प्रतिभा कटियार संवेदनशील कवयित्री हैं और यात्राओं की शौक़ीन. अभी हाल ही में उनकी क़िताब ‘मारीना : रूस की महान कवयित्री मारीना त्स्वेतायेवा का युग और जीवन’ प्रकाशित हुई है. समालोचन पर ही उनका एक यात्रा-वृतांत ‘कस्बाई औरत की पहली विदेश यात्रा’ छपी हुई है.
राजस्थान के बाड़मेर की उनकी यात्रा-कथा प्रस्तुत है. प्रतिभा सैलानी बनकर नहीं दोस्त बनकर यात्राएँ करतीं हैं, यही इस वृत्तांत की आत्मीय गरमाहट का राज़ है.
प्रस्तुत है.
बाड़मेर तुम साथ चले आये हो
प्रतिभा कटियार
बड़े भागे-दौड़े से दिन थे. जिन्दगी जैसी मिली
उसे शिद्दत से जीने की, गले लगाने की, कभी फूट-फूटकर रो लेने और कभी बेवजह खिलखिलाकर हंसने की आदत डाल ली है. सो
इन भागे-दौड़े से ही दिनों में एक रोज अचानक कोई पुकार कानों में पड़ी बाड़मेर...जाने
क्या-क्या कौंध गया जेहन में. कई बरस पहले बाड़मेर जाते-जाते रह गयी थी. तब बाड़मेर
का तिनका-तिनका, जर्रा-जर्रा एहसासों में बसा करता था. वो जो
होता है न किसी शहर में जाने का मन बनाते ही उसके ख्यालों में डूब जाना वैसा ही
कुछ. जब वहां जाना रह गया तो रह गया न जाने कितना कुछ. उस रोज जब कई बरस बाद फिर
उसी शहर ने पुकारा तो जैसे नींद से जागी. जागी भी या नहीं पता नहीं. कई बार लगता
है नींद में ही हूँ कई बरसों से और कभी लगता है सोई ही नहीं बरसों से.
तो उसी हड़बड़ी में निकल पड़ी बाड़मेर. रास्ता
लम्बा था और मन एकदम शांत. सच कहूँ बड़ी जरूरत थी कुछ वक़्त सिर्फ खुद के साथ बिताने
की. अकेले यात्रा करने से अच्छा कुछ भी नहीं होता यह मैंने यात्राओं के दौरान ही
जाना है. बहुत कम साथी ऐसे होते हैं जिनका होना यात्राओं के स्वाद को बढ़ा देता है
बिलकुल उसी तरह जैसे बहुत कम लोग होते हैं जो जिन्दगी को जिन्दगी बनाते हैं
ज्यादातर तो इसे हिसाब किताब ही बनाकर रख छोड़ते हैं. बहरहाल सामने बाड़मेर था और
पाँव में बंधी पाजेब में लिखा था 'विद्रोही
मन'. पाजेब की खनक बढ़कर यायावरी में बदल गयी.
बाड़मेर के रास्ते में मिला जोधपुर. बहुत
सुना था इस सुनहरी नगरी के बारे में. कई दोस्त भी हैं इस शहर में लेकिन वक़्त...वो
कहाँ था भला. हथेलियाँ छोटी सी थीं और कुछ लम्हों की बूँदें टपकी थीं उन हथेलियों
पर. इतनी संगदिल तो नहीं हो सकती थी कि एक खूबसूरत शहर से यूँ ही बेरुखी से गुजर
जाऊं, एक नजर देखूं भी न, गले भी न लगूं. आनन-फानन में शहर के बारे में जानकारी ली और लिया एक ऑटो
रिक्शा. कि शहर के मौसम से मिलना तो सबसे पहला मिलन होता है न? एयरकंडीशंड कार आपको मौसम से दूर कर देती हैं सो वो मुझे पसंद नहीं. कार
मेरे लिए अंतिम विकल्प होता है. मुझे याद है जब हमारा कश्मीर में आखिरी दिन था तो
एक ऑटो लिया था हमने और उस पर बैठक पूरे श्रीनगर का चक्कर लगाया था. डल झील के
किनारे से गुजरते हुए लाल चौक से कश्मीर यूनिवर्सिटी के सामने से गुजरते हुए न
जाने कहाँ कहाँ से गुजरे हम. वो ऑटो में बैठने का सुख कश्मीर के सुख में घुला जा
रहा था जब डल झील और चिनार के पेड़ों को छूकर आती हवाएं हमें सहला रही थीं. जब किसी
के साथ होती हूँ तो यह सुख बाधित होता है लेकिन आज मैं अकेली थी और ऑटो में थी.
ऑटो वाले साथी का नाम था अनिल. अनिल को मैंने एक ही बात पूछी कि मुझे ४ बजे स्टेशन
पहुंचना है और मेरे पास सिर्फ दो घंटे का वक़्त है, जानती हूँ
वक़्त कम है लेकिन इतने से वक़्त में अपने शहर से मिलवा सकते हो क्या? अनिल भला आदमी था उसने कहा आप चिंता न करें.
उसने उमेद भवन की ओर ऑटो मोड़ दिया. उमेद भवन
एयरपोर्ट के करीब ही है. उस थोड़ी सी दूरी में जोधपुर की हवाओं से दोस्ती होने लगी
थी. मैंने अनिल से कहा, बादल तो घिरे हैं
लेकिन गर्मी फिर भी बहुत है. अनिल बोला, 'मैडम बादल बस
अभी-अभी आये हैं. कित्ते दिनों से तो बादलों का नामो निशान तक नहीं था. एकदम से
मौसम बदला है अभी. आप बहुत खुशकिस्मत हैं कि आपके आते ही मौसम बदल गया.' अनिल की बात सुन मैं मुसकुरा रही थी. जोधपुर की हवाएं मुझे छू रही थीं. इन
हवाओं में ठंडक आ मिली थी. काले बादलों के टुकड़े साथ हो लिए थे. एयरपोर्ट पर उतरते
ही जिस तापमान ने स्वागत किया था वो अब बदल रहा था. ताप को बादल ले उड़े थे,
ठंडक हवा में शामिल होने लगी थी. मैं अनिल की बातों को सुनते हुए
देवयानी को शिद्दत से याद करती हूँ जो हमेशा कहती है 'प्रतिभा
अपना मौसम अपने साथ लेकर चलती है.' यूँ ही मजाक के किसी
लम्हे में उसने यह कहा था हालाँकि कुदरत की जाने कैसी नियामत रही कि यह मजाक सी
बात अक्सर सच भी होती रही है. एक रोज दिल्ली के किसी दोस्त ने कहा था, 'सब जगह बारिश कराती हो यहाँ कराओ तो जानें.' मैंने
भी हँसते हुए कह दिया 'अच्छा, तो तुमने
पहले क्यों नहीं कहा, अभी करते हैं व्यवस्था.' बात आई गयी हो गयी. चार घंटे बाद ही पता चला वहां झमा झम बारिश हो रही है.
