महान कविताएँ धर्मग्रंथ बनने के लिए अभिशप्त हैं. इन महान शापित
कविताओं ने हमारे बोध को गिरवी बना लिया
है. वे इतनी ताकतवर हैं कि स्वीकृत पाठ के इतर उनके अन्यान्य पाठ के अन्वेषण का
प्रयास आत्मघाती साबित होता है. यह रामचरितमानस के साथ हुआ है और अब कबीर के साथ हो रहा है. कविता की
कोई किताब घर-घर पहुंच जाए यह उसकी ताकत है पर उसे केवल बांचा जाए ‘पढ़ा’ न
जाए यह हमारी आस्था का आतंक है.
आस्था के इस आतंक से जूझते हुए इन पवित्र पोथिओं के समाज
वैज्ञनिक और साहित्यिक अध्ययन के प्रयास भी चल रहे हैं. युवा अध्येयता सर्वेश
सिंह ने रामचरितमानस में शैव और वैष्णव
द्वंद्व को काशी और प्रयाग की स्पर्धा के रूप में देखा है और एक साहित्यक
कृति के रूप में इसे समझते हुए राम, सीता
और रावण के ‘प्रेम त्रिकोण’ का आख्यान प्रस्तुत किया है. बहस – मुबाहिसे के लिए आप
सब का आमंत्रण है.
रामचरितमानस : पाठ, अंतरपाठ
सर्वेश सिंह
मंगलानां च कर्तारौ वंदे वाणी विनायकौ .
इसीलिए ऐहतियातन कविता व कथा की सुचिंतित परिकल्पना के साथ वे आगे
बढ़ते हैं.जायसी की तरह शाह-ए-वक्त तथा किसी पैगम्बर की स्तुति उन्हें गंवारा
नहीं. वे वर्ण और अर्थ के सांसारिक देवता ‘गुरू’ की वंदना पद्य हेतु
चाहतें हैं- ‘बंदऊ गुरू पद पदुम परागा.’ ज्ञान-दाता गुरू के प्रति यह समर्पण स्वाभाविक है.किसी को यह
सामंती-प्रवृत्ति का प्रतीक लगे तो क्या कहा जाए.
दरअसल, हर युग में ज्ञान के उत्सर्जन के
विभिन्न केंद्र होते हैं. तुलसी के समय काशी और प्रयाग ज्ञान के दो प्रतिद्वंदी
केंद्र रहे हैं. इतिहास में ऐसा पढ़ा जा सकता है. काशी में शैव विचार प्रबल थे तो
प्रयाग में वैष्णव. वामाचार ने शैवागम में कुरीतियां भरी जिसका केन्द्र काशी बना. उधर प्रयाग में
वैष्णव एक प्रगतिशील विचार के रूप में प्रसार पा रहा था. तुलसी लोकहित में इसी
ज्ञान की संभावना देखते हैं और उसके प्रसारण का संकल्प करते हैं, किन्तु दूसरे की निंदा के बगैर. जाहिर है वे दोनों का समन्वय दिखाते हुए
भी एक की प्रगतिशीलता हमेशा ऊपर रखते हैं और वह है- प्रयाग की ज्ञान-राशि.
मध्य-काल में, सतह पर चल रही यह लड़ाई मानस में अदभुत
ढंग से चित्रित हुई है.
बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं..
प्रभु ताते उर हतइं न तेही. एहि के ह्रदय बसत वैदेही.
एहि के ह्रदय बस जानकी जानकी उर मम वास है.
मम उदर भुवन अनेक लागत बान सब कर नास है.
काटत सिर होइहि विकल छुटी जाईहि तव ध्यान.
तब रावनहि ह्रदय महुं मरिहहिं रामु सुजान.
रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फणीश.
गर्जेउ मरत घोर रव भारी.कहाँ राम रन हतौं पछारी..
डूबने के लिए जिंदगी चाहिए.
सर्वेश सिंह
बहुरि बंद खल गन सत् भाएँ. जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ..
क्या आप तुलसीदास के रामचरितमानस के लंकाकाण्ड की चौपाई- ‘प्रभु
ताते उर हतईं न तेही. एहि के ह्रदय बसत वैदेही.’ से
रूबरू हैं? यह राक्षसी त्रिजटा है, जो सीता से कहती है कि ‘राम, रावण के ह्रदय में, बाण इसलिये नहीं मार रहे क्योंकि उसमें सीता बसती हैं’. जबकि हम सब यही जानते और मानते हैं कि नाभि में अमृत होने की
वजह से रावण मर नहीं रहा था. मुझे लगता है कि ऐसी ही अन्य कई गुमनाम चौपाइयों, दोहों और सोरठों से मानस में कथात्मक यथार्थ का जो एक अलग और वास्तविक
अर्थ-वलय बनता है उसे जाना जाए. दरअसल, आलोचकों और
कथा-वाचकों ने हमारे आँखों में अपने अर्थ की पट्टी बाँध दी है. एक अदभुत कथा को
खींच-तान कर लुगदी बना दिया गया है. कवियों पर उसका गहरा प्रभाव बना रहा. छायावादी निराला को इसने अत्यंत प्रभावित किया जिसका
परिणाम राम की शक्तिपूजा है,पर आगे हम देखेंगे कि यह मानस से अधिक यथार्थवादी
कविता नहीं है. खैर, त्रिलोचन भी कहते हैं- ‘तुलसी बाबा मैंने कविता तुमसे सीखी’.
दरअसल, प्रगतिवादी दौर
में इस ग्रन्थ की लोकप्रिय सत्ता को जबदस्त चुनौती मिली. मानस के विचार-पक्ष को
प्रश्नांकित किया गया. इसमें सामंती मूल्यों का साहित्यिक-संस्थायन देखा गया. कुछ
आलोचकों ने इसे धर्म-ग्रन्थ घोषित कर दिया. मुक्तिबोध जैसे कवि-आलोचक ने मानस को पतनशील कविता बताया तथा इसकी आधुनिक
प्रासंगिकता पर सवाल खड़े किये. आज भी, रामचरितमानस एक
अत्यंत विवादास्पद कविता के रूप में हमारे सामने है. हिन्दी की दलित एवं स्त्री
धारा में यह उपेक्षित है. दलित गुटों ने तो इसे सार्वजनिक रूप से जलाया भी है. स्त्री-विमर्श में भी
यह विरोध की प्रमुख किताबों में है. स्कूलों एवं विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों
से मानस के अंशों को धीरे-धीरे हटाया जा रहा है. क्या सचमुच मानस की कविता की
अर्थवत्ता हमारे समय में खत्म हो चुकी है? भारत
की अधिकाँश जनता को जिस कविता ने अभी भी एक भाव-धारा में बाँध रखा है क्या उसका
साहित्यिक और सामाजिक मूल्य अब कुछ नहीं है? क्या मानस
धर्मान्धता का प्रचार करने वाली एक खतरनाक पुस्तक है जिसे मंदिरों तक ही सीमित
रहने देना चाहिए? क्या वह हिंदू-जिहाद का प्रचार करने
वाली आसमानी किताब है? सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे.
अरथ अमित अति आखर थोरे. का रचनात्मक आदर्श रखने
वाला काव्य-ग्रन्थ रामचरितमानस क्या आज प्रासंगिक नही है?
इन प्रश्नों को मुट्ठी में भीचे, सहमा-सा मैं मानस के नजदीक गया. पढ़ा और गुना - सांगोपांग. फिर, भीतर-बाहर के अंतर्ज्ञान ने एक व्यापक बोध भी मिला. अतीत एक अत्यंत महीन
छन्नी है, उसमें से वही छन कर वर्तमान में आता है जो
प्रासंगिक होता है. और तब मैंने पाया कि मानस अभी भी लोक कंठ में मौजूद है- ऐक्य
रचती भाव-धारा के रूप में. तो क्या हम शिक्षित लोग ही उसे गलत तरीके से पढ़ रहे
हैं ? जबकि, मैंने पढ़ा, तुलसी साफ़-साफ़ कह रहे हैं- ‘उभय अगम जुग
सुगम नाम तें. कहेहुँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें.’ यानी ब्रह्म से मुझे मतलब
नहीं, नाम-रूप धारी सृष्टि में मैं नाम को अपनाता हूँ.
और यह नाम भक्त के मन में सामाजिक सक्रियता की आग है. आप मानस ध्यान से पढ़े तो
जरूर लगेगा कि उनकी चिंता ब्रह्म आदि धार्मिक-आध्यात्मिक प्रश्नों से उतनी नहीं
जितनी संसार और लोगों की रहनी से है. वे इसी चिंता और संकल्प से मानस को लिखते
दीखते हैं. यह झूठी सोच है कि क्षरते वर्ण धर्म से उत्पन्न क्षोभ और संशय ने यह
उनसे लिखवाया. इसलिये, मेरी विनती है कि ‘दाहिने-बाएँ’ की खलता छोड़ व शंका
त्याग मानस को फिर से और ध्यान से पढ़ा जाय.
सो सब हेतु कहब मैं गाई. कथा प्रबंध विचित्र बनाई
सर्वप्रथम, मेरे
मत में, मानस मूलतः एक साहित्यिक ग्रन्थ है अतः उसे उसी
निगाह से पढ़ना और मूल्यांकित करना चाहिए. अधिकांशतः तो तुलसी खुद समझ की डोर
पकड़ा देते हैं, पर कहीं-कहीं खुद अपने विवेक का भी
प्रशिक्षण करना पड़ता है. मानस का आरम्भ ही होता है-
वर्णानामर्थसंघानाम रसानां छंदसामपि .
अर्थात वर्ण और अर्थ का संघनन. और यही भामह कहते हैं- ‘शब्दार्थौ
सहितौ काव्यम. और यही पश्चिम का आलोचक भी कहता है-best words in best order
with profound meaning. थोडा अलग हटकर, वाणी के देवता की वंदना है किन्तु वंदना तो अहमन्यता, अहंकार का तिरस्करण है. कबीर और तुलसी में शायद यही बुनियादी अंतर है.
