(द्वारा - अरुण देव ) |
कबीर हिंदी साहित्य के अध्यात्म हैं. उनको पढ़ना, सुनना, गुनना मनुष्यता को औदात्य प्रदान करता है. वे किसी के नहीं हैं और इसीलिए सबके हैं. गांधी की तरह. मनुष्य जब धरती पर आता है वह इस पूरी धरती का नागिरक होता है, धीरे-धीरे उसकी नागरिकता सिमटती जाती है. वह किसी जगह, किसी भाषा और किन्हीं लोगों में ही होकर रह जाता है. यही उसकी नश्वरता है. वह इन सीमाओं को तोड़कर जब अपना विस्तार करता है कबीर हो जाता है. बुद्ध हो जाता है.
सदानंद शाही कबीर
पर वर्षों से लिख बोल रहें हैं. कबीर की साखी पर उनका यह व्याख्यान आपके लिये.
साखी आंखी ज्ञान की 1
सदानन्द शाही
साखी आंखी ज्ञान की समुझ देखि मन माहि
बिनु साखी संसार का झगरा छूटत नांहि॥ 2
कबीर की यह साखी प्राय: उद्धृत की जाती है. इसे उद्धृत करते समय
हमारा ध्यान यह समझने समझाने पर होता है कि कबीर के दोहे साक्षी की तरह जीवन के
सत्य को देखने की दृष्टि देते हैं. या कि
कबीर की साखियों (कबीर के दोहों को साखी कहा जाता है.) में जीवन सत्य को साक्षी
भाव से देखा गया है.
साखी आँखी ज्ञान की. साखी में क्या है?
ज्ञान की आंख से देखा हुआ सत्य है.यानी साखियों में निबद्ध जो
बातें हैं, वे ज्ञान की आंख से देखी गई
हैं. कबीर हमें ताईद करते हैं कि उनके इस
कथन को अच्छी तरह देख समझ लिया जाए. पूछ
लिया जाए, परख लिया जाये. यह समझना और बूझना मन के भीतर ही होना है. कबीर दोहे के पहले चरण में एक बात कहते हैं –
खंडन-मंडन के लिए बदनाम कबीर अपनी बात एक झटके में मान लेने के लिए नहीं कहते. ज़ोर देकर या आग्रह पूर्वक अपनी बात नहीं मनवाते. पहले वे अपनी बात कहते हैं. फिर दूसरे चरण में उस पर अच्छी तरह मनन करके, भीतर-भीतर समझने और बूझने के लिए कहते हैं. कबीर कह रहे हैं कि मैं कह रहा हूँ सिर्फ इसलिए मत मान लीजिए. पहले समझ लीजिए, अच्छी तरह विचार कर लीजिए फिर मानिए.
‘साखियां ज्ञान की आंख से देखे गए सत्य का अंकन हैं’.
खंडन-मंडन के लिए बदनाम कबीर अपनी बात एक झटके में मान लेने के लिए नहीं कहते. ज़ोर देकर या आग्रह पूर्वक अपनी बात नहीं मनवाते. पहले वे अपनी बात कहते हैं. फिर दूसरे चरण में उस पर अच्छी तरह मनन करके, भीतर-भीतर समझने और बूझने के लिए कहते हैं. कबीर कह रहे हैं कि मैं कह रहा हूँ सिर्फ इसलिए मत मान लीजिए. पहले समझ लीजिए, अच्छी तरह विचार कर लीजिए फिर मानिए.
दोहे के तीसरे और चौथे चरण में कबीर एक दृष्टांत देकर अपनी बात साफ
करते हैं-
यह कहकर कबीर समझने में हमारी मदद करते हैं. साक्षी या गवाह प्रत्यक्षदर्शी होता है. प्रत्यक्षदर्शी कि गवाही के बिना संसार का झगरा नहीं छूटता. अगर झगड़े का निपटारा करना है तो उसके लिए साक्षी की जरूरत होती है. यहां सांसारिक झगड़े के प्रकरण को महज सादृश्य विधान के रूप में प्रस्तुत किया गया है. लेकिन यहाँ सांसरिक झगड़ा महज दृष्टांतके रूप में प्रस्तुत किया गया है. असल झगड़ा तो कोई और है जिसे निपटाना जरूरी है. जिसके लिए ज्ञान की आंख से देखने की जरूरत है. कोई और झगड़ा है जो रोज-रोज के झगड़े से भिन्न और कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है. कबीर का मानना है कि इस झगड़े के निपटारे के लिए साखियों की जरूरत पड़ेगी.
‘बिन साखी संसार का झगरा छूटत नाहि’.
