कथाकार-लेखक तरुण भटनागर के ‘भारत के विस्मृत नगर’ श्रृंखला में आपने मध्य-प्रदेश के ‘ऐरिकिण’ के विषय में पढ़ा है, इस अंक में पांडिचेरी के समीप ‘अरिकमेडू’ नगर के विषय में पढ़ेंगे जो अपने समय का विख्यात बन्दरगाह भी था जिसका सम्बन्ध रोम से जोड़ा जाता है, माना जाता है कि रोमन इसका उपयोग पहली शताब्दी से करते आ रहे थे.
समृद्ध अतीत को समझने की कोशिश के क्रम
में तरुण भटनागर ने इतिहास, पुरातत्व
और आख्यान के स्रोतों को खंगालते हुए इसे लिखा है.
प्रस्तुत है.
अरिकमेडू
मनके, माणिक और समुद्र की दुनिया
तरुण भटनागर
याद पड़ता है कि अस्सी के दशक की इंडिया टुडे के
किसी अंक में एस.एच. वेंकटरमनि का एक आलेख आया था, जो बताता था कि दक्षिण भारत में कहीं पेड़ों से घिरे एक
पुरातन टीले के उत्खनन से नाजुक और खूबसूरत कंगूरों से सजे रोमन पात्र मिले हैं और
इनके साथ ही रोमन लोगों द्वारा प्रयोग किये जाने वाले दो हत्थों वाले सुराहीनुमा
मदिरा के पात्र भी जिन्हें रोमन लोग एम्फोरस कहते थे.
एम्फोरस में से मदिरा के साक्ष्य मिले जो उसकी
सतह और पेंदे के विश्लेषण से पता चले थे. इसमें यह भी लिखा था कि यहाँ से मलमल के
कपड़ों के रंग को घोलने में प्रयोग होने वाला
एक पात्र और मृतक को दफ़नाने की क्रिया में प्रयोग किये जाने वाला एक पात्र
मिला जिस पर रोमन सील अंकित थी. पर इन सबसे रोचक चीज थी यहाँ से मिले माला में
पिरोये जाने वाले मनके और कुछ हल्के किस्म के माणिक. यह भी था ही जैसा कि ‘द जनरल
ऑफ़ द सेंटर ऑफ़ बीड रिसर्च’ की एक रिपोर्ट बताती है कि यह शहर जो उस वक्त का एक
महत्वपूर्ण बंदरगाह भी था और जिसका लगभग चार बार उत्खनन हुआ अकेली ऐसी महत्वपूर्ण
जगह रही है जहाँ से इन मनकों के निर्माण के इतने प्रचुर साक्ष्य मिले हैं.
जैमोलाजी याने मनकों और माणिकों के अनुसन्धान के विज्ञान के इस जर्नल में जो ‘जैमोलाजिकल एसोसिएशन ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन’ से प्रकाशित होता है अनुसन्धान आधारित एक फीचर्ड आर्टिकल प्रकाशित हुआ जो इस स्थान से मिले माणिकों और मनकों पर केन्द्रित था. यह बताता है कि पीटर फ्रांसिस नामक इस विषय के विशेषग्य ने जब पांडिचेरी स्थित संग्रहालय के इन मनकों की वर्गीकृत सूची बनायी थी तब इनकी कुल संख्या 50000 के करीब थी. हजारो साल पुरानी इस जगह से ये मनके उस वक्त याने 1987 में इस जगह को ढूंढें जाने के बाद से 200 सालों तक मिलते रहे और आज भी यदा कदा मिल जाते हैं. इस जगह के ये मनके दक्षिण पूर्व एशिया में माली के द्वीपों से लेकर बाली तक मिले हैं. जिससे दक्षिण पूर्व एशिया से इस जगह के व्यापारिक संबंधों के बारे में काफी कुछ पता चलता है.
इस सबकी शुरुआत तब हुई जब जीन बैप्टिस्ट ले जोंटी डे ला गेलैजरे नाम का एक फ्रेंच खगोलशास्त्री सत्रहवीं सदी में भारत आया था. उसे आज के पुदुच्चेरी या पान्डुचेरी में फ़्रांस के राजा ने सत्रहवीं सदी में नियुक्त किया था. भारत में अपने काम के दौरान शुक्र तारे के प्रदक्षिणा पथ को खोजकर यह खगोलशास्त्री काफी चर्चित हुआ था. इसे अपने इस काम के साथ-साथ एक पुरानी सूचना को कन्फर्म करने का काम भी फ़्रांस के राजा ने सुपुर्द किया था. दरअसल उस दौर में आज के पुदुच्चेरी याने पाण्डिचेरी पर फ्रेंच ईस्ट इंडिया कम्पनी का प्रभाव था. यह क्षेत्र फ़्रांस की सत्ता के अधीन था. इसी फ्रेंच ईस्ट इंडिया कम्पनी की एक 1734 ईस्वी की एक रिपोर्ट थी, जो यह बताती थी कि पाण्डिचेरी और कुड्डलोर के बीच एक स्थान जिसका नाम अरिकमेडू बताया जाता है वहाँ के लोग एक टीले और उसके आसपास के इलाके से निकलने वाली कुछ ऐसी ईंटों का प्रयोग कर रहे थे जो काफी पुरानी लगती थीं.
