार अच्छा है, सब योद्धाओं ने निश्चय किया तब तक सुबह हो गई. सबको अच्छी तरह समझाकर बादल ने वहाँ से प्रस्थान किया और वहाँ पहुँचा जहाँ लसकर में बादशाह बैठा हुआ था. बादल ने जाकर सलाम किया, तो बादशाह बहुत प्रसन्न हुआ. बादशाह ने कहा कि–
“बादल, समाचार दो, मैं तुम्हें बहुत देश दूँगा.”
बादल ने कहा कि–
“स्वामी! बात सिरे तक पहुँच गई है. मैंने सभी योद्धाओं को बहुत मुश्किल से समझाया है और पद्मिनी को क़िले के पीछे ले आया हूँ. सभी योद्धाओं का आग्रह है कि आप पहले विश्वास दिलाएँ, तो मैं पद्मिनी ले आऊँ.”
बादशाह ने कहा कि– “तुम्हें विश्वास कैसे होगा”, तो बादल ने कहा कि-
“आप अपने लशकर को भेज दीजिए और यदि भय हो, तो उसमें से दो-चार हज़ार रख लीजिए.”
दूसरा सभी लशकर प्रस्थान कर देगा, तो विश्वास हो जाएगा.” यह सुनकर उतावले और पगलाए बादशाह ने कहा कि– “मुझे किसका भय है. तुमने भी बादल क्या बात की !” बादशाह ने लशकर को कूच करने की आज्ञा दे दी. अच्छे दो-चार हज़ार योद्धा उसने पास रख लिए. बादशाह ने बादल से कहा कि-
“मैंने जैसा
तुमसे कहा था कर दिया, अब तुम जल्दी पद्मिनी लाओ और अपने वचन का पालन
करो.”
बादशाह ने फिर बादल को सिरोपाव और लाख स्वर्ण मुद्राएँ दीं. बादल उनको लेकर घर आया, जिससे उसकी माता प्रसन्न हुई. उसने योद्धाओं का संकेत किया और कहा कि–
“पालकियों के लेकर आना और उनको एक-दूसरे के पीछे रखना. किसी बात में शीघ्रता मत करना और क्षत्रियत्व की कोई नुकसान मत करना.”
यह कहकर वह पालकियों के आगे चलने लगा. उसने बादशाह को आते हुए देखा, तो कहा कि “आपके हरम में कई स्त्रियाँ हैं, लेकिन सौभाग्यवती आप पद्मिनी को करना.” बादशाह ने कहा कि-
“हरम की दूसरी
स्त्रियाँ पद्मिनी के नख के बराबर भी नहीं हैं. वे सब पद्मिनी को सेवा करेंगी.”
बादशाह ने बादल को फिर सिरोपाव दिया. उसने आकर योद्धाओं से
कहा कि–
“तुम यहीं ठहरना. मैं घात करूँगा. बात बाहर नहीं जानी चाहिए.”
बादल गढ़कर बातें करने लगा और इसमें समय ज़ाया करने लगा.
बादशाह जैसे-जैसे जल्दी करता, बादल उतना ही ठहरकर आगे बढ़ रहा था. उसने पालकी
लाकर बादशाह के सामने प्रत्यक्ष रख दी. बादल पालकी और बादशाह के बीच में बातचीत के
बहाने से चक्कर लगाने लगा. जब एक दिन प्रहर शेष रह गया, लशकर बहुत दूर निकल गया और आक्रमण का समय हो गया, तब बादल ने
बादशाह ने जाकर कहा कि-
‘‘स्वामी! पद्मिनी इस प्रकार कहती है कि उसे खड़े हुए बहुत समय हो गया है. उसकी
एक प्रार्थना आप सुनें. उसकी इच्छा है कि आपके घर आने से पहले वह एक बार रत्नसेन
से मिल ले और उससे दो चार बातें कर लें. आप रत्नसेन को दरबार में ले आएँ, तो इससे मुझे सुविधा होगी.”
बादशाह ने कहा कि-
“हे बादल! पद्मिनी ठीक कहती है. उसकी इस बात से मैं ख़ुश हूँ.”