यह कहकर कबीर समझने में हमारी मदद करते हैं. साक्षी या गवाह प्रत्यक्षदर्शी होता है. प्रत्यक्षदर्शी कि गवाही के बिना संसार का झगरा नहीं छूटता. अगर झगड़े का निपटारा करना है तो उसके लिए साक्षी की जरूरत होती है. यहां सांसारिक झगड़े के प्रकरण को महज सादृश्य विधान के रूप में प्रस्तुत किया गया है. लेकिन यहाँ सांसरिक झगड़ा महज दृष्टांतके रूप में प्रस्तुत किया गया है. असल झगड़ा तो कोई और है जिसे निपटाना जरूरी है. जिसके लिए ज्ञान की आंख से देखने की जरूरत है. कोई और झगड़ा है जो रोज-रोज के झगड़े से भिन्न और कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है. कबीर का मानना है कि इस झगड़े के निपटारे के लिए साखियों की जरूरत पड़ेगी.
यह विचार करना बेहद जरूरी
है कि आखिर यह कौन सा झगड़ा है जिसे कबीर
छुड़ाना चाहते हैं. झगड़े को छुड़ाने के
लिए साक्षी की जरूरत है. कबीर की साखियां इसी के निमित्त लिखी गई हैं. जाहिर है
यह कोई खेत और मेड़ का झगड़ा नहीं है. फिर
वह क्या है? इसके
उत्तर पर हम थोड़ी देर में विचार करते हैं. यहीं पर हम थोड़ा रुक कर साखी की विषय वस्तु पर नजर डाल लें तो बेहतर
होगा. सब जानते हैं कि कबीर ने अपने दोहों
को साखी कहा है. कबीर के दोहे या साखियों
को विषय के अनुसार क्रम से संकलित किया
गया है.
इस क्रम विभाजन को अंग कहा
गया है. इन अंगों के नाम
‘गुरुदेव को अंग’, विरह को अंग, ज्ञान विरह को अंग, परचा को अंग, लै को अंग, चितावनी को अंग, मन को अंग, सुषिम मारग को अंग, माया को अंग, कथनी और करनी को अंग, सांच को अंग, साधु - असाधु को अंग, काल को अंग, से लेकर कस्तूरिया मृग, साषीभूत को अंग,अभिहड को अंग से लेकर कुल 59 अंग हैं.
यहां यह सूची दोहराने का अभिप्राय सिर्फ इतना है कि इन विभिन्न
अंगों के नाम से कबीर की साखियों की विषय वस्तु का अंदाज हो जाता है. कहने की
जरूरत नहीं कि साखी की विषय वस्तु है- ‘सत्य
का अभिज्ञान’, ’सत्य की खोज’, ’सत्य
को जानने की उत्कंठा’. फिर झगड़ा क्या है?
पहला सवाल तो यही है कि सत्य एक है कि अनेक. आमतौर पर यह धारणा है कि सत्य एक है. हमारा सामान्य बोध भी यही कहता है कि सत्य एक है. लेकिन सामान्य बोध हमेशा सही नहीं होता. सत्य को लेकर कई सारे मत मतांतर हैं. झगड़ा इस
बात का भी हो सकता है कि सत्य एक है कि
अनेक. सब अपने अपने सत्य को सत्य मानते हैं. अनेक धर्म हैं, अनेक
धर्म ग्रंथ हैं, अनेक
समूह और संप्रदाय हैं, जो
अपने-अपने सत्य का जयकारा लगा रहे हैं.
बात इतनी ही होती कि अपने सत्य का जयकारा लगा रहे हैं, तो
भी ठीक था. कई बार ज़ोर दूसरे के सत्य को
गलत साबित करने पर होता है. झगड़े का
प्रमुख बिंदु यह भी है.
इसका निपटारा कैसे
हो ? कौन सा सत्य सत्य है और कौन सा
सत्य असत्य. इसका निपटारा करने के लिए ज्ञान की आंख चाहिए. कबीरदास कहते हैं ‘आंखी ज्ञान की’.
यानि सामान्य आंख से जो
चीजें दिखाई पड़ रही हैं, जो
हमारी ज्ञानेंद्रियां हैं जो अनुभव करती हैं वे ही पर्याप्त नहीं है. कबीरदास कहते हैं ज्ञान की आंख से देखें. यह ज्ञान की आंख क्या है?
क्या यह ज्ञानेंद्रियों से फर्क कोई चीज है?
क्या यह अंतःप्रज्ञा जैसी कोई चीज है?
और क्या यह कोई ऐसी चीज है जो इंद्रियों से परे देख पाती है,
जैसे बहुत से सवाल खड़े होते हैं. कबीर का जोर प्रत्यक्ष अनुभव पर है. ‘बिन साखी संसार का झगड़ा छूटत नाहिं’. यह साक्षी होना ही महत्वपूर्ण
है. साक्षी भाव कैसे उपलब्ध करें ?
ज्ञान की आँख कैसे हासिल
करें? यह साक्षी भाव जरूरी साक्षी भाव जरूरी है. साक्षी
भाव यानि एक खास तरह की तटस्थता.