जीन बैप्टिस्ट ले जोंटी डे ला गेलैजरे ने उस वक्त अरिकमेडू का दौरा किया था और फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी की उस रिपोर्ट को तस्दीक भी किया था. उसका लिखा एक आलेख जो 1761 से 1769 के बीच का है बेहद रोचक है. कैसे फ्रेंच–ब्रिटिश युद्ध के वक्त उसका पानी का जहाज बंगाल कि खाड़ी में फंसा रहा और किस तरह उसने उस वक्त के पाण्डिचेरी में एक ओब्जर्वेट्री लगाई थी और शुक्र तारे को देखा करता था. ये सारे वृत्तांत उस आलेख में हैं. उसने एक रोचक जानकारी यह भी दी कि उस वक्त पड़े एक चन्द्र ग्रहण के समय को एक तमिल खगोलशास्त्री ने कैलकुलेट किया था. उसका यह केलकुलेशन चंद्रमा पर पड़ने वाली धरती की छाया और इस छाया के विस्तार पर आधारित था. यह ठीक वह पद्धति थी जिसे पांचवी सदी के खगोलशास्त्री आर्यभट्ट ने अपनाया था. जीन बैप्टिस्ट ले जोंटी डे ला गेलैजरे के अनुसार यह वास्तविक गणना से सिर्फ 41 सेकेंड के अंतर से कम था. इन्हीं अपने आलेखों में उसने अरिकमेडू का जिक्र किया. इस तरह इस जगह को दुनिया के सामने लाने वाला पहला व्यक्ति एक खगोलशास्त्री था.
अरिकमेडू एक आधुनिक नाम है और किवदंती है कि एक जैन मूर्ति जो इस स्थल से मिली है उसके नाम पर इसका नाम पड़ा. अर्थात ‘अराकन का टीला’ याने अरिकमेडू. अगर प्राचीन भारतीयों की बात की जाए तो उनके लिए यह जगह विरैयापत्तिनम या विरामपत्तिनम नाम की एक जगह थी जिसका मतलब है- ‘विराई का बंदरगाह’.
प्राचीन संगम साहित्य में इस जगह के बंदरगाह और यहाँ मिलने वाले नमक की प्रशंसा की गयी है और यह वेलिर राजवंश का इलाका बताया गया है. पश्चिम के लोग इसे या तो तमिल शब्द पोटीकई याने ‘मिलन का स्थान’ या स्थानीय पोदुवार लोगों के नाम से पुकारते थे जिससे इसका नाम उनकी जबान में कुछ और हो गया. यह एक रोचक बात है कि पोटीकई याने ‘मिलन का स्थान’ नाम से इसे जाना गया जो समुद्र किनारे होने से तमाम लोगों के मिलने जुलने की जगह रही होगी. प्रथम सदी ईस्वी में किसी अज्ञात ग्रीक समुद्री यात्री द्वारा लिखी गयी किताब ‘पैरिप्लस ऑफ़ द एरेथ्रियन सी’ में इसके लिए पोडुके शब्द का इस्तेमाल हुआ है जो इसी शब्द पोटीकई का अपभ्रंश लगता है.
Some of the Artefacts from the
Site: (1) Statue of a Girl with Bird, (2) Pottery
with Engravings & (3) Ancient Roman Pottery
(PHGCOM – Creative Commons)
प्रथम सदी के मध्य में ग्रीक भूगोलवेत्ता टोलेमी की लिखी ज्योग्राफ़ी में इसे पोडुके एम्पोरियन शब्द से संबोधित किया गया है. यह एक महत्वपूर्ण बात है खासकर पुडौके या पोडुके के साथ एम्पोरियन शब्द का लगा होना. एम्पोरियन से ही आगे चलकर एम्पोरियम शब्द की उत्पत्ति बताई गयी है जिसका मतलब हुआ ‘विक्रय केंद्र’ या ‘भण्डार’. यह शब्द एम्पोरियन जैसा की ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी बताती है प्राचीन ग्रीक के एक शब्द एम्पोरस से निकला जिसका आशय था व्यापारी या सौदागर. इसी से आये लैटिन शब्द से एम्पोरियम शब्द बना है. एम्पोरस एक प्राचीन ग्रीक बोली से आया जिसके आशय व्यापार से सम्बंधित थे.
