आशीष बिहानी हिंदी के कवि
हैं और ‘कोशिकीय एवं आणविक जीव विज्ञान केंद्र’ (CCMB), हैदराबाद में जीव विज्ञान में शोधार्थी हैं.
ज़ाहिर है उन्हें हिंदी में
वैज्ञानिक शोध पत्रिकाएँ की अनुपलब्धता का अहसास और दर्द दोनों है. हिंदी की
दुनिया को जो लोग सिर्फ साहित्य तक सीमित समझते हैं उन्हें इस बात की क्यों कर
चिंता होगी ? कम से कम ‘नेचर’ के अनुवाद की ही व्यवस्था कर दी जाती, जबकि विज्ञान
को बढ़ावा देने और लोकप्रिय बनाने के बड़े दावे किए जाते हैं.
वैज्ञानिक चेतना और
विज्ञान दोनों को फलने, फूलने. पसरने के लिए निज भाषा के खाद
पानी की जरूरत होती है. रोपेंगे नहीं तो फल कहाँ से मिलेगा श्रीमान. महोदय.
वैज्ञानिक शोध पत्रिकाएँ
हिंदी में क्यों नहीं छपती हैं ?
आशीष बिहानी
क्या कारण है कि दुनिया
के दूसरे सबसे विशाल भाषी समूह होने के बावज़ूद कोई भी वैज्ञानिक शोध पत्रिका
भारतीय भाषाओँ में अपने शोध-पत्रों का अनुवाद करके प्रसारित नहीं करतीं है?
नेचर और स्प्रिन्गर के
विलय से बने प्रकाशन दानव की पत्रिका “नेचर” का प्रमुख हिस्सा विज्ञान की
विविध शाखाओं में अत्याधुनिक शोध को प्रकाशित करता है. यह पत्रिका कोरिया, चीन और जापान जैसे देशों
में, उनकी
राष्ट्र भाषाओँ में अनूदित-प्रकाशित की जाती है. इसी प्रकाशन की पत्रिका “साइंटिफिक अमेरिकन”,
जो कि विज्ञान में
अभिरुचि रखने वाले सामान्य पाठक वर्ग के समक्ष नवीन वैज्ञानिक खोजों, अविष्कारों और उनसे
उत्पन्न होने वाली विचारधारा को आकर्षक तरीक़े से पेश करती है. यह पत्रिका स्थानीय
अनुवादकों और प्रकाशकों के सहयोग से तकरीबन बीस भाषाओँ में प्रकाशित की जाती है,
जिनमे रूसी,
ताईवानी और
ब्राज़ीलियाई भाषाएँ शामिल हैं.
नेचर की सालाना वेटेड
फ्रेक्शनल काउंट इंडेक्स के हिसाब से भारत में शोध का आयतन ताइवान, ब्राज़ील और रूस जैसे
देशों को कड़ी टक्कर दे रहा है. यद्यपि इस मामले में हम चीन और अमेरिका जैसे देशों
के आस-पास भी नहीं फटकते, हमारे यहाँ शोध बड़ी तेज़ी से बढ़ रहा है, ख़ास कर जीव विज्ञान और
रसायन विज्ञान में. हिंदी, मेंडेरिन के बाद दुनिया की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा
है और बोलने वालों की संख्या रूसी, जापानी, कोरियाई इत्यादि से बहुत ज़्यादा है. तत्पश्चात, तमिल/ तेलुगु/ पंजाबी/
बंगाली आदि भाषाएँ भी बहुत पीछे नहीं हैं.
इसका यह अर्थ नहीं है कि
भारत में शोध की स्थिति संतुष्टिपूर्ण है. बस यह कि अपने सामर्थ्य का एक नगण्य अंश
देता हुआ भारत भी बहुत महत्वपूर्ण है. शोध की बढ़ोतरी से भी खुश मत होइएगा, सरकार ने जो अभी आधारभूत
शोध की फंडिंग पर कुल्हाड़ी चला दी है उसका असर कुछ समय में नज़र आयेगा. डेढ़ अरब की
आबादी वाले हमारे देश से जितने वैज्ञानिक शोध पत्र निकलते हैं उससे दो गुना ज़्यादा
स्पेन से निकलते हैं और तकरीबन छः गुना चीन से. हर नेता के भाषण में हम यूएसए बनने
के सपने देखते हैं. हमें याद रखना चाहिए कि मौजूदा तंग हालात के बावज़ूद यूएसए से
निकलने वाला शोध आयतन में भारतीय विज्ञान का बीस गुना है!
भारत एक तेज़ी से बढती
अर्थव्यवस्था है जहाँ आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा विज्ञान और प्रोद्योगिकी से
वंचित है क्योंकि वो शेष छोटे हिस्से की भांति अंग्रेज़ी सीख नहीं सकता, आर्थिक और भाषिक
मजबूरियों के कारण. ऐसे में सिर्फ़ अंग्रेज़ी का ज्ञान अभ्यर्थियों को कौशल और
योग्यता की तुलना में कहीं आगे ले जाता है -- ऐसे स्थानों पर भी जहाँ अंग्रेज़ी की
कोई आवश्यकता नहीं है.
अंग्रेज़ी से इस विकारग्रस्त मोहब्बत का नतीज़ा है कि हमारे युवा दूसरे देशों की बनाई आधारभूत संरचनाओं में सस्ते बैल बनने को तैयार हैं बजाय अपने ही देश की आधारभूत संरचना को मज़बूत करने की कोशिश करने के. सच्चे अर्थों में उद्यमशील बनने के. उनको उदासीन महसूस कराने में हमारे संस्थानों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है. UGC द्वारा अनुमोदित शोध पत्रिकाओं की सूची देख लीजिये. विज्ञान और प्रोद्योगिकी वर्ग में एक भी भारतीय भाषा का जर्नल नहीं है. बंगाली/ तमिल/ तेलुगु तो दूर की चिड़ियाएँ है, हिंदी तक में विज्ञान का दस्तावेज़ीकरण शून्य के बराबर है. क्यों कोई सीखना चाहेगा हिंदी, अगर तकनीकी रूप से मज़बूत होना चाहता हो तो? यदि कोई सीखेगा, तो उसे मिलेगा क्या पढ़ने को? UGC की सूची से बाहर भारतीय भाषाओं में विज्ञान की दुर्दशा देखकर ही दिल दुहरा होने लगता है, जहाँ विज्ञान बस जादुई दवाइयों, बॉडी-बिल्डिंग और तथ्यों का अश्लील ढेर रह जाता है.