यह तटस्थता कैसे हासिल करें?
कबीरदास ने एक रास्ता सुझाया है –
कबिरा यह घर प्रेम का खाला का घर नाहिंl
सीस उतारै हाथ सौं,तब
पैसे घर माहि॥ 3
‘यह घर प्रेम का’ में कौन सा घर है?
क्या यह जान का घर है?
ज्ञान की खोज का घर है! कबीरदास जिसे प्रेम का घर बता रहे हैं. कई
बार ऐसा लगता है कि कबीरदास के यहां ज्ञान का घर और प्रेम का घर आपस में घुल मिल
गया है. ज्ञान की आंधी जब सब कुछ को
ध्वस्त कर देती है आँधी
थम जाती है तब जो पानी बरसता है वह तो
प्रेम का ही पानी है. जिसमें कबीर सराबोर होते हैं. ज्ञान और प्रेम एक दूसरे में घुलमिल जाते हैं. ज्ञान और प्रेम मिलकर एकमेक हो जाते हैं4. ज्ञान और प्रेम का एक होना कबीर का अभीष्ट है. ज्ञान और प्रेम से लैस होकर व्यक्ति काल से भी
होड़ ले सकता है5,
काल को चुनौती दे सकता है और उस पर विजय भी प्राप्त कर सकता
है.
यह ज्ञान और प्रेम की एकता
आसान नहीं है. इसीलिए चेताते रहते हैं. पहले वे सकारात्मक ढंग से बताते हैं कि यह
प्रेम का घर है, इसमें
अदब से जाइए. हमारी आदत है कि हम चीजों को टेकेन फॉर ग्रांटेड ले लेते हैं. हल्के
में ले लेते हैं. इसीलिए कबीर आगाह करते हैं कि यह खाला (मौसी) का घर नहीं
है. जैसे खाला का घर खुला हुआ है,
जब चाहे जैसे चाहे आ जा सकते हैं, प्रेम
के घर में वैसे नहीं आ जा सकते. इस घर में आने जाने का अनुशासन है. ज्ञान के घर में प्रवेश करने की विधि है. उसका भी अनुशासन है.
‘सीस उतारे भुई धरे तब पइसे घर माहि’. सीस उतार कर उसे जमीन पर रखने का अर्थ है- ‘अहंकार का विसर्जन’. अहंकार का विसर्जन ज्ञान और प्रेम दोनों की प्राप्ति के लिए आवश्यक है. अहंकार इतनी जगह घेर लेता है कि बाकी किसी चीज के लिए जगह ही नहीं बचती. अहंकार भी कई तरह के होते हैं- जाति का, कुल का, ज्ञान का, शक्ति का, कभी सत्ता का तो कभी सुंदरता का अहंकार. कभी-कभी पूर्व धारणाओं का अहंकार होता है, जो चीजों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने ही नहीं देता. कभी भेद बुद्धि सही ढंग से देखने में बाधा पहुंचाती है.
यह भेद बुद्धि भी अहंकार है. जितने तरह की धारणाएं हैं, जितने तरह की भेद बुद्धि है, जितने तरह के संचित ज्ञान हैं सबका विसर्जन ही अहंकार का विसर्जन है. अहंकार के पूर्ण विसर्जन के बाद हम जो बचते हैं– शुद्ध बुद्ध बच जाते हैं. ज्ञान की आंधी के रूपक में जो भी चीजें उड़ जाती हैं वे अहंकार के ही अलग अलग रूप हैं. इसके बाद जो बचता है वह ‘विभूति’ है, तत्व है, या कहें कि सत्य है-
‘सीस उतारे भुई धरे तब पइसे घर माहि’. सीस उतार कर उसे जमीन पर रखने का अर्थ है- ‘अहंकार का विसर्जन’. अहंकार का विसर्जन ज्ञान और प्रेम दोनों की प्राप्ति के लिए आवश्यक है. अहंकार इतनी जगह घेर लेता है कि बाकी किसी चीज के लिए जगह ही नहीं बचती. अहंकार भी कई तरह के होते हैं- जाति का, कुल का, ज्ञान का, शक्ति का, कभी सत्ता का तो कभी सुंदरता का अहंकार. कभी-कभी पूर्व धारणाओं का अहंकार होता है, जो चीजों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने ही नहीं देता. कभी भेद बुद्धि सही ढंग से देखने में बाधा पहुंचाती है.