ऐसा न जाने कितनी बार कितने शहरों में हुआ और मैं हँसती रही. हुए तो सब इत्तिफाक
ही लेकिन इन्होंने मुझे बारिश से जोड़ दिया उससे ख़ुशी तो हुई ही.
मैं इत्तिफाकों में खूब यकीन करती हूँ कि
जिन्दगी इत्तिफाक ही तो है और सबसे बड़ा इत्तिफाक हैं दोस्त. कौन कहाँ होता है और
कैसे मिल जाता है जिन्दगी में और फिर जिन्दगी ही बन जाता है. है न?
आज भी ऐसे ही इत्तिफाक का दिन था. जोधपुर में. हल्की फुहार होने लगी थी. इतनी हल्की कि इसमें टहलने जाओ तो
बिना तर-ब-तर हुए ही भीगने का सुख मिले. यूँ मुझे तर-ब-तर होने में कम सुख नहीं
होता लेकिन हमेशा यह सुख उठाने के हालात नहीं होते. इस वक़्त यह फुहार मुझे जोधपुर
शहर का हसीन स्वागत का तोहफा सी लग रही थी.
कुछ फुहारें चेहरे पर गिरने लगी थीं. मैंने ऑटो से बाहर हथेलियाँ फैला दीं. फुहारें मेरे भीतर तक पहुँच
रही थीं. रास्ते बेहद खूबसूरत हो उठे थे. जोधपुर मुसकुरा रहा था, लेकिन मुझसे ज्यादा नहीं. अनिल बहुत खुश था. मैडम आज तो मौसम बहुत ही
अच्छा हो गया है. कितने अच्छे दिन आई हैं आप. शायद वो भी यहाँ की गर्मी के बाद
मिली इस बारिश की राहत के सुख में था. दस मिनट का वह रास्ता कितना प्यारा रास्ता
था. ख़ामोशी का दामन थामे पूरे मन से शहर को आँख भर देखना, सड़कों
को महसूस करना, मौसम को अपने ऊपर उतरने देना.
उमेद भवन
उमेद भवन आ चुका था. एक बड़ी सी खूबसूरत
इमारत...न न इमारत नहीं महल बेहद शांत.
उसके ठीक सामने दिखता जोधपुर शहर. 'यहाँ से
शहर को देखो' की याद आ जाती है. खुद को बाँहों में समेटते
हुए मैं ऑटो से उतरती हूँ. दस मिनट पहले मिले अनिल के हवाले सारा सामान करके मैं
घूमने निकल जाती हूँ. अनिल खुद कहता है 'मैडम मेरा फोन नम्बर
ले लीजिये. कॉल करियेगा तो यहीं आ जाऊंगा लेने, आपका वक़्त
बचेगा.' मुझे खुद पर हंसी आती है यह ख्याल मुझे क्यों नहीं
आया. यह भी कि जिसके हवाले सारा सामान करके जा रही हूँ उसका नम्बर तो ले लूं. जाने
क्यों अविश्वास करना आया ही नहीं मुझे, सच कहूँ जरा सी देर में ढेर सारा भरोसा कर लेना हमेशा
आसान रहा और कभी धोखा मिला हो याद नहीं. धोखा उन्हीं से मिला जिन्हें बहुत ज्यादा
जानते थे या जानने का भ्रम रखते थे. पापा की एक बात हमेशा याद रहती है कि दुनिया
कितनी ही ख़राब हो, कितना ही अविश्वास, कितनी
ही धोखेबाजी हो लेकिन हमारा काम बिना एक-दूसरे पर विश्वास के चल ही नहीं सकता.
चाहे बच्चों को वैन वाले भैया के भरोसे स्कूल भेजना हो या यूँ रात-बिरात, शहर दर शहर अकेले घूमते फिरना.
मैंने अनिल का नम्बर लिया और उमेद भवन का
रुख किया. फुहारें अब बारिश हो चली थीं. लोग अफरा-तफरी में शेड की ओर भाग रहे थे.
मुझे उमेद भवन पहुँचते हुए जो चीज़ सबसे सुखकर लगी वो थी ढेर सारा हरा. अहा...कैसा
मोहक हरा. ऊपर से बारिश. जी चाहा यहीं ठहरी रहूँ. कदम आगे बढ़ने को तैयार ही न थे
जैसे. मन की न सुनी तो क्या किया भला. वहीं बड़े से हरे के बीच बैठ गयी. सुबह 5 बजे
से घर से निकली थी सो इस लम्हे में यूँ कुछ देर को ठहरना सुकून था. पेड़ों पर अटकी
बूँदें जब टप्प से टपकतीं काँधे पर मन सुख में डूब जाता है. यही,
ठीक यही वो लम्हे होते हैं जिन्दगी के जिनके आगे सजदा करते हुए बहुत
हल्का महसूस होता है. जिन्दगी से की गयी तमाम शिकायतें बेहद बचकानी लगने लगती हैं.
हरियाली की ओट में उमेद भवन
एक प्रेमी जोड़ा शरारतों और संकोच का खेल खेल
रहा था. उनके इस खेल में सेल्फी का खेल भी शामिल था. वो ढेर सारी तस्वीरें लेना
चाहते थे. उनकी चुहलबाजियाँ बहुत हसीन लग रही थीं. उमेद भवन के उस भीगे और हरे से
आंगन में प्रेम के इन पंछियों का चहचहाना महल को अलग ही अर्थ दे रहा था. आम तौर पर
किलों और महलों को देखकर शासन, सत्ता,
राजस्व का ही ख्याल आता है और याद आती है नरेश सक्सेना की कविता
सीढ़ी. ये किले, ये महल जनता से दूरी के प्रतीक तो हैं ही न
जाने कितने शोषण की गवाहियाँ भी दर्ज मिलती हैं यहाँ.
