(Artwork: Himanshu Suri & Chiraag Bhakta (EAT PRAY THUG II)
अम्बर पाण्डेय की कविताएँ और कहानियाँ आपने पढ़ी हैं, इधर वह उपन्यास लिख रहें हैं. इस उपन्यास का नायक एक कर्मकांडी पुरोहित है जो धीरे-धीरे अपने को बदलता है. अम्बर की यह विशेषता है कि वह जो भी लिखते हैं रोचक और अलग होता है. इसका एक अंश आपके लिए प्रस्तुत है.
उपन्यास-अंश
गणपत्या की गजब गोष्ठी
अम्बर पाण्डेय
(दुनिया के सभी अनागरिकों के लिए)
धुर्जटा गौडसारस्वत ब्राह्मणों के मठ
केवलाद्वैत स्वामी अखण्डतीर्थ की एक शाखा गुड्डीपेठ, हैदराबाद में है. जिसके शिवालय में मेरे बाबा हरि गणपति वैद्य पुरोहित थे.
धुर्जट्यापूर, गोवा हमारा पैतृक प्रदेश है और बाबा वहाँ के
श्रीकण्ठ महादेव मंदिर की प्रतिवर्ष यात्रा करते थे उस वर्ष मुझे भी वहाँ जाने का
सौभाग्य प्राप्त हुआ. मेरा उपनयन श्रीकण्ठ महादेव मंदिर के प्रांगण में
मकरसंक्रान्ति की दोपहर सम्पन्न हुआ. वय उस दिन मेरी साढ़े पन्द्रह थी और मेरा
शरीर उत्तरायण की धूप से और अधिक श्याम और अधिक सुन्दर हो गया था. यदि आप गोवा जाए
तो धुर्जट्यापूर के श्रीकण्ठ महादेव मंदिर के दर्शन अवश्य करें. कहते है कि मंदिर
की ध्वजा मात्र के दर्शन से जन्म जन्म के दारिद्र्य का नाश हो जाता है. यहाँ काले
पाषाण के शिवलिंग पर श्रीयन्त्र खुदा हुआ है और किंवदंती है कि प्रतिप्रदोष यहाँ
हीरे, मुक्ता, माणिक्य, पुष्पराग और स्वर्ण बरसता है जिसे कुबेर बीनकर ले जाते है.
सेंट ख़ालिद हायर सेकंडरी स्कूल में
मुझे अंग्रेज़ी शिक्षा दीक्षा के बीच यज्ञोपवीत सम्भालने में बहुत दिक़्क़त होती.
लघुशंका निवारण के समय लड़के मेरा कान पर चढ़ा जनेऊ खींचते और झगड़ा हो जाता. फिर
मैंने इससे बचने का यह तरीक़ा निकाला कि जब वे जनेऊ खींचे उनकी ओर लिंग करके उनपर
मूत्रधार छोड़ दूँ. इससे स्कूल में मेरा भय बैठ गया. दो चार मुसलमान दोस्तों की
टोपी खींचकर उनपर भी मूत्रत्याग करने पर वे भी मुझसे डरने लगे. नित्यनियम से मैं
अपने भाऊ और बाबा के साथ प्रातः और संध्याकाल में सन्ध्या करता और धार्मिक
पुस्तकों का भी अध्ययन करने लगा. ब्राह्मणों की जीवनशैली के प्रति मेरी रूचि इतनी
बढ़ी कि मैंने घर पर धोती पहनना आरम्भ कर दिया और अपने लक्स के जाँघिये भाऊ को
पन्द्रह पन्द्रह रुपए में बेचकर लट्ठे का बना कौपीन पहनना शुरू कर दिया. जब दसवीं
में पूरे तेलंगाना में मैं मेरिट में प्रथम आया तब मैंने निर्णय कर लिया कि अब
शिखा भी रखूँगा और मैंने अपना सिर भी मुंडा लिया.
“गणपति, चुटिया रखने का मंसूबा कब
हुआ?” भोजन पर बाबा ने शिकवा लगाया.
“यज्ञोपवीत के साथ चुटिया जरूरी है. मैंने सूर्यदेवता
से मनोरथ किया था कि पूरे तेलंगाना राज्य में मेरिटलिस्ट में पहिला आया तो चुटिया
नहीं कटाऊँगा” मैंने कहा और बाबा की आँख में आँख डालकर देखने लगा.
“मास्टरलोग संतप्त होंगे” बाबा ने कहा और मेरी नजर से
बचने को मुँह झुकाकर थाली में देखने लगे.
“हुआ करें” मुझे पता था कि मेरी चुटिया देखकर मास्टरों
से ज्यादा बाबा को संताप हुआ था.
“चुटिया रखो जनेऊ पहनो रात्रिदिवस उपासना करो मगर पढ़ाई से टकटकी नहीं छूटना चाहिए. तुम्हारे बाबा तुम्हें सोफ़्टवेयर इंजीनर बनाने का स्वप्न तुम्हारे जन्म से करते है”आई ने कहा और रोटी का डब्बा लेकर हमारे सामने ही बैठ गई. भाऊ का मुँह उतर गया. बारहवीं में दो साल फेल होने के बाद वह बाबा के साथ कर्मकाण्ड सीख रहे थे. दुर्गासप्तशती और रुद्र पाठ करके जीवनयापन करना उनका भविष्य था, हाईटेक सिटी में जाकर काँचमड़ित ऊँची इमारत में टाई बाँधकर कम्प्यूटर के आगे बैठने का घरभर का स्वप्न धरा का धरा रह गया था. आधी रोटी का टुकड़ा वह चबाते रहे फिर हाथ धो लिए.
“केवल डेढ़ रोटी खाएगा भात छुवा तक नहीं” आई का मुँह
उतर गया. उनके मन को भाऊ की अवस्था देखकर बहुत क्लेश होता था. एक बार उन्होंने बुआ
को कहा भी था, “देखो, मेरा रामभद्र
कितना सुस्वरूप दिखता है, लम्बा और कंधे ऐसे निकलते हुए. नाक
लम्बी और आँखें बड़ी बड़ी गाय की आँखों जैसी. अब अभागा बहुत शोचनीय लगता है. तीसरी
दफ़ा बारहवीं की परीक्षा देगा. गणपति फेल होता तो संताप न होता. उसे अनुज मानकर
रामभद्र सम्भाल लेता. साँवले, तगड़े शरीर से गणपति कोई भी
काम करता अच्छा लगता फिर उसकी धर्म में बहुत आस्था है पूजापाठ के आश्रय वह अपना
आयुष्य काट लेने में लायक था. रामभद्र को देखकर ही भास होता है कि वह मृदु हृदय का
धनी है और वह किसी सुघड़ कन्या की बाट जोहता है जो उसका हृदय अपने हाथों में ले
सके, उसे स्नेह दे सके. मेरे रामभद्र को प्रीति की बहुत गरज
है रे सावित्रा”
सुनकर तुम मेरे क्लेश की कल्पना कर
सकते हो. मैं दुलाई तानकर शाम से ही बिस्तर में घुस गया और रोने का प्रयास करने
लगा किन्तु रोना आ ही नहीं रहा था. आई भोजन के लिए पुकारने लगी. “मुझे नींद आ रही
है” सुनने पर आई ने कहा, “परवाह नहीं. नींद आ
रही होगी तो पेट भरा होगा. बाला तू खा” आई ने भाऊ से कहा और घरभर घी और भात की
सुगंध से भर गया. भाऊ परीक्षा में शून्य पाकर भी ममतापात्र बना हुआ था हरामी. मैं
वायुवेग से पाकघर में दाखिल हुआ और भाऊ की थाली खींचकर गुड़ और घी से सना भात खाने
लगा.
