मंगलाचार : दर्पण साह
















पिथौडागढ़ (उत्तराखण्ड) के दर्पण साह (जन्म : 3-09-1981) की कविताएँ देखें. लोकल और ग्लोबल के बीच हमारी युवा पीढ़ी की सहज आवाजाही है. इन युवा कविताओं में हिंदी कविता का नया मुहावरा आकार लेता दिखता है. 

  

 दर्पण साह की कवितायेँ               


डॉक्टर ज़िवांगो को पढ़ते हुए

(१)

जब विश्व समाज सुधार की बात कर रहा था
जब पूरे संसार में क्रांतियाँ हो रहीं थीं
जब सारे देश जल रहे थे
और जब
एक अनंत काल तक चलने वाले युद्ध की तैयारियाँ चल रही थीं
तब मैं प्रेम में था.

वो सब मुझे धिक्कार रहे थे
मेरे इस कुकृत्य के लिए.

मुझे तब भी लगा
प्रेम सारी समस्याओं का हल है.

मैंने एक वैश्या के होठों को चूमा
और एक सैनिक की चिता में दो फूल चढ़ाए.

मैंने एक भिखारी के लिए दो आँसूं बहाए
और फिर,
मैं एक अस्सी साल के बूढ़े के बगल में बैठकर बाँसूरी बजाने लग गया.
न मैं कृष्ण था न नीरो.






(२)

अगर वादा करते हो कि ये क्रांति अंतिम है
तो भी मैं प्रस्तुत नहीं हूँ इसके लिए
क्यूँकि मुझ देखने हैं इसके दीर्घकालिक परिणाम
अगर कहते हो
ये चैन से बैठने का समय नहीं
और सारे राजनेताओं,कार्परेटों ने छीन ली तुम्हारी रोटी
तो बताओ कहाँ से खरीदे तुमने हथियार ?

जो तुम्हारी आत्महत्याओं के जिम्मेवार थे
तुम बन रहे उनकी हत्याओं के जिम्मेवार
सत्ता में जब तुम आओग
तो क्या एक और क्रांति नहीं होगी
तुम्हारे खिलाफ?
अगर तुम धर्म की खातिर लड़ रहे हो
तो बोलो
तुम्हारे ईश्वर ने क्यूँ बनाए अन्य धर्म
तुम जैसे अच्छे लोगों को ड्रग्स की डोज़ दी है तुम्हारे ईश्वर ने

बोलो कहाँ लड़ा जा रहा है संपूर्ण विश्व के लिए युद्ध
ऑल इन्कलूज़िव
सर्वजन हिताय
है एक ऐसी जगह
लेकिन उसके लिए पहले
बाँसूरी बजाना सीखना होगा





.
फ्री विल

अगस्त का महिना हमेशा जुलाई के बाद आता है,
ये साइबेरियन पक्षियों को नहीं मालूम
मैं कोई निश्चित समय-अंतराल नहीं रखता दो सिगरेटों के बीच
खाना ठीक समय पर खाता हूँ
और सोता भी अपने निश्चित समय पर हूँ
अपने निश्चित समय पर
क्रमशः जब नींद आती है और जब भूख लगती है
इससे ज़्यादा ठीक समय का ज्ञान नहीं मुझे
जब चीटियों की मौत आती है, तब उनके पंख उगते हैं
और जब मेरी इच्छा होती है तब दिल्ली में बारिश होती है
कई बार मैंने अपनी घड़ी में तीस भी बजाए हैं
मेरे कैलेंडर के कई महीने चालीस दिन के भी गये हैं
मैं यहाँ पर लीप ईयर की बात नहीं करूँगा
मुक्ति और आज़ादी में अंतस और वाह्य का अंतर होता है.




.
कैफ़े कैपेचिनो

तेरा लम्स ऐ तवील कि जैसे कैफ़े कैपचीनो
ऊपरी तौर पर
ज़ाहिर है जो उसका
वो कितना फैनिल
कितना मखमली
यूँ कि होठों से लगे पहली बार वो चॉकलेटी स्वाद कभी
तो यकीं ही न हो
कुछ छुआ भी था
क्या कुछ हुआ भी था?
जुबां को अपने ही होठों से फ़िराकर
उस छुअन की तसल्ली करता रहा था दफ़'तन
कुछ नहीं और कुछ-कुछ के बीच का कुछ
एक जाज़िब सा तसव्वुफ़
तेरा लम्स ऐ तवील
और उसकी पिन्हाँ गर्माहट
जुबां जला लिया करता था
उस न'ईम त'अज्जुब से कितनी ही दफ़े
जब भी होती थी
पहली बार में कहाँ नुमायाँ होती थी वो
तेरा लम्स ऐ तवील
जिसका ज़ायका उसके मीठेपन से न था कभी
उम्मीदों की कड़वी तासीर हमेशा रही थी
बहुत देर तक
आज तक चिपकी हुई है रूह से जो
तेरा लम्स ऐ तवील
बेशक माज़ी की नीम बेहोशी का चस्मक
मगर जिसने ख्वाबों के हवाले किया हर बार
बस इख़्तियार नहीं रहता
इसलिए, उसे जज़्ब कर लिया
आख़िरी घूँट तक
वरना यूँ तो न था कि तिश्नगी कमतर हुई हो उससे
तेरा लम्स ऐ तवील
कि जैसे कैफ़े कैपचीनो