अंग्रेज़ी से इस विकारग्रस्त मोहब्बत का नतीज़ा है कि हमारे युवा दूसरे देशों की बनाई आधारभूत संरचनाओं में सस्ते बैल बनने को तैयार हैं बजाय अपने ही देश की आधारभूत संरचना को मज़बूत करने की कोशिश करने के. सच्चे अर्थों में उद्यमशील बनने के. उनको उदासीन महसूस कराने में हमारे संस्थानों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है. UGC द्वारा अनुमोदित शोध पत्रिकाओं की सूची देख लीजिये. विज्ञान और प्रोद्योगिकी वर्ग में एक भी भारतीय भाषा का जर्नल नहीं है. बंगाली/ तमिल/ तेलुगु तो दूर की चिड़ियाएँ है, हिंदी तक में विज्ञान का दस्तावेज़ीकरण शून्य के बराबर है. क्यों कोई सीखना चाहेगा हिंदी, अगर तकनीकी रूप से मज़बूत होना चाहता हो तो? यदि कोई सीखेगा, तो उसे मिलेगा क्या पढ़ने को? UGC की सूची से बाहर भारतीय भाषाओं में विज्ञान की दुर्दशा देखकर ही दिल दुहरा होने लगता है, जहाँ विज्ञान बस जादुई दवाइयों, बॉडी-बिल्डिंग और तथ्यों का अश्लील ढेर रह जाता है.
इसकी तुलना में जापान
में जीव विज्ञान के 400 शोध जर्नल्स में से 300 जापानी भाषा में प्रकाशित होते
हैं. आलम यह है कि वहाँ किये जाने वाले शोध को अंग्रेज़ी में अनुवाद करने की
आवश्यकता पड़ती है. इन दोनों बातों में सम्बन्ध सिद्ध नहीं हुआ है पर यह एक
सम्भावना है जो हमें भारतीय भाषाओँ के लिए खोजनी होगी. अन्यथा भारतीय विज्ञान इसी
लूली रफ़्तार से चलता रहेगा और देश के भावी बेहतरीन वैज्ञानिक या तो वेंकी
रामकृष्णन की तरह लन्दन में पनाह पाने को भागेंगे या फिर द्विभाषी न होने के ज़ुर्म
में किसी ऐसे काम को करते हुए सज़ा काटेंगे जो करना उन्हें पसंद नहीं.
संभव है कि वित्त की कमी
विज्ञान के प्रसार और शोध को धीमा कर दे. पर भारत में वैज्ञानिक गतिविधियों का
अभाव मूलभूत रूप से स्थानीय भाषाओँ में उसकी अनुपलब्धता के कारण है. पर हिंदी तो
काफी लचीली भाषा है जो किसी भी ढाँचे में ठीक-ठीक फिट हो सकती है. तो फिर हिंदी
में विज्ञान का अभाव क्यों?
कारण अनावश्यक रूप से
उलझी हुई अधिकतर समस्याओं की तरह स्पष्ट है. हिंदी विश्वार्द्ध में अपनी भाषा में
विज्ञान में भाग लेने के प्रयास हो ही नहीं रहें है. सभी अंग्रेज़ी के माध्यम से
उत्पन्न हुए हमारे योगदान से खुश हैं जो कि भारत की विशालता और संभावनाओं के आगे
नगण्य है. हमारे निकट भविष्य के लक्ष्य, सुदूर भविष्य के लक्ष्यों पर हावी हो गए हैं. यदि
अंग्रेज़ी सीखने से किसी को गोल्डमेन साक्स में नौकरी मिल जाती है, वो क्यों कोशिश करेगा
भारत में वैसी कंपनी बनाने की! 2003 में फ़िनलैंड के वैज्ञानिकों ने अकादमिया में बढ़ते अंग्रेज़ी
के प्रयोग के प्रति चेताया था कि यदि विज्ञान से फिन भाषा को हटाया गया तो प्रकृति
की बारीकियों को पहचानने के मामले में धीरे-धीरे उनकी भाषा पंगु हो जाएगी. स्पष्ट
है कि हिंदी में वो असर अभी से नज़र आने लगे हैं. किसी भाषा का हाल संस्कृत और
लैटिन जैसा होने में समय नहीं लगता. लगभग सामान परेशानियाँ जापान और स्पेन के
वैज्ञानिकों ने भी जताईं हैं.
हिंदी के तथाकथित
कर्णधार हिंदी का प्रचार-प्रसार करने और अहिंदी प्रदेशों में उसे थोपने में जुटे
हैं. हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने की कोशिश हो रही है. और हिंदी के बचे
खुचे वक्ता और लेखक हिंदी की जड़ों को, उसके कारकों को भूलकर, राष्ट्रभाषा होने के दंभ में भरे
अन्य भारतीय भाषाओँ को सीखने से इनकार कर चुके. हिंदी का क्रमिक विकास रुक चुका. दक्षिण
भारतीय सरकारी विभागों में CCTV स्क्रीन्स पर हिंदी शब्द और उनके अंग्रेज़ी अर्थ दिखाए जाते
हैं और कई कर्मचारी उन्हें सीखने का प्रयास करते नज़र आते हैं. हिंदी प्रदेशों में
अन्य भाषाओँ के शब्द नहीं दिखाए जाते. ये कहना भर भी हिंदी भाषियों को अटपटा सा
लगेगा. जब परा-सिन्धु प्रान्तों को एकीकृत करने निकली भाषा की दूसरी संस्कृतियों
को आत्मसात करने की क्षमता विन्ध्याचल पार करते करते दम तोड़ दे तो उसका
राष्ट्र-भाषा बनना तो लाज़मी नहीं. बजाय दक्खिन को शामिल करने के, हमारा झुकाव रोमन और
लैटिन से उद्भूत भाषाओँ की ओर है जो फाइलो-लिंग्विस्टिकली हमसे कोसों दूर है. उन
तत्वों को शामिल करना प्रगतिशीलता के खिलाफ़ नहीं है पर गड्ड-मड्ड प्राथमिकताओं का
नतीज़ा अवश्य है.
ट्रांस-इंडियन भाषा के
नारे लगाने की बजाय बेहतर होगा कि हम लोग विज्ञान और अर्थशास्त्र जैसे विषय,
जो वैश्विक प्रगति
में एक देश की भूमिका और महत्ता को निर्धारित करते हैं, अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाएं.
