पुरुष युद्ध पैदा करते हैं , यातना दी जाती है औरतों को. युद्धों और दंगों में रक्तरंजित स्त्रियों की विचलित करने वाले कहानियों से इतिहास भरा पड़ा है. घृणा, विस्तारवाद और प्रभुत्व की मजहबी और अंधराष्ट्रवादी लिप्सा की यही परिणति है.
संयुक्त युगोस्लाविया के टूटने के बाद क्रोएशियन
और बोस्निया नागरिकों के खिलाफ सर्बिया ने युद्ध छेड़ दिया था. यह युद्ध स्त्रियों
की देह पर लड़ा गया.
गरिमा श्रीवास्तव क्रोएशिया के अपने
प्रवास में शरणार्थी कैम्पों में गयीं , पीड़ित स्त्रियों से मिलीं. यह प्रवास डायरी
‘देह ही देश’ राजपाल एंड संस से प्रकाशित हो रही है. उस डायरी का एक हिस्सा.
देह पर युद्ध
गरिमा श्रीवास्तव
तुमि गुछिए किछू कथा बोलते पारो ना
नींद
नहीं आ रही. क्या हुआ होगा लिलियाना जैसी सैकड़ों लड़कियों का? क्या गुजरी होगी उन पर. मैं घुप्प अँधेरे में हूँ ...कोई
चेहरा नहीं, सिर्फ कराहें
...विक्टर फ्रैंकल ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद 'मैन्स सर्च फ़ॅारमीनिंग' शीर्षक
पुस्तक लिखी थी, जिसमें
आश्वित्ज़ के यातना शिविर की दैनंदिनी है.
फ्रैंकल
का कहना है कि जिस रूप में बंदी अपने भविष्य के बारे में सोचता था उसकी उम्र उसी
पर निर्भर करती थी. उसने 'लोगो
थेरेपी' का सिद्धांत दिया और बताया कि जिनके पास जीने का कोई कारण
होता है, वे कैसे
भी जी लेते हैं. इन यौन दासियों के पास जीने का क्या कारण होगा. पति, बच्चों, माँ, सास के सामने निर्वस्त्र और बलात्कृत की जाती, महीने दर महीने साल-भर उनके अपमान और यातना की कोई सीमा
नहीं. उनके पास जीने का क्या कारण बच रहा होगा? अर्ध -निद्रा में मुझे आश्वित्ज़ का यातना शिविर दीख
रहा है. बेचैनी, पसीना
और घबराहट ...गोद में बच्चा लिए लिलियाना दौड़ रही है. काँटे दार बाड़के पास सैनिक
ही सैनिक, गोरे लाल मुँह वाले लंबे चौड़े सैनिक. लिलियाना को नोच रहे हैं. घसीट रहे
हैं. उसके मुँह पर थूक रहे हैं. पैरों को फैला रहे हैं. बछड़ा पैदा करती गाय- सी
डकरा रही है. वह उसके ऊपर एक-एक करके लद गए हैं. लिली ...लिली ...लिलियाना.. अपनी
चीख से नींद टूट गई है ...उठकर देखा है फोन पर कुछ संदेश आए हैं. ...पानी पिया है
कभी की पढ़ी पंक्ति याद आती है -
तुमि गुछिए किछू कथा बोलते पारो ना
शुधू समय निजेर गल्पो बोले जाए
(तुम खूब
संवार कर कोई बात कह नहीं पाते,सिर्फ समय ही अपनी कहानी कहता जाता है)
ठीक ही तो, कहाँ लिख पा रही हूँ खूब व्यवस्था से. लिलियाना जैसी
अनेकानेक ने मेरा चैन छीन लिया है. दिन-रात उन्हीं के बारे में सोचती हूँ और ...और
जानना चाहती हूँ. जिनकी कथा समय ही लिखेगा लेकिन कब ?
पिछला
सप्ताह मैंने अजीब से अकेलेपन में गुज़ारा है, परीक्षाएं चल रही थीं सो कक्षाएं
नहीं थीं. अनुवाद और डायरी लिखना यही दो काम थे. पर मनुष्य का विकल्प तो कुछ भी
नहीं. दो लोग अगर एक दूसरे को समझने वाले मिल जाएँ तो फिर वे ही मिलकर पूरी दुनिया
हो जाते हैं. तुर्की के इज़मीर की गुल्दाने कालीन यहाँ तुर्की और
अंग्रेजी पढ़ा रही हैं, बहुत ही शालीन और
समझदार. हम विश्विद्यालय में अक्सर मिलते-जुलते हैं, गुल मेरी बातें समझती है. शनिवार
को लिलियाना और ईगोर ने मुझे पार्टी में चलने को कहा है. मैं थोड़े
पशोपेश में हूँ. शाकाहारी और मदिरा से परहेज करने वाला भारतीय संस्कार चोले में
मुँह दबाए हँस रहा है. पिता को मालूम चला या मेरे भाई -बहनों को, तो वे अविश्वस्त
नेत्रों से ताकेंगे भर मुझे. लिली बताती है कि वहाँ कुछ औरतें मिलेंगी मुझे, जो हो सकता है अपने बारे में कुछ बोलें. खैर हम शलाटाजाते
हैं जहाँ से 'पॅाट
पार्टी' में जाना है.