अरिकमेडू का उत्तरी भाग एक बंदरगाह था और यहाँ से बड़ी मात्रा में भोजन परोसने के कटोरे और ट्रे मिली हैं जिससे यह अंदाज़ लगाया जाता है कि यहाँ विशाल होस्टल जैसा कुछ रहा होगा जहाँ व्यापारी और सौदागर ठहरते रहे होंगे. दक्षिण के भाग से काले और लाल रंग के बर्तन मिलते हैं जो इस इलाके के तथाकथित मेगालिथिक या पांडुकल तौर वाले बर्तन हैं. इसी इलाके में वह चर्चित ‘rouletted pottery’ याने चित्रों वाली मिट्टी की तश्तरी मिली है जिस पर किसी चिड़िया संभवतः चिकन की हड्डियाँ मिली थीं जिसे पीटर फ्रांसिस ने ‘द लास्ट सपर’ कहा था. व्हीलर ने इसे उन पात्रों की एक श्रेणी में पृथक से रखा जिससे इस जगह से रोमन पात्रों की पहचान होती थी.
अरिकमेडू की काल गणना का एक सिरा यहाँ के एक मनके से शुरू होता है जो थाईलैंड में मिला था और जिसका कार्बन डेटिंग उस मनके को चतुर्थ सदी ईसा पूर्व का बताता है. इस तरह के मनकों को जो दक्षिण पूर्व एशिया में कई जगहों में पाए गए हैं इंडो-पैसेफिक मनके कहा जाता है. ये विशिष्ट प्रकार के मनके हैं. प्रारंभ में ये अरिकमेडू में बनते थे और बाद में संसार के कई इलाकों और खासकर रोम और दक्षिण पूर्व एशिया में ये बहुतायत से पाए गए. ये मनके पिघले काँच की लड़ी को बराबर टुकड़ों में काटकर तैयार किये जाते थे. संसार में मनके बनाने की यह तकनीक जिसे ‘सीड बीड’ (Seed beed) भी कहते हैं अरिकमेडू के कारीगरों ने ही खोजी थी. कुछ विद्वानों का यह भी मत है कि इस तकनीक को गोपनीय बनाये रखने के कारण इस पर उनका एकाधिकार भी था ही. इस तरह काँच के मनके बनाने की इस अत्याधुनिक तकनीक को ढूंढ निकालने का श्रेय इस प्राचीन अरिकमेडू शहर को जाता है.
रोम तथा पश्चिम के जो सेरेमिक यहाँ से मिले हैं उनकी कालावधि सातवीं या आठवीं सदी तक की है. एक दसवीं सदी की चोल राजाओं की मुद्रा भी यहाँ से मिली है. व्हीलर को यहाँ से तेरहवीं और पंद्रहवीं सदी के चीनी बर्तन मिले थे जिनमें नीले और सफ़ेद रंग के परंपरागत चीनी बर्तन और क्रेक्स वाली ग्लेज़युक्त चीनी मिट्टी के बर्तन शामिल हैं. पर उनका मानना था कि इस इलाके में ईंटों की चोरी करने वाले लोगों ने इन्हें यहाँ छोड़ दिया था जबकि साबुत बर्तनों को वे ले गए होंगे. यहाँ से मिले मनके और भी बहुत कुछ बताते हैं. अरिकमेडू के मनके बनाने वाले कारीगरों का यहाँ से अन्यत्र स्थानान्तरण हुआ जैसे पपनैडूपेट नामक एक गाँव में जिसकी पहली जानकारी 1598 के आसपास की होती है. इसी तरह पूर्वी अफ्रीका में मिले कुछ मनकों से यह पता चलता है कि वे अरिकमेडू, नागपत्तिनम या पपनैडूपेट में कहीं बनाये गए होंगे. जिससे इस इलाके से अरिकमेडू के सम्बन्ध स्पष्ट होते हैं. इस तरह मनकों की इस तकनीक का प्रसार हुआ.
यह भी स्पष्ट है कि रोमन लोगों के यहाँ आने से पूर्व यह काले और लाल बर्तनों वाला इलाका था जो इस इलाके में दक्षिण की मेगालिथिक संस्कृति के प्रसार को बताता है. इससे यह भी पता चला कि अरिकमेडू रोमन लोगों के यहाँ आने से भी हजारों साल पहले से आबाद था. लैशनिक नामक एक विद्वान का यह मत है कि चूंकी ये मेगालिथ यूरोप के मेगालिथ से सर्वथा भिन्न हैं इसलिए इसे यहाँ के स्थानीय नाम याने पान्डुकुल के नाम से ही जाना जाना चाहिए. ये मेगालिथ लोगों को दफनाने के स्थल हैं जहाँ प्रतीक स्वरुप या अन्य प्रयोजन से विशाल पत्थरों को रख दिया जाता था.पीटर फ्रांसिस का एक आलेख बताता है कि इन मेगालिथ्स की संस्कृति तथा रोमनों के आने और उसके बाद तक जो लोग इस इलाके के विकास के लिए जिम्मेदार थे वे दक्षिण के पान्डूकल लोग थे.