प्रेमी जोड़ा तस्वीरें लेने को व्याकुल था और
उस खूबसूरत फ्रेम में जड़े वो दोनों मुझे इस पूरे परिसर को अलग ही महत्व दे रहे थे.
मेरा दिल चाहा उनसे कह दूँ कि तुम लोगों ने उमेद भवन को और भी खूबसूरत बना दिया
है. लेकिन मैं चुप रही, मुग्ध होकर उन्हें
देखते हुए. आखिर नहीं रहा गया और मैंने
लड़की से कहा, लाओ मैं तुम दोनों की तस्वीर खींच देती हूँ.
लड़की की ख़ुशी और संकोच एक साथ उसके चेहरे पर उभर आये. उसने लड़के की ओर देखा और मोबाईल
मुझे दे दिया. मैंने उन्हें जगह और दिशा बदलने को कहा और कुछ तस्वीरें लीं.
तस्वीरें शायद उनकी उम्मीद से भी सुंदर आई थीं. अब लड़की की बारी थी मेरे पास आने
की, 'दीदी बहुत सुंदर पिक्चर्स हैं ये तो. कुछ और खींच
दीजिये न.' मैं यह सुन खुश हो गयी. यह तो मेरा प्रिय काम है.
इसके बाद मैंने उनकी बहुत सारी तस्वीरें खींची. उनकी आँखों में बहुत सारा शुक्रिया
था, प्यार था. वो कुछ कहना चाहती थी तो मैंने उससे कहा,
'एक तस्वीर तुम ले दो मेरी. वह तस्वीर तुम्हारी याद दिलाएगी.'
लड़की ने संकोच से कहा, 'लेकिन मैं अच्छी
तस्वीर नहीं खींच पाती,' मैंने कहा,
'तुम प्यार में हो, और जो प्यार में होता है वो कोई काम बुरा कर ही नहीं सकता. तुमसे अच्छी तस्वीर तो कोई ले ही नहीं सकता'वो शरमा गयी. और इस तरह उमेद भवन में प्यार में डूबी, बूंदों में नहाई उस अजनबी लड़की ने मेरी तस्वीर खींच कर मुझे भी प्रेममय कर दिया. उमेद भवन ने शायद इसी तरह मेरी स्मृतियों में जगह बनाना चुना था.
बारिश थोड़ी थम गयी थी. मोटी बूँदें फिर से
हल्की फुहार बन गयी थीं. अब मैं उस उमेद भवन की ओर बढ़ी जो इतिहास में दर्ज है
महाराजा उम्मेद सिंह का उमेद भवन जो कभी चित्तर पैलेस के नाम से जाना जाता था. कभी
राजसी रौनक का ठीहा रहा उमेद भवन अब तीन हिस्सों में बंट चुका है. एक हिस्सा अब
लग्जरी ताज होटल बन चुका है, दूसरा
हिस्सा अब भी शाही परिवार के लोगों के लिए सुरक्षित है. और तीसरा हिस्सा संग्रहालय
के रूप में आम जनता के लिए है. उस भव्य इमारत के सामने से गुजरते हुए भी मेरा मन
चुराने वाली ठंडी हवा ही थी जिसका कोई टिकट नहीं था. संग्रहालय के भीतर जाते हुए
मैंने वहां मौजूद लोगों से उस हिस्से के बारे में पूछा जो बहुत खूबसूरत गार्डन था
जहाँ हमारा जाना निषेध था. उन्होंने बताया वो होटल का हिस्सा है. बेहद मेनटेन,
खूब हरा और खूबसूरत वो कोना भी अपनी भव्यता में समाज की असल हकीकत
बयान कर ही रहा था कि दुनिया की हर खूबसूरत चीज़ पर पूँजी और पूंजीपतियों का ही हक़
है, रहेगा. उस महंगी खूबसूरती को मुंह चिढाते उस प्रेमी जोड़े
के प्रति मेरा मन आसक्त हो उठा. दुनिया प्रेमियों ने बनायी है, बचाई है. पूँजी ने तो दीवारें ही खड़ी की हैं, खाइयाँ
ही बढाई हैं.
संग्रहालय वैसा ही था जैसा उसे होना था,
खूबसूरत, भव्य तमाम किस्से अपने साथ समेटे हर
चीज़ लेकिन निष्प्राण. मुझे संग्रहालय बहुत लुभाते नहीं हैं. बस कि वो जानकारी का
ठीहा सा लगते हैं. मुझे संग्रहालय के भीतर ज्यादा वक्त नहीं लगा. बाहर निकली तो
फुहार ने मुंह पर गिरकर कहा, परेशान न हो, मैं हूँ. सच मैं सोचती हूँ जो मौसम न साथ होता तो क्या होता. अनिल को फोन
किया तो वो गेट के ठीक सामने आ गया. अनिल ने कहा, 'आप तो बड़ी
जल्दी आ गयीं. अब तो मैं आपको मेहरानगढ़ भी ले जा सकता हूँ. आप थोड़ा तो देख ही
लेंगी.' अनिल का उत्साह मेरे उत्साह और मिजाज से मैच कर रहा
था. मैंने भीगते हुए ही कुछ देर ठहरकर उमेद भवन के ठीक सामने से दिखते जोधपुर को
देखा. नजर की आखिरी हद तक दिखते आम लोगों के घर और उनकी छतें. महाराजा उमेद भी
अपनी प्रजा को ऐसे ही देखते होंगे शायद. महारानी भी देखती होंगी शायद.
अनिल की हड़बड़ी ने मुझे ऑटो में धकेल दिया.
बारिश साथ चल रही थी. यह शहर शांत है. ज्यादा भीड़ नहीं है. सड़कें साफ़ हैं, व्यवस्थित
हैं. वो सड़कें जिन से हम गुजर रहे थे. अनिल ने ऑटो को तेज़ चलाना शुरू कर दिया. 'आप जल्दी से घूम लेना मैडम, आपको अच्छा लगेगा.'