इसके बारे में मुझे कोई विशेष जानकारी नहीं.
लेकिन पहुँचते ही लगा नशीले धुएँ से भरा माहौल दम घोंटदेगा. कई लोग जिनमें लड़कियों
की संख्या बहुत थी - हशीश, चरस, गांजा, आदि का सेवन
कर रहे हैं. बिना पिए ही सिर चकराने लगा. लोग चुप लेटे हैं, कोई छतताक रहा है कोई दम लगा रही है. हल्का संगीत बज रहा है.
ध्यान से सुना श्रीश्री रविशंकर की सभाओं में बजने वाला हरे कृष्णा ...राधे राधे
यहाँ की हवाओं में झंकृत है. मैं बाहर जाना चाहती हूँ. इस दमघोंटू माहौल में आकर गलती
की ...उफ नहीं आना चाहिए था. दीवार से सटकर एक जोड़ा खड़ा है. लड़के ने आगे बढ़कर
मुझसे कुछ कहा है और हौले से मेरे बाल छुए हैं 'जेलिम दोटाक्नुटीस्वोजे क्रेन ड्लाके' (मैं
तुम्हारे काले बाल छूना चाहता हूँ) सुनते ही मैं दौड़कर बाहर आ गई, जैसे नरक कुंड
से बचकर लौटी हूँ.
लिलियाना
और ईगोर का कुछ पता नहीं. मैंने तीन ट्रामें बदली हैं और सुरक्षित लौट आने के
सुकून ने मुझे गहरी नींद दे दी. अगले रविवार लिलियाना हँसकर कहती है 'नेमोज्ते सेप्रेपाला' यानी
डरो मत. यहाँ जबरदस्ती कोई कुछ नहीं करेगा, तुम्हारे बाल काले हैं, जो यहाँ वालों के लिए कुतूहल है.
तुर्केबाना
येलाचीचा जाते हुए ट्राम लोहे की ईटों की सड़क के बीचों बीच बने हुए ट्रैक पर मुड़ती
है. गोल इमारत के ऊँचे-ऊँचे काँचदार दरवाजे जिनके भीतर भांति-भांति की दुकानें हैं.
ऊनी, सूती वस्त्र, जो अधिकतर भारत और चीन के टैग
से सुसज्जित हैं. जूते वियतनाम और थाईलैंड के बिक रहे हैं. दुकानदार की शक्ल
दुमकटे लोमड़ जैसी है. सपाट चेहरे पर लाल नाक और गहरी कंजी आँखें, व्यवहार में विनम्र दीखता है लेकिन लाल भूरे बालों के भीतर
रखे सिर में कुछ ऐसा खदबदा रहा है, जिसे
मैं 'रंगभेद' समझती हूँ. साँवली रंगत का मनुष्य उसके बहुत सम्मान का
पात्र नहीं. ऐसी गंध मेरी छठी इंद्रिय को मिल रही है. दुकान के बाहर कोने पर एक
छह-सात वर्षीय गोरे, चित्तीदार
चेहरे वाला लड़का शीशे से अपनी नाक सटाए है. बड़ा- सा लबादा पहना हुआ है उसने, पैरों
में नाप से बड़े फटे-से जूते.
दुकानदार को बाहर आता देख वह खरगोश की तरह फुदक कर
गायब हो जाताहै. इसके बाद ही जाग्रेब की मशहूर केक की दुकान है. जहाँ क्रोएशियन
औरजर्मन केक की ढाई-सौ से अधिक किस्में अपने पूरे शबाब के साथ शीशे कीपारदर्शी
अल्मारियों में भारी जेब के दिलदार खवैयों का इंतजार कर रही हैं. गुलदाने कालीन ने
इस दुकान की पेस्ट्री कीतारीफ कई बार की है. आज सोचा खा ही लूँ. इन केक्स की खूबी
इनकी क्रीम है जोमनुष्य के मेदे और वजन को चुनौती देती है. मनचाहा सजीला- सँवरा, क्रीम में लिपटा, बारीक
डिजाइनदार केक का रसीला बड़ा-सा टुकड़ा प्लेट में सामने है. कीमत है पचास कूना यानी
लगभग पाँच सौ रुपये. अपने यहाँ भी 'बरिस्ता' में लगभग यही दाम है.
केक का पहला टुकड़ा काटती हूँ कि दुकान
का मैनेजर नुमा आदमीबाहर खड़े बच्चे को दुरदुराता हुआ चिल्लाता है. हाथ में आलू
चिप्स का फटा पैकेट लिए बच्चा दुकान के बीचों बीच आ गया है. कर्मचारी लड़का उसका
लबादा खींच कर घसीट रहा है, दुकान
में सुरक्षा सायरन बजने लगा. बच्चा कुछ बोल नहीं पा रहा है, मेरे पहुँचते-पहुँचते बच्चा फुटबाल की तरह सड़क पर फेंका जा चुका
है. पूछने पर वह दुकान के कूड़ेदान की ओर इशारा करता है. 'जा समग्लादना' (मैं
भूखा हूँ) कहकर जार जार रो रहा है. अनुमान करती हूँ कि किसी के अधखाए चिप्स उठाकर
बच्चा पेट भर रहा होगा और दुकान मालिक ने देख लिया होगा.
