आलोचना जहां पाठ केंद्रित होती है वही कई बार वह स्वतंत्र और स्वायत्त भी. अक्सर वह पाठ को आलोकित करती है, व्याख्यित करती है, उसकी परम्परा की खोज़ करती है, भविष्य के लिए गुंजाईश रखती है. कभी-कभी वह अपने में सम्पूर्ण भी होती है उसे पाठ का सहारा नहीं होता है.
आलोचना अक्सर अपनी कसौटी पर रचना को परखती है, यहीं आलोचना की विचारधारा या विचारों के एकाधिपत्य का सवाल उठ खड़ा होता है. कई बार वह रचना को हड़पने या अनुकूलित करने के पाठ केंद्रित खेल में बदल जाती है. रचना और आलोचना के आपसी रिश्ते के लोकतंत्र और सेहत के लिए समालोचन आलोचना पर बहसतलब है. शुरुआत युवा आलोचक गोपाल प्रधान से.
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आलोचना का ठहराव कैसे टूटेगा
गोपाल प्रधान
हिंदी आलोचना पर होने वाली किसी भी सभा या संगोष्ठी में उसकी दुर्गति का रोना बहुत रोया जाता है और एक हद तक यह उचित भी है. दुनिया की अनेक भाषाओं में आलोचना की उतनी मजबूत परंपरा नहीं रही है जितनी हिंदी में. मसलन रूसी भाषा में उपन्यासकारों का इतना दबदबा रहा है कि उनके आगे हम रूसी आलोचकों का नाम भी नहीं सुनते. हिंदी में आलोचना की एक मजबूत परंपरा रही है और आलोचकों की राय का वजन रचनाकारों की राय से कम नहीं रहा है. न सिर्फ़ इतना बल्कि आलोचना बहुत कुछ रचना की तरह ही पठनीय और प्रशंसित रही है इसीलिए उसका पतन चिंता का कारण बन जाता है. हिंदी आलोचना में विचारधारात्मक सवालों पर गरमागरम बहसों ने उसे समाज या राजनीति के विभिन्न विमर्शों से जोड़े रखा भले ही इस स्थिति पर साहित्य की स्वायत्तता और उसकी पवित्रता के पक्षधर जितना भी हो हल्ला मचाते रहे हों.
आलोचना की बुरी हालत का एक प्रमाण पुस्तक समीक्षा की हालत है. उदारीकरण का सबसे गहरा असर इस पर पड़ा है. नए समीक्षकों ने भी संबंध न बिगड़ने देने का आसान रास्ता खोज निकाला है कि वे किसी रचना की समीक्षा के नाम पर या तो किताब का सार प्रस्तुत कर देते हैं या अतिशय प्रशंसा की झड़ी लगा देते हैं. अगर ध्यान से देखें तो आलोचना और समीक्षा में कम से कम अर्थ के मामले में कोई भेद नहीं होता इसीलिए समीक्षा में भी रचना की जाँच गहराई से करके मूल्य निर्णय देने में बुराई तो नहीं ही है बल्कि इससे समीक्षा का मान ही उन्नत होता है. उदारीकरण ने पद और पुरस्कार की अंधी दौड़ भी पैदा की है जिसके चलते साहस के साथ सच कहने का माद्दा कमजोर हुआ है. पुरस्कार भी ‘कौन बनेगा करोड़पति’ की राशि में बढ़ोत्तरी के साथ साथ या तो वजनी हो रहे हैं या उनके वजनी होने की आशा पैदा हो रही है. अब तो यह कर्म बहुत कुछ इवेंट मैनेजमेंट की तरह होता जा रहा है .