‘अरिकमेडू : फॉरगॉटन हैरिटेज’ नामक इंडिया टुडे के अपने उस आलेख में वेंकटरमनी ने इस बेहद प्राचीन शहर को ‘एक वास्तविक रोमन शहर’ कि उपमा दिए जाने की ओर इशारा किया है. प्रारंभिक खोजों से लेकर 1940 तक और उसके बाद तक यह बात सामने आती रही कि यह कोई रोमन शहर रहा होगा. इसकी शुरुआत दिब्रुहरी (dubreuil) नामक फ्रेंच विद्वान से हुई जो भारतीय इतिहास और संस्कृति का खासा जानकार था और उसने इस इलाके के कुछ लोगों से इन प्राचीन मनकों और माणिकों को एकत्रित किया था. इनमें से एक माणिक पर एक इन्सान का चेहरा बना था. अपनी खोज में उसने इस चेहरे को रोमन सम्राट आगस्टस सीज़र बताया था. इसी शख्स ने पहली बार अरिकमेडू को एक रोमन शहर बताया था. यह एक ऐसी खोज थी जो लम्बे समय तक चली आई और यह माना जाता रहा कि यहाँ कोई रोमन बस्ती रही होगी. यद्यपि बाद में यहाँ हुए उत्खननों ने इससे भिन्न बात को स्थापित किया. पर उस वक्त इतना तो था ही कि इस बात ने पुरातत्ववेत्ताओं को अरिकमेडू पर खोज करने को प्रेरित किया.
इस जगह प्रारंभ में फ्रेंच लोगों ने जो उत्खनन किये उससे मिलने वाली चीजें किसी अजूबे से कम न थीं. यद्यपि इसका व्यवस्थित उत्खनन 1940 के बाद ही शुरू हो पाया था. दरअसल हुआ यूँ था कि जब व्हीलर ने मद्रास के संग्रहालय में अरिकमेडू से मिली पॉटरी के कुछ टुकड़ों को देखा और उनका अध्ययन किया तो इस अध्ययन के निष्कर्षों ने बताया कि ‘टेरा सिगिलाटा’ नाम से जाने जाने वाली यह पॉटरी इटली के अरेज़ो नामक जगह पर कम से कम प्रथम सदी ईसवी के मध्य तक बनती रही थी. इस तरह यह सिद्ध हुआ कि प्राचीन रोम के बने बर्तनों का प्रयोग यहाँ किया जाता था. व्हीलर ने यहाँ दो बार उत्खनन किया था. व्हीलर का शुरू कराया उत्खनन दूसरे विश्वयुद्ध के कारण बाधित हुआ था जिसे बाद में इसे फिर से शुरू किया गया था. पीटर फ्रांसिस ने अपनी शोध पुस्तक ‘एशियाज मैरीटाइम बीड ट्रेड: 300 बी.सी. टू द प्रेजेंट’ में इन उत्खननों के निष्कर्षों को विस्तार से लिखा है. इसके अनुसार यहाँ से मिले खूबसूरत लैंप, काँच के टुकड़े, क्राकरी, कटलरी, एम्फोरस, माणिक, माणिक के बने पात्र, मदिरा के खूबसूरत पात्र, मनके, अनोखे कट वाले माणिक और तमाम स्तरों पर मिली ईंटें और भवनों की नीव और दीवारों के अवशेष इस जगह की एक अलग ही कहानी बता रहे थे जो व्हीलर के उस निष्कर्ष को सही बताने के लिए काफी थे कि इस जगह का ग्रीको-रोमन काल से सम्बन्ध था और यह भी कि यहाँ रोमन लोगों की कोई बस्ती रही होगी. पर इन निष्कर्षों को लम्बे समय बात चुनौती दी गयी.