अंग्रेज़ी को देश के विद्यालयों में पढाए जाते हुए 180 साल हो गए हैं. हमें यह भूलना
होगा कि भारत के हर कोने में लोगों को अंग्रेज़ी या हिंदी सिखाई जा सकती है. हिंदी,
बंगाली, पंजाबी, मराठी, तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, उड़िया, गुजराती इत्यादि भाषाएँ
उनके विशाल भाषिक आधार से ऊपर किसी वैश्विक मंच की मोहताज़ नहीं है. इतने सारे
पाठकों की जरूरतों को “दुस्साध्य” कहकर दुत्कार देने की बजाय हमें उन जरूरतों को पूरा करने की
कोशिश करनी चाहिए. प्रयोग के तौर पर विश्व के प्रमुख वैज्ञानिक शोध पत्रों (जिनमें
से अधिकतर ओपन सोर्स हैं) का अनुवाद करके ग्रामीण स्तर तक मुहैया कराना होगा.
भारतीय भाषाओँ में इस प्रयोग की पहली हकदार हिंदी होगी (2001 की जनगणना के मुताबिक 41 प्रतिशत भारतीय हिंदी
समूह को मातृभाषा मानते हैं और कुल 53 प्रतिशत हिंदी को जानते समझते हैं). तत्पश्चात,
अन्य भाषाएँ सीधे
अंग्रेज़ी से हिंदी वाले प्रयोग की समझ काम में लेते हुए या हिंदी अनुवाद से पुनः
अनुवाद कर लाभान्वित हो सकतीं हैं.
तो हिंदी को दो लम्बी
दूरी की दौड़ें तुरंत शुरू करने की आवश्यकता है: विश्व भर के वैज्ञानिक शोध को
यथावत हिंदी में अनूदित करना और अन्य भारतीय भाषाओँ से ऐसी शब्दावली और संरचनाएं
सोखना जो हिंदी में काम लीं जा सकतीं हैं.
इस प्रकार का प्रयोग
सिर्फ़ प्रयोग के लिए नहीं होगा. यदि हम इतनी जानकारी लोगों को उपलब्ध करवाते हैं,
१. भारतीय पुरातन विज्ञान के बारे में फैले झूठ को सत्यों से अलग करने में जनता की भागीदारी होगी, बशर्ते अनुवाद पूर्णतया खुले मंच पर उपलब्ध हो
२. हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ के लिए तकनीकी और वैज्ञानिक शब्दावली तैयार होगी, बशर्ते उस शब्दावली को हम संस्कृत-करण से बचा पाएं
३. हिंदी और अन्य भाषाओँ के बीच खड़ी दीवारें कमज़ोर होंगी क्योंकि इस समय इनमें से कोई भी विज्ञान के मामले में आत्मनिर्भर नहीं है.
४. लोगों को उनकी अपनी भाषा में कुछ नया करने का मौक़ा मिलेगा और घरेलू इनोवेशन होने की संभावना बढ़ेगी.
५. भारत की मुख्यधारा के डिस्कोर्स में अंग्रेज़ी न जानने वाले लोगों की आवाज़ मज़बूत होगी. वर्तमान में देशज भाषाओँ को निम्न मानकर दरकिनार किया जाता है, यह सभी को विदित है.
समस्या यह है कि ये सब
हवाई किले हैं. बड़ी संख्या में अलग-अलग विषयों से नौज़वान विद्वानों को व्यक्तिगत
स्तर पर अनुवाद करना शुरू करना होगा. हिंदी में वैज्ञानिक डिस्कोर्स को जगह देनी
होगी. हम यह मानकर विज्ञान को दरकिनार नहीं कर सकते हैं कि हम एक ग़रीब देश हैं.
हमारी समस्याओं को सुलझाने के लिए बाहर से कोई नहीं आने वाला है. हो सकता है कि ये
बीड़ा उठाने को पर्याप्त लोग न हों पर उस अक्रियता का अंजाम हमें ही भुगतना होगा.
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आशीष बिहानी
जन्म: ११ सितम्बर १९९२, बीकानेर (राजस्थान)
जन्म: ११ सितम्बर १९९२, बीकानेर (राजस्थान)
पद: जीव विज्ञान शोधार्थी, कोशिकीय एवं आणविक जीव विज्ञान केंद्र (CCMB), हैदराबाद
कविता संग्रह: "अन्धकार के धागे" 2015 में
हिन्दयुग्म प्रकाशन द्वारा प्रकाशित
ईमेल: ashishbihani1992@gmailcom
बहुत ज़रूरी लेख जो भाषा के प्रश्न को असली मुद्दों से जोड़ता है, जातीय गौरव और आत्मसम्मान के खोखले मुद्दों से नहीं।
जवाब देंहटाएंमैं हिन्दी में प्रकाशित ज़्यादातर वैज्ञानिक लेख पढ़ता हूँ और बड़ी शिद्दत से यह महसूस करता हूँ कि वैज्ञानिक विषयों की जानकारी देने वाली हिन्दी में भी एक पत्रिका ज़रूर होनी चाहिए। पत्रिका के प्रकाशकों को यह ख़याल रखना होगा कि पत्रिका में प्रकाशित लेखों की भाषा सहज होनी चाहिए ताकि विद्यालयों और महाविद्यालयों के छात्र भी उसे आसानी से पढ़ और समझ सकें। वैसे हिन्दी में ऐसी पत्रिका के न होने का एक कारण शायद यह भी है कि हिन्दी में वैज्ञानिक शब्दावली का अभाव है। जो नई वैज्ञानिक शब्दावली बनाई जा रही है, वह इतनी दुरूह होती है कि उसे पढ़ पाना और समझ पाना मुश्किल होता है।
जवाब देंहटाएंआशीष बिहानी जी ने बहुत गंभीर मुद्दा उठाया है। पर इसके मूल में निहित इस कटु सत्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि हिन्दी या किसी भी प्रांतीय भाषा में कोई भी तकनीकी या वैज्ञानिक शोध पत्र प्रस्तुत करने की अनुमति ही नहीं है! कोई भी शोध पत्र प्रस्तुत करने के लिए जबतक अंग्रेजी की कट्टर अनिवार्यता बनी रहेगी और इसके पीछे "सिर्फ अंग्रेजी में "ही" (यानी हिन्दी में कदापि नहीं) स्तरीय शोध पत्र लिखा जा सकता है"- की हिन्दी विरोधी और अंग्रेजीपरस्त मानसिकता और "अवसर की असमानता" कायम रहेगी, तबतक हिन्दी में वैज्ञानिक शोध की पत्रिका की गुंजाइश बनेगी ही नहीं! अनुवाद का दबाव और पहल तब कारगर होगी, जब हिन्दी में ही मूल शोध किया जाए। अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद की बजाय, हिन्दी से अंग्रेजी में अनुवाद की मांग कहीं ज्यादा तर्कसंगत, न्यायसंगत और समयोचित है। जहां तक हिन्दी में वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली का सवाल है तो भारत सरकार की ओर से 1961 में ही वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग का गठन किया जा चुका है और इसमें विभिन्न वैज्ञानिक विषयों और अनुशासनों में पाँच लाख से अधिक हिन्दी पर्याय उपलब्ध हैं। यह तर्क सरासर मूर्खतापूर्ण है कि हिन्दी के पर्याय संस्कृतनिष्ठ और कठिन हैं! फोटो-सिंथेसिस के लिए प्रकाश-संश्लेषण शब्द तक जिन्हें कठिन लगता हो, उनसे हिन्दी के हित की अपेक्षा करना भी मूर्खता होगी! यह दुहराने की जरूरत नहीं कि बोलने-बरतने से ही कोई शब्द प्रचलित और स्वीकृत होकर- आसान, सरल-सहज लगने लगते हैं!
