महान दार्शनिक स्पिनोजा (Baruch De Spinoza : २४ नवम्बर १६३२-२१ फ़रवरी १६७७) की विश्वप्रसिद्ध
कृति ‘नीतिशास्त्र’ (Ethics : १६७७) का हिंदी
में समुचित अनुवाद उपलब्ध नहीं है. यह मात्र एक तथ्य नहीं है. यह हमारी वैचारिक
दरिद्रता और हिंदी के के नाम पर चल रहे तमाम संस्थानों की काहिलीयत का प्रमाण भी है.
इसका अनुवाद हो. यह बहुत बड़ी चुनौती है. इसके लिए ऐसे सुयोग्य की जरूरत थी
जिसकी पकड़ दोनों भाषाओँ पर हो और वह दर्शन की बारीकियों को भी समझता हो.
कवि-कलाकार प्रत्यूष
पुष्कर दर्शन शास्त्र के अध्येता हैं. संस्कृत और दर्शन के अच्छे ज्ञाता प्रचण्ड
प्रवीर आईआईटी दिल्ली से प्रौद्योगिकी स्नातक हैं और शानदार कथाकार भी.
दोनों ने मिलकर यह
बीड़ा उठाया है. ज़ाहिर है यह एक ऐतिहासिक कार्य होगा. और समालोचन पर होगा.
एथिक्स के पहले भाग
का एक हिस्सा आपके समक्ष है. आप से अनुरोध है कि कृपया इसे ध्यान से पढ़ें. सुझाव
दें और प्रोत्साहन भी.
स्पिनोजा : नीतिशास्त्र (१)
अनुवाद
प्रत्यूष
पुष्कर, प्रचण्ड प्रवीर
Part I.
Concerning God.
भाग – १
ईश के बारे में
ईश के बारे में
II Definitions II
परिभाषाएँ
D I. By that which is self-caused, I mean that of which the essence involves existence, or that of which the nature is only conceivable as existent.
परिभाषा १: वह जो स्व-कृत (स्वयंभू) है, उससे मेरा मतलब वह है जिसका सार अस्तित्व से समावेशित है, और वह जिसकी प्रकृति सत् से बोधगम्य है.
अंग्रेजी
शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
Existence = अस्तित्व,
सत्ता, व्यवहारसत्
अनुवादक की टिप्पणी
१.
‘सार’
का अर्थ और उसकी उपयोगिता से सम्बन्धित चर्चा छांदोग्य
उपनिषद् के छठे अध्याय में आरुणि-श्वेतकेतु संवाद से समझी जा सकती है.
२.
आरुणि अपने चौबीस साल के पुत्र के विद्यालय से बारह वर्ष के
विद्योपार्जन कर के लौटने पर प्रश्न पूछते हैं कि वह क्या उसे जानता है जिसे जान
लेने पर अश्रुत श्रुत हो जाता है, नहीं समझी हुयी चीज समझ में आ जाती है और
अविज्ञात विज्ञात हो जाता है? इसी क्रम में आरुणि कहते हैं कि मिट्टी से ही मिट्टी
के बर्तन, मूर्ति आदि बनती है, केवल नामरूप का फर्क होता है. जिस तरह सोने के तरह-तरह
के आभूषणों में सोने के गुण होते हैं; उसी तरह लोहे से बना नाखून काटने के यंत्र
को भली भांति से जान लेने से लोहे से सभी बनी वस्तु को जाना जा सकता है.
दूसरे शब्दों में सार का अर्थ किसी भी वस्तु के अस्तित्व का निर्धारण करने के लिए पर्याप्त विचार से लेना चाहिए. हम यह अपेक्षा कर सकते हैं कि वस्तु के सार में वस्तु के विधायी तत्व के सभी गुण होने चाहिए.इन्हीं गुणों के समुच्चयों को स्पिनोज़ा के सार के संदर्भ में समझ सकते हैं.
३.
सार का एक अर्थ ‘real’ (वास्तविक)और‘परमार्थ’ से भी लिया जाता
है, जो कि व्यवहार से कहीं ‘अधिक’ हो.
४. अस्तित्व
या सत् - जिसकी सत्ता है.किसी
सत्ता का स्वरूप उसके प्रत्ययात्मक (विचाररूप) या बाह्यतया स्थित वस्तुरूप में
समझा जाता है. भिन्न-भिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों में इसेविशिष्टरूप में समझा जाता
है. जैसे,बौद्ध दर्शन की महायान शाखा में (लंकावतार सूत्र) सभी पदार्थों को आकाशकुसुम,
शशविषाण (खरगोश के सींग), वन्ध्यापुत्र (बांझ औरत की संतान) विशेषण दे कर असत्
कहता है. इन विशेषणों के बाह्यतया स्थित वाच्य न होने के कारण कई दर्शनों में यह असत्
का पर्याय हैं और वहीं काश्मीर शिवाद्वय दर्शन में इन्हें ज्ञान का विषय का होने
के कारण सत् (यानी जिसकी सत्ता है) समझा जाता है.
