परख : तनी हुई रस्सी पर (संजय कुंदन) : शिव दयाल



   

सभ्यता का स्थिर जल हिलता है                          
शिवदयाल 


अपनी मर्जी की जगह पर रहना
एक तनी हुई रस्सी पर चलने से कम नहीं है’ 


किसी व्यक्ति का किसी जगह पर होने का अर्थ यह नहीं कि यह उसके रहने की भी जगह है. रहने की जगह ही अगर उसका पता है तो बाशिंदे की दिक्कत यह है कि वह किसी भी जगह को अपना पता नहीं बता सकता. होने और रहने के बीच की यह फाँक आधुनिक नागर जीवन की विडंबना है, साथ ही यह अलगाव सामुदायिक जीवन के विखण्डन के अलावा व्यक्ति के स्तर पर आत्मच्युति का प्रमाण भी है. यह स्थिति उस व्यक्ति की स्वायत्तता के संकटग्रस्त होने का संकेत भी है जिसका महात्म्य आधुनिकता के मूल्यों और आदर्शों ने खड़ा तो किया लेकिन उसे संभाल नहीं सके. वास्तव में व्यक्ति की स्वायत्तता का अतिक्रमण दोनों ही व्यवस्थाओं में होता आया है- पूंजीवादी (या लोकतांत्रिक, राजनीतिक अर्थों में) व्यवस्था में भी और समाजवादी तंत्र में भी. अगर पहली व्यवस्था में अपार धनोन्मुखता, प्रतियोगिता, शोषण, रोजगार संबंधी अनिश्चितता और तदर्थवाद व्यक्ति को असहाय और अकेला बनाते हैं तो वहीं दूसरी व्यवस्था में व्यक्ति की स्वायत्तता पार्टी में समाहित हो जाती है, वह समाजवादी तंत्र का कल-पुर्जा बन जाता है. इसलिए वास्तव में कवि संजय कुंदन की ये काव्य पंक्तियां आधुनिक व्यक्ति की सार्वदेशिक-सार्वभौमिक अभिव्यक्ति हैं.

उनका चौथा कविता संग्रह ‘तनी हुई रस्सी पर’ की कविताएं व्यक्ति और समुदाय की निजता और स्वायत्तता के अतिक्रमण की बहुविध युक्तियों और जंजालों को पहचानने और कहीं-कहीं उनके प्रतिकार को संकल्पित दिखती हैं. जिस पहली कविता ‘मेरा पता’ में कवि अपने होने का पता ढूंढता फिरता है वहीं अगली कविताओं में वह ‘सकल घरेलू उत्पाद’ और उसके बाद ‘दासता’ की स्थिति से अपना संबंध जोड़ने में प्रवृत्त होता है. वह मानो अपने खोए हुए आत्म की तलाश का उद्योग करता उन तमाम दृश्य-अदृश्य संरचनाओं को नई निगाह से देखना शुरू करता है जिनके लिए नियमगिरी के पहाड़ों सहित हर शय संसाधन है और उसका उपभोग ही उसकी नियति है. यह मनष्यकृत सभ्यता है जिसका जमा पानी हिलाने के लिए कवि कवियों सहित ऐसे सिरफिरों का आवाहन करता है, जो दुनिया को कुछ नया दे सकते हैं, जो अनुशासनप्रिय और आज्ञाकारी नहीं हैं और शिष्टाचार को पान की तरह चबा जाने का माद्दा रखते हैं. कवि को उम्मीद इन सिरफिरों से ही है-

‘वही हमारी भाषा को भी बचाएंगे
वही जो कवि बनने के लिए नहीं
अपने दुख को चिढ़ाने के लिए कविता लिखेंगे.’ 

सही तरीके से देखना बदलने की पहली शर्त है. कवि-कलाकार-रचनाकार की आंखों से एक जीवंत समाज अपने को देखता-परखता है क्योंकि वही दुखों को चिढ़ाने का साहस करते हैं, जोखिम उठाते हैं. यही नहीं असत्य और अनाचार का भार सबसे अधिक वही महसूस करते हैं. वे ही शिलान्यास के पत्थर की जगह खुद को रखकर यह कह सकते हैं-

‘जनता के साथ मजाक कोई अपराध नहीं है हमारी व्यवस्था में
फिर भी अगर दायर हो इसके लिए मुकदमा
तो मेरी गवाही जरूर ली जाए.’