जवाब देंहटाएं-राहुल राजेश, कोलकाता।
मैं आशीष बिहानी जी की बात से सहमत हूं। हिंदी में शोध पत्रिकाएं जरूर प्रकाशित होनी चाहिए। ऐसी दो पत्रिकाएं प्रकाशित भी होती रही है जिनके बारे में शायद अधिकांश लोगों को जानकारी नहीं है। इनमें से एक शोध पत्रिका विज्ञान परिषद् प्रयाग से और दूसरी राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद् (एन सी एस टी सी), विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार से प्रकाशित हुई हैं। लेकिन, शोध पत्रिका प्रकाशित होने से पहले शायद यह भी जरूरी है कि उसमें प्रकाशित शोध पत्रों को अंग्रेजी में प्रकाशित शोध पत्रिकाओं के शोध पत्रों के बराबर ही महत्व दिया जाए। प्रायः शैक्षिक तथा अनुसंधान क्षेत्र में हिंदी में प्रकाशित शोध पत्रों को हेय दृष्टि से देखा जाता है और पदोन्नति आदि के समय उन पर तवज्जो नहीं दी जाती। यह दुराव दूर होना चाहिए।
जवाब देंहटाएंसाथ ही यह भी जरूरी होगा कि हिंदी में परिश्रमपूर्वक स्तरीय शोध पत्र लिखे जाएं जिनका प्रकाशन से पहले विद्वान वैज्ञानिकों से निष्पक्ष पीअर रिव्यू कराया जाए।
जहां तक शब्दावली की बात है, मुझे नहीं लगता कि इसकी बड़ी दिक्कत है। हिंदी में जिन विज्ञान लेखकों ने दशकों तक विज्ञान लेखन किया है, उन्हें पाठकों तक विज्ञान की बात पहुंचाने और समझाने में कोई कठिनाई नहीं हुई है। वरिष्ठ विज्ञान लेखक गुणाकर मुले को कौन नहीं जानता? उनकी पुस्तकें लगभग सभी पुस्तकालयों में मिल जाती हैं। उन्होंने गणित, भौतिक विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान आदि विविध विषयों पर बखूबी लिखा और पाठकों को समझाया। डा. रमेश दत्त शर्मा ने सरल और सरस विज्ञान लेखन की परंपरा शुरू की। कभी धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी अत्यधिक लोकप्रिय पत्रिकाओं में लोग कथा-कहानी की तरह उनके वैज्ञानिक लेखों की भी प्रतीक्षा करते थे। पिछले पांच दशकों से मैं भी बच्चों से लेकर बड़ों तक विज्ञान के विविध विषयों पर, विभिन्न शैलियों में विज्ञान लिख रहा हूं। लोकप्रिय पत्रिकाओं ने ही नहीं अग्रणी साहित्यिक पत्रिकाओं ने भी मेरे लिखे विज्ञान को प्रकाशित किया है। शब्दावली आयोग द्वारा तैयार किए गए तकनीकी शब्दकोशों में जो शब्दावली दी गई है उसमें से अधिकांश शब्दों का प्रयोग किया जा रहा है। लेकिन हां, अनेक शब्द बहुत जटिल हैं जिन्हें समझना कठिन होता है। लेकिन, विज्ञान के अंग्रेजी में प्रचलित शब्दों को विज्ञान लेखक उनके मूल रूप में भी बखूबी अपना रहे हैं। हम डी एन ए को डी एन ए, जीन को जीन, क्रोमोसोम को क्रोमोसोम कह ही रहे हैं। कंप्यूटर, रोबोटिक्स और जेनेटिक्स आदि विज्ञान के नए क्षेत्रों में अंग्रेजी के शब्दों को अपनाया जा रहा है। मैं एक बात अनुभव करता हूं कि अगर विषय को लेखक स्वयं अच्छी तरह समझता है तो वह पाठक के लिए उसे सुबोध भाषा में लिख भी लेता है। लेकिन, अगर लेखक को स्वयं हिंदी में लिखने-पढ़ने का अभ्यास नहीं है तो वह शब्दकोश देख कर अटपटी और अबूझ भाषा में विज्ञान लिखता है। उसे पाठक नहीं समझते। असल में विज्ञान लेखक को भी हिंदी के पठन-पाठन का शौकीन होना चाहिए। उसे साहित्य से भी अनुराग की कोशिश करनी चाहिए। इसी तरह वैज्ञानिकों को भी केवल विज्ञान के खोल में रहकर साहित्य और हिंदी पठन-पाठन से आंखें नहीं मूंद लेनी चाहिए। यहां फिर वही ब्रिटिश भौतिक विज्ञानी और उपन्यासकार सी. पी. स्नो की बात याद आती है कि वैज्ञानिकों और साहित्यकारों ने अपनी दो अलग-अलग दुनियां बसाई हुईं हैं जिनके बीच गहरी खाई है। यह खाई दूर होनी चाहिए।
to Anil Janvijay मेरे विचार में सहज भाषा की पत्रिका (विज्ञान से आकृष्ट आमजन और विद्यालय के छात्रों के लिए) और वैज्ञानिक भाषा की पत्रिका अलग होनी चाहिए क्योंकि दोनों माध्यमों का अपना अपना महत्त्व है.
जवाब देंहटाएंहिंदी में वैज्ञानिक शब्दावली का अभाव है क्योंकि हिंदी में बहुत शोध नहीं हुआ है. जिस वैज्ञानिक खोज में हमारा कोई योगदान नहीं उसके लिए हिंदी शब्द तलाश करना व्यर्थ है और, जैसा आपने कहा, असहजता का कारण बनता है.