स्पिनोज़ा के ‘अस्तित्व’ को व्यवहारसत् (empirical reality) शब्दसे भी समझा जाता है.
५. स्व-कृत-
स्वकृत का उद्घोष मानव बुद्धि के केन्द्रीय सिद्धांत‘कारण-कार्यवाद’ से जुड़ा है.
स्पिनोजा के विपरीत बौद्ध आचार्य नागार्जुन ने अपने ग्रन्थ ‘मूलमाध्यमिक कारिका’ का आरम्भ अजातिवाद के उद्घोष से किया है – कोई भी पदार्थ कभी, कहीं और कथमपि उत्पन्न नहीं हो सकता; कोई पदार्थ न अपने आप उत्पन्न हो सकता है, न दूसरे के कारण, न अपने और दूसरे के कारण और न बिना कारण उत्पन्न हो सकता है.
स्पिनोजा के विपरीत बौद्ध आचार्य नागार्जुन ने अपने ग्रन्थ ‘मूलमाध्यमिक कारिका’ का आरम्भ अजातिवाद के उद्घोष से किया है – कोई भी पदार्थ कभी, कहीं और कथमपि उत्पन्न नहीं हो सकता; कोई पदार्थ न अपने आप उत्पन्न हो सकता है, न दूसरे के कारण, न अपने और दूसरे के कारण और न बिना कारण उत्पन्न हो सकता है.
न स्वतो नापि परतो न द्वभ्यां नाप्यहेतुत:.
उत्पन्ना जातु विद्यन्ते भावा: क्वचन केचन ॥ मूलमाध्यमिककारिका
१.१
हमें ध्यान रखना चाहिए कि इस तरह अलग परिभाषाएँ एवं स्वयंसिद्ध, नितांत भिन्न दार्शनिक प्रणाली बनाते हैं. जिस तरह शून्यवाद और शैव चिंतन अपनी परिभाषाओं एवं स्वयंसिद्धों से अलग तरह के प्रस्तावनाओं को प्रतिपादित करता है.
D II. A thing is called finite after its kind, when it can be limited by another thing of the same nature; for instance, a body is called finite because we always conceive another greater body. So, also, a thought is limited by another thought, but a body is not limited by thought, nor a thought by body.
परिभाषा २: किसी चीज़ को परिमित तब कहा जाता है जब वह अपने
ही प्रकृति के किसी दूसरी चीज़ (‘वस्तु’ या ‘विचार’)के द्वारा सीमित कर दिया जाता
है, एक
देह को परिमित इसीलिए कहा जाता है क्योंकि हम हमेशा एक दूसरे महत्तर देह की कल्पना
कर लेते हैं. ऐसे ही एक विचार दूसरे विचार के द्वारा परिमित है, लेकिन एक देह
विचारों से या एक विचार देह से परिमित नहीं है.
अंग्रेजी
शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
finite = परिमित
{अनुवादक की टिप्पणी – इस परिभाषा में ही पहली बार स्पिनोज़ा व्यवहार रूप में विचार (thought) और देह (body) में स्पष्ट भेद करते हैं. इस प्रत्यय को हम आगे के सिद्धांतों में देखेंगे.}
D III. By substance, I mean that which is in itself, and is conceived through itself: in other words, that of which a conception can be formed independently of any other conception.
परिभाषा ३: सत्त्व
से मेरा अर्थ, उससे
है जो स्वयं से है, स्वयं
से अवधारित है, अलग
शब्दों में, जिसका
अवधारण किसी भी दूसरी अवधारणा से मुक्त है.
अंग्रेजी
शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
substance = सत्त्व
{अनुवादक
की टिप्पणी – अन्य अवधारणा से मुक्त होने को स्थूल रूप में इस तरह से समझ
सकते हैं, जैसे गणित में बिन्दु की अवधारणा. बिन्दु की सम्बन्धित अवधारणा (constructive
conception) के लिए हमें किसी अन्य अवधारणा की, जैसे कोण या त्रिभुज
की, आवश्यकता नहीं पड़ती. वहीं रेखा की परिभाषा के लिए हमें बिन्दु की अवधारणा की भी
जरूरत पड़ती है. मोटे तौर पर, अन्य उदाहरण गंध या स्वाद के हैं, जो हमें सूँघने या
चखने से समझना पड़ता है; किसी विशिष्ट गंध या स्वाद को हम शब्दों से नहीं समझा
सकते हैं, यह इन्द्रियों के अनुभव का क्षेत्र हैं. }
D IV. By attribute, I mean that which the intellect perceives as constituting the essence of substance.
परिभाषा ४: गुण से मेरा मतलब, उससे है जिससे मति सत्त्व का सार-निर्माण अवधारित करती है.