तनी हुई रस्सी पर चलते हुए कवि संजय कुंदन इस मनुष्य विरोधी और प्रकृति द्रोही व्यवस्था, इसके ताने-बाने और इसकी संस्थाओं को निशाने पर लेते हैं- चाहे वह राज व्यवस्था हो, अर्थतंत्र हो,न्याय-व्यवस्था हो, बाजारवाद हो या धर्म. चरम भोगवाद और वस्तुकरण के दौर में वे बेहद मामूली चीजों को बचाने के लिए सन्नद्ध होते हैं , क्योंकि उन्हें मालूम है, इन्हीं साधारण चीजों से जीव संवेदी दुनिया बनी है, इन्हीं के भरोसे इस विराट प्रकृति का कारोबार चल रहा है. इसलिए जब नियमगिरी के पहाड़ों को समतल करने को मुआवजा हाथ में लिए अर्थ-यूथ सामने आ जाएं तो नियमगिरी की संतानों को पूरा जोर लगाकर पूछना ही होगा-

‘क्या हर नुकसान की भरपाई संभव है?
 क्या सबके लिए मिल जाएगा मुआवजा.....फूटे अंडों के लिए
रोके गए परागण के लिए दिया जा सकेगा मुआवजा
...तितलियों से छीना गया जितना आसमान
कछुओं से छीना गया जितना समुद्र
क्या मिलेगा इन सबके लिए मुआवजा.’

उन्हें इस बाजारवादी विकास के ढांचे के बाहर खड़ी रह गई एक समांतर दुनिया को बचाना है, जो वास्तव में समूची दुनिया को बचा लेने का उद्यम है –

‘हम मुनिगुड़ा आते हैं
लकड़ी कटहल नारंगी और अन्नानास लेकर
हमें एक छोटा सा हाट चाहिए और खूब चाहिए प्यार'(नियमगिरी).


कवि यदि नियमगिरी को बचा लेना चाहता है तो उसकी चिंता संबंधों को बचा लेने की भी है (दो भाई, बहन की याद, गृहस्थी). वह गृहस्थी में सबसे ज्यादा स्थगित प्रेम को पुनः स्थापित करना चाहता है-

‘याद करो गुलदस्ते जैसे दिन और छुओ मुझे
उतरो मेरे भीतर
इस तरह- जैसे बारिश का पानी
उतरता है धरती की शिराओं में.'


 उसे अपनी बहन की याद आती है जिसका दुख उसे साल रहा है-

‘काश मैं तुम्हें अपनी नींद भेज पाता
तुम्हारे जख्मों के लिए बादलों के फाहे भेज पाता.’

कवि को मालूम है कि मानवीय संबंध भी व्यापक अर्थों में परितंत्र का हिस्सा हैं. ‘बहन की याद’ एक मार्मिक कविता है जिसमें पारिवारिक व्यवस्था में अनुस्यूत बहन (लड़कियों) के साथ भेदभाव की याद भाई के मन में ग्लानि उत्पन्न करती है-

‘जिस वक्त मैंने सपनों के आकाश में
उड़ना शुरू किया
उसी समय कतरे गए तुम्हारे पंख
तुम एक जेल से निकली और दूसरी जेल में पहुंचा दी गई समारोहपूर्वक.’ 

संग्रह में दो और स्त्रीविषयक कविताएं हैं जो समर्थ होती स्त्री का चित्र उकेरती हैं –
‘महिला सुरक्षाकर्मी’ और ‘समझदार लड़की’.


संजय कुंदन जनपक्षीय सरोकारों को लेकर मुखर हैं ,लाऊड हैं, लेकिन यह उनकी कुल जमापूंजी नहीं है. वे गहन भावबोध के भी कवि हैं और अपने शिल्प को लेकर पर्याप्त सचेत भी हैं. सोशल मीडिया की ये पंक्तियां देखिएः

‘शब्दों का जीवन
बहुत छोटा था- शब्द आते फुदकते, चमकते, ठुमकते
फिर देखते ही देखते भुरभुराकर खत्म हो जाते
कभी-कभार शब्दों के मलबे से
किसी विचारक का कोई वाक्य फुसफुसाहट की तरह सुनाई देता था.

’शब्दों के मलबे में विचारक की उक्ति फुसफुसाहट में तब्दील हो जाती है. यह कटूक्ति शब्दों की दुनिया में रहने वालों को हिलाकर रख देती है .शब्द से अर्थ झड़ चुके हैं या झड़ रहे हैं, अर्थहीन शब्दों का रेला-मेला है, और इन्हीं में ज्ञानीजन अमरत्व की राह तलाश रहे हैं. दशकों पहले की पढ़ी संभवतः राही मासूम रजा की पंक्तियां याद आ गईं-

‘आओ मथें
यह अर्थहीन शब्दों का सागर
अमृत छानकर
देखें
शायद विष की दो बूँदें ही मिल जाएं...