अब "एंडोसायटोसिस" (कोशिका द्वारा भोजन को वेसिकल में बंद करके ग्रहण करना) के लिए हिंदी शब्द ढूंढना निरर्थक है. जापानी, रूसी इत्यादि भाषाओँ में इन शब्दों को न के बराबर परिवर्तन करके ले लिया गया है. पर बच्चे "एंडो", "सायटो" और "--सिस" को समझे बिना इस शब्द के साथ सहज नहीं हो पाएंगे. कुछ हद तक इस समस्या को हमारी पाठ्यक्रम की किताबों में छुआ गया था पर प्रभावी रूप से नहीं.
to Deven Mewari
जवाब देंहटाएं"हिंदी में परिश्रमपूर्वक स्तरीय शोध पत्र लिखे जाएं जिनका प्रकाशन से पहले विद्वान वैज्ञानिकों से निष्पक्ष पीअर रिव्यू कराया जाए" -- यदि ऐसा संभव है तो इसका स्वागत है. पर इस प्रकार की व्यवस्था होने से पहले किसी भी "दुराव" के दूर होने की आशा नहीं कर सकते. ऐसा कर सकते हैं कि हिंदी में लिखे शोधपत्र को अंग्रेज़ी में अनूदित करके पियर रिव्यू करवाया जाए और सुझावों को सम्मिलित करके, पुनः हिंदी में अनूदित करके हिंदी जर्नल में प्रकाशित किया जाए. सहमत.
जिस लेखन की बात आप कर रहे हैं, उसका उद्देश्य वैज्ञानिक चेतना का जागरण है, नए विज्ञान का सृजन नहीं. वैज्ञानिक चेतना के प्रयास भारत में हुए हैं, सहमत. NCSTC की पत्रिका ड्रीम-२०४७ के बारे में शायद आप बात कर रहें हैं. इस पत्रिका के लेख समझाइश के लिए ही लिखे होते हैं पर विस्तार से समझाने के कारण कुछ-कुछ वैज्ञानिक साहित्य रिव्यु पत्र जैसे लगने लगते हैं. उनमे कोई नया विचार या दिशा नहीं होती, प्रतिमान विस्थापन की कोशिश नहीं होती. विज्ञान परिषद् प्रयाग की तीनों पत्रिकाएँ मैंने नहीं पढ़ीं हैं. उनका कलेवर मैंने देखा. पुनः, इन पत्रिकाओं में पारदर्शी नव-विज्ञान की पहल मुझे नहीं नज़र आती, जानकारीपरक होने में, चेतना जगाने में शायद वे सफल हों. (क्या यह वो पत्रिका है? http://www.bsnvpgcollege.in/vp/anusandhan14/00-6.pdf )
"विज्ञान के नए क्षेत्रों में अंग्रेजी के शब्दों को अपनाया जा रहा है।"
पुनः, आपके परिप्रेक्ष्य स्वागत योग्य हैं पर हिंदी की विज्ञान के क्षेत्र में पहल का परिमाण आवश्यकतानुसार नहीं है और एक संयोजित प्रयास की आवश्यकता है. मैं स्वयं वो छात्र रहा हूँ जिसने पाया कि पुस्तकालय में हिंदी में उपलब्ध विज्ञान अंग्रेज़ी के आस पास भी नहीं फटकता.
आपके वैज्ञानिक लेखन का लिंक दीजियेगा, मैं पढना चाहूँगा.
शब्दावली पर मैंने राहुल राजेश को जो उत्तर दिया है उसे देखें और समीक्षा करें कि वह आपके हिस्से कि बहस को आगे ले जाता है या नहीं. फिर बात होती है.
विज्ञान और साहित्य में सामंजस्य के बारे में फिर कभी लिखूंगा.
आशीष आपकी बातों मे विरक्ति का अनुभव ज्यादा हुआ मुझे। एक 25 वर्ष के युवा का ऐसा नैराश्य समाज औऱ देश के लिए ठीक नहीं। अपने जैसे ऊर्जावान औऱ विचारवान युवाओं का दल बनाकर आप बदलाव ला सकते हैं, पीअर समीक्षित हिंदी विज्ञान शोध जर्नल प्रकाशित करना तो मामूली कार्य है। हां पापुलर साइंस पत्रिका या साइंस जर्नल अनवरत अबाध निकालते रहना बहादुरी का काम है। 75 वर्ष के डा. ओम विकास अपने जीवन की सांध्य वेला मे हिंदी मे विज्ञान पर एक शोध जर्नल निकाल रहे हैं। इस बारे में उन्होंने इस साल जनवरी मे मुझसे कई दिनों विचार-विमर्श किया था। वे आईटी विभाग के सेवानिवृत्त निदेशक हैं औऱ दिल्ली में रहते हैं। मैं उनके जज्बे को सलाम करता हूं। मगर माफ करें आपकी बातों से निराशा हुई। हम सभी अपने लघु स्तरों पर हिंदी में विज्ञान की व्याप्ति के लिए काम कर रहे हैं।
जवाब देंहटाएंभारतीय पुरावनस्पति वैज्ञानिक बीरबल साहनी के पिता रूचि राम साहनी का नाम आपने नहीं सुना होगा। पंजाब के कालेज में रसायन के प्रोफेसर थे। अध्यापन के बाद लोगों को विज्ञान के रोचक पहलुओं से अवगत कराने के लिए उन्होंने गली चौराहे पर डिमांस्ट्रेशन के साथ पब्लिक लेक्चर देना शुरु किया। लोगों को यह इतना पसंद आया कि दो आने का टिकट लेकर रुचि राम के लेक्चर सुनने औऱ प्रयोग देखने जाने लगे।मेरी अंतिम पंक्ति : कहने से नहीं करने से तस्वीर बदलेगी
मेरी बातों में नैराश्य का बोध और हठधर्मिता किस प्रकार से दिखाई दे रही है?
जवाब देंहटाएंमैं आप सब के प्रयासों को कम करके नहीं आँक रहा. मैं ये कह रहा हूँ कि हिंदी में पोपुलर विज्ञान तो सदी भर से चला ही आ रहा है, नए विज्ञान के सृजन का परिमाण तभी बढेगा जब विश्वभर का नवीनतम शोध हिंदी में उपलब्ध होगा, बिना अनावश्यक शब्दों को ठूंसे.
