फणीश्वरनाथ रेणु (४ मार्च १९२१-११ अप्रैल १९७७) का यह जन्म शती
वर्ष है, ४ मार्च से उनसे सम्बंधित आयोजन देश भर में प्रारम्भ होंगे.
रेणु का जीवन भी किसी उपन्यास से कम नहीं है, वे आकर्षक और साहसी व्यक्तित्व के मालिक थे, उदार और बेफ़िक्र.
रेणु का जीवन भी किसी उपन्यास से कम नहीं है, वे आकर्षक और साहसी व्यक्तित्व के मालिक थे, उदार और बेफ़िक्र.
जहाँ रेणु की ख्याति
उनके कालजयी उपन्यास ‘मैला आँचल’ से है, वहीं उनकी कहानी पर आधारित ‘तीसरी कसम’ हिंदी
की कुछ बेहतरीन फिल्मों में शामिल है. ‘मैला आँचल’ के साथ-साथ वे ‘परती परिकथा’, ‘जुलूस’, ‘दीर्घतपा’, ‘कितने
चौराहे’ और ‘पलटू बाबू रोड’ के भी उपन्यासकार हैं.
कहानी-संग्रह- ‘एक आदिम रात्रि की महक’, ‘ठुमरी’, ‘अगिनखोर’, ‘अच्छे आदमी’ के साथ-साथ ‘ऋणजल-धनजल’, ‘श्रुत अश्रुत’ ‘पूर्वे’, ‘आत्म परिचय’, ‘वनतुलसी की गंध’, ‘समय की शिला पर’ शीर्षक से उनके संस्मरण संकलित और प्रकाशित हैं. इसके अलावा ‘नेपाली क्रांतिकथा’ शीर्षक से उनका रिपोर्ताज भी है. साहित्य के लिए उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया था.
कहानी-संग्रह- ‘एक आदिम रात्रि की महक’, ‘ठुमरी’, ‘अगिनखोर’, ‘अच्छे आदमी’ के साथ-साथ ‘ऋणजल-धनजल’, ‘श्रुत अश्रुत’ ‘पूर्वे’, ‘आत्म परिचय’, ‘वनतुलसी की गंध’, ‘समय की शिला पर’ शीर्षक से उनके संस्मरण संकलित और प्रकाशित हैं. इसके अलावा ‘नेपाली क्रांतिकथा’ शीर्षक से उनका रिपोर्ताज भी है. साहित्य के लिए उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया था.
इस अवसर पर
समालोचन फणीश्वरनाथ रेणु पर कवि विमल कुमार का एक आलेख प्रकाशित कर रहा है तथा
इसके साथ ही रेणु द्वारा तैयार ‘मैला आँचल’ का विज्ञापन भी दिया जा रहा है जो ‘प्रकाशन
समाचार’ में जनवरी १९५७ में प्रकाशित हुआ था, साथ में धान रोपते हुए उनका यह चित्र भी जिसमें उनके साथ बाबा नागर्जुन हैं.
मैला आँचल का विज्ञापन
वही ‘मैला
आँचल’ न जिसमे लेखक ने न जाने लोक गीतों के किस संग्रह से गीतों के टुकड़े चुराकर
जहाँ-तहाँ चस्पा कर दिए हैं ? क्यों जी, इन्हें तो उपन्यास लिखने के बाद ही इधर-उधर भरा गया होगा?
‘मैला आँचल’ !
हैरत है उन पाठकों और समीक्षकों की अक्ल पर जो इसकी तुलना ‘गोदान’ से करने का सहस
कर बैठे ! उछालइये साहब, उछालिये ! जिसे चाहे प्रेमचंद बना दीजिये, रविंद्रनाथ बना दीजिये, गोर्की बना दीजिये ! ज़माना
ही डुग्गी पीटने का है !