मुझे अब
केक नहीं खाना. शायद कभी नहीं. खून से बच्चे की नाक रंग गई है. केक खरीदती हूँ
उसके लिए वह सुबकता हुआ जा रहा है. शायद शरणार्थी है. हाथ की मुट्ठी में दबे केक
की सफेद क्रीम लाल हो रही है. उफ मेरे मौला ऐसे नजाने कितने बच्चे दर-ब-दर हो भटक
रहे हैं - सम्मानहीन, भोजनहीन, आश्रयहीन, स्वयंसेवी
संस्थाएँ हैं, सरकारें
हैं, लेकिन हम अपना सुख भोग
छोड़कर इनकी तरफ देखते हैं क्या? मन नम
है और बाहर बरसात शुरू हो गई है
पास रहो डर लग रहा है
लग रहा है कि शायद सच नहीं है यह पल
मुझे छुए रहो
जिस तरह श्मशान में देह को छुए रहते हैं
नितांत अपने लोग,
यह लो हाथ
इस हाथ को छुए रहो जब तक पास में हो
अनछुआ मत रखो इसे,
डर लगता है
लगता है कि शायद सच नहीं है यह पल
जैसे झूठ था पिछला लंबा समय जैसे झूठा होगा अगला अनंत
(नवनीता देवसेन)
लग रहा है कि शायद सच नहीं है यह पल
मुझे छुए रहो
जिस तरह श्मशान में देह को छुए रहते हैं
नितांत अपने लोग,
यह लो हाथ
इस हाथ को छुए रहो जब तक पास में हो
अनछुआ मत रखो इसे,
डर लगता है
लगता है कि शायद सच नहीं है यह पल
जैसे झूठ था पिछला लंबा समय जैसे झूठा होगा अगला अनंत
(नवनीता देवसेन)
बहन से
अक्सर बात होती है, उसे लगता है मुझे गहन
अवसाद में जाने से पहले भारत लौट जाना चाहिए. उसे मेरी बहुत चिंता रहती है. परिवार
बसाने के अनुभव ने उसे अचानक परिपक्व बना दिया है, उससे जब भी मैं युद्ध के
अनुभवों और स्त्रियों की समस्याओं पर बात करती हूँ, उसका कलाकार मन अस्थिर हो जाता
है.उसने पत्र में लिखा है कि मुझे वापस जल्दी लौट जाना चाहिए.
आज उसे
ही उत्तर लिखा है मैंने .
प्रिय
उक्की,
मैं अब पहले से बेहतर हूँ और इन दिनों
युद्ध पीड़ित स्त्रियों के बारे में और और जानने की कोशिश कर रही हूँ. तुम मेरी
फिक्र न करना क्योंकि दुष्का, लिलियाना, गुल्दाने और क्रेशो मेरा हाल चाल लेते
रहते हैं. बावजूद इसके कि मेरा वजन लगभग 5 किलो कम हो गया है, मुझे अपनी तबियत ठीक
लगती है. वहां से लाया हुआ बहुत -सा सामान
वैसे ही रखा हुआ है. एक कमरे में मैंने हीटिंग नॉब बंद कर रखी है, ताकि खाने का
सामान ख़राब न हो यहाँ ऐसी कई दुकाने हैं जहाँ चीज़ के बने व्यंजनों की भरमार है, पर
सच कहूँ खरीद कर खाने का मन होता है तो तेरी याद आ जाती है ,जैसे हम बचपन में हों
और एक टाफी को आधा -आधा बांटकर खा रहे हों. तू यहाँ होती तो हम कितना मज़ा करते, खूब
खाते, खूब घूमते-लड़ते और खरीदारी करते. मैं तो खरीदारी के मामले में बहुत बुद्धू
हूँ, क्योंकि सालों से तो तू ही मेरे लिए सब खरीदती रही है. जब भी कोई सुन्दर
सामान देखती हूँ, तू झट आँखों के सामने आ खड़ी होती है. मेरे देश लौटने का तेरे अलावा इंतजार ही किसे होगा, सब लोग
अपने जीवन में व्यस्त होंगे.
दिल्ली में पापा से स्काईप पर बात हुई थी, दरअसल मेरा
ही मन नहीं मानता,पापा कभी भी बेटियों को
नहीं समझते, उनका मानना है कि मुझे ये असाईन्मेंट लेना ही नहीं चाहिए था. वैसे
अपने देश में, खासकर पुरानी पीढ़ी में बेटी की ज़रूरत ही किसे है, बेटियां तो
एक्सिडेनटल हुआ करती हैं. उनकी बातचीत में आत्मीयता की सख्त कमी झलकती है.लेकिन अब
जो दुनिया देख रही हूँ, जिस तरह के लोगों से मिल -जुल रही हूँ, उनके सामने हमारा
अतीत, छोटे -छोटे दुःख ,उपेक्षाएं सब और भी ज्यादा छोटे होते जा रहे हैं. यहाँ न
आती तो इतना सब सुन -जान पाती क्या ?
