लम्बे समय तक कविताएँ
छंदों में कही जाती थीं सभी भाषाओं में. अब अधिकतर कविताएँ, अधिकतर भाषाओं में छंद जैसे किसी अनुशासन में नहीं लिखी जाती हैं.
इससे इनकी सामूहिक सम्प्रेषणीयता पर बहुत बुरा
असर पड़ा है अब यह अकेले में पढ़ी जाने वाली क्रिया हो चली है.
कविता में छंद के
पुनरागमन को लेकर कुछ कोशिशें भी इधर की गयीं हैं और उनपर बहस मुबाहिसे भी चलते रहते हैं.
कवि कृष्ण कल्पित की ये
ग्यारह कविताएँ छंद में नहीं लिखी गयीं हैं पर कविता से छंद के रिश्तों पर आधारित हैं, कवित्व से भरपूर हैं, और इस नजदीकी रिश्ते के टूटन की तड़प आप यहाँ बखूबी
महसूस कर सकते हैं.
आज कृष्ण कल्पित का जन्म दिन भी है.
आप सबकी ओर से उन्हें बधाई .
उर्फ़ छंदों को देश-निकाला ||
कृष्ण कल्पित
(१)
आज़ादी
से कुछ वर्ष पहले
और
तार-सप्तक के प्रकाशन के कुछ बाद
जब
आधुनिक नागरी प्रचारिणी सभा ने
जारी
किया यह फ़रमान कि छंद अब पुराने हुए
उनकी
आभा मटमैली हुई
नए
साहित्य में इनके लिए नहीं बचा कोई स्थान
उपेक्षित
और अपमानित होकर
छंद
निकल आए कविता से बाहर
छंद
निकल आए हिन्दी-भवन से बाहर
तब
से भटक रहे हैं छंद
इस
महादेश के रास्तों पर
गाड़िया
लुहारों की तरह बंजारों की तरह यायावरों की तरह बेरोज़गारों की तरह
वे
सुनसान रास्तों से गुज़रते हैं
भटकते
हैं वीरान रातों में
गीत
गाते हुए मजीरा बजाते हुए
लोहा
गर्म करते हुए लोहा कूटते हुए
वे
ठहर जाते हैं कभी किसी सुदूर गाँव में
किसी
सुनार के सुरीले कंठ में
किसी
जोगी के इकतारे में किसी स्त्री के रुदन में
वे
करते हैं विश्राम
किसी
बूढ़े पीपल किसी अश्वत्थ किसी नीम किसी बरगद की घनी छाँव में
पुरानी
स्मृतियों में डूबे हुए !
(२)
छंद अब बेकार हुए
जैसे बेकार हुई बैलगाड़ियाँ
जैसे बेकार हुए इक्के-तांगे और पालकियाँ-डोलियाँ
केवल रिक्शे अभी भी बचे हुए हैं
जो चल रहे हैं शहर की सड़कों पर
त्रिष्टुप छंद के बल पर
साइकिल चलाते हुए बच्चे, मज़दूर और कुछ अभागे नागरिक अभी बचे हुए हैं
जो साध रहे हैं अपने चपल पाँवों का छंद
अपने ही देश में विस्थापित छंद
भटक रहे हैं पगडंडियों और धूल भरे रास्तों पर
गिरते सम्भलते और संतुलन साधते हुए !
(photo by Yeow Chin Liang) |
(३)
अपने ही देश में जब छिन गई उनकी नागरिकता
तब देश निकाले का फ़रमान सुनकर
छंद चले जिप्सियों की तरह अपना देश छोड़कर
तब वेद-त्रयी भी चली उनके साथ
छंद मेरे पाँव हैं कहा वेद-त्रयी ने
वे जहाँ जाएँगे मुझे भी जाना होगा
छंद के छोटे-छोटे पहियों ने ढोया है मुझे
पाँच हज़ार वर्षों तक
मुझे स्मृति से अधिक बचाया है छंदों ने !