इस जगह के संसार से जो व्यापारिक सम्बन्ध रहे उसे समझने में यहाँ से मिले मनकों की भूमिका अहम रही है. ये दो तरह के मनके हैं पहले काँच के और दूसरे पत्थरों के. जैसा कि यह है ही कि ‘सीड बीड’ नामक तकनीक जिसमें किसी खोखल पर पिघलते काँच को लपेटकर उसे मुंह से हवा भरकर फुलाया जाता है और इस तरह से बने काँच के पाईप को बराबर-बराबर काटकर काँच के मनके बनाये जाते हैं उसकी खोज अरिकमेडू में ही हुई थी. आज सारे संसार में यह तकनीक प्रयोग की जाती है. संसार में तमाम जगहों पर मिले अरिकमेडू के बने इन इंडो-पैसेफिक मनकों का काफी अध्ययन हुआ है. इंडोनेशिया के बाली द्वीप में मिले नीले रंग के मनकों को उनमें मिले पोटाश और कोबाल्ट वाली अशुद्धी के प्रयोग के कारण अरिकमेडू का माना गया है. नीले रंग के काँच के ये मनके अरिकमेडू के शिल्पियों के बनाये मनकों में विशिष्ट इसलिए भी हैं कि इस रंग को काँच में मिलाने की तकनीक उनके पास थी ही और बेहद रेयर और मुख्तलिफ किस्म का रंग होने से नीले मनकों की माँग भी काफी रही होगी. इसी तरह से जकार्ता के एक इलाके में जिसे ‘बनी काम्प्लेक्स’ नाम दिया गया है अरिकमेडू के बने काँच के मनके काफी तादाद में मिले हैं.
लगभग 2000 सालों तक इन मनकों की इन इलाकों में आपूर्ति अरिकमेडू से होती रही जिसकी शुरुआत ईसा से कई सालों पहले से और ज्यादा से ज्यादा 400 साल पहले से रही है. फिर जब इस तकनीक का विस्तार हुआ तो कुछ अन्य महत्वपूर्ण केंद्र दक्षिण भारत में विकसित होते रहे और संसार में मनकों की माँग की पूर्ति करते रहे. टोलेमी द्वारा पहली सदी ईस्वी में इन सब शहरों के लिए ‘एम्पोरियन’ शब्द का स्तेमाल किया है जिसका मतलब यह हुआ कि ये सभी जगहें मनकों की आपूर्ति के बड़े केंद्र थे. इन शहरों में अरिकमेडू के अलावा कट्टीगर, तक्कोला और मोदुति या मनतई शामिल हैं. एक अध्ययन यह बताता है कि काँच के मनके बनाने का यह काम समाज का निम्न तबका करता रहा होगा क्योंकि यह बेहद गर्म भट्टियों के पास खड़ा रहने, पसीना बहाने और गन्दगी भरा काम था. अरिकमेडू के इस काम का सारे संसार में प्रसार हुआ ही.
इंडोनेशिया के फुनान में एक वक्त ऐसा दीखता है जब रोमन लोगों से उनके व्यापार में कमी आई तब वहां के बाज़ार भारतीय सामानों से भरने लगे. यह बात पांचवीं सदी की है. फ्रांसिस ने इसे इस तरह से लिखा है कि नए राजा ने ‘सारे नियम भारतीय परंपरा के अनुसार लागू कर दिए’. बाद में मलाया और सुमात्रा में जब श्रीविजय राज्य का उदय हुआ जो फुनान का उत्तराधिकारी राज्य था तब काँच के मनकों का उद्योग काफी ज्यादा इन इलाकों में प्रसारित हुआ. इसे कुछ विद्वान अरिकमेडू के मनकों के प्रसार की ‘दूसरी लहर’ कहते हैं. पांचवी सदी के बाद के इस समय में दक्षिण भारत में व्यापारियों की गिल्ड या श्रेणियों का विकास हुआ. कुछ गिल्ड इतने शक्तिशाली होते थे कि ये किसी पूरे जिले को नियंत्रित करते थे और इनकी अपनी सेना होती और ये अपनी मुद्रा भी चलाते. गिल्ड एक तरह का व्यापारियों का व्यवस्थित समूह था जो उत्पादन और बेचने का काम करने के साथ-साथ उस इलाके में अपनी सत्ता भी बनाए रखता था. एक शक्तिशाली गिल्ड को इंडोनेशिया के श्रीविजय और तकुआ पा नाम के इलाके और दक्षिण भारत में एकसाथ काम करते पाया गया है. यह गिल्ड तेल निकालने के काम के साथ-साथ काँच के मनके भी बनाता था. इसका नाम मनिकग्रामन था. चूंकी इसका नाम मनिक से था इसलिए फ्रांसिस ने इसका मतलब माणिक याने मनकों को बनाने वाला बताया है. दक्षिण भारत और इंडोनेशिया दोनों जगह इस गिल्ड की खासी पैठ थी.