तुमने तो पढ़ा
है न ‘मैला आँचल’ ? कहानी बताओगे ? कह सकते हो उसके
हीरो का नाम ? कोई घटना-सूत्र ? नहीं न
! कहता ही था. न कहानी है, न कोई चरित्र ही पहले पन्ने से
आखरी पन्ने तक छा सका है. सिर्फ ढोल-मृदंग बजाकर ‘इंकिलास ज़िंदाबाग’ जरूर किया गया
है. ‘पार्टी’ और ‘कलस्टर’ और ‘संघर्क’ और ‘जकसैन’ – भोंडे शब्द भरकर हिंदी को भ्रष्ट
करने का कुप्रयास खूब सफल हुआ है.
मुझे तो लगता
है कि हिंदी साहित्य के इतिहास में या यूँ कहूँ कि हिंदी-साहित्यिकों की आँखों में, ऐसी धुल-झोंकाई इससे पहले कभी नहीं हुई. ‘मैला आँचल’, ‘मैला आँचल’ सुनते-सुनते कान पाक गए. धूल-भरा मैला-सा आँचल ! लेखक ने इस धूल
की बात तो स्वयं भूमिका में कबूल कर ली है एक तरह से !! फिर भी …
अरे, हमने तो यहाँ तक सुना है, ‘मैला आँचल’ नकल है किसी
बंगला पुस्तक की और बंगला पुस्तक के मूल लेखक जाने किस लाज से कह रहे हैं,
‘नहीं ‘मैला आँचल’ अद्वितीय मौलिक कृति है.’ एक दूसरे समीक्षक ने यह
भी कह दिया, जाने कैसे, कि यदि कोई
कृतियाँ एक ही पृष्ठभूमि पर लिखी गयी विभिन्न हो सकती है तो ये है !
पत्थर पड़े हैं
उन कुन्द जेहन आलोचकों के और तारीफ़ के पुल बंधने वालों के जो इसे ग्रेट नावल कह
रहे हैं. ग्रेट नावल की तो एक ही परख हमे मालूम है, उसका अनुवाद कर देखिये ! कीजिये
तो ‘मैला आँचल’ का अनुवाद अंग्रेजी में, फिर देखिये उसका
थोथापन !
अरे भाई, उस मूरख, गंवार लेखक ने न केवल समीक्षाकों को ही
भरमाया है, पाठकों पर भी लद बैठा है. देखते-देखते, सुनते हैं, समूचा एडिशन ही बिक गया – न्यूज़प्रिंट के
सस्ता कागज़ पर छपा. एक कॉपी भी नहीं मिलती कई महीनों से ! "
(‘प्रकाशन समाचार’ जनवरी १९५७ में प्रकाशित यह विज्ञापन
स्वयं फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ द्वारा तैयार किया गया था)
हिंदी का हिरामन
विमल कुमार
उसके पिता उसे वकील बनाना चाहते थे. उससे स्कूल में परीक्षा में पूछा
गया कि तुम बड़े होकर क्या बनना चाहते हो तो उसने लिखा- मैं बड़ा होकर सिमराहा का स्टेशन मास्टर बनना चाहता हूँ लेकिन
वह बड़ा होकर वकील, डॉक्टर या स्टेशन मास्टर नहीं बना बल्कि वह शब्द शिल्पी बन गया.
आज़ादी की लड़ाई में जेल में टैगोर, प्रेमचंद और अज्ञेय की किताबों ने
उसके भीतर इस तरह की रचनात्मक ऊर्जा भरी, प्रतिसंसार रचा कि
उन किताबों ने उसे हिंदी का अंतरराष्ट्रीय
स्तर का अमर कथाकार बना दिया.
४ मार्च को १९२१ में बिहार के पूर्णिया के औराही हिंगना के शिलानाथ
मंडल का पुत्र गांव में 'फुलेसर' के नाम से जाना जाता था जो
दादी के प्यार के नाम से 'रेनुवा' हो गया. वह बाद में हिंदी का अमर शब्द शिल्पी फणीश्वरनाथ 'रेणु' बन गया. अपने दो भाइयों की मृत्यु के साक्षी फुलेश्वर ने कभी नही सोचा होगा कि एक
दिन उसकी रचनाओं के देश विदेश में अनुवाद होंगे उन पर फ़िल्म बनेगी, नाटक होंगे और वह प्रेमचंद के बाद दूसरा लोकप्रिय
कथाकार बन जायेगा. वह आज़ादी, लोकतंत्र प्रेम और
सौंदर्य तथा न्याय का एक बड़ा प्रतीक बन जायेगा. उसकी रूमानियत, उसका यथार्थबोध, उसकी संवेदना, उसकी भाषा और उसका शिल्प पाठकों पर
इतना असर डालेंगे कि आम आदमी से
लेकर अज्ञेय, धर्मवीर भारती और निर्मल वर्मा जैसे शिल्पकार भी उसके मुरीद बन जाएंगे. उसकी जन्मशती मनाने
के लिए अभी से ही देश भर के लेखकों में
उत्साह दीख रहा है. गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशान्त राष्ट्रीय
स्तर पर रेणु जन्म शती समरोह समिति गठित कर रहे हैं.