आँखिन की देखी का सात्त्विक अहंकार है कबीर में और इसी से उनकी कविता भक्ति को एक
सीमा के बाद खुन्नस में बदल देती है, जिसके
प्रतिक्रियात्मक रूप सकरात्मक एवं नकरात्मक दोनों हैं. हालाँकि स्वयं तुलसी कबीर
को अपना संगी ही मानते हैं- अगुनहिं सगुनहिं नहिं कछु भेदा.
मानस के रूप में कोई उपनिषद या दर्शन-ग्रन्थ लिखने का भाव
उनका नहीं है. उनका संकल्प भनिति विचित्र सुकवि कृत है. अर्थात वे कविता या साहित्य की रचना में
प्रवृत्त होते हैं. इसीलिए, साहित्येतर उलझनों के शमन
हेतु तुलसी समझ के निर्णायक सूक्ष्म सूत्र रचते हैं. ये सूत्र-चौपाइयां बालकाण्ड
के बत्तीसवें दोहे के बाद शुरू हो जाती हैं. ये मानस के साहित्यिक, कथात्मक स्वरुप की घोषणा करती महत्त्वपूर्ण चौपाइयां हैं. यथार्थ के
कथात्मक-प्रस्तुतीकरण का ये एक मेयार गढ़तीं हैं. इन्हें ध्यान से पढ़े तो तो
तुलसी के कथाकार-मानस की सही समझ होगी. तुलसी इनमें कथा-शिल्प की बात कर रहे हैं- ‘सो सब हेतु कहब मैं
गाई.कथा प्रबंध विचित्र बनाई..’ आज का कथा-शिल्पी
भी यही निवेदन करता है पाठक से.
तुलसी इनमें ठीक वही बात कर रहे होते
हैं जो आजकल की फिल्मों या उपन्यासों के आरम्भ में लिखी होती है कि– यह घटना काल्पनिक है, किसी जीवित य मृत व्यक्ति से इसका कोई सम्बन्ध नहीं....और कथा को अलौकिक
या यथार्थातीत घोषित करना यथार्थ से पलायन नहीं अपितु उसकी काल-सीमा का अतिक्रमण
करना है. कथा-काल के संदर्भ में, अज्ञेय, ‘अपने बारे में ’ में ‘क्रमहीन सह्वर्तिता’ की जो चर्चा करते हैं, तुलसी वही धारणा रख रहे
हैं. हर रचनाकार की चिंता होती है कि उसकी कृति शाश्वत वर्तमान में जिन्दा रहे. अतः’राम’ और ‘अवतार’ शब्द को ही मत पकड़िये, ‘नाना भांति’ पर भी ध्यान रखिये. धर्म या अध्यात्म की बात होती तो किस्सागोई के
सिद्धांत रचने की आवश्यकता उन्हें न थी. वे कथा सुनाना चाहतें हैं कविता में वो भी
लोक भाषा में.इसलिये सशंकित भी हैं.वह लोकप्रिय होगी या नहीं इसका अंदेशा भी
उन्हें है- ‘राम
सुकीरति भनिति भदेसा. असमंजस अस मोहि अंदेसा
कविता की रचना प्रक्रिया भी वे स्पष्ट कर देते हैं. यहाँ
किसी संशय या बाहरी प्रभाव का निषेध है. यह मुक्तिबोध के ‘वाह्य के
आभ्यांतरीकरण’ की प्रक्रिया-सी ही है.- ‘ह्रदय सिंधु मति
सीप समाना.स्वाति सारदा कहहि सुजाना ../ जौ बरषई बर बारि विचारू.होहिं कवित
मुकुतामनि चारु.’ अदभुत है कि ठीक यही
प्रक्रिया कबीर की भी है- ‘पिंजर प्रेम प्रकाशिया अंतस भया उजास.मुख कस्तूरी महमई वानी फूटी बास’
इस कविता का लक्ष्य भी स्पष्ट है. राम का केवल नाम भर हैं, वो भी दाल में छौंके की तरह. असली मंशा है- ‘मोरे मन प्रबोध जेहि
होई’, ‘मंगल करनि कलिमल हरनि’. सती भी शिव से वही कथा सुनना चाहतीं हैं जो ‘सकल लोक हितकारी ’ है. ‘सुरसरि सम सब कर हित होई’ से भी यही
स्पष्टहै.
तो फिर मानस के रचाव व अर्थ पर इतना घमासान क्यों है ? दरअसल इसका कारण हमारे स्वनामधन्य आलोचक-गण हैं. एक प्रवृत्ति सी बन गई है
कि ‘तुम
कितना ही चीखो-चिल्लाओ,हम तो अपने मन की ही सुनेगें.’ तुलसी बार-बार विनय से कह
रहे है कि यह एक काव्य-कथा है कोई एजेंडा नहीं, इसमें कुछ रस है तो ले लो नहीं तो
यही मान लो कि- ‘कवित विवेक एक नहिं मोरे’
तुलसी,विनयवत ही,कविता में समाज को रोपते हैं. कविता को एक ‘सामाजिक स्थिरांक’ बनाते हैं.कहने को कह लें
की इस विनय की भी एक राजनीति है. किन्तु यह गाँधी-सी राजनीति है. शब्दों के सहारे
सामाजिक विन्यास को उलटती-पुलटती यह अदभुत शै है जो चमत्कृत करती है. मानस के अंतस
में एक निर्णायक संघर्ष का विन्यास है जो ऊपर के बजबजाते पानी के शोर में सुनाई
नहीं देता. मानस में अंतर्गुम्फित यह संघर्ष बेजोड़ है और बेजोड़ है तुलसी का
रण-कौशल. यह संघर्ष है- मर्यादा और अमर्यादा के बीच, शुद्ध
और अशुद्ध भावना व विचार के बीच, सहज और प्रपंची भक्ति
के बीच, सरल और जटिल जीवन दर्शन के बीच. निर्गुण व सगुण
अथवा कबीर और तुलसी के बीच नहीं बल्कि यह संघर्ष है ज्ञान के दो महान भारतीय
केन्द्रों – प्रयाग और काशी के बीच. मानस,अपने समय में, काशी-केंद्रित
ज्ञान का परिष्करण करने वाली और कुछ अंशों में उसका विरोध करती, एक अद्वितीय कथात्मक-कविता है.
मानस के अर्थ की यही अंतर्धारा है.शब्दों में छुपे इस भाव
को, इस तनाव को,आपको महसूस
करना पड़ेगा.मानस की बहिर्धारा में आपको सिर्फ राम,शिव,या रावण दिखाई देंगें.एक जादुई लोक दिखाई देगा; भक्ति और धार्मिक प्रत्ययों से भरा हुआ. किन्तु असली यथार्थ, बीच में भी नहीं,सतह पर है. प्रयाग में, नदियों के संगम से प्रेरित तुलसी यहाँ शुभ विचारों के संगम,और अशुभ विचारों के निस्तारण में तल्लीन हैं.बालकाण्ड के पहले दोहे के बाद
ही प्रयाग के ज्ञान राशि की महिमा का वर्णन शुरू हो जाता है –‘मुद् मंगलमय संत
समाजू .जो जग जंगम तीरथराजू’ प्रयाग के संत-समाज
में यह ‘करम-कथा’ साकार होती है. तुलसी इसी स्वर को सहानुभूति,गहराई व
व्यापकता देते हैं.भरद्वाज प्रयाग में रहने वाले अपने समय के प्रसिद्ध वैष्णवी ऋषि
हैं –‘भरद्वाज
मुनि बसहिं प्रयागा. तिन्हहिं राम पद अति अनुरागा’ वे
तब के सर्वमान्य ऋषि याज्ञवल्क्य से विष्णु-गुण-अंशी राम के बारे में प्रश्न पूछते
हैं और इस तरह तुलसी उनके माध्यम से तब के प्रगतिशील प्रयाग-स्कूल की मान्यताओं का
कथात्मक-संस्थायन करते है.
भरद्वाज के ये प्रश्न टेढ़े है.बालकाण्ड के तैंतालिसवें
दोहे के बाद ये पढ़े जा सकते हैं. ये प्रश्न ‘प्लांटेड’ हैं. कुछ इस तरह कि- ‘सोपि राम महिमा
मुनिराया. शिव उपदेश करत करि दाया ..अर्थात पवित्र काशी
के धारक जो शिव स्वयं ज्ञान-गुन संपन्न है वे भी राम की भक्ति करते हैं. आखिर वे
राम कौन हैं? याज्ञवल्क्य इसका जो उत्तर देते हैं वही
मानस-कथा है.
पूरी कथा में राम के विराट रूपक की ओट में शैवागम-प्रसूत
तथा अन्य अनर्गल धार्मिक,सामाजिक विचारों का निरसन है जिसका
केन्द्र उस समय काशी बना हुआ था. हो न हो, इस वजह से ही
मानस का काशी में तात्कालिक तीव्र विरोध हुआ हो . और यह विरोध सांकेतिक नहीं था
अपितु तुलसी के प्राण दाँव पर लगे थे.किन्तु तुलसी डटे रहे.कवितावली में तो यहाँ
तक कह गए कि- ‘काहू की बेटी से बेटा न बिआहिब/माँग के खाईब/मसीत में सोइब’. अंततः मानस की लोक स्वीकृति के आगे काशी को घुटने टेकने पड़े तथा
राम-नाम के सहारे स्वच्छ सामाजिक संस्कारों का बीज बोती प्रयाग की ज्ञान धारा
अविरोध प्रवाहित होने लगी.शिव-त्रिशूल पर खड़ी काशी से औघड़ों का निष्कासन हुआ और
राम-राम कहते हुए हृदय एक दूसरे के नजदीक आये.