उसने तत्काल आदेश दिया कि राजा रत्नसेन को छोड़ दो. बादल भीतर रत्नसेन को छुड़वाने गया, तो उसने पीठ
फेर ली उसने कहा कि–
“बादल! तुम्हें धिक्कार है. मुझे मुँह मत दिखाओ. तुमने मुझे गाली लगाई है.
पद्मिनी के बदले मुझे लेकर तुमने मुझसे वैर लिया है. क्षत्रियत्व के माथे पर तुमने
धूल डाल दी. वीरता ख़त्म हो गई.”
बादल ने उत्तर दिया कि–
“यह कुछ और बात है. आप मौन रहकर आगे चलिए. सब अच्छा होगा.”
बादशाह ने रत्नसेन से कहा कि–
“पद्मिनी से मिल आओ, जिससे मैं सद्भावनापूर्वक तुमको विदा दे दूँ.”
राजा पास-पास रखी हुई पालकियों की तरफ़ पद्मिनी से मिलने चला.
वह जब पालकी के भीतर प्रविष्ट हुआ, तो उसे सच्ची बात पता लगी. बादल ने कहा कि–
“एक से दूसरी पालकी में होते हुए आप गढ़ तक पहुँच जाओ और जब
वहाँ जाकर सचेत हो जाओ, तो ढोल बजाकर संकेत करना.”
यह सुनकर राजा प्रसन्न हुआ. वह सकुशल दुर्ग में पहुँच गया, जैसे सूर्य को राहु ने मुक्त कर दिया हो. जैसे ही कुशल-क्षेम के बाजे बजे, वैसे ही योद्धाओं ने गर्जना की और वे निकल पड़े. एक से एक पराक्रमी चार हज़ार
योद्धा बाहर निकले. आगे गोरा-बादल थे. योद्धा युद्ध करने लगे- वे तलवारें लेकर
शत्रु पर टूटे पड़े. उन्होंने बादशाह को ललकारते हुए कहा कि-
‘‘हे बादशाह! खड़ा रह. भाग मत जाना. हम तुझे पद्मिनी दिखाने के लिए लाए हैं. तुझे
उसका बड़ा चाव है. तू खड़ा रह, हम तुझे पद्मिनी देते हैं.”
यह कहकर वे जैसे ही आगे बढ़े, तो उनको बादशाह दिखाई पड़ा. युद्धवीर बादशाह ने बात बिगड़ जाने पर कहा कि-
“बादल ने धोखा किया है. सभी योद्धा एकत्र होकर आक्रमण करो.”
योद्धाओं में परस्पर युद्ध शुरू हो गया. बादल ने कहा कि–
“हे बादशाह, यदि तू युद्धवीर है, तो पाँव पीछे मत
रखना. तू योद्धा है, तो संग्राम करना, नहीं तो तेरी इज़्ज़त
नहीं रहेगी.”
बादशाह के जुझारू योद्धा यम दल की तरह भिड़ गए. धूल उड़कर
आकाश में छा गई, जिसमें सूर्य छिप गया. दोनों दिशाओं से बाण
छूटने लगे.
तलवारें चलने लगीं और उनके टकराने से चिनगारियाँ उड़ने लगीं. ऐसा लगता था जैसे अंधकार में अग्नि ज्वालाएँ हों. रुधिर प्रवाह चलने लगे, जैसे वर्षा ऋतु में नाले बहते हैं. योगिनियाँ खून से अपने खप्पर भर रही थी और शिव मुंड माल लेकर घूम रहे थे. धूल से प्रकाश अवरूद्ध था और गिद्ध मांस नोचकर टुकड़े ले जा रहे थे. सूर्य का रथ ठहर गया था और इसकी रक्ताभा निष्प्रभ हो गई थी. इसी समय गोरा दौड़कर वहाँ गया, जहाँ बादशाह था. उसने बादशाह पर तलवार से प्रहार किया, जिससे वह वहाँ से भाग छूटा. बादल ने कहा कि-
‘‘भागते हुए को मारना दोष है.‘‘
राजा रत्नसेन दुर्ग के ऊपर से संग्राम देख रहा
था. पद्मिनी भी गोरा-बादल को शत्रुओं का संहार करते हुए देख रही थी. पद्मिनी खड़ी
हुई बादल को आशीर्वाद दे रही थी कि-
“बादल, तुम्हारी बलिहारी है. तुमने मेरा सौभाग्य रख लिया. योद्धा तो बहुत हैं, लेकिन वे सभी व्यर्थ निकले. शक्तिशाली बादल एक ही योद्धा था, जो सत्य से नहीं चूका.”