४ मार्च को रेणु के गांव में हिंदी के लेखक रेणु के पात्रों के साथ
संवाद करेंगे. रेणु रचनावली के सम्पादक एवम् रेणु साहित्य के अध्येता भारत यायावर ४ मार्च को उन पर एक किताब भी प्रकाशित कर
रहें हैं.
देश की राजधानी दिल्ली तथा पटना आकाशवाणी में रेणुजी के सहयोगी लोग उनपर
संस्मरण सुनाकर उन्हें याद करेंगे. दिलचस्प बात यह कि यह पहला अवसर होगा जब किसी लेखक के पात्रों
से लेखकगण उनके गांव में संवाद करेंगे. इस से पता चलता है कि रेणुजी को लोग कितना
प्यार करते है. कुछ साल पूर्व कादम्बिनी पत्रिका में एक परिचर्चा में अधिकतर
लेखकों ने प्रेमचंद के बाद दूसरा महत्वपूर्ण लेखक रेणु जी को ही माना था.
(शैलेंद्र और रेणु) |
दरअसल रेणु के भीतर की चिंगारी ने उन्हें विद्रोही बना दिया था, वह क्रांतिदूत थे. यही कारण है कि बचपन में ही वानर सेना
में शामिल होकर स्कूल में ही क्रांतिकारी भूमिका में आ गये और बड़ा होकर वह शख्स
आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़ा. १९३६ में प्रेमचंद के निधन के बाद उस शख्स ने
उनपर एक कविता लिखी और वह उसके लिए पुरस्कृत भी हुआ.
इस तरह वह शख्स कविता से कहानी, रिपोर्ताज़
और उपन्यास लेखन में आया लेकिन मरने से पहले इमरजेंसी पर अपनी अंतिम कविता लिखी जो
इस बात का प्रतीक है कि अस्पताल के बिस्तर पर कराहते हुए भी वह आपातकाल का विरोध
करते हुए आज़ादी के लिए लड़ रहा था.
जयप्रकाश नारायण चाहते थे कि वह जमानत लेकर बाहर आ जाएँ पर उस शख्स
में इतना स्वाभिमान था और उसके ऐसे आदर्श थे कि वह अपने मूल्यों से समझौता नहीं कर
सकता था. उसने जे पी की इस सलाह को नहीं माना
और जेल से बाहर नहीं आया. जब वह
बीमार पड़ा तो जे पी ने फिर उस शख्स से अनुरोध किया कि वह अपना इलाज जसलोक अस्पताल
में करा लें लेकिन उसने साथी मरीजों को छोड़कर जाना पसंद नहीं किया. आज रेणु की तरह
कितने लेखक होंगे जो इतना बड़ा त्याग करना जानते हों. उस शख्स ने पद्म श्री ही नहीं बल्कि तीन सौ रुपये की पेंशन
भी ठुकरा दी. लेकिन उसी रेणु का आज़ादी के बाद की सरकार से मोहभंग हो गया था.
निराला का भी नेहरू युग से मोहभंग हो गया था. मुक्तिबोध को भी मोहभंग हुआ था.
७४ तक आते आते यह मोहभंग इतना गहरा हो गया कि उन्हें दिनमान में लिखना पड़ा-
"मैंने आज़ादी की लड़ाई आज के भारत के लिए नहीं लड़ी थी. अन्याय और भ्रष्टाचार अब तक मेरे लेखन का विषय रहा है और मैं सपने देखता हूँ कि यह कब खत्म हो. अपने सपनों को साकार करने के लिए जन संघर्ष में सक्रिय हो गया हूँ."