याज्ञवल्क्य शिव-पार्वती आख्यान से कथा शुरू करते हैं.
मानस में यह कथा भी सोद्देश्य है. आँखे खोल कर देखें तो यहाँ राम की प्रभुता को
शिव द्वारा स्वीकृत करवाया जाता है. शिव विवाह आदि प्रसंगों के माध्यम से शैवत्त्व
की गरिमा को घटाया जाता है तथा उसके लोक रंजक, कदाचित, अगंभीर रूप की निर्मिति की जाती है. कथा-स्थापना के क्रम में सर्वप्रथम
शिव को परम राम भक्त के रूप में निरुपित किया जाता है. कुम्भज ऋषि से सुनी राम-कथा
के बाद उनकी स्थिति ‘सुनी महेश परमसुख मानी’ तथा ‘कही संभु अधिकारी पाई’ और ‘कहत सुनत रघुपति गुन
गाथा ’ जैसी हो जाती है. तत्पश्चात राह में जाते हुए सीता के वियोग में घूमते
राम-लक्ष्मण को देखकर सती के मन में संदेह होता है. शिव मना करते हैं किन्तु सती
परीक्षा लेती हैं और असफल हो लौट आतीं हैं.किन्तु शिव सती के इस कृत्य को स्वीकार
नहीं कर पाते- ‘जौ अब करहुं सती सन प्रीती.मिटई भगतिपथु होई अनीती ..’. अंततः
नीलकंठ शिव, राम भक्ति की गरिमा की रक्षा हेतु, सती-सी पत्नी के परित्याग का संकल्प लेते हैं- ‘एहिं तन सतिहि भेंट मोहि
नाही.शिव संकल्प कीन्ह मन माहीं..’.स्वभाव से कठोर शिव-ज्ञान
को यहाँ मृदु राम-भक्ति के सामने झुका दिया जाता है,और वो भी
एक बड़े बलिदान के साथ.
किन्तु तुलसी के लिए इतना ही काफी नहीं था. काशी के
सामाजिक-सांस्कृतिक दबाव को वे समझते थे. राम को अभी और जमाना था उन्हें.शिव की
सामाजिक धार्मिक सत्ता इतनी कमजोर न थी. अतः जरूरी था शिव-मूर्ति पर और काले
धब्बों का. इसके लिए वे शिव-विवाह का प्रसंग रचते हैं, जिसकी मानस की कथा में कोई आवश्यकता न थी. विवाह एक सामाजिक प्रथा है, तुलसी शिव को बीच जनवासे में बेपर्दा करते हैं. शिव की बारात में सारे देव
गण शामिल हैं.सब साथ चलते हैं कि अचानक विष्णु का यह कथन अचंभित करता है- ‘विलग विलग होई चलहु
सब निज निज सहित समाज.’ जब सब अलग हो जाते हैं तो शिव-गणों का दृश्य कुछ यों दिखता है- ‘कोऊ मुख हीन विपुल
मुख काहू . बिनु पद कर कोऊ बहु पद बाहू ../ विपुल नयन कोऊ नयन विहीना . रिष्टपुष्ट
कोऊ अति तनखीना ..’
मानस में यह अपूर्व वर्णन है. कालिदास में भी यह साहस न
था. कई पंक्तियों में वर्णित शिव के बारातियों का ऐसा वीभत्स चित्रण है की
जिसका कोई सानी नहीं. सारा नगर देख के डरा हुआ है. लोग हिमवंत की बुराई करते हैं
कि कहाँ से बारात बुला ली. ऐसी सामाजिक निंदा कि शिव जैसा वर किसी को न मिले. यह
खबर स्त्री-समाज में भी फैलती है.स ती की माँ मैना मूर्छित हो जाती हैं. होश आने
पर उनका स्वर अत्यंत दारुण है. उसी कांड के ९५ वें दोहे के बाद उनका प्रचंड विलाप
शुरू होता है- जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा. तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा..भले
ही अपजस हो,सती को लेकर जल मरें, किन्तु
मैना यह विवाह नहीं चाहती.ऐसा लगता है कि जैसे स्वयं सती का मन भी डिगा हुआ है.
किन्तु एक भारतीय नारी की तरह वे वर को स्वीकार कर लेतीं हैं- ‘जनि लेहु मातु कलंकु
करुना परिहरहु अवसर नहीं. दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं.. और जैसी की परंपरा है सारा स्त्री-समाज दुःख को घोंट जाता है-
‘सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं.
इसके विपरीत राम-विवाह का वर्णन शोभातीत है. केवल एक
दृश्य देखें- ‘चढ़ी अटारिन्ह देखहि नारी.लिए आरती मंगल थारी/ गावहिं गीत मनोहर नाना.अति
आनंदु न जाई बखाना.’
शिव-मूर्ति-भंजन का यह खेल तुलसी यहीं खत्म नहीं करते.
आगे धनुष भंग प्रसंग में भी तुलसी शक्ति-सामर्थ्य के आधार पर शिव को एक इंच और
छोटा करते हैं. और इस लपेटे में परमवीर परशुराम भी आ जाते हैं. शिव-धनु, शिव के अजित शक्ति का प्रतीक था.किन्तु उसे राम बात ही बात में तोड़ देते
हैं-‘लेत चढ़ावत खैचत गाढ़े.काहु न लखा देख सब ठाड़े.’ किसी ने देखा भी नहीं और धनुष टूट गया.और इस पर तुलसी की खुशी देखें- ‘कोदंड खंडेऊ राम
तुलसी जयति वचन उचारही.’ सारे जन,देव भी, इस पर
खुश हैं-‘देखि लोग सब भये सुखारे.’ ठीक इसी समय परम शिव-भक्त
और पराक्रमी परशुराम का प्रवेश होता है.आते ही वे शिव-धनु-भंजक का नाम पूंछते हैं.
तुलसी का कथा-सेंस देखें कि वे परशुराम के मुकाबले
लक्ष्मण को खड़ा कर देते हैं.कुछ इस भाव से की तुम्हारे लिए तो यही काफी है! और
अपने समय के महान योद्धा को लक्ष्मण खुली चुनौती देते हैं- ‘इहाँ
कुम्हडबतिया कोऊ नाहीं.’ न केवल चुनौती अपितु उस
शिवभक्त को सरे दरबार अपमानित भी करते हैं- ‘मन मलीन तन सुन्दर कैसे.
विष रस भरा कनक घट जैसे’ लक्ष्मण को कोई चुप नहीं कराता. केवल मीठे संकेतों में राम ‘नयन तरेरे’ हैं. परशुराम को तुलसी एक
भारी दबाब भरी स्थिति में ला खड़ा कर देते हैं.लोग उन्हें हँसते हुए देखते हैं.
सारे राजा-गण तटस्थ हैं. परशुराम कुछ देर तक अपना फरसा पटकते हैं किन्तु वे मन से
हारने लगते हैं. अब अंतिम चोट स्वयं राम करते हैं.लगभग धमकी भरे स्वर में कहते
हैं- ‘जौ
तुम औतेहु मुनि की नाईं. पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं ..’और
मन से हारे वीर को बाद में राम कुछ मधुर वचन कहकर खुश करते हैं तथा उसे उसके नए
कर्म क्षेत्र -तपोवन- की ओर विदा करते हैं-‘कहि जय जय जय
रघुकुलकेतू . भृगुपति गए बनहि तप हेतू ..’ इस तरह शिव और एक परम वीर
शिव-भक्त का बालकाण्ड में ही करुण अवसान हो जाता है तथा राम की शक्ति-सामर्थ्य का
डंका डिम-डिमाने लगता है.
इस प्रकार धनुष-भंग और विवाह रूपी सामाजिक संस्कार का
प्रसंग निर्माण कर तुलसी शिवत्व को अगम अगोचर ही नहीं अपितु कड़े शब्दों में कहें
तो अशक्त,निर्वीर्य और असामाजिक बना देते हैं. और
फिर तुर्रा ये कि उन्हीं के मुँह से राम की लोक रक्षक एवं मर्यादा पुरुषोत्तम की
छवि निर्मित कर देते हैं. ‘शिव द्रोही मम दास कहावा ’ जैसी पंक्तियाँ केवल
संतुलन हेतु हैं.शिव-छवि को जहाँ मेटना था उसे वहाँ मेटा जा चुका होता है मानस
में. बाद में मानस में प्रयाग के उसी वैष्णवी ज्ञान का काव्यायन है जिसे तुलसी
प्रगतिशील समझते हैं. स्वयं शिव से कथा कहलाकर तुलसी इसका स्थापन करते हैं. इस तरह
राम ‘वर’ और शिव ‘अवर’ के रूप में इन प्रसंगों
का शमन हो जाता है. आगे शिव मानस कथा की व्यास गद्दी के वरिष्ठ महंत से अधिक नहीं
नजर आते- ‘महामंत्र
जोई जपत महेशू. काशीं मुकुति हेतु उपदेशू..’.
और तब यह आकस्मिक नहीं कि राम के वन गमन प्रसंग में
प्रयाग पहुचने पर तुलसी का शाब्दिक आह्लाद देखते ही बनता है- ‘को कहि
सकई प्रयाग प्रभाऊ. कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ'’और भरद्वाज
से उनका मिलन प्रसंग तो अदभुत है-‘मुनि मद मोद न कछु कहि
जाई. ब्रह्मानंद रासि जनु पाई.’ इतना ही नहीं, राम से चित्रकूट मिलने जाते भरत का भारद्वाज से विशेष मिलन-प्रसंग भी
तुलसी ने रचा है. यह वर्णन भी सोद्देश्य है. किंकर्तव्यविमूढ़ भरत के मन को
भारद्वाज पूरी तरह राम-भक्ति में सान देते हैं तथा भरत का चरित्र तीरथराज प्रयाग
की कृपा से और भी तीव्रतर अग्रसर होता है.
