महामारी : आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक दृष्टिकोण : सौरव कुमार राय

(Photo courtesy : Ben Mckeown )




कोरोना आपदा को केंद्र में रखकर लिखे गये वैचारिक और सृजनात्मक लेखन समालोचन पर आप अनवरत पढ़ रहें हैं अबतक आपने-

अशोक वाजपेयी, विजय कुमार (कविताएँ),

राजिंदर सिंह बेदी, फणीश्वर नाथ रेणु, पंकज मित्र, प्रचण्ड प्रवीर (कहानियाँ),

यान लियांके (अनुवाद यादवेन्द्र), मदन सोनी, स्कन्द शुक्ल, रश्मि रावत, संतोष अर्श, सुशील कृष्ण गोरे, सुजीत कुमार सिंह, प्रांजल सिंह, (आलेख), और

चित्रकार- अखिलेश, सीरज सक्सेना, मनीष पुष्कले, अवधेश यादव, देवीलाल पाटीदार, अमित कल्ला, भारती दीक्षित, सफदर शामी, विनय अम्बर, वाज़दा खान, रवीन्द्र व्यास, सुमन कुमार सिंह, जयप्रकाश, अनिरुद्ध सागर, अशोक भौमिक, महावीर वर्मा, सुप्रिया, नरेंद्र पाल सिंह, सुमित मिश्रा, शम्मा शाह, हुकुम लाल वर्मा, अनीस नियाजी, चरण शर्मा, प्रियंका सिन्हा,अनूप श्रीवास्तव (चित्रकार-श्रृंखला संपादक राकेश श्रीमाल) को पढ़ा.

इसी क्रम में आज इस महामारी के आर्थिकराजनीतिक एवं सामाजिक आयामों पर चर्चा कर रहें हैं नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय के वरिष्ठ शोध सहायक सौरव कुमार राय



महामारी : आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक दृष्टिकोण             
सौरव कुमार राय 




कोरोना महामारी के हालिया प्रकोप ने अचानक से मानव इतिहास की कुछ प्रमुख महामारियों को चर्चा में ला दिया है. इस संदर्भ में जिन महामारियों पर सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है वे हैं-