“ऐसा शिष्टाचार सिखाने से पहिले मेरे जीव का नाश होना
था” आई चिल्लाई मगर मैं निर्लज्ज होकर अपने मुख में भाऊ का रात्रजेवण ठूँसता रहा.
“सूअड़्ले, भकोसे जा रहा है देखता नहीं बाला की थाली है” आई
का माथा तमतमा रहा था और कुंकू का तिलक ऐसा लगता था जैसे ज्येष्ठ के अपराह्नाकाश
में चंड मार्तण्ड. थाली समेत मैं उठा और बचा भात खिड़की से बाहर उलट दिया, टोमी झपटा और घी-गुड़ पाकर आमोद से पूँछ हिला हिलाकर नाचने लगा. आई खिड़की
पर दौड़ी.
“जाने दो आई, जठर की उत्कंठा के मारे
त्रास में था” भाऊ ने भला बनने का करतब किया.
“वाह रे क्षुधादर्शक के नाती! कोई शुद्ध घी से सना भात
कुतरे-मार्जार को देता है! आने दे तुम्हारे बाबा को ऐसा पिटवाऊँगी कि कूल्हें न
सूजे तो मेरा नाम जया नहीं” आई ने फ़र्श से थाली उठाई और बड़बड़ाने लगी.
“हाँ, हाँ, सब
मेरी गाँड सुजाओ. अध्ययन भी मैं करूँ, कोई जेवण न पूछे और
पीटे भी मुझे! भाऊ तो कलेक्टर है न” मैं चिल्लाचोट करने में किसी से कम था क्या.
मुझे गायत्री के हज़ार जप का बल था.
“जबान देखो इसकी! भात नहीं दिया इसे गू खिलाया बालपन से,
दूध नहीं पिलाकर अपना मूत पिलाती थी मैं” आई मोरी में भांडे घिसते
हुए बोली. आँखों के किनारों में थोड़े अश्रु भी अब तलक दीप्त होने लगे थे. बाबा के
आने की भी बेला होने होने की थी. मुझे होश हुआ और घबराहट होने लगी. इतने में
दरवाजे पर खटका हुआ. बाबा पैर धो रहे थे.
धड़ धड़ वह जब अंदर आए तो छपछप तलवों
के पगचिह्न फ़र्शियों पर बन गए, “गाँड, गू-मूत यही सब सिखाने को देस से तुम्हें यहाँ
लाया! पिताजी कहते थे कुछ नहीं धरा नगर में. आज देखा. बालक तो बालक उनकी माँ भी
यही कर रही है. अपने कुलदैवत की सेवा छोड़ बिना कारण हैदराबाद में जोशीपन की जीविका
पकड़ी” अब तो राखोड़ी से घिसे पीतल के चमचम भांडे पर आई के नेत्र टपटप गिरने लगे.
भाऊ ने भी संयम खो दिया, “सब गणपत का खोडपण है. पहले मेरी
थाली छीन ली फिर आधी खाकर कुतरे के आगे पटक दी और लगा आई को अपशब्द कहने. जिव्हा
पर कोई बन्दिश नहीं”.
कोप से मेरा गला भर आया और मैं कुछ कह
न सका.उस रात्रि आई ने भोजन नहीं किया न बाबा ने उन्हें भोजन करने का आग्रह किया.
भाऊ ही “थाली परोस दूँ क्या थाली परोस दूँ क्या” ऐसी दरखास्त लगाता रहा मगर मजाल
है कि थाली परोसकर लाया भी हो. आई ने पाकघर की अबेराअबेरी की और वहीं साड़ी ओढ़कर सो
गई. भाऊ रात पड़े थोड़ी देर को गायब हो गया. मुझे ख़बर थी कि ख़ुद से बड़ी वय की
एक लड़की से उसका मेलजोल है. मैं कुछ कहता न था हालाँकि मैंने उसे अपने एक मित्र
से एक बार कहते सुना था, “हाँ यार वह राँड
मेरे जीव से ख़ूब ख़ूब लगी है. क्या तो नगद लगती है तेरी वहिनी”. ऐसी छछोर बातें
पिछले दिनों से भाऊ बहुत करने लगा था.
कभी कभी निद्रा में मुझे “गोमता गोमता” कहकर
जकड़ लेता और चमाट लगाने पर ही उसे होशावस्था होती थी. बहुत दिवस तक मैं यह समझता
रहा कि भाऊ गोमाता का स्वप्न देखता होगा और भावातिरेक में मुझे जकड़ता है. यह बहुत
बाद में पता चला कि उस लड़की का नाम गोमती है और भाऊ निद्रा में मुझे गोमती समझकर
जकड़ता है और ‘गोमता गोमता’ करता है. तब मुझे स्वयं से घृणा हुई और भाऊ के प्रति
प्रचंड कोप, एक रात्रि मैंने ऐसा
चमाट लगाया कि भाऊ का सबेरे गाल सूजा हुआ था. आई ने खूब हल्ला किया कि गई रात्रि
ऐसा क्या हुआ! बाबा ने भी जवाबतलबी की पर भाऊ निशब्द रहा, इसपर
बाबा ने कुपित होकर उसे दो चमाटें और लगा दिए.
दूसरे दिवस बाबा दोपहरी को जब मन्दिर
से भोजन को आए तो आई से घर का सामान बाँधने को कहा, “बाला, तू अपनी आई को काम में टेका देना. गणपत मेरे
साथ जाकर मंदिर के पीछे गोशाला रहने को दुरुस्त करेंगे. आज रात्रि से पहिले वहाँ
जाएँगे”.
मैंने गणित विषय लिया था जिसमें बहुत
पढ़ना पड़ता था. जाने की इच्छा छटाँक न थी पर कल रात्रि हुई मारामारी के पीछे और
बाबा को गरज है यह सोचकर मैंने तत्काल धोती का फेंटा कसा और चलने को उत्सुक खड़ा
हो गया. “मालिक भाड़ा बढ़ाने को बोले क्या? अचानक सामान बाँधो बोले तो” आई ने पूछा. वह आटा गूँध रही थी, आज जेवण में विलम्ब हुआ. भाऊ की वजह से लेटलतीफ़ी हुई वह आटा पिसाने गया
तो दो घण्टे बाद आया, “बिजली गुल हुई” बोलकर.