(लम्स-ऐ-तवील: दीर्घ स्पर्श, तिश्नगी: प्यास, तसव्वुफ़: mystical, 'अज्जुब: आश्चर्य, 'ईम: आनंद, चस्मक: Disillusion, जाज़िब-मनमोहक)




५.
फेसबुक भी उतना ही वर्च्युअल है जितना जिंदगी

जब से तुम जानते हो तभी से उस चीज़ का अस्तित्व होता है

दर्पण में बनने वाला प्रतिबिम्ब
वहाँ हमेशा ही होता है
कभी कनखियों से देखना
धीरे धीरे दबे पाँव जाकर
उसकी चोरी पकड़ लोगे तुम
तुम पहले से ही मौजूद थे वहाँ

आंसू की पहली बूंद इसलिए मीठी होती है
क्यूंकि उसका स्वाद होठों तक नहीं पहुंच पाता
कभी बस एक बूँद रोकर देखना

तुम जब घर में ताला लगा के घुमने जाते हो
गायब हो जाता है सारा सामान भी
कभी चुपके से बिन बताये आना
कुछ नहीं मिलेगा वहाँ
घर भी नहीं

कभी हुआ है ऐसा कि अनजाने में
तुमने दूसरी ही चाबी से खोल डाला ताला
कितनी ही बार तो हुआ है कि
तुम सोये घर में उठे ट्रेन की किसी बर्थ में
तुमने पूछा फिर तुम कैसे आये यहाँ
और किसी बहाने ने बनाई रखी कंटीन्यूटी

लॉकर में रखा सामान इतनी सिक्युरिटी के बावज़ूद
वहाँ तुम्हारे देखने के बाद ही उपस्थित होता है

तुम जानते हो कि तुम पचासवीं मंजिल से कूद नहीं सकते
इसलिए वहाँ से केवल मरने के वास्ते कूदते हो
वरना लियोनार्डो को कभी चोट न लगती
वरना कीड़े खाकर उड़ने लगती
न्यूटन की बहन

तुमने जाना है समय को
जैसा उन्होंने तुम्हें बताया
वरना तुम्हारे पास जीने के अनंत क्षण होते
तुमने जाना है रंग
वरना कोई लाल भी कभी लाल होता है भला
तुमने जाने हैं शब्द
इसलिए तुम्हें फूलों की नस्ल जाननी है
और उच्चारित करना है 'अवसाद'

तुम्हारे कोंस्पेट, तुम्हारा विज्ञान बड़ा रुढ़िवादी है

जैसे फेसबुक में कोई लाइक का बटन दबाये
और तुम आनन्दित होते हो
वैसा ही है तुम्हारा प्रेम
और ये बुरा नहीं
फेसबुक भी उतना ही वर्च्युअल है जितना जिंदगी

पानी का गीला होना ज़ादू नहीं अगर
तो हवा में लटके रहना भी असम्भव नहीं.
_________________

darpansah@gmail.com/+91 955-553 (2559)

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  1. दर्पण की लिखाई में रौशनी है. चमक नहीं, रौशनी भीतरी.

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  2. सुबह की ताजगी को और बढ़ा दिया दर्पण की इन कविताओं ने. प्रेम का अंडर करंट लिए इन कविताओं में एक आश्वस्त भविष्य है. जब प्रेम करने को ही समय नहीं है यह कवताएँ पूछ रही हैं बताओ कहाँ से खरीदे तुमने हथियार...मंगल कामनाएँ दर्पण के लिए..

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  3. वजन है हर तरह का कविताओ में !बधाई इस युवा दर्पण साह को !इनको मेरा सलाम पहुंचे अरुण देव जी !

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  4. अस्तित्व की तलाश करती पहली कविता कामू की अजनबी याद दिला गई...इन कविताओं को पढ़ना चन्डाक की पहाड़ी पर बैठ कर पूरे छितराये के शहर के अनोखे सोन्दर्य को लम्बी बहसों के बीच आत्मसात करने की तरह लगा .आभार

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  5. achchhaa lagaa ! hamaare sampaadak idhar dhyaan de^ , aisee rachanaae^ khoje^

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  6. हाँ , ये नयी पीढ़ी का expression है . केपिचीनो के स्वाद में डूबी, कॉर्न स्टार्च कन्ज्यूम करती हमारी नस्लें हैं - पानी का गीला होना ज़ादू नहीं अगर
    तो हवा में लटके रहना भी असम्भव नहीं...हस्बेमामूल चलती जिन्दगी में ख्यालों की रोशनी का इस्तेकबाल . बधाई कवि को .

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  7. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  8. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 30/10/2014 को चर्चा मंच पर चर्चा -1782 में दिया गया है
    आभार

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  9. Ji her rachna behaatareen pahli kavita mujhe lajawaab lagi..... Ekdum superhit !!

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  10. Insightful ,profound ,titillating with the latent intensity of giving goosepimples are some of the sparkling traits that mark his poetry .Much ahead of his age and times ,with its global appeal his poetries have a long way to go ..,.. Wish Darpan Sah success in all his future endeavour :-)

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  11. दर्पण की कविता मुझे मेरे वक़्त की कविता की परिभाषा लगती है... प्योर और इंटेंस! आज के युवा के दृष्टिकोण को उकेरती. उसकी कविताओं को पढ़ना यानी 'रीडिंग बिटवीन द लाइंस'. असंतोष, पलायन और अवसाद का स्वीकार्य.
    दर्पण को बधाई !

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  12. जैसा की बाबुशा ने कहा... "रोशनी...'

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