अंग्रेजी
शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
attribute = गुण-धर्म
intellect= मति या बुद्ध
{अनुवादक की
टिप्पणी – सार को
व्यवहार जगत में गुण-धर्म से समझा जा सकता है. बुद्धि गुण-धर्म को जिस तरह से
ग्रहण करती है वह ज्ञानमीमांसा का विषय है. बहुत से दर्शन पद्धतियों में गुण-धर्म
ज्ञानेन्द्रियों से (देखना, सुनना, सूँघना, स्पर्श करना, चखना) या अनुमान से या आगम
(या शब्द) प्रमाण से ग्रहण करती है.
आचार्य नागार्जुन अपने ग्रन्थ मूलमाध्यमिककारिका में यह तर्क देते हैं कि सभी धर्म स्वभावशून्य हैं. इसे इस अर्थ में लिया जा सकता है कि किसी भी सार का गुण निर्धारण करते समय उसके लक्षण किसी अन्य मानदण्डों पर निर्धारित होंगे. उदाहरण के तौर पर आम का रस मीठा कहा जाता है. यहाँ रस का मीठा होना अन्य मीठे पदार्थों के सदृश होने से ही समझा जा सकता है.
आचार्य नागार्जुन अपने ग्रन्थ मूलमाध्यमिककारिका में यह तर्क देते हैं कि सभी धर्म स्वभावशून्य हैं. इसे इस अर्थ में लिया जा सकता है कि किसी भी सार का गुण निर्धारण करते समय उसके लक्षण किसी अन्य मानदण्डों पर निर्धारित होंगे. उदाहरण के तौर पर आम का रस मीठा कहा जाता है. यहाँ रस का मीठा होना अन्य मीठे पदार्थों के सदृश होने से ही समझा जा सकता है.
यहाँ ध्यान
देना होगा कि ‘अस्तित्व’ की अवधारणा इस दार्शनिक पद्धति में वस्तु के गुण-धर्म के
रूप में नहीं विचारी जा रही, जैसा कुछ अन्य दर्शनों में किया गया है. यहाँ
अस्तित्व होने पर ही गुण-धर्म की परिकल्पना की जा सकती है.}
D V. By mode, I mean the modifications[“Affectiones”] of substance, or that which exists in, and is conceived through, something other than itself.
परिभाषा ५: प्रणाली से मेरा तात्पर्य सत्त्व केउपांतर, या वो जिससे सत्त्व स्व से इतर सारगर्भित या अवधारित होता है.
अंग्रेजी
शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
modifications / Affectiones/ Affectio (in Latin) = व्युत्पत्ति/ उपातंरण
{अनुवादक
की टिप्पणी – प्रणाली का
अर्थस्पिनोज़ा का अर्थ यहाँ किसी क्रमबद्ध या नियमबद्ध उपांतरों से हैं, जो कि
कालबद्ध हो यह जरूरी नहीं.
स्पिनोजा अपने इस ग्रंथ में उपांतर (Affectiones/ Affectio) और प्रभाव (Affectus) की विशद चर्चा करते हैं जो कई बार अनुवाद की गलतियों का शिकार हो जाती है.
स्पिनोजा विचार और प्रभाव में गहरा भेद करते हैं, जिसके लिए हमें यहाँ सावधानी से प्रणाली की परिभाषा में उपांतर का अर्थ समझना होगा. विचार से स्पिनोजा का तात्पर्य ऐसा चिन्तन है जिसमें किसी चीज का प्रतिनिधित्व या निरूपण किया जा रहा हो. जैसे त्रिभुज का विचार, कुरसी का विचार, घर का विचार. हम अपनी भाषा से उस विचार को प्रतिनिधि के रूप में प्रकट कर सकते हैं और विचार विनिमय कर सकते हैं. प्रभावजन्य विचार या स्पिनोजा के शब्दों में ‘प्रभाव’ वैसे चिन्तन को कहते हैं जहाँ किसी चीज का बाह्य रूप में प्रतिनिधित्व नहीं हो सकता. जैसे आशा, प्रेम, घृणा – ये सभी चिन्तन किसी प्रभाव से उत्पन्न होते हैं पर बाह्य रूप में निरूपित नहीं किए जा सकते.
उपांतर एक तरह का विचार है, प्रभावजन्य विचार या ‘प्रभाव’ नहीं. उपांतर एक पिण्ड की वह अवस्था है जो किसी अन्य पिण्ड का कर्म का अधिकरण है, सरल शब्दों में किसी दूसरे पदार्थ के क्रिया की होने की जगह. उदाहरण के तौर पर जब सूरज की रौशनी हम पर पड़ती है तो हमारे शरीर पर क्या उपांतर आते हैं?इस तरह स्पिनोजा दो पिण्डों के मेल-जोल से प्रभावित पिण्ड के उपांतर को प्रणाली कहते हैं.