“कल रात्रि जो हुआ उसके बाद दो दो तरुण होते पुत्रों को
लेकर यहाँ पड़ा रहूँ! तुमने भी तो कल मुतारी सफ़ा करनेवाली बाइयों की माफ़िक़
रोडछाप बातें की. यह सब नीचे लोगों की संगत का परिणाम है इसलिए मठ के दफ़्तर
धुर्जट्यापूर दूरध्वनि पर बात करके निश्चित किया है अब यहाँ एक रात्रि विश्राम
नहीं”. आई का चेहरा कठोर पड़ा पर वह रोई नहीं. उठी और थालीपीठ को भाऊ की पुरानी
बनियान से ढँककर सामान बाँधने लगी. भाऊ लोहे के पलंग खड़े करने लगा. “जल्दी ही
ठेला करके लाता हूँ. गोशाला दुरुस्त करने में भी दो ढाई घंटे से कम न लगेंगे” बाबा
ने कहा. मेरा पूरा दिवस फोकट जाएगा ऐसा सोचते मैं अपनी काठी बाबा के पीछे घसीटता
गुड्डीपेठ से अतलिंगापल्ली चला.
पूरे दिन भूखा रहा कुटुम्ब नौ बजे
सिगड़ी को घेरकर तपेली में बटाटे उबलने की प्रतीक्षा कर रहा था. भाऊ भूख के मारे
बार बार बटाटों में चाकू कोंचकर देखता था कि बटाटे पक गए है या नहीं. “आप प्रत्येक
धनतेरस पर कुकर लाने का वायदा करते पर अब तलक लाकर नहीं दिया” आई ने कहा. भाऊ की
भूख आई से देखी न जाती थी. “गनपत्या, जाकर पापड़ ले आ. मन्दिर से तीसरा गृह पापड़ कारख़ाना है” बाबा ने कहा.
मैं रुपया लेने को खड़ा रहा. “रुपए की गरज नहीं. मेरी पहचान है फोकट में दे देगी
सुरेखावहिनी”. मैं दौड़ा पर फाटक खोलते ही आई ने टोका, “किसी
से फोकट पापड़-बड़ी माँगने की गरज नहीं. जेवण में देर नहीं. बैठ जा. अधरात
कारख़ाना खुला होगा?”
“सुरेखावहिनी का कुटीर उद्योग है. उनके गृह में ही
कारख़ाना चलता है” बाबा ने कहा. “इसलिए रोज लेटलतीफ़ी होती थी लौटते टेम. पापड़
बेलते होगे वहाँ” आई अचानक बोल पड़ी.
“बच्चों के आगे
भी आड़ नहीं!” बाबा फुसफुसाए. तो बाबा पापड़वाली के प्रियकर और भाऊ गोमता के ख़ाली
मैं ही ठूँठ एकटा था. अहा, भाऊ की ढीली लंगोट वंशानुगत है,
ऐसा विचार मन में आया. बाबा के विषय में मैं चाहकर भी ऐसा विचार
नहीं कर सकता था. त्रिकालसन्ध्या, सोमवार और प्रदोष के व्रत
और नित्य रुद्रीपाठ, शिवाभिषेक करनेवाले बाबा पापड़वाली से
चोंचले करेंगे, विश्वास नहीं होता था. बाबा से आई भी कुछ
बिना चिन्तन के न कहती थी. तभी कल आई का जी ख़राब था. तभी बाबा इतने कम भाड़े का
गृह त्यागकर इस गोशाला में हमें ले आए ताकि पापड़वाली के निकट रह सके.
मंदिर में केवल एक गौ थी और गोशाला
बड़ीजंगी. छप्पर और भित्ति में एक हाथ का अन्तर था. पावस, पवन को खुली छूट थी. बाबा और मैंने वहाँ पतरें ठोंके,
छप्पर को तिरपाल से पाटा और प्रवेशद्वार दुरुस्त किया. अंदर कमरे थे
पर द्वार नहीं थे. पुराने गृह से यह बहुत बड़ा था. चारे के कोठार को पाकघर बनाया,
गाय बाँधने के जगह पर बाबा का लोहे का पलंग डाला. आई को कभी पलंग पर
सोते नहीं देखा था पर बाबा ज़िद्दी होकर आई के लिए एक पुराना पलंग कहीं से लाए.
ख़ुद के पलंग से जोड़कर आई का पलंग रखा.
भाऊ से मैंने अलग सोने का निश्चय किया और पीछे की अंधारभरी खोली में अपनी
किताबें और कपड़े रख लिए. पलंग नहीं था इसलिए भूशयन का संकल्प लिया. बाबा ने पानी
की कोठियों में नाली खुदवाकर स्नानघर बना दिया और मंदिरप्रांगण के एकमात्र संडास
पर ताला डाल दिया ताकि हमारे कुटुम्बियों को छोड़ कोई मुसाफ़िर वहाँ न जा सके.
आई और भाऊ को यह स्थान बिलकुल भी
अच्छा नहीं लग रहा था. आई के मन में पापड़वाली को लेकर शंका बैठ गई थी और यहाँ आकर
भाऊ का गोमता से वियोग हो गया था. इसके अलावा उस बसाहट में नीचे लोगों में
घुलनेमिलने में आई और भाऊ को थोड़ा भी संताप नहीं होता था. यज्ञोपवीत धारण करने के
बाद मुझे उनके मुख देखना भी बर्दाश्त न था. वे दोनों मज़े में उनसे मेलजोल रखते थे.
इस मामले में मैं बाबा पर गया था आख़िर पापड़वाली गौड़सारस्वत थी ऐसा मैंने बाद के
दिनों में पता लगाया. उसके पति ने उसे छोड़कर मुसलमान बाई रखी थी.
मुझे इस गृह में शुद्धता का अनुभव
होता. मंदिर में अधिक श्रद्धालु नहीं आते थे. केवल धुर्जटा गौडसारस्वत समाज के लोग
आते और वे भी सोमवार या विशेष पर्वों पर. पूरे प्रांगण को जैसे जी चाहे बापरो.
पानी की कंगाली नहीं थी. गूलर, वट और अश्वत्थ के वृक्ष थे. वहाँ तो पूरी गली गू से बासती थी. जिधर देखो
उधर मूतारी सफ़ा करनेवालों के दर्शन होते थे. स्वच्छता के हज़ारों शासकीय
विज्ञापनों का उन लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था. सबेरे होते ही रोटी रोटी
करते थे और दारू दारू करके रात्रि को लुढ़क जाते. संडास सफ़ा करते करते उनकी
घ्राणशक्ति लुप्त हो गई थी लगता था.