मैंने कहा, 'हाँ जरूर. न देखने से तो बेहतर
होगा कुछ देख लेना.' ऐसे मौकों पर भूख प्यास खूब साथ देती
है. लगती ही नहीं. अनिल मौसम से इतना खुश था कि फिर बोल पड़ा, 'मैडम आपके आने से इतना अच्छा मौसम हो गया है. वरना इतनी गर्मी में घूमना
अच्छा नहीं लगता आपको.' मैं मुसकुरा दी.
हम मेहरानगढ़ के सामने थे. एक और भव्य किला.
मुझे सारे किले एक से ही जाने क्यों लगते हैं. उदयपुर का महल भी याद आया,
जयपुर का आमेर भी. हाँ, लखनऊ का इमामबाड़ा अलग
है इनसे. यह मेरी अपनी समझने की सीमा का भी सवाल हो सकता है. मुझे किसी किले के
इतिहास को जानने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं होती. फिर भी टिकट के पैसे उन्हीं चीज़ों
के देते हैं जो बीत चुकी हैं अपनी स्मृतियों के साथ.
आज मेरा दिन सचमुच अच्छा था,
किले के भीतर जरा सा चलते ही एक राजस्थानी युवा किले के कोने में
अपना आसन जमाते हुए दिखा. यह वो जगह थी जहाँ से शहर का व्यू मिल रहा था. उस युवा
के हाथ में एक इंस्ट्रूमेंट था जिसका नाम रावनहाथा है ऐसा सुना है मैंने. यह
जैसलमेर, उदयपुर, अजमेर और जयपुर हर
जगह देखा था मैंने लोगों को इस पर धुन छेड़ते.
उड़ जा काले कावां...यह धुन थी उस वक़्त...उसके बाद बहुत सी और भी. ऊंचे भव्य
किले को अपने संगीत स भरता वह युवा मुझे जादूगर सा लगा. मैं उसके करीब जाकर बैठ
गयी, मन्त्रमुग्ध सी किले में उस संगीतमय शांति के बीच खुद
को महसूस करने का सुख मुझे घेर चुका था. मुझे समझ आ चुका था कि बस जोधपुर यहीं
पूरा हुआ. यहीं खींचकर लाना चाहती थी जिन्दगी. पलकें सुख से छलककर नम हो गयी थीं
मन गुम.
कितना अजीब है यह कि उस भव्य मेहरानगढ़ के
किले में मेरा जी चुराया किले की दीवारों को तोड़कर उग आये ढेर सारे हरे ने और इसी
राज्य के साधारण से जन की खूबसूरत धुन ने. भव्यता क्या है आखिर,
हम किसके पीछे भागते हैं और हमें क्या भरता है अंदर से. बाहर की दौड़,
होड़ निरर्थक है, भीतर की शान्ति सब कुछ है और
वह शांति भव्य महलों के चमचमाते कंगूरों में नहीं जर्रे-जर्रे में बसी कुदरत की
खूबसूरती में, संगीत में, सादगी में
हवाओं में ही तो है. क्या मेहरगढ़ के राजा ने इस शांति को अनुभव किया होगा. क्या
महाराज उमेद सिंह ने महसूस किया होगा? पता नहीं. दुनिया भर
के किलों और महलों के भीतर का दर्ज इतिहास तो हथियारों की खनक, लड़ाई, कब्जे आदि की गौरवशाली गाथाओं से ही दर्पित
मिला है.
उस राजस्थानी युवा के द्वारा बजायी जा रही
मीठी धुन सुनने के साथ ही मेरा जोधपुर आना सफल हो चुका था. कम समय में इतना सुख
बटोर लेना बहुत था. मैंने घड़ी देखी मेरे पास आधा घंटा बचा था. मैंने इत्मीनान की
साँस ली. पूरा किला घूम लेने की जिद नहीं थी मुझे बस कि जितना सम्भव हो उतना ही.
क्योंकि बाड़मेर की ट्रेन इंतजार में थी.
मेरे लिए अब जो मेहरा गढ़ का किला घूमना बचा
था वो बोनस का था क्योंकि सुख सब मैं जी चुकी थी. इसी बीच एक घुमक्कड़ ने फिर इसरार
किया, 'क्या आप मेरी एक तस्वीर ले देंगी
प्लीज़.' मैंने तुरंत हामी भरी और उसकी कई तस्वीरें खींच दीं.
उसने कहा, 'मैं अकेले घूमने निकला हूँ इसलिए तस्वीर खिंचवाने
के लिए दूसरों पर निर्भर हूँ.' मैंने मुसकुराकर कहा 'हाँ. यह तो होता ही है.'
उसने फिर मुझसे पूछा, 'आप भी अकेली हैं क्या?'
मैंने कहा 'हाँ. उसने तुरंत प्रस्ताव रख दिया,
'अगर आप बुरा न मानें तो क्या हम साथ में घूम सकते हैं.' मैं जोर से हंसी. मैंने कहा, 'नहीं, मैंने अकेले घूमना खुद चुना है. यह मुझे पसंद है इसलिए मैं अकेले ही
घूमूंगी.' उसने मेरी बात का बुरा शायद नहीं माना और वो चला
गया.
आज यह बात कितनी सहज लग रही है मुझे लेकिन
कुछ बरस पहले की बात होती तो मेरे हाथ पाँव फूल गये होते शायद. शायद नहीं यकीनन.
एक लड़के का आपके साथ घूमने का प्रस्ताव, 'हाय
राम' टाइप फीलिंग आती. चीज़ें ज़टिल नहीं होतीं उन्हें देखने
का, समझने का हमारा नज़रिया जटिल होता है और उससे भी ज्यादा
जरूरी होता है खुद को समझना और अपने आप पर आत्मविश्वास होना. मुझे अनुराधा बेनीवाल
की किताब आज़ादी मेरा ब्रांड अक्सर याद आती है. ऐसे मौकों पर खासकर.