बादल ने स्वामी धर्म और युद्ध की मर्यादा रखी. गोरा युद्ध
में बादशाह की सेना को नष्ट करके खेत रहा. बादशाह का लशकर को लूट लिया गया. बहुत
से मर गए या भाग गए. बादल अकेला था, लेकिन वह जीत गया. उसने बादशाह को छोड़कर यश लिया.
बादशाह ने बादल से कहा कि-
“तुमने अच्छा युद्ध किया. तुमने मुझे जीवनदान दिया. मैं तुम्हारी कीर्ति का
वर्णन कैसे करूँ.‘‘
बादशाह अकेला चला गया. गोरा-बादल ने युद्ध जीत लिया. गढ़ के
दरवाज़े खोल दिए. राजा रत्नसेन बादल को लेने सामने आया और दोनों एक-दूसरे के गले
लगे. उत्सव के साथ बादल को अंदर लिया गया और राजा ने आधा देश बादल को दे दिया.
पद्मिनी गर्व पूर्वक बोली कि-
“बादल के समान दूसरा कोई नहीं है. उसने मुझे सौभाग्य देकर प्रसन्न किया.”
उसने कहा कि
“बादल! तुम्हारी माँ धन्य है, जिसने तुम्हें
जन्म दिया. तुम्हारी पत्नी भी धन्य है, जिसके बादल जैसा पति है.”
पद्मिनी ने मोतियों का थाल भरकर बादल के माथे पर तिलक दिया
और उसको बधाई दी. उसने उसको अपना भाई बनाकर उसके घर पहुँचाया. वहाँ बादल का स्वागत
हुआ. मोती उछाले गए. सभी सगे-संबंधी उससे आकर मिले. शत्रुओं का संहार करके वह महल
के बीच में आया. उसकी स्त्री ने नए परिधान धारण करके उसको लंबा तिलक निकाला. तलवार
का आभूषण लेकर वह सामने आई. कुशलक्षेम के साथ घर आ जाने पर उसको बधाइयाँ दी गईं.
अब गोरा की स्त्री ने बादल से कहा कि
“तुम्हारे काका युद्ध में कैसे काम आए. उन्होंने कैसे प्रहार किए और शत्रुओं को
कैसे नष्ट किया?” गोरा ने कहा कि-
‘‘हे माता सुनो! मैं कैसे वर्णन करूँ! उन्होंने बहुत से हाथियों को मार दिया.
योद्धाओं का तो पार ही नहीं है. उन्होंने बादशाह को अकेला करके उस पर आक्रमण किया.
उन्होंने अपने शरीर को तिल-तिल छिदवा दिया और फिर स्वर्ग में पहुँच गए. उन्होंने
योद्धाओं को लाज रखकर कुल को उज्ज्वल कर दिया.”
यह सुनकर गोरा की स्त्री के मुख पर प्रसन्नता छा गई. उसे रोमांच हो आया. वह प्रसन्न होकर बोली कि-
“हे बादल! सुन, ठाकुर स्वर्ग में अकेले है. मेरे और उनके बीच में दूरी बहुत हो गई. वे मुझ पर गुस्सा करेंगे. अब देर मत करो. काकी को भी उनके स्थान पर पहुँचा दो.”
बादल यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ. उसने कहा कि- “माता, तुम धन्य हो.” गोरा की स्त्री शृंगार करके घोड़े पर चढ़ी.
राम-राम करती हुई उसने प्रस्थान किया और अग्नि स्नान कर लिया. वह स्वर्ग में अपने
पति पास पहुँच गई. इंद्र ने उसे आसन दिया. स्वर्ग में पहुँचने पर उसकी जय-जयकार हुई.
बादल के स्वामी धर्म का यश बखाना जाने लगा. उसके जैसा कोई योद्धा नहीं हुआ, जिसका तीनों लोकों में यश हो. उसने पद्मिनी की रक्षा की, राजा को वापस लाया, दुर्ग का दायित्व निभाया और युद्ध में मर्यादा
रखी. ऐसा बादल धन्य है.