मुझे तो लगता है की उत्तर-कांड का कलि-वर्णन-प्रसंग भी
काशी के जन जीवन का ही चित्र है. कवितावली में भी तुलसी का मन इसी दुश्चिंता से
भरा हुआ है.शिव के नाम पर काशी की ज्ञान-राशि पर सवार इस व्यभिचार पर तुलसी प्रयाग
की ज्ञान-कुठार से कठोर हमला करते हैं तथा विकल्प रूप में वैष्णवी राम के मर्यादित
चरित्र की स्थापना करते हैं. यह प्रयाग स्कूल की ऐतिहासिक विजय थी.बिना ललकारे और
बिना लड़े.घरों,मंदिरों में अहर्निश शुरू हुए
राम-कीर्तनों ने सजीव शिव को कैलाश में बर्फ-समाधि दे दी.वे दुरूह भक्ति की चीज बन
गए.सरसता राम के हीस्से आई.यह युगीन आवश्यकता भी थी.
प्रभु ताते उर हतईं न तेही.एहि के हृदय बसत वैदेही
मानस में राम-रावण के बीच की लड़ाई का चित्रण भी उतना
मिथिकल नहीं,जितना की समझा जाता है. यह
मनोवैज्ञानिक है. यह कहीं-कहीं निराला की शक्तिपूजा को भी पछाड देता है. वस्तुतः, पुराकथा के हर संभव लौकिकीकरण का प्रयास मानस का मूल संघर्ष है. तुलसी कुछ
पंडित को देते है तो कुछ पाठक और आलोचक को भी. समझ में न आने वाले धार्मिक और
भक्तिपरक प्रत्यय मानस में जरूर हैं. पर मेरा यह निश्चित मत है काव्य-कथा में
लौकिक मनोवैज्ञानिकता की धारा अटूट है. रावण वध का अदभुत मनोवैज्ञानिक प्रसंग
देखें. बार बार सिर में बाण मारने से भी रावण नहीं मरता. चिंतित,भाग्य की मारी, सीता त्रिजटा से कहती हैं—‘मोर अभाग्य जिआवत ओही. जेहि हौं हरि पद कमल विछोही ..’
सीता को चिंता है कि रावण मरेगा कैसे ? राम के बाण उसके सिर में लगते हैं,किन्तु वह जीवित
बचा रहता है.सीता विधि तथा अपने अभाग्य को दोष देती हैं.इस प्रसंग में निराला
शक्ति को रावण के साथ खड़ा देखते हैं.किन्तु तुलसी के सामने अजीब असमंजस है.एक तरफ
सुर-असुर की चमत्कारिक कथाएँ हैं तो दूसरी ओर उनकी साहित्यिक दृष्टि. लोक में, नाभि में अमृत की स्मृति है तो तुलसी के सम्मुख मिथकों के विपर्यय व नयी
उद्भावना का दबाव.फलतः वे एक अनोखा विन्यास रचते हैं. यकीन मानिए,ये काव्यांश आपको चौका सकता है.अतः इसे पूरा पढ़े.त्रिजटा सीता से कहती है-
कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी. उर सर लागत मरई सुरारी.
शायद इन चौपाइयों की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया. तुलसी
की यह अदभुत अभिव्यंजना है.रावण मर नहीं रहा या राम उसे मार नहीं रहे क्योंकि उसके
हृदय में जानकी का प्रेम है.रावण उसी शक्ति से लड़ रहा है.कोई दुर्गा नहीं अपितु ‘ध्यान की
देवी’ ने उसे
अपने अंक में धारण कर रखा है. वह अपने शक्तिशाली आत्म में है. अहंकार में नहीं, ‘पीर’ में है.अतः उसका ध्यान-भंग जरूरी है और इसीलिए राम उसे बार बार घायल कर
रहे हैं-ध्यान-च्युति हेतु.क्योंकि मारना दिल में है.और दिल में सीता हैं. अजीब है
धनुर्धर राम की मनःस्थिति ! शत्रु अब अकेला बचा है.किन्तु मारने की दुविधा
है.मारना ह्रदय में है, किन्तु घात सिर पर रावण के बल
से अभिभूत हैं राम शायद.एक स्त्री की कामना से युक्त दुर्निवार-योद्धा. मायावी
राक्षस किन्तु अडिग.अकेला बचा,मूर्क्षित,सारथी युद्ध-क्षेत्र से भगा लाया,किन्तु पुनः वापस आ
राम को ललकारता हुआ.
वध का एक नैतिक संकट.प्रचंड प्रेमाकुल योद्धा रावण के
सामने संयमी राम किंकर्तव्यविमूढ़ ! और तब तुलसी उस मिथक को बीच में लाते हैं.
रावण के न मरने पर राम विभीषण की ओर देखते हैं.और तब विभीषण वह रहस्य बताते है-‘नाभिकुंड पियूष बस याकें.नाथ जियत रावनु बल ताकें..’. और
तब संयमी राम में प्रचंड क्रोध का जागरण होता है.यह वीर का क्रोध नहीं लगता.राम
भेद पा जाते हैं रावण का.दिल को भेदना मुश्किल था शायद.राम ने रावण की आँखों में
कुछ देख लिया था.(बाद में सीता की अग्नि परीक्षा संभवतः इसी कारण होती है.) मानस
को अगर ठीक से बाँचे तो ठीक यहीं पर राम की आँखों में छल प्रवेश करता है. तुलसी
बहुत सम्हालते हैं, किन्तु शब्द बेवफाई पे उतर आते हैं.
संशयी,दुविधाग्रस्त राम, क्रूर और
असयंमित तरीके से रावण पर वाण-प्रहार करते हैं-
खैंचि सरासन श्रवन लगि छाडे सर इकतीस.
और इस तरह राक्षस मर जाता है.परम शिव-भक्त,काल को भी जीतने वाला.किन्तु राम-विमुख को कौन बचाए, शिव व काशी तो स्वयं
राममय हैं. पर ठहरिये. शब्द सर्जक के गुलाम नहीं.
राक्षस मरता है,रावण नहीं.उसकी मौत तो तुलसी के हाथ से फिसले
शब्दों ने फ्रीज कर दी है. मृत्यु के बाद भी उसमें ‘वह’ जीवित है.समुन्दर में
क्षोभ है और पर्वतों में कंपन.अंग-अंग भंग है.कोई राम के चरणों में पड़ा है तो कोई
मंदोदरी के पास गिरा.किसी से बानर भालू खेल रहे हैं.किन्तु, दो टुकड़ों में बंटे सिर वाले रावण के मुख से जिजीविषा की गर्जना जारी है--
धरनि धसई धर धाव प्रचंडा.तब सर हति प्रभु कृत दुई खंडा..
यह राक्षस की चीत्कार नहीं लगती.ध्यान से पढ़े तो यह
प्रेम-त्रिकोण है.मानस में यह ‘मिथकीय-क्षण’ है,अर्थात मनुष्य के भीतर की मनुष्येतर
शक्तियों का प्रस्फुटन.हर कथा इसे पाना चाहती है.किसी कलाकृति का सर्वोत्तम क्षण,जिसमें घनीभूत भावनाओं का संवेग और ताप आँख खोल दे.जेम्स ज्वायस ने जिसे ‘एपीफेनी ’के क्षण कहा है.इन्ही
क्षणों में अपने भीतर दबे/दबाए सत्य से साक्षात्कार होता है.मानस की कथा के इन्हीं
क्षणों के स्तर पर यथार्थ की गंगा बहती है.किन्तु हम ऊपर के जल में तैरते
फूल-मालाओं को मानस समझ बैठतें हैं.हमें मानस के उन्ही स्तरों को छूना होगा.
ये दोनों ही प्रसंग मानस में हैं. यानि अमृत का मिथ भी और
एक नितांत लौकिक सी स्थिति जहाँ सीता के प्रति प्रेम भावना के बल से युद्धरत रावण
है. किन्तु रावण की नाभि में अमृत से अधिक चिंता राम को उसके हृदय में बैठी सीता
के प्रति प्रेम की शक्ति से है जिसे सोखे बिना रावण को नहीं मारा जा सकता. नाभि
में अमृत एक मिथक है जबकि हृदय में प्रेम की शक्ति एक वास्तविकता. मध्यकालीन तुलसी
के मन में यहाँ द्वैत है. किन्तु आश्चर्य कि अधिकतम गहरे शब्द वास्तविकता के हैं.
निराला की शक्तिपूजा में यही चिंता बदलकर देवी-शक्ति का रूप ले लेती है. अब सोचने
की बात है की अधिक यथार्थपरक विन्यास तुलसी का है या निराला का.एक देवी के अंक में
अहंकारी,युद्धरत रावण को बैठा दिखाता है तो दूसरा
रणाग्रही, ध्यानावस्थित,रावण के
अंक में बैठी सीता को अचंभित-सा देख लेता है.
तो ये ही मानस के
अंतस्थल में तिरते शब्दों के कुछ अर्थ हैं,जिन्हें विनयवत
सामने रखा गया है.ऐसे अनेक अर्थ होंगे जो अभी भी खुलने की प्रतीक्षा में हैं.
किन्तु कुछ को गीता प्रेस और राम किंकरों ने रोक रखा है तो कुछ को कुछ आलोचकों ने. अब तो मानस विरोध का पूर्वाग्रह
इतना प्रबल है कि यह भजन ही सहारा है -‘सांसों की माला
में सुमिरु मैं सीता-राम ’.कितने अरमानों से तुलसी
मानस का समाहार करते हैं कि- ‘कामिहि नारि पिआरि
जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम’. किन्तु पता नहीं
क्यों हम मानस में इन शब्दों को देखना नहीं चाहते ? मेरी विनती है की मानस-गंगा में गहरे डूबिये, क्योंकि-
वो लाश थी इसलिये तैरती रह गई.
_________________________________________
सर्वेश कुमार सिंह
२५ जून १९७५, प्रयाग
जे.एन.यू. से एम.फिल.और
पीएच.डी.