इस तरह हम उपांतर को निरूपित कर सकते हैं. उदाहरण के तौर लोहे की छड़ गरम कर देने पर विभिन्न आकार में ढ़ाली जा सकती है. खुरपी, हल, हथौड़ा – सभी लोहे के अस्तित्व की विभिन्न प्रणाली है. सोने की अँगूठी, सोने का हार, सोने का कर्णफूल – सभी सोने के अस्तित्व की विभिन्न प्रणाली है जिसे हम नामरूप की उपाधियों से समझते हैं.
यह अनुवादकों
का मत है कि इस तरह की नामरूप की भिन्नता ही स्पिनोजा की प्रणाली है.
D VI. By God, I mean a being absolutely infinite—that is, a substance consisting in infinite attributes, of which each expresses eternal and infinite essentiality.
Explanation—I say absolutely infinite, not infinite after its kind: for, of a thing infinite only after its kind, infinite attributes may be denied; but that which is absolutely infinite, contains in its essence whatever expresses reality, and involves no negation.
परिभाषा ६: ईश से मेरा अर्थ, उस सत्ता से है जो पूर्णतया अपरिमित है, एक सत्त्व, जिसके असीमित
गुण है, और
हरेक सनातन अनंत तात्त्विकता को प्रेषित करता है.
व्याख्या –
मैं कहता हूँ पूर्णतया अपरिमित,
अपने प्रकार से नहीं केवल,
या अपने प्रकार में नहीं केवल,
अनंत गुण नकारे जा सकते है,
लेकिन वह जो समग्रता में अपरिमित है,
जिसके सार में सारगर्भित है,
वह जो वास्तविकता को अभिव्यक्त करता है,
जिसमें कोई प्रतिवाद नहीं है.
अंग्रेजी
शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
God = ईश
eternal = अनंत
{अनुवादक
की टिप्पणी – ईश की
परिभाषा स्पिनोज़ा अनंत से करते हैं जो कि अनंत गुण-धर्म या अनंत वस्तुओं के
प्रकार या किसी एक वस्तुके अनंत आरूप से न हो कर, समस्त वास्तविकता को समेटे हुए और
अविरोधी होने से है.}
D VII. That thing is called free, which exists solely by the necessity of its own nature, and of which the action is determined by itself alone. On the other hand, that thing is necessary, or rather constrained, which is determined by something external to itself to a fixed and definite method of existence or action.
परिभाषा ७: उस चीज़ को स्वतंत्रकहा जा सकता है, जो केवल, अपने प्रकृति
के आवश्यकताओं से अस्तित्व में है,
जिसके कार्य केवल उसी के द्वारा निर्धारित किये जाते हैं. इसके ठीक विपरीत, वह चीज़ आवश्यक
या विवश हैं, जिनका
निर्धारण स्वयं से इतर बाह्य कारकों के द्वारा होता है , जो एक नियतव
निश्चित प्रक्रिया द्वारा अस्तित्व में आता है और कार्य करता है.
अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
Free = स्वतंत्र
{अनुवादक की
टिप्पणी – काश्मीर
शिवाद्वयवाद में स्वातन्त्र्य की अवधारणा अपने विचार से च्युत हुए बिना ‘गति-सामर्थ्य’
की ओर इंगित करता है (देखें अभिनवगुप्त की ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविवृतिविमर्शनी).
इस परिभाषा की दूसरी पंक्ति में परतंत्र की अपेक्षा वस्तु या पुरुष की विवशता को
आवश्यक कह कर उसे नियमों से बंधा हुआ बता कर स्पिनोज़ा स्वातन्त्र्य पर गहरी
दृष्टि रखते हैं. इसे हम आगे देखेंगे. }
D VIII. By eternity, I mean existence itself, in so far as it is conceived necessarily to follow solely from the definition of that which is eternal.
Explanation—Existence of this kind is conceived as an eternal truth, like the essence of a thing, and, therefore, cannot be explained by means of continuance or time, though continuance may be conceived without a beginning or end.
परिभाषा८:
शाश्वत से मेरा अर्थ स्वयं अस्तित्व (सत्ता) से है, तबतक जबतक कि वह केवल : शाश्वत क्या है, इसकी परिभाषा से अनुगमन
से अवधारित होती है.
व्याख्या: इस
प्रकार काअस्तित्व (सत्ता) एक शाश्वत सत्य के रूप में कल्पित है, जैसे, किसी चीज़ का
सार, और
इसलिए, इसकी
व्याख्या निरंतरता और समय के साधनों से नहीं की जा सकती, हालाँकि
निरंतरता की कल्पना बिना किसी शुरुआत या अंत के की जा सकती है.