यह भेद बुद्धि भी अहंकार है. जितने तरह की धारणाएं हैं, जितने तरह की भेद बुद्धि है, जितने तरह के संचित ज्ञान हैं सबका विसर्जन ही अहंकार का विसर्जन है. अहंकार के पूर्ण विसर्जन के बाद हम जो बचते हैं– शुद्ध बुद्ध बच जाते हैं. ज्ञान की आंधी के रूपक में जो भी चीजें उड़ जाती हैं वे अहंकार के ही अलग अलग रूप हैं. इसके बाद जो बचता है वह ‘विभूति’ है, तत्व है, या कहें कि सत्य है-
झल उठी झोली जली खपरा फूटिम-फूट l
जोगी था सो रमि रहा आसन रही विभूति ॥6
अहंकार का विसर्जन और ज्ञान का आगमन लगभग साथ-साथ होता है. ज्ञान असत्य को उड़ा देता है. इसके बाद जो बचता है वह अभेद है. अभेद की यह दशा प्राप्त करने के
बाद भेद बुद्धि व्यर्थ लगने लगती है. अभेद
की दशा में पहुंचे हुए कबीर का मन उनके साथ नहीं लगता जो भेद बुद्धि में
रमे हुए हैं. कबीर आंखन देखी कह रहे
हैं. आंखन देखी का अर्थ ज्ञान की आंख है,
इसीलिए कागज की लेखी से उनकी अनबन है. ज्ञान की आंख से देखने पर
पूरा दृश्य ही बदल जाता है. कागज की
लेखी ने उलझा कर रखा. यह मामला कोई आज का नहीं है- ‘जुगन
जुगन समझावत हारा, कहा
न मानत कोई रे’.7
कागज की लेखी और आंखिन
देखी का द्वंद्व युगों युगों से चल रहा है. यह कोई आज का झगड़ा नहीं है. कागज की लेखी
से जीवन सत्य रंगा हुआ है. रंगी का
विहंगी फिरना इसी का प्रमाण है. यह रंगा
हुआ होना ही समस्या की जड़ है. सतगुरु की
निर्मल धारा में काया को धो लें, ’तब
ही वैसा होई रे’ यानी
सतगुरु जैसा होना या शुद्ध बुद्ध होना है. कबीर कागज की लेखी पर संदेह करना
सिखाते हैं. कागज की लेखी जिसने युगों युगों से भ्रम में डाल रखा है,
झगड़े में डाल रखा है, अपने
और पराये में उलझा रखा है,
उस पर संदेह और आखिन देखी पर भरोसा करना सिखाते हैं.
कागज की लेखी पुराना पड़ गया सत्य है,
जो कागज की लेखी से चिपका
हुआ है वह जीवन सत्य को नहीं जानता.
इसीलिए कबीर की उसके साथ अनबन है. इस अनबन के बावजूद कबीर उसे उसी हाल पर छोड़ नहीं देते. उससे निरंतर
संवाद करते हैं. क्योंकि कबीर का ज्ञान प्रेम के साथ चलता है,
प्रेम को साथ लेकर चलता है.
वे जानते हैं कि जिससे अनबन है वह
भी भिन्न नहीं है,
अन्य नहीं है. कबीर भिन्नता और अन्यता की धारणा से ऊपर उठ गए हैं
और हमें भी ऊपर उठने की सलाह देते हैं. वे ज्ञान की आंख से देखने का प्रस्ताव करते
हुए आत्मज्ञान तक ले जाते हैं. यह आत्मज्ञान ही सत्य है. यहां पहुंचकर व्यक्ति ‘अप्प
दीपो भव’ हो जाता है. ज्ञान की आंख से देखने
का प्रस्ताव करते हुए आत्मज्ञान तक ले जाते हैं.
यह आत्मज्ञान ही सत्य है. यह आत्मज्ञान हमें पूरी तरह बदल देता है- मुक्त कर देता है. यह मुक्ति हमें विश्व नागरिक बनाती. कबीर हमें विश्व नागरिक बनाते हैं8 और गालिब की तरह बे दरो दीवार का घर बनाने की राह खोलते9 हैं.
यह आत्मज्ञान ही सत्य है. यह आत्मज्ञान हमें पूरी तरह बदल देता है- मुक्त कर देता है. यह मुक्ति हमें विश्व नागरिक बनाती. कबीर हमें विश्व नागरिक बनाते हैं8 और गालिब की तरह बे दरो दीवार का घर बनाने की राह खोलते9 हैं.
___________________
सन्दर्भ :
[2] -कबीर साहब का बीजक ,बेल्बेडियर प्रिंटिंग वर्क्स ,इलाहाबाद पृ 112
[3] सूरातन को अंग ,दोहा 19,कबीर वाङ्ग्मय खंड 3 पृ 281
[4] संतों भाई आई ज्ञान की आँधी रे.
[5] कबीर घोडा प्रेम का चेतन चढ़ि असवार .
[6] ग्यान बिरह को अंग ,दोहा 4 कबीर वाङ्ग्मय,खंड 3 पृ 53
[7] तेरा मेरा मनुवां कैसे एक होइ रे .