ये पंक्तियां २३ अप्रैल १९७४ को रेणु जी ने ‘दिनमान’ में लिखी थी जो
अपने समय की अंतिम वैचारिक पत्रिका थी. जिन लोगों ने उस जमाने मे दिनमान के अंक
देखे होंगे रेणु जी के रिपोर्ताज़ उन्हें आज भी याद होंगे. रेणु की यह पंक्तियां आज
भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी तब थीं क्योंकि
आज के हालात बदले नहीं हैं बल्कि और बदतर ही हुए हैं और बदलाव का सपना
देखने वाला हर नागरिक आज रेणु की तरह ही सोचता है. वह खिन्न और उद्विग्न है. रेणु
ने तब के भारत की हालत से खिन्न होकर ये पंक्तियां लिखी थी जहां अन्याय और भ्रष्टाचार
चरम पर था लेकिन ४५ साल बाद स्थितियाँ जस की तस हैं बल्कि अन्याय और दमन बढ़ा है, तथा
भ्रष्टाचार भी संस्थागत हुआ है. सांप्रदायिकता की आग और फासीवादी प्रवृतियों
की चपेट में पूरा मुल्क आ गया है. आज़ादी की लड़ाई में भाग लेनेवालों की पीढी अब
लगभग खत्म हो गई है जिसने रेणु की तरह ब्रिटिश शासन का अत्याचार देखा था और वे उस
अत्याचार के भुक्तभोगी थे. रेणु ने तब भ्रष्टाचार और तानाशाही को खत्म करने के लिए
लोकनायक जयप्रकाश नारायण के साथ ७४ के आंदोलन में भाग लिया था. आज उस
आंदोलन में भाग लेने वाले लोग
सत्ता में हैं. केंद्र में भी और बिहार में भी.
रेणु आज जीवित होते तो उनका भी जे पी
की तरह मोहभंग हो गया होता लेकिन वे फिर
अन्याय, दमन और अत्याचार के खिलाफ लड़ते और लिखते.
दरअसल उनका सम्पूर्ण जीवन और लेखन अन्याय. असमानता, गैर बराबरी अत्याचार और
तानाशाही के विरोध में है और लोकतंत्र तथा आज़ादी के पक्ष में खड़ा है. यही कारण है कि उन्होंने बचपन में ही आज़ादी की लड़ाई में स्कूल में बागी भूमिका निभाई, ४२ के आंदोलन में भाग लिया, जेल
गए और आज़ादी के बाद ५० में नेपाल की सशत्र क्रांति में भाग लिया.
भूमिगत रेडियो शुरू करने के अलावा उन्होंने बंदूकें भी चलाईं. बाद
में किसानों की लड़ाई लड़ते हुए वे जेल गए
और अंत में आपातकाल के विरोध में गिरफ्तार हुए. इस तरह देखा जाए तो रेणु का
व्यक्तित्व गणेशशंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, राहुल सांकृत्यायन और रामबृक्ष
बेनीपुरी की परंपरा से मेल खाता है, जो स्वतंत्रता के लिए जेल जाता है.
उनका कृतित्व प्रेमचंद की परंपरा की अगली
कड़ी है जिसमे हिंदुस्तान का गांव तो है ही लेकिन उसका एक लोकमानस भी है. लोक का
सौंदर्य भी है. उसकी चेतना भी. उसका राग विराग भी. इस अर्थ में वह प्रेमचंद की
परंपरा में रहते हुए उनसे थोड़े भिन्न है. वह शिवपूजन सहाय और बेनीपुरी की परंपरा
के अधिक निकट हैं शिवपूजन बाबू की १९२६ में प्रकाशित उपन्यास "देहाती
दुनिया" की आंचलिकता को रेणु ने एक नया रूप दिया तो बेनीपुरी की "माटी
की मूरतें" की तरह अपने पात्र गढ़े.