उच्च अध्ययन संस्थान शिमला में एसोसिएट फेलो के तहत अनुसन्धान-रत
उच्च अध्ययन संस्थान शिमला में एसोसिएट फेलो के तहत अनुसन्धान-रत
निर्मल वर्मा की कथा भाषा
पर पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य
सम्प्रति : असिस्टेंट
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
'मानस' का एक नया पाठ, जो लम्बे समय तक हिंदी साहित्य-परंपरा को समझने की वास्तविक दृष्टि प्रदान करता रहेगा. यह लेख इस सन्दर्भ में एकदम नया प्रस्थान है.
जवाब देंहटाएंbahut achcha likha hai
जवाब देंहटाएंकई बार पढ़े जाने को विवश करने वाला आलेख है यह. पहले पाठ के बाद ही युवा अध्येता की अध्ययन-विधि और दृष्टि अपना प्रभाव छोड़ देती है, मेरे-जैसे पाठक के मन पर भी. गहराई में जाकर, उन्होंने कुछेक एकदम नई जानकारियां भी जोड़ी हैं. एक बार फिर देखूंगा, तो संभव है कुछ और अधिक कह पाऊँ. सर्वेश को बधाई.
जवाब देंहटाएंमानस की कथा के "अर्थ" और उसके निहितार्थ की नई जमीन तोड़ता , तुलसी के मंतव्य के अंतरतम स्तरों को उद्घाटित करता शोधपूर्ण ,अन्वेषपरक और सामाजिक सरोकारों के आग्रह -जनित "साहित्यिक नारों " के दबाव से पूर्णतः मुक्त यह लेख मानस के पाठकों को नई अंतर्दृष्टि से संपन्न करने का सराह्नीय प्रयास है
जवाब देंहटाएंbehtarin lekh
जवाब देंहटाएंis viswatapuna lekh ke liye sarvesh ji ko badhayee. yah lekh megh ji ke bad manas ko samajhne ki nayee drishti pradan karta hai.
जवाब देंहटाएंआपने बहुत तर्कसंगत तरीके से अपनी बात कही है ..| बधाई आपको
जवाब देंहटाएंरामचरितमानस न केवल एक महान कविता है, वह न केवल कवित्त का अप्रतिम उदाहरण है वरन समाज को सदियों से राह दिखाता आया है। न जाने कितनी कहानियों का संगम है यह ग्रन्थ
जवाब देंहटाएंमानस केवल पढने के लिये नही पढा जाता वो अन्दर उतारा जाता है उसमे डूबा जाता है और फिर संतों से उसके गूढार्थ निकलवाये जाते हैं तब जाकर उसके भेद सामने आते हैं ………मानस कोई ऐसा वैसा ग्रंथ नही है यदि इसके साथ साथ वाल्मिकी रामायण भी पढी जाये तो ना जाने कितनी गुत्थियाँ सुलझ जायें और ये जो मन मे भेद विभेद की स्थितियाँ हैं उनसे निज़ात मिले मगर हम सभी सिर्फ़ उथले सागर मे मोती खोजते हैं और सतह पर ही रह जाते हैं …………आपका आलेख गहन मनन करके लिखा गया है ………बस वाल्मिकी और तुलसी मे फ़र्क इतना ही है कि वाल्मिकी ने राम को आम इंसान के रूप मे प्रतिस्थापित किया है और तुलसी ने उनके दोनो रुपों को समाहित किया है ………बाकि इस विषय मे तो बेहद गहन मनन अध्ययन और चिन्तन के साथ किन्ही सत्पुरुषों का संग मिले तो इसके ना जाने कितने अबूझे भेद और खुलें ।
जवाब देंहटाएंअरुण , तुलसी को पढ़ना , निश्चित रूप से एक डोगमा को समझना नहीं है . इसका आप रोज़ पाठ करें .. और आपको स्वर्ग मिल जाए .न ही ये मात्र किंवदंतियों का संसार है .हम रामचरितमानस को एक प्रतिक्रिया मानते हैं.. जागरूक होकर लिखी प्रतिक्रिया .. पर केवल शैवों के विरोध में नहीं .. यह अस्थिरता और विषमताओं और निराशाजन्य स्थितियों में लिखा महाकाव्य है .. जिसे , आतंकवाद के विरोध में लिखा गया . इस एपिक में यदि हम गौर से देखें तो एंड्रोइड की तरह एक प्रजाति दूसरी प्रजाति का संहार कर रही है . उसका मोडस ऑपरेंडी क्या है ? छल से ..छिपकर हमले करना . वहाँ जो स्थिति है वह अफगानिस्तान के आज के हालातों से अलग नहीं है . तो तुलसी का रामचरित केवल समाज का दर्पण नहीं है .. वह चेहरे दिखा कर नहीं छोड़ता . सुनिश्चित विधान देता है . १२०० के आस -पास बरनी ने हिंदुस्तान पर लिखा . इस सन्दर्भ में उनकी तारीख़-ए-फीरोजशाही का का ज़िक्र गलत नहीं बैठता ..ये इशारा करता है उस आतंक का ..जिसे बाद के समय में हम तुलसी में रेपर्केशन के रूप में देखते हैं . एक एथेनोलोजी आपको इस महाकाव्य में दीखती है .. यहाँ , बराबर एक बात मन में उभरती है ..क्या रक्ष संस्कृति के विरोध में आर्यों की श्रेष्ठता सिद्ध करना कवि का प्रयोजन रहा होगा .. शायद नहीं . हाँ , पात्र तुलसी को यहीं से , इसी समाज से उठाने थे ..पर ये मूल रूप से कफ़स के दर्द का आख्यान है . शैवों का इस काव्य में दिखना इस अंतर्कथा का बहुत छोटा सा हिस्सा है . मैं इसे स्वतंत्रता के संघर्ष का साहित्य मानती हूँ ...
जवाब देंहटाएंलेख में आये रोचक प्रसंग निश्चित रूप से ध्यान खींचते हैं . रावण के दिल पर राम का प्रहार न करना .. और भी कई .
लेखक ने इस काव्य की मनोभूमि पर ले जाकर पाठक वर्ग को खड़ा किया है .
नाज़ुक विषय पर गंभीर चिंतनपरक लेख . सर्वेश को बधाई .
अरुण का शुक्रिया .. बहस -मुबाहिसे में आमंत्रण के लिए ..
अपर्णा मनोज की टिप्पणी बेहद सटीक है
जवाब देंहटाएंइसमें कुछ और जोड़ना हो तो ,,,,,यही कहना होगा .....
यह प्रेम त्रिकोण देखना "जाकी रही भावना जैसी " की अभिव्यक्ति है ,,,यह वाक़ विलास है ,,,एक शब्द सामर्थ्य वान की बोढ्धिक अय्याशी है ,,,
,,,,,,,,,,,तब की काशी की ज्ञान रासी पर सवार व्यभिचार ने इन दिनों प्रगतिशीलता के शब्दकारों (साहित्यकारों नहीं. )पर सवारी गांठ ली है ,,, वे समन्वय के स्थान पर फूट के मुद्दों को तलाश रहे है ,,गढ़ रहे है ,,महिमामंडित कर रहे हैं ,
यह विदेशी शक्तियों के मनोरथ को भारत के भीतर से समर्थन है
यदि यह अनजाने या बौद्धिक अहंकार में हो रहा है तो विचारने का निवदन है ,,,और यदि किसी,,,प्रभाव में है तो ,,,,,,,समय इसका निर्णय करेगा अपने आप एक दिन
विश्लेष्ण क्षमता अद्भुत है ,,,यह भारत निर्माण में लगे ,,परमात्मा से प्रार्थना है
अरुण का शुक्रिया .. बहस -मुबाहिसे में आमंत्रण के लिए
जवाब देंहटाएंलेख एक नवीन दृष्टि देता है जो भावुकता से हटकर सजग रहते हुये मानस पर विचार करने और उसमें छिपे तत्वों के उदघाटन के लिए प्रेरित करता है !
जवाब देंहटाएंसर्वेश जी को इस अप्रतिम लेख के लिए कितनी बधाइयां दी जाएं, समझ नहीं आता... मैं कई बरसों से सोचता था कि हमारे इन महान-पवित्र समझे जाने वाले ग्रंथों को कभी लौकिक दृष्टि से भी देखा-परखा जाएगा, लेकिन दुर्भाग्य से हमारी दकियानूसी मानसिकता ने ऐसी दृष्टियों को सामने नहीं आने दिया...समस्त कविताएं लौकिक होती हैं, जो लोग या कि मजहबी यह मानते हैं कि कविता की शैली में रचे गये कथित धर्मग्रंथ अलौकिक हैं या कि चमत्कारिक रूप से उतरे हुए ईश्वरीय ऐलान हैं, वे मनुष्य को ही नहीं समझते तो मनुष्य की रचना 'ईश्वर' को कैसे समझेंगे... मेरी मान्यता है कि हर काल में कवियों ने अपने लोकजगत को ध्यान में या कि केंद्र में रखकर ही रचना की है, लेकिन हमने या कि आलोचकों ने उन्हें एक खास बाड़े में बंद कर विचार किया है इसलिये कई बार हम उससे परे सोच नहीं पाते... सर्वेश जी ने कुछ नितांत मौलिक व्याख्याओं से मानस को एक काव्यकृति के रूप में देखने का जो आग्रह किया है वही इस ग्रंथ का भविष्य तय करेगा, वरना पुराने पाठालोचन के आधार पर इसे जलाया जाता रहेगा और खारिज किया जाता रहेगा।
जवाब देंहटाएंयह लेख रामचरित मानस का पुन्ह पाठ करने को लालायित करता है.. एक नई दृष्टि से लिखा गया सुन्दर लेख..