जहां तक मनुष्य की ‘विश्व नागरिकता’ का सवाल है, गांधी उसकी बात सीधे-सीधे तो नहीं करते (बल्कि रवींद्रनाथ के मानवतावाद के समर्थन में, जब यह विचार आता है तो उसे खारिज ही करते हैं) लेकिन उसके निकट पहुंचते जरूर हैं. गांधी वस्तुत: एक असीम अनंत निराकार ईश्वर में निरपेक्ष रूप से विश्वास करते हैं. परंतु यह महज एक आध्यात्मिक विश्वास के रूप में ही नहीं एक डायनामिक socio-political फोर्स के रूप में गांधी में व्यक्त होता है. यही सत्य की अवधारणा या ‘सत्य की आंख’ है गांधी में. इस सत्य को ही गांधी व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन के केंद्र में रखते हैं. जैसे संसार में मनुष्यों ने एक निराकार ईश्वर की अनेक उपास्य रूप गढ़ रखें हैं , वैसे ही संसार में एक सत्य अनेक रूप में और अनेक परिस्थितियों में मनुष्यों के समक्ष उपस्थित होता है.एक सत्य की नाना अभिव्यक्तियों की बहुविध और बहुस्तरीय संभावना को यह संसार हमेशा अपने भीतर समेटे रहता है - गांधी इस संभावना को पूरी तरह स्वीकार करते हैं, उसका सम्मान करते हैं पर उसके साथ जो बर्ताव करते हैं वह कतई सांसारिक नहीं है, आध्यात्मिक है. काफी दूर तक कबीर के मार्ग का अनुसरण है . अगर ‘ज्ञान की आंख’ से संसार को देखने की कोशिश कबीर के अनुसार अत्यंत कठिन है, ‘खाला का घर’ नहीं है तो गांधी के लिए भी ‘सत्य की आंख’ से संसार को देखने की जद्दोजहद तलवार की धार पर चलने के बराबर है.
[1]अंतर प्रांतीय कुमार साहित्य सभा जोधपुर
में (13.10.2019) दिए गए व्याख्यान का
सम्पदित रूप.
[2] -कबीर साहब का बीजक ,बेल्बेडियर प्रिंटिंग वर्क्स ,इलाहाबाद पृ 112
[3] सूरातन को अंग ,दोहा 19,कबीर वाङ्ग्मय खंड 3 पृ 281
[4] संतों भाई आई ज्ञान की आँधी रे.
भ्रम की
ताति स भै उडानी माया रहे न बाँधी रे॥
दुचिते
की दोइ थूनि गिरानी मोह बलेंडा टूटा.
त्रिसना
छानि परी घर ऊपरि दुरमति भांडा फूटा॥
आँधी
पाछे जो जल बरसै तिहि तेरा जन भींना .
कहै कबीर
मनि भय प्रगासा उदै भानु जब चीना॥
[5] कबीर घोडा प्रेम का चेतन चढ़ि असवार .
ग्यान
खड्ग गहि काल सिर , भली मचाई मार॥
[6] ग्यान बिरह को अंग ,दोहा 4 कबीर वाङ्ग्मय,खंड 3 पृ 53
[7] तेरा मेरा मनुवां कैसे एक होइ रे .
मै कहता
हौं आँखन देखी, तू कहता कागद की लेखी .
मै कहता
सुरझावन हारी, तू राख्यो अरुझाई रे ॥
मै कहता
तू जागत रहियो, तू जाता है सोई रे .
मै कहता
निरमोही रहियो, तू जाता है मोहि रे ॥
जुगन-जुगन समझावत हारा, कहा
न मानत कोई रे .
तू तो
रंगी फिरै बिहंगी, सब धन डारा खोई रे ॥
सतगुरू
धारा निर्मल बाहै, बामे काया धोई रे .
कहत
कबीर सुनो भाई साधो, तब ही वैसा होई रे ॥
[8] ‘विश्वनागरिक’ के संदर्भ में शुभा राव, प्रोफेसर
राजनीति शस्त्र बी एच यू की टिप्पणी देखें :
कबीर ‘ज्ञान की आंख’ की बात करते हैं, रैदास के यहाँ जो बेगमपुर है, ये दोनों ही मुक्ति के रूपक हैं. इसी मुक्ति के रूपक को सदानन्द शाही ने ‘विश्वनागरिक’
कहकर समझाया है. ज्ञान प्राप्त हो जाने के बाद मनुष्य की दृष्टि और
संवेदना में जो देश कालातीत आयाम प्राप्त हो जाता है उसे ही यहां एक आधुनिक पद
विश्वनागरिक से व्यक्त किया गया है.बे दरो दीवार के घर की कल्पना, विश्वनागरिकता की बातें आध्यात्मिक स्तर पर निराकार ब्रह्म की अवधारणा के
साथ बिल्कुल संगत बैठती हैं. सही है,
कबीर के राम निराकार हैं; राम की भक्ति कबीर
की विश्वनागरिकता की कोटि में रख सकती है.