अंग्रेजी
शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
Eternity = शाश्वत
Existence = अस्तित्व,
सत्ता, व्यवहारसत्
{अनुवादक
की टिप्पणी – शाश्वतिकता अस्तित्व
(सत्ता) से ही परिभाषित की जा सकती है, जिसके लिए काल की अवधारणा आवश्यक नहीं. इस
पर विशेष टिप्पणी आगे के प्रस्तावनाओं में देखेंगे.}
Axioms
स्वयं सिद्ध
-------------
I. Everything which exists, exists either in itself or in something else.
स्वयंसिद्ध १: वह जो अस्तित्व में हैं या तो स्वयं में हैं या अन्य में है.
{अनुवादक की टिप्पणी – जैसा कि हम देख चुके है, एक सत्त्वस्वयं में हैं, और एक प्रणाली अन्य में है.}
II. That which cannot be conceived through anything else must be conceived through itself.
स्वयंसिद्ध २: वह जो किसी दूसरे से माध्यम से अवधारणा में नहीं लाया जा सकता, स्वयं से अवधारित है.
III. From a given definite cause an effect necessarily follows; and, on the other hand, if no definite cause be granted, it is impossible that an effect can follow.
स्वयंसिद्ध ३:एक दिए गए निर्धारित कारण से कार्य अनिवार्यत: अनुगमन करता है, और ठीक इसके विपरीत, अगर कोई निर्धारित कारण न हो तो कोई कार्य होना असम्भव है.
{अनुवादक की टिप्पणी – ‘effect’ का अनुवाद यहाँ ‘प्रभाव’ के अपेक्षा कार्य करना ठीक है, क्योंकि इससे अन्य दार्शनिक चर्चाओं से संगति बैठती है, तथा अर्थ में कोई अवरोध नहीं उत्पन्न होता है. दूसरा कारण यह है कि हम प्रभाव शब्द का प्रयोग ‘affectus’ के अनुवाद के लिए कर रहे हैं.}
IV. The knowledge of an effect depends on and involves the knowledge of a cause.
स्वयंसिद्ध ४: किसी कार्यका ज्ञान उसके कारण पर और उस कारण के ज्ञानपर निर्भर करता है.
V. Things which have nothing in common cannot be understood, the one by means of the other; the conception of one does not involve the conception of the other.
स्वयंसिद्ध ५: अगर दो चीज़ों के बीच कुछ भी उभयनिष्ठ (सामान्य)न हो तो उन्हें एक दूसरे के माध्यम से नहीं समझा जा सकता- मतलब एक की अवधारणा दूसरे की अवधारणा से मुक्त होती है.
VI. A true idea must correspond with its ideate or object.
स्वयंसिद्ध ६:एक सत्य विचार अपने प्रयोजन या विषय वस्तु से सहमति में होना चाहिए.
{अनुवादक की टिप्पणी – स्पिनोजा यहाँ विचार का अर्थ बाह्य निरूपित होने वाले वस्तु से ले रहे हैं. इसे हम आगे के प्रस्तावनाओं में पाएँगे. }
VII. If a thing can be conceived as non-existing, its essence does not involve existence.
स्वयंसिद्ध७:अगर किसी चीज़ की अवधारणाउसके न होने से है तो उसका सार अस्तित्व (सत्ता) से नहीं है.
{अनुवादक की टिप्पणी – चूँकि स्पिनोजा सत्य विचार को बाह्य वस्तु के निरूपण से लेते हैं इसलिए यह कहा जा सकता है कि वे महायान बौद्धों की तरह आकाशकुसुम, शशविषाण, वन्ध्यापुत्र को असत् ही मानेंगे. देश काल में स्थित सफेद झूठ (तथ्यों के विपरीत भाषण) तो असत् है ही. }
Propositions
प्रस्ताव
प्रस्ताव
Prop. I. Substance is by nature prior to its modifications.
प्रस्ताव १. सत्त्व अपने प्रकृतिनुसार अपने अवस्थाओं और उपान्तरों (प्रणाली) से पहले है.
प्रमाण-
यह परिभाषा ३और परिभाषा ५से स्पष्ट हो जाता है.
Prop. II.Two substances, whose attributes are different, have nothing in common.
प्रस्ताव 2 : दो सत्त्व जिनके गुण भिन्न हो,उनके बीच कुछ भी उभयनिष्ठ (सामान्य) नहीं होता.
Proof.—Also evident from Def. iii. For each must
exist in itself, and be conceived through itself ; in other words, the
conception of one does not imply the conception of the other.
प्रमाण- यह परिभाषा ३से स्पष्ट हो जाता है. प्रत्येक सत्त्व का स्वयं में और स्वयं के द्वारा कल्पनीय होना, अर्थात एक सत्त्व की संकल्पना (अवधारणा) में किसी दूसरे सत्त्व की संकल्पना (अवधारणा) का समावेशित न होना.
Prop. III.Things which have nothing in common cannot be one the cause of the other.
