राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित कथाकार चन्दन पाण्डेय का उपन्यास ‘वैधानिक गल्प’ इसी पुस्तक मेले में लोकार्पित हुआ है. इस उपन्यास पर यह पहली समीक्षा श्रीकान्त दुबे द्वारा आपके लिए.
धधकते वर्तमान
का आईना है उपन्यास ‘वैधानिक गल्प’
श्रीकान्त दुबे
चंदन पांडेय के नवलिखित और पहले ही उपन्यास ‘वैधानिक गल्प’
का वाचक नैतिक पशोपेश की अवस्था में एक जगह सोचता है कि, ‘‘उन सिपाहियों के सामने
मेरुदंड निकालकर मेरा रख देना मनुष्यता में गिना जाएगा या नहीं?’’ इस वाक्य में
‘उन सिपाहियों’ की जगह ‘तंत्र’ अथवा ‘व्यवस्था’ शब्द रख दिया जाय, तो जिस
पशोपेश को दर्शाने वाला वाक्य मिलेगा, वह एक वाक्य ही इस उपन्यास का निचोड़ और
हासिल है.

जबकि हमारे वर्तमान में दुनिया की दस फीसद से अधिक की आबादी
द्वारा बोली जाने वाली हिंदी भाषा के ज्यादातर लेखक/बुद्धिजीवी समय के विरुद्ध
लड़ाई में या तो खुद को अप्रासंगिक पा रहे हैं या फिर विद्रूपों के समक्ष घुटने
टेकते नज़र आ रहे हैं, चंदन ने ऐसे ही एक लेखक अर्जुन को अपने उपन्यास का वाचक चुना
है. उपन्यास की कथा जिस बिंदु से उठती है, स्पष्ट है कि वह समय हमारे आज के
जैसा ही कोई विक्षुब्ध समय है, लेखक अर्जुन जिससे सामंजस्य बिठाते हुए अपने
‘कंफर्ट जोन’ में जी रहा है. ऐसे में (कु)तंत्र की मार उसके अपने ही अतीत के किसी
बेहद करीबी शख्स अनसूया पर पड़ती है जिसका पति रफीक लापता हो गया है. ऐसे में
अनसूया के पास मदद के लिए दुनिया में सिर्फ और सिर्फ अर्जुन का ही विकल्प शेष है.
लेखक अर्जुन नहीं, व्यक्ति अर्जुन. अपने जीवन के अनसूया वाले अध्याय के चलते
अपने पारिवारिक जीवन के प्रभावित होने की आशंका, और फिर अनसूया तक पहुंचने और उसके
बाद हालात को ठीक करने की कोशिशों के क्रम में पेश आने वाली दुश्वारियों की सोच
वह उसकी पुकार को टाल जाना चाहता है. लेकिन तभी लेखक अर्जुन की पत्नी अर्चना खुद
आगे आकर अगली ही उड़ान से अनसूया के पास पहुंचने के बंदोबस्त करती है तथा अनसूया
के लापता पति को तलाशने के लिए अपने तईं हर संभव कोशिश अलग से करती है.
लेखक अर्जुन द्वारा मामले को टाल जाना जहां हमारे समाज के
प्रबुद्ध वर्ग के दोहरे चरित्र को दिखाता है, वहीं अर्चना का मामले में आगे आना
अपने आसपास से लेकर दूर-दराज तक घटित हो रहे ‘ग़लत’ के प्रति आम जन-मानस की
जागरूकता का परिचय देता है और यह दोनों ही हमारे समय का यथार्थ हैं.
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(चन्दन पाण्डेय) |
कहना न होगा कि कथा के समानांतर यहां तक पहुंचते हुए देश
में बीते चंद वर्षों में हुई अनेक घटनाएं याद आती रहती हैं और उनके पीछे का सच
कैसा रहा होगा तथा किस तरह से तंत्र ने उसे छुपाने या फिर निगल जाने के हर संभव
जतन किए होंगे, के भेद खुलते जाते हैं. वे घटनाएं, मसलन, जेएनयू के छात्र नज़ीब का गायब हो जाना, तथा देशव्यापी मांग और आंदोलनों के
बावजूद उसका पता न चल पाना. विभिन्न छात्र आंदोलनों से जुड़े विडियो फुटेज़ को
संपादित कर उन्हें बहुसंख्यक तबके में उन्माद भड़काने लायक बना प्रसारित करना
तथा बाद में उस विडियो के गलत साबित होने की बात सामने आने पर व्यवस्था द्वारा पूरी
ताकत लगा इस उद्घाटन को ही ग़लत साबित करना, फिर अचानक ही चुप हो जाना तथा समय समय
पर सुविधानुसार उस झूठ को सत्य के रूप में उद्धृत कर अपने राजनैतिक हित साधना.