इस हफ़्ते मैं जाग्रेब के पुनर्वास केंद्र में गयी थी, जहाँ औरतें जीवन यापन के लिए छोटे-मोटे काम सीखतीं हैं,
जिनमें सामान की पैकेजिंग, मुरब्बे, जैम, अचार, मसाले इत्यादि बनाना शामिल है. बोस्निया-हर्जेगोविना, क्रोएशिया के खिलाफ युद्ध में सर्बिया
ने नागरिक और सैन्य कैदियों के कुल ४८० कैंप बनाए थे. क्रोएशियन और बोस्निया नागरिकों
को डराने के लिए उनकी स्त्रियों पर बलात्कार किए गए. आक्रमणकारी छोटे-छोटे समूहों
में गाँवों पर हमला करते जिनका पहला निशाना होतीं लड़कियाँ और औरतें. सामूहिक
बलात्कार का सार्वजनिक प्रदर्शन किया जाता ताकि दूसरे गाँवों को अपने हश्र का
अंदाजा हो जाए. १९९१-१९९५ के दौरान सर्ब सैनिकों ने सैन्य कैंपों, होटलों, वेश्यालयों में बड़े पैमाने पर यौन हिंसा
के सार्वजनिक प्रदर्शन किए. बोस्निया और हर्जेगोविना पर जब तक सर्बिया का कब्जा
रहा. किसी उम्र की स्त्री ऐसी नहीं बची जिसका यौन-शोषण या बलात्कार न किया गया हो.
लिली और दुष्का को पर्यटन विभाग में नौकरी मिली और वह जाग्रेब चली आईं. सर्ब होते
हुए भी वे दोनों क्रोएशियन नागरिक थीं और उससे भी पहले थी लड़कियाँ - ताजा, जिंदा, टटका स्त्री मांस. लिली उन अभागी
लड़कियों में से एक थी, जिन्हें
नोचा-खसोटा और पीटकर कैद में रखा गया. कई लड़कियों को अश्लीलता के सार्वजिनक
प्रदर्शन के लिए बाध्य किया जाता रहा, यौनांगों को सिगरेट से दागा गया और एक दिन में कई बार
बलात्कार किया जाता रहा. इस पुनर्वास केंद्र ने ऐसी स्त्रियों को स्वावलंबी बनने
में मदद की थी और यह सिलसिला अब भी जारी है. युद्ध शुरू होते ही परिवार के परिवार
गाँवों को छोड़कर भाग जाते, पीछे छूट जाते खेत, ढोर डंगर और पकड़ ली गई औरतें. जिनकी उम्र
दस से लेकर साठ-सत्तर वर्ष की हुआ करतीं. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस तरह के
अत्याचारों को युद्ध अपराध की संज्ञा दी गई, युद्ध थमने के बाद भी यौन-हिंसा की
शिकार इन औरतों के लिए कोई ठोस सरकारी नीति नहीं बनी.
विश्वके कई देशों, मसलन सोवियत यूनियन ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जर्मनी पर आधिपत्य जमाने के लिए 'बलात्कार' का हथियार के रूप में इस्तेमाल किया. इसी तरह बांग्लादेशी स्त्रियों का पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा बड़े पैमाने पर घर्षण किया गया, युगांडा के सिविल वार और ईरान में स्त्रियों से जबरदस्ती यौन संबंध बनाकर अपमानित करने की घटनाओं से हम सब वाकिफ हैं. चीन के नानकिंग में जापानी सेना द्वारा स्त्रियों का सामूहिक यौन-उत्पीड़न, दमन और श्रीलंकाई स्त्रियों के यौन-शोषण के हजारों मामले 'नव साम्राज्यवाद' को फैलाने के लिए जोरदार और कारगर हथियार बने. कई स्त्रीवादियों ने वृत्त चित्रों, फिल्मों द्वारा इस तरह की घटनाओं के खिलाफ जनमत संग्रह के कारगर प्रयास भी किए, लेकिन बोस्निया और हर्जेगोविना की औरतों की बात अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गंभीर चर्चा का विषय कभी बनी ही नहीं. क्रोएशिया से सटे बोस्निया जाने का मैं सोच रही हूँ.
विश्वके कई देशों, मसलन सोवियत यूनियन ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जर्मनी पर आधिपत्य जमाने के लिए 'बलात्कार' का हथियार के रूप में इस्तेमाल किया. इसी तरह बांग्लादेशी स्त्रियों का पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा बड़े पैमाने पर घर्षण किया गया, युगांडा के सिविल वार और ईरान में स्त्रियों से जबरदस्ती यौन संबंध बनाकर अपमानित करने की घटनाओं से हम सब वाकिफ हैं. चीन के नानकिंग में जापानी सेना द्वारा स्त्रियों का सामूहिक यौन-उत्पीड़न, दमन और श्रीलंकाई स्त्रियों के यौन-शोषण के हजारों मामले 'नव साम्राज्यवाद' को फैलाने के लिए जोरदार और कारगर हथियार बने. कई स्त्रीवादियों ने वृत्त चित्रों, फिल्मों द्वारा इस तरह की घटनाओं के खिलाफ जनमत संग्रह के कारगर प्रयास भी किए, लेकिन बोस्निया और हर्जेगोविना की औरतों की बात अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गंभीर चर्चा का विषय कभी बनी ही नहीं. क्रोएशिया से सटे बोस्निया जाने का मैं सोच रही हूँ.