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माधव हाड़ा (जन्म: मई 9, 1958)
प्रकाशित
पुस्तकें: सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया (2012), मीडिया, साहित्य और संस्कृति (2006), कविता का पूरा दृश्य (1992), तनी हुई रस्सी पर (1987), लय (आधुनिक हिन्दी कविताओं का सम्पादन, 1996). राजस्थान साहित्य अकादमी के लिए नन्द चतुर्वेदी, ऋतुराज, नन्दकिशोर आचार्य, मणि मधुकर आदि कवियों पर विनिबन्ध.
संपर्क: अध्येता,भारतीय उच्च अध्यान संस्थान, राष्ट्रपति निवास, शिमला-171005, मो. 9414325302 ईमेल: madhavhada@gmail.com
अद्धभुत!
जवाब देंहटाएंआभार!
हटाएंइस शानदार प्रस्तुति के लिए माधव हाड़ा जी और आपको साधुवाद।
जवाब देंहटाएंगोरा-बादल योद्धाओं की शौर्य-गाथा की प्रशस्ति में हेमरतन की काव्य-कृति जो चितौड़ के राजा रत्नसेन की रानी पद्मिनी पर केन्द्रित है और जिसका हिन्दी में कथा रूपान्तर माधव हाड़ा ने किया है,इस कथा की ऐतिहासिकता पर न जाते हुए, जो एक हद तक विवादास्पद भी रही है,उसे महाकवि जायसी की एक साहित्यिक रचना मानकर देखे जाने की जरूरत है। गौरतलब है कि साहित्यिक दृष्टि से 1540 में जायसी द्वारा रचित 'पद्मावत' मातृभाषा अवधि की अनुपम काव्य-कृति है,फारसी की नहीं। हमारी जातीय परंपरा की एक खूबी यह भी रही है कि कालांतर में मिथकीय चरित्रों और आख्यानों की रचना लगभग सारी भारतीय भाषाओं में होती रही है। राजस्थानी भाषा में हेमरतन की कृति को भी उस भाषा की मूल संवेदना की एक अभिव्यक्ति का रूप माना जा सकता है क्योंकि हर भाषा की एक अपनी सृजनात्मक भूख होती है।
जवाब देंहटाएंमाननीय दयाशंकर शरण जी
हटाएंयह रचना जायसी से प्रभावित या प्रेरित नहीं है और इसका 'पद्मावत' से कोई दूरदराज का भी संबंध नहीं है। गुजरात सहित उत्तर भारत कुछ इलाकों में पद्मिनी-रत्नसेन का कथाबीज जायसी से बहुत पहले मौजूद था और इसी आधार बनाकर हेमररतन सहित देश भाषाओं के कवियों ने अपनी रचनाएँ कीं। खुद हेमरतन ने अपनी रचनाओं ऐसी पूर्व रचनाओं को उद्धृत किया है। ये रचनाएँ भारतीय ऐतिहासिक कथा काव्य परंपरा का देशज पल्लवन और विस्तार है। जायसी के 'पद्मावत' अद्भुत रचना है, लेकिन यह ऐतिहासिक कथा काव्य की भारतीय परंपरा में नहीं आती। भारतीय कथाबीज परंपरा और संस्कृति से अपरिचित कतिपय 'आधुनिक' इतिहासकारों ने यह निषकर्ष निकाल लिया कि यह प्रकरण जायसी द्वारा कल्पित है, जो सर्वथा निराधार और मिथ्या है। संभावना यही अधिक है कि खुद जायसी ने लोक में मौजूद इस कथा बीज को आधार बनाकर मसनवी के ढाँचे में अपनी रचना की।
Madhav Hada जी, मैं आपके विचारों से सहमत हूँ,क्योंकि इस विषय पर मेरा कोई अधिकार (गहरा अध्ययन)नहीं है, जबकि निस्सन्देह आपका है। इस प्रेम-संबंध की ऐतिहासिक सत्यता चाहे जो भी हो, यह लोक-मानस में रचा-बसा एक मिथ तो है हीं जिसपर कई भारतीय भाषाओं में समय-समय पर काव्य-रचना हुई और जायसी की पद्मावत भी इसी परंपरा में है। आखिर निर्गुण सूफ़ी परंपरा की जड़ें भी तो इसी आबो-हवा की उपज है।
हटाएंअद्भुत
जवाब देंहटाएंपूरी चउपई पढ़ गया। अनुवाद अच्छा है हालाँकि उसमें सुधार की गुंजाइश है। चउपई को स्त्रीवादी दृष्टि से देखकर उसकी आलोचना की जा सकती है, लेकिन यह उसके लिए उचित अवसर नहीं। चउपई पढ़कर अपने पुरखों के क्षेत्र राजस्थान में वापिस पहुँच गया। मन प्रसन्न हुआ। हाड़ा जी को बधाई। 25 वर्ष पहले मैं भी उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला, में तीन वर्ष के लिए अध्येता था। उसकी भी याद ताज़ा हो आयी।
जवाब देंहटाएंमूल रचना सा आस्वाद करता गद्य पाठ
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएं!