यहां, यानी सत्य, तक पहुंच जाने के बाद, जबकि लेखक अर्जुन
को राहत की सांस लेनी थी, वह अपने सामने और अधिक अंधेरा पाता है. मानो वह झूठ के
ऐसे ब्लैक होल के पास खड़ा हो, जिसके सामने आने वाले हरेक सच को वह अपने भीतर
खींचकर गायब कर देगा और सत्य के रूप में देखने को केवल वह झूठा चेहरा ही शेष
रहेगा. क्या हमारे वर्तमान का यथार्थ यही नहीं है?
उपन्यास लिखना कोई दो-चार रोज का काम नहीं होता है और यह
प्राय: महीनों से लेकर वर्षों की तैयारी की मांग करता है. तिस पर भी यदि लेखक का
नाम चंदन पांडेय हो, तो उनकी धैर्यपूर्ण तैयारी में लगने वाले समय की गणना और
मुश्किल हो जाती है (उनकी लिखी कहानियों के बीच के समय के अंतराल तथा उनकी भाषा से
लेकर शिल्प तक में बरते गए धैर्य के मद्देनजर). लेकिन कई बार रचना का विषय इतना
सघन होता है कि उसके प्रभाव में लेखक चंद महीनों में ही कई दसक का जीवन जी लेता है
(पेरू के उपन्यासकार मारियो बार्गास य्योसा की कथेतर पुस्तक ‘युवा उपन्यासकार
के नाम पत्र’ इस बात को अनेक उदाहरणों से समझाती है). ऐसे में चंदन के उपन्यास
में ठीक वैसी ही घटनाओं की बहुलता चौंकाती है जो उपन्यास के छपकर पाठक के हाथ में
आने के दिन और समय पर आस-पास में घटित हो रही है. यह न सिर्फ उपन्यासकार को एक
चेतस प्रेक्षक बल्कि ऐसे लेखक के रूप में भी स्थापित करता है जो अपने दायित्व के
प्रति जितना ईमानदार है उतना ही चौकन्ना भी है. अपने वर्तमान के व्यवस्थाजनित
खतरों का उद्घाटन चंदन ने जिस सटीकता और तीक्ष्णता के साथ किया है, उसे ध्यान
में रखते हुए पुस्तक के विमोचन के समय ‘आने वाले समय’ के संदर्भ में एक प्रश्न
का चंदन द्वारा दिया गया उत्तर डराने वाला होता है, जब वह कहते हैं कि आने वाले
समय में यह खतरे और बढ़ेंगे.
उपन्यास इतना सशक्त है कि यदि सीमित शब्दों में उस पर
बात करनी हो, तो वह समूची शब्द सीमा उसके कथ्य के बारे में जरूरी बातें करने में
ही चुक जाएगी, जैसा इस मामले में मेरे साथ भी हो रहा है, जबकि उपन्यास की भाषा और
शिल्प जैसे पहलुओं की बात भी कथ्य के जैसी ही चुस्त और अभिनव है.
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(श्रीकान्त दुबे) |
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shrikant.gkp@gmail.com
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Mujhe laga shayad main upanyas hi padh reha hoon... media Ke dohre charitra ne andar se dara diya. Badhai Aapke shabdo ko jisne bahoot hi achha tilism bandha
जवाब देंहटाएंउपन्यास पढ़ने की उत्कंठा पैदा कर दी इस समीक्षा ने।
जवाब देंहटाएंवैसे, शुरुआत में समीक्षक ने उपन्यास का जो वाक्य उद्धृत किया है वह अटपटा है।
जी बहुत ही रोचक और शानदार समीक्षा,
जवाब देंहटाएंइस समीक्षा को पढ़ते हुए सारे राजनैतिक पहलू समझ में आ गए, जो मै उपन्यास को पढ़ते हुए नही समझ पा रहा था।
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