हो सकता है कुछ दिन मुझे इन्टरनेट की
सुविधा न मिले, इसलिए संपर्क न हो पाने की स्थिति में चिंता न करना.अपना ख्याल
रखना. ई मेल करती रहना,किसी कैफ़े में तो ई मेल देख ही लूंगी.
स्नेह
दूतावास
से बोस्निया जाने की अनुमति आसानी से ही
मिल गई लेकिन वहाँ के अधिकारी बड़े दबे स्वर में उपहास करते हैं - 'लोग तो पेरिस और इटली, जर्मनी घूमते हैं, मजे करते हैं और आप 'वार विक्टिम्स’ के पीछे पड़ी हैं.' बोस्निया
में लूट, भ्रष्टाचार, झूठ, राहजनी
सभी कुछ है लेकिन हरियाले खेतों के बीच से जाती सड़क का रास्ता बुरा नहीं. लिलियाना
और बोजैक मेरे साथ हैं.बोजैक बोस्नियाई विद्यार्थी है, जोजाग्रेब में पढ़ता है साथ ही कुछ रोजगार भी. उसकी उम्र
पचास के ऊपर ही है. उसके सामने ही उसकी आठ वर्षीया बेटी और पत्नी को बार-बार घर्षित
किया गया.बच्ची तीन दिन तक रक्त में डूबी रही, सैनिक उससे खेलते रहे. इस बीच कब उसने अंतिम साँस ली, पता नहीं. बोजैक वह जगह दिखाता है जहाँ उसकी पत्नी दिल की बीमारी
और अवसाद से मर गई. 'लाइफ
मस्ट गो ऑन' कहकर बोजैक फटी आँखों से हँसता है और अगला युद्ध कैंप दिखाने
चल पड़ता है. बच्ची को खोकर, बाद के वर्षों
में उसकी पत्नी प्रभु ईसू से अपने अन किए पापों के लिए दिन भर क्षमा माँगा करती.
उसका पाप क्या था? इसके
उत्तर में बोजैक कहता है - 'औरत होना...'.
शांति
स्थापित होने के बाद भी जिन्होंने युद्ध को अपनी देहों पर रेंगता, चलता, बहता
महसूस किया, एक बार
नहीं अनेक बार जिनकी कोखों ने क्रूर सैनिकों के घृणित वीर्य को जबरन वहन किया, वे हमेशा के लिए हृदय और मानसिकरोगों का शिकार हो गईं.
रवांडा में तो अकेले १९९४ में
लगभग ५००० बच्चे युद्ध
हिंसा के परिणामस्वरूप जन्मे थे. क्रोएशिया में ऐसे बच्चों की सही संख्या का पता
कोई एन.जी.ओ. नहीं लगा सका, क्योंकि
अधिसंख्य मामलों मे लोग चुप लगा गए, पड़ोसी
नातेदार सब जानकर भी घाव कुरेदने से बचते रहे. युद्ध सब के दिलो-दिमाग में पसर गया.
बलात्कार की शिकार या गवाह रही अधिकां शस्त्रियाँ मृत्युबोध से ग्रस्त हैं. वे
सामाजिक संबंध भी स्थापित नहीं करना चाहतीं. कई तो बस सालों तक टुकुर-टुकुर ताकती
रहीं. कुछ बोल नहीं पातीं.कुछ ने अपना घर बार छोड़ दिया और फिर कभी यौन संबंध
स्थापित नहीं कर पाईं. एक मोटे अनुमान के अनुसार बोस्निया में युद्ध के दौरान लगभग
पचास हजार लड़कियाँ औरतें बलात्कार का शिकार हुईं और उधर 'इंटरनेशनल क्रिमिनलट्रिब्यूनल फ़ॅार द फार्मर
युगोस्लाविया' यौन
दासता और बलात्कार को मानवताके प्रति अपराध के रूप में दर्ज कर कागज काले करता रहा.
संयुक्त
युगोस्लाविया का विखंडन बोस्निया और हर्जेगोविना, क्रोएशिया, मैसीडोनिया
गणतंत्र, स्लोवेनिया
जैसे पाँच स्वायत्त देशों में हुआ था, जो बाद
में चलकर सर्बिया, मांटेग्रो
और कोसोवो में बँटा क्रोएशियाई लोगों के बीच जो युद्ध और झड़पें हुईं, उनमें से
अधिकतर भूमि अधिग्रहण को लेकर थीं. आज भी सात हजार से अधिक क्रोएशियन शरणार्थी
बोस्निया और हर्जेगोविना में हैं और इस देश में लगभग १३१,६०० लोग विस्थापित हैं. क्रोएशिया और बोस्निया की ९३५ कि.मी. की सीमा साझा है.