’शब्द की अर्थवत्ता का मर जाना संस्कृति के आपदकाल का लक्षण है, जिसमें सुने-गुने जाने वाले शब्दों का कोई मोल नहीं रह जाने वाला.

संजय कुंदन समकालीन हिंदी कविता के एक स्थापित व महत्वपूर्ण कवि हैं. जिस मुहावरे की बात की जाती है, वह इनका पहले संग्रह में ही तैयार दिखता था. तब से लेकर आज तक व्यंजना इनकी कविता की मूल शक्ति है जिसका उपयोग वे विडंबनाओं और विद्रूपों को उजागर करने में भी करते हैं और छल-छद्म को भेदने में भी. कहीं-कहीं तो त्रासदियों पर भी इनकी व्यंजक टीपें दिखाई देती हैं. इस मामले में यह संग्रह कुछ अलग नहीं है, लेकिन विषयों के चुनाव और पैने अन्वीक्षण ने इन्हें एक समर्थ, युगचेतस कवि के रूप में प्रतिष्ठापित किया है. इस संग्रह में, उन कविताओं में जिनमें पॉलिटकल ओवरटोन है, और जिनमें आमजन के संत्रास को दर्शाया गया है, कवि अपनी बात भूतकाल में कहता है, ऐसे कि मानो वह भविष्य में जाकर आज को, वर्तमान को देख रहा है. कहीं-कहीं इससे कविता का प्रभाव बढ़ा है, तो कहीं-कहीं आशय पूरी तरह खुल नहीं पाया. ‘अकेली लड़कियां’ एक अच्छी कविता है लेकिन इसे यदि वर्तमान काल में कहा जाता तो इसकी प्रभावान्विति कुछ और ही हो सकती थी. लेकिन कवि ही यह तय कर सकता है कि उसे क्या लिखना है और कैसे लिखना है. 

संग्रह की कुछ कविताएं अलग से प्रभावित करती हैंः ‘नियमगिरी, ‘मेरा पता’ और ‘शिलान्यास का पत्थर’ के अलावा ‘सबसे बड़ा युद्ध’, ‘सोचना चाहता हूं’, ‘गलती से’, ‘आपकी परिभाषा’ और ‘दासता’. ‘अधूरी कविता’ कलेवर में छोटी लेकिन गठन में और अर्थसमृद्धि की दृष्टि से एक अद्भुत कविता है. इस कविता में मानो कवि (अधूरी) कविता को अपना संपूर्ण विश्वास सौंपता है, उसकी शक्ति के आगे नतमस्तक होता है. यही उसकी मर्जी की जगह है(जहां पर रहना एक तनी हुई रस्सी पर रहने से कम नहीं है)! 

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sheodayal@rediffmail.com

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  1. संजय कुंदन के नए काव्य संग्रह ' तनी हुई रस्सी पर' की
    कविताओं पर शिवदयाल जी की बेहतरीन समीक्षा।संजय कुंदन की कविताएं समय से सीधा संवाद करती इस समय की ज़रूरी कविताएं हैं।आप दोनों को बधाई।

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  2. बहुत अच्छी समीक्षा है। तनी हुई रस्सी में समय को उसके ऐतिहासिक संदर्भ के छोटी छोटी तफसीलों में देखा गया है जिसका ज्यादा बेधक असर तो है ही , विश्वसनीयता भी बढ़ती है। कविताएं तो अच्छी हैं ही

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  3. Sanjay Kundan के संग्रह की अच्छी समीक्षा।यह संग्रह महत्वपूर्ण है।इसमें दासता,टूटता घर,फेसबुक और बहन की याद जैसी कई अच्छी कविताएं हैं।

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  4. बहुत ही सारगर्भित समीक्षा है संजय कुंदन की कविताओं की. एक महत्वपूर्ण लेखक- कवि ही दूसरे महत्वपूर्ण कवि-लेखक की इतनी सधी हुई समीक्षा कर सकता है.

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  5. कविताओं के अंश बताते हैं कि सृजन सामान्य नहीं है . दिल दिमाग को छूने वाला है . बधाई कुन्दन जी . यह पुस्तक उपलब्ध हो सकी तो जरूर पढ़ना चाहूँगी . यह ललक निस्सन्देह आपकी समीक्षा से जागी है इसके लिये आपको बधाई .

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