प्रस्ताव 3. अगर दो चीज़ों के बीच कुछ भी उभयनिष्ठ (सामान्य) न हो, तो वो एक दूसरे का कारण नहीं हो सकती.
Proof.—If they have nothing in common, it
follows that one cannot be apprehended by means of the other (Ax. v.),
and, therefore, one cannot be the cause of the other (Ax. iv.).
Q.E.D.
प्रमाण - अगर उनमें परस्पर कुछ भी उभयनिष्ठ (सामान्य)न हो तो उन्हें एक दूसरे के माध्यम से नहीं समझा जा सकता, और वो एक दूसरे का कारण भी नहीं हो सकती. (स्वयंसिद्ध ४-५)
Prop. IV.Two or more distinct things are distinguished one from the other, either by the difference of the attributes of the substances, or by the difference of their modifications.
प्रस्ताव ४. दो या अधिक चीजें एक दूसरे से अलग या तो सत्त्व के गुण-धर्मों के अंतर के कारण या फिर अपने उपातंरों (प्रणाली) में भेद के कारण पहचानी जाती हैं.
Proof.—Everything which exists, exists either in itself or in something else (Ax. i.),—that is (by Deff. iii. and v.), nothing is granted in addition to the understanding, except substance and its modifications. Nothing is, therefore, given besides the understanding, by which several things may be distinguished one from the other, except the substances, or, in other words (see Ax. iv.), their attributes and modifications. Q.E.D.
प्रमाण- जो भी अस्तित्व में है, वह या तो स्वयं से है या अन्य से (स्वयंसिद्ध १), जिसका अर्थ (परिभाषा ३ और ५ से) यह है कि हमारे बोध के लिए सत्त्व और उनकी अवस्थाओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है. हमारे बोध के अलावा कुछ भी नहीं जिससे बहुत सी चीजें एक दूसरे अलग पहचानी जाए, सिवा सत्त्व या दूससे शब्दों में (स्वयंसिद्ध ४) उसके गुण और उपांतरों के.
{अनुवादक की टिप्पणी:‘भेद’ की अवधारणा भारतीय दर्शन में सर्वाधिक चर्चित रही है. द्वैत, अद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, काश्मीर शिवाद्वय और बौद्धों में इस पर गहरा विचार हुआ है.
दार्शनिक चर्चा में भेद को तीन अर्थों में लिया जाता है – १. अन्योन्याभाव २. वैधर्म्य ३. वस्तु का स्वरूप. शिवाद्वयवादी दार्शनिक अन्योन्याभाव (स्तम्भ में कुम्भ का अभाव, कुम्भ में स्तम्भ का अभाव), वैधर्म्य (गुण-धर्मों की विषमता) और वस्तु के स्वरूप – तीनों को ही भेद के लिए अपर्याप्त मानते हैं. क्षेमराज के शिष्य महेश्वरानन्द अपने ग्रंथ ‘महार्थमंजरी परिमल’ में यह घोषित करते हैं कि स्तम्भ से कुम्भ भिन्न है और कुम्भ से स्तम्भ भिन्न है, इत्यादि रूप ही भेद-व्यवहार है और इस भेद की सिद्धि प्रमाता में विश्रान्त होने पर शान्त होती है.
यहाँ यह नोट करने योग्य है कि स्पिनोजा भेद को व्यवहारिक वैधर्म्य स्वरूप में ले रहे हैं और साथ ही भेद को प्रमाता की बुद्धि में स्थित भी मान कर व्याख्या कर रहे हैं. इसका कारण यह है कि स्पिनोज़ा भेद को कार्य के रूप में ले कर उसका कारण स्व-कृत सत्त्व को लेते हैं.}
Prop. V. There cannot exist in the universe two or more substances having the same nature or attribute.
प्रस्ताव ५. प्रकृति में दो या दो से ज्यादा सत्त्व एक ही गुण या प्रकृति के नहीं हो सकते.
Proof.—If several distinct substances be granted, they must be distinguished one from the other, either by the difference of their attributes, or by the difference of their modifications (Prop. iv.). If only by the difference of their attributes, it will be granted that there cannot be more than one with an identical attribute. If by the difference of their modifications—as substance is naturally prior to its modifications (Prop. i.),—it follows that setting the modifications aside, and considering substance in itself, that is truly, (Deff. iii. and vi.), there cannot be conceived one substance different from another,—that is (by Prop. iv.), there cannot be granted several substances, but one substance only. Q.E.D.