हमें यहाँ पर धोखाधड़ी से बार-बार क्रोएशियन दूतावास द्वारा, जो सरायेवो में है - आगाह किया गया है. रास्ते में कई बार पासपोर्ट और वीजा 'चेक' किया गया. मुझे यहाँ के खस्ताहाल संचार साधनों और सड़कों को देखकर भारत के कई छोटे शहरों की याद आती है. पूरे इलाके में बारूदी सुरंगों का खतरा है, इसलिए पुलिस ट्रैफिक को रोककर घंटों पूछताछ करती है. पुराने लोग अंग्रेजी नहीं समझते जबकि नई पीढ़ी अंग्रेजी बोलती और समझती है. युद्ध के दौरान कई बोस्नियाई जर्मनी भाग गए थे, इसलिए इनकी भाषा में जर्मन शब्दों का आधिक्य है. हमें उना नदी में रिवर राफ्टिंग का आमंत्रण है लेकिन मेरा ध्यान कहीं और है.
हमें यहाँ पर धोखाधड़ी से बार-बार क्रोएशियन दूतावास द्वारा, जो सरायेवो में है - आगाह किया गया है. रास्ते में कई बार पासपोर्ट और वीजा 'चेक' किया गया. मुझे यहाँ के खस्ताहाल संचार साधनों और सड़कों को देखकर भारत के कई छोटे शहरों की याद आती है. पूरे इलाके में बारूदी सुरंगों का खतरा है, इसलिए पुलिस ट्रैफिक को रोककर घंटों पूछताछ करती है. पुराने लोग अंग्रेजी नहीं समझते जबकि नई पीढ़ी अंग्रेजी बोलती और समझती है. युद्ध के दौरान कई बोस्नियाई जर्मनी भाग गए थे, इसलिए इनकी भाषा में जर्मन शब्दों का आधिक्य है. हमें उना नदी में रिवर राफ्टिंग का आमंत्रण है लेकिन मेरा ध्यान कहीं और है.
कल लिली
ने १९९३ के लास एंजिल्स टाइम्स में
प्रकाशित मिरसंडा की आपबीती मेल की थी. होटल लौट कर मैंने वही टुकड़ा उठाया है –
"रोज रात को सफेद चीलें हमें उठाने
आतीं और सुबह वापस छोड़ जातीं. कभी-कभी वे बीस की तादाद में आते. वे हमारे साथ सब
कुछ करते, जिसे कहा
या बताया नहीं जा सकता. मैं उसे याद भी नहीं करना चाहती. हमें उनके लिए खाना पकाना
और परोसना पड़ता नंगे होकर. हमारे सामने ही उन्होंने कई लड़कियों का बलात्कार कर
हत्या कर दी, जिन्होंने
प्रतिरोध किया, उनके
स्तन काट कर धर दिए गए.
ये औरतें अलग-अलग शहरों और गाँवों से
पकड़ कर लाई गई थीं. हमारी संख्यालगभग १००० थी. मैंने लगभग चार महीने कैंप में बिताए. एक
रात हमारे सर्बियाई पड़ोसी के भाई ने हममें से १२ को भगाने में मदद की. उनमें से दो को सैनिकों ने
पकड़ लिया. हमने कई दिन जंगल में छुप कर बिताए अगर पड़ोसी हमें न बचाता तो मैं बच
नहीं पाती, शायद
अपने को मार लेती, क्योंकि
मैं जिस यातना से गुजरी, उतनी यातना तो मृत्यु में भी नहीं होती.
कभी-कभी मुझे लगता है कि रात के ये
दुःस्वप्न मेरा पीछा कभी न छोड़ेगें.हर रात मुझे कैंप के चौकीदार स्टोजान का चेहरा
दीखता है. वह उन सबमें सबसे निर्मम था, उसने दस साला बच्ची को भी नहीं बख्शा था. ज्यादातर बच्चियाँ
बलात्कार के बाद मर जाती थीं. उन्होंने बहुतों को मार डाला. मैं सब कुछ भूलना
चाहती हूँ, नहीं तो
मर जाऊँगी."
पढ़कर
मेरा मन घुटन से भर गया है, भूख
नींद गायब हो गई है. स्काइप खोलकर देखा है. कोई मित्र-आत्मीय ऑनलाइन नहीं है.किसी ने
कहा था कि मित्रहीन होने से बड़ी भाग्यहीनता कुछ भी नहीं है. खिड़की के बाहर देखती
हूँ स्ट्रीट लाईट्स जल रही हैं, यहाँ मेघाचछन्न आकाश के समय भी अँधियारा सा घिरते ही स्वचालित बत्तियां जल
जाती हैं.सब ओर चुप्पी छाई हुई है,वियेस्निक डी.डी.की ऊँची इमारत पर लाल रंग की
तीखी बत्ती, जैसे अथाह और अपार समुद्र के बीचो बीच खड़ा लाइट हाउस. इस समय भारत में आधी रात होगी.‘मेघेर
पोरे मेघ जोमे छे आंधारकोरे आशे’- बादल घिरे हों तो वैसे भी मेरी नींद खुल
जाती है, गहरी नींद में भी मुझे बादलों की नम गंध बेचैन कर देती है. दो बिस्किट खाए
हैं, पानी भी पी लिया पर दिल बहलता नहीं.
बाल्कन प्रदेश के पार से आती गुम-सुम बोझिल हवाओं के घोड़ोंपर सवार लंबे कद्दावर
क्रूर सर्बियाई सैनिक दीखते हैं. हवा में तैरती चीखें और पुकारें हैं.