बचा खुचा किला भी घूम लिया. कुछ तस्वीरें भी
खींच लीं, खिंचवा भी लीं. तमाम भव्यता
मन के किनारे से होकर गुजरती रही. महल का शाही खजाना रखा था जहाँ वहां जाकर मैंने
बेशकीमती हथियार देखे. आलीशान चीज़ें. लेकिन क्यों वो खजाना हुईं होंगी आखिर यह बात
मुझे इस कदर कचोट गयी कि मेरा मन उदास हो गया. मेरे मन जाने क्यों ये सवाल आये कि
यहाँ क्यों नहीं रखे प्रेम पत्र, क्यों नदियों की आवाज नहीं
यहाँ, सूखे फूल क्यों नहीं रखे हैं मुहब्बत की निशानी के,
कहाँ हैं दुनिया भर की प्रेम कवितायेँ और प्रेमियों के दिल की
धडकनें. यह क्यों है शाही खजाना. क्या यहाँ जनता के दिलों की आवाज आती है? ये शाही लोग भी न अजीब ही होते हैं. उस खजाने वाले कक्ष से बाहर निकली तो
राहत की सांस आई.
मैं अब बाहर लौट रही थी,
मेरे साथ मेहरा गढ़ किले से लौट रही थी वो राजस्थानी धुन मेरे साथ
लौट रही थी. बारिश ने फिर मेरे सर पर अपना आंचल रख दिया मैं फिर भीग रही थी. हम
स्टेशन की ओर निकल पड़े. अनिल ने कहा, 'आपने तो बहुत ही कम
समय लगाया.' मैंने कहा, 'हाँ जो मुझे
देखना था वो देख लिया.'
स्टेशन हम वक़्त पर पहुँच गये थे. अनिल खुश
था कि उसने मुझे वक़्त पर पहुंचा दिया. मैं
खुश थी कि इस अनजाने से शहर में मुझे अनिल मिला, जिसने
बहुत अपनेपन से मुझे जोधपुर घुमाया. उसने पैसे लेते हुए कहा, 'फिर आइयेगा तो कॉल करियेगा. मैम आपको अच्छे से घुमाऊँगा जोधपुर.' मैंने कहा, 'जरूर.' फिर
उसने मेरे संग एक सेल्फी लेने की इच्छा जताई. व्यक्ति की आखें उसकी नीयत बयान करती
हैं. जो कोई और होता तो मैं उसे डपट देती लेकिन अनिल के संग खुश होकर मैंने सेल्फी
खिंचवाई.
बाड़मेर
स्टेशन पहुंची तो मेरे हाथ में ठीक ठाक वक़्त
था. घरवालों से बात की मुंह धोया और पेट से आती आवाज को सुना. यह भूख की आवाज थी.
अब जाकर याद आया मैंने सुबह से कुछ नहीं खाया है. और तब माँ के दिए पराठे याद आये.
स्टेशन सुंदर लगते हैं मुझे. तरह-तरह के लोग, आते-जाते
कुछ इंतजार की बचैनी में कुछ देर हो जाने की हड़बड़ी में. जिदंगी स्टेशन सी ही लगती
है मुझे. हम बस अपने-अपने स्टेशनों की ओर भागते जाते हैं पटरियों से...लेकिन हर
स्टेशन हमारा नहीं होता. जो स्टेशन आज हमारा है कल वो सामने से गुजर जाता है
क्योंकि अब वो हमारा स्टेशन नहीं रहा होता. जैसे आज से पहले जोधपुर का स्टेशन कहाँ
था मेरा वो स्टेशन जहाँ आज मैं ट्रेन का इंतजार कर रही थी, भूख
महसूस कर रही थी. मेरे आस पास काफी महिलाएं थीं जो खास किस्म की राजस्थानी पोशाक
में थीं. मुझे उनकी पोशाक खूब लुभाती है. कभी मौका नहीं मिला लेकिन इच्छा हमेशा
रही कि मैं भी पहनूं.
मेरी ट्रेन थोड़ी लेट थी सो मैं आराम से बेंच
पर पसर गयी. कुछ देर अनाउंमेंट होते रहे फिर बंद हो गए शायद किसी तकनीकी कारण से.
और अचानक मैंने सुना कालका का प्लेटफॉर्म चेंज हो गया है. लोग भाग रहे हैं. अब
मेरा फ्यूज़ उड़ने का टाइम था. पीठ पर पिठ्ठू बैग, कंधे
पर पर्स और हाथ में सूटकेस लिए मैं भागी दूसरे प्लेटफॉर्म की ओर. सीढियां चढ़ते हुए
हांफने का भी वक़्त नहीं था. मेरे प्लेटफोर्म पर पहुँचने तक ट्रेन चल दी. मुझे पता
था मैं चलती ट्रेन में नहीं चढ़ सकती. मेरी आँखों में आंसू आ गए. मैंने आसपास के
लोगों से चिल्लाकर कहा, प्लीज़ रुकवा दीजिये न ट्रेन...एक
लड़के ने कहा आप जाइए जल्दी, रुकवा लीजिये ट्रेन. मैं लगभग रो
रही थी. स्टेशन पर अफरा-तफरी मच गयी मेरे कारण. अचानक सब लोग ट्रेन रुकवाने के लिए
चिल्लाने लगे. तब तक गार्ड का डिब्बा गुजरा सामने से. सबने उनसे कहा, एक मिनट को रोक दो, लेडीज़ हैं, दौड़ के नहीं चढ़ पाएंगी. ट्रेन तो रुकी नहीं लेकिन गार्ड की आवाज कान में
पड़ी, 'कहाँ तक जाना है' मैंने चिल्लाकर कहा बाड़मेर. ट्रेन
धीमी होनी शुरू हुई और मैं भागती रही. आखिर आखिरी डिब्बे में चढ़ ही गयी. आह...कैसा
सुकून था उस पल में, कुछ देर कुछ समझ में नहीं आया. लगा
अचानक क्या से क्या हो जाता है. अगर छूट जाती ट्रेन तो क्या क्या हो जाता सोचकर ही
सिहरन होने लगी थी. यह जनरल डिब्बे का लेडीज़ कम्पार्टमेंट था. मेरे लिए यह जन्नत
था इस वक़्त. अगले स्टेशन पर जब गाडी रुकी तो उतरकर मैं अपने कम्पार्टमेंट में गयी.
आप कितनी ही तैयारी से चलें, कितनी ही मुस्तैदी से रहें,
चौकन्ने रहें कुछ न कुछ ऐसा आपके इंतजार में होता है जिसका आपको
बिलकुल अंदाजा नहीं होता.