(४)
वेद-त्रयी चली तो
साथ-साथ चले सभी छंद
त्रिष्टुप चला अनुष्टुप चला
एकपदा द्विपदा और पँक्ति छंद भी चला साथ
अगाध चला वृहती चला गायत्री चला अष्टि चला
प्रगाध चला प्रस्तार चला शक्वरी चलाऔर साथ में अत्यष्टि और अतिजागती भी चला
मालिनी-मंदाक्रांता जैसे वर्णिक छंद भी चले
रोला रूपमाला और दोहा चौपाई जैसे
मात्रिक छंद भी चले
त्रयी के पीछे-पीछे
आदिकवि वाल्मीकि चले
कालिदास चले तो उनके साथ उपमा चली
भारवि का अर्थ-गाम्भीर्य चला
सरहप्पा चले दोहाकोश के साथ
गोरख चले जोग जगाते हुए
अमीर ख़ुसरो भी चला साथ सितार बजाते हुए
दो सुखने गाते हुए
जायसी चले तो तुलसीदास भी चले
पद्मावत और रामचरितमानस चला साथ
कासी का जुलाहा भी चला
दोहा रमैनी और साखी के साथ
कबीर के साथ रैदास भी चले मीरा भी चली
नाचते हुए
मतिराम चले घनानंद चले गंग चले केशव चले
तुकाराम चले अभंग गाते हुए
मीर चले ग़ालिब चले सौदा चले ज़ौक़ चले
फ़िराक़ चले मजाज़ चले जोश चले
रवीन्द्र चले नज़रुल चले इक़बाल चले
पंत चले प्रसाद चले निराला चले महादेवी चली
और चले नागार्जुन
संगीत चला
और चला पदलालित्य
ऊँटों की सात कतारें चली
प्राचीन पांडुलिपियाँ लादकर
कुमैत अश्वों का समूह चला सीमा पार करता हुआ !
(५)
"छंद अब पुराने हुए. आधुनिक समय की जटिलताओं, विडम्बनाओं और विरोधाभासों को छंद में व्यक्त करना अब असम्भव है . इस आधुनिक समय में भारतीय साहित्य को भी आधुनिक होना होगा. छंद अब अजायबघरों की वस्तु है. छंद कविता का अंधविश्वास है- इसे मिटाना होगा. छंद पिछ्ड़ेपन की निशानी है . हमें पश्चिम की तरफ़ देखना होगा . सभी भारतीय भाषाओं को नए साहित्य और नई कविता का निर्माण करना होगा. खुली खिड़कियों से बाहर झाँकना होगा ."
आज़ादी
के कुछ वर्ष बाद एथेंस की साहित्य-कला अकादमियों की नक़ल में बनी भारतीय साहित्य
अकादमी के अध्यक्ष ने सारस्वत-सभा में उक्त प्रस्ताव को पारित कराने के बाद कुछ
अनुवादकों को कविता के पुरस्कार अर्पित किए. नयी दिल्ली के कॉपरनिकस मार्ग पर
अवस्थित रवीन्द्र-भवन की तीसरी मंज़िल स्थित साहित्य अकादमी के कार्यालय के एक कक्ष
में कपड़ों से बंधे पुराने दस्तावेज़ों में यह प्रस्ताव आज भी ज़रूर धूल खा रहा होगा
!
(६)
इसके बाद पुताई ही कला थी. अनुकृति ही मूल थी . नॉवेल ही उपन्यास था. शॉर्ट-स्टोरी ही कहानी थी. ड्रामा ही नाटक था. क्रिटिसिज़्म ही आलोचना थी. सटायर ही व्यंग्य था. एस्से ही निबंध था.
कला से आकृतियाँ ग़ायब थीं. कथा से क़िस्सागोई लुप्त थी. आलोचना से काव्यशास्त्र बेदख़ल था. कविता से वक्रोक्ति और रस नदारद था.
अब
कोई रसिक नहीं था. कोई दर्शक नहीं था. कोई पाठक नहीं था. कोई भावक नहीं था.
यह
एक नीच-ट्रेजेडी थी. दारुण-दुखान्तिका थी. अवर्णनीय अधोपतन था.
अब
अनुवादक ही कवि था !
(७)
यूरोप से उठी
आधुनिकता की आँधी में
देखते-देखते
कविता कला में बदल गई जो कभी पंचमी विद्या थी
यदि कविता कला होती
तो कवि कलाकार होता
नहीं होता ब्रम्हा का सहोदर
कलाएँ चौंसठ थी
जिसे उपविद्या में परिगणित किया था वात्स्यायन ने
आधुनिक वात्स्यायन के तार-सप्तक के बाद
कविता कलाकारी थी
कलाबाज़ी थी सरासर दग़ाबाज़ी थी
पूरब की परम्परा के साथ
कविता अब बढ़ई की खाट थी
अनुकरण का अनुकरण थी !