“गनपत्या, तुझे अपने ब्राह्मण
होने का ग़ैरवाजिब घमण्ड है” एक दफ़ा भाऊ ने मुझसे कहा था जब मैंने उसके एक मित्र
की माँ से मरीअम्मां का प्रसाद लेना नकार दिया था. “तुम्हारी वो गोमता सुलभ संडास
सफ़ा करती है इसलिए मेरा शुद्धाशुद्ध का विचार तुम्हें हेतुशून्य लगता है. लगा करे
मुझे क्या परवा” मैंने भाऊ पर ऐसा आक्रमण किया कि उसकी सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. वह
आसपास देखने लगा कहीं आई तो नहीं सुन रही, मैंने अवसर देखकर
और अधिक कहा, “ऊँची नौकरी कर सकते फिर भी यहीं पड़े गंद करते
है साले, थू”. भाऊ मुँह झुकाए खोली से निकलकर सड़क पर भाग
गया. उस दिन के पीछे इस विषय पर मुझसे कुछ कहने का साहस उसने नहीं किया.
अलग खोली होने से पहिली दफ़ा मैंने
एकटेपन का आनन्द समझा. अध्ययन में विघ्न नहीं और दोपहरीभर दिवास्वप्न में मैं
देखता कि हाईटेक सिटी में छबीसवें माले में अपने दफ़्तर में फटाफट काम निबटा रहा
हूँ. मेरी चुटिया, जनेऊ और धोती से मेरे
अफ़सरों को बहुत संताप है पर वह कुछ नहीं कहते क्योंकि मेरा काम ही ऐसा परिपूर्ण
और त्रुटिरहित है. दोपहर को आख़िरी माले के पाट पर चढ़कर मध्याह्नसन्ध्या की वजह
से सभी कामगारों के हृदय में मेरे प्रति कितना सम्मान है.
पूरा दिवस मैं अपनी खोली में काट देता.
जेवण और संडास के लिए ही बाहर निकलता था. बिजली का बिल मन्दिर के खाते से जाता था
इसलिए अंधारी खोली में दिन में भी बत्ती जलाकर रखता. दिन में बत्ती जलाने पर जो
सुख होता है उसका वर्णन ब्रह्मा के वश की भी बात नहीं, ऐसा लगता मैं कोई शहर श्रीमंत हूँ. बल्ब के पीले पीले
प्रकाश में फटली दुलाई के पुष्प नैसर्गिक दिखते और मुझपर सौन्दर्य का ऐसा आवेश
होता कि उन पुष्पों से मुझे सुवास आने लगता. छप्पर से छिद्रों से आती किरणें
परमेश्वर के हजार चक्षु लगती जिनके नीचे मैं खड़ा होता तो आत्म आलोकस्नात हो जाता.
जैसे स्वर और व्यंजनों का समूह वाक्य में पड़कर अर्थपूर्ण हो जाता है वैसे ही इस
खोली में आते ही मेरे जीवन को अर्थ प्राप्त हो गया था.
“कल एकटा अपनी अंधारी खोली में बिलकुल मत बैठना” आई ने
भाकरी थाली में उछालते कहा. मैथी का पिठले बना था. आज तो सब मैं ही खाऊँगा,
ऐसा सोचकर मैं जेवण पर टूट पड़ा. “भात मुझे दो नक्को. केवल भाकरी”
मैंने कहा.
“पेटभर खाओ कल उपवास है, जनेऊ हुआ
अब प्रतिप्रदोष उपवास. कल क्षारयुक्त कुछ नहीं” आई बोली.
“साबूदाने वडे खाता न मैं” मैंने छठवीं भाकरी तोड़ते
कहा.
“बाबा को देखा कभी खाते, भाऊ को
देखा! मैं तो जैसे साबूदाने वडा, सींगदाने की चटनी और
सिंघाड़े का शीरा खाकर उपवास करती हूँ न! तू बालपण से देखता आया है फिर! केवल फल
खाकर सबूरी करना कल” आई ने चिढ़कर कहा. अब तो कल लवण-तैल का कुछ मिलने नहीं वाला
ऐसा सोचकर मैंने दो और भाकरी खाने का निर्णय लिया और पिठले का कटोरा आधा अपनी थाली
में उलट लिया. आई भवें उठाए नेत्र फाड़ फाड़कर देखती रही पर कहा एक शब्द भी नहीं.
भाऊ को भी पिठले बहुत भाता था और अब तलक वह घर नहीं आया था. खा रहा होगा चाट उसी
गोमता के संग चारमीनार पर. आई का मेरे प्रति जो आचरण था वह मुझे बहुत क्लेश देता
था. भाऊ लोफ़री करता था, लेटलतीफ़ी करता था, बारहवीं में अटककर शिक्षण का त्याग किया तब भी आई की उसपर ममता में
लेशमात्र कम्ती नहीं हुई उल्टे उन्हें मुझसे चिढ़ छूटती. ऐसा आचरण करती जैसे मुझे
कोई धुर्जटा शिवालय के फाटक पर पटक गया था, ऐसा सोचते सोचते
खाते खाते भी मेरे नेत्रों से अश्रु टपकने लगे. मैंने शब्द नहीं कहा और अश्रु
पोंछकर हाथ धो लिए.
“थाली में ढेर सारा पिठले पलटते सोचा नहीं था कि खाते न
बनेगा. सम्पूर्ण थाली खाओ. बालपण के कुटैव अब नक्को होना यहाँ” आई चिल्लाई.
“पलटी हुई तो? पेट ख़राब हो गया
लगता है” मैंने कहा और अपनी खोली की तरफ़ भागा कि आई के आगे रो न पड़ूँ.
“पेटार्थी कहीं का” आई पिठले मेरी थाली से अलग रखते हुए
पीछे से चिल्लाई.
दौड़ा दौड़ा अभी खोली आया. बिजली
बुझाई और अपनी फटली-बसोड़ी गोदड़ी पर औंधे मुँह पड़ गया. स्वादिष्ट जेवण का प्रभाव
था या दुख की निद्रा ही ऐसी प्रबल होती है; मैं सूर्य चढ़े जागा. अचम्भा तो यह था कि न जगाने को न आई आई न भाऊ. सीधे
संडास की तरफ़ दौड़ा. प्रदोष व्रत के कारण शिवालय में भीड़ थी, आँगन तक क़तार लगी हुई थी.
जब वापस आया तो पाकघर में विलक्षण
दृश्य था. भाऊ कोने में गले की हड्डी में ठुड्डी दिए बैठा था और आई चिल्लाचोट कर
रही थी. बाबा कनस्तर पर बैठे बड़बड़ा रहे थे. “दारू पी कैसे तूने” आई चकले पर बेलन
फेंकते हुए चिल्लाई.
“बीयर थी वह. कड़कमद्य नहीं” भाऊ ने फटी फटी आँखों से
मुझे देखते हुए कहा.
“खुल गई तेरी निद्रा. देख लिए दारू, बीड़ी और रंडियों के स्वप्न” आई ने अब
मुझपर भी आक्षेप किया, “दोनों सन्तान अपने कुतरीबाज
बाप पे गई मेरे तो भाग फूटे रे बाबा”.
“तेरा भेजा दही हुआ क्या री” बाबा खड़े होकर चिल्लाए.
बाबा ने आई पर कभी हाथ नहीं उठाया था पर आज लगा कुछ अश्रुतपूर्व घटेगा.