१९५४ में प्रकाशित "मैला
आँचल" ने उन्हें बाद में आपार ख्याति
दिलाई जबकि वह उसे छपवाने के लिए पहले पटना के प्रकाशकों के चक्कर लगाते रहे और जब
किसी ने नही छापा तो उन्हें अपनी पत्नी के गहने गिरवी रखकर खुद छापना पड़ा. नलिन
विलोचन शर्मा की उस उपन्यास पर टॉक ने रेणु को लाइमलाइट में ला दिया. उस
उपन्यास को गोदान के बाद हिंदी का
सर्वश्रेष्ठ उपन्यास माना गया.
रेणु जी का यह उपन्यास एक साल
तक गोदाम में पड़ा रहा लेकिन नलिन जी की
समीक्षा ने संजीवनी का काम किया और बाद में राजकमल प्रकाशन ने उसे दोबारा
छापा. इस उपन्यास के प्रकाशन पर बैंड बाजे
के साथ पटना साइंस कॉलेज से रेलवे स्टेशन
तक एक जुलूस निकाला गया जिसमे रेणु जी को
हाथी पर बिठाया गया था, यह हिंदी साहित्य
की अभूतपूर्व घटना है. बाद में यह सौभाग्य किसी लेखक को प्राप्त नही हुआ.
तब सोशल मीडिया नहीं था. टेलीविजन, फेस्टिवल और बेस्ट सेलर की भी परंपरा नही थी. "गोदान"
"रागदरबारी" और "गुनाहों के देवता” की तरह यह किताब भी बेस्ट सेलर
बनी. इस पुस्तक के अंग्रेजी, रूसी, जापानी
भाषा में अनुवाद हुए. आखिर मैला आँचल की क्या कथा थी जो पाठकों को पसंद आई. क्या
वह सिर्फ आंचलिक कथा थी ? दरअसल रेणु ने आज़ादी की जो लड़ाई
लड़ी थी, जो सपने देखे थे वे उन्हें बाद में टूटते नजर आए थे. गांधी जी के भी सपने
टूटे थे.
शैलेन्द्र ने भी १९४८ में ही ऐसी कविताएँ लिखी जिनमें उन्होंने आज़ादी को
व्यर्थ पाया. जयप्रकाश नारायण भी भूदान से
होते हुए ७४ के आंदोलन तक इसी आज़ादी को पाने के लिए तयारी करते रहे. रेणु भी ४२ की
क्रांति में जे पी के ही अनुयायी थे और ७४ के आंदोलन में उनके साथ हो लिए. रेणु जी
ने एक बार विधनसभा का चुनाव निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़ा और हार गए. उनके समाजवादी गुरु बेनीपुरी जी भी एक बार चुनाव हार गए थे.
रेणु जी को सत्ता का आकर्षण होता तो किसी राजनीतिक दल से टिकट लेने का प्रयास करते
या विधान पार्षद बनने का जुगाड़ करते जैसा बिहार में अनेक समाजवादियों ने किया.
हिंदी में नागार्जुन के विद्रोही और क्रांतिकारी छवि की चर्चा हुई है
लेकिन रेणु को मृदुल स्वभाव का लेखक माना गया. निर्मल वर्मा ने उन्हें संत स्वभाव
का लेखक माना है. रेणु ऊपर से भले ही संत थे, भीतर से विद्रोही भी थे लेकिन वे कुछ
कहते नहीं थे. उनमें एक गज़ब किस्म की ईमानदारी थी और एक ऐसी संवेदनशीलता जो आज
खोजने पर कम मिलती है. वे अपने जीवन मे भी तीसरी कसम के हीरामन ही नहीं बल्कि मृदंगिया और सिरचन भी थे जो उनकी कहानियों के
यादगार पात्र हैं. रेणु प्रेम और सौंदर्य
के भी उपासक हैं. उनकी कहानियों में निश्छल प्रेम-समर्पण और गहरा लगाव तथा
ईमानदारी सब जगह व्याप्त है. रेणु की प्रासंगिकता बस इतनी भर नही है. वह कोई
पेशेवर पत्रकार नही थे लेकिन उनके रिपोर्ताज़ उनके भीतर छिपे पत्रकार की भी
शिनाख्त करते हैं.