पत्थरों के मनकों का उल्लेख सभी उत्खननों में हुआ है पर गार्नेट के मनकों की जानकारी बेहद कम रही है. सिलिकेट के बने ये कुदरती माणिक जिन्हें रक्तमणि, तामडा या याकूत भी कहा जाता है इस स्थान से मिले महत्वपूर्ण मनके हैं. इनका महत्व इसलिए भी है कि प्रसार और व्यापारिक संबंधों को और खासकर इन व्यापार के मार्गों को पता करने में ये बेहद उपयोगी हैं. इसी ऐतिहासिक महत्ता के कारण मध्यकाल तक दुनिया में तमाम जगह पाए गए इन मनकों और माणिकों से इनकी तुलना से और अध्ययन से रास्ता खुल सकता है.साल 2002 और 2004 में दो बार इनके माइक्रोस्कोपिक विश्लेषण का उल्लेख है जो जर्मनी के एक विश्विद्यालय में हुआ था और जिसके अनुसार अरिकमेडू से मिले गार्नेट के इन मनकों में 83% एल्मैनडाइट और कुछ और मिनरल के साथ 12% पायरोप पाया गया है. पर यह पर्याप्त जानकारी नहीं है. अरिकमेडू के पत्थर के मनकों को जानने और संसार के तमाम इलाकों से मिले दूसरे मनकों से इनको अलग से पहचानने के लिए इनकी कटिंग और इनकी घिसावट के अध्यनों से निश्चय ही कोई रास्ता निकल सकता है. विशेषकर इसलिए भी कि संसार में इन्हें अलग से पहचाना जा सके. जेमोलॉजी अर्थात माणिक विज्ञान के विशेषज्ञों ने इन पर जो काम किया वह हाल ही में साल 2017 में जैमोलाजी के एक जर्नल में प्रकाशित हुआ है. इसमें इन माणिकों की विशेषताओं को चिन्हांकित करते हुए इनका वर्गीकरण किया गया है, जो अरिकमेडू के आगे के अध्ययनों में कारगर साबित होंगे.
मूल रासायनिक संरचना के ये गार्नेट के पत्थर बाहर से अरिकमेडू मंगाए जाते थे और फिर उनकी कटिंग आदि का काम यहाँ होता था. इन मनकों के बारे में फ्रांसिस का निष्कर्ष यह है कि ये पत्थर ओक ईओ नामक वियेतनाम के एक स्थान से यहाँ लाये जाते थे. जिन कीमती पत्थरों का प्रयोग इन मनकों को बनाने में किया जाता था उनमें क्वार्ट्ज, बिल्लोर के पारदर्शक पत्थर याने एमेथिस्ट, कार्नेलियन जिसे इन्द्रगोप भी कहा जाता है, बहुत सी परतों वाला अगेट याने सुलेमानी पत्थर, रक्तमणि उर्फ़ याकूत याने गार्नेट तथा पारदर्शक हरे रंग का स्फटिक जिसे प्रेज़ कहा जाता है शामिल हैं.
पत्थर के मनकों को बनाने के श्रमसाध्य काम में अरिकमेडू की कई उपलब्धियां रही हैं. फ्रांसिस ने एक बात कही है कि अरिकमेडू वह जगह है जहाँ पत्थर के मनकों को आकार देने के लिए ‘डबल ट्रिप डायमंड ड्रिल’ का सबसे पुराना प्रयोग मिलता है. यद्यपि संसार के तमाम इलाकों में पत्थर के मनके बनाने की तकनीक के अपने-अपने विकास की वजह से अरिकमेडू की इस तकनीक की ओर उनका ध्यान उस प्राचीन वक्त में न गया हो और जैसा कि अध्ययन बताते हैं कि अरिकमेडू के काँच के मनकों की तकनीक को संसार में जिस तरह से तवज्जो दी गयी वैसी तवज्जो यहाँ के पत्थर के मनकों को नहीं मिल पायी. पर यह भी है कि तकनीक के विकास में पत्थर के मनकों का निर्माण कहीं ज्यादा अहम रहा है. अरिकमेडू को इस बात का भी श्रेय जाता है कि गोमेद का एक प्रकार जिसे ‘ब्लैक बैंडेड ओनिक्स’ कहा जाता है के रासायनिक शुद्धिकरण से यहाँ के माणिक के कारीगर परिचित थे. पहले रासायनिक तरीके से इस माणिक को साफ़ किया जाता था और उसके बाद इसके मनके बनाये जाते थे. रासायनिक शुद्धिकरण के लिए इसे पहले शक्कर के मीठे पानी में डाला जाता था ताकि यह पत्थर उसे सोक ले और इसके बाद सल्फुरिक एसिड से इसे साफ़ किया जाता था. बहुस्तरीय परतें होने से इस मनके की काफी माँग थी.
ऐसा माना जाता है कि सुनहरे रंग के स्फटिक जिसे ‘सिटरिन’ भी कहा जाता है का निर्माण भी सबसे पहले अरिकमेडू में ही हुआ था. ऐसा वे इस पत्थर को कमजोर किस्म के जमुनिया या जम्बुमणि जिसे ‘अमेथिस्ट’ भी कहा जाता है के साथ ट्रीट करके करते थे. यह सम्भव है और जैसा कि फ्रांसिस ने अपने आलेख में बताया भी है कि मनकों के शिल्पकार जो अरिकमेडू में रहते थे प्रथम सदी ईस्वी के अंत के आते-आते संसार के कई इलाकों में गए होंगे. पर जैसा कि हम पाते हैं कि इस तकनीक का उन पर कोई ख़ास प्रभाव न था, अलबत्ता यह जरूर है कि एक लम्बे समय तक अरिकमेडू के बने पत्त्थर के मनके इन इलाकों में आयात किये जाते रहे. बावजूद इसके जैसा वैश्विक प्रसार काँच के मनकों का मिलता है वैसा इनका नहीं मिल पाता है.