मैं देख रहा हूँ उन सहपाठियों को जो प्रेमचंद को छोड़ कर चेतन भगत को पढ़ रहे हैं ताकि उनकी अंग्रेज़ी सुधर जाए. वो सहपाठी जो बरेली और बनारस से आए हैं और जो बेशर्मी से बोलते हैं कि उन्हें हिंदी पढना मुश्किल लगता है. वो सहपाठी जो हिंदी के प्रचार की कोशिशों को हिंदी इम्पेरिअलिज्म कहते हैं. क्या वो सब लोग अतार्किक हैं? नैराश्य वो भाव है जो भारत में "अपने लघु स्तरों पर हिंदी में विज्ञान की व्याप्ति" से संतुष्ट है. मैं नहीं हूँ संतुष्ट. उत्कृष्ट शोध के अनूदित संस्करण, जिसमे अनावश्यक पंडिताई न झाड़ी गयी हो, की मांग एक जायज़ मांग है, जायज़ ज़रूरत है जो पूरी नहीं की गयी है. मैं नहीं कर सकता सकता वो पहल मेरी पीएचडी के अधपके समय में.
वैज्ञानिक चेतना फैलाना बहुत सुन्दर चीज़ है और बहुत बहादुरी भरा है. पर आप वैज्ञानिक चेतना को खा नहीं सकते. मैं कह रहा हूँ कि यदि हिंदी में शोध होना है तो शोध में अग्रणी देशों के विज्ञान को हिंदी में अनूदित करना होगा. मैं कह रहा हूँ कि आइये शोध अनुवाद् करते हैं (वैज्ञानिक चेतना फ़ैलाने के समानांतर). खूब फ़ैल ली चेतना. अब हिंदी के विज्ञानपन्थियों को ये भी एक काम करना चाहिए. आपकी भाषा के पास विश्व को देने के लिए नया कुछ होना चाहिए. और ये नया सृजन अलग-थलग रह कर नहीं हो सकता. इसके लिए उस दानव के कन्धों की आवश्यकता है जो शेष विश्व का विज्ञान है.
मैं देख रहा हूँ जिस रफ़्तार से अंग्रेज़ी विश्व की भाषाओँ को निगल रही है, वो भयानक है. भारतीय विज्ञान का वो हिस्सा जो शोध करने में शेष विश्व को टक्कर देने की कोशिश कर रहा है, अंग्रेज़ी के अलावा किसी और भाषा में शोध होने की सम्भावना को भुला चुका. पर मैं कहता हूँ कि नहीं, इसे रोक सकते हैं, विश्व मंच को हिंदी तक लाकर --तत्पश्चात बाकी भारतीय भाषाओँ तक ले जाकर. मेरे विचार में मैं दुनिया का सबसे बड़ा आशावादी हूँ.
ठीक, शायद मेरी बात आपको जँची नहीं, क्योंकि मैंने कोई अनुवाद कर्म किया नहीं है. मुझे आपके कर्म की समीक्षा का अधिकार नहीं है. ठीक.
ये मेरी कर्म शुरू करने से पहले की समीक्षा थी. किसी की भावनाओं को आघात नहीं पहुँचाना चाहता हूँ. जहाँ तक आक्रामक तर्कों की बात है, व्यक्तिगत तौर पर न लें. हमें एक दूसरे की मान्यताओं को कठोर प्रश्नों से प्रश्नांकित करना और उससे विचलित न होना, अपनी बात को सीधे शब्दों में रखने के साथ सिखाया जाता है (बिना सहानुभूति और प्रशंसा का सहारा लिए).
समस्या जो है उसे उसकी पूरी भयावहता के साथ स्वीकार करने के बाद ही दिशा निर्धारित करनी चाहिए.
सहम हूँ।हिं्दी में वैज्ञानिक पत्रिका का अभाव मुझे भी खलता रहा है...लेकिन आशीष जी की इस बात से असहमत हूँ कि इसमे हिन्दी भाषियों या हिन्दी लेखकों की कमी है..इसमे बहुत बड़ी मनसा सरकारों की भी नगण्य दिखती है जब ाप किसी भी कार्य विशेष को अनिवार्यता के साथ जोड़ते है तो उसमें काम होना और विकास होना भी निश्चित होता है..भारत सरकार का रवैया भाषा को लेकर खासकर हिन्दी के सन्दर्भ में ढूल मुल हमेशा से रहा है।त्रिभाषा सूत्र को भी कड़ाई से लागू नही किया गया है जिससे भाषाओं और क्षेत्रिय भाषाओं का तालमेल नहीं बन पाया है...आगे अगर प्रयास हों तो शायद इन शिकायतों में सुधार का असर भी दिखे..
जवाब देंहटाएंप्रामाणिक भाव और वेदना से बात की है लेखक ने।
जवाब देंहटाएंto Rahul Rajesh
जवाब देंहटाएंदो बातों का प्रतिवाद करना चाहूँगा:
१. "हिन्दी से अंग्रेजी में अनुवाद की मांग" -- हिंदी में वो सामग्री कहाँ है जो अंग्रेजी में अनूदित की जाए? जहाँ तक वैश्विक विज्ञान की बात है, किसी भाषा के विज्ञान को कमतर नहीं समझा जाता, बशर्ते पारदर्शिता से विज्ञान और उसका अनुवाद किया गया हो. अंग्रेज़ी के जर्नल "नेचर", "सेल" इत्यादि ज़्यादा मशहूर हैं क्योंकि उन्होंने बहुत समय से वो पारदर्शिता और वाद-विवाद की संस्कृति को जीवित रखा है.
हिंदी में पर्याप्त शब्दावली और अनूदित वैज्ञानिक साहित्य के बिना नए विज्ञान का सृजन करना असंभव होगा. ज्ञान का भार बढाया जाए, शोधार्थी उस ज्ञान को पढने वाले युवाओं में से निकल कर स्वतः सामने आएंगे. अन्यथा "अंग्रेजीपरस्त मानसिकता" तो जाने से रही.
२. "फोटो-सिंथेसिस" बड़ा आरामदायक उदाहरण है. ये विदित रहे कि भारतीय वैज्ञानिकों ने पादप जीव विज्ञान का सूत्रपात करने में भूमिका निभाई थी. तर्क यह नहीं है कि हिंदी के पर्याय क्लिष्ट होने के कारण शामिल न किये जाएँ. तर्क ये है कि जिन खोजों में हमने वैश्विक समुदाय की कोई मदद नहीं की और बिना शोध संस्कृति विकसित किये सीधे अपनी पाठ्यपुस्तकों में उतार लिया उनका नया नामकरण करने का हमें कोई हक नहीं, नैतिक आचार के परिप्रेक्ष्य से भी और ज्ञान विस्तार के परिप्रेक्ष्य से भी. जापान, जर्मनी और रूस का उदाहरण देखें, जिनके यहाँ विज्ञान ने अमेरिका से कंधे से कन्धा मिला कर प्रगति करने की कोशिश की पर "एंडोसायटोसिस" को "एंडोसिटोज़े" (जर्मन) और एंडोसायटोशिसु (जापान) ही रखा. जर्मन के बारे में आप कह सकते हैं कि वो अंग्रेज़ी की जड़ों के क़रीब है पर जापान के बारे में नहीं.