कबीर की भाव भूमि के लिए ‘विश्व नागरिक’ पद का अनुप्रयोग
अटपटा है, पर ताजगी भरा है.
यह सच है कि यह कबीर काव्य के आध्यात्मिक पर्यावरण का पद नहीं है, उस पर एक तरह का आरोपण है -लेकिन सुखद आरोपण है .वस्तुत:’विश्वनागरिक’ अनेक लौकिक अर्थ छायाएं अपने में समेटे
हुए है. पश्चिमी चिंतन से परिचित
अध्येताओं को यह पद सहसा स्मरण करा देता है यूनान का. यूरोप में यूनानी नगर
राज्यों के अवसान और इसाई युग के उदय के बीच जन्में एपीक्यूरियन ,सिनिक
और स्टोइक संप्रदायों का .
इन संप्रदायों में आपस में बहुतेरे भेद थे , जिनकी चर्चा अभी प्रासंगिक नहीं है. जो प्रासंगिक है वह है इनकी एकता का रेखांकन .
प्लेटो और अरस्तू ने नगरीय सामुदायिक जीवन के जिन मूल्यों को महिमामंडित किया था,
उनके बरक्स इन तीनों ने समान रूप से व्यक्ति की एकांतिक नैतिक
पर्याप्तता (moral self sufficiency of the individual ) एवं
उसके आत्मनिष्ठ सुख के आदर्शों को प्रतिस्थापित किया. लेकिन तीनों में सबसे युगांतकारी अवदान स्टोइक
स्कूल का था.
जहां सिनिक और एक्यूपीरियन ज्यादा करके केवल
रिएक्शनरी थे, स्टोइक ने विरोध के साथ-
साथ महत्वपूर्ण रचनात्मक विकल्प भी दिया . यूनानी नगर राज्यों के स्थानीय और सामुदायिक सापेक्ष नैतिक
संस्कारों के विकल्प के रूप में प्राकृतिक विधि के उदात्त और व्यक्ति सापेक्ष नैतिक आदर्शों की स्थापना की. ये वे नैतिक
मानदंड थे जो मनुष्य मात्र के लिए बोधगम्य और अनुकरणीय थे.
ईसा की पहली दूसरी शताब्दी के
यूरोप में, जहां स्थानीय संस्कृति का लोप हो चुका था ,सामाजिक
राजनीतिक क्षितिजों का विस्तार हो रहा था, प्राकृतिक सामाजिक
परंपराओं और समस्त मानव निर्मित कानूनों के औचित्य की एकमात्र कसौटी यही प्राकृतिक
विधि की संकल्पना थी. प्राकृतिक विधि की स्टोइक परिकल्पना ने ही तत्वत: यूरोप में
मानवीय गरिमा और सार्वभौम नैतिक आदर्शों
की भावराशि से ओतप्रोत मानवतावाद का पथ
प्रशस्त किया. अगर कबीर ‘ज्ञान की आंख’ की बात करते हैं तो प्राचीन यूनान का
स्टोइक दर्शन ‘नैतिकता की आंख’ होने की
बात करता है जो सही मायने में एक विश्व नागरिक होने की अनिवार्य शर्त है, उसकी पहली और अंतिम पहचान है, और जिस अर्थ में धरती
का हर मनुष्य अपने भीतर ‘विश्व नागरिक’ बनने की संभावना को समेटे हुए हैं.
इस सारी चर्चा के बीच गांधी बरबस स्मरण हो आते
हैं . अगर कबीर ‘ज्ञान की आंख’ की बात करते हैं, स्टोइक्स ‘नैतिकता
की आंख’ की बात करते हैं,तो गांधी ‘सत्य की आंख’
की बात करते हैं .
जहां तक मनुष्य की ‘विश्व नागरिकता’ का सवाल है, गांधी उसकी बात सीधे-सीधे तो नहीं करते (बल्कि रवींद्रनाथ के मानवतावाद के समर्थन में, जब यह विचार आता है तो उसे खारिज ही करते हैं) लेकिन उसके निकट पहुंचते जरूर हैं. गांधी वस्तुत: एक असीम अनंत निराकार ईश्वर में निरपेक्ष रूप से विश्वास करते हैं. परंतु यह महज एक आध्यात्मिक विश्वास के रूप में ही नहीं एक डायनामिक socio-political फोर्स के रूप में गांधी में व्यक्त होता है. यही सत्य की अवधारणा या ‘सत्य की आंख’ है गांधी में. इस सत्य को ही गांधी व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन के केंद्र में रखते हैं. जैसे संसार में मनुष्यों ने एक निराकार ईश्वर की अनेक उपास्य रूप गढ़ रखें हैं , वैसे ही संसार में एक सत्य अनेक रूप में और अनेक परिस्थितियों में मनुष्यों के समक्ष उपस्थित होता है.एक सत्य की नाना अभिव्यक्तियों की बहुविध और बहुस्तरीय संभावना को यह संसार हमेशा अपने भीतर समेटे रहता है - गांधी इस संभावना को पूरी तरह स्वीकार करते हैं, उसका सम्मान करते हैं पर उसके साथ जो बर्ताव करते हैं वह कतई सांसारिक नहीं है, आध्यात्मिक है. काफी दूर तक कबीर के मार्ग का अनुसरण है . अगर ‘ज्ञान की आंख’ से संसार को देखने की कोशिश कबीर के अनुसार अत्यंत कठिन है, ‘खाला का घर’ नहीं है तो गांधी के लिए भी ‘सत्य की आंख’ से संसार को देखने की जद्दोजहद तलवार की धार पर चलने के बराबर है.