जवाब देंहटाएंआपके बोल सर माथे पे.मानस की चिंता मुझे गहरी है किन्तु उस-से शब्द नहीं.पर,एक निज-विश्वास,आप भी करें तो,इसमें शब्द और चित्त एक हैं,साहित्यिक हैं.कहीं मन व वाक्यों में कुट्टी भी है,पर वह बे-अदब नहीं.अब क्या करें,लोगो के पास समुन्दर पार से आयीं इतनी चमकती किताबें हैं कि घर की किताब पोथी लगने लगी है.
जवाब देंहटाएंअपर्णा जी ने चिंता कम न की.पर सोच साफ़ कर दी-'स्वतंत्रता के संघर्ष का साहित्य' कहकर.
विनती है कि प्रयास हो ताकि मानस चंद धूंधूंआते मठों व बजबजाते हिन्दी विभागों से बाहर आ रोशनी दे,जो कि उसमें है.समालोचक-संपादक अरुणजी को यह बात लगे-'when student(me)is ready,teacher arrives.'
सर्वेश का यह लेख वास्तव में विचारणीय लेख है...रचनाओं पर साहसपूर्ण ढंग से सोचता हुआ...समय आ गया है कि हम अपने खोलों से बाहर निकलें और बातों पर गहराई से सोचें...अरुण अच्छा लेख छापने के लिए बधाई...
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा लेख है, सर्वेश, बधाई। अरुण को धन्यवाद कि 'समालोचन' में ऐसी ऐसी सामग्री लगातार आती रहती है। 'मानस' पर सर्वेश की पूरी किताब का इंतजार कर रहा हूँ।
जवाब देंहटाएंइतनी लम्बी प्रतीक्षा शायद ही मैंने आज तक किसी लेख की है, गनीमत है कि साल भर में इंतजार की घडि़यां समाप्त हो गईं। लेख के जब कुछ अंश सुने थे तभी से पढ़ने की बेचैनी थी। इतने विस्तार से उस वक्त बातें नहीं हुई थी। अब जब विस्तार से पढ़ने को मिला तो मन ‘गार्डेन-गार्डेन’ हो गया है। जी भर के बधाइयां, इस विचारोŸोजक लेख के लिए। आगे भी अलग-अलग विषयों पर आपके बौद्धिक स्फुलिंगों की चमक दीखती रहे इसी शुभकामना के साथ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा और तार्किक लेख .......यह बहुत अच्छी बात है की आपने समालोचन में ऐसी कृतियों पर सार्थक और तार्किक लेख देने शुरू किये ...कम से कम उन प्रगतिशील मित्रों को ऐसे लेख शायद अपनी परंपरा को नए सामाजिक संदर्भों से देखने की कुक नए संस्कार प्राप्त हो सकें जिनके लिए ऐसे ग्रंथो को छु लेना या इन पर बात कर लेना साम्प्रदायिकता की खोह में सामने जैसा हो जाता है ............बहुत ही उम्दा ..,बहसतलब और मानस का नया पाठ कराती हुई रचना...सर्वेश को बधाई ,उनकी पुस्तक का इंतज़ार हम सब को है .....और आपको ऐसे सुंदर लेखों के समायोजन के लिए
जवाब देंहटाएंइस लेख की सार्थकता मेरे दिमाग में थोडा अलग सन्दर्भों में भी है. मानस का जो पाठ अब तक लोगों के दिमाग में है, वह एक दिन या एक साल की उपज नहीं है. सैकड़ों वर्षों तक उसे लोगों ने एक धर्मग्रन्थ या नीतिग्रंथ के रूप में देखा है. इस मान्यता को सर्वेश सिंह का यह लेख पहली बार अपने मजबूत तर्कों के साथ ख़ारिज करता है. सिर्फ ख़ारिज ही नहीं करता, उसके समानांतर एक नया मॉडल पेश करता है. अभी तो यह लेख उन लोगों के हाथ नहीं पड़ा है जो शताब्दियों से इसी का कारोबार करते आ रहे हैं, जो मर जायेंगे मगर चाहे अपनी मगज पच्चीसी से, चाहे डरा धमका कर, चाहे सत्ता के आकर्षण से, जिस दिन सर्वेश उनके हाथ पड़ेंगे, अपनी बात मनाकर ही रहेंगे. इनमें रामायणी ही नहीं, हिदी-संस्कृत के जुगालीकार प्रोफ़ेसर,(बाकी विषयों के भी 'पंडित' प्राध्यापक), और भारतीय संस्कृति के रक्षक लोग भी शामिल हैं. इस लेख की खूबसूरती मुझे इस बात में लगी कि यह मानस के परंपरागत व्याख्याकारों के हथियार से ही उन्हें चेतावनी देता है. मुझे इस लेख को पढ़ने के बाद कहानीकार उदय प्रकाश का पूर्वार्ध याद आया जिसमें उन्होंने पहली बार साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में नाम लेकर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को चुनौती दी थी. उनके प्रति मेरा मोहभंग उस दिन हुआ, जब 'अमर उजाला' के आवरण-लेख में उन्होंने भगवान राम को भारतीय जाति का नेता माना था. मेरी दृष्टि में राम का चरित्र ब्राह्मणों का अपने अस्तित्व के लिए गढ़ा गया मिथक है. कहीं सर्वेश की स्थिति भी उदय की-सी न हो, मुझे अपनी चिंता का एक कारण यह भी दिखाई दे रहा है. वैसे मेरी चिंता से इतने बड़े देश में क्या फर्क पढ़ता है?
जवाब देंहटाएंlokmangal ke kavi baba tulsi ke prati kuchh log purvagrah se grasit hain. meri aise logo se vinti hai ki vo manas ko pahle ek sahityik rachan ke roop me padhe, fir ek bar aor padhe,teesri bar apne aap manas me shraddha prasfutit hone lagegi.
जवाब देंहटाएंरचनाधर्मिता के विभाजित आत्ममोह और कृति संदर्भित कुंठित परम्परागत फैंटेसी को संवाद और विमर्श के खुले मंच पर आहूत करता आलेख.......बाबा के ही शब्दों में कहें तो 'गिरा अनयन नयन बिनु बानी'.......साधुवाद.
जवाब देंहटाएंविनम्र जवाब ...मानस भ्रम पर ( अनूप मिश्र )
जवाब देंहटाएंरामचरितमानस के कुछ हिस्सों का आधे अधूरे दोहों , चौपाईओं और छन्दों को उद्धृत कर कोई तथाकथित साहित्यकार और उस जैसे साहित्यकारों को प्रेर्रित करनेवाले इलेक्ट्रोनिक मगजिन के संपादक अगर कोई स्वगढ़ंत अर्थवाली रचना करता है तो मेरे जैसे व्यक्ति का सामाजिक दायित्व बनता है की मानस के सही अर्थ को पुरे दोहों के सहारे जनमानस को बताकर मानस गंगा में प्रदूषित विचारों के नालों को गिरने से रोकें / वैसे लेखक ने स्वयं भी मुझसे अपने लेख पर कुच्छ विचार देने का विनय किया / मै कोई प्रतिक्रिया अथवा उद्वेलित होकर अपनी बात नहीं रख रहा हूँ बल्कि शांतचित्त होकर "कलिमल" को दूर करने का प्रयास कर रहा हूँ / जो तुलसी ने नहीं कहा उसे साहित्यकार ने कहने का जो साहस किया उसके प्रति हम सिर्फ सहनुभूति ही प्रकट कर सकते हैं क्योंकि लेखक के इस साहस में उसके छनिक जीवन जीने की लालसा झलकती है / तुलसी ने स्वयं पहले ही कहा दिया की " श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम के गूढ़ / किमी समुझों मै जीव जड़ कलिमल ग्रसित विमूढ़ //" जब तुलसी ने उस वक़्त ये बातें कहीं तो जब तुलसी के समय के प्रकांड विद्वान मौजूद थे तो आज तो क्रमशः साहित्य जगत के तथकथित विद्वान शनय शनय हाशिये पे आते जा रहे हैं और साहित्य को मात्र तर्क का साधन बना दिए हैं / तुलसी ने स्वयं अपने लिए ही कहा की " तदपि कही गुर बारहि बारा/ समुझी परि कहू मति अनुसारा/ भाषा बद्द करबी मै सोई / मोरे मन प्रबोध जेहि होई // " ....तब आज के लेखक मानस के कुच्छ अंशो को देखकर मानस की गहराई को कैसे समझ सकते हैं ? ( लेखक और संपादक दोनों ने अपने समझ का दावा किया है ) / दूसरे लेखक ने शिव और राम को कशी और प्रयाग के संदर्भ में बताने की कोशिश की और उसमे भी साहित्यिक और प्रापंचिक पेंच ढूढने की कोशिश की परन्तु उन्हें यहाँ बताना आवश्यक है की तुलसी के लिए शिव -राम में कोई भेद नहीं था और दोनों को ही तुलसी ने एक दुसरे का पूरक माना/ बालकाण्ड में तुलसी ने कहा की " महामंत्र जोई जपत महेसु / कासी मुकुति हेतु उपदेसू // महिमा जासु जान गनराऊ / प्रथम पूजी अत नाम प्रभाऊ// "...यानी तुलसी ने टी शिव को सपरिवार राम की आराधना करा दी तो वहीँ दूसरी और मानस के अर्थ को अनर्थ करनेवालों को भी ये कहकर चेताया की " अति विचित्र रघुपति चरित जानही परम सुजान / जे मतिमंद बिमोह बस हृदय धरही कच्छु आन //" ....और शायद तुलसी की ये बात ....अज के लेखक पर सही बैठती है / अर्थ का अनर्थ करनेवाले लेखकों के लिए तुलसी ने ये भी लिखा की " तजि श्रुति पंथु बाम पथ चलहिं / बंचक बिरची बेश जगु छलहीं /" ....आज के प्रगतिशील लेखक और बाम विचार से ग्रसित विद्वान तुलसी के इस दोहों में फिट बैठते हैं / वैसे ये भी बताते चलें की रामचरितमानस में शुरू के १११ दोहे शिव पर ही है जिसकी महिमा लेखक ने कम आंकने की चेष्टा की है / जहाँ तक काशी और प्रयाग के द्वन्द की बात है तुलसी ने इसे बड़ी ही विनम्रता से स्वीकार की " मुक्ति जन्म माहि जानि ज्ञान खानि अघ हानि कर / जहँ बस संभु भवानि सो कासी सेइऊ कस न " ....प्रयाग के विद्द्वानों को तुलसी के इस शब्द की पूजा कर काशी के ज्ञान और मुक्ति की कामना करनी चाहिए न की अंतर्द्वंद में अपने शेष जीवन की तिलांजलि देनी चाहिए / अब मै लेखक के मूल विषय पर आता हूँ जहाँ लेखक ने राम -सीता-रावण के स्वयाम्गठित -मनगढंत त्रिकोणात्मक प्रेम की चर्चा कर अपने को लीक से हटकर प्रस्तुत करने की कुचेस्ता की और मानस के अधूरे दोहों - चौपायिओं के सहारे पाठकों को भ्रमित करने की कोशिश की / मैं विषय को तुलसी के शब्दों में ही दुरुस्त करने का प्रयास करता हूँ / राम - सीता के प्रेम के बीच तुलसी ने किसी को भी लाने का साहस नहीं किया और अरय्न्य काण्ड में इसकी झलकी देते हुए कहा की " सीता चरण चोंच हति भागा / मूढ़ मंदगति कादन कागा / चल रुधिर रघुनाथक जाना / सींक धनुष सायक संघाना // " ...इतना प्रेम सीता से राम को था की जरा सी भी खरोंच बर्दास्त नहीं कर सके और मूर्ख जयंत को सबक मिला ...ठीक उसी प्रकार राम- सीता के प्रेम के बीच आने वाले "काग" की दुर्गति आज भी पा सकते हैं / जहाँ तक रावन की बात है तो तुलसी ने शुरू में ही बाल कांड में उसकी मंशा का जिक्र कर दिया की उसने ब्रह्मा से स्वयं किसी मनुष्य के हाथिन मरने की इच्छा व्यक्त की थी और इसीलिए राम का मनुज के रूप में अवतार हुआ / सीता के बारे में ही लिकते हुए तुलसी ने बल काण्ड में ही लिख दिया की " करि छलु मूढ़ हरी वैदेही / प्रभु प्रभाऊ तस बिदित न तेहि / " ..