अगर हिंदी की आलोचना को उसके वर्तमान ठहराव से बाहर निकालना है तो आलोचना की शास्त्रीय परंपरा की शक्ति की खोज करनी होगी. यह काम इस समय और भी महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि बदले हुए हालात बहुत कुछ उसी वातावरण की याद दिलाते हैं जिसमें हिंदी आलोचना अलंकार विवेचन से बाहर निकलकर सामाजिक अर्थवत्ता की पहचान की ओर मुड़ी थी. उसका यह हस्तक्षेप बहुत कुछ आजादी की लड़ाई से जुड़ा था और भले ही इस बात को अस्वीकार किया जाए लेकिन आज दोबारा नए तरह की गुलामी लादने की कोशिश और उसके विरुद्ध घनघोर प्रतिरोध की मौजूदगी से इन्कार नहीं किया जा सकता. यह नया माहौल एक अन्य कारण से भी नई चुनौती लेकर आ रहा है. जिस नाम पर यह पुनःउपनिवेशीकरण हो रहा है उसे भूमंडलीकरण कहते हैं और यह प्रक्रिया एकायामी नहीं है. इसमें सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक बदलाव अलग अलग नहीं एक दूसरे के साथ जुड़कर, इकट्ठा हो रहे हैं. यह एक संदर्भ है जिसमें हम अपनी शानदार परंपरा का पुनर्मूल्यांकन करते हुए उससे नई ताकत ग्रहण कर सकते हैं. इस तरह के मूल्यांकन में एक बड़ी बाधा आजादी के बाद के वर्षों में विकसित हुआ हमारा नजरिया है जिसमें हम चीजों को उनकी समग्रता में न देखकर अध्यापकीय आदत के मुताबिक खंडों में बाँटकर देखने लगे हैं .
इस आदत के बारे में थोड़ा सोचने की जरूरत है क्योंकि ज्ञान तो पहले एक ही था. पहले के चिंतकों को देखें तो एक ही आदमी दार्शनिक भी है, वही अर्थशास्त्री है, वही वनस्पति विज्ञानी भी है. आप अरस्तू को प्रत्येक विषय की शुरुआत में पढ़ते हैं. इसका प्रमुख कारण यह है कि ये सारे अनुशासन जिस मनुष्य का अध्ययन करते हैं वह एक अखंड इकाई है. जैसे उसे आवयविक रूप से अलग अलग नहीं किया जा सकता वैसे ही उसके मानसिक जगत को भी खंडों में नहीं बाँटा जा सकता है. उसमें से आर्थिक या राजनीतिक या सांस्कृतिक हिस्से को अलग नहीं किया जा सकता. इसीलिए जब भी कोई अनुशासन अपनी सीमाओं का निर्धारण करने चलता है तो उसे पता चलता है कि उसकी सीमाएँ दूसरे अनुशासन से मिली हुई हैं. ज्ञान की इस आदिम एकता को नजरअंदाज करने से एकायामी नजरिया पैदा होता है.
जब हम हिंदी आलोचना की शास्त्रीय परंपरा पर इस संदर्भ में निगाह डालते हैं तो देखते हैं कि शुरुआती आलोचकों में एक तरह की समग्रता है. रामचंद्र शुक्ल का ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ आलोचना का महान ग्रंथ है. उसके बारे में यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वह ‘हिंदी शब्द सागर’ की भूमिका के बतौर लिखा गया था. न सिर्फ़ इतना बल्कि उनकी आलोचना को उनके शुद्ध साहित्येतर कामों से अलगाया नहीं जा सकता . उन्होंने तब के मशहूर वैज्ञानिक हैकेल की किताब ‘रिडल्स आफ़ यूनिवर्स’ का हिंदी अनुवाद ‘विश्व प्रपंच’ नाम से किया था और उसकी लंबी भूमिका में धरती पर जीव की उत्पत्ति से शुरू करके समाज गठन से लेकर दर्शन के विकास तक का ब्यौरा पेश किया था. इस क्रम में उन्होंने भूगर्भविज्ञान, समाजशास्त्र और दर्शन सबको आजमाया था. इसी तरह हजारीप्रसाद द्विवेदी के भक्तिकालीन साहित्य के विश्लेषण से उनके मानव वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य को जुदा नहीं किया जा सकता. रामविलास शर्मा के काम को भी व्यापक दृष्टि वाले इन्हीं विचारकों की परंपरा में देखा जाना चाहिए. इतिहास की गुत्थियों से उनका जूझना उनके साहित्य संबंधी विवेचन से अलग नहीं है और न ही इन सबसे भाषा संबंधी उनका चिंतन है . दरअसल आजादी की लड़ाई ने तब के आलोचकों के सामने एक बड़ा फलक खोला था. उसने साहित्य के प्रति एक तरह के कर्तव्य परक दृष्टिकोण को जन्म दिया था जिसकी निंदा आकर्षक जितनी भी लगे लेकिन हितकर तो किसी भी तरह नहीं है. दुर्भाग्यवश आजादी के बाद की निश्चिंतता ने एक तरह के एकांगी नजरिए को जन्म दिया जिसमें आर्थिक मामले सरकारी अर्थशास्त्रियों के हवाले रहे, राजनीति की उलझनों को नेताओं के भरोसे छोड़ दिया गया और आलोचकों के जिम्मे सिर्फ़ साहित्य की दुनिया आई. अगर दार्शनिक शब्दावली में कहें तो इससे सोच का अधिभूतवादी रवैया पैदा होता है. इस विरासत ने ही वह तंगनजरी पैदा की है जिसमें हम किसी पुस्तक को शोध या समाजशास्त्रीय काम कहकर उसे आलोचना की दुनिया से बाहर रखने की हताशा भरी कोशिश करते रहते हैं .