लेकिन कबीर की भांति गांधी मनुष्य में किसी
प्रकार की तटस्थता,
साक्षी भाव या अहंकार विहीनता की शर्त नहीं रखते . उनका मानना है कि मनुष्य जैसा भी है अंहकारी,
अज्ञानी, मूर्ख स्वार्थी –स्वीकार्य है . बस उसे एक काम
करना है: उसकी अंतरात्मा में जो ‘सत्य की आंख’ है उसे जब जो सही लगे उस पर दृढ़ रहना है, बिना किसी को कष्ट दिए दृढ़ रहना
है या यों कहें कि दृढ़ रहने का अभ्यास करना है . जो कुछ सही न लगे
उससे विमुख रहने का अभ्यास करना है. अपने
सत्य के प्रति या अहिंसात्मक प्रवृत्ति और अपने असत्य से अहिंसात्मक निवृत्ति का अभ्यास ही मनुष्य को ईश्वर तक या क्रमशः
उसके निकट पहुंचाएगा.
पर इस अभ्यास में कोई बेईमानी नहीं करनी होगी . यह अहर्निश निष्ठा की मांग है. गांधी अपनी प्रार्थना सभा
में कहते हैं कि यह अभ्यास इतना दुष्कर है जैसे तलवार की धार पर चलना. और यह अभ्यास करने की कोशिश ही
व्यक्ति को क्रमशः अहंकार,आसक्ति , और अज्ञानता से मुक्त करती है. कहा जा सकता है कि गांधी कबीर की ‘ज्ञान की आंख’ को प्राप्त करने का मार्ग बताते हैं.
साथ ही यह भी समझना जरूरी है कि गांधी के लिए उस मार्ग पर चलने वाले एक निष्ठावान
पथिक का अधिक महत्व है, अपने गंतव्य - ज्ञान की आंख- को प्राप्त पूर्ण ज्ञानी मनुष्य का उतना नहीं.
(क्योंकि शायद गांधी यह बात जानते थे कि पूरी तरह ‘ज्ञान की
आंख’ को प्राप्त
करने वाला मनुष्य संसार के काम का नहीं रह जाता, वह
अन्यायों से संघर्ष नहीं करता, समाज की कुरीतियों को नहीं ललकारता, चुपचाप हिमालय
की कंदराओं में चला जाता है.) ज्ञान अपनी सिद्धावस्था में संसार से withdrawal
कर लेता है और ऐसे ज्ञान में, ऐसे ज्ञानी में
गांधी की विशेष रुचि नहीं है . उनकी रुचि ज्ञान या सत्य को पकड़ने की मनुष्य की
ईमानदार कोशिश, इस क्रम में उसकी असफलताओं, उसकी क्रमिक सफलताओं में है. ज्ञान की साधनावस्था में है.
इस तरह गांधी एक अर्थ में कबीर तक पहुंचते हैं, पर एक अर्थ में नहीं भी पहुंचते हैं. कुछ दूर कबीर के
पीछे चलने के बाद अपना रास्ता बदल देते हैं -यह कहना ज्यादा ठीक होगा. परंतु यह भी सच है कि विलक्षण दोनों हैं- अपने
अपने ढंग से. अगर कबीर अपनी घर उजाडू आध्यात्मिकता और उसकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति
में बेजोड़ हैं तो गांधी अपनी संसार की चुनौतियों और पारलौकिक समाधानों के मौलिक
संगम में अतुलनीय हैं. और गांधी केवल दो
ध्रुवांतों का समागम ही नहीं करते, उन्हें परस्पर संपोष्य भी
बनाते हैं. गांधी की सांसारिक प्रतिबद्धताएँ
जहां उनकी आध्यात्मिकता से अपनी ऊर्जा, अपनी उदात्तता
पाती हैं, वहीं बदले में उस आध्यात्मिकता को अधिक ठोस और
मानव सापेक्ष भी बना देती हैं. ऐसा लगता
है मानो गांधी आध्यात्मिक कबीर का लौकिक भाष्य कर रहे हो. कबीर वाणी में निहित
ज्ञान के अनश्वर प्रकाश पुंज से नश्वर मनुष्यों के नश्वर घरों को प्रकाशित करने की साधना कर रहे हों .