उन्होंने हिंदी में रिपोर्ताज़
विधा को जन्म दिया. १९४४ में विश्वमित्र में उनका पहला रिपोर्ताज़ छापा था जिसे उस
अखबार के सम्पादक ने लेख समझकर छापा था. रेणु के रिपोर्ताज़ इतने लोकप्रिय हुए की
अज्ञेय और रघुवीर सहाय ने दिनमान में रेणु की रिपोर्ट को छाप था. वे सृजनात्मक
किस्म के रिपोर्ट थे इसलिए रिपोर्ताज़ नाम से लोकप्रिय हुए और एक नई विधा बनी. इसमें
भी किसान, गरीबों का दर्द तथा बाढ़ की विभीषिका का दर्द छिपा था. कोसी नदी उनके
लेखन के केंद्र में रही. परती परिकथा के बारे में एक रेडियो टॉक में उन्होंने कोशी
नदी से अपने रिश्तों का जिक्र किया है. इस तरह रेणु का सम्पूर्ण जीवन और लेखन
मनुष्यता, संवेदनशीलता और प्रेम को बचाने के साथ हर नागरिक को अन्याय के खिलाफ खड़ा
होने का एक सन्देश देता है जिसकी आज बेहद जरूरत है.
रेणु की जन्मशती के मौके पर हिंदी के इस हिरामन को याद करना
हमारा पुनीत कर्तव्य है. यह हिरामन आज भी गांधीवादी, कलावादी,
समाजवादी, जनवादी ताकतों के बीच लोकप्रिय है. वह हीरामन कहता है- सजन रे झूठ मत
बोलो खुद के पास जाना है, इस तरह फुलेसर
उर्फ रेनुवां जीवन भर अपनी रचना
में सत्य के लिए लड़ता है.
हिंदी के प्रसिद्ध कवि भगवत रावत "सुनो हिरामन" नाम से एक
लंबी कविता लिखते हैं. किसी लेखक के पात्र पर हिंदी में यह पहली कविता है. इससे
पता चलता है कि रेणुजी के पात्रों ने भी लेखकों को इतना प्रभावित किया था कि उनपर कविताएँ लिखी गईं.
_________
विमल कुमार
मोब.9968400416.
So well written!
जवाब देंहटाएंमैला आँचल को जिस बांग्ला उपन्यास की नक़ल कहा गया वह है 'ढोंड़ाईचरित मानस', लेखक: सतीनाथ भादुड़ी । दोनों उपन्यासों को अनेक बार पढ़ने के बाद भी नक़ल वाली बात मुझे समझ में नहीं आई। शायद शती वर्ष में इस पर कुछ चर्चा हो और मेरा ज्ञानवर्धन हो।
जवाब देंहटाएंमेरे विचार से रेणु की 'लाल पान की बेगम' हिन्दी की श्रेष्ठ कहानी है, तीसरी कसम नहीं । इस पर मैं कुछ लिखने का प्रयास करूंगा । 'ऋणजल धनजल' जैसा रेखाचित्र किसी भी भाषा में दुर्लभ होगा।
शती ठाट से मने यह कामना है।
रेणु के लेखन के कारण ही आज़ादी के बाद के ग्रामीण भारत की दशा को रचनाकारों के सृजन के विषय के रूप में सामने आने का अवसर मिला
जवाब देंहटाएंरेणु जी का जीवन और लेखन दोनों बेमिसाल रहे हैं.उन जैसा भाषा शिल्पी और त्याथार्थ का अद्भुत चितेरा भारतीय साहित्य में विरल है.वे प्रेमचन्द की परमपरा की नहीं उनसे आगे की कड़ी हैं.प्रस्तुत लेख में लेखक ने उनके जीवन से जुड़े कई प्रसंगों को साझा करते हुए महत्वपूर्ण तथ्य रखे हैं.लेखक को बधाई.
जवाब देंहटाएंरेणु जी के जीवन चरित को बखानता यह आलेख
जवाब देंहटाएंउनकी जन्मशती को प्रभावी बनाने की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा। विमल कुमार जी को इस आत्मीय
रेणु स्मृति हेतु साधुवाद।
श्रद्धा
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