जोधपुर से बाड़मेर 200 किलोमीटर की दूरी पर
है. ट्रेन से यह सफर ३ से साढे़ तीन घंटे में तय होता है. रास्ते भर उतरते सूरज की
रौशनी में राजस्थान के गाँव, लोग बाजार
दिखते रहे. वो बेलें जो घरों पर चढ़ी थीं, वो पेड़ जो कम
पत्तों के बावजूद इतरा रहे थे, बच्चे जो ट्रेन को देखकर हाथ
हिला रहे थे तभी एक जोर का पत्थर ट्रेन के डब्बे आकर टकराया. एक बच्चे ने शरारत के
चलते पत्थर फेंका था ट्रेन पर. लेकिन वो किसी को लग भी सकता था. शरारतों को भी
सकारात्मकता में बदला जाना बाकी है अभी कि किसी को मारकर, चोट
पहुंचाकर मजा लेने वाली शरारत को उपेक्षित नहीं किया जाना. इसके तार जुड़े हैं अपने
ही साथियों के गिरने पर हंसने से, किसी का मजाक उडाये जाने
पर आनन्द लेने से. यह पूरा मनोविज्ञान किस तरह सामाजिकता में ढल चुका है कि हम बड़े
होकर भी इसी मानसिकता को जीते जाते हैं. हमारा सुख क्या है इन दिनों वाट्स्प पर
फोरवर्ड होने वाले अश्लील चुटकुले जिसमें कभी व्यक्ति कभी समुदाय का मजाक उड़ाया
जाता है. दोष बच्चे का नहीं था शायद हमारा ही था.
बाड़मेर आ चुका था. शहर को मेरा कितना इंतजार
था पता नहीं लेकिन मुझे इस शहर में होने का, इसकी
खुशबू को जज्ब करने का, इसकी हवाओं में सांस लेने का जाने
कबसे इन्तजार था. उस इंतजार और इस हकीकत के बीच कई बरसों का फासला गुजर चुका था.
अब मैं पहले वाली प्रतिभा नहीं हूँ, बदल चुकी हूँ यह बात मैं
बाड़मेर को बताना चाहती हूँ लेकिन बताती नहीं कि हर बात बताकर बताई नहीं जाती.
हालाँकि इस बदलने में न मेरे भीतर इस शहर के लिए प्रेम कम हुआ था और न ही यहाँ
पहुँचने का इंतजार.
बाड़मेर बेहद खूबसूरत शहर है और इस शहर की
सबसे बड़ी खूबसूरती है यहाँ के लोगों के प्यारभरे दिल और मीठी जुबान.
यह छोटा सा शहर महज 28 किलोमीटर में सिमटा
हुआ. हालाँकि बाड़मेर जिला बड़ा है. बाड़मेर का नाम बाड़मेर इसलिए पड़ा कि यह बाहर था
मुख्य धारा से. विशाल राजस्थान राज्य का अंतिम सिरा. बाड़मेर यानी बाहर का पहाड़ी
किला ऐसा संदर्भ मिलता है विकिपीडिया में. यहाँ बार बाहर ही है शायद.
किसी जमाने में बाड़मेर का नाम 'मालाणी' भी था इसके भी संदर्भ मिलते हैं. बहरहाल मैं
बाड़मेर को जैसलमेर के मिजाज के करीब पा रही थी. हाँ, जैसलमेर
जैसी धज नहीं है इस शहर में. राजस्थान के बाकी शहर जहाँ अपनी भव्यता, दिव्यता के लिए इतराते देखे जा सकते हैं बाड़मेर अपनी सादगी में डूबा नजर
आता है. यह शहर न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर की तर्ज पर
अपनी गति से चलता शहर. यहाँ के भले लोग शिकायत करते नहीं मिलेंगे. प्रेम में डूबे
मिलेंगे. आप भरोसा कर सकते हैं उन पर. कोई चालबाजियां नहीं यहाँ. बाड़मेर निवासी एक
दोस्त ने बताया कि यहाँ क्राइम न के बराबर
ही है. सच है, भौगोलिक चुनौतियाँ कम हैं क्या जो हम एक-दूसरे
के भी खिलाफ हो लें शायद यही सोचते हैं यहाँ के लोग और एक-दूसरे को प्रेम से थामे
रहते हैं. वरना 44, 45, 46 डिग्री के
तापमान में खुद को सहेजना, पानी कमी को सूझबूझ से दूर करना
और कम उपलब्ध साधनों में खुश रहना आसान है क्या.
जब हम दूर होते हैं तो उस शहर के किस्से
हमें लुभाते हैं लेकिन जब हम वही शहर हमें अपनाएगा या नहीं यह आपको पता नहीं होता.
मैंने शहर की ओर दोस्ती का हाथ बढाया था लेकिन 24 घंटे बीतने तक मुझे महसूस नहीं
हुआ कि मेरी फ्रेंड रिक्वेस्ट एक्स्सेप्ट की है बाड़मेर ने या होल्ड पर रखा है.
दोस्तियाँ बहुत धीमी आंच पर पकती हैं. वो जितना वक़्त लेती हैं उतनी मीठी होती हैं.
बाड़मेर की तरफ मेरा दोस्ती का हाथ जाने कबसे बढ़ा था लेकिन बाड़मेर ने वक़्त लिया.
यूँ ही शहर किसी से दोस्ती नहीं करते, वो आपको
आपके दिल को परखते हैं. फिर हाथ बढ़ाते हैं. वरना आप फोटो खिंचवाकर, कुछ जगहों को घूमकर, शापिंग करके वापस जा सकते हैं
लेकिन दोस्ती इसे नहीं कहा जा सकता. मैंने अभी तक उस जुम्बिश को महसूस नहीं किया जो हाथ मिलाने पर होती है. जो
जोधपुर ने दो घंटों में महसूस करवा दी थी.