हाल के दिनों में हिंदी नवजागरण या भक्तिकालीन साहित्य संबंधी ऐसे पुख्ता काम प्रकाश में आए हैं जिन्हें इस तंगनजर आलोचना की हद में शामिल करना मुश्किल महसूस हो रहा है लेकिन हमें ध्यान रखना होगा कि चौहद्दी बाँधने से ज्यादा जरूरी फ़िलहाल उसे फैलाना है ताकि विभिन्न ज्ञानानुशासनों से लाभ उठाते हुए हिंदी आलोचना अपने आपको समृद्ध क . ज्ञान के अनुशासनों के बीच खड़ी की गई दीवारें हमेशा से इतनी कमजोर रही हैं कि किसी भी अनुशासन से गंभीरता से जुड़े लोग उसका उल्लंघन करते आए हैं . हाँ यह सही है कि किसी अनुशासन की सीमा की जानकारी उस अनुशासन में गहरे धँसे बगैर नहीं हो सकती. जैसे पदार्थ के भीतर जाने पर अपदार्थ से उसकी गहरी एकता का भान होता है उसी तरह साहित्य के भीतर साहित्येतर समाया हुआ है .
इस नए माहौल के साथ समायोजन पुरानी शिक्षण संस्थाओं के लिए अधिक तकलीफ़देह साबित हो रहा है लेकिन वहीं से इसके सबसे सार्थक और सृजनात्मक प्रतिफलन भी प्रकट होंगे क्योंकि उनकी जड़ें विभिन्न ज्ञानानुशासनों में गहरी हैं. कुल उत्साह के बावजूद नई संस्थाओं का पल्लवग्राही वातावरण इसमें कोई खास योगदान करता नजर नहीं आ रहा है.
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रचना और आलोचना के सवाल पर संवाद को आगे बड़ा रहे हैं जनसंचार की सैद्धान्तिकी के विशेषज्ञ और प्रसिद्ध आलोचक जगदीश्वर चतुर्वेदी. आलोचना में पाठ को देखने की उतर आधुनिक प्रविधि और स्त्री चेतना की आवश्यकता पर ज़ोर है. यह आलेख इस लिए भी पढ़ा जाना चाहिए कि इसमें इस विषय पर सहजता और स्पष्टता के अब लगभग दुर्लभ लेखकीय उत्तरदायित्व का भी निर्वहन किया गया है.