“अच्छा तो पापड़वाली कुतरी नहीं अप्सरा है अप्सरा” आई
निर्भय थी. बाबा आगे बढ़े तो भाऊ उछला और दोनों के बीच में आ गया.
“हट बीच में से हम धनी-लुगाई के. आज देखती मैं कैसा
लगता तेरे बाप का चमाट” आई चिल्लाई. बाहर शिवालय में भीड़ मची थी. वहाँ भगवान के
सम्मुख देणगी लेने को घर का कोई मानुष नहीं बैठा था. सब रुपया दर्शनार्थी पेटी के
हवाले कर रहे होंगे.
बाबा ने खुद को सम्भाला, दो मिनट तलक आई को घूरते रहे फिर शान्त होकर बाहर
निकल गए. टंटे का अकाल ख़ात्मा हुआ . भाऊ भी शिवालय की तरफ़ दौड़ा. आई देर तक रोती
रही और मैं नहाने पीछे नल पर आ गया. सब चिढ़चिढ़ पापड़वाली के पीछे है और उसपर भाऊ
का मद्यपान. हाईटेक सिटी में नौकरी करता और दारू बीड़ी पीता तो कोई कुछ नहीं कहता.
पुरोहिती की जीविका पकड़कर ऐसे शौक पाले तो आई और बाबा का कोप वाजिब ही है. आई के
ऊपर भी बाबा ने रखैल लाकर पटकी तो बात वाजिब की. आई की दिवसरात्रि की किटकिट से
कौन मर्द का माथा नहीं ठनकेगा. पूरा दिवस रुद्रपाठ, उपासना,
मंदिर के तमाम झमेले तब मनुष्यजात को थोड़ा स्नेहभाव तो चाहिए.
देवालय में जो आता बदरीफल और धतूरे
चढ़ाता. अपराह्नसन्ध्या के पश्चात् भी चाय की व्यवस्था नहीं हुई थी. कल उपवास रखने
के नाम मुझे भीति थी पर आज अचानक गायत्रीजप के काल अनुष्ठानों के प्रति प्रीति
उत्पन्न हुई और टपरी पर चायपान के लिए जाने का प्रश्न भी न उठता था. पेट में
मूषकों का उत्पात चालू हो गया और लगा देवालय का पाट माथे पर घिरा आता हो. मैं
मन्दार, धतूरों और कमलों में
से बदरीफल बीनने लगा. बाबा ने उपहासदृष्टि से देखा और एक पुरातन बाई से दक्षिणा
लेने लगे. भाऊ ने चार पाँच बदरीफल बीने और मेरी ओर पटक दिए.
बदरीफल बटोरकर मैं अपनी खोली की तरफ़
भागा. आदिशंकराचार्य की कृति कौपीनपंचकं जैसा भिक्षु जीवन काटने का ध्येय था और
कहाँ अब अभिषेक के दूध से धुले चिक्कण बदरीफल खाकर जठराग्नि शान्त कर रहा था. एक
तरफ़ तो मैं फल खाना नहीं चाहता था और दूसरी तरफ़ चाहता था कि बदरीफलों पर लगाने
के लिए खार और मिरची मिल जाएँ. ‘गणपत्या, श्रीकण्ठ जी का प्रसाद खाने में बारीक से बारीक गैरवाजिबी भी नहीं’ मैं
ख़ुद ही बोलता और खाता जाता था कि आई का स्वर सुना. आई का रुदन बुआ से कुछ कहते
कहते बोलों के बीच में उमगकर खोली में भर रहा था. मेरे कान गरम हो गए लगा कोई
लालगरम लोहा छुवा रहा हो.
“देख न, ताई तू बता, उस पापड़वाली के पीछे जमी-जकड़ी गृहस्थी त्यागकर यहाँ गोशाला में ला पटका. यहाँ आते दस दिवस न गए कि बाला दारू में धुत्त अर्धरात्र घर आया. सकारे, मुझपर हाथ उठाने खड़े हो गए दो दो मेरी तरुण सन्तानों के आगे. कैसी कंगाली में दिन काटे इनके संग देस में. अरबी के पत्ते खाकर महीने कट जाते दूसरी भाजी देखने को नहीं मिलती थी गाँठ में न रोकड़ न जिव्हा पर मधुर वचन इनके. यहाँ आकर राशनपानी का करार हुआ तो रखेली लाकर बैठाई कपाल पर”.
आई के वचन सुनकर बदरीफल खाते खाते
मेरे कण्ठ में जैसे चक्की का पाट अटक गया, न श्वास ऊपर जाती थी न नीचे. ख़ूब घबराहट होने लगी, आई
का दुख कितना बड़ा है. जिसका आदमी दूसरी लुगाई के पीछे लट्टू रहे उसकी खिन्नता की
धारणा मैं कैसे कर सकता था फिर भी आई के अश्रु देखे न जाते थे. बाबा की ढीली लंगोट,
दो-दस मिनट की चूमाचाटी के कारण आई को कैसा कष्ट उठाना पड़ रहा था.
ताते टपटप अश्रु गाल से पोंछे ही थे
कि देवालय के आँगन से जबर कोलाहल उठा. गोद के फल और गुठलियाँ झटकारकर मैं उस तरफ़
दौड़ा. बाहर का दुर्घट ऐसा विस्मयकारक था कि उसका वर्णन करते मैं अशक्त अनुभव करता
हूँ.
कैसी गजब गोष्ठी ले बैठा रे तू
गणपत्या!
आँगन में सहस्रों भक्त कुछ देखने को
उत्सुक धक्कामुक्की करते एक दूसरे पर चढ़े जाते थे. पुरातन बाइयाँ जिनकी कटि झुक
गई थी वे भी शीश निकाल निकालकर देखने का प्रयास करती थी. बलिष्ठ पुरुष अपने
विस्तृत कन्धों से दूसरों को धकियाकर आगे आ गए थे और एकटक देखते थे. बालकों को
उनके पिताओं ने अपने कन्धों पर बैठा लिया था और वे ताली बजा रहे थे. जो बच्चे अपनी
माताओं के संग आए थे वे रो रोकर अपने माताओं को वह अद्भुत दृश्य देखने नहीं दे रहे
थे. जूने-जर्जर पुरुष स्त्रियों के गोल नितम्बों पर चिकोटियाँ काटने का आनन्द लेते हुए आगे आ गए थे.
गूलर पर रहनेवाला बन्दरों का कुटुम्ब तक प्रसाद के फल हाथों में पकड़े खाना-फेंकना
भूलकर टकटकी बाँधे देखता था. मन्दिर के कपोत छज्जे पर जैसे मन्त्रबिद्ध अनिमेष
सम्मुख देख रहे थे, आकाश के पक्षी
चित्रलिखित ऊपर आकाश ही में ठहर गए थे और नीचे देख रहे थे. वट के खोखल में
रहनेवाला वृद्ध नाग तक निकल आया था और मस्तक तक चमकती मणि की चकाचौंध के कारण ठीक
से देखने में असमर्थ वह बार बार अपना फण झटकता था.