साहित्य और इतिहास के अध्येताओं के लिए एक संग्रहणीय आलेख। शोध एवं रचनात्मक साहित्य का संगम प्रोफेसर माधव हाड़ा की विशेषता है। उसे यहाँ भी लक्षित किया जा सकता है :
जवाब देंहटाएंआभार!
हटाएंएक नई 'पद्मावत' पढ़ कर मज़ा आ गया. माधव हाड़ा जी को बधाई कि इसे बिल्कुल मौलिक रचना की तरह हमारे सामने प्रस्तुत किया है. अरुण भाई का आभार.
जवाब देंहटाएंयह एक शानदार दस्तावेज है ...जिसे समालोचन ने अपने पाठकों को नव वर्ष के उपहार में दिया...आभार अरुण जी
जवाब देंहटाएंपदमणि च उपई का अत्यंत रोचक और रोमांचक पाठ देने के लिए माधव हाड़ा जी निश्चय ही बधाई के पात्र हैं। एक नयी रचना से परिचय कराने के लिए धन्यवाद। - - हरिमोहन शर्मा
जवाब देंहटाएंरोचक एवं अप्रतिम।।
जवाब देंहटाएंपद्मिनी ,रत्नसेन और अलाउद्दीन के पात्रों में अवश्य ही कुछ ऐसा आद्यप्ररूपीय ( archetypal ) तत्व है जो बार -बार कवियों ,कथाकारों और फिल्म-निर्माताओं को आकर्षित करता है और वे उनके इर्दगिर्द तरह-तरह की रचनाएं बुनते रहे हैं | एक ऐसी अनोखी सुंदरी की कल्पना जिसकी देह-सुगन्ध से भौंरे तक आकर्षित होते हों और जिसके रूप का तेज न सह पाने से साधारण दर्शक मूर्छित हो जाते हों , एक ऐसे शूरवीर की कल्पना जो ऐसी सुंदरी को हासिल करने के लिए ज़मीन आसमान के क़ुलाबे मिला देता हो और एक ऐसे शक्तिशाली विधर्मी की कल्पना जो इस विवाहिता सुंदरी पर आसक्त होकर हर नैतिक-अनैतिक उपाय से उसकी प्राप्ति पर आमादा हो जाए हमारे कथा-जगत के चिर-परिचित तत्व हैं । स्त्रियों के पुरातन वर्गीकरण में भी पद्मिनी का नाम किन्हीं सर्वगुणसंपन्न स्त्रियों के लिए प्रयुक्त होता रहा है । जैसा डॉ माधव हाड़ा ने संकेत किया है ,एक सामंती और पुरुष-प्रधान समाज में इन पात्रों के इर्दगिर्द अनेक कथाओं का बुना जाना स्वाभाविक है । ऐसे ही एक लोक-कवि हेमरतन भी हुए हैं जिनकी कृति का हिन्दी में अनुवाद कर माधव जी ने हमें उससे परिचित करवाया है । इसके लिए वे हम सभी के साधुवाद के अधिकारी हैं । खुशी की बात है कि हेमरतन की इस कृति के संपूर्ण टेक्स्ट का अनुवाद अरुण देव जी ने समालोचन के पाठकों को उपलब्ध करा दिया । उम्मीद है पुस्तक प्रकाशन के समय माधव जी इस कृति के मूल रूप से भी पाठकों को परिचित कराना न भूलेंगे ।
जवाब देंहटाएंआभार, योजना यही है।
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