मैं शहर में घूम रही थी,
शॉपिंग कर रही थी, आकाशवाणी केंद्र में
तस्वीरें खिंचवा रही थी, कविता पाठ भी हो गया, रात को शहर की सड़कों पर घूमते हुए पान भी खाया लेकिन अभी तक शहर के पास
मेरी फ्रेंड रिक्वेस्ट पेंडिंग ही पड़ी थी. और आखिर वापसी का दिन आ गया. यह बाड़मेर
में आखिरी दिन था. 21 जुलाई 2019. हमें बाड़मेर से करीब 40 किलोमीटर दूर स्थित
चोहटन ब्लॉक जाना था. यह मेरा जन्मदिन था इस दिन. मैंने बड़े उत्साह से इस बार
जन्मदिन पर अकेले होना चुना था. सबसे दूर खुद के पास. वो जो सब हैं वो बहुत प्यारे
हैं फिर भी. बाड़मेर शहर चोर शहर है, किसी आशिक की तरह. अब तक
पेंडिंग पड़ी फ्रेंड रिक्वेस्ट एक्स्सेप्ट करने का दिन उसने आज का चुना था. आह...यही
तो है वो बाड़मेर जिसके मैंने सपने देखे थे. जहाँ मैंने होना चाहा था. हम रास्तों
से गुजर रहे थे और बाड़मेर का खूबसूरत रेगिस्तान बिछा हुआ था. मैं लगातार ख़ामोशी के
दरिया में उतरती जा रही थी. बूँद-बूँद महसूस करते हुए. यह बाड़मेर ही था जहाँ अब तक
बारिश नहीं हुई थी. आज के लिए संभाल रखी थीं इस शहर ने बारिश भी. थोड़ा रात को बरस
कर रेत बादलों ने उजला सवेरा बोया था. उनींदा था रेगिस्तान...तपता रेगिस्तान. दूर
तक सन्नाटा समेटे. सरपट दौड़ती कार जैसे विस्मित कर रही थी. इतना सुंदर रास्ता,
ऐसी सघन शांति मानो यह ख्वाब हो. मानो किसी पेंटिंग के बीच में
प्रवेश करने को छोटी सी खिड़की खुल गयी हो. मुझे फिल्म मिर्ज्या का ख्याल आता
है...ऐसे ही किन्ही रास्तों पर फिल्म का नायक अपनी बाइक पर लेकर जाता है. फिल्म की
सिनेमोटोग्राफ़ी का जो कमाल था वह अब सामने था. चोहटन तक का रास्ता बेहद खूबसूरत था,
बेहद शांत. यह रास्ता आत्मिक शांति देने वाला था. ऐसा ही सुख मिला
था गुलमर्ग के रास्तों पर. पहली बार मेरी आँखें नम हुई थीं, पहली
बार कुदरत के सजदे से उठने का दिल नहीं चाहा था. मुझे मालूम है यह खूबसूरती कीमत
मांगती है. धैर्य की कीमत, सहनशीलता की कीमत.
रास्ते में हमें हिरन खूब देखने को मिले.
मेरे मन में एक सवाल उठा कि दूर तक फैले वीराने के बीच में यह जो एक या दो मकान
बने हैं इनका जीवन कैसे चलता होगा? कहाँ से
पानी आता होगा, बिजली होगी कि नहीं. साथियों ने बताया ये
पानी को स्टोर करते हैं, बरसात के पानी को. हालाँकि बरसातें
यहाँ कम ही होती हैं. उसके अलावा टैंकर आते हैं. यह जो सुंदर होना है न इसकी अपनी
कठिन यात्रा है. रेतीले जीवन में धंसे बिना इसके सौन्दर्य को अधूरा ही देखा जा
सकता है. रेतीले जीवन में सिर्फ रेत में नहीं. पर्यटक बनकर आना नाकाफी होगा,
दोस्त बनकर आना होगा. यहाँ के लोगों की बांह थामनी होगी, उनसे दिल लगाना होगा, उनके जीवन को समझना होगा. जो
अक्सर छूट जाता है. यहाँ के स्वादिष्ट व्यंजन, चटख रंग,
पगड़ी, पोशाक यह सब काफी नहीं.
यह सब सोच ही रही थी कि एक साथी ने बताया कि
पाकिस्तान बॉर्डर बस जरा सी दूरी पर है यहाँ से. तो क्या यहाँ तनाव रहता होगा?
पाकिस्तान बॉर्डर के करीब होने के बड़े अर्थ हैं. खासकर मौजूदा
सामाजिक राजनीतिक हालात में. लेकिन मेरे तमाम संशय निर्मूल बताते हुए साथियों ने
कहा कि यहाँ तब तक कोई तनाव नहीं होता जब तक युद्ध ही छिड जाए. दोनों तरफ से रिश्ते
अच्छे हैं. शादियाँ होती हैं आपस में. पाकिस्तान और हिंदुस्तान के गाँव के बीच
काफी ससुराल हैं. लोग कहाँ नफरत करते हैं, वो तो प्यार से
रहते हैं, रहना चाहते हैं. वह तो राजनीति है जो नफरत की फसल
उगाने में लगी हुई है. जितनी ताकत नफ़रत की फसल सींचने में होती है उससे चौथाई
मेहनत या प्रयास में मुहब्बत उगाई जा सकती है. लेकिन ऐसा हुआ तो राजनीति का चूल्हा
कैसे जलेगा इसलिए लोग लड़ते रहेंगे आपस में.
हम चोहटन पहुँच चुके थे. मेरी आँखों के
सामने थे रेत के धोरे. रात हुई हल्की
बारिश के निशां रेत पर साफ़ काबिज थे. रेत ठंडी थी और व्यवस्थित भी. मौसम खूब ठंडा.
खूब ठंडी हवा चल रही थी. साथियों ने कहा, आज
मौसम अच्छा हो गया इसलिए आप यहाँ बैठ पा रही हैं, वरना गर्मी
आपको ठहरने नहीं देती. मैं चप्पल उतारकर रेत पर नाचती फिरती हूँ. सबसे ऊंचे टीले
पर बैठ दूर से ताकते पेड़ से कहती हूँ 'मुझे हैपी बर्थडे
बोलो.' तभी हवा का झोंका मेरे बाल और दुपट्टा उड़ाता है. मैं
रेत के धोरों पर नाचती फिरती हूँ, यहाँ से वहां...धंसती जाती
हूँ रेत में. ऊंचे से रेत के टीले से सरकती हूँ जर्र से. फिर ऊपर चढ़ती हूँ फिर
सरकती हूँ....कितना सुख था इसमें. न कपडे गंदे होने की चिंता न कोई डर. अपने भीतर
के बच्चे के संग दौड़ने मस्ती करने को आज़ाद मन लिए जीना कितना सुखकर होता है. मैं
आकाश की तरफ बाहें फैला देती हूँ...मेरी पलकें गीली होने को हो आती हैं. यह समर्पण
की असीम अनुभूति है. बेहद गहन और पवित्र. बाड़मेर ने आखिर मुझे गले लगा ही लिया था.