आई और बुआ भी दौड़ती बाहर आई. उनके
स्तनों पर उछलती मोहनमाला और कानों में झलमलाते मुक्ताफूलों से मेरी आँखें चौंधियाँ
गई और मैंने अपने ललाट पर करतल रखकर पुनः देखने का प्रयास किया कि इतने में एक
विशाल सांड भीड़ चीरता, अपने सींगों से
सज्जनों को गिराता आँगन के बीच में आया. भगदड़ मच गई, लोग
त्राहि त्राहि करते भागे. अपने तारुण्य और मर्दानी काठी पर इतराते पहलवान की जाँघ
की हड्डी तोड़ता सांड आगे दौड़ा और उसे रास्ता देते हुए लोग चितरबितर होने लगे.
कुछ दृश्य से ऐसे बँधे थे कि सांड से निर्भय केवल देखे जा रहे थे.
जब सांड उस अद्भुत दृश्य के स्थान पर
पहुँचा जो भीड़ से घिरा गोलाकार था तब अनेक हाथ और अंगुल लम्बी एक स्त्री ने उस
सांड के दाएँ सींग को पकड़कर उसे रोक लिया. सांड की कद्दावर काठी सींग से पूँछ
पर्यन्त उछलने लगी, कसमसाई पर उस स्त्री
ने सांड को नहीं छोड़ा. मैंने उसके ताल पर धीमे धीमे हिलते फिर थिरते पुनः हिलते
बड़े बड़े चरण देखे जो इतने गाढ़े आलते से रंगे थे कि एड़ियाँ यों लगती जानो लंका
के कमलों की गट्ठरों में छुपा नाग नाच रहा हो. पाँवों के अंगूठों में वह चाँदी के
बड़े बड़े फूल और अंगुलियों में मत्स्याकार बिछवें पहनी हुई थी इसके अलावा पीतल के
घुँघरू जो मँज मँज कर सोने से चमकते थे, चाँदी की पाजेब,
कड़ा और झाँझर अलग बँधे, लटके हुए थे.
(By Meenakshi Jha Banerjee)
|
जैसे इससे सुंदर हिजड़ा भी मैंने
पहिले नहीं देखा था जैसा सुन्दर हिजड़ा उस बलिष्ठ हिजड़े के पीछे नाच रहा था और जिसके
कारण बलिष्ठ हिजड़े ने सांड को सींग पकड़कर रोका हुआ था. उस सुंदर हिजड़े की
अदृष्टप्रायः कटि पर वृश्चिकाकुट्टितम करने से एक लड़ीवाली करधन काँची जैसे खुलने
खुलने को थी जबकि पच्चीस लड़ियों से बना गिलट का कलाप उछल उछलकर त्रिभुवन दीप्त कर
रहा था और उस दीप्ति के कारण संसार की ऊष्मा न बढ़े इसलिए उसने कुंद की एक लड़ी
कमर पर कस ली थी जिसके कारण देखनेवालों की पुतलियाँ शीतल हो रही थी.
भाऊ ने भीत स्वर में कहा, “इत्तीच रकम में संयम करो. जास्ती माने कितना दें!
सम्पूर्ण देणगी तुम्हें इच दी तो मठ के दफ़्तरवाले बाबा पे कोप करेंगे, मानो”.
सुन्दर हिजड़ा नृत्य के मध्य अचानक
अतिभंग मुद्रा में स्थिर हो गया जैसे किसी ने मन्त्र फेर दिया हो, बलिष्ठ हिजड़ा हँसा और एक हाथ लोलहस्त मुद्रा (गाय की
पूँछ की भाँति हाथ लटकाना) में छोड़, दूसरे से अभी भी सांड
को पकड़े कहने लगा, “तब तू हमारी गुरुमाँ दिल्बरुंनिसादेवी
से निबटना. ऐसू कजूष पंडा अभू तलक देखने में आया नको जिंदगी कटी मेरी हैदराबाद में.
बोलकू चेता रही मैं बुलबुल सतवंती बाई. हिजड़ों की रकम खाकर कुल का नास इच होंगा
कह दे रही मैं. चल हरिणी”.
बलिष्ठ हिजड़े बुलबुल सतवंती नायक ने
सांड का सींग परे करके छोड़ दिया और सांड निर्बल, भयभीत की भाँति पूँछ दबाए सब्ज़ीमंडी की तरफ़ भागा. सुन्दर हिजड़े हरिणी
ने अपनी काँची कसी, छींटदार साड़ी ठीक की और बुलबुल सतवंती
नायक के संग चल पड़ी. भीड़ विसर्जित हो गई और आई खोली के अंदर दौड़ी आई और धड़ाम
से गिर पड़ी. बाहर हिजड़ों का ढोली भाऊ से सौ रुपया माँग रहा था. बुआ घरभर में
भागादौड़ी मचाने लगी. बाबा के आई के मुख पर पानी डालने से आई को होशावस्था हुई और
वह बारम्बार बस यही कहने लगी, “जिनावरों के शाप से दुख इच
दुःख, दुख इच दुख. जिवलग से विभक्तपना होते विलम्ब नहीं.
रुपया एकदाच दे दे रे”.
सन्ध्याकाल को मुझे हिजड़ों की इमारत
पर जाकर देणगी के इक्कीस सौ रुपए दे आने का हुकुम हुआ. हिजड़ों की इमारत जाने में
मुझे बहुत जोर आ रहा था. कोई मुझे उनसे मिलतेजुलते देख ले तो इससे मेरे पण्डितपने
की छाप पर तो कालिख पुतती बल्कि मेरे पुरुषत्व पर भी आँच आती कि गणपत्या हिजड़ों
में उठाबैठी करता है पर आई भाऊ को भेजने पर सख्त ना बोली, “बाला नाजुक है जल्दी नजराता है. उसको मैं भेज सकती
नको. गणपत्या तू जा. जास्ती देर वहाँ बैठना नको. खानापीना नको. रोकड़ देकर सीधे
बाहेर”. मेरा हृदय बैठ गया. आई मुझको ऐसा हब्शी खबड़ा समझती थी कि मैं जनखों के
यहाँ भी भकोसने बैठूँगा! ऐसा सदमा हुआ कि जाने को ना कहने की सूझ भी नहीं पड़ी.
मैं हिजड़ों की इमारत की तरफ़ निकल
पड़ा. अतिलिंगस्वामी के मन्दिर के पीछे जो मुसलमानों की ज़ूनी बस्ती है वहीं
हिजड़ों की इमारत थी. मलेच्छों के प्रति मेरे हृदय में उपेक्षा थी और उनकी ओर
थोबड़ उठाकर उनके थूथनों का दर्शन मैं करूँ मुझे स्वीकार न था इसलिए मुँह झुकाए
मैं चला जा रहा था. गू की ढेरियों से पूरी गली भरी थी और लौडे-बच्चियाँ खुली
नालियों में पाखाना कर रहे थे. वहीं मैदे की सेंवई और पापड़ सूख रहे थे. हर दूसरे
घर में कसाईखाना था या बिरयानी सेंटर. बासों का वर्णन करते तो घण्टा कट जाए पर
पूरा न हो ऐसी ऐसी बासें थी.