१९९२ में
फोका की स्कूल जाने वाली लड़की बताती है कि कैसे जोरान वुकोविच नामक आदमी ने उससे
जबरदस्ती संसर्ग किया और बाद में दूसरों के आगे परोस दिया. स्कूल में सैनिकों का
जत्था घुसा और आठ लड़कियोंको चुनकर उनसे निचले कपड़े उतारकर फर्श पर लेटने को कहा.
पूरी क्लास के सामने इन आठों का जमकर बलात्कार किया गया. सैनिकों ने बोस्नियाई
मुसलमान लड़कियाँ चुनीं, उनके
मुँह में जबरन गुप्तांग ठूसे और कहा - "तुम मुसलमान औरतें (गाली देकर) हम
तुम्हें दिखाते हैं." उसके पास कोई शब्द ऐसा नहीं, जो उसकी यातना व्यक्त करने में सक्षम हो- बार-बार यही कहती
है 'एक औरत के साथ इससे बदतर
कुछ हो ही नहीं सकता'.
उसे बाद
में पाट्रीजन स्पोर्ट्स हॅाल में, अलग-अलग
उम्र की लगभग साठ अन्य स्त्रियों के साथ बंधक बनाकर रखा गया. वे बारी-बारी सर्ब
सैनिकों द्वारा ले जाई जातीं और बलात्कार के बाद लुटी-पिटी घायल अवस्था में
स्पोर्ट्स हाल में बंद कर दी जातीं. सर्ब सेनाओं ने घरों, दफ्तरों और कई स्कूलों की इमारतों को यातना-शिविरों में बदल
डाला था. एक बोस्नियाई स्त्री ने बताया कि पहले दिन हमारे घर पर कब्जा करके परिवार
के मर्दों को खूब पीटा गया. मेरी माँ कहीं भाग गई - बाद में भी उसका कुछ पता नहीं
चल पाया, बहुत ढूँढा हमने. वे मुझे नोचने, खसोटने लगे. डर और दर्द से मेरी चेतना लुप्त हो गई ...जब
जगी तो मै पूरी तरह नंगी और खून से सनी हुई फर्श पर पड़ी थी ...यही हाल मेरी भाभी
का भी था ...मैं जान गई कि मेरा बलात्कार हुआ है ...कोने में मेरी सास बच्चेको गोद
में लिए रो रही थी. ...उस दिन से हमें हमारे ही घर में कैद कर दिया गया. यह मेरी
जिंदगी का सबसे बुरा वाकया था ...वे हमेशा हमें पंक्तिबद्ध कर सैनिकों के सामने ले
जाते और हमें परोस देते. मकान में वापस लाकर भी अश्लील हरकतों के लिए मजबूर करते
और हमें रौंदते ...हमारे बच्चों के सामने भी हमें खसोटते. ये सब एक साल तक चला, अधिकतर औरतें या तो मर गईं, पागल हो गईं या वेश्याएँ बन गईं."
युद्ध
के बाद 'डेटन
एकार्ड्स' नाम से
शांति समझौता हुआ था, जिसके
अनुसार यौन-हिंसा पीड़िताओं को घर-वापसी पर मकान और संपत्ति दी जानी थी लेकिन ऐसी बहुत
कम औरतें थीं, जो घर
वापसी के लिए तैयार थीं अधिकांश ने अपने मकानों में लौटने से इनकार कर दिया
क्योंकि वहाँ उनकी यातना और अतीत के नष्ट जीवन के स्मृति चिह्न थे.
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गरिमा श्रीवास्तव
प्रोफ़ेसर भारतीय भाषा केंद्र
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय
दिल्ली -११००६७
फोन -8985708041 / drsgarima@gmail.com
यंत्रणा से साक्षात्कार करने पर जिस रंग रूप स्वाद या स्पर्श का अनुभव होता है वह अभी हो रहा है। ऐसी अनुभूति के लिए स्त्री होना आवश्यक नहीं, मनुष्य होने से काम चल जाएगा।
जवाब देंहटाएंकुछ अंश पहले पढ़ चुका हूँ. इसे पढना स्वयं युद्ध के मैदान में प्रत्यक्षदर्शी की तरह खड़े हो जाने जैसा है. और देह तो क्या यह आत्मा पर युद्ध है. यकीन नहीं होता यह इस पृथ्वी पर हो रहा है. गरिमा जी को साधुवाद इस शोधपरक डायरी के लिए.
जवाब देंहटाएंयकीन करना मुश्किल है कि आपके मस्तिष्क में कितना विषाद और तनाव रहा होगा इस डायरी को लिपिबद्ध करते हुए। मेरे लिए तो इसे पढ़ना एक गहन पीड़ा से गुजरने जैसा रहा। अंश पढ़ने में जब ये हाल हुआ है तो पूरी डायरी कम से कम मैं नहीं पढ़ पाऊँगा।मैं यह पुस्तक खरीदूँगा ही नहीं। माफी चाहता हूँ। इतना कड़वा सच सह पाने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है। गरिमा जी ढेरों बधाई की पात्र हैं जिन्होंने इतनी पीड़ा को देखा, सुना और लिपिबद्ध किया।
जवाब देंहटाएंअजीब विडंबना है। शाश्वत मानव त्रासदी। निरंकुश रानियों और साम्राज्ञियों के सैनिकों को भी इसके लिए अनकही छूट थी। और आज, ठीक हमारे समय में, आइसिस की यौन दासियों की ज्वलंत ख़बर है ( जिसका संदर्भ जाने क्यों नहीं दिया गया)। वर्तमान में हमारे हस्तक्षेप का यह हाल है, इतिहास पर रोना तो रणरोवन-सरीखा ही है--उसका कुछ नहीं किया जा सकता, सिर्फ़ सीख लेने के।
जवाब देंहटाएंThe biggest mistake of Woman is to give birth to Man .