  1. चौदहवीं शताब्दी यूरोप में फैली प्लेग महामारी (जिसे 'ब्लैक डेथ' के नाम से भी जाना जाता है);
  2. सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में अमेरिकी महाद्वीपों में फैलने वाली चेचक और प्लेग महामारियां;
  3. भारतीय उपमहाद्वीप में 1890 के दशक में फैली प्लेग महामारी तथा
  4. 1918 में फैली स्पेनिश इन्फ्लुएंजा नामक वैश्विक महामारी.
वर्तमान महामारी के साथ-साथ इन महामारियों पर एक सरसरी नज़र स्पष्ट रूप से दर्शाती है कि किसी भी महामारी की शुरुआत एक जैविक परिघटना के रूप में होती है, लेकिन यह जल्द ही राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक घटनाक्रम में बदल जाती है. दूसरे शब्दों में, किसी भी महामारी को सिर्फ सूक्ष्मजीवों द्वारा होने वाली किसी रोग विशेष के व्यापक प्रसार के तौर पर नहीं समझा जा सकता है, वरन इसके आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक पहलुओं पर विचार करना उतना ही आवश्यक है.
अगर हम गौर करें तो यह पाएंगे कि महामारियों में उत्पादन की प्रणाली में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने की क्षमता होती है. यह चौदहवीं शताब्दी यूरोप के 'ब्लैक डेथ' या प्लेग महामारी के मामले में सबसे स्पष्ट था. 'ब्लैक डेथ' ने लगभग एक तिहाई यूरोपीय लोगों को मार डाला, जिससे यूरोप में काम करने वाले लोगों अथवा सर्फ़ (बंधुआ मजदूर) की संख्या में जबरदस्त गिरावट आई. नतीजतन, सामंतों को इन सर्फ़ों को कई रियायतें देनी पड़ीं. कालांतर में इसने स्वतंत्र लघु कृषक प्रणाली तथा खेतिहर मजदूर आधारित कृषि व्यवस्था को जन्म दिया. इस प्रकार चौदहवीं शताब्दी के प्लेग महामारी ने यूरोप में सर्फ़ आधारित सामंती उत्पादन प्रणाली की जड़ों को हिला कर रख दिया तथा पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली की तरफ संक्रमण की नींव रखी.
कुछ ऐसी ही क्रांतिकारी आर्थिक परिवर्तनों की भविष्यवाणी वर्तमान कोरोना महामारी के संदर्भ में भी की जा रही है. यह तर्क दिया जा रहा है कि निश्चित तौर से कोरोना महामारी वैश्विक अर्थव्यवस्था की संकल्पना को गहरा धक्का पहुंचाएगी. इस संबंध में जॉन फेफर ने अपने हालिया लेख में कोरोना महामारी को वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए दिल के दौरे के तौर पर देखा है जिसके गंभीर परिणाम आने वाले कुछ वर्षों में देखने को मिल सकते हैं. विद्वान तो यहाँ तक तर्क दे रहे हैं कि मौजूदा महामारी हमें राष्ट्र केंद्रित आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था की तरफ वापस ले जाएगी. विशेषज्ञ आर्थिक मंदी और कई कंपनियों के दुनिया भर में पतन की भी भविष्यवाणी कर रहे हैं जिससे बेरोजगारी बढ़ेगी. अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्रों के श्रमिकों को पहले से ही मौजूदा संकट के कारण गंभीर कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है. यह उन्मुक्त पूँजी आधारित उत्पादन की वर्तमान प्रणाली में दूरगामी परिवर्तन का कारण बन सकता है.
मानव इतिहास में महामारियां अनेक महत्वपूर्ण राजनीतिक परिवर्तनों की भी जनक रही हैं. यहाँ तक कि 'प्लेग ऑफ़ जस्टिनियन' जैसी महामारी तो शक्तिशाली पूर्वी रोमन साम्राज्य के पतन का भी कारण बनी. इसी प्रकार भारतीय उपमहाद्वीप में 1890 के दशक में फैली ब्यूबॉनिक प्लेग महामारी और 1918 के इन्फ्लुएंजा महामारी ने राष्ट्रवादी आंदोलन को बल दिया. इन दो महामारियों ने भारत में 'सभ्यता के प्रसार' के औपनिवेशिक दावे की निरर्थकता को साबित कर दिया. महात्मा गांधी, खान अब्दुल गफ्फार खान और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के परिवार के सदस्यों सहित लाखों भारतीयों ने इन महामारियों के आगे घुटने टेक दिए. औपनिवेशिक शासन के तहत खराब स्वास्थ्य ढांचे की मौजूदगी इन दो महामारियों के दौरान स्पष्ट तौर पर उजागर हो गयी जिसने औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध जनाक्रोश को और अधिक उभारा.
वास्तव में, जैसा कि इतिहासकार डेविड अर्नाल्ड तर्क देते हैं, इन महामारियों का उपयोग औपनिवेशिक शासन द्वारा भारतीयों की राजनीतिक गतिशीलता को प्रतिबंधित करने और उनकी राष्ट्रवादी भावनाओं को दबाने के अवसरों के रूप में किया गया था. इसी तर्ज पर एक अन्य इतिहासकार अनिल कुमार अपनी पुस्तक मेडिसिन एंड राज में यह तर्क देते हैं कि प्लेग के विरुद्ध औपनिवेशिक मुहिम प्लेग फैलाने वाले रोगाणु की तुलना में भारतीयों के विरुद्ध ज्यादा नजर आती है. हालाँकि, इसने राष्ट्रवादी भावना को प्रश्रय ही दिया. उदाहरणस्वरूप, बंबई प्रेसीडेंसी में प्लेग महामारी के प्रसार को रोकने के नाम पर औपनिवेशिक अधिकारियों द्वारा की जा रही ज़्यादतियों के विरुद्ध राष्ट्रवादी नेता बाल गंगाधर तिलक ने अपने अखबारों 'मराठा' और 'केसरी' में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ लगातार कई लेख प्रकाशित किये. यह कहा जाता है कि तिलक के लेखन से ही प्रेरित होकर चापेकर बंधुओं ने अंततः पूना के प्लेग कमिश्नर डब्ल्यू सी रैंड, जो अपने प्लेग रोधी उपायों के लिए काफी कुख्यात हो गया था, की हत्या कर दी. यह गौरतलब है कि तिलक पर उपर्युक्त लेखन के लिए औपनिवेशिक सरकार द्वारा देशद्रोह का आरोप भी लगाया गया था. 
यदि हम वर्तमान महामारी के संदर्भ में बात करें तो युवाल नोआह हरारी तथा श्लोमो बेन-एमी जैसे विद्वानों ने हाल ही में उत्तर-कोरोना महामारी युग के साथ-साथ आसन्न राजनीतिक परिवर्तनों के बारे में चर्चा की है. हरारी के अनुसार कोरोना महामारी सख्त राजनीतिक निगरानी और भविष्य में अपने नागरिकों पर राज्य के अत्यधिक नियंत्रण को बढ़ावा दे सकती है. 'फाइनेंशियल टाइम्स' के लिए लिखे गए अपने हालिया निबंध में वह लिखते हैं कि 