"समालोचन" को हिंदी की समकालीन रचनाशीलता का एक ऐसे महत्वपूर्ण ई-मंच का दर्जा दिया जा सकता है जिसका हर प्रयास साहित्य और संस्कृति के प्रति उसकी ईमानदारी और निष्ठा की बानगी प्रस्तुत करता है। बहुलताओं के बीच एक समास की तलाश - बेलाग-लपेट। हर पेज नयेपन के नए अंदाज में - कथ्य और प्रस्तुतिकरण दोनों में। कविता-कथा-सिनेमा-अनुवाद-वैचारिकी - सभी कुछ........और आज से एक नया अध्याय - बहसतलब़। “रचना और आलोचना” को उनके बीच मौजूद सह-अस्तित्व और शीतयुद्ध दोनों के नज़रिये से विश्लेषण अदीबों के बीच एक मुसलसल लेकिन दिलचश्प बहस का मुद्दा रहा है और आज भी है...... वह चाहे अरस्तू की Poetics हो या भरतमुनि का नाट्यशास्त्र। कोई उसे यथार्थ की अनुकृति कहता है तो कोई यथार्थ का नैरेटिव। कोई रचना को पाठ के कंस्ट्रक्शन में ढ़ूँढ़ता है तो कोई पाठ के डि-कंस्ट्रक्शन में।
जवाब देंहटाएंनिर्मल वर्मा का एक वक्तव्य: “शायद मनुष्य के सारे कार्यकलापों में सबसे ज्यदा पेचीदा काम कलाओं का यह दोहरा चरित्र ही है जो एक ओर तो यथार्थ से अद्भुत साम्य रखता है लेकिन दूसरी तरफ इसका अपना निजी संसार है। यह कला को विरोधी गुण देता है। अगर यह यथार्थ की छाया मात्र है तो फिज़ूल है, और अगर यह पूरी तरह स्वायत्त है, अपने आप में प्रभुतासंपन्न, तो इस पर किसी भी सामाजिक और राजनैतिक दबाव का कोई प्रभाव नहीं होगा – वह प्रभाव जिसका खतरा कला पर हमेशा बना रहता है। दरअसल, स्वप्न जैसे यथार्थ और यथार्थ जैसे स्वप्न के बीच कला जिस तरह का नाज़ुक संतुलन बनाए रखती है वह दोनों दुनिया के कला-व्यावसायियों और भाववादियों के लिए निरंतर झँझलाहट और निराशा का कारण है। नतीजे में ये अपना बदला लेते हैं – एक इसे सत्ता का पिछलग्गू बनाता है और दूसरा केवल सौंदर्यशास्त्रीय वस्तु।“
समालोचन यानी एक दुनिया समानांतर। ई-युग की सांस्कृतिकी को देखने-समझने का केलिडोस्कोपिक अनुभव।
अरुण के जीवट, लगन, बिना रुके बिना झुके जज्ब़े को सलाम !!!
गोपाल प्रधान जी को भी बधाई.......उन्होंने पूरे मामले को बहसतलब़ बना दिया है और ग़ौरतलब़ भी। आशा है लोग इस पर चर्चा करेंगे।
समालोचन यानी एक दुनिया समानांतर। ई-युग की सांस्कृतिकी को देखने-समझने का केलिडोस्कोपिक अनुभव।
जवाब देंहटाएंअरुण के जीवट, लगन, बिना रुके बिना झुके जज्ब़े को सलाम !!!
गोपाल प्रधान जी को भी बधाई.......
सुशील जी से सहमत ..
गोपाल प्रधान ने बहस की शुरुआत बहुत सही जगह से की है, हालांकि समीक्षा के बारे में उनके सोच से मेरी आंशिक असहमति है, लेकिन उनका यह विवेचन बहुत अर्थपूर्ण है कि हिन्दी आलोचना की संजीदा परंपरा का विकास कई कारणों से बाधित हुआ है। खास तौर से उनका यह विवेचन - "आजादी के बाद की निश्चिंतता ने एक तरह के एकांगी नजरिए को जन्म दिया जिसमें आर्थिक मामले सरकारी अर्थशास्त्रियों के हवाले रहे, राजनीति की उलझनों को नेताओं के भरोसे छोड़ दिया गया और आलोचकों के जिम्मे सिर्फ़ साहित्य की दुनिया आई. अगर दार्शनिक शब्दावली में कहें तो इससे सोच का अधिभूतवादी रवैया पैदा होता है. इस विरासत ने ही वह तंगनजरी पैदा की है" इस सार्थक शुरूआत के लिए समालोचन को बधाई, उम्मीद है इस पर हिन्दी आलोचना से जुड़े संजीदा लोग आगे आएंगे।
जवाब देंहटाएंअच्छी शुरुवात है .कोशिश करूँगा कि शामिल हो सकूं .