जवाब देंहटाएंइन दास्तानों में कहर मौजूद है, इसे पढ़ना बहुत ज्यादा सहना है। हिंदी का मनोरंजन प्रिय समाज अनुभवों के उन हादसे भरे हिस्सों में जाए तो उसका जीवन संदर्भ परिपक्व हो।
जवाब देंहटाएंप्रोफ़ेसर गरिमा श्रीवास्तव द्वारा उनके क्रोएशिया प्रवास के दौरान लिखी गई डायरी से गुजरते हुए सबसे पहली बात यह उठा कि इसमें में जितने सूक्ष्म विवरण मौजूद हैं और गहराई में जाकर जिस प्रकार इतिहास-बोध से लैस होकर इसे रचा गया है उससे साफ़ जाहिर है कि यह रचना एक महत्तर उद्देश्य से स्त्रीवादी विश्वदृष्टि तहत की गयी है.
जवाब देंहटाएंसच तो यह है कि इस डायरी में भारतीय नज़रिए से यूरोपीय जीवन का यथार्थ देखने -दिखाने के साथ ही यूरोप में बैठकर भारत को समझने की भी एक सफल रचनात्मक कोशिश है. लेखिका द्वारा सिमोन द बोउआर को नए सिरे से पढ़ने की बात खुद स्वीकारी गयी है और यह भी कि "उसका लिखा घर से दूर होने की बेचैनी को कभी बढ़ाता है तो कभी शांत करता है.उनके उपन्यासों और आत्मकथाओं से गुजरना मधुर त्रासदी से गुजरना है." यह बात इस रचना पर भी मुकम्मल रूप से लागू होती है.इसमें निहित कड़वे यथार्थ के बावजूद इससे गुजरना भी एक मधुर त्रासदी से गुजरना है.
गद्यभाषा की सफाई और आज के केवल अंग्रेज़ी पर निर्भर हिन्दी साहित्य लेखन के दौर में बांग्ला साहित्य का यथास्थान विनियोग इस डायरी की महती विशेषता है.
निज घर: देह पर युद्ध। बेहद मानीखेज़।गरिमा जी और अरुण भाई शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंकई बार यह डायरी पुरुष के 'स्वयं' होने को प्रश्नांकित करती हुई परेशान कर जाती है । 1990 दशक के ब्यौरे को पढ़ते हुए व्यक्तिगत तौर पर मुझे लगता है कि , यह सब हमारे ही समय में , हमारी आंखों के सामने होता हुआ बीत रहा था । और हम बेखबर कुछ और करने में मुब्तिला थे ।
जवाब देंहटाएंडायरी का अंश पढ़ने और गुनने के लिए मित्रों और समालोचन पर प्रकाशित करने के लिए अरुण जी का आभार.इसे पढ़ने का साहस पाने न पाने से यथार्थ तो बदल नहीं जाता.१९९२ -१९९५ के जिस कालखंड में यह सब हो रहा था वह सब कुछ इतिहास में दर्ज नहीं हुआ होगा ,इतिहास स्मृति -आख्यानों और मन के कोने -अंतरों में ढेर सारे रूपों में भी भूला -बिखरा रहता है.ये प्रवास -डायरी उन्हीं स्मृति -आख्यानों के नाम.पुनश्च :आईसिस वहां विशेष रूप से क्रियाशील नहीं ,तो उसका ज़िक्र डायरी में कैसे होता.हम दुनिया से सच में बेखबर रहते हैं/रहना चाहते हैं,क्योंकि उसीमें हमें सुविधा होती है.ज्ञान बेचैनी पैदा करता है.
जवाब देंहटाएंसिर्फ पढ़ के जो महसुस कर रही हूँ उसे अभिव्यक्त करने के लिए शब्द नहीं हैं ... गरिमा जी ने सम्वेदनशील मन पर कितने युद्ध किये होंगे उन त्रासदियों को शब्द देने के लिए ... सच कहा आपने 'ज्ञान बेचैन करता है ' मैं पढूंगी इसे पूरा जबकि इसे अभी थोडा ही पढ़ के ...
जवाब देंहटाएं'पाखी' में इसका अंश पढ़ा था
जब हम जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सरकारी सुविधाओं के साथ अपनी शिक्षा पूरी कर रहे थे तभी इस ग्लोब के किसी कोने पर आपके माध्यम से हमारी समानधर्माओं को जाना। उनको जिन्हें हमारे जैसी स्थिति नहीं मिली। और जिन्हें दुनिया बहुत अधिक जानती भी नहीं। इस पीड़ित कौम की आवाज़ हम तक पहुँचाने के लिए मैम का आभार...
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