'यह तूफ़ान गुज़र जाएगा, अवश्य गुज़र जाएगा, हममें से ज़्यादातर ज़िंदा बचेंगे लेकिन हम एक बदली हुई दुनिया में रह रहे होंगे. आपातकाल में उठाए गए बहुत सारे कदम ज़िंदगी का हिस्सा बन जाएंगे. यही आपातकाल की फ़ितरत है, वह ऐतिहासिक प्रक्रियाओं को फ़ास्ट फॉरवर्ड कर देती है. ऐसे फ़ैसले जिन पर आम तौर पर वर्षों तक विचार-विमर्श चलता है, आपातकाल में वे फ़ैसले कुछ घंटों में हो जाते हैं. अधकचरा और ख़तरनाक टेक्नोलॉजी को भी काम पर लगा दिया जाता है क्योंकि कुछ न करने के ख़तरे कहीं बड़े हो सकते हैं. समूचे देश के नागरिक विशाल सामाजिक प्रयोगों के चूहों (गिनी पिग) में तब्दील हो जाते हैं.

इसी क्रम में हरारी आगे तर्क देते हैं कि उत्तर-कोरोना युग में राष्ट्रवादी अलगाव में भी वृद्धि की गुंजाइश है. इसी प्रकार श्लोमो बेन-एमी भी कहते हैं कि इतिहास में यह देखा गया है कि हर त्रासदी और महामारी के बाद पुरानी मान्यताएं टूटती हैं और नई चीज़ें सामने आती हैं. 
पेंटिग : सरिता पाण्डेय
यदि हम महामारियों के सामाजिक आयाम पर चर्चा करें तो हम यह पाएंगे कि महामारियों के दौरान समाज एवं सरकारें दोनों ही प्रायः 'बलि का बकरा' ढूंढते हैं. महामारी के दौरान समाज के किसी वर्ग अथवा समूह विशेष को जिम्मेदार ठहराना तथा उसे प्रताड़ित करना एक ऐतिहासिक सत्य है. जब रोमन साम्राज्य में एंतोनियन प्लेग फैला तो रोम के शासक ने इसके लिए ईसाइयों को ज़िम्मेदार ठहराया. कुछ ऐसा ही 'ब्लैक डेथ' के समय भी हुआ जब यूरोप में यहूदियों को प्लेग फैलाने के लिए विशेष रूप से जिम्मेदार ठहराया गया. इस संबंध में अंग्रेजी इतिहासकार साइमन स्कैमा लिखते हैं कि 'ब्लैक डेथ' के दौरान यहूदियों पर ये आरोप लगाया गया कि ईसाइयों के प्रति धार्मिक वैमनस्यता के चलते इन लोगों ने जानबूझकर पानी के कुएँ तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों को प्लेग से संक्रमित कर दिया था.
कुछ इसी प्रकार औपनिवेशिक भारतीय शासन ने हिंदुस्तान में महामारियों के बारम्बार प्रकोप के लिए सदैव भारतीयों के 'गंदे' तथा 'अस्वच्छ' आदतों को प्राथमिक कारण के रूप में पेश किया. आगे चलकर ‘प्रबुद्ध’ भारतीय मध्यम वर्ग और बुद्धिजीवी वर्ग ने इस दोष को निचली जातियों और वर्ग से संबंधित अपने साथी देशवासियों पर स्थानांतरित करने का प्रयास किया. इस क्रम में किसी भी शहर में मौजूद गरीब बस्तियों को विशेष रूप से ‘बीमारियों के भंडार’ के रूप में देखा जाने लगा. वास्तव में, मध्यम वर्ग की जातिगत संकल्पना में स्वच्छता संबंधी विवेक अथवा समझ के आधार पर किसी जाति विशेष की पहचान की जा सकती थी. यह ध्यातव्य है कि इस मध्यम वर्गीय संकल्पना में निचली जातियों और वर्गों को स्वच्छता के प्रति सर्वथा उदासीन जनता के रूप में प्रस्तुत किया गया जो महामारी के फैलने के लिए उर्वर भूमि प्रदान करती थी.
बलि का बकरा ढूंढने की उपरोक्त कवायद वर्तमान में कोरोना महामारी के संदर्भ में भी देखी जा सकती है. यदि हम वैश्विक स्तर पर देखें तो अमेरिका लगातार कोविड-19 को 'चीनी' विषाणु के तौर पर पेश करना चाह रहा है. इसके पीछे की वैश्विक राजनीति काफी स्पष्ट है. वस्तुतः, किसी भी महामारी के दौरान अफ़वाहों का बाज़ार काफी गर्म रहता है. एक अफ़वाह जो मौजूदा महामारी के दौरान काफी प्रचलित हो रही है वो यह कि कोरोना विषाणु का अविष्कार चीन ने एक जैविक हथियार के तौर पर किया है. परंतु भूलवश यह वुहान स्थित प्रयोगशाला से फूट कर चीन में ही फ़ैल गया.
कुछ ऐसी ही अफ़वाह 1918 में स्पेनिश इन्फ्लुएंजा के समय भी परिसंचारित हो रही थी. उस दौर में काफी लोगों का यह मानना था कि स्पेनिश फ्लू का इज़ाद जर्मनों ने स्पेन स्थित एक प्रयोगशाला में अमेरिकी सैनिकों को संक्रमित करने के उद्देश्य से एक जैविक हथियार के तौर पर किया था, जिससे कि अमेरिका मित्र राष्ट्रों की मदद न कर पाए. परंतु वैज्ञानिकों के बीच आपसी तकरार के चलते यह विषाणु मैड्रिड शहर में ही फूट निकला तथा धीरे-धीरे पूरे विश्व में फ़ैल गया.
वर्तमान संदर्भ में भारत में एक अल्पसंख्यक समुदाय को जिस प्रकार से कोरोना महामारी के प्रसार के लिए लगातार ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है, महामारी के वक्त बलि का बकरा ढूंढने की उपरोक्त प्रक्रिया का ही एक हिस्सा है. कुछ धार्मिक नेताओं के ग़ैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार ने पूरे समुदाय को महामारी के इस दौर में बहुसंख्यक राजनीति का 'सॉफ्ट-टारगेट' बना दिया है. बहरहाल, उपरोक्त चर्चा से यह स्पष्ट है कि किसी भी महामारी की शुरुआत भले ही सूक्ष्म जीवों से संक्रमण से होती है, किन्तु यह जल्द ही समाज, राजनीति तथा अर्थव्यवस्था को भी अपने जद में ले लेती है.