बकरे के अंडकोष चाचियाँ अपने बच्चों
को देती थी उन्हें खाकर अपने फाटक पर हगने पर जो बास उठे वह तो जगह जगह पर थी. फिर
नालियों में हलाल जिनावर के रक्त की दुर्गन्ध घ्राणेंद्रिय को सुन्न कर देती थी पर
इससे पहले कि श्वास ले पाओ पाँव पाँव पर दीवाल की टेक जो मुतारियाँ थी उसकी तेज
बास से कपाल झन्ना जाता. फिर कोई लाल केशों के बीच श्याम टक्कलवाला बुड्ढा पास से
गुजरता तो दो टके के अत्तर से पलटी होने का संकट लगता. दूध पिलानेवाली औरत अपना
पोल्का दस रोज तलक न धोए तो जैसी बासती वैसे ही यहाँ सब महिलाएँ बास रही थी. तुम
समझोगे कि मेरे अंदर मुसलमान भाइयों के लिए द्वेषभाव है पर मैं सबकुछ सफ़ा चाहता
था और सब बहन-बंधु सुबकपन से रहे ऐसा चाहता था.
मेरा दाख़िला स्वच्छपणे के लिए था न कि मलेच्छों के तिरस्कार वास्ते.
नेत्रों में सूरमे के बारीक डोरे दिए
भीतिजनक मुसलमानों की पुरुषमण्डली मार्ग पर ही मटन खा रही थी. उनका अट्टहास सुनकर
मुझे लगा मेरी तरफ़ देखकर हँस रहे है इसलिए मैं एक अंदरूनी-अन्धारी गली में घुस
गया. यहाँ जगह जगह लौहखण्ड की कामगारी हो रही थी. अलमारी, टेबुल, लौहद्वार बन रहे थे.
पाँव पाँव पर मर्दमानुष वेल्डिंग की ज्वाला फूँक रहे थे और बीच बीच में मुँह ख़ाली
करने के वास्ते गुटखा थूकते जाते थे.
पाँय पाँय चलने की वजह से घामाघूम मैं
एक दर्ज़ी की दुकान से पिछवाड़ा टेककर साँस लेने लगा, वहाँ पेढ़ी पर एक मुसलमान महिला बुरखे में नाप दे रही
थी. दर्ज़ी कम से कम निन्नयानबें वर्ष का होगा और गर्विष्ठ, मांसल
स्तनों को इंचटेप से नापते उसके हाथ थरथर हो रहे थे. हृदय की तेज धड़धड़ के कारण
स्तन यों ऊपर-नीचे होते कि उस जूने दर्ज़ी के सींक और बस रक्तवाहिनियाँ रह गए हाथ
बार बार फिसल जाते और नाप पुनः लेना पड़ता. मेरी दृष्टि वहाँ एकाग्र जब हुई तब
विचार आया कि कैसा गलीज हृदय है रे तेरा गणपत्या, जोशी
कुटुम्ब की महिला होती तो तू ऐसे टकटकी लगाता! मुसलमान मादा देखकर मचल पड़ा भ्रष्ट
बामन.
“अम्माँ ने बखत पे दूध पिलाया नको, टुकटुक देकेच जा रा” बुरखे से वह चिल्लाई और दर्ज़ी नप्ती का गज उठाकर
मेरे पीछे दौड़ा. मैंने फटाफट अंगूठे में चप्पल फँसाई और नाली फाँदकर भागा. भागता
भागता कहाँ पहुँचा ज्ञान नहीं, तीव्र प्यास लग रही थी और
शुद्ध सफ़ा पानी मिलना अकल्प. बास के मारे भेजा घेरियाँ मार रहा था. तभी
बीड़े-मुखवास की दुकान पर खड़े हिजड़ों के ढोली पर आँख पड़ी. केस हरेगुलाबी रंगाकर
पाँव चौड़े किए चिरुट फूँक रहा था. साथ में लहरी सदरे-पजामे में एक लड़की खड़ी थी.
सपाट छाती और चपटी नाकवाली लड़की नखरे दिखा दिखाकर तंबोली से बात कर रही थी. बीड़ा
उठाने को पलटी तो देखा कि लड़की की तशरीफ बैठी है और कमर मोटी. ख़ाली एक टकटकी में
मैं समझ गया कि धर्मांतरवाली मुसलमान है. उसके पितरों का अंदाजा और अपनी पुतलियों
को मर्यादित करके मैं ढोली के पास पहुँचा.
इससे पहिले कि मैं एक शब्द भी बोलता, ढोली चौकसी करने लगा, “अतलिंगापल्ली
के तुम दिकते नको फीर इदर आए कायको?”
“हिजड़ों की इमारत किधर पूछे तो” मैंने थूक गटकते हुए
कहा. पुदीने की ठंडीगार सुगन्ध मेरे मुँह पर छोड़ते हुए अब लड़की चौकसी करने लगी,
“हिजड़ों के इमारत क्या लेने जा रे” और तंबोली, ढोली और लड़की जोर जोर से हँसने लगे. ऐसी आई होने से नाशेच्छा करनेवाला
शत्रु चांगला आखीर मुझे हिजड़ों की इमारत तो न भेजता. जी ऐसा अपटा कि लड़की का गला
उमेठ दूँ. संयम करके कनपटी पोंछने लगा.
“अइसू घाबरा हो रा कइकू. धीक धर. पीछू आ मेरे” हिजड़ों
का ढोली बोला और नाली के किनारे किनारे चलने को कहकर आगे बढ़ा, “ऐसू अवासवा कू नजर में लाता नको में. बमना आट में देककू तेरसू हमतुम हुआ”.
हिजड़ों के पिछाड़े ढोल पीटनेवाला मुझसे हम तुम हो ऐसा होने से पूर्व नाली का पानी
पीकर मैं जान देता.
“दड़ी मारकू चल रा कइकू. बातां करते तो रस्ता सरेंगा
फुरत” ढोली बोला. मैंने थोड़ी गोष्ठी की तो मूर्ख रोलने लगा था. गली पतली होती गई
अँधार जास्ती. तब एक गुलाबी दीवालोंवाली दाक्षिणात्य शैली में बनी ज़ूनी इमारत के
हरे फाटक की साँकल ढोली ने बजाई.
“मुज़े पीत का याँ कोई फल न मिला.
मेरे जी को यह आग लगा सी गई.
मुज़े ऐश यहाँ कोई पल न मिला
मेरे जी को यह आग लगा सी गई.“
अपनी मरदानी ध्वनि को मधुर करके कोई
हिजड़ा अन्दर गा रहा था. मध्य मध्य में प्रभाव वास्ते सिसकारी भरता जाता. दो दफ़ा
निश्वास छोड़ता जैसे यष्टि से जीव भागा जा रहा हो. ढोली ने फिर साँकल बजाई तो
हिजड़ा और जोर से गायकी करने लगा.