1989 से लेकर 1992 तक अरिकमेडू का एक बेहद अहम उत्खनन हुआ. यह उत्खनन कई मायनों में महत्वपूर्ण है. बेगले (Begley) और रमन ने यह काम पेंसेल्वेनिया विश्वविद्यालय और मद्रास विश्वविद्यालय के साथ मिलकर किया था. मौके पर उत्खनित इलाकों का प्रभार डिलावेयर के एक विद्वान के पास था जिन्हें रोमन और इजिप्ट के उत्खननों का ख़ासा ज्ञान था. इस उत्खनन के निष्कर्षों ने इस जगह को लेकर चली आ रही पुरानी मान्यताओं में कई परिवर्तन किये. एक तो इस जगह के विकास के कालक्रम को समझा जा सका और जैसा कि बेगले के निष्कर्ष बताते हैं कि अरिकमेडू के विकास के छह स्पष्ट कालखण्ड हैं. ईंटों की जिन संरचनाओं को व्हीलर ने 1940 के उत्खनन से निर्माण का बेहतरीन नमूना बताया था उनके बारे में यह बात सामने आई कि इन भवनों से छतें नदारत थीं. यानी ये निर्माण के वैसे बेहतरीन नमूने नहीं थे जैसा की इन्हें जाना गया. कुओं के तले रेत से भरे थे जिससे इनकी मजबूती की बात भी गलत साबित हुई. इस उत्खनन ने जो काल अवधारणा की उससे यह भी पता चला की रोम से अरिकमेडू का व्यापार दूसरी सदी ईस्वी के बाद तक होता रहा था. व्हीलर ने इसे दूसरी सदी तक बताया था पर बेगले के निष्कर्ष बताते हैं कि यह सातवीं से आठवीं सदी तक होता रहा था. इस प्रकार दूसरी सदी ईसा पूर्व से सातवीं या आठवीं सदी तक ग्रीस और रोम से अरिकमेडू के व्यापारिक संबंधों का पता चलता है. एक स्पष्टता इस बात को लेकर भी बनी कि क्या अरिकमेडू कोई ग्रीक या रोमन व्यापार का ऐसा इलाका था जहाँ इन लोगों ने अपनी बस्तियां बसाईं या यह कि इस जगह की उन्नति में इन ग्रीक और रोमन लोगों की बड़ी भूमिका थी जैसा की व्हीलर और उसके पूर्ववर्ती विद्वानों का मत रहा है ?
व्हीलर के उत्खनन के वक्त रोमन एम्फोरस के अवशेषों और आगस्टस सीज़र की सील के अलावा ऐसी तमाम चीजों का समूह यहाँ से मिला था जो अरिकमेडू की कोई और ही कथा बताने का पर्याप्त आधार देता था. इनमें टेराकोटा की टूटी फूटी मूर्तियाँ, लोहे की कीलें, ताम्बे का बीटर जो एक ड्रम रुपी वाद्य यंत्र बजाने के काम आता है, सीपों के बने मनके, कुछ विशिष्ट प्रकार के माणिक, सोना, हाथी दांत का एक सुराही का हत्था, एक रोमन लैंप के टूटे टुकड़े,एक लकड़ी का खिलौना आदि के आधार पर इस जगह को एक रोमन बस्ती के रूप में बताने के पर्याप्त साक्ष्य भी थे ही. व्हीलर ने कुछ किस्म के बर्तनों को वर्गीकृत करते हुए उनके साथ ‘आयातित रोमन बर्तन’ शब्द का प्रयोग किया था. इनको उसने तीन भागों में बांटा था. पहले किस्म के बर्तन जिन्हें ‘अर्रेंटाइन वेयर’ कहा गया और जो ‘टेरा सिगिलाटा’ प्रकार का होने से प्रथम सदी के मध्य के इटली में बने बर्तन माने गए, दूसरा वह ‘एम्फोरिया’ या ‘एम्फोरस’ जिसका प्रयोग रोमन लोग मदिरा या तेल रखने के लिए करते थे तथा तीसरा ‘रौलटेड वेयर’ जिनका सम्बन्ध रोमन बर्तनों से रहा है. इनके आधार पर रोमन बस्ती का तर्क पुष्ट होता रहा. पर बेगले के उत्खनन से आये निष्कर्षों ने इससे भिन्न बात बताई और जैसा कि फ्रांसिस कहते हैं –
‘अरिकमेडू का निर्माण रोमनों ने नहीं किया था. यह शहर भारतीयों की निर्मित की हुई जगह थी. जो बंदरगाह था वह कपड़ों के व्यापार के लिए चर्चित न था.’