(८)
भटक रहे हैं छंद
पूरब से पश्चिम उत्तर से दक्षिण
दक्षिण से उत्तर पश्चिम से पूरब
अपने ही देश में उजड़े हुए अपने ही घर में पराये
चले जा रहे हैं छंद
जैसे घर लौटते बेरोज़गार मज़दूर
कई कुचलकर मर गए रेलगाड़ियों से
कइयों ने दम तोड़ दिया भूख से
नंगे-पाँव लहू-लुहान
वे चल रहे हैं अनवरत और बिना थकान
छंद से कट रहे हैं छंद
गिरते-पड़ते गाते-गुनगुनाते
चले जा रहे हैं छंद !
(९)
देखकर कवियों का कारवाँ
काव्यशास्त्रकार भी चले पीछे-पीछे
भरतमुनि चले
भामह चले भरत चले
काव्यमीमांसा वाले राजशेखर चले
आनन्दवर्धन मम्मट दंडी चले
क्षेमेन्द्र कुंतक और अभिनव गुप्त
पण्डितराज जगन्नाथ चले
अलंकार रस रीति ध्वनि वक्रोक्ति
सभी सम्प्रदाय चले
छंदों के कारवाँ के साथ
नदियों पहाड़ों और रेगिस्तान से गुज़रते हुए !
(१०)
क्या सरस्वती नदी की तरह विलुप्त हुई कविता
इस धरा-धाम से
क्या मिट गईं पाँच हज़ार वर्ष पुरानी स्मृतियाँ
क्या छिन गया हमसे हमेशा के लिए
कविता का ऐश्वर्य !
क्या अब गुज़र-बसर करनी होगी
गद्य की ग़ुरबत में !
(११)
फिर कब खिलेंगे इस मरुभूमि में
कविता के पुष्प
फिर कब बरसेगा
अटूट पानी धारासार
फिर कब होगी यह वसुंधरा छंदमय !
________________________
बहुत असरदार कविताएँ ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया समालोचन। कृष्ण कल्पित सर एक जोगी हैं। यह रँग उनके अलावा कहीं और नही मिल सकता।
जवाब देंहटाएंकल्पित जी को जन्मदिन की हार्दिक बधाई और ढेर सारी शुभकामनाएँ.
जवाब देंहटाएंकई लोगों ने मुझ से पूछा और कई बार मैं ख़ुद भी टकराया इस सवाल से कि उत्कृष्ट कविता रचने के बावजूद हिन्दी कविताएँ उतनी लोकप्रिय नहीं हो पातीं जितनी उर्दू कविताएँ होती हैं. मुझे अपने सवाल का विस्तृत जवाब यहाँ मिला है. इसके लिए मैं कल्पित जी का आभारी हूँ. उनकी भाषा तो आकर्षक होती ही है साथ में वो 'तीर' भी इतने सटीक होते हैं जो साहित्य जगत पर अक्सर वे चलाते हैं, कि कई बार आप अवाक ही रह जाते हैं. शुक्रिया अरुण भाई.
प्रासंगिक कविताएँ ।
जवाब देंहटाएंये पुराने काव्य शास्त्र को रद्दी के भाव तोलने के दिन हैं । दिन दूर नहीं जब पाठ्यक्रम से काव्य शास्त्र की पुस्तकें बहिष्कृत होंगी। उन्हें किसी पुरातत्वों के आगार में ही शरण मिलेगी।
हाँ जब तक हवा सीटियां बजाएगी, छंद जिन्दा रहें गे। पर कवियों से उनका कोई नाता न होगा।
कविता कविमुख से पढ़ी जाएगी कवि कंठ से नहीं ।
प्रिय कल्पित जी
जवाब देंहटाएंजन्म दिन की हार्दिक शुभकामनाएं ।
आजकल आपकी सोची विचारी,सोच विचार को प्रेरित करने वाली चीजे पढ्ने को मिल रही हैं।बहुत अच्छा ।
इसी तरह मिलती रहें।
दिल्ली के वे पुराने दिन याद आते हैं,जब अक्सर मिलना होता था।खूब बाते होती थीं ।
सस्नेह
प्रयाग शुक्ल
कविता में छंदों की वापसी अपनी परंपरा में जड़ों की तरफ वापसी है। समय के प्रभाव और दबाव में आज की कविता से छंदों का अलगाव और निर्वासन, जिंदगी की लय में आयी कमी और उसके छिन्न-भिन्न होते चले जाने की व्यथा कृष्ण कल्पित जी की कविताओं में परिलक्षित होती है। उन्हें जन्मदिन की बधाई !