“मैं थी नन्हीं सी जान गरीब बड़ी
कभी भूलके न दुःख किसी को दिया
न तो रूठी कभी न किसी से लड़ीSSS”
लड़ी पर ऐसी तान लगाई कि लगा कोई फूटा
कनस्तर घसीट रहा हो. ढोली को बर्दाश्त न हुआ और उसने जोर जोर से साँकल पीटना शुरू
कर दिया.
“न तो रूठी कभी न किसी से लड़ीS.कुक्कासुल्ली,
कइकू हौला हो रा क्या भी हल्ला कर्रा” फाटक का आधा पाट उठाकर मैना
सतवंती नायक ने मुँह निकालकर चिल्लाई. डेढ़ दिन की दाढ़ी से मुँह हरा था पर कंकू
के तिलक से भाल शृंगारित हो रहा था. “में हजामत से पेले कलक्टर को भी कू बखत देती
नक्कू”. वह पाट अटकाने को हुई तो ढोली बोला, “माँ की किरकिरी,
इने दिल्बरुंनिसम्माँ से मिलना. तेरसे नको”.
“उनो मूड़ तत्ता हो रा. अभू कोनसे भी मिल री नी. दूर से
हो री वो” मैना सतवंती ने पाट उलटा और फिर गाने लगी,
“छबीली है सूरत हमारे सजन की.
कि या पूतली उस कहूँ अप-नयन की.
छबीलीsss”.
“हिजड़ा दूर से हो सकते कैसे!” ढोली पलटते हुए बोला.
“दूर से मतलब” मैंने पूछा.
ढोली हँस हँसकर लोटपोट होने लगा “हौला
हे क्या रे. पोट्टी पिराबलम”.
___________________________
ammberpandey@gmail.com
क़िस्सागोई इसे कहते हैं। हिन्दी कथा से क़िस्सागोई के विलोप जाने के काल में इस क़िस्से को पढ़ना सुखद है। सम्पूर्ण उपन्यास की प्रतीक्षा जगी है।
जवाब देंहटाएंबढ़िया. शुरू में गणपत्या के पांडित्य से टैगोर का गोरा याद आया. कथा गजब है, मनोरंजक भी. शुभकामनाएँ.
जवाब देंहटाएंक्या भाषा! क्या शब्द चित्र!साधुवाद
जवाब देंहटाएंअभी अभी पढ़ कर खत्म किया मैंने. मुझे मालूम नहीं था कि ये उपन्यास अंश है क्योंकि इसमें ऐसा कुछ लिखा नहीं गया था. पढ़ते हुए लगा कि इसे आगे और बढ़ना चाहिए था. किसी उपन्यास के हिस्से जैसा लगा. हिंदी में आम तौर पर बिहार यूपी और दिल्ली की कहानियां पढ़ते हुए बोरियत हो गई थी. इस कथा में नयापन है. भाषा के रूप में भी और शिल्प में भी. हालांकि शिल्प के बारे में बस ये कहना था कि शुरू किया तो अंबर की सावरकर पर लिखी कहानी याद आई लेकिन पांचेक पंक्तियों के बाद कलेवर बिल्कुल बदला हुआ था. पढ़ते हुए लगा कि दो सौ साल पहले वास करने वाले किसी पंडित ने कथा बांची है अपने बचपन की. बहुत सुंदर. अंबर बेहतरीन लिख रहे हैं.
जवाब देंहटाएंअम्बर नया उपन्यास लिख रहे हैं: गणपत्या की गजब गोष्ठी। उसका यह शुरुआती हिस्सा सुंदर बन पड़ा है। आप भी पढ़ें। Ammber की भाषा का अलग ही आनन्द है। आगे का इंतजार। उन्हें बधाई।
जवाब देंहटाएंArun ji का शुक्रिया जो सशक्त रचनाकारों की रचनाओं को प्रकाशित करते है और हम पाठकों को पढ़ने का अवसर मिलता है आभार ��
जवाब देंहटाएंमैंने पढ़ा अभी समालोचन पर। आपके गद्य को लेकर कोई संशय नहीं कि यह अद्भुत होता है। उपन्यास कब तक पढ़ने को मिलेगा। मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ। ��
जवाब देंहटाएंअम्बर ग़ज़ब क़िस्सागोई है !! इतना लंबा गद्य सांस रोके पढ़ने पर तुम ही मजबूर कर सकते हो..मैं जैसे साथ साथ चल रही थी, आंखों के सामने घटनाएँ घट रहीं थीं, मेरी भी कई बार घ्राणशक्ति लोप होते होते बची..
जवाब देंहटाएंइस कथा को पूरा करके ही छोड़ना वत्स, तुम्हारी माँमुनि तो हमें बिसरा के न जाने कहाँ अंतर्ध्यान हुईं..
गद्य का नायाब रूप। अम्बर पांडेय के सम्पूर्ण उपन्यास को पढ़ना और भी रुचिकर होगा। बहरहाल बधाई और शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंकिस्सागोई में नयी लेकिन सहज विस्मयपरक अंतर्वस्तु अंत तक बांधती है। राह बीच में रुका तो सुस्ताने के लिए नहीं बल्कि पीछे देखकर गुदगुदाने के लिए। कविताओं की ही तरह अनोखी कहानी, कहने के स्तर पर भी। --मदन पाल सिंह
जवाब देंहटाएंयात्रा से पहले की हड़बड़ी में चखने को शुरू कर बैठी तो फिर बैठ ही गयी। आखान्यात्मक युक्तियां तो विलक्षण हैं ही, भाषाओं के परस्पर गुंथाव का अनोखा रसपान भी साथ-साथ होता चला। क्या तो अद्भुत कल्पना है, और क्या अम्बरीय गल्प और गद्य है। कहानियों को भी मैंने बड़े मन से पढ़ा था, लेकिन यह तो कहीं आगे का लेखन है।
जवाब देंहटाएं"बल्ब के पीले पीले प्रकाश में फटली दुलाई के पुष्प नैसर्गिक दिखते और मुझपर सौन्दर्य का ऐसा आवेश होता कि उन पुष्पों से मुझे सुवास आने लगता."
यह रसास्वादन नशे की ओर बढ़ चला अब तो। उपन्यास हाथ लगेगा तो सुखसागर से कम तो कहाँ होगा।
प्रिंट में पढ़ने का मज़ा कुछ और ही है। किसी पत्रिका में कुछ अंश भी भेजो, अम्बर। और आभार तो अब कैसे कह भेजूँ! बस लिखते चले जाओ। उपन्यास तुम्हारी ठेठ विधा मालूम पड़ती है। क्योंकि कविता भी तुम्हारी इसी ओर लपकती जान पड़ती है। जैसे उपन्यास की नदी तक बहने को आतुर!
Very nice post.
जवाब देंहटाएंSugar & Coco
एक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.