जवाब देंहटाएंgopal pradhan ji ne hindi samiksa kebare mein jo kuch kaha hai wah bahut satyahai jiska nad bhadwaaj ji ne samarthan kiya mujhe wah baat bahut sateek lagti hai jeevan ko khono mein nahi bata ja sakta chahe arth ho samajik jimmedaari ho satta ho aam aadmi ka jeeevan ho jab taq hum gehre roop se samgra roop se jeevan se bnahi judtehum fori taur per hi chhezo ke najeriye bana sakte hai aur ye nazariyelagaataar hume kamjor soch dete hai hum kisi kshtra vishesh ke daksh mahir tabhi ho sakte hai jab hum anya vishyo per bhi utna hi sukshm drashti se sochnekeaadi ho .....aur ye bhi sahi hai ki khemawaad ..ab nahi reha ..ab ek khema bana hai tu mujhe chhaat mein tujhe chatu ....ek dusre ko hum aage badhane ke chakkar mein baat ke mul ko satya ko nasht kerne ke aaadi hue hai ..esliye samikjsha ka ster vishvasniya v pathniya nahi reha hai esme wo bebaak hokjer kehne ki taaqat nahi rehi hai fir bhi abhi asha shesh hai jab taq chintko ke jehan mein abhi taq es tarah ke vishay per likhne ki sachhai shesh hai ashamoujud hai gopla ji ko dhanyaawaaad
जवाब देंहटाएंव्यवस्थित आलेख है. गोपाल जी को पढ़ना हमेशा से समाज-साहित्य के अंतर्वर्ती संवाद को पढ़ना रहा है .पर 'आज़ादी के बाद की निश्चिन्तता' को मैं बूझ नहीं पा रहा. इस आग्रह पर रचना और समाज के मूलभूत और पारस्परिक विवेचन में एक कार्यालयीय दृष्टिकोण अधिक सक्रिय और मजबूत होता हुआ लगता है और साहित्य का यह विभागीय बाबूवाद कहाँ से आरोपित होता है ('आलोचकों के जिम्मे सिर्फ़ साहित्य की दुनिया आई').. कम से कम आज़ादी के बाद की साहित्यक शुरुआती आहटें ऐसी नहीं सुनाईं पड़तीं (जहां मुक्तिबोध,रामविलास जी, और अन्य अग्रणी आलोचक साहित्य की प्रतिवर्ती क्रिया के रूप में आलोचना के क्षितिज को विस्तार भी दे रहे थे और आकार भी). जिसे गोपाल जी निश्चिन्तता कह रहे हैं मैं उसे एक लंबे अंतराल के तल्ख़ और आरोपित परिवेश से पैदा लापरवाह रोमान अधिक समझता हूँ. जो किसी भी किस्म की हस्तगत सफलता का स्वाभाविक बाई-प्रौडक्ट हो सकता है.
जवाब देंहटाएंकिन्तु अपनी समूची रचनाधर्मी समझ और अध्ययन से ( जोकि अधकचरा और अधूरा माना जा सकता है ) मैं यह दावे से कह सकता हूँ कि दुनियावी स्तर पर हासिल की गयी आजादियों के बाद का सृजन-परिवेश जितना भारतीय परिप्रेक्ष्य और साथ ही हिन्दी साहित्य में संतुलित, सजग और गतिमान रहा है वह किसी अन्य भाषा या देश का नहीं.
गोपाल जी को फिर से बधाई और मेरे अनधिकृत प्रवेश को नज़रंदाज़ कर दिया
आलोचना का पाठ केंद्रित न होना स्वायत्त अथवा लोकतान्त्रिक होना नहीं है। वह पाठ केन्द्रित होकर भी स्वायत्त हो सकती है और `दृष्टि' गामी होकर भी स्वायत्तहीन। बल्कि दृष्टिगामिता ही बहुधा स्वायत्तता का हरण करने का कारक भी। "अक्सर वह पाठ को आलोकित करती है, व्याख्यित करती है" यह उसका उद्देश्य हो सकता है किन्तु ऐसा लगातार से हुआ कदापि नहीं है। गत लंबे अरसे से आलोचना रचनाशीलता के ह्रास का ही कारक बनती आ रही है। जितनी हानि आलोचना ने सृजन की है, उतनी किसी अन्य ने नहीं। आलोचना में स्वेच्छा चारिता और दबाव के द्वंद्व पर खुल कर विमर्श की आवश्यकता है।
जवाब देंहटाएंबहस आगे बढ़े.. मेरी भी दिलचस्पी है..