और अब अंत में एक और तेजस्वी उदाहरण भारतीय ‘धर्म की आंख’ के रूप में.
स्टोइकवादियों की तथाकथित ‘नैतिकता की आंख’ का आस्तिकवादी और निस्संदेह अधिक
उर्वर संस्करण हमें भारतीय दर्शन की
तथाकथित ‘धर्म की आंख’ में मिलता है.
अतिशयोक्ति नहीं होगी यदि कहा जाय कि धर्म (मजहब नहीं) की इस भूमि का आविष्कार
भारतीय मनीषा की अतुलनीय उपलब्धि है,विश्व को एक अप्रतिम देन है. इस विचारपुंज की विलक्षणता इसकी विविधता ,इसकी
वर्सेलिटी में है. यह एक साथ ही स्थानीय
और सार्वभौमिक दोनों है ,सैद्धान्तिक और व्यवहारिक दोनों एक
साथ है. (वस्तुत:परिस्थिति सापेक्ष है इसलिए नवीनीकरण या पुनर्व्यख्या की
अनंत संभावनाओं से युक्त है.) पारंपरिक और
शास्त्रीय दोनों एक साथ हैं .
सत्य यह है कि धर्म प्राचीन भारतीय सामाजिकी और राजनीति का
कुतुबनुमा है. व्यक्ति के निजी जीवन की लघु व्यवस्था हो या सामाजिक जीवन की वृहत्तर व्यवस्था - सब इसी से
अपना दिशानिर्देश पाते हैं . यहां का प्राचीन राजशास्त्र (कौटिल्य के कुछ विचारों को छोड़ कर)धर्म को केंद्रीय
महत्व देता है. राजा का कर्त्तव्य है स्वधर्म का पालन करते हुए
अपने उदाहरण से प्रजा को धर्म पालन के लिए
प्रेरित करना. विधि निर्माण कराते समय उसे
धर्म की शास्त्र सम्मत व्याख्याओं के साथ
साथ लोक मान्यताओं और परंपराओं को भी समुचित महत्व देना चाहिए . इस कार्य में उसे अपने अमात्यों
और पुरोहितों का यथेष्ट परामर्श लेना चाहिए.
न्याय कर्म करते समय उसके लिए और भी अधिक आवश्यक हो जाता है कि वह शास्त्र
और परंपरा -दोनों पर विचार करने के उपरांत विवादों पर अपना निर्णय दे.
इसमें कोई दो राय नहीं कि प्राचीन भारतीय जीनियस
का सर्वश्रेष्ठ अवदान संसार को यदि कोई है तो यह ‘धर्म की आंख’ ही है. यह
भारतीय दर्शन का वह अक्षय पात्र है, वह अखंड दीप है
जिससे किसी भी युग में मानव जीवन की किसी भी समस्या का समाधान प्राप्त किया जा
सकता है.
ऐसा लगता है कि संसार की हर संस्कृति और हर युग
में मनुष्य को ऐसी जीवन दृष्टि देने के प्रयास हुए हैं जो उसे संसार की वास्तविक
चुनौतियों को समझने का विवेक और उनसे लड़ कर उनसे जीतने की ताकत दे सकें. इस लेख में देश और काल का बहुत बड़ा फलक लिया
गया है. वस्तुतः यह लेख नहीं, विस्तृत और खंड-खंड फलक को डिकोड कर उसका एक सामान्य
गुण धर्म जानने की कोशिश है. अंत में यही
समझ आया कि अपने समय के मनुष्य को एक समग्र जीवन दृष्टि, एक
सूक्ष्म ‘आंख’ देने की वही एक बेचैनी
है जो अलग-अलग संस्कृतियों और अलग-अलग महापुरुषों में रही है. यही वह बेचैनी है जो
किसी संस्कृति को महान और किसी मानव को महा मानव बनाती है. यही वह बेचैनी है जो धरती के अलग अलग भूखण्डों
और इतिहास खंडों सको एक सूत्र में पिरो देती है.
[9] बे दरो दीवार सा इक घर बनाया चाहिए
कोई हम
साया न हो और पासबाँ कोई न हो॥
उनकी कविताओं में भी कबीर की अनुगूँज सुनी जा सकती है। शाही सर को पढ़ना हमेशा सुखद रहता आया है इस बार की ही तरह...
जवाब देंहटाएंपिछले दिनों जोधपुर आये थे तब हमने इस टॉपिक पर जोधपुर में व्याख्यानमाला रखवाई थी। शाही बोले थे कबीर की साखियों को आज के हालातों से जोड़ते हुए।
जवाब देंहटाएंकबीर के दोहे Kabir Ke Dohe are simple but meaningful.
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