प्रमाण- अगर बहुत से सत्त्व मान लिए जाएँ, तो वे एक दूसरे से वैधर्म्य या एक दूसरे के उपांतरों (प्रणालियों) के अंतर से पहचाने जा सकेंगे (प्रस्ताव ४). अगर केवल वैधर्म्य को माना जाए, तो यह मानना पड़ेगा कि एक से अधिक सत्त्व नहीं हो सकते, जिनमें सारे समान धर्म मौजूद हों. अगर केवल उपांतरों का भेद माना जाय – जैसा कि सत्त्व अपने उपांतरों (प्रणाली) से पहले है (प्रस्ताव १) – यह प्रतिपादित होता है कि उपांतरों को अलग रख कर, सत्त्व अपने आप में, यह सत्य है (परिभाषा ३ और परिभाषा ६ से), एक दूसरे से अलग सत्त्व नहीं हो सकते, अत: (प्रस्ताव ४) वहाँ एक से अधिक सत्त्व नहीं माने जा सकते, केवल एक ही सत्त्व होगा.
{ अनुवादक की टिप्पणी: यहाँ स्पिनोजा अपना ‘अद्वैतवाद’ प्रतिपादित करते हैं. हम आगे देखेंगे कि स्पिनोजा किस तरह बाह्य वस्तु की सत्ता को सत् मान कर और चेतना को भी सत् मान कर अपना सिद्धांत स्थापित करते हैं. यहाँ यह उद्धृत करना उपयोगी है कि अद्धैत वेदांत में बाह्य वस्तु की सत्ता को प्रातिभासिक माना गया है और वहाँ अद्वैत का अर्थ जीव और ब्रह्म की एकता से है, न कि वस्तु और चेतना की एकता से, जो इस दर्शन में सत्त्व की प्रणाली से परिभाषित है. }
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प्रचण्ड प्रवीर : बारुक स्पिनोज़ा के ‘नीतिशास्त्र’ को कैसे पढ़ें?
प्रत्यूष पुष्कर : स्पिनोज़ा की दार्शनिक अवधारणाएँ
प्रचण्ड प्रवीर : बारुक स्पिनोज़ा के ‘नीतिशास्त्र’ को कैसे पढ़ें?
प्रत्यूष पुष्कर : स्पिनोज़ा की दार्शनिक अवधारणाएँ
प्रत्यूष पुष्कर
लेखक/कवि. बहुआयामी कलाकार. संगीतज्ञ.
शिक्षा : जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय
प्रचण्ड प्रवीर बिहार के मुंगेर जिले में जन्मे और
पले बढ़े हैं . इन्होंने सन् २००५ में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली से
रासायनिक अभियांत्रिकी में प्रौद्योगिकी स्नातक की उपाधि ग्रहण की . सन् २०१० में
प्रकाशित इनके पहले उपन्यास अल्पाहारी गृहत्यागी: आई आई टी
से पहले ने कई युवा
हिन्दी लेखकों को प्रेरित किया . सिनेमा अध्ययन और हिन्दी के वरिष्ठ आलोचकों ने
सन् २०१६ में प्रकाशित इनकी कथेतर पुस्तक, अभिनव सिनेमा: रस सिद्धांत के
आलोक में विश्व सिनेमा का परिचय की, नई
अध्ययन-दिशा देने के लिए प्रशंसा की . सन् २०१६ में ही इनका पहला कथा संग्रह जाना नहीं दिल से
दूर प्रकाशित हुआ, जिसे हिन्दी कहानी-कला में एक नये चरण
को प्रारम्भ करने का श्रेय दिया जाता है . इनका पहला अंग्रेजी कहानी संग्रह भूतनाथ मीट्स
भैरवी सन् २०१७ में
प्रकाशित हुआ .
prachand @gmail.com
prachand
प्रचंड और प्रत्यूष का यह महत्वपूर्ण कार्य है । इसे पुस्तकाकार में प्रकाशित करने की क्या योजना है ?
जवाब देंहटाएंA very good initiative. More Western philosophers should be made available for the Hindi reader.
जवाब देंहटाएंबधाई ,इसे पुस्तकाकार दिया जाय बहुत दिनों से मुझे तलाश थी ।संग्रहणीय संकलन । समालोचन को कोटिशः धन्यवाद
जवाब देंहटाएंयह एक अति महत्त्वपूर्ण काम है। समालोचन को बधाई। यह अंश पढ़कर आश्वस्ति का भाव जगता है कि दोनों प्रतिभाशाली अनुवादकों ने पुस्तक के साथ न्याय किया होगा। प्रतीक्षा है।
जवाब देंहटाएंबहुत बधाई। बहुत महत्वपूर्ण।
जवाब देंहटाएंदर्शन अपनेआप में मेटाफर रहा मेरे लिए। मेटा लैंग्वेज और दुरूह अवधारणाएं। पर इस अनुवाद की भारतीय परंपरा में टीका हम जैसे बहुत साधारण पाठकों की मदद करती है और अनुवाद सहज हो जाता है।
जवाब देंहटाएंबहुत महत्त्वपूर्ण काम।
ब
अतुलनीय और प्रशंसनीय प्रयास दोनों ही साधुवाद के पात्र हैं।
जवाब देंहटाएंaap sab ke likhne kay trika ka main fan hu
जवाब देंहटाएंगज़ब.. गज़ब.. इस ऐतिहासिक कार्य के लिए बधाई मित्रवर..