जवाब देंहटाएंकिसी कवि के जन्मदिन पर इससे अच्छा उपहार क्या हो सकता है कि कवि की कविताओं को पढ़ते हुए उसे जन्मदिन की शुभकामनाएं दी जाय ।
जवाब देंहटाएंइसमें कोई शक नही कि कल्पित लाजबाब कवि है । उन्हें बार बार जन्मदिन की बधाइयां ।
सभी कविताएं पढ़कर आनंदित हुआ। छंदों का महात्म्य और वर्तमान दशा की बेहतरीन भावानापूर्ण जानकारी मिली। कल्पित जी को जन्मदिन की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंकल्पित जी को जन्मदिन की बधाई!!
जवाब देंहटाएंhttps://vishwamohanuwaach.blogspot.com/2014/01/blog-post_4664.html?m=1
https://vishwamohanuwaach.blogspot.com/2014/01/blog-post_4664.html?m=1
बहुत अच्छी कविताएं, इस विषय पर ये बेजोड़ हैं
जवाब देंहटाएंकोई नहीं लिख सकता कृष्ण कल्पित के अलावा
छंद एक माशूका है जिसे अपने सबसे गहन एकाकी और उदास क्षणों में याद किया जाता है
जन्मदिन की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ !
जवाब देंहटाएंआज के दिन सुन्दर कविताओं के गुलदस्ते के इस विशिष्ट उपहार के लिए शुक्रिया !!
कृष्ण कल्पित समकालीन हिंदी कविता के मुकुट हैं। उनकी वय के अधिकांश कवियों ने जब सत्ता प्रतिष्ठानों से मुठभेड़ करना लगभग बंद-सा कर दिया है तब कल्पित जी हाथ में लुकाठी थामे हुए हैं। उनकी छंद विषयक कविताएं भी इस बात की तस्दीक कर रही हैं। मैं महसूस कर रहा हूं कि इसीलिए स्वनामधन्यों ने उन्हें टारगेट भी कर लिया है। निराला के शब्दों में कहूं तो उनकी स्थिति ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत वाली बनाकर रख दी है। पिछले कुछ सालों में ही उनकी लिखी कविताओं को यदि पढ़ लिया जाए तो आपको उनमें अपने समय और समाज की निर्मम पड़ताल और शिनाख्त नजर आएगी, जो अन्यत्र दुर्लभ होता जा रहा है। काव्य कला की दृष्टि से भी उनकी कविताएं उत्कृष्ट हैं। गौरतलब है कि अधिकांश वरिष्ठ कवियों की कविताएं लगातार बुझौवल बुझा रही है, वहीं कल्पित जी की कविताएं लोकप्रिय होती जा रही हैं क्योंकि उनको समझने के लिए माथापच्ची नहीं करना पड़ता है।
जवाब देंहटाएंअद्भुत ... छंद की बहाली के लिए सचमुच अभूतपूर्व कविताएं. लेकिन बिना छंद की कविता भी इनको अपने एक जबरदस्त अधिप्रमाणन के बतौर ले सकती है. अपने में अनन्य कविताएं हैं. आदरणीय कृष्ण कल्पित जी को जन्मदिन की अशेष शुभकामनाएं. वे स्वस्थ रहें और दीर्घायु हों.
जवाब देंहटाएंअपने देश निकाले से छंद इस कदर
जवाब देंहटाएंरूठ गया है कि अब उसके लौट आने की कोई सूरत दिखती नहीं. क्यों कि उस रूठे को मना कर वापस लाने की न तो सदिच्छा दिखाई देती है, न ही क्षमता. इसीलिए विरल कवि कृष्ण कल्पित की राह चलने से सब छिटकते हैं. क्यों कि उनकी राह चलने के लिए उनके ही जैसा होना होगा...
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