अतः हमारा महामारी बोध समाज, राजनीति एवं अर्थव्यवस्था के व्यापक परिप्रेक्ष्य में ही पूर्ण हो सकता है. महामारियों का वर्तमान तथा इतिहास हमें यही सिखाता है.

_______________________
सौरव कुमार राय
वरिष्ठ शोध सहायक
नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय,नयी दिल्ली
skrai.india@gmail.com/मोबाइल: 9717659097

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  1. प्रमोद मिश्र16 मई 2020, 8:07:00 am

    समालोचन को बधाई, यह हमारे हिंदी का गर्व है. इतनी समृद्ध और स्तरीय सामग्री तो अंग्रेजी के भी किसी पत्र-पत्रिका में नहीं प्रकाशित हुई है. आपका योगदान अतुलनीय है. आपको प्रणाम

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  2. हार्दिक शुभकामनाएं गुरुजी,
    कोरोना-काल में किये जाने वाले इ-सेमिनार(वेबिनार)आदि में तो ऐसी सटीक जानकारियां मिल भी पातीं ।
    वास्तव में बहुत ज्ञानवर्धक सामग्री है। गुरुदेव ! सादर नमन

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  3. उमाकांत चौबे16 मई 2020, 9:23:00 am

    विचारोत्तेजक लेख...वैश्विक महामारी के दूरगामी प्रभावों को सही ढंग से रेखांकित करने की सफल कोशिश है।लेख का अंत भारत के संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण है....

    "वर्तमान संदर्भ में भारत में एक अल्पसंख्यक समुदाय को जिस प्रकार से कोरोना महामारी के प्रसार के लिए लगातार ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है, महामारी के वक्त बलि का बकरा ढूंढने की उपरोक्त प्रक्रिया का ही एक हिस्सा है. कुछ धार्मिक नेताओं के ग़ैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार ने पूरे समुदाय को महामारी के इस दौर में बहुसंख्यक राजनीति का 'सॉफ्ट-टारगेट' बना दिया है. बहरहाल, उपरोक्त चर्चा से यह स्पष्ट है कि किसी भी महामारी की शुरुआत भले ही सूक्ष्म जीवों से संक्रमण से होती है, किन्तु यह जल्द ही समाज, राजनीति तथा अर्थव्यवस्था को भी अपने जद में ले लेती है."

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  4. संक्षिप्त लेकिन महत्वपूर्ण बिंदुओं को ऐतिहासिकता में रखकर लिखित आलेख। पठनीय।

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  5. संक्षिप्त इतिहास के साथ प्रस्तुत यह आलेख महामारियों के सामाजिक, राजनीतिक प्रभावों और परिवर्तनों को देखने की दृष्टि प्रदान करता है। इस प्रस्तुति के लिए समालोचन का आभार।

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  6. इतिहास , वर्तमान और महामारी के बीच बहसों को बहुत सलीक़े से रखते हुए सौरभ जी एक संवेदना को भी झकझोर रहे है,

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  7. मौजूदा दौर में एक उत्कृष्ट आलेख. समालोचन को बधाई इसे प्रकाशित करने के लिए.

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  8. महामारियों के सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक अध्ययन की दिशा में अत्यंत महत्वपूर्ण आलेख। लेखक और अरूण जी को बधाई।

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