यह एक महत्वपूर्ण बात थी क्योंकि व्हीलर जिस कपडे रंगने के पात्र के आधार का प्रयोग कर रहे थे वह रेत का बना था जिससे इसके रोमन सम्बन्ध की बात सही न थी. फ्रांसिस आगे कहते हैं–
‘इस जगह का बंदरगाह मनकों और मिट्टी के बर्तनों के लिए जाना गया. और यह सिर्फ कुछ सौ बरसों की बात न थी बल्कि यह एक महत्वपूर्ण निर्माण केंद्र और एक बंदरगाह था जो 2000 सालों तक आबाद रहा था.’
उन्होंने अरिकमेडू को जिसे टोलेमी ने पोडुके एम्फोरियन कहा था ‘प्राचीन विश्व के खजाने के कोष’ की संज्ञा दी है. यह काफी तर्कपूर्ण है कि लैशनिक ने यहाँ की पुरानी कब्रगाहों को यूरोप के मेगालिथिक से अलग कर इसके स्थानीय नाम याने पांडुकल नाम से संबोधित किया क्योंकि फितरतन और अपनी विशेषताओं में वे यूरोपियन मेगालिथ से एकदम अलग जाने गए.
जैमोलोजिस्टो का जो नवीनतम काम इस जगह से मिले मनकों पर आया है वह अरिकमेडू को और बेहतर समझने में भविष्य का रास्ता बताएगा जैसा कि कई इतिहासविदों ने उम्मीद की है. वे फ्रेंच लोग जिन्होंने इस जगह को पहले-पहल देखा और एक जगह विवरण है कि कैसे इस इलाके के बच्चे इन मनकों के बदले उनसे कुछ चीजें तोहफे में मांगते थे, इस जगह को ढूँढने और संजोने की बेहद अलग कहानी बताता ही है. फ्रांसिस लिखते हैं–
‘इस महत्वपूर्ण जगह पर काम करने का खयाल मुझे उकसाता रहा है तब भी और अब भी.हम इस जगह के अतीत के तमाम किस्सों पर से पर्दा नहीं हटा पायें हैं पर पहले से कहीं ज्यादा हम इसे समझ पाए हैं.’
संगम साहित्य और प्राचीन ग्रीक ग्रंथों में उल्लेखित अरिकमेडू उर्फ़ पोडुके एम्पोरियन ने किसी वक्त रोमन और दक्षिण पूर्व में व्यापारिक केंद्र के रूप में अपनी एक महत्वपूर्ण जगह बनायी थी. माणिकों को तराशने की कला के विकास और व्यापारियों के गिल्ड के वैश्विक प्रसार और यहाँ रोमन व्यापारियों के आने और ठहरने के साक्ष्य एक ऐसी चीज है जो इस अति प्राचीन बंदरगाह को भारत के प्राचीन इतिहास में एक अलग पहचान दिलाती है.
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१: ऐरण उर्फ़ ऐरिकिण : भारत के विस्मृत नगर
भाई तरुण भटनागर को मैं बधाई व साधुवाद देता हूं इस कार्य के लिए । मुझे यह जानकारी नहीं थी कि इससे पूर्व भी वे इस श्रंखला में एक नगर के बारे में लिख चुके हैं । यह बहुत महत्वपूर्ण और शोधपरक कार्य है ।
जवाब देंहटाएंवस्तुतः हम जैसे आत्म केंद्रित हो चले लोगों और इतिहास बोध के नाम पर शून्य लोगों के लिए यह केवल सूचना परक लेख ही नहीं है बल्कि यह विश्व के प्राचीन वैभव और सामाजिक संबंधों, व्यापार ,शासन व्यवस्था ,लोगों के मनोरंजन इत्यादि अनेक बातों पर प्रकाश डालता है । यह हमारी 'नगर' की आधुनिक सोच को भी विस्तार देता है ।
ज़ाहिर है बिना अतीत को ठीक से समझे हमारा भविष्य का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता । हर प्राणि की तरह हर वस्तु , स्थान और धारणा के भी पूर्वज होते हैं।
शरद कोकास
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 18.02.2021 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
लेख गंभीर शोध के साथ ही बहुत रोचक है। यह अनूठी श्रृंखला है जिसके लिए लेखक और प्रस्तुति के लिए समालोचन बधाई के पात्र हैं।
जवाब देंहटाएंदोनों ही लेख बेहद उम्दा है एवं इतिहास में रुचि जगाते है। साधुवाद लेखक को।
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