लम्बे इंतजार के बाद.
चोहटन में कुछ शिक्षकों से मुलाकात हुई. उन
भौगोलिक परिस्थितियों में वो किस तरह काम कर रहे हैं यह जानना महत्वपूर्ण था उस पर
अलग से लिखना है. हाँ, यह जरूर है कि उनके
हौसलों और प्रयासों को दूर से सुनकर या पढ़कर ठीक से समझा और महसूस नहीं किया जा
सकता.
जैसे-जैसे दिन बीत रहा था बाड़मेर से बिछड़ने
का वक़्त करीब आ रहा था. कलेजे में वैसी ही हूक उठ रही थी जैसी प्रेमी से बिछड़ते समय उठती है. हम ज्यादा
से ज्यादा जी लेना चाहते हैं, बिछड़ने के
वक़्त को पीछे धकेल देना चाहते हैं, नज़रें मिलाते भी नहीं और
नजर से ओझल होने देने का ख्याल ही कचोटता है. तो क्या बाड़मेर से इश्क़ होने लगा था
मुझे. तो क्या इसीलिए इस कमबख्त शहर ने अब तक फ्रेंड रिकवेस्ट पेंडिंग रखी हुई थी.
ओह, इश्क़ फिर से...मैं सिहर जाती हूँ. इश्क़ अपने साथ बहुत
सारे दर्द के दरिया समन्दर लाता है, कैसे सम्हालूंगी. पर यह
जो भीतर घट रहा था उसे कहाँ छोड़ आऊँ. रेत के उन धोरों ने अतीत के तमाम जख्म धो दिए
थे, शायद यह नए इश्क़ की तैयारी थी. मैं अपने भीतर फूटती
सिसकियों को सहेजने में लगातार नाकामयाब होती हूँ और बाजार में रुककर कुछ खरीदने
लगती हूँ. पीले से गोल से फल ठेले पर रखे हुए मुझे आकर्षित कर रहे थे. मैंने
इन्हें पहली बार देखा था. अनजानापन हमेशा आकर्षित करता है. मैंने पूछा यह क्या है,
नाम क्या है इसका, कैसे खाया जाता है? स्वाद कैसा होता है इसका? दुकान वाले ने मेरे हर
सवाल के जवाब में कुछ फल ही रख दिए मेरी हथेली पर. उसका आशय था कि खाकर देख
लीजिये. पास खड़े एक व्यक्ति ने बताया यह खजूर है. मैंने ऐसा खजूर नहीं देखा था.
मैंने पूछा, कैसे खाते हैं, उसने कहा
सीधे मुंह में रख लीजिये. लेकिन मैंने छोटा सा टुकड़ा दांत से काटा. कसैलापन सा था
उस मिठास में. हालाँकि उसकी ऊपरी परत थोड़ी सख्त लगी. मुझे लगा, छीलकर खाना ठीक रहेगा. अचानक मुझे बचपन की बात याद आ गयी जब मेरे भाई लोग
चिढाया करते थे मुझे, ' गुड़िया तो इतनी नफीस है, नाजुक है कि अंगूर भी छीलकर खाती है.' बचपन में जिस
बात से चिढ जाया करती थी अब उसी की याद भर से खिल जाती हूँ और उस खजूर को
चुपके-चुपके छीलती हूँ.
इस शहर ने मुझे एक नयी और बेहद प्यारी दोस्त आभा चौधरी दी जिनसे मिली तो पहली बार लेकिन लगा कि बरसों से जानती हूँ. उनके लेखक पति से लिखने पढ़ने के चलते थोड़ी बहुत जान-पहचान थी 2009 से शायद. वो ब्लागिंग का जमाना था और हम सक्रिय लिखने वाले एक-दूसरे को जानते थे. उस जान-पहचान की जड़ें बहुत गहरी मिलीं हैं हमेशा. चाहे लंदन (लीड्स) में नीरा दी से मिलना हो या आज यहाँ बाड़मेर में किशोर और उसके परिवार से मिलना. लिखने पढने वाली दोस्तियों की खासियत यह होती है कि उसमें विचार और भावों की ही प्रधानता होती है बाकी दुनियावी चीज़ें इसमें शामिल नहीं होतीं. लिखने में अगर हम ईमानदार हैं तो इन दोस्तियों से सुंदर भला कुछ और कैसे हो सकता है. यह फेसबुक के उबाल की नहीं ठहरकर लिखने की बात की जानिब बात है. मुझे लगा था बाड़मेर जा रही हूँ तो किशोर से भी मिलूंगी अगर वो वहां हुआ. यहाँ आकर पता चला वो ही था यहाँ से वहां तक. अपने संजीदापन में, ख़ामोशी में और अपनेपन में. कि उसका परिवार मुझे अपना ही परिवार लगने लगा चंद लम्हों में और आभा तो जैसी पक्की दोस्त. आभा जी ने मुझे सांगरी की सब्जी बनाना सिखाई. राजस्थान की सब्जी है सांगरी. मैंने खाई तो कई बार है लेकिन इतनी स्वादिष्ट पहले कभी नहीं खाई. आभा और किशोर प्रेम से भरे हुए साथी हैं. चुपचाप आपके जीवन में गहरी जगह बना लेते हैं. उनका प्यार साधिकार शामिल होता है.
ढेर सारे तोहफों,
स्वादिष्ट खाने और असीम सुखद यादों के साथ दोनों विदा करते हैं.
ट्रेन के चलते ही मेरी आँखें छलक उठती हैं. शायद इन्हें भी एकांत का इंतजार था. एक
बाड़मेर छूट रहा था....एक बाड़मेर साथ जा रहा था.
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kpratibha.katiyar@gmail.com
A vicarious travelling to Badmer with Pratibha Katiyar ji.
जवाब देंहटाएंVery nicely written.Its full of life,inspiration,humanistic values.It also unfolds a feeling of love with nature,human being and establishes the theory of development again through interaction.
Best wishes
सुन्दर लिखा है, आत्मीयता से
जवाब देंहटाएंशुक्रिया।
उम्दा और बेहद रोचक यात्रा-संस्मरण.
जवाब देंहटाएंVery beautiful explanation
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