मेरा मत यह नहीं है कि हिंदी से वैज्ञानिक शब्दावली बनाई ही ना जाए. हिंदी में ग्रीक और लैटिन के सामानांतर और उद्धृत कई शब्द है जिनका प्रयोग किया जा सकता है, अथवा ऐसी खोजें या विज्ञान जो भारत के वैज्ञानिक साहित्य में दर्ज है. पर आधुनिक विज्ञान, जो भारतीय सभ्यता के चरम विकास से कहीं आगे निकल चुका है, हिंदी शब्दावली का मोहताज़ नहीं है (विज्ञान के मामले में आप जो भी करते हैं सम्पूर्ण विश्व से साझा करते हैं). हम शोध की वैदिक परंपरा को आगे नहीं बढ़ा रहे और न ही बढ़ा पाएंगे. जिस परंपरा को हमें आगे बढाकर अपनी युवा पीढ़ी को शामिल करना है वो अमेरिका और यूरोप की विकसित की हुई है. उसके मुँह में अप्राकृतिक रूप से उगाये गए हिंदी शब्दों को खोंसना सिर्फ़ हमारी प्रगति को धीमा करेगा.
"हिंदी का हित" एक भटका हुआ विचार है. हित हमें जनता का करना है. उसके लिए यदि भाषा को उसके बंध तोड़ कर ह्वांग हो की भांति नए मैदान में जाना पड़े तो वैसा करना होगा.
मैं बस यह कह रहा हूं कि अंग्रेजी की बजाय, हिंदी में ही मूल शोध कार्य किया जाए और फिर हिंदी में हुए शोध कार्य का अंग्रेजी में अनुवाद किया जाए। अगर सबकुछ अंग्रेजी से ही ले लेना है तो फिर हिंदी में वैज्ञानिक शब्दावली न होने का रोना-गाना व्यर्थ है। हिंदी का हित यानी अंग्रेजी से कमतर न मानते हुए हिंदी में ज्ञान-विज्ञान को बढ़ावा देना। सिर्फ अपनी बात पर अड़े रहने से और दूसरे की मंशा को प्रश्नांकित करने से भी विचार-विमर्श में ही नहीं, विचारों में भी भटकाव आता है। किसी भी भाषा का हित भटका हुआ विचार कतई नहीं हो सकता। किसी भी विषय में एकांगी दृष्टिकोण अपनाकर चर्चा नहीं की जा सकती।
जवाब देंहटाएंएक सार्थक और जरूरी बहस. मैं आशीष बिहानी जी की बात से सहमत हूँ.हिन्दी भाषा में (दूसरी भारतीय भाषाओं में भी) मौलिक शोध और शोध पत्र प्रकाशन आसान नहीं है. उसमें कई तकनीकी गत परेशानियाँ भी हैं, पर वो करना बहुत बहुत जरूरी और अविलम्ब जरूरी भी है.मैं भू-विज्ञान विषय में शोध छात्र हूँ. बीरबल साहनी पुराविज्ञान संस्थान, लखनऊ में पुराजलवायु सम्बन्धित शोध करता हूँ और पी. एच-डी. उपाधि के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से पंजीकृत हूँ. मैं अपना शोध ग्रन्थ हिन्दी भाषा में लिख रहा हूँ . जब मैंने यह निर्णय लिया तो विश्वविद्यालय के पी. एच-डी. अध्यादेश में "Hindi or English or any other language approved by the concerned DRC/SRC/CRC" नियमानुसार विभाग की शोध परिषद् से सहमति(अनुमति) ली. इस संदर्भ में जब मैंने कुलसचिव अकादमिक कार्यालय से भी जानकारी ली तो उन्होंने भी विभागीय शोध परिषद् से अनुमति लेने की ही बात कही और साथ में यह भी जानकारी दी कि कुछ वर्ष पूर्व किसी छात्र ने बिना अनुमति लेकर भौतिक विज्ञान में हिन्दी भाषा में शोध प्रबंध लिख दिया था, फिर जाँचने के लिए परीक्षक नहीं मिल सका. उस शोध छात्र ने अदालत का दरवाजा खटखटाया तो अदालत ने भी उसकी याचिका ख़ारिज करा दी थी. हिन्दी (और दूसरी भारतीय भाषाओं में भी यही होगा) शोध प्रबंध लिखने से पहले ही विभाग को ये देखना-सोचना पड़ा कि हिन्दी में लिखे गए शोध प्रबंध को जाँचने के लिए परीक्षक मिल पायेंगे कि नहीं. ये मैं विज्ञान विषयों के परिपेक्ष्य में बात कर रहा हूँ. हमें आज तक के वरिष्ठ पीढ़ियों में हिन्दी में शोध प्रबंध जाँचने के इच्छुक (इच्छुक इसलिए कह रहा हूँ क्यूँकि, इन वरिष्ठ पीढ़ियों के अधिकांश लोग विज्ञान विषयों के हिन्दी भाषा में हुए तकनीकी लेखन के जानकार हैं, जिन्होंने वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग के पारिभाषिक कोष दिए हैं) लोग ढूँढने पड़ रहे है पूर्व निर्धारित करने पड़ रहे हैं या अब सहज नहीं है वह एक कार्य में. पता नहीं जो कारण है."पोपुलर विज्ञान" हिन्दी में चल रहा है यद्यपि उसमें भी काफी काम की जरुरत है.