..और शायद लेखक को प्रेम का ये मूल स्वभाव नहीं पता की प्रेम में छल नहीं किया जाता और इसीलिए रावन छली था प्रेमी कदापि नहीं / जहाँ तक हृदय में रावन के सीता के रहने का प्रसंग है तो लेखक ने पाठकों को सही बात नहीं बताई और न ही पूरा छंद लिखा जो की इस प्रकार है " येहि के हृदय बस जानकी जानकी उर मम बास है / मम उदर भुवन अनेक लगत बान सब कर नास है // " यानी सीता के हृदय में राम और राम के उदर में अनेक धरती बसती और राम लोक कल्याण हेतु रावन के हृदय में तीर नहीं छोरते ....और ये बातें भी तुलसी ने त्रिजटा से कहलाया जो की सीता के मनःस्थिति को देखते हुए उन्हें समझाने की कोशिश करती है और तब स्न्त्वाना देते हुए कहती है की " कटत सर होयेहीं बिकल छुटि जयेहीं तव ध्यान / तब रावन के हृदय मह मरी हएं राम सुजान //" वैसे तिलसी ने स्पष्ट कर दिया की वो तो मजा ले रहे थे " कटे सर भुज बार बहु मरत न भट लंकेश / प्रभु क्रीडा सुर सिद्ध मुनि व्याकुल देखि कलेश // " ..... लेखक को बता दें की आपको नहीं पता पर रावन को तो अपने म्रत्यु का पता था ...अरय्न्य काण्ड में ही तुलसी ने रावन का ये भय दर्शा दिया जब कहा " खर दूषण मोहि सम बलवंता / तिनहि को मारई बिनु भगवंता /" ....और लेखक के इस शंका को भी दूर करते चलें की सीता का अग्नि परीक्षा रावन प्रेम के वजह से था की शुरू में ही तुलसी ने सीता को अग्नि के हवाले कर दिया था और जब राम - सीता मिलन हुआ तो अग्नि के द्वारा ही वापस लाये / इसीलिए अग्नि में जाती सीता जरा भी विचलित नहीं दिखी " पावक प्रबल देखि वैदेही / हृदय हरष नहीं भय कच्छु तेहि /" ...शायद लेखक को प्रगतिशील बने की ललक है इसी लिए सीता के इस हर्ष को नहीं देख पा रहें है और तुलसी से अलग तुलसी के ही मानस की व्याख्या करने की ललक दिखा रहे हैं .....वैसे तुलसी के ही शब्दों में " को न कुसंगति पायी नसाई / रहई न नीच मते चतुराई // " अतः हमें तुलसी के मानस की किंचित भी चिंता नहीं है चिंता है तो समाज की जो आज पथभ्रष्ट हो अपनी दुर्गति को प्राप्त है और जिसका आज भी इलाज केवल और केवल तुलसी का मानस ही है / ....... संपादक महोदय से भी कहाँ है की "आस्था " आतंक नहीं मचाती बल्कि "आनंद " देती है और आज तो लोगों को "आतंक " पर आस्था है ............( अनूप मिश्र )
जवाब देंहटाएंएकतर्फा, लेकिन अच्छा प्रयास.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और तार्किक लेख है मित्र! आप निःसंदेह एक स्वस्थ चिन्तक और साहित्यकार हैं!
जवाब देंहटाएंA brilliant interpretation!!!...very logically presented...although it will be very hard to digest in society's traditional beliefs, but nyways a brave attempt!!!... it also shows how deep the research had been done...well done bhaiyya...keep up the good work!!!
जवाब देंहटाएंरामचरितमानस हमेशा से ही विद्वानों के लिए एक चुनौति के रूप में रही है.... मैं विद्वानों की बात कर रहा हूं छिछोरे किस्म्ा के विचारकों की नहीं जो बिना इसमें डूबे ही विचारधारा और अपनी मान्यताओं के आधार पर उलजलूल बकते रहते हैं. सर्वेश जी ने इस चुनौति को स्वीकार कर नए द़ष्टीकोण से सोचने के लिए बाध्य किया है इसके लिए धन्यवाद....साथ में अरूण देव जी को भी. आशा ही इस लाइन में विद्वानों के सांगोपांग विचार सामने आएंगे....
जवाब देंहटाएंसर्वेश जी ने रामचरितमानस में राम-सीता-रावण के ‘प्रेम-त्रिकोण’ की ‘अद्भुत खोज’ कर डाली है। मैं विनम्रता से अपनी असहमति दर्ज करता हूँ। मैं सर्वेश जी को नहीं जानता, न ही मैंने कभी उनके द्वारा लिखा हुआ कुछ और पढ़ा है। फिर भी मैं ऐसा सोचने को विवश हूँ कि कहीं सर्वेश जी ने मानस का साहित्यिक विश्लेषण करने की आड़ में अकारण और अनावश्यक विवाद खड़ा करने की चेष्टा तो नहीं की है? विवाद खड़ा करने का प्रयास अपनी ओर तथा अपने लेखन की ओर ध्यान आकर्षित करने का सबसे पुराना मनोवैज्ञानिक फ़ार्मूला है। काश सर्वेश जी के लेख के बारे में मेरा यह प्रथम-दृष्ट्य विचार गलत साबित हो।
जवाब देंहटाएंअन्य साहित्यिक कृतियों की तरह ही, मानस के कथा-प्रबंध में भी कथा पात्रों के संवादों के सहारे आगे बढ़ती है; संवादों के सहारे ही पात्रों का चरित्र-चित्रण और विकास होता है; बीच-बीच में लेखक अपनी टिप्पणियों के माध्यम से अपने जीवन-दर्शन से भी अवगत कराता है। ऐसा अनेक बार पहले भी हो चुका है कि मानस में कथा के किसी पात्र के मुंह से कहे गए संवाद को आलोचकों ने तुलसीदास जी का निजी जीवन-दर्शन बता कर खूब नाम कमाया है। क्या सर्वेश जी एक भी ऐसी चौपाई, दोहा, सोरठा या छंद दिखा सकते हैं जिसमें तुलसी जी की अपनी टिप्पणी में या फिर रावण के किसी संवाद से उसके सीता जी के प्रति प्रेम का छोटा सा आभास भी मिलता हो? मानस में रावण द्वारा कहे संवादों में सीता जी को रावण की रानी बनने या मृत्यु-दंड पाने का विकल्प दिया गया है । त्रिजटा के संवाद में यह उस राक्षसी का निजी आकलन है कि रावण के दिल में सीता का वास है। रावण के सीता जी से प्रेम की बात तो वाल्मीकि-रामायण के खाँटी लौकिक वर्णन में भी नहीं मिलती। वहाँ भी रावण प्रेम-निवेदन के साथ ही धमकी देता रहता है कि मना करने पर वह सीता जी की हत्या कर देगा। सर्वेश जी, अगर आप किसी स्त्री का अपहरण करने, उसे बंधक बनाने, और उसे तलवार की नोक पर शादी के लिए मजबूर करने की चेष्टा को प्रेम मानते हो, तो मैं कहूँगा कि आपका भला हो। मैं नहीं जानता कि आपके द्वारा राम-सीता-रावण के ‘प्रेम-त्रिकोण’ का आविष्कार नादानी है या सोची-समझी शरारत?