जवाब देंहटाएंयह महत्वपूर्ण कार्य है. लेकिन, सप्रेम आग्रह है कि मदनलाल 'मधु' टाइप अनुवाद से बचा जाये. अनुवाद कैसा नहीं होना चाहिए, यह प्रगति प्रकाशन की पुस्तकों से जाना जा सकता है.
जवाब देंहटाएंभाषा बहुत ही अधिक संस्कृतनिष्ठ है. अब ऐसी हिंदी न तो पढ़ी जाती है, और न ही इसकी उपयोगिता बची है. प्रगति प्रकाशन के अनुवादों ने हिंदी पट्टी में साम्यवाद की समस्त संभावनाओं का संहार अपनी क्लिष्टता से किया है. भाषा सुगम होनी चाहिए. भारतीय ग्रंथों के यूरोपीय अनुवाद इसके अच्छे उदाहरण हैं.
जवाब देंहटाएंJo darshan ki kitaabe syllabus me hain, unki apni ek nirdharit bhasha hai, hamen usi nirdharit bhasha me se sandarbh aur shabd dhoondhne pade. Do hisse hai, pahla anuvaad jise Hindi ke darshan ke students ko dimag me rakhkar kiya gaya. Doosra bharteey darshan se sandarbh, jo apne moolroop ya primarily derived roopo me bhi sanskrit nishth hai. Halanki mai khud deconstructive approach rakhta hu lekin yahan Spinoza ke text ki pregnancy ko saralikrit karna galat ho jayega jyadatar jagaho par, doosra yah kaam shatabdiyo purana bhi hai, aap spanish me bhi ethics padhe to ek ragular spanish ya catalonian speaker ke palle bahut kuchh nahi pad paata, ispar aur प्रचण्ड bhi apni baat kahenge.
जवाब देंहटाएंजी, आपकी चिंता जायज है। इसका ध्यान रखेंगे। लेकिन दर्शन के चर्चा में मूल शब्दों का प्रयोग आवश्यक है। 'मति', 'सत्त्व', 'अस्तित्व' जैसे शब्द का प्रयोग करना ही पड़ेगा। यह निजी आग्रह का विषय है कि प्रयोग को इस्तेमाल और आवश्यक को जरूरी लिखा जाय। अगर हिन्दी के लोग हिन्दी नहीं पढ़ना चाहेंगे, तो मेरी समझ में नहीं आता कि अच्छी हिन्दी कहाँ जाए?
जवाब देंहटाएंबहरहाल, यह बढ़िया कार्य हो रहा है.
जी धन्यवाद। यह काम लम्बा चलेगा। आपके विचार और सुझावों का स्वागत रहेगा। आशा है अग्रज होने के नाते आप हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे। गलतियों पर ध्यान दिलाते रहिए और कुछ जोड़ना हो तो अवश्य बताइए।
जवाब देंहटाएंदर्शन अपने आप मे ही दुरूह विषय है , उस पर स्पिनोज़ा को समझना । मेरी सिर्फ यही गुजारिश थी कि भाषा की प्रवहमानता थोड़ी और हो जाय , बाकी दार्शनिक शब्दावलियों में कोई बदलाव तो हो नहीं सकता।
जवाब देंहटाएंआप दोनों ने अतुलनीय कार्य किया है , दोनों ही बधाई के पात्र हैं .
जितना अनुवाद अँश मैँ ने देखा पसन्द आया , विशेषत: उस की व्यख्या जिस मेँ उपनिषद का उल्लेख है ।
जवाब देंहटाएंPratyush जितना यहाँ दिया गया है वह बहुत बढ़िया है। भाषा प्रांजल है, दुरूह नहीं। दर्शन चलताऊ भाषा में नहीं लिखा जा सकता। बहुत अच्छा प्रयास, इसे पुस्तक रूप में लाओ।
जवाब देंहटाएंबाक़ी अंश भी ज़रूर प्रस्तुत करें। समालोचन पर ही।
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा प्रयास है। दर्शन का विद्यार्थी रहा हूँ और सिविल सर्विस में भी इसी विषय से प्रवेश किया हूँ
जवाब देंहटाएंइस योगदान को समझ सकता हुँ।
ऐसे काम को खूब - खूब पाठक मिलेंगे । गज़ब लिखा है। दोनों लेखकों को बधाई व शुभकामनाएँ ।
जवाब देंहटाएं: कमल जीत चौधरी ।
स्पिनोज़ा जैसे दार्शानिक के वैचारिक तथ्य को सुगमता के साथ लॉजिक रूप मे समझा देना बहुत महत्वपूर्ण है
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