जवाब देंहटाएंजो बात मेवाड़ी जी ने कही है कि शोध पत्रिका प्रकाशित होने से पहले शायद यह भी जरूरी है कि उसमें प्रकाशित शोध पत्रों को अंग्रेजी में प्रकाशित शोध पत्रिकाओं के शोध पत्रों के बराबर ही महत्व दिया जाए। प्रायः शैक्षिक तथा अनुसंधान क्षेत्र में हिंदी में प्रकाशित शोध पत्रों को हेय दृष्टि से देखा जाता है और पदोन्नति आदि के समय उन पर तवज्जो नहीं दी जाती। यह दुराव दूर होना चाहिए। साथ ही यह भी जरूरी होगा कि हिंदी में परिश्रमपूर्वक स्तरीय शोध पत्र लिखे जाएं जिनका प्रकाशन से पहले विद्वान वैज्ञानिकों से निष्पक्ष पीअर रिव्यू कराया जाए। "
जवाब देंहटाएंये बात ही जब तक व्यवस्थागत लागू नहीं होगी, अंतर्राष्ट्रीय में तो नहीं जब तक देश के भीतर के इन हिन्दी में प्रकाशित शोध जर्नल का भी "इम्पैक्ट फैक्टर" नहीं होगा, तब तक हिन्दी और दूसरी भारतीय भाषाओं मौलिक शोध शुरू नहीं हो सकता. हमको यहाँ पर यह भी तैयारी करनी पड़ेगी कि विभिन्न प्रदेशों में स्थापित संस्थानो, विश्वविद्यालयों में नियुक्ति, पदोन्नति इत्यादि के समय विभिन्न भारतीय भाषों में प्रकाशित शोध पत्रों का मूल्यांकन-समीक्षा कैसे सुचारू और मानक तरीके से होगा? हमको विद्यालय स्तर, विश्वविद्यालय स्तर से ही व्यवस्था को अंग्रेजी के शिकंजे से मुक्त करके इसके लिए आधार भूमि बनाने की आवश्यकता है. सरकारी नीतियों में बदलाव के लिए अपील करनी पड़ेगी. हिन्दी में जो शोध जर्नल छपते हैं या छापे जा रहें हैं उनमें से बहुत ही कम के पास ISSN, जैसे मानक सूचकांक हैं, "इम्पैक्ट फैक्टर" तो दूर. मनीष गोरे जी ने कहा है कि "पीअर समीक्षित हिंदी विज्ञान शोध जर्नल प्रकाशित करना तो मामूली कार्य है।" यही पूरी तरह सच नहीं है, फिर उस जर्नल में प्रकाशित पत्रों को "इम्पैक्ट फैक्टर" वाले जर्नल में प्रकाशित शोध पत्रों से मुकाबले लायक बनाकर या उसके लायक होने पर भी वर्तमान व्यवस्था /नियमावली में स्वीकार करवाकर केवल उनके ही आधार पर अध्येतावृति, पोस्टडॉक् वृति, नौकरी इत्यादि पाना तो नामुमकिन ही है अभी की नियमावली अनुसार तो.पर जैसा राहुल राजेश जी कह रहे हैं वैसा कि हिन्दी में मूल शोध कार्य करना ही पड़ेगा.अगर सुधार लाना है, तो वह नितांत ज़रूरी है. नीतियों में बदलाव आने तक कुछ माध्यम मार्ग अपनाते हुए (कुछ हिंदी जर्नल में शोध प्रकाशित करते हुए, कुछ "हाई इम्पैक्ट जर्नल्स" में प्रकाशित करते हुए) अपने लक्ष्य (हिन्दी में मौलिक और मूल शोध करना)साधने के लिए कटिबद्ध रहना पड़ेगा.
लोग इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं. जिस शोध जर्नल का ज़िक्र आपने किया जो बी एस एन वी पी जी कॉलेज लखनऊ की विज्ञान परिषद् से प्रकाशित होती है (इसमें एक बार मैंने मध्य एशिया की पुराआर्द्रता सम्बंधित समीक्षात्मक लेख प्रकाशित किया था)वह इस दिशा में कई सकारात्मक और सफल कदम उठा चुके हैं. यह "अनुसंधान" नाम का जर्नल उस "विज्ञान" नाम की शोध पत्रिका से अलग है जो विज्ञान परिषद् प्रयाग से प्रकाशित होती है (पहला अंक 1930 का प्रकाशित है) और जिसका उल्लेख देवेन मेवाड़ी जी ने किया है.
रणधीर जी,
जवाब देंहटाएंअपनी टिप्पणी से अवगत कराने के लिए शुक्रिया.
हिंदी में शोध पत्र प्रकाशित हों और उनमें पीयर रिव्यु के माध्यम से पारदर्शिता लायी जाए, इससे मैं पूर्णतः सहमत हूँ. आधुनिक जगत में यह एक विद्यार्थी का अधिकार है कि उसे शिक्षा और शोध उसकी भाषा में मिले.
परन्तु हिंदी में इस व्यवस्था को लागू करने के लिए जो वातावरण चाहिए वो उपलब्ध नहीं है. यदि एक दो लोगों के बूते पर ही पीयर रिव्यु शुरू कर दिया गया तो उस व्यवस्था की सारी खामियां एक साथ हम पर आ पड़ेंगी. फिर, पीयर रिव्यु के लिए हिंदी आवश्यकता नहीं होनी चाहिए. अनुवाद का महत्त्व यहीं तो है. विज्ञान कोई साहित्य तो नहीं कि अनुवाद में विचार का ह्रास हो गया. हिंदी में विज्ञान लिखने वालों का कर्म अनूदित हो और फिर पीयर रिव्यु हो!
यदि अदालतें हिंदी थीसिस को सही नहीं मानतीं, लोग हिंदी के विज्ञान को हेय दृष्टि से देखते हैं तो उसके उचित कारण हैं. वो है भारतीय भाषाओँ का विज्ञान के प्रति आलस्य और अपना पिछलग्गूपना स्वीकार न करने की आदत. यहीं उस "मध्यम मार्ग" पर विचार करने की आवश्यकता है जो आप सुझा रहें हैं. मेरे विचार में तो मध्यम मार्ग अनुवाद ही है, जिसके बारे में मैंने लेख में बात की है.
अब आते हैं हमारे अपने मौलिक हिंदी शोध की बात पर. जिन जर्नल को इस बहस में सुझाया गया वे अंतरराष्ट्रीय मानकों और वैज्ञानिक बुद्धिमानी पर खरे नहीं उतरते. ये कोई ऐसी समस्या नहीं है जिसे सुलझाया नहीं जा सकता. कई लोग, जिन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ, विज्ञान में उत्कृष्ट लेख लिख सकते हैं. अगर पर्याप्त अनुवाद हो चुका हो तो शुरुआत लिटरेचर रिव्यु से की जा सकती है. समस्या ये है कि ये जर्नल उस स्तर पर जाकर सामग्री की अपील ही नहीं करते. नए शोध के साथ हमारी भाषा को ज़बरदस्त मार्केटिंग की भी आवश्यकता है. यदि इस प्रकार का कोई नया जर्नल उभरता है जो भारत के हर विश्वविद्यालय, शोध संस्थान और औद्योगिक इकाई पर जाकर सामग्री बटोरने के लिए समय, धन और श्रम खर्च करने को तैयार है तो मेरा श्रम और समय उपलब्ध है (धन की आसन्न अनुपलब्धता के कारण :D). क्योंकि इस प्रकार के प्रयास को पढने वालों की कमी तो नहीं होनी चाहिए.
समाज शास्त्र, कला की कौन सी पत्रिका है?
जवाब देंहटाएंवहां भी शब्दावली के अभाव का रोना?
मैं
जीन रोग भाषा रोमा लोग
लिख रहा हूं।
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Par hai.
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