जवाब देंहटाएंसबकी दिलचस्पी है कि बहस आगे बढ़े लेकिन आगे बढ़ायेगा कौन? क्या यह प्रवृति भी आलोचना के विकास में बाधक नहीं रही है. प्रधान जी सही जगह पर उंगली रखते हैं कि पहले आलोचक के लिये अनुशासन बाधक नहीं था. हिन्दी के भी बड़े आलोचकों को देखे तो वे सिर्फ़ हिन्दी के विद्वान नहीं है. आज विशेषग्य बनने की दुनिया है विद्वान बनने की नहीं. आलोचना के लिये जो तैयारी चाहिये उसका प्रायः अभाव देखा गया है और तैयारी य्क्त आलोचना के अभाव में जो आलोचनायें हो रही हैं वह कोई रास्ता नहीं बना रही. छोटे छोटे कैनन बने हुए हैं, व्य्कतिगत पसंद ना पासंद है और गुटबाजी की महान परंपरा. ऐसे में पाठऔर संदर्भ के अध्य्यन के बजाय कुछ और हो रहा है तो क्या आश्चर्य?
जवाब देंहटाएंआलोचना अपने समय से आगे भी होती है और पीछे भी |यह आलोचक का मन है कि वह अपनी बात को कहां ले जाना चाहता है और उसकी चाहतें क्या हैं ? आलोचना पर उसके व्यक्ति-मन का बहुत असर रहता है |जिस आलोचक को अपने लोकजीवन का कोई अनुभव नहीं होता वह लाख कोशिश करने पर भी उस दिशा में नहीं जाता |वह उन्ही पैमानों को आजमाता है जो उसके जीवन व्यवहार में अपनाए हुए हैं |, आलोचना कभी व्यक्ति के जीवन व्यवहार से अलग नहीं होती |यदि मैं एलीट वर्ग से हूँ तो मेरी आलोचना अपनी एलीट अभिरुचियों से मुक्त नहीं होगी जब तक कि मैं स्वयम को अपने आभिजात्य से मुक्त न कर लूं |आलोचक अपने वर्ग को कैसे छोड़े ,यह सवाल बना रहता है
जवाब देंहटाएंहिंदी में रचना और आलोचना का विवाद बहुत पुराना है ...रचना बड़ी या आलोचना ..इस बिंदु पर रचनाकारों और आलोचकों में ठनती रहती है ..काफी दिन पहले यशश्वी कथाकार काशीनाथ सिंह ने ''आलोचना भी रचना है''जैसी पुस्तक लिखी थी .ये अलग बात है की उसका नोटिस अधिक नहीं लिया गया था|गोपाल जी ने इस मुद्दे को बहुत सार्थकता से हमारे सामने रखा है,वास्तव में रचना और आलोचना दोनों एक दूसरे से कमतर कभी नहीं हो सकती है ,क्योंकि कभी कभी सार्थक आलोचना की वजह से ही रचना सर्वग्राह्य हो पाती है .....नामवर जी की छायावाद और साही की जायसी और मुक्तिबोध की कामायनी-एक पुनर्विचार इसके ठोस उदाहरण हैं.हिंदी में आलोचना शुरू से ही बहुत शक्तिशाली रही है .शुक्ल जी ,हज़ारीप्रसाद जी ,नन्ददुलारे वाजपयी ,नगेन्द्र,नामवर,मैनेज़र पाण्डेय ,विश्वनाथ त्रिपाठी ऐसे बहुत नाम हैं जिन्होंने आलोचना को रचना की ही तरह रससिक्त किया और आगे बढाया.लेकिन आज का परि दृश्य बिलकुल खाली सा है ,कुछ एक उदहारण को छोड़ दे तो आलोचना का अर्थ पुस्तक समीक्षा से आगे नहीं जाता है और गोपाल जी की बात सही है कि यह भी प्रायोजित हो चूका है ..................बहुत अच्छा विश्लेषण है और बेबाकी से सारी बातें रखी गयी हैं .............बधाई गोपाल भाई ....
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