आपने यह भी लिखा है: “राम ने रावण की आँखों में ‘कुछ’ देख लिया था। बाद में सीता की अग्नि परीक्षा संभवतः इसी कारण होती है।” मैं आपकी अद्भुत कल्पना-शक्ति को प्रणाम करता हूँ। क्या आपकी इस कल्पना का आधार मानस की कोई चौपाई या दोहा है? तीन सौ रामायण पहले से हैं, आप भी अपनी लिखिए, कौन रोकता है, किन्तु कृपया यह न कहिए कि तुलसी बाबा ने सब लिखा है।
आपने आगे लिखा है “मानस को अगर ठीक से बाँचे तो ठीक यहीं पर राम की आँखों में छल प्रवेश करता है... संशयी, दुविधाग्रस्त राम, क्रूर और असंयमित तरीके से रावण पर वाण-प्रहार करते हैं।” आपका सबूत : राम जी का 31 वाणों को एकसाथ छोड़ना! आपकी नज़र में राम जी के लिए रावण का वध करना “नैतिक संकट” था? क्या तुलसी जी ने कहीं लिखा है कि उस समय रावण निहत्था था? इस 'नैतिक संकट' की कल्पना का कोई कारण है क्या? मुझे खेद से कहना पड़ रहा है कि आपके द्वारा रावण-वध को राम का ‘नैतिक संकट’, ‘क्रूरता’, ‘असंयम’ और 'छल' बताना वही मानसिकता है जिसके कारण कभी हनुमान जी को विश्व का पहला आतंकवादी घोषित किया जाता है, कभी कसाब को मुंबई पर आतंकी हमले का दण्ड देने के प्रश्न पर भारतीय राष्ट्र-राज्य ‘नैतिक संकट’ से हिचकिचाता है। राज्य कसाब पर ‘क्रूरता’ करने से बच रहा है। बुद्धिजीवी समाज कसाब के प्रश्न पर ‘संयम’ की मूर्ति बन गया है। ऐसी मानसिकता वालों को शत्रु-देश की सेना, और हर प्रकार के देशी/विदेशी सशस्त्र हत्यारे आतंकवादियों के मानवाधिकारों की बहुत चिंता है, किन्तु इसे भारतीय सेना और सुरक्षा-बल क्रूर और असंयमी लगते हैं। इस मानसिकता को कारगिल विजय नाटक लगती है। जब पाकिस्तानी सेना, बंदी बनाए गए भारतीय सैनिकों मेजर सौरभ कालिया और उनकी पलटन के शवों को क्रूरता से अंग-भंग करके लौटाती है, और मेजर कालिया के माता-पिता शव के क्षत-विक्षत होने पर विलाप करते हैं, तो भारतीय सैनिकों के मानवाधिकारों के पक्ष में कुछ कहने की बात तो दूर, मेजर कालिया के माता-पिता को भी झूठा बताते हुए बीसियों लेख अख़बारों में छाप दिये जाते हैं!
(जारी...)
Bilkul Satya Vachan kaha aapne
हटाएं(पिछली टिप्पणी से जारी)
जवाब देंहटाएंअरुण जी ने लेख की भूमिका में लिखा है कि ‘आस्था के आतंक से जूझते हुए’ ‘पवित्र पोथियों’ के समाज-वैज्ञानिक और साहित्यिक अध्ययन के प्रयास चल रहें हैं। किन्तु अरुण जी, कुछ साहित्य-प्रेमी एक अलग प्रकार के आतंक से भी जूझते रहे हैं। आजकल बुद्धिजीवियों में राम का नाम आदर से लेना सांप्रदायिक कहलाए जाने का जोखिम उठाना है। अतः इस साहित्यिक चर्चा में कुछ गैर-जरूरी बात लिखना मुझे बहुत जरूरी लग रहा है : मैं सत्यनिष्ठा से प्रमाणित करता हूँ कि (1) मैं राम जी को भगवान नहीं मानता, न ही उनकी पूजा करता हूँ। (2) मैं रामायण को ‘पवित्र-पोथी’ नहीं मानता। (3) किन्तु, मुझे राम जी में, रामचरितमानस में और रामायण में डूबने में खूब मज़ा आता है। (4) मैं राम जी को भगवान और मानस को पवित्र-पोथी मानने वाले के अधिकारों की रक्षा का भी पक्षधर हूँ।
रामचरितमानस में कथा की तीन विभिन्न पीठों पर सती, भरद्वाज और काकभुशुंडि ने राम के भगवान होने पर गहरे संदेह उठाए हैं, किन्तु भगवान पर शक करने को ईश–निंदा नहीं माना गया है। अतः हमें गंभीरता से यह विचार भी करना चाहिए कि आज जिसे ‘आस्था का आतंक’ बताया जा रहा है उसका मूल कारण क्या है। क्या 'आस्था के आतंक' को उकसाने वाले कारकों में जाने-अनजाने में सर्वेश जी के लेख जैसे प्रयास भी हैं?
सर्वेश जी, अंत में आपकी ही लिखी पंक्ति आपके लिए और अपने लिए भी दोहरा रहा हूँ: “मेरी विनती है, कि मानस–गंगा में गहरे डूबिये...।” बहुत शुभकामनाएँ।
राजेन्द्र सर,
जवाब देंहटाएंएक अंतर्दृष्टि-संपन्न मानस प्रेमी को सर्वप्रथम मेरा प्रणाम.
मेरा लेख आपने पढ़ा,यह मेरे लिए सुखद है.अतः आपको धन्यवाद.
कई वाक्यों की जरूरत न थी पर वे भी आशीर्वचन ही ठहरे.
रावण ने कहीं 'i love you,sita' नहीं कहा.सच है.पर क्या राम ने कहा ?
नहीं.हनुमान ने राम का कहा-'तत्त्व प्रेम करि मम अरु तोरा....'और त्रिजटा ने रावण का-'येहि के हृदय....'और सबका गोसाईं जी ने.
मानस के रावण पे ध्यान दें.सूर्पनखा का नाक-कान काटने वाले तथा महावीर खर-दूषण को मारने वाले राम के बारे में वह गंभीरता से सोंचता है.यदि राम नारायण हुए तो-‘तौ मै जाई बैरु हठी करऊँ.प्रभु सर प्राण तजें भव तरऊँ..’ और यदि नर हुए तो –‘जों नररूप भूपसुत कोऊ.हरिहौं नारि जीति रण दोउ..’.दुविधा में उठाये अपने पहले प्रयास में वह सीता को हर लाने में सफल हो जाता है और फिर उस ‘भाव-भँवर’ में दूबारा नहीं फसता..सीता के अप्रतिम सौंदर्य से वह अभिभूत होता है तथा ‘सुनु सुमुखि सयानी’ कह स्वाभाविक प्रणय-निवेदन करता है.भाव-तीव्रता इतनी कि रानी मंदोदरी को भी सीता की दासी बनाने को तैयार-‘तव अनुचरी करऊँ प्रण मोरा.एक बार बिलोकि मम ओरा..’,बाद में धमकी भी देता है पर पहले यह 'बिलोकि'...यह क्या है सर ? और यह संकल्प इतना प्रबल कि मृत्यु का भी सहर्ष वरण.’भव-तरऊँ’ की जगह उसमें ‘जीति-रण’ का विश्वास प्रबल होता है.अंगद के बारम्बार समझाने पर भी वह अटल है-‘ तव प्रभु नारि बिरह बलहीना.अनुज तासु दुःख दुखी मलिना..’ युद्ध के अंत तक,जबकि अकेला बचा है,उसमे जीवन का वासना-भाव,चाहे की प्राप्ति का भाव, हिलोरे मार रहा है.तब ऐसे में क्या तुलसी की यह चौपाई फिर से नहीं पढ़ी जानी चाहिए-‘ कहाँ राम रण हतौं पछारी.’और 'भय बिनु होई न प्रीति' युग संस्कार है और आप हैं कि हीर-रांझा खोज रहे हैं.
साहित्यिक कल्पना और वैज्ञानिक निश्चिततवाद में भेद है.मेरे निवेदन पे आपको लंबी छलांग लगा इस घाट आना होगा.
आपका लेख काबिले तारीफ़ है,इश्वर आपकी आत्मा को शान्ति दे और इसी तरह उल जलूल लिखने को प्रेरित करे जिससे आप और कुख्यात हो सके !!
जवाब देंहटाएंसर्व प्रथम सर्वेश जी आपको बधाई ! बधाई इसलिए कि आपने अपनी कहानियों और लेखों को इ-मैगज़ीन में भी छापा और इससे बाहर निकलकर हिंदी कि अति महत्वपूर्ण पत्रिका आलोचना और पाखी में भी छाप देने में सफलता प्राप्त की है. और इसके लिए ढेर साड़ी प्रशंशा भी बटोरी है. उदाहरण के लिए आपकी कहानी "अपराधी" जो समालोचन में छपी है वही कहानी पाखी पत्रिका में ज्ञानक्षेत्रे : कुरुक्षेत्रे शीर्षक से छपी है. इसी प्रकार आपका लेख रामचरित मानस पाठ :अंतरपाठ जो समालोचन इ-मैगज़ीन में छपा है ठीक यही लेख "आलोचना" के सैंतालीसवें अंक में भी छपा है जिसका शीर्षक थोडा भिन्न- फिर से पाठ :रामचरित मानस:एहि के हृदय बसती वैदेही" है. मेरी उत्सुकता यह है की क्या ऐसा हो सकता है. क्या एक ही सामग्री को उलट पुलट कर श्रेष्ठ पत्रिकाओं में छापा जा सकता है. यही प्रश्न मेरा संपादक महोदय से भी है.
जवाब देंहटाएंएक बच्चा एक ही खिलोने के लिए मचल जाता है ऐसा ही कुछ प्रतीत हो रहा है ..
जवाब देंहटाएंसर मुझे रामचरितमानस का ऐसा कोई आलोचनात्म ग्रंथ मिल सकता है जिसमे प्रत्येक दोहे चौपाई मे रस,गुण, अलंकार आदि